06-02-2024, 04:54 AM
(This post was last modified: 18-08-2024, 08:21 PM by rohitkapoor. Edited 2 times in total. Edited 2 times in total.)
दूसरे दिन सुबह-सुबह मैं रिश्तेदारों से मिलने जाने के लिये बुऱका पहने शौहर असलम के साथ निकली। बलराम भी बाहर खड़ा सिगरेट पी रहा था। असलम मिय़ाँ अपनी पुरानी गाड़ी स्टार्ट करने लगे और मैं खड़ी होकर बलराम से इशारे लड़ाने लगी। कभी वो किस करने का इशारा करता कभी असलम की छोटी लुल्ली पर हंसकर हाथ से बताता। मैं भी बाहर खड़ी होकर कभी अपनी मुस्लि़म चूची उभार कर दिखाती और कभी हवा में किस करती कभी अपना अंगुठा मुँह में डाल कर लंड चूसने का इशारा करती। फिर गाड़ी स्टार्ट हुई तो मैं पीछे बैठ कर जाते हुए बलराम को अपना हिजाब हटा कर किस करती हुई चली गयी।
उस दिन से मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी। शुरू-शुरू में मैंने रमेश और बलराम दोनों को एक -दूसरे के बारे में नहीं बताया। मुझे डर था कि उन दोनों में से कहीं कोई नाराज़ ना हो जाये और मैं उन दोनों में से किसी को भी खोना नहीं चाहती थी। मैंने रमेश से बहाना बना दिया कि मेरे शौहर को हमारे तल्लुकात के बारे में शक हो गया है और इसलिये मैं उससे रात को छत्त पर नहीं मिल पाउँगी। दिन में वो जब चाहे मुझे चोद सकता है। उधर बलराम से मैं रात को ही मिल सकती थी क्योंकि दिनभर वो अपने शोरूम में होता था। अब मैं दिन में शौहर के जाने के बद रमेश के ह़िंदू लंड की रखैल बन कर चुदती। फिर रात को असलम मियाँ के नशे में चूर हो जाने के बाद मैं भी शराब पी कर छत्त पर बलराम के मूसल ह़िंदू से चुदने पहुँच जाती और आधी रात के बाद तक उसके साथ चुदवा कर नशे में झूमती हुई वापस नीचे आती।
हर रोज़ सुबह-सुबह मैं उसका ताज़ा पेशाब पीने छत्त पर पहुँच जाती। उस वक्त शौहर असलम मियाँ नीचे तैयार हो रहे होते थे। मुझे पेशाब पीने की इतनी लत्त लग गयी कि जब मैं रमेश के साथ होती तो उसका पेशाब भी पीने लगी और यहाँ तक कि कुछ ही दिनों में अपना खुद का पेशाब भी पीना शुरू कर दिया। अब तो आलम ये है कि जब कभी भी मुझे मूतना होता है तो मैं बाथरूम जाने की बजाय एक बड़े गिलास में ही पेशाब करती हूँ और फिर मज़े ले-ले कर पीती हूँ।
बलराम मुझे बहुत ही ज़लील तरीके से रंडी की तरह चोदता था। मुझसे हमेशा नयी-नयी ज़लील और ज़ोखिम भरी हरकतें करवा कर मुझे गरम करता था और मुझे भी इसमें बेहद मज़ा आता था और मैं भी उसकी हर फरमाइश पुरी रज़ामंदी से पूरी करती थी। बलराम हर हफ्ते मुझे नये-नये फैशन की ऊँची हील वाली सैंडल की एक-दो जोड़ी तोहफे में देता था। एक बार उसने बहुत ही कीमती और खूबसुरत ऊँची हील के सैंडलों की जोड़ी दिखाय़ी और बोला कि अगर मुझे चाहिये तो उसके शो-रूम पर आकर लेने होंगे लेकिन मुझे सिर्फ बुऱका पहन कर आना होगा। पैरों में सैंडलों के आलावा बुऱके के नीचे कुछ भी पहनने से मना कर दिया। अगले ही दिन मैंने सिर्फ बुऱका और ऊँची हील के सैंडल पहने और बिल्कुल नंगी रिक्शा में बैठ कर बाज़ार पहुँच गयी। फिर वैसे ही भीड़भाड़ वाले बज़ार में भी करीब आधा किलोमितर पैदल चल कर बलराम के शो-रूम पर पहुँची।
ऐसे ही करीब चार महीने निकल गये। इस दौरान मैंने चुदक्कड़पन की तमाम हदें पार कर दीं। रात को तो मैं अब असलम मियाँ की शराब में नींद की गोलियाँ मिला देती ताकि सुबह तक खर्राटे मार कर सोता रहे। मैं अब छत्त से होकर बलराम के घर में उसके बिस्तर में पुरी-पूरी रात गुज़रने लगी। कईं बार बलराम रात को हमरे घर आ जाता और हम दोनों शौहर असलम मियाँ की मौजूदगी में रात भर ऐय्याशी करते। फिर एक दिन रमेश को मेरे और बलराम के रिश्ते के बारे में पता चल गया। पहले तो थोड़ा नाराज़ हुआ पर फिर मैंने प्यार से उसे मना लिया और बलराम को भी रमेश से अपने ताल्लुकतों के बारे में बता दिया। फिर तो दोनों ह़िंदू मर्द मिलकर अक्सर रात-रात भर मुझे चोदने लगे। कभी छत्त पर तो कभी बलराम के घर में और कभी मेरे ही घर में। दोनों एक साथ मेरी गाँड और चूत में अपने-अपने ह़िंदू हलब्बी मर्दना लण्ड डाल कर चोदते तो मैं मस्ती में चींखें मार-मार कर दोहरी चुदाई का मज़े लेती।
ये सिलसिला करीब एक साल तक चला। फिर एक दिन अचानक मेरी ज़िंदगी में फिर से अंधेरा छा गया। मेरे शौहर असलम शरीफ का तबादला दूसरे शहर में हो गया। जिस्मनी तस्कीन और अपनी चूत की प्यास बुझाने के लिये मैं फिर बैंगन और मोमबत्ती जैसी बेजान चीज़ों की मातहत हो गयी। लेकिन अब इस तरह मेरी प्यास नहीं बुझती थी। मुझे तो रमेश और बलराम के लंबे मोटे ह़िंदू हलब्बी मर्दाना लौड़ों से दिन रात चुदने और दोहरी चुदाई की इतनी आदत हो गयी थी कि मैं कितनी भी कोशिश करती और घंटों अपनी चूत और गाँड में मोटी-मोटी मोमबत्तियाँ और दूसरी बेजान चीज़ें घुसेड़-घुसेड़ कर चोदती लेकिन करार नहीं मिलता। इसी दौरान हमारे घर से थोड़ी दूर एक मदरसे में उस्तानी की ज़रूरत थी तो मैंने दरख्वास्त दे दी और मेरा इन्तखाब भी हो गया। अब मैं सुबह दस बजे से दोपहर में दो बजे तक मदरसे में छोटे बच्चों को पढ़ाने लगी। इस वजह से अब कम से कम आधा दिन तो अब मैं मसरूफ रहने लगी।
उस दिन से मेरी ज़िंदगी ही बदल गयी। शुरू-शुरू में मैंने रमेश और बलराम दोनों को एक -दूसरे के बारे में नहीं बताया। मुझे डर था कि उन दोनों में से कहीं कोई नाराज़ ना हो जाये और मैं उन दोनों में से किसी को भी खोना नहीं चाहती थी। मैंने रमेश से बहाना बना दिया कि मेरे शौहर को हमारे तल्लुकात के बारे में शक हो गया है और इसलिये मैं उससे रात को छत्त पर नहीं मिल पाउँगी। दिन में वो जब चाहे मुझे चोद सकता है। उधर बलराम से मैं रात को ही मिल सकती थी क्योंकि दिनभर वो अपने शोरूम में होता था। अब मैं दिन में शौहर के जाने के बद रमेश के ह़िंदू लंड की रखैल बन कर चुदती। फिर रात को असलम मियाँ के नशे में चूर हो जाने के बाद मैं भी शराब पी कर छत्त पर बलराम के मूसल ह़िंदू से चुदने पहुँच जाती और आधी रात के बाद तक उसके साथ चुदवा कर नशे में झूमती हुई वापस नीचे आती।
हर रोज़ सुबह-सुबह मैं उसका ताज़ा पेशाब पीने छत्त पर पहुँच जाती। उस वक्त शौहर असलम मियाँ नीचे तैयार हो रहे होते थे। मुझे पेशाब पीने की इतनी लत्त लग गयी कि जब मैं रमेश के साथ होती तो उसका पेशाब भी पीने लगी और यहाँ तक कि कुछ ही दिनों में अपना खुद का पेशाब भी पीना शुरू कर दिया। अब तो आलम ये है कि जब कभी भी मुझे मूतना होता है तो मैं बाथरूम जाने की बजाय एक बड़े गिलास में ही पेशाब करती हूँ और फिर मज़े ले-ले कर पीती हूँ।
बलराम मुझे बहुत ही ज़लील तरीके से रंडी की तरह चोदता था। मुझसे हमेशा नयी-नयी ज़लील और ज़ोखिम भरी हरकतें करवा कर मुझे गरम करता था और मुझे भी इसमें बेहद मज़ा आता था और मैं भी उसकी हर फरमाइश पुरी रज़ामंदी से पूरी करती थी। बलराम हर हफ्ते मुझे नये-नये फैशन की ऊँची हील वाली सैंडल की एक-दो जोड़ी तोहफे में देता था। एक बार उसने बहुत ही कीमती और खूबसुरत ऊँची हील के सैंडलों की जोड़ी दिखाय़ी और बोला कि अगर मुझे चाहिये तो उसके शो-रूम पर आकर लेने होंगे लेकिन मुझे सिर्फ बुऱका पहन कर आना होगा। पैरों में सैंडलों के आलावा बुऱके के नीचे कुछ भी पहनने से मना कर दिया। अगले ही दिन मैंने सिर्फ बुऱका और ऊँची हील के सैंडल पहने और बिल्कुल नंगी रिक्शा में बैठ कर बाज़ार पहुँच गयी। फिर वैसे ही भीड़भाड़ वाले बज़ार में भी करीब आधा किलोमितर पैदल चल कर बलराम के शो-रूम पर पहुँची।
ऐसे ही करीब चार महीने निकल गये। इस दौरान मैंने चुदक्कड़पन की तमाम हदें पार कर दीं। रात को तो मैं अब असलम मियाँ की शराब में नींद की गोलियाँ मिला देती ताकि सुबह तक खर्राटे मार कर सोता रहे। मैं अब छत्त से होकर बलराम के घर में उसके बिस्तर में पुरी-पूरी रात गुज़रने लगी। कईं बार बलराम रात को हमरे घर आ जाता और हम दोनों शौहर असलम मियाँ की मौजूदगी में रात भर ऐय्याशी करते। फिर एक दिन रमेश को मेरे और बलराम के रिश्ते के बारे में पता चल गया। पहले तो थोड़ा नाराज़ हुआ पर फिर मैंने प्यार से उसे मना लिया और बलराम को भी रमेश से अपने ताल्लुकतों के बारे में बता दिया। फिर तो दोनों ह़िंदू मर्द मिलकर अक्सर रात-रात भर मुझे चोदने लगे। कभी छत्त पर तो कभी बलराम के घर में और कभी मेरे ही घर में। दोनों एक साथ मेरी गाँड और चूत में अपने-अपने ह़िंदू हलब्बी मर्दना लण्ड डाल कर चोदते तो मैं मस्ती में चींखें मार-मार कर दोहरी चुदाई का मज़े लेती।
ये सिलसिला करीब एक साल तक चला। फिर एक दिन अचानक मेरी ज़िंदगी में फिर से अंधेरा छा गया। मेरे शौहर असलम शरीफ का तबादला दूसरे शहर में हो गया। जिस्मनी तस्कीन और अपनी चूत की प्यास बुझाने के लिये मैं फिर बैंगन और मोमबत्ती जैसी बेजान चीज़ों की मातहत हो गयी। लेकिन अब इस तरह मेरी प्यास नहीं बुझती थी। मुझे तो रमेश और बलराम के लंबे मोटे ह़िंदू हलब्बी मर्दाना लौड़ों से दिन रात चुदने और दोहरी चुदाई की इतनी आदत हो गयी थी कि मैं कितनी भी कोशिश करती और घंटों अपनी चूत और गाँड में मोटी-मोटी मोमबत्तियाँ और दूसरी बेजान चीज़ें घुसेड़-घुसेड़ कर चोदती लेकिन करार नहीं मिलता। इसी दौरान हमारे घर से थोड़ी दूर एक मदरसे में उस्तानी की ज़रूरत थी तो मैंने दरख्वास्त दे दी और मेरा इन्तखाब भी हो गया। अब मैं सुबह दस बजे से दोपहर में दो बजे तक मदरसे में छोटे बच्चों को पढ़ाने लगी। इस वजह से अब कम से कम आधा दिन तो अब मैं मसरूफ रहने लगी।