20-07-2022, 12:28 AM
मैं शर्मसार होते हुए थोड़े गुस्से से बोली, “छी… ऐसा कुछ नहीं है… ऐसे बोलोगे तो मैं टाँगे पर चली जाऊँगी!” लेकिन ये तो मैं ही जानती थी कि मेरी धमकी कितनी खोखली थी क्योंकि उनके लौड़ों से अपनी प्यास बुझाने के लिये तो उस वक्त मैं कितनी भी ज़िल्लत बर्दाश्त करने को तैयार थी।
ढाबेवाला भी पीछे नहीं रहा और बोला, “अच्छा फिर तेरा ससुर या टाँगे पर बैठा देवर तो चोद ही देता होगा… क्यों है ना!”
“नहीं ऐसा कुछ नहीं है… देवर तो बिल्कुल लल्लू है… कईं बार कोशिश की है लेकिन वो नामुराद लिफ्ट ही नहीं लेता!” मैं भी नरम पड़ कर उनके साथ उस गुफ़्तगू में शामिल हो गयी। उन अजनबियों को ये सब बताते हुए मुझे बेहद अच्छा महसूस हुआ।
टाँगेवाला बोला, “तू तो असली राँड है… अपने सगे देवर से चूत चुदवाना चाहती है… लाऊँ उसे उठा कर…. ससुर से तो मरवाती ही होगी ना?”
“नहीं… ये क्या कह रहे हो… छी! ससुर नहीं हैं और देवर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं है… वैसे वो सगा देवर नहीं है!”
“ठीक है पर मूत तो पीयेगी ना? पहले किसी का मूत पीया है कभी?”
“तुम लोग मुझे इतना ज़लील क्यों कर रहे हो…? जो करना है जल्दी करो नहीं तो वो बुड्ढी भी जाग जायेगी!” वैसे वो मुझे क्या ज़लील करते जब मैं खुद ही उन दो अजनबियों के सामने बगैर स्लिप के पतला सा झलकदार लहंगा और उँची पेन्सिल हील के सैंडल पहने करीब-करीब नंगी खड़ी थी और अपनी रज़ामंदी से उन्हें अपने जिस्म से खेलने की हर तरह की आज़ादी दे रखी थी। मुझे मालूम था कि अब मैं उस मक़ाम तक आ गयी थी जहाँ से वापस मुड़ना मेरे बस में नहिं था। मेरे अंदर दबी हुई हवस और जिस्म की चुदासी आग ने मुझ पे इस हद तक अपना इख्तयार कर लिया था कि अब अपनी चूत की प्यास बुझाने के अलावा मुझे और कुछ होश नहीं था।
“साली मूत नहीं पीना तो दारू तो पी ले… शहरी राँड है तू… दारू तो तू पीती ही होगी… ले दो घूँट लगा ले!” टाँगेवाला बोतल मेरी तरफ पकड़ाते हुए बोला।
“नहीं… मैं ये ठर्रा नहीं पीती… अब तुम…” मैं मना करने लगी तो ढाबेवाला मेरी बात काटते हुए थोड़ा ज़ोर से बोला, “साली नखरा मत कर… अब विलायती दारू नहीं है यहाँ… हमारे साथ दो-चार घूँट देसी दारू पी लेगी तो मर नहीं जायेगी… मूत पीने से तो अच्छा ही है ना… बोल साली ठर्रा पीती है कि जबरदस्ती मूत पिलाऊँ तुझे अपना…!”
ढाबेवाला भी पीछे नहीं रहा और बोला, “अच्छा फिर तेरा ससुर या टाँगे पर बैठा देवर तो चोद ही देता होगा… क्यों है ना!”
“नहीं ऐसा कुछ नहीं है… देवर तो बिल्कुल लल्लू है… कईं बार कोशिश की है लेकिन वो नामुराद लिफ्ट ही नहीं लेता!” मैं भी नरम पड़ कर उनके साथ उस गुफ़्तगू में शामिल हो गयी। उन अजनबियों को ये सब बताते हुए मुझे बेहद अच्छा महसूस हुआ।
टाँगेवाला बोला, “तू तो असली राँड है… अपने सगे देवर से चूत चुदवाना चाहती है… लाऊँ उसे उठा कर…. ससुर से तो मरवाती ही होगी ना?”
“नहीं… ये क्या कह रहे हो… छी! ससुर नहीं हैं और देवर को बुलाने की कोई जरूरत नहीं है… वैसे वो सगा देवर नहीं है!”
“ठीक है पर मूत तो पीयेगी ना? पहले किसी का मूत पीया है कभी?”
“तुम लोग मुझे इतना ज़लील क्यों कर रहे हो…? जो करना है जल्दी करो नहीं तो वो बुड्ढी भी जाग जायेगी!” वैसे वो मुझे क्या ज़लील करते जब मैं खुद ही उन दो अजनबियों के सामने बगैर स्लिप के पतला सा झलकदार लहंगा और उँची पेन्सिल हील के सैंडल पहने करीब-करीब नंगी खड़ी थी और अपनी रज़ामंदी से उन्हें अपने जिस्म से खेलने की हर तरह की आज़ादी दे रखी थी। मुझे मालूम था कि अब मैं उस मक़ाम तक आ गयी थी जहाँ से वापस मुड़ना मेरे बस में नहिं था। मेरे अंदर दबी हुई हवस और जिस्म की चुदासी आग ने मुझ पे इस हद तक अपना इख्तयार कर लिया था कि अब अपनी चूत की प्यास बुझाने के अलावा मुझे और कुछ होश नहीं था।
“साली मूत नहीं पीना तो दारू तो पी ले… शहरी राँड है तू… दारू तो तू पीती ही होगी… ले दो घूँट लगा ले!” टाँगेवाला बोतल मेरी तरफ पकड़ाते हुए बोला।
“नहीं… मैं ये ठर्रा नहीं पीती… अब तुम…” मैं मना करने लगी तो ढाबेवाला मेरी बात काटते हुए थोड़ा ज़ोर से बोला, “साली नखरा मत कर… अब विलायती दारू नहीं है यहाँ… हमारे साथ दो-चार घूँट देसी दारू पी लेगी तो मर नहीं जायेगी… मूत पीने से तो अच्छा ही है ना… बोल साली ठर्रा पीती है कि जबरदस्ती मूत पिलाऊँ तुझे अपना…!”