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बरसात की वह रात
#21
banana वचन सूत्र banana


























banana
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#22
नए घर को सजाने की इच्छा नयना में हमेशा से थी. जब किशोरावस्था में प्रवेश किया था, उसने तभी से पत्रिकाओं के गृहसज्जा विशेषांकों पर उसकी दृष्टि अटक जाया करती थी. मां से ज़िद कर वह इन पत्रिकाओं को ख़रीदती और फिर कई-कई बार पन्ने पलटकर अपने घर को सजाने के स्वप्न बुनती रहती. इतने वर्षोंपरांत आज उसकी ये इच्छा पूरी हो रही थी. शाश्वत का तबादला बैंगलोर में होने से वो अपना छोटा-सा नीड़ बसाने यहां आ गए थे. वैसे तो भोपाल की अरेरा कॉलोनी में भी उनका शानदार मकान है, किन्तु एक बसे-बसाए संयुक्त परिवार में ब्याह कर आई नयना को एक भी मौक़ा नहीं मिला था वहां गृहसज्जा का. फ़र्नीचर का कोई हिस्सा हो या शोपीस का कोई टुकड़ा, किसी भी वस्तु की जगह बदलने का अधिकार उसे सासू मां से नहीं मिला था. आख़िर वो घर सासू मां ने अपने टेस्ट से सजाया था. इसीलिए बैंगलोर आकर वो बहुत प्रसन्न थी. बीटीएम लेआउट में एक दो-कमरे के मकान में शिफ़्ट कर लिया था. हालांकि ये घर भोपाल के घर की तुलना में काफ़ी छोटा था,“पर हम बंदे भी तो तीन ही हैं, और कितना बड़ा घर चाहिए हमें!,” शाश्वत का कथन सटीक था. एक कमरे में आठ वर्षीय बेटा आरोह और दूसरे में नयना-शाश्वत सब कुछ ठीक से सेट होने लगा था.
धीरे-धीरे जीवन अपनी रफ़्तार पकड़ने लगा. आरोह सुबह कॉलेज चला जाता और शाश्वत अपने दफ़्तर. फिर घर को सुव्यवस्थित कर नयना अक्सर वॉक पर निकल जाया करती थी.
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#23
‘यहां का मौसम, मैं क्या बताऊं... ठीक ही कहते हैं इसे एसी सिटी. जब दिल करे तब बाहर निकल सकते हैं,’’ नयना अपनी बड़ी बहन से फ़ोन पर बातें करती हुई चहलक़दमी कर रही थी. “भोपाल की तरह नहीं कि भरी दुपहरी में इंसान घर से तो क्या कमरे से भी बाहर न निकलना चाहे.”
“बैंगलोर में ही तो सौरेश भैया रहते हैं, तू कभी मिल क्यों नहीं लेती उनसे?,’’ दीदी से ये बात जानकार नयना का मन सौरेश भैया से मिलने का हो आया.
“हां दीदी, शादी के बाद कभी मिलना ही नहीं हुआ उनसे. पिछली बार जब मिले थे उनकी शादी में तब मैं पोस्टग्रैजुएशन के आख़िरी वर्ष की परीक्षाएं दे रही थी.”
सौरेश, नयना की बुआ का लड़का था. उन दोनों की उम्र में तीन वर्ष का अंतराल होने के कारण उनकी आपस में अच्छी निभती थी. बुआ काफ़ी दूर दूसरे शहर में रहती थीं. फूफाजी का परिवार काफ़ी बड़ा था और सारी ज़िम्मेदारियां उन्हीं पर थीं सो बुआ का आना कम ही हो पता था. दो-तीन वर्षों में चक्कर लगता था एक-दूसरे के घर का, छुट्टियों में. या कोई शादी-ब्याह आ गया तो उसमें सभी की टोली एकत्रित हो जाती थी. बड़े होने तक सभी भाई-बहनों की शादियां हो चुकी थीं. सौरेश भैया की शादी में नयना गई थी पर इसकी शादी में सौरेश विदेश गया होने के कारण नहीं आ पाया था. फिर सभी अपनी-अपनी ज़िंदगी में व्यस्त हो गए. आज ये पता चलने पर कि वो भी इसी शहर में है, नयना को ये शहर कुछ अपना-सा लगने लगा था. उसी दिन बुआ को फ़ोन किया और सौरेश का फ़ोन-नंबर लिया.
“पहचानो कौन बोल रही हूं,’’ बाल-सुलभ हंसी-ठिठोली करने लगी नयना फ़ोन पर.
“आप ही बता दीजिए, हम तो आपकी आवाज़ सुनकर ही हार बैठे हैं,’’ सौरेश की आवाज़ पहले के मुक़ाबले परिपक्व प्रतीत हो रही थी. किन्तु उसके बात करने का रंग-ढंग नयना को किंचित अजीब लगा. न जाने क्यों पर उसके ज़हन में फ़िल्मों के पुराने विलेन रंजीत की छवि अवतरित हो गई, मानो वो मुंह बिचकाए अपनी गर्दन पर हाथ फिराते हुए ये कह रहा हो.

Vachan Sootra

बात को लंबा न खींचते हुए नयना बोल पड़ी,“सौरेश भैया, मैं नयना! मैं अब बैंगलोर में रहने आ गयी हूं. पता चला आप भी यहीं रहते हैं सो फ़ोन घुमा डाला.”
“ओह, नयना तुम!,’’ शायद सौरेश, नयना की आवाज़ से भ्रमित हो किसी और को समझ बैठा था.
“कैसी हो, कहां रह रही हो? तुम्हारे दूल्हे मियां कहां काम करते हैं?” और दोनों का काफ़ी अरसे से छूटा हुआ तार एक बार फिर जुड़ने लगा. नयना ने अपने घर का पता बताया तो सौरेश बोला,“मेरा ऑफ़िस कुछ ख़ास दूर नहीं है. चल, आता हूं तुझसे मिलने अभी.”
“अभी?,’’ नयना का चौंकना स्वाभाविक था. “शाम को आओ न भाभी और गुड़िया को लेकर. इनसे भी मिलना हो जाएगा.”
“तेरे ‘इनसे’ भी मिल लेंगे, पर अभी तुझसे मिलने का मन हो रहा है. देखूं तो सही इतने सालों में कितना बदल गई है. क्या अब भी माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती है?” सौरेश की बात से नयना के मस्तिष्क पटल पर लड़कपन की स्मृतियां तैरने लगीं.
सौरेश एक छोटे क़स्बे में रहता था और नयना महानगर में ही पली-बढ़ी थी. उसकी स्टाइल्स से सौरेश सदैव प्रभावित रहा था. जब भी मिलता और नयना उसे हैलो-हाय करती तब हमेशा कहता,‘ज़रा फिर से हाय बोल कर दिखा, तेरे मुंह से बहुत अच्छा लगता है.’ सौरेश को अब तक याद है कि नयना माथे पर गिरती अपनी लट को फूंक से उड़ाती थी ये सोच कर उसे हंसी आ गई.
कुछ ही देर पश्चात घंटी बजी तो नयना समझ गई कि सौरेश भैया होंगे. उनके आने से पूर्व उसने भोजन की तैयारी कर ली थी फटाफट आलू-टमाटर की तीखी रसेदार सब्ज़ी, और मिक्स-वेज बना डाली थी. आटा भी मल कर रख दिया था, बस रोटियां सेंकनी बाक़ी थीं. इन्हीं सब कामों को निबटाते उसे लिपस्टिक लगाने तक का समय नहीं मिला था. बालों को जूड़े में बांधते हुए उसने दरवाज़ा खोला. सौरेश भैया समकक्ष खड़े थे. काफ़ी बदलाव आ गया था उनमें बाल उड़ गए थे, चेहरे पर परिपक्वता आ गई थी और चश्मा भी लग गया था.
“भैया,’’ कहते हुए नयना जैसे ही आगे बढ़ी सौरेश ने लगभग खींचते हुए उसे अपनी बाहुपाश में जकड़ लिया. और फिर इतना कसकर गले लगाया कि उसकी ब्रा का हुक उसकी पीठ में धंस गया. उसने सौरेश की मुट्ठियों को अपनी पीठ पर महसूस किया जैसे वो उसे सौरेश की छाती में चिपकाए डाल रही हों. नयना कसमसा उठी. ये क्या तरीक़ा है मिलने का? कोई भाई-बहन ऐसे गले मिलते हैं भला? जैसे ही वो छिटककर दूर हुई, सौरेश हंसते हुए सोफ़े पर विराजमान हो गया.
“और सुना, क्या हाल-चाल हैं तेरे? यहां कैसे आ गई, हमने तो भोपाल में ब्याही थी,’’ सौरेश सामान्य ढंग से बातचीत करने लगा. नयना ने अपना मूड ठीक किया, सोचा शायद इतने वर्षों से संयुक्त परिवार और एक बी-ग्रेड शहर में रहने के कारण वो हर चीज़ को संकीर्णता से देखने लगी है. उसने बरसों बाद मिले अपने भाई से खूब गप्पें लगाईं, उन्हें खाना परोसा और अपनी शादी का एल्बम भी दिखाया. जल्दी ही फिर मिलने का वादा कर सौरेश चलने को हुआ. नयना उसे विदा करने लिफ़्ट तक आई. “एक सेल्फ़ी तो बनती है,’’ कह सौरेश ने नयना के साथ दो-तीन सेल्फ़ी लीं. जाने से पहले एक बार फिर सौरेश ने नयना को अपने सीने से एकमेक कर लिया. एक बार फिर नयना को सौरेश की मुट्ठियों का धक्का महसूस हुआ. क्या ये ग़लतफ़हमी है या फिर... नयना एक अजीब उलझन अनुभव करने लगी. बरसों बाद मिला भाई, उसके बारे में ऐसी शंका अपने पति से भी नहीं बांट सकती थी.
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#24
कमरे की बत्ती बुझा जब नयना बिस्तर पर लेटी तो उसके मन-मस्तिष्क में जो कीड़े कुलबुला रहे थे वो और तेज़ी से हरक़त में आने लगे. सौरेश भैया हमेशा ही नयना के इर्द-गिर्द रहा करते थे. उसे याद आने लगी मम्मी की चिड़चिड़ाहट,‘‘ये सौरेश तेरा हाथ क्यों पकड़े रहता है?” किशोरावस्था में उसे मम्मी की ये सोच कितनी ओछी लगती थी. सौरेश का सदा उसकी प्रशंसा करना, उसकी अदाओं की तारीफ़ों के पुल बांधना, उसे अपनी गर्ल-फ्रेंड्स के क़िस्से सुनाना, नयना को कितनी भाती थी इतनी तवज्जो. एक फ़िल्मी रील की तरह पुरानी बातें उसकी आंखों के सामने प्रतिबिंबित होने लगीं... जब दीदी की शादी में सौरेश भैया आए थे तब मिलते ही उन्होंने हाथ आगे बढ़ाया था. “ओए होए, हैंड शेक!,’’ हंसते हुए नयना के हाथ मिलाने पर उन्होंने अपनी एक अंगुली नयना की हथेली में धंसा दी थी. अटपटा-सा लगा था तब भी उसे. फिर कई बार उन्होंने ऐसा ही किया था. ऐसे ही जब नयना उनकी शादी में शामिल होने गई थी तब हल्दी की रस्म के दौरान, जब नयना उन्हें हल्दी लगाने आई थी तब सौरेश ने अपने हल्दी-लगे गालों को नयना के गालों पर रगड़ दिया था. तब उसकी किशोरी बुद्धि इन हरक़तों को खेल समझती रही. किन्तु आज शादी के इतने समयोपरांत ऐसे कार्यकलाप उसे जंच नहीं रहे थे.
अगले पक्ष में नयना को सपरिवार सौरेश व उसकी पत्नी अपूर्वा ने अपने घर आमंत्रित किया. आरोह, शाश्वत तथा नयना उनके घर पहुंचे. सौरेश एक उच्च पदाधिकारी था सो उसका घर भी उसकी वस्तु-स्थिति का अच्छा झरोखा था. कोरमंगला में स्थित शोभा बिल्डर द्वारा निर्मित ऊंची इमारतों में से एक, अपूर्वा भाभी ने घर बहुत ही टेस्टफ़ुली सजाया था. उनके घर की साज-सज्जा, उनका फ़र्नीचर, दीवारों पर टंगी सिग्नेचर-चित्रकारियां सबने नयना का मन मोह लिया.

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‘‘वाह भाभी, कितना सुंदर रखा है आपने घर,’’ घर में प्रवेश करने पर नयना और अपूर्वा ने एक-दूसरे को आलिंगनबद्ध किया. नयना फिर सौरेश की ओर अग्रसर हुई. वो देखना चाहती थी कि सौरेश का उसे गले लगाने का ढंग आज परिवार की मौजूदगी में भी वैसा ही था या कुछ अलग. लेकिन आज तो सौरेश ने उसे गले लगाया ही नहीं. केवल उसके कंधे पर हल्के से थपथपाया और आगे बढ़ गया. आज सौरेश उसकी तरफ़ देख भी नहीं रहा था. अपितु आज वो सबके समक्ष अपनी पत्नी को देख-देख मुस्कुरा रहा था. कभी अपूर्वा के कान में हौले से कुछ खुसफुसा कर हंस देता तो कभी उसका हाथ थाम अपने कंधे को उसके कंधे से टकराता.
घर लौट कर शाश्वत कहने लगे,“तुम्हारे भैया-भाभी में बड़ा प्यार है. देख कर लगता ही नहीं कि शादी को इतने बरस बीत चुके, लगता है जैसे आज भी हनीमून चल रहा हो. बीवी को ख़ुश रखने का मंत्र आता है उन्हें.”
नयना का मन सौरेश की तरफ़ से कसैला हो चुका था. अकेले में कुछ और व्यवहार और पत्नी व परिवार के समक्ष कुछ और. इसका अर्थ तो शीशे की भांति पारदर्शी है-सौरेश भाई-बहन के रिश्ते को ताक पर रखकर मौक़े का फ़ायदा उठाता रहा और नादान नयना उसकी मंशा समझ नहीं पाई. मां ने इशारा दिया तब भी नहीं. उसके परिवार में ऐसी बातें खुल कर नहीं की जाती थीं तो मां ने भी कुछ खुल कर नहीं कहा. आज वो और सौरेश एक ही शहर में हैं तो मिलना-जुलना होता रहेगा. ऐसे में कसैले मन से वो कैसे मिलती रहे उससे? किन्तु दुविधा ये थी कि साफ़तौर पर कुछ हुआ तो नहीं है इसलिए कुछ खुलकर कहा भी नहीं जा सकता है. ये सब उसकी अंतर-भावना के स्वर थे. “केवल गट-फ़ीलिंग के आधार पर इतनी बड़ी बात कही नहीं जा सकती है,’’ नयना सोच-सोच निढाल हो रही थी. सौरेश का वर्गीकरण गंदा या अच्छा व्यक्ति की श्रेणी में करने से पूर्व नयना को कभी किसी पत्रिका में पढ़ी एक मनोवैज्ञानिक बात याद हो आई,‘तार्किक बुद्धि कहती है कि चीज़ें श्वेत या श्याम नहीं होतीं, वे इन दोनों के बीच धूसर वर्ण वाली होती हैं.’ यही तो जादू है किताबों का, जब जिस ज्ञान की आवश्यकता होती है, तब पुरानी पढ़ी हुई बात स्वतः ही मानसपटल पर उभर आती है. नयना सोच में पड़ गई कि कुछ आपत्तिजनक घटना नहीं घटी है, और एक रिश्ता है तो जीवन में मिलना पड़ेगा. लेकिन अब वो किसी संकोच, किसी ग़लतफ़हमी का शिकार नहीं बनेगी.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#25
कुछ दिनों पश्चात रक्षाबंधन का त्यौहार आया. एक ही शहर में होने की वजह से नयना सपरिवार त्यौहार मनाने सौरेश के घर पहुंची. अपूर्वा ने सारी तैयारी पहले से ही की हुई थी. सौरेश और अपूर्वा की बेटी गुड़िया ने नयना और शाश्वत के बेटे आरोह को मिठाई खिलाई और राखी बांधी. आरोह ने अपनी बहन को तोहफ़ा दिया. फिर नयना ने सौरेश को राखी बांधी. सौरेश अपनी जेब से रुपए निकाल नयना को देने लगा. अपूर्वा और मिठाई लाने रसोई में गई तो मौक़ा पा नयना ने अपने दिल की बात सौरेश से कह डाली,“सौरेश भैया, मुझे आपके पैसे नहीं चाहिए. मुझे आपसे अपनी रक्षा का वचन भी नहीं चाहिए. वो मैं स्वयं कर लूंगी. मुझे आपसे बस ये वचन चाहिए कि आप हमारे रिश्ते की मान-मर्यादा बनाए रखेंगे.”
कुछ ऐसा था नयना की दृष्टि में जिसने सौरेश की नज़र झुका दी. बिना कहे ही सब कुछ कह गई थी वो. एक रिश्ता टूटने से बच गया था और बिगड़ने से भी.
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#26
मम्म
















J
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#27
वह रात!





























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#28
आज टीवी पर एक परिचर्चा में ऐंकर बार-बार कह रही थी,‘सिंगल मदर, नया ट्रेंड, नया चलन!’ क्या वाक़ई सिंगल मदर नया ट्रेंड है? मेरी मां भी तो सिंगल मदर थीं? क्या कुछ नहीं झेला उन्होंने? ना चाहते हुए भी मन मुझे पुरानी यादों की तरफ़ खींच ले गया. जब से होश संभाला है, मां को सदा परेशान ही देखा. कुछ पूछने पर रटा-रटाया जवाब दोहरातीं,‘‘बेटी तुम नहीं समझोगी...’’ मैं अक्सर सोचती काश पिताजी भी होते तो मां इतना परेशान न होतीं. पर जब कभी पिताजी के बारे में पूछती तो मां कह देतीं,‘‘वह अब इस दुनिया में नहीं हैं.’’ इसके आगे कुछ पूछने की गुंजाइश ही नहीं बचती. वक़्त के साथ-साथ मैं इतना तो समझ ही गई थी कि कोई तो बात है, जो मां छुपा रही हैं.
उस दिन हमारे घर में एक महात्मा आए थे. दादी दौड़-दौड़कर तैयारियों में लगी थीं. हर एक सदस्य दादी के आदेशों का पालन कर रहा था. महात्मा के घर में प्रवेश करते ही, उनका आशीर्वाद लेने की सभी लोगों में होड़-सी मच गई. पर मां बिल्कुल पीछे खड़ी रहीं. एकदम शांत. लेकिन उनकी आंखें उनके मन के तूफ़ान को बयां कर रही थीं. तभी दादी ने झिड़का,‘‘क्या खड़ी सोच रही है? आशीर्वाद नहीं लेगी महात्मा जी का?’’
बुझे हुए मन से मां आगे बढ़ीं, तभी एक बार दादी ने फिर झिड़ककर कहा,‘‘थाली तो ढंग से पकड़ो बहू!’’
कुछ अनमनी-सी मां ने हल्का-सा सिर झुकाया और आशीर्वाद लिए बिना आगे बढ़ गईं. रात के समय मैंने देखा, जब घर का हर सदस्य आधी नींद में था, तो मां धीरे से चौके का दरवाज़ा सरकाकर, सीधे महात्मा के कमरे में जा रही थीं. मैं भी उत्सुकतावश, चुपचाप मां के पीछे चल दी. महात्मा एक खाट पर लेटे हुए थे. उनको देखकर लग रहा था कि उनके दिमाग़ में भी कुछ उथल-पुथल मची हुई है. कमरे में मध्यम-सी रौशनी थी, जो कि किसी के भावों को पढ़ने के लिए शायद काफ़ी थी. दरवाज़े की आहट से महात्मा चौंके और उन्होंने दरवाज़े की तरफ़ देखा. दरवाज़ा अपनी पूर्ववत स्थिति में था. महात्मा ने कुछ समझा, कुछ नहीं. जैसे ही उनकी दृष्टि मां पर पड़ी, वह कुछ असमंजस में पड़ गए. एक अजीब-सी घबराहट उनके मुख से साफ़ झलक रही थी. महात्मा की घबराहट देखकर मेरी भी व्याकुलता बढ़ गई. आख़िर सारा माजरा है क्या? मां की आंखें सूजी हुई थीं. मां ने अचानक से महात्मा के पैर पकड़ लिए. महात्मा ने घबराते हुए पैर पीछे धकेले और बैठ गए. शायद उनको अपना पूरा अस्तित्व ख़तरे में दिखाई पड़ रहा था. वहीं दूसरी ओर सामने दीवार पर एक छिपकली दबे पांव कीड़े को झपटने वाली थी. बचते हुए कीड़ा, छिपकली की पकड़ में आने से पहले ही नीचे गिर पड़ता है. और दीवार घड़ी की टिक टिक के साथ, घड़ी का पेंडुलम इधर से उधर, उधर से इधर खेलने लगता है. आंसुओं से भीगा चेहरा और सूजी हुई आंखें लिए मां ऐसे ही बैठी रहीं. उनका चेहरा घड़ी के शीशे में साफ़ दिख रहा था और वह अपने भावों के प्रवाह को रोकने की नाकाम कोशिश कर रही थीं. पर उनके अंतरमन की पीड़ा विद्रोह कर रही थी. वह अंदर ही अंदर छटपटा रही थीं.
‘‘क्यों आए हो यहां?’’
महात्मा शायद कोई उत्तर नहीं देना चाहते थे. फिर भी बोले,‘‘क्या हुआ देवी?’’
‘‘देवी?’’ मां ने व्यंग्य भरा तंज कसा.
‘‘तुमको देवता बनना है, तो बनो. पर मुझे देवी मत कहो.’’
‘‘क्यों ऐसा क्या कह दिया मैंने?’’

Vah raat: That night

‘‘मैं तुमको पहचान गई हूं. कब तक छुपाओगे ख़ुद को? डरो मत! किसी से नहीं कहूंगी. लेकिन तुम्हारे आने का कारण जानना चाहती हूं. इतने सालों बाद क्यों वापस आए? क्या ज़रूरत है वापस आने की? बड़ी मुश्क़िलों से जीवन नदी के ज्वार भाटा शांत हुए हैं, क्यों व्यर्थ ही इस शांत जल में कंकड़ फेंकने आए हो तुम? बताओ क्या चाहते हो?’’
‘‘पुष्पा...,’’ बेजान स्वर और उसमें अकुलाहट साफ़ दिख रही थी. ‘‘पुष्पा... ऐसा क्यों कह रही हो? माफ़ कर दो मुझे! मैंने तुम्हारे साथ अन्याय किया, मैं जानता हूं कि मैं दोषी हूं तुम्हारा. बस एक बार तुमको देखने की इच्छा जागृत हो उठी, तो चला आया.’’
एक ही सांस में सब कुछ कह गए थे वे.
‘‘कैसी हो?’’
‘‘ज़िंदा हूं! यही तो देखने आए हो ना? अभी तक सांसें चल रही हैं. मैं एक भारतीय नारी हूं, जिसके लिए उसका पति ही सब कुछ होता है. लेकिन वह बंधन तो तुम कब का तोड़ गए थे. मैं भी कब तक, उस झूठी मोह की चाशनी में फंसी रहती? वक़्त के साथ-साथ तो चाशनी भी सूख जाती है.’’
ओह!!! तो यह पिता हैं मेरे! पर मां ने मुझसे झूठ क्यों बोला? पूरा सिर चकराने लगा था.
‘‘मुझे अपने करे हुए पर बहुत पछतावा है. उसी पछतावे की वजह से मैं तुमसे मिलने चला आया.’’
‘‘तभी मैं तुमसे कह रही हूं, चले जाओ यहां से. वरना मेरी तपस्या नष्ट हो जाएगी.’’
‘‘तपस्या?’’
‘‘हां तपस्या! जाओ तुम अपनी राह जाओ. तिल-तिल जली हूं मैं. मेरी क़िस्मत में तो सिर्फ़ कर्तव्यों का बोझ ही लिखा है. आज मैं ही अपनी बच्ची की पिता हूं. मैं ही माता हूं.’’
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#29
‘‘बच्ची?’’
‘‘हां, बच्ची! जब तुम अचानक से चले गए थे, उस समय मैं तीन महीने की गर्भवती थी. जिस आग में जली हूं मैं... मैं ही जानती हूं. तुम्हारे जाने के बाद... मेरे अंदर इतनी शक्ति नहीं थी, जो मैं अपने प्राण त्याग देती. पति के साये से दूर औरत को वेश्या ही समझा जाता है. आख़िरकार इस पुरुष प्रधानसमाज में स्त्री को एक देह से अलग एक इंसान के रूप में देखता ही कौन है? स्त्रियों के लिए ये बारीक़ रेखाएं समाज स्वयं बनाता और बिगाड़ता है. स्त्री की मुक्ति केवल देह की मुक्ति है? स्त्री जिस परंपरा का शिकार है, वह सदियों से हज़ारों शाखाओं, प्रशाखाओं में कटती, बांटती, संकुचित, परिवर्तित, संवर्धित होती इस मुक़ाम तक पहुंची है. उसे गुरु, पिता, पति, भाई, बेटों ने ही मां, दादी, परदादी बनाया है. एक पूरी की पूरी सामूहिकता जिसने स्त्री के वर्तमान को गढ़ा है. अकेली स्त्री का दर्द बहुत बड़ा होता है. पर तुम नहीं समझोगे!’’
‘‘बस, बस और कुछ मत कहो. मैं शर्मिंदा हूं! माफ़ी शब्द भी बहुत छोटा है, तुम्हारे त्याग के आगे पुष्पा.’’
‘‘क्यों... क्या हुआ? तुम्हें सुनने में परेशानी हो रही है? मैंने तो भुगता है. तुम्हारे जाने के बाद समाज के तानों को सहना, अपनी स्थिति को भांपते हुए, अपनी विवशता, दयनीयता को समझते हुए, चुपचाप सब सहन किया. मैं तो तुम्हें भूल ही गई थी. ...और शायद यही मेरे लिए उचित था. मैंने आज तक अपने धर्म का पालन किया है. मुझे इस बात का गर्व है. याद है तुम ही मुझसे कहा करते थे,‘पुष्पा तुम बहुत दंभी हो! बिल्कुल उस लहर की तरह, जो सिर ऊंचा किए किनारों की ओर बढ़ती है.’ ...और मैं यह सुनते ही शर्मा जाती थी. बहुत दिनों से तुम्हारी यादों को, मन की किसी अंधेरी गुफा में बंद कर दिया था.’’
रात गहरा चुकी है. तभी रसोईघर से किसी बर्तन के गिरने की आवाज़ आई. मां पहले तो थोड़ा घबराईं, फिर ख़ुद ही अपनी घबराहट को छिपाने के लिए बोलीं,‘‘शायद कोई बिल्ली है! लगता है खिड़की खुली रह गई है.’’
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#30
‘‘अब जीना सीख लिया है. जाओ... चले जाओ...’’ मां का गला रूंध गया और आंसू बहने लगे.
महात्मा के रूप में पिताजी कुछ कह नहीं सके. उन्होंने मां के आंसू पोंछने चाहे, पर मां के सख़्त व्यवहार ने उनको रोक दिया.
सिर्फ़ इतना ही कह पाए,‘‘जाओ... ख़ुश रहो... तुम ठीक कह रही हो, मुझे यहां रहने का कोई अधिकार नहीं है.’’
‘‘बात अधिकार की नहीं है!’’ उनके उत्तर के जवाब में मां ने उनकी तरफ़ देखा. मां की नज़रें, उन्हें अंदर तक छील गईं. पिताजी ज़्यादा देर तक उन नज़रों का सामना नहीं कर पाए और आंखें झुका, फ़र्श की तरफ़ देखने लगे. ‘‘मुझे माफ़ कर दो! मैं सवेरा होने से पहले चला जाऊंगा. ख़ुश रहो.’’
मां रो पड़ीं,‘‘जिससे जीवन है, जो जीवन की रेखा है. आज मैं उसी को अपने हाथों से मिटा रही हूं. हे भगवान, कैसा इम्तिहान है?’’ और वह रोते हुए उनके चरण स्पर्श कर वहां से चली गईं.
मेरा मन बार-बार चीत्कार कर रहा था. मुझे उस महात्मा पर बहुत ग़ुस्सा आ रहा था. मेरे अनुसार तो वह पिता कहलाने के भी हक़दार नहीं थे. एक बार को तो मन में आया, मैं उनको जाकर ख़ूब सुनाऊं. वह मात्र मेरे जन्म का कारण हैं, लेकिन मेरे कुछ नहीं. मेरी तो मां ही सारी दुनिया है. लेकिन उस मां की ख़ामोशी की, इज़्ज़त की ख़ातिर मैं चुप रही. वह रात मेरी ज़िंदगी की हर चीज़ को बदल गई थी. मेरे मन में ज़िंदगीभर के लिए मां के लिए श्रद्धा और पिता के लिए नफ़रत भर गई थी.
सुबह उठते ही पूरे घर में कोहराम मचा था कि जो महात्मा आए थे, कहां चले गए? दादी भी एक कोने में बैठी हुई रो रही थीं. शायद वह भी अपने पुत्र को पहचान चुकी थीं. और हां, मां शांत खड़ी सब कुछ देख रही थीं.

Vah raat: That night

कुछ सालों बाद एक पत्र मिला. जिससे पता चला पिताजी बहुत बीमार हैं और दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में हैं. तब मैं ख़ुद मां को, उनसे मिलवाने के लिए लेकर गई. पिताजी को कैंसर था, वो भी लास्ट स्टेज का. मां रोए जा रही थीं. मां को देखते ही उन्होंने अपने जर्जर शरीर से बैठना चाहा पर नाक़ामयाब रहे. मैंने आगे बढ़, सहारा देकर बैठाया. उन्होंने प्यार से मेरे सिर पर हाथ फेरा और नर्स को कमरे से बाहर जाने को कहा. हाथ जोड़कर मां से बोले,‘‘पुष्पा, अब तो माफ़ कर दो मुझे. मेरी ज़िंदगी का क्या है...’’ उनकी सांसें उखड़ने लगी थीं.
‘‘जानते हो तुम्हारे जाने के बाद, ज़िंदगी रोज़, कोई ना कोई नया इम्तिहान लेती रही. दिन गुज़रते रहे... और मैं मन ही मन अपने और तुम्हारे बीच की दूरी को लांघती रही.’’
मां बड़ी ही कातर दृष्टि से महात्मा की ओर देख रही थीं. वह चुपचाप बैठे रहे. शायद इन बिफरती हुई लहरों में नाव खेने का साहस तो मुझमें भी नहीं था. मां ने आगे कहना शुरू किया,‘‘ना जाने कितनी बार सूरज उगा और अस्त हुआ. ना जाने कितनी संध्याएं गहराईं और बिखर गई. तुमने नहीं आना था, तुम नहीं आए. पर मन यह मानने के लिए तैयार नहीं था कि तुम मुझे धोखा दे गए.’’
मां ने उन्हें बोलने से रोकना चाहा, पर वह बोले,‘‘मुझे माफ़ कर दो! चरस की लत ने मुझे आलसी और निकम्मा बना दिया था. मेरे मन को कभी शांति नहीं मिली. बाद में मैंने सन्यासी का जीवन जीना ही श्रेष्ठ समझा और जीवनभर अपने मन से भागता रहा. मैं तो एक टूटा हुआ पत्ता हूं. ना मेरे कोई आगे, ना पीछे. क्या पता एक हवा का झोंका कहां पर फेंक दे? कम से कम इस सकून से तो मर सकूं कि, तुमने मुझे माफ़ कर दिया. वरना मेरी आत्मा तड़पेगी.’’
उस दिन वो दोनों पास बैठे घंटों रोते रहे थे. मां को भी अपने कहे हुए शब्दों पर बहुत अफ़सोस था. मां से इस मुलाक़ात के बाद पिता जी का मन हल्का हो गया था. शायद इतना हल्का कि उसके बाद उनकी सांसें हमेशा के लिए शांत हो गईं. और मां वह भी तो शांत हो गई थीं. मृत्यु की तरह शांत.
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#31
हिसाब बराबर?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#32
हवाई जहाज से उतरते ही एक अजीब चिपचिपाहट में घिर गया था. बस मुंबई की सबसे ख़राब चीज़ मुझे यही लगती है. एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सामने कंपनी की गाड़ी थी. मैं फटाफट उसमें बैठ गया और वह दुम दबाकर भाग खड़ी हुई. मुंबई में कुछ नहीं बदला था फिर भी बहुत कुछ बदल गया था. कार कालिमा में लिपटी सड़क को रौंदती हुई, मुंबई के लोगों को पीछे धकेलती हुई भागे जा रही थी. बीच, इमारतें, पेड़, लोग सब पीछे छूटते जा रहे थे.
दोपहर के दो बजे थे. सूरज और समुद्र में द्वंद्व युद्ध चल रहा था. लहरें आ-आकर बार-बार झुलसी रेत को लेप कर रही थीं, उसके ज़ख्मों को सहला रही थीं. मुंबई की रफ़्तार शाम और रात की बजाय इस समय कुछ कम थी या शायद चिपचिपाहट की नदी ने सबकी रफ़्तार को कुछ कम कर दिया था.
कितनी अजीब बात है... मेरे लिए मुंबई नया शहर नहीं है... मैं हर महीने यहां आता हूं, लेकिन आज मुंबई बिल्कुल नया शहर लग रहा है जैसे मैं पहली बार यहां आया हूं या फिर मेरी दृष्टि में कुछ बदल गया है या फिर मुझे मुंबई को देखने की फ़ुर्सत ही अब मिली है.
हमेशा तो मैं टैक्सी में बैठते ही कैफ़ी को फ़ोन मिलाने लगता था या फिर होटल तक पहुंचने तक का सारा समय उसे नॉन-वेज जोक्स भेजने में ही बिताता था जो दोस्तों ने मुझे भेजे होते थे. कब ताज पैलेस आ जाता था पता ही नहीं चलता था. आज सब बदल गया है या फिर मेरी आंखों पर से कैफ़ी का पर्दा हट गया है और उसके नीचे से सब अपने वास्तविक रूप में नज़र आने लगा है. सड़क के दोनों ओर की इमारतें मैंने पहली बार देखी थीं.
दो साल पहले यहीं ताज पैलेस में ही कैफ़ी से मुलाक़ात हुई थी. मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता था. पत्नी के बिना रहना मेरे लिए सचमुच एक प्रताड़ना से कम नहीं होता था. फ़ोन पर बातें करते रहने के बाद भी मैं उसकी कमी मुंबई में महसूस करता था. उसकी नौकरी के कारण उसे साथ लाना भी संभव नहीं होता था. ऑफ़िस के बाद शामें और रातें बड़ी वीरान होती थीं. ऐसे में कैफ़ी का मिलना किसी मूल्यवान तोहफ़े से कम नहीं था. शुरू-शुरू में हम दोनों बस साथ घूमते, चाय पीते, बातें करते.
कब वह मेरे मुंबई प्रवास की ज़रूरत बन गई मुझे पता ही नहीं चला. आख़िर एक दिन हम दोनों में एक कॉन्ट्रैक्ट हुआ.
मेरे मुंबई प्रवास में वह पूरा समय मेरे साथ रहेगी. जब मैं मीटिंग्स में जाऊंगा तब भी वह होटल में मेरे कमरे में ही रहेगी. मेरे मुंबई में रहते वह किसी ग़ैर मर्द के साथ रात नहीं बिताएगी. इतने दिन वह पूरी तरह से मेरी होगी, बिस्तर पर भी और उसके बदले उसे मुंह मांगी रकम मिलेगी. कैफ़ी आसानी से राज़ी हो गई.
मैं उसे अपने आने की पूर्व सूचना देता और वह उन तिथियों में मेरे लिए सुरक्षित होती और मुंबई प्रवास मेरे लिए एक सुखद और रंगीन अवकाश बन जाता. मैं मुंबई आने के बहाने खोजने लगा. मुंबई के नाम से मन पुलकित आनंदित हो उठता था और मैं कैफ़ी की यादों से सराबोर हो जाता.
सच कहता हूं मैं तब भी पत्नी को बहुत प्यार करता था. कैफ़ी का होना पत्नी के प्रति प्यार को तनिक भी कम नहीं कर पाया था. दिल्ली में रहते हुए मैं अब भी पूरी तरह एक समर्पित पति था. उसकी व्यस्तताओं को कुछ कम करने की कोशिश करता, उसकी हर इच्छा-अनिच्छा का ध्यान रखता. वह भी मुझे बेहद प्यार करती. उसकी क्षमताओं पर कभी-कभी मुझे हैरत होती. मैं उसके साथ एक सुखद गृहस्थ का अनुभव करता था. लेकिन जाने क्यों कभी-कभी मैं चाहने लगता कि वह कैफ़ी की अदा में बिस्तर पर क्यों नहीं आती पर मैं शीघ्र ही इस ख़्याल को मन से निकाल देता. उसकी व्यस्तताओं के बारे में सोचता और शीघ्र ही उसे अर्धांगिनी के शीर्षासन पर बैठा देता. मैं सौगंध खाकर कहता हूं मैंने उसे कभी कैफ़ी से कमतर नहीं आंका. कैफ़ी के मुक़ाबले उसकी गरिमा के आगे हमेशा नतमस्तक हुआ हूं.
लेकिन यह भी सच है कि कैफ़ी का अध्याय भी मुंबई में खुल चुका था. दोनों शहरों में मैं अलग-अलग दो ज़िंदगियां जी रहा था और दोनों का लुत्फ़ उठा रहा था.
मेरी पत्नी दिल्ली में अकेली मेरे रिश्तेदारों के साथ निभाती, नौकरी भी करती, घर भी देखती, मेरे मां-बाप का भी ध्यान रखती. मैं कैफ़ी के आगे भी उसकी प्रशंसा करता. उसकी असीम क्षमताओं का बखान करता. मैं आशा करता कि कैफ़ी पत्नी की प्रशंसा से रुष्ट होगी पर ऐसा कभी नहीं हुआ. मैंने सुना था ईर्ष्या औरत का दूसरा नाम है पर कैफ़ी में मुझे कोई ईर्ष्या नज़र नहीं आई.
एक दिन मैंने मूर्खता की थी जो उससे पूछ लिया था और उसके जवाब से भीतर कहीं ख़ुद ही शर्मिंदा हुआ था. ‘मैं क्यों ईर्ष्या करूंगी तुम्हारी पत्नी से? हम दोनों औरतें दो अलग-अलग नदियों के समान हैं. हमारे रास्ते अलग-अलग हैं. हमारे रास्ते हमारे चुने हुए रास्ते हैं. हमें अपनी सीमाओं का पता है. अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर नदी अपना स्वरूप खो देती है और विनाश करने वाली बाढ़ बन जाती है. कोई भी औरत बिना वजह बाढ़ नहीं बनती. वैसे उसे बाढ़ नहीं, बाड़ बनने में ही सुख मिलता है.’
पहली बार मुझे कैफ़ी में भी कुछ गहराई नज़र आई थी. मैं समझ गया था हर औरत की महिमा न्यारी है.



बहरहाल मैं मुंबई और दिल्ली में दो अलग-अलग जन्म गुज़ार रहा था और ख़ुश था. पत्नी को मैंने कैफ़ी के बारे में कुछ नहीं बताया था. अपने मोबाइल में मैंने उसका नाम मोहम्मद कैफ़ के नाम से फ़ीड किया था. ऐसा नहीं कि मेरे फ़ोन में किसी लड़की का नाम फ़ीड नहीं है. ऑफ़िस की सब लड़कियों के नाम और नंबर फ़ीड हैं और मेरी पत्नी ने कभी इस ओर झांका भी नहीं पर चोर की दाढ़ी में तिनका होता है इसलिए कैफ़ी मेरे मोबाइल में मोहम्मद कैफ़ थी.
दुनिया में शायद मुझ जैसा सुखी इंसान कोई नहीं था. मैं सदा सुख से मदमस्त, लहराता घूमता. दोस्त भी कहने लगे थे,‘तू तो शायद कभी शादी के बाद भी यूं नहीं दमका.’
धीरे-धीरे मेरे सपनों में भी कैफ़ी ने जगह बना ली थी. उसका सौंदर्य मुझे बांधे था. एक बार उसने कहा भी था,‘मेरे पेशे का उसूल है, काम, दाम और बाय-बाय. सिर्फ़ तुम हो जिसके साथ मैं बातें करती हूं वरना यह मेरे पेशे के उसूलों के ख़िलाफ़ है.’
मैं जानता था मेरे न रहने पर वह ग़ैर मर्दों के साथ रात बिताती थी. मैं उसके लिए भावुक होने लगा था. मैं उसके लिए सोचकर परेशान हो उठता. पता नहीं वह कैसे सहती होगी इतनी हिंसा, उसका मन तार-तार रोता होगा.
एक बार पूछा तो कहने लगी अब आदत हो गई है. पहली बार कपड़े उतारना बड़ा तक़लीफ़ भरा और कष्टदायक था. उसके बाद झिझक खुल गई. अब तो आदमियों की शक्ल देखते ही उनकी किस्म पता लग जाती है.
भविष्य के बारे में पूछा था तो टका-सा जवाब दिया था कैफ़ी ने,‘मैं सिर्फ़ वर्तमान में जीती हूं.’ परिवार के बारे में पूछा था तो चेहरा सख़्त हो गया था और बोली थी,‘मैं अकेली हूं, कोई मेरा अपना नहीं है.’
‘मुझे अपना नहीं मानती?’ मैंने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया था और आंखें उसके चेहरे पर गड़ा दी थीं.
कुछ झिझक कर वह बोली थी,‘तुम तो मेरे कस्टमर हो. हां, बस एक बात है निर्मम नहीं हो.’
अपनी जितनी प्रशंसा मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था उतनी उसने नहीं की मैंने बात को आया-गया कर दिया.
फिर जाने क्या हुआ, एक भयंकर तूफ़ान आया. दिल्ली-मुंबई दोनों शहर उसमें समा गए. सब तहस-नहस हो गया. तूफ़ान मुझे बहाए लिए जा रहा था. मेरे पैर उखड़ने लगे थे. तेज़ हवा में मैं आंखें खोलने की कोशिश कर रहा था पर असफल हो रहा था. मैं अपने हाथों से चीज़ों को पकड़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था. मैं चाहता था कुछ तो साबुत बच जाए.
यह एक इत्तफ़ाक़ था कि मैं पत्नी को बिना बताए दो दिन पहले घर लौट आया था. मैंने अपनी कपड़ों की अलमारी में किसी और के कपड़े टंगे देखे थे. पत्नी ने उस संबंध को स्वीकार कर लिया. मैंने उसे एक थप्पड़ रसीद किया और मुंबई चला आया. इस भयंकर तूफान में भी थप्पड़ की वह अनुगूंज खो नहीं पाई थी.
मैं भीतर से बिखरने लगा था. मैं लगातार कैफ़ी को फ़ोन कर रहा था. इन पलों में मुझे एकमात्र उसी का सहारा था. सिर्फ़ वही गोद थी जहां मैं रो सकता था. सिर्फ़ वही वक्ष था जो मुझे आश्रय दे सकता था. पर वह फ़ोन नहीं उठा रही थी. बार-बार एक ही गाना बज रहा था और उस गाने को सुनकर मुझे और बेचैनी हो रही थी.
खोलो खोलो दरवाज़े
पर्दे करो किनारे
खूंटे से बंधी है हवा
मिल के छुड़ाओ सारे...
मुझे लग रहा था कोई मुंह चिढ़ा रहा है.
यह भी ठीक है कि मैंने उसे अपने आने की पूर्व सूचना भी नहीं दी थी. मैं यह भी जानता हूं वह दिन में कहीं आना-जाना पसंद नहीं करती. धूप और चिपचिपाहट उसे बर्दाश्त नहीं.
एक दिन कह रही थी ‘तपस्वी और वेश्या दिन में सोते हैं. जब सारी दुनिया सोती है तो ये दोनों जागते हैं.’ शायद वह सोई हो.
मैं अब भी उसे फ़ोन मिलाए जा रहा था और वह कमबख़्त उठा नहीं रही थी.
मैंने उसके फ़ोन पर शीघ्रातिशीघ्र मिलने का मैसेज छोड़ दिया था. पर उसका न फ़ोन आ रहा था न मैसेज. मेरी बेचैनी और घबराहट बढ़ती जा रही थी.
मैं होटल के कमरे में अकेला था. वेटर भी पहचानने लगा था. मेरे चेहरे की व्यग्रता को समझकर वह भी तमाचा मार गया था,‘कैफ़ी मैडम आती ही होंगी. मुंबई की सड़कों पर ट्रैफ़िक भी बहुत है, कहीं जाम में फंसी होंगी.’ जी में आया उसका मुंह तोड़ दूं. उसकी हिम्मत कैसे हुई पर एक और बवाल खड़ा करने की हिम्मत नहीं हुई.
मेज पर पानी का जग था और ख़ाली दो ग्लास उल्टे रखे थे. मैं बार-बार अपने जीवन को उन ख़ाली उल्टे ग्लास से जोड़ने लगा. मुझे दोनों में अद्भुत साम्य नज़र आया.
खिड़कियों पर सज्जित पर्दों से छनकर आती रौशनी से पता लग रहा था कि अभी भी सूरज देवता ठंडे नहीं हुए हैं. अभी भी कैफ़ी सोई होगी या कहीं पार्लर में बैठी होगी.
होटल का कमरा गुनगुना उठा. मैंने जल्दी से भागकर फ़ोन उठाया, पत्नी का फ़ोन था, मैंने फ़ोन काट दिया. मैं उसकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था.
‘मैं बहुत अकेली हो गई थी. कब सब हो गया मुझे पता ही नहीं चला पर अब ऐसा नहीं होगा. प्लीज़ एक बार मुझे माफ़ कर दो.’ पत्नी का मैसेज आया था.
मैं अपने आपको अपमानित महसूस कर रहा था. अपमान के इस दंश को सहना मेरे लिए दुष्कर था. मुझे लग रहा था अगर इस समय पत्नी सामने होती तो शायद मैं उसका गला दबा देता.
मैंने फिर कैफ़ी को फ़ोन मिलाने की कोशिश की. वही गाना मुझे मुंह चिढ़ा रहा था.
‘हैलो.’ उसने फ़ोन उठा लिया.
‘मैं कब से फ़ोन मिला रहा हूं... और तुम फ़ोन उठाती क्यों नहीं?’ मैं लगभग ग़ुस्से से चिल्ला पड़ा.
‘मैं तुम्हारी बीवी नहीं हूं, ठीक से बात करो,’ कैफ़ी का सपाट जवाब आया.
मैं सकपका गया था.
कैफ़ी से इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी.
‘फ़ोन तो उठा सकती थीं,’ मैंने स्वर को कुछ कोमल बनाया.
‘तुम्हें तो पता है ना मैं दिन में कहीं आती-जाती नहीं!’
‘कभी इमर्जेंसी में तो अपना व्रत तोड़ सकती हो?’
कुछ बोली नहीं थी कैफ़ी.
‘कितने बजे पहुंचना है?’
‘अभी, जितनी जल्दी हो सके.’
वह कुछ नहीं बोली.
‘मैं इंतज़ार कर रहा हूं.’ मैंने कहा और मोबाइल बंद कर दिया.



मुझे सारे कमरे में सिर्फ़ अपनी पत्नी का चेहरा नज़र आ रहा था और मेरी कपड़ों की अलमारी में टंगे उस आदमी के कपड़े... जो मेरी ग़ैरहाज़िरी में मेरी पत्नी के साथ मेरे ही बिस्तर पर... मैं आपे में नहीं था. मैंने होटल के कमरे में बेड पर बिछी चादर ही नोच डाली.
मेरा सिर ग़ुस्से से भन्नाने लगा था. मैं ग़ुस्से में एक ग्लास तोड़ चुका था.
मैने व्हिस्की मंगा ली. मैं पूरी तरह उसमें डूब जाना चाहता था.
अब मैं निराशा के समुंदर में गहरे कहीं डूबता जा रहा था. कैफ़ी आ गई थी. वह चुप थी. उसने आकर न कुछ पूछा न कुछ कहा. वह ज़्यादातर चुप ही रहती थी. उसे बुलवाना पड़ता था.
मैं बालकनी में खड़ा था. मुंबई शहर बहुत छोटा हो गया था. तेइसवीं मंज़िल से नीचे चलते लोग चींटे-चींटियां लग रहे थे और कारें भागते हुए कुछ बिंदु. कैफ़ी भी मेरे पास बालकनी में आ खड़ी हुई थी. कुछ देर पहले मैं उसे बहुत कुछ कहना चाहता था पर अब एकदम ख़ामोश हो गया. मेरे हाथ में अब भी शराब थी. मैं सोच रहा था जब ईश्वर ने हमें अकेले पैदा किया है तो हम क्यों रिश्तों के बंधनों में बंधते हैं? रिश्ते हैं तो आशा और उम्मीद है. उम्मीदें हैं तो कष्ट हैं, दुख हैं.
ग्लास में जितनी शराब थी मैंने एक घूंट में पी ली.
कैफ़ी मुझे बालकनी से अंदर ले आई थी.
उसने दरवाज़ा बंद करके पर्दा खींच दिया. कमरे में मद्धिम रौशनी थी. वह मेरे चेहरे की ओर लगातार देख रही थी. जैसे वह जानना चाहती हो कि इतना हड़कंप क्यों मचा रखा था.
‘कैफ़ी, तुम जानती हो मैं अपनी पत्नी से कितना प्यार करता हूं लेकिन वह किसी और के साथ...’
मेरी मुट्ठियां कस गई थीं, कैफ़ी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. मैं उससे प्रतिक्रिया चाहता था. मैं चाहता था वह मेरी पत्नी के कुकृत्य पर उसे लताड़े, पर वह चुप थी. यह सब मेरे लिए असहनीय था.
‘उसे क्या ज़रूरत थी मुझे ज़लील करने की, उसने एक बार भी नहीं सोचा.’
‘तुमने एक बार भी सोचा था?’ उसने पलटकर सवाल दागा.
ग़ुस्से में मैं हकलाने लगा था.
‘ये औरतज़ात...’ मैंने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि शेरनी की तरह लपककर कैफ़ी मेरे सामने आ खड़ी हुई. उसने अपने पेशे के उसूलों को ताक पर रख दिया था.
‘तुम बीबी को थाली में सजाकर ज़लालत पेश करो, कोई बात नहीं. अगर वह भी उसी थाली में वही ज़लालत वापस परोस दे तो लगे औरतज़ात को गाली देने. औरतज़ात को तब कोसते जब तुम यहां मेरे साथ न होते.’
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.
कैफ़ी ने उसी बिस्तर पर थूक दिया. उसने आगे बढ़कर पर्स उठाया और कमरे से बाहर चली गई.
मैं आंखें फाड़े उसकी गर्वान्वित चाल देखता रह गया.
कैफ़ी का अध्याय जहां से शुरू हुआ था वहीं ख़त्म हो गया.
वह अब मेरे फ़ोन काट देती है.
मैं और पत्नी साथ रह रहे हैं पर हमारे भीतर बहुत कुछ पहले जैसा नहीं रहा. पत्नी की आंखों में गहरा अपराधबोध देखकर मुझे भीतर कहीं ख़ुशी मिलती है.
मैंने अपने और कैफ़ी के संबंध में उसे कुछ नहीं बताया है. दरअस्ल, मुझे कोई अपराधबोध नहीं सालता.
मैं मुंबई अब भी आता हूं. अब भी ताज पैलेस में ठहरता हूं, पर अब फ़ोन करने के बावजूद कैफ़ी नहीं आती.
ताज की वीथियों में अब भी हमारी चर्चा है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#33
Nice update
VIsit my story  

Main ek sex doll bani..https://xossipy.com/thread-2030.html

 uncle ne banai meri movie(bdsm).. https://xossipy.com/thread-40694.html
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#34
thanks
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#35
welcome
(12-04-2019, 01:26 AM)neerathemall Wrote: हवाई जहाज से उतरते ही एक अजीब चिपचिपाहट में घिर गया था. बस मुंबई की सबसे ख़राब चीज़ मुझे यही लगती है. एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही सामने कंपनी की गाड़ी थी. मैं फटाफट उसमें बैठ गया और वह दुम दबाकर भाग खड़ी हुई. मुंबई में कुछ नहीं बदला था फिर भी बहुत कुछ बदल गया था. कार कालिमा में लिपटी सड़क को रौंदती हुई, मुंबई के लोगों को पीछे धकेलती हुई भागे जा रही थी. बीच, इमारतें, पेड़, लोग सब पीछे छूटते जा रहे थे.
दोपहर के दो बजे थे. सूरज और समुद्र में द्वंद्व युद्ध चल रहा था. लहरें आ-आकर बार-बार झुलसी रेत को लेप कर रही थीं, उसके ज़ख्मों को सहला रही थीं. मुंबई की रफ़्तार शाम और रात की बजाय इस समय कुछ कम थी या शायद चिपचिपाहट की नदी ने सबकी रफ़्तार को कुछ कम कर दिया था.
कितनी अजीब बात है... मेरे लिए मुंबई नया शहर नहीं है... मैं हर महीने यहां आता हूं, लेकिन आज मुंबई बिल्कुल नया शहर लग रहा है जैसे मैं पहली बार यहां आया हूं या फिर मेरी दृष्टि में कुछ बदल गया है या फिर मुझे मुंबई को देखने की फ़ुर्सत ही अब मिली है.
हमेशा तो मैं टैक्सी में बैठते ही कैफ़ी को फ़ोन मिलाने लगता था या फिर होटल तक पहुंचने तक का सारा समय उसे नॉन-वेज जोक्स भेजने में ही बिताता था जो दोस्तों ने मुझे भेजे होते थे. कब ताज पैलेस आ जाता था पता ही नहीं चलता था. आज सब बदल गया है या फिर मेरी आंखों पर से कैफ़ी का पर्दा हट गया है और उसके नीचे से सब अपने वास्तविक रूप में नज़र आने लगा है. सड़क के दोनों ओर की इमारतें मैंने पहली बार देखी थीं.
दो साल पहले यहीं ताज पैलेस में ही कैफ़ी से मुलाक़ात हुई थी. मैं अपनी पत्नी से बेहद प्यार करता था. पत्नी के बिना रहना मेरे लिए सचमुच एक प्रताड़ना से कम नहीं होता था. फ़ोन पर बातें करते रहने के बाद भी मैं उसकी कमी मुंबई में महसूस करता था. उसकी नौकरी के कारण उसे साथ लाना भी संभव नहीं होता था. ऑफ़िस के बाद शामें और रातें बड़ी वीरान होती थीं. ऐसे में कैफ़ी का मिलना किसी मूल्यवान तोहफ़े से कम नहीं था. शुरू-शुरू में हम दोनों बस साथ घूमते, चाय पीते, बातें करते.
कब वह मेरे मुंबई प्रवास की ज़रूरत बन गई मुझे पता ही नहीं चला. आख़िर एक दिन हम दोनों में एक कॉन्ट्रैक्ट हुआ.
मेरे मुंबई प्रवास में वह पूरा समय मेरे साथ रहेगी. जब मैं मीटिंग्स में जाऊंगा तब भी वह होटल में मेरे कमरे में ही रहेगी. मेरे मुंबई में रहते वह किसी ग़ैर मर्द के साथ रात नहीं बिताएगी. इतने दिन वह पूरी तरह से मेरी होगी, बिस्तर पर भी और उसके बदले उसे मुंह मांगी रकम मिलेगी. कैफ़ी आसानी से राज़ी हो गई.
मैं उसे अपने आने की पूर्व सूचना देता और वह उन तिथियों में मेरे लिए सुरक्षित होती और मुंबई प्रवास मेरे लिए एक सुखद और रंगीन अवकाश बन जाता. मैं मुंबई आने के बहाने खोजने लगा. मुंबई के नाम से मन पुलकित आनंदित हो उठता था और मैं कैफ़ी की यादों से सराबोर हो जाता.
सच कहता हूं मैं तब भी पत्नी को बहुत प्यार करता था. कैफ़ी का होना पत्नी के प्रति प्यार को तनिक भी कम नहीं कर पाया था. दिल्ली में रहते हुए मैं अब भी पूरी तरह एक समर्पित पति था. उसकी व्यस्तताओं को कुछ कम करने की कोशिश करता, उसकी हर इच्छा-अनिच्छा का ध्यान रखता. वह भी मुझे बेहद प्यार करती. उसकी क्षमताओं पर कभी-कभी मुझे हैरत होती. मैं उसके साथ एक सुखद गृहस्थ का अनुभव करता था. लेकिन जाने क्यों कभी-कभी मैं चाहने लगता कि वह कैफ़ी की अदा में बिस्तर पर क्यों नहीं आती पर मैं शीघ्र ही इस ख़्याल को मन से निकाल देता. उसकी व्यस्तताओं के बारे में सोचता और शीघ्र ही उसे अर्धांगिनी के शीर्षासन पर बैठा देता. मैं सौगंध खाकर कहता हूं मैंने उसे कभी कैफ़ी से कमतर नहीं आंका. कैफ़ी के मुक़ाबले उसकी गरिमा के आगे हमेशा नतमस्तक हुआ हूं.
लेकिन यह भी सच है कि कैफ़ी का अध्याय भी मुंबई में खुल चुका था. दोनों शहरों में मैं अलग-अलग दो ज़िंदगियां जी रहा था और दोनों का लुत्फ़ उठा रहा था.
मेरी पत्नी दिल्ली में अकेली मेरे रिश्तेदारों के साथ निभाती, नौकरी भी करती, घर भी देखती, मेरे मां-बाप का भी ध्यान रखती. मैं कैफ़ी के आगे भी उसकी प्रशंसा करता. उसकी असीम क्षमताओं का बखान करता. मैं आशा करता कि कैफ़ी पत्नी की प्रशंसा से रुष्ट होगी पर ऐसा कभी नहीं हुआ. मैंने सुना था ईर्ष्या औरत का दूसरा नाम है पर कैफ़ी में मुझे कोई ईर्ष्या नज़र नहीं आई.
एक दिन मैंने मूर्खता की थी जो उससे पूछ लिया था और उसके जवाब से भीतर कहीं ख़ुद ही शर्मिंदा हुआ था. ‘मैं क्यों ईर्ष्या करूंगी तुम्हारी पत्नी से? हम दोनों औरतें दो अलग-अलग नदियों के समान हैं. हमारे रास्ते अलग-अलग हैं. हमारे रास्ते हमारे चुने हुए रास्ते हैं. हमें अपनी सीमाओं का पता है. अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर नदी अपना स्वरूप खो देती है और विनाश करने वाली बाढ़ बन जाती है. कोई भी औरत बिना वजह बाढ़ नहीं बनती. वैसे उसे बाढ़ नहीं, बाड़ बनने में ही सुख मिलता है.’
पहली बार मुझे कैफ़ी में भी कुछ गहराई नज़र आई थी. मैं समझ गया था हर औरत की महिमा न्यारी है.



बहरहाल मैं मुंबई और दिल्ली में दो अलग-अलग जन्म गुज़ार रहा था और ख़ुश था. पत्नी को मैंने कैफ़ी के बारे में कुछ नहीं बताया था. अपने मोबाइल में मैंने उसका नाम मोहम्मद कैफ़ के नाम से फ़ीड किया था. ऐसा नहीं कि मेरे फ़ोन में किसी लड़की का नाम फ़ीड नहीं है. ऑफ़िस की सब लड़कियों के नाम और नंबर फ़ीड हैं और मेरी पत्नी ने कभी इस ओर झांका भी नहीं पर चोर की दाढ़ी में तिनका होता है इसलिए कैफ़ी मेरे मोबाइल में मोहम्मद कैफ़ थी.
दुनिया में शायद मुझ जैसा सुखी इंसान कोई नहीं था. मैं सदा सुख से मदमस्त, लहराता घूमता. दोस्त भी कहने लगे थे,‘तू तो शायद कभी शादी के बाद भी यूं नहीं दमका.’
धीरे-धीरे मेरे सपनों में भी कैफ़ी ने जगह बना ली थी. उसका सौंदर्य मुझे बांधे था. एक बार उसने कहा भी था,‘मेरे पेशे का उसूल है, काम, दाम और बाय-बाय. सिर्फ़ तुम हो जिसके साथ मैं बातें करती हूं वरना यह मेरे पेशे के उसूलों के ख़िलाफ़ है.’
मैं जानता था मेरे न रहने पर वह ग़ैर मर्दों के साथ रात बिताती थी. मैं उसके लिए भावुक होने लगा था. मैं उसके लिए सोचकर परेशान हो उठता. पता नहीं वह कैसे सहती होगी इतनी हिंसा, उसका मन तार-तार रोता होगा.
एक बार पूछा तो कहने लगी अब आदत हो गई है. पहली बार कपड़े उतारना बड़ा तक़लीफ़ भरा और कष्टदायक था. उसके बाद झिझक खुल गई. अब तो आदमियों की शक्ल देखते ही उनकी किस्म पता लग जाती है.
भविष्य के बारे में पूछा था तो टका-सा जवाब दिया था कैफ़ी ने,‘मैं सिर्फ़ वर्तमान में जीती हूं.’ परिवार के बारे में पूछा था तो चेहरा सख़्त हो गया था और बोली थी,‘मैं अकेली हूं, कोई मेरा अपना नहीं है.’
‘मुझे अपना नहीं मानती?’ मैंने प्रश्न उसकी ओर उछाल दिया था और आंखें उसके चेहरे पर गड़ा दी थीं.
कुछ झिझक कर वह बोली थी,‘तुम तो मेरे कस्टमर हो. हां, बस एक बात है निर्मम नहीं हो.’
अपनी जितनी प्रशंसा मैं उसके मुंह से सुनना चाहता था उतनी उसने नहीं की मैंने बात को आया-गया कर दिया.
फिर जाने क्या हुआ, एक भयंकर तूफ़ान आया. दिल्ली-मुंबई दोनों शहर उसमें समा गए. सब तहस-नहस हो गया. तूफ़ान मुझे बहाए लिए जा रहा था. मेरे पैर उखड़ने लगे थे. तेज़ हवा में मैं आंखें खोलने की कोशिश कर रहा था पर असफल हो रहा था. मैं अपने हाथों से चीज़ों को पकड़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था. मैं चाहता था कुछ तो साबुत बच जाए.
यह एक इत्तफ़ाक़ था कि मैं पत्नी को बिना बताए दो दिन पहले घर लौट आया था. मैंने अपनी कपड़ों की अलमारी में किसी और के कपड़े टंगे देखे थे. पत्नी ने उस संबंध को स्वीकार कर लिया. मैंने उसे एक थप्पड़ रसीद किया और मुंबई चला आया. इस भयंकर तूफान में भी थप्पड़ की वह अनुगूंज खो नहीं पाई थी.
मैं भीतर से बिखरने लगा था. मैं लगातार कैफ़ी को फ़ोन कर रहा था. इन पलों में मुझे एकमात्र उसी का सहारा था. सिर्फ़ वही गोद थी जहां मैं रो सकता था. सिर्फ़ वही वक्ष था जो मुझे आश्रय दे सकता था. पर वह फ़ोन नहीं उठा रही थी. बार-बार एक ही गाना बज रहा था और उस गाने को सुनकर मुझे और बेचैनी हो रही थी.
खोलो खोलो दरवाज़े
पर्दे करो किनारे
खूंटे से बंधी है हवा  
मिल के छुड़ाओ सारे...
मुझे लग रहा था कोई मुंह चिढ़ा रहा है.
यह भी ठीक है कि मैंने उसे अपने आने की पूर्व सूचना भी नहीं दी थी. मैं यह भी जानता हूं वह दिन में कहीं आना-जाना पसंद नहीं करती. धूप और चिपचिपाहट उसे बर्दाश्त नहीं.
एक दिन कह रही थी ‘तपस्वी और वेश्या दिन में सोते हैं. जब सारी दुनिया सोती है तो ये दोनों जागते हैं.’ शायद वह सोई हो.
मैं अब भी उसे फ़ोन मिलाए जा रहा था और वह कमबख़्त उठा नहीं रही थी.
मैंने उसके फ़ोन पर शीघ्रातिशीघ्र मिलने का मैसेज छोड़ दिया था. पर उसका न फ़ोन आ रहा था न मैसेज. मेरी बेचैनी और घबराहट बढ़ती जा रही थी.
मैं होटल के कमरे में अकेला था. वेटर भी पहचानने लगा था. मेरे चेहरे की व्यग्रता को समझकर वह भी तमाचा मार गया था,‘कैफ़ी मैडम आती ही होंगी. मुंबई की सड़कों पर ट्रैफ़िक भी बहुत है, कहीं जाम में फंसी होंगी.’ जी में आया उसका मुंह तोड़ दूं. उसकी हिम्मत कैसे हुई पर एक और बवाल खड़ा करने की हिम्मत नहीं हुई.
मेज पर पानी का जग था और ख़ाली दो ग्लास उल्टे रखे थे. मैं बार-बार अपने जीवन को उन ख़ाली उल्टे ग्लास से जोड़ने लगा. मुझे दोनों में अद्भुत साम्य नज़र आया.
खिड़कियों पर सज्जित पर्दों से छनकर आती रौशनी से पता लग रहा था कि अभी भी सूरज देवता ठंडे नहीं हुए हैं. अभी भी कैफ़ी सोई होगी या कहीं पार्लर में बैठी होगी.
होटल का कमरा गुनगुना उठा. मैंने जल्दी से भागकर फ़ोन उठाया, पत्नी का फ़ोन था, मैंने फ़ोन काट दिया. मैं उसकी शक्ल भी देखना नहीं चाहता था.
‘मैं बहुत अकेली हो गई थी. कब सब हो गया मुझे पता ही नहीं चला पर अब ऐसा नहीं होगा. प्लीज़ एक बार मुझे माफ़ कर दो.’ पत्नी का मैसेज आया था.
मैं अपने आपको अपमानित महसूस कर रहा था. अपमान के इस दंश को सहना मेरे लिए दुष्कर था. मुझे लग रहा था अगर इस समय पत्नी सामने होती तो शायद मैं उसका गला दबा देता.
मैंने फिर कैफ़ी को फ़ोन मिलाने की कोशिश की. वही गाना मुझे मुंह चिढ़ा रहा था.
‘हैलो.’ उसने फ़ोन उठा लिया.
‘मैं कब से फ़ोन मिला रहा हूं... और तुम फ़ोन उठाती क्यों नहीं?’ मैं लगभग ग़ुस्से से चिल्ला पड़ा.
‘मैं तुम्हारी बीवी नहीं हूं, ठीक से बात करो,’ कैफ़ी का सपाट जवाब आया.
मैं सकपका गया था.
कैफ़ी से इस व्यवहार की उम्मीद नहीं थी.
‘फ़ोन तो उठा सकती थीं,’ मैंने स्वर को कुछ कोमल बनाया.
‘तुम्हें तो पता है ना मैं दिन में कहीं आती-जाती नहीं!’
‘कभी इमर्जेंसी में तो अपना व्रत तोड़ सकती हो?’
कुछ बोली नहीं थी कैफ़ी.
‘कितने बजे पहुंचना है?’
‘अभी, जितनी जल्दी हो सके.’
वह कुछ नहीं बोली.
‘मैं इंतज़ार कर रहा हूं.’ मैंने कहा और मोबाइल बंद कर दिया.



मुझे सारे कमरे में सिर्फ़ अपनी पत्नी का चेहरा नज़र आ रहा था और मेरी कपड़ों की अलमारी में टंगे उस आदमी के कपड़े... जो मेरी ग़ैरहाज़िरी में मेरी पत्नी के साथ मेरे ही बिस्तर पर... मैं आपे में नहीं था. मैंने होटल के कमरे में बेड पर बिछी चादर ही नोच डाली.
मेरा सिर ग़ुस्से से भन्नाने लगा था. मैं ग़ुस्से में एक ग्लास तोड़ चुका था.
मैने व्हिस्की मंगा ली. मैं पूरी तरह उसमें डूब जाना चाहता था.
अब मैं निराशा के समुंदर में गहरे कहीं डूबता जा रहा था. कैफ़ी आ गई थी. वह चुप थी. उसने आकर न कुछ पूछा न कुछ कहा. वह ज़्यादातर चुप ही रहती थी. उसे बुलवाना पड़ता था.
मैं बालकनी में खड़ा था. मुंबई शहर बहुत छोटा हो गया था. तेइसवीं मंज़िल से नीचे चलते लोग चींटे-चींटियां लग रहे थे और कारें भागते हुए कुछ बिंदु. कैफ़ी भी मेरे पास बालकनी में आ खड़ी हुई थी. कुछ देर पहले मैं उसे बहुत कुछ कहना चाहता था पर अब एकदम ख़ामोश हो गया. मेरे हाथ में अब भी शराब थी. मैं सोच रहा था जब ईश्वर ने हमें अकेले पैदा किया है तो हम क्यों रिश्तों के बंधनों में बंधते हैं? रिश्ते हैं तो आशा और उम्मीद है. उम्मीदें हैं तो कष्ट हैं, दुख हैं.
ग्लास में जितनी शराब थी मैंने एक घूंट में पी ली.
कैफ़ी मुझे बालकनी से अंदर ले आई थी.
उसने दरवाज़ा बंद करके पर्दा खींच दिया. कमरे में मद्धिम रौशनी थी. वह मेरे चेहरे की ओर लगातार देख रही थी. जैसे वह जानना चाहती हो कि इतना हड़कंप क्यों मचा रखा था.
‘कैफ़ी, तुम जानती हो मैं अपनी पत्नी से कितना प्यार करता हूं लेकिन वह किसी और के साथ...’
मेरी मुट्ठियां कस गई थीं, कैफ़ी ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की. मैं उससे प्रतिक्रिया चाहता था. मैं चाहता था वह मेरी पत्नी के कुकृत्य पर उसे लताड़े, पर वह चुप थी. यह सब मेरे लिए असहनीय था.
‘उसे क्या ज़रूरत थी मुझे ज़लील करने की, उसने एक बार भी नहीं सोचा.’
‘तुमने एक बार भी सोचा था?’ उसने पलटकर सवाल दागा.
ग़ुस्से में मैं हकलाने लगा था.
‘ये औरतज़ात...’ मैंने अभी वाक्य पूरा भी नहीं किया था कि शेरनी की तरह लपककर कैफ़ी मेरे सामने आ खड़ी हुई. उसने अपने पेशे के उसूलों को ताक पर रख दिया था.
‘तुम बीबी को थाली में सजाकर ज़लालत पेश करो, कोई बात नहीं. अगर वह भी उसी थाली में वही ज़लालत वापस परोस दे तो लगे औरतज़ात को गाली देने. औरतज़ात को तब कोसते जब तुम यहां मेरे साथ न होते.’
मेरा मुंह खुला का खुला रह गया.
कैफ़ी ने उसी बिस्तर पर थूक दिया. उसने आगे बढ़कर पर्स उठाया और कमरे से बाहर चली गई.
मैं आंखें फाड़े उसकी गर्वान्वित चाल देखता रह गया.
कैफ़ी का अध्याय जहां से शुरू हुआ था वहीं ख़त्म हो गया.
वह अब मेरे फ़ोन काट देती है.
मैं और पत्नी साथ रह रहे हैं पर हमारे भीतर बहुत कुछ पहले जैसा नहीं रहा. पत्नी की आंखों में गहरा अपराधबोध देखकर मुझे भीतर कहीं ख़ुशी मिलती है.
मैंने अपने और कैफ़ी के संबंध में उसे कुछ नहीं बताया है. दरअस्ल, मुझे कोई अपराधबोध नहीं सालता.
मैं मुंबई अब भी आता हूं. अब भी ताज पैलेस में ठहरता हूं, पर अब फ़ोन करने के बावजूद कैफ़ी नहीं आती.
ताज की वीथियों में अब भी हमारी चर्चा है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#36
(12-04-2019, 01:18 AM)neerathemall Wrote:
banana वचन सूत्र banana


























banana
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#37
(12-04-2019, 01:18 AM)neerathemall Wrote:
banana वचन सूत्र banana


























banana

[Image: 44c4b94e160d9792d9777b55d2b52141--promot...lywood.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#38
मनीषा मेरे सामने नंगी लेट गयी
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भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#39
(21-12-2021, 02:11 PM)neerathemall Wrote: मनीषा मेरे सामने नंगी लेट गयी

मेरे और आशा के बीच कुछ भी ठीक नहीं चल रहा था मैं बहुत ही ज्यादा परेशान था। मैं सोचने लगा कि क्या आशा के साथ मुझे डिवोर्स ले लेना चाहिए या नहीं। पहले हम दोनों के बीच सब कुछ ठीक था हम दोनों की शादी को अभी एक वर्ष ही हुआ है लेकिन हम दोनों के बीच जिस तरह से रोज झगड़े होने लगे थे उससे हम दोनों ही बहुत ज्यादा परेशान थे। मैं इस वजह से अपने काम पर भी ध्यान नहीं दे पा रहा था और मुझे अपने ऑफिस से रिजाइन देना पड़ा। मैंने एक दिन आशा से इस बारे में बात करने का फैसला किया आशा और मेरी शादी को एक वर्ष ही हुआ था। जब हम दोनों की शादी हुई थी तो उसके बाद हम दोनों की जिंदगी में सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन अचानक से ही आशा का बदलता हुआ स्वभाव देखकर मैं बहुत ही ज्यादा परेशान होने लगा था। मुझे यह भी लगने लगा था कि हम दोनों को अलग ही हो जाना चाहिए। आशा मुझे बिल्कुल भी नहीं समझती थी आशा और मेरी अरेंज मैरिज हुई थी और इस बात से पापा और मम्मी भी बहुत ज्यादा परेशान थे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#40
भैया ने भी मुझे कई बार समझाने की कोशिश की और कहा कि देखो तुम्हें आशा से बात करनी चाहिए। मैंने भी आशा से कई बार इस बारे में बात की लेकिन मुझे नहीं लगा कि हम दोनों एक दूसरे के साथ ज्यादा समय तक रह पाएंगे इसलिए हम दोनों ने एक दूसरे से अलग होने का फैसला कर ही लिया था। मैंने पूरा मन बना लिया था की मैं आशा से अलग हो जाऊं। हम दोनों एक दूसरे को डिवोर्स दे चुके थे मैं भी अब अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुका था और आशा भी अपनी जिंदगी में आगे बढ़ चुकी थी। हम दोनों की मुलाकात उसके बाद कभी हुई ही नहीं मैं भी अब एक नई कंपनी ज्वाइन कर चुका था और वहां पर मैं अपनी जॉब पर पूरी तरीके से ध्यान दे रहा था। आशा और मेरे डिवोर्स को हुए काफी लंबा समय बीत चुका था और अब पापा और मम्मी भी कई बार मुझे समझाते और कहते कि रजत बेटा तुम्हे शादी कर लेनी चाहिए। मैं शादी करना ही नहीं चाहता था परंतु कई बार मुझे ऐसा भी लगता कि जैसे मुझे शादी कर लेनी चाहिए।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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