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बरसात की वह रात
#1
बरसात की वह रात






Heart Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
रात गहराती जा रही थी. मेरा मन घबरा रहा था. भैया-भाभी आज सुबह मुंह अंधेरे ही उज्जैन के लिए निकल गए थे. बुआ ने उज्जैन से फ़ोन किया था,‘आज श्रावणी सोमवार है. आज के दिन महाकालेश्वर के दर्शन का बड़ा माहात्म्य है. हो सके तो आ जाओ.’
दर्शन तो एक बहाना था. बुआ जी की नज़र में मेरे लिए कोई लड़का था. उसी सिलसिले में भैया ने अचानक जाने का प्रोग्राम बना लिया था. बोलकर तो यही गए थे कि शाम तक ज़रूर आ जाएंगे. पर अभी तक आए नहीं. आसमान में सावन की कजरारी घटाएं उमड़-घुमड़ रही थीं. रह-रहकर बिजली कड़क रही थी. लग रहा था जमकर बारिश होगी.
मैं बेसब्री से भैया के आने की राह देख रही थी. तभी फ़ोन की घंटी बजी. भैया का ही फ़ोन था. कहने लगे,‘रानू आज श्रावणी सोमवार के कारण महाकाल मंदिर में बड़ी भीड़ थी. कई घंटे लाइन में लगे रहने के बाद नंबर आया. आज बुआ यहीं उनके घर पर रुकने के लिए ज़ोर दे रही हैं. हम सुबह जल्दी आ जाएंगे. आज सुखिया को तुम वहीं रोक लेना. एक रात की ही तो बात है.’
‘ठीक है भैया, जल्दी आना.’ इससे अधिक क्या कहती? मां-बाबूजी के देहांत के बाद भैया ने ही मुझे पाल-पोसकर बड़ा किया. पढ़ाया-लिखाया. मेरे ही कारण उन्हें अपनी शादी भी जल्दी करनी पड़ी थी, ताकि घर के कामकाज में लगे रहने के कारण मेरी पढ़ाई का नुक़सान न हो. भाभी भी मेरी सहेली जैसी ही थी. ज़िंदगी बड़े मज़े से गुज़र रही थी.
इधर कुछ दिनों से भैया को मेरी शादी की चिंता खाए जा रही थी. कहते,‘समय रहते तेरे हाथ पीले कर दूं तो मुझे चैन मिले. नहीं तो लोग कहेंगे कि जवान बहन घर में बैठी है और इन्हें कोई चिंता नहीं. आज मां-बाबूजी होते तो...’ बस यहां आकर भैया भावुक हो जाते.
मैं लाख कहती,‘भैया मैं यह घर छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगी.’ पर मेरी सुनता ही कौन? झट कह देते,‘रहने दे, सभी लड़कियां शुरू में ऐसा ही कहती हैं और फिर शादी करके ख़ुशी-ख़ुशी ससुराल के लिए विदा हो जाती हैं.’
मैं नहीं चाहती थी कि भैया पर बोझ बनूं इसलिए पढ़ाई पूरी करते ही मैंने अपने लिए नौकरी की खोज भी शुरू कर दी थी. इंटरव्यू कॉल भी आने लगे थे.
मैं इसी सोच में डूबी हुई थी कि तेज़ी-से बौछारें पड़ने लगीं. तभी घंटी बजी. इतनी बारिश में कौन हो सकता है? सोचती हुई मैं उठी और सेफ़्टी चेन लगाकर दरवाज़े की दरार से झांका. बाहर अटैची लिए एक युवक खड़ा था. उम्र यही कोई २८-२९ साल. मुझे देखकर उसने नमस्कार करते हुए पूछा,‘माला दीदी हैं?’
‘भाभी तो आज भैया के साथ उज्जैन गई हैं,’ मैंने दरवाज़े के पीछे से ही कह दिया.
उसके चेहरे पर निराशा का भाव था. फिर मेरी सवालिया नज़रों को देख उसने सकपकाते हुए कहा,‘मैं राहुल हूं. माला दीदी मेरी मौसेरी बहन हैं. दीदी की शादी में मैं अपनी परीक्षा के कारण नहीं आ पाया था इसलिए मुझे आप नहीं पहचान पा रही हैं.’
वह बाहर बारिश की तेज़ बौछारों से भीगा कांप रहा था. बड़े संकोच से उसने पूछा,‘माला दीदी नहीं हैं तो क्या आप मुझे अंदर आने के लिए भी नहीं कहेंगी?’
मैंने दरवाज़ा खोलकर किनारे खिसकते हुए कहा,‘क्यों नहीं? आइए.’
अंदर आकर भी वह दरवाज़े पर ही ठिठक गया, क्योंकि उसके तर-ब-तर कपड़ों से लगातार पानी से सारा फ़र्श गीला हो गया था. उसने वहीं से कैफ़ियत देते हुए कहा,‘मैं एक मीटिंग में इंदौर आया था. माला दीदी से बहुत सालों से मिलना नहीं हुआ था, सोचा आज मिलता चलूं.’
उसकी घबराहट देख मुझे शरारत सूझी. मैंने पूछा,‘अगर आपको मालूम हो जाता कि भाभी आज यहां नहीं हैं तो क्या आप नहीं आते?’
अब तक वह भी कुछ कुछ सहज होने लगा था. उसने भी शरारत से ही जवाब दिया,‘हां, वैसे तो नहीं आता... पर हां, अगर यह मालूम हो जाता कि दीदी की एक सुंदर-सी, नटखट-सी ननद भी है तो ज़रूर आता.’
सुनकर अच्छा लगा, पर अपने मनोभाव छुपाते हुए मैं मुड़ गई और अंदर भैया की अलमारी से तौलिया और कुर्ता-पायजामा निकालकर उसे थमाते हुए बोली,‘प्लीज़, बाथरूम में जाकर चेंज कर लीजिए, तब तक मैं चाय बनाती हूं.’
मैंने रसोई में जाकर उसके लिए अदरक की चाय बनाई, साथ ही सुखिया को मैंने खाना बनाने के लिए कह दिया.
तब तक वह कपड़े बदलकर आ गया. हम दोनों चुपचाप चाय पीने लगे. चुप्पी तोड़ते हुए इस बार भी उसी ने बात आगे बढ़ाई,‘आपने तो अभी तक अपना नाम भी नहीं बताया है.’
‘रानू’ मैंने कहा. पर मन ही मन मैं सोच रही थी कि मेरी शादी के लिए लड़के तलाशते हुए भाभी को कभी राहुल का ख़्याल क्यों नहीं आया? आने दो कल भाभी को. मैं ख़ुद ही लाज-शरम छोड़कर भाभी को कह दूंगी कि मुझे तो आपका भाई राहुल पसंद आ गया है. राहुल भी शायद इस रिश्ते के लिए ‘ना’ नहीं कहेगा. मन ही मन यह निर्णय लेते ही मुझे ऐसा लगने लगा जैसे मैं राहुल की वाग्दत्ता हो गई हूं. मन के किसी कोने में शहनाइयां-सी बजने लगीं.
तभी सुखिया ने आकर कहा,‘दीदी डाइनिंग टेबल पर खाना लगा दिया है. आ जाइए.’
इसके बाद दिनभर की थकी हुई सुखिया कमरे के बाहर गलियारे में बिस्तर बिछाकर सो गई.
दूर कहीं एक कड़क के साथ बिजली गिरी और अचानक लाइट चली गई. मैंने जल्दी से मोमबत्ती जलाकर टेबल पर लगाई और चुटकी लेते हुए कहा,‘आइए जनाब कैंडल लाइट डिनर पर आपका स्वागत है.’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
राहुल भी लगता है वाक्चातुर्य में पीछे नहीं रहना चाहता था,‘जब चांद-सा रौशन चेहरा सामने हो तो कैंडल लाइट की भी क्या ज़रूरत है? बुझा दो इन्हें भी ख़ुशी की बज़्म में क्या काम है जलनेवालों का?’
राहुल के मुंह से अपने लिए यह सुनना कितना अच्छा लग रहा था! इस क्षणिक मुलाक़ात में ही राहुल अपने विनोदी स्वभाव के कारण कितना अपना-सा लगने लगा था! और फिर इस सावन की रात में माहौल भी कितना रूमानी हो गया था. मोमबत्ती की मद्धम रौशनी में राहुल की प्लेट में आग्रहपूर्वक खाना परोसते हुए मेरे हाथ उसके हाथों से टकराते रहे. हो सकता है जानबूझकर भी दोनों ओर से ऐसा हो रहा हो.
डिनर के बाद हम दोनों सोफ़े पर बैठकर गप्पें लगाते रहे. यहां-वहां की, न जाने कहां कहां की बातें. राहुल का विनोदी स्वभाव मुझे हंसा-हंसाकर लोटपोट करता रहा. मुझे याद नहीं, मैं कभी इतना खुलकर हंसी होऊं.
बातों में मशगूल न जाने कब राहुल की बांहें सोफ़े के पीछे से हौले-हौले मेरे कंधों को स्पर्श करने लगीं मालूम ही नहीं पड़ा. और झूठ क्या बोलूं, मुझे भी यह अच्छा ही लग रहा था. इस श्रावणी रात में मानों मैं स्वयंवरा बन गई थी. बस कल भैया-भाभी के आते ही इस संबंध पर रिश्ते की मुहर लगवाने में देर नहीं करूंगी. राहुल की आंखों में जो नशा उतर रहा था उससे लग रहा था कि मैं भी उसकी पसंद पर खरी उतरी हूं.
इधर मेरी ओर से कोई प्रतिकार न होता देख राहुल और क़रीब और क़रीब आता जा रहा था. पर तभी एक झटके से मानों नींद से जागी. मेरे संस्कारों में शादी से पहले इस तरह के संबंध बनाना गवारा नहीं था. मैंने उसे और आगे बढ़ने से रोकते हुए कहा,‘नहीं राहुल अभी नहीं. कल भैया-भाभी आ जाएं. पहले वे इस रिश्ते को ओके कर दें. फिर बारात लेकर आने में देर न करना, समझे?’ मैंने उसके कान खींचते हुए कहा.
राहुल को जैसे कोई करंट लगा हो. बग़ैर कुछ कहे वह एकदम से उठ खड़ा हुआ और दरवाज़ा खोलकर बालकनी में चला गया. मैंने सुखिया को गहरी नींद से जगाया और अपने कमरे में सुला लिया. राहुल बाद में वहीं ड्राइंग रूम में सोफ़े पर आकर सो गया.
पर मेरी आंखों में नींद कहां थी? मन ही मन राहुल को लेकर सपने बुन रही थी. लग रहा था मुझे मेरी मंज़िल मिल गई है. कुछ ही घंटों में राहुल मुझे कितना अपना-सा लगने लगा था. भैया-भाभी की ओर से इस रिश्ते को नकारने का तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होता. कल्पनाओं में मैं राहुल की परिणीता बनी इतराती रही.
सुबह-सुबह थोड़ी झपकी लगी होगी कि मैं अचकचाकर उठी. बारिश थम चुकी थी. सुखिया किचन में रात के बर्तन समेट रही थी. मैंने चारों ओर नज़र दौड़ाई. राहुल कहीं नज़र नहीं आया. मुझे लगा बाथरूम में होगा. बाथरूम में भैया का कुर्ता पायजामा टंगा था, जो राहुल ने रात को पहना था. इधर उसकी अटैची भी नहीं दिखाई दी.
मैंने सुखिया को पुकारा,‘सुखिया तुम्हारे मेहमान कहां गए? ज़रा चाय तो बना दो उनके लिए.’
‘दीदी वो तो मुंह अंधेरे ही उठकर चल दिए. मुझे कहा कि मेरी सुबह की ट्रेन है इसलिए चलता हूं. आपको उठाने लगी तो उन्होंने मना कर दिया कि रहने दो, मैं फिर आऊंगा.’
मैं मन ही मन मुस्कुराई कि राहुल मुझे मालूम है तुम बार-बार वापिस आओगे. पर मुझे अच्छा नहीं लगा कि राहुल मुझसे मिले बग़ैर कैसे चला गया? तभी सोफ़े के कुशन के नीचे दबे क़ागज़ पर मेरी निगाह पड़ी. एक ही सांस में मैं पढ़ गई. लिखा था-गुस्ताख़ी करने जा रहा था. अच्छा हुआ तुमने बहकते क़दमों को रोक दिया. थैंक्यू. बग़ैर मिले जा रहा हूं. माफ़ करना.
femina

तभी दरवाज़े पर भैया-भाभी के आने की आहट आई. वादे के मुताबिक़ वे पहली बस से ही दौड़े चले आए थे. बहुत ख़ुश नजर आ रहे थे. आते ही भाभी ने उत्साह में भरकर कहा,‘रानू, जल्दी से नहाकर तैयार हो जाओ. लड़केवाले आज ही तुम्हें देखने आ रहे हैं. मैंने उन्हें लंच पर बुला लिया है. सब साथ ही मिलकर खाना खाएंगे.’
फिर भाभी मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बग़ैर किचन में घुस गई और सुखिया को बताने लगी कि आज खाने में क्या-क्या बनेगा. मेरी बात सुनने की भाभी को फ़ुरसत ही नहीं थी. मैं अपनी बात कहने के लिए उनके पीछे-पीछे घूमने लगी. पर भैया के सामने कहने की हिम्मत नहीं हुई.
जब भाभी कपड़े बदलने अपने कमरे में गई तो मैं भी उनके पीछे-पीछे चल दी. समझ नहीं आ रहा था कि बात कहां से शुरू करूं? बड़े संकोच से मैंने कहना शुरू किया,‘भाभी, कल आपकी मौसी का लड़का यहां आया था... हां क्या नाम है उसका...?’ मैंने बनते हुए पूछा.
‘कौन राहुल? कैसे आना हुआ उसका? अकेले ही आया था या उसकी बीवी भी साथ थी?’ भाभी ने साड़ी को तह करते हुए पूछा.
‘राहुल की बीवी?’ सुनते ही मैं मानो आसमान से ज़मीन पर आ गिरी.
भाभी मेरी ओर पीठ किए अलमारी में से कपड़े निकाल रही थीं. उन्हें मेरी इस हालत का बिल्कुल अंदाज़ा नहीं था.
पर मैंने जल्दी ही अपने आप को संभाल लिया और कहा,‘आया तो अकेला ही था. सुखिया ने बढ़िया खाना बनाकर खिला दिया था. रात को वहीं सोफ़े पर सो गया और सुबह न जाने कब चला गया, मालूम ही नहीं पड़ा. जाते समय मिलकर भी नहीं गया,’ मैं बड़ी सफ़ाई से सारी बातें छुपा गई. अब कहने को क्या बचा था?
‘कोई बात नहीं. उससे तो मैं बाद में निबटूंगी. चल अब तू जल्दी से तैयार हो जा. आज मेरी यह गुलाबी सिल्क साड़ी पहन लेना. तुझपर बहुत खिलती है.’ कहते हुए भाभी ने पलंग पर साड़ी रख दी और कमरे से निकल गई.
मेरे सर पर हज़ारों हथौड़े बरस रहे थे. मुझे ग़ुस्सा आ रहा था कि राहुल ने मुझसे यह बात क्यों छुपाई कि वह शादीशुदा है? हां, पर मैंने ही उससे यह कब पूछा था? या उसे यह सब बताने का मौक़ा ही कहां दिया? यह भावनाओं का ज्वार था या मौसम का ख़ुमार? या अचानक मिले एकांत का लाभ उठा लेने का लोभ? या फिर मेरे अन्तर्मन में छुपी यह भावना कि जल्दी से जल्दी मेरी कहीं शादी तय हो जाए, ताकि भैया मेरी चिंता से मुक्त हो जाएं? क्या यही सोचकर मैं इस श्रावणी रात में स्वयंवरा बनने को आकुल हो गई थी? पर राहुल स्वयं शादीशुदा होते हुए मौक़े का फ़ायदा नहीं उठा रहा था क्या? मुझे ख़ुद पर ग़ुस्सा आ रहा था कि क्यों मैंने एक अजनबी पर इतना विश्वास किया कि उसे जीवनसाथी बनाने के सपने देखने लगी! पर फिर भी, अभी तो कुछ नहीं बिगड़ा था. मैंने ख़ुद को एक फिसलन भरे रास्ते पर फिसलने से रोक लिया था, इस अनुभूति से मुझे जो राहत मिली उसे मैं बयान नहीं कर सकती. साथ ही रात की उस घटना ने मुझे यह सबक दिया कि कभी भी, कहीं भी कोई भी, किसी भी रूप में हमारा फ़ायदा उठा सकता है, उसका प्रतिकार करने का हममें साहस होना चाहिए.
मैं न जाने कितनी देर तक इसी अन्तर्द्वन्द्व से जूझती रही. तभी भाभी ने आकर कमरे में झांका,‘अरे रानू, तू तो अभी तक वैसी की वैसी बैठी है? कब तैयार होगी? देख वो लोग तो आ भी गए हैं.’
ड्रॉइंग रूम से मेहमानों के आने की हलचल की आवाज़ें आ रही थीं. मैंने गुलाबी सिल्क की साड़ी पलंग से उठाते हुए कहा,‘बस भाभी, मैं जल्दी से तैयार होकर अभी आई.’
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#4
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#5
दो जीवन समानांतर








Heart Heart Heart Heart Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#6
-हैलो, क्या मैं इस नम्बर पर दीप्ति जी से बात कर सकता हूं?
-हां, मैं मिसेज़ धवन ही बात कर रही हूं.
-लेकिन मुझे तो दीप्ति जी से बात करनी है.
-कहा न, मैं ही मिसेज दीप्ति धवन हूं. कहिए, क्या कर सकती हूं मैं आपके लिए?
-कैसी हो?
-मैं ठीक हूं, लेकिन आप कौन?
-पहचानो.. ..
-देखिए, मैं पहचान नहीं पा रही हूं. पहले आप अपना नाम बताइए और बताइए, क्या काम है मुझसे?
-काम है भी ओर नहीं भी
-देखिए, आप पहेलियां मत बुझाइए. अगर आप अपना नाम और काम नहीं बताते तो मैं फ़ोन रखती हूं.
-यह ग़ज़ब मत करना डियर, मेरे पास रुपए का और सिक्का नहीं है.
-बहुत बेशरम हैं आप. आप को मालूम नहीं है, आप किससे बात कर रहे हैं.
-मालूम है तभी तो छूट ले रहा हूं, वरना दीप्ति के ग़ुस्से को मुझसे बेहतर और कौन जानता है.
-मिस्टर, आप जो भी हैं, बहुत बदतमीज़ हैं. मैं फ़ोन रख रही हूं.
-अगर मैं अपनी शराफ़त का परिचय दे दूं तो?
-तो मुंह से बोलिए तो सही. क्यों मेरा दिमाग ख़राब किए जा रहे हैं.
-यार, एक बार तो कोशिश कर देखो, शायद कोई भूला भटका अपना ही हो इस तरफ़.
-मैं नहीं पहचान पा रही हूं आवाज़. आप ही बताइए.
-अच्छा, एक हिंट देता हूं, शायद बात बन जाए.
-बोलिए.
-आज से बीस बरस पहले 1979 की दिसम्बर की एक सर्द शाम देश की राजधानी दिल्ली में कनॉट प्लेस में रीगल के पास शाम छः बजे आपने किसी भले आदमी को मिलने का टाइम दिया था.
-ओह गॉड, तो ये आप हैं जनाब. आज... अचानक... इतने बरसों के बाद?
-जी हां, यह खाकसार आज भी बीस साल से वहीं खड़ा आपका इंतज़ार कर रहा है.
-बनो मत, पहले तो तुम मुझे ये बताओ, तुम्हें मेरा ये नम्बर कहां से मिला? इस ऑफ़िस में यह मेरा चौथा ही दिन है और तुमने...
-हो गए मैडम के सवाल शुरू. पहले तो तुम्हीं बताओ, तब वहां आई क्यों नहीं थी, मैं पूरे ढाई घंटे इंतज़ार करता रहा था. हमने तय किया था, वह हमारी आख़िरी मुलाक़ात होगी, इसके बावजूद...
-तुम्हारा बुद्धूपना ज़रा भी कम नहीं हुआ. अब मुझे इतने बरस बाद याद थोड़े ही है कि कब, कहां और क्यों नहीं आई थी. ये बताओ, बोल कहां से रहे हो और कहां रहे इतने दिन?
-बाप रे, तुम दिनों की बात कर रही हो. जनाब, इस बात को बीस बरस बीत चुके हैं. पूरे सात हज़ार तीन सौ दिन से भी ज़्यादा.
-होंगे. ये बताओ, कैसे हो, कहां हो, कितने हो?
-और ये भी पूछ लो क्यों हो?
-नहीं, यह नहीं पूछूंगी. मुझे पता है तुम्हारे होने की वजह तो तुम्हें ख़ुद भी नहीं मालूम.
-बात करने का तुम्हारा तरीक़ा ज़रा भी नहीं बदला.
-मैं क्या जानूं. ये बताओ इतने बरस बाद आज अचानक हमारी याद कैसे आ गई? तुमने बताया नहीं, मेरा ये नम्बर कहां से लिया?
-ऐसा है दीप्ति, बेशक मैं तुम्हारे इस महानगर में कभी नहीं रहा. वैसे बीच बीच में आता रहा हूं, लेकिन मुझें लगातार तुम्हारे बारे में पता रहा. कहां हो, कैसी हो, कब कब और कहां-कहां पोस्टिंग रही और कब-कब प्रोमोशन हुए. बल्कि चाहो तो तुम्हारी सारी फ़ॉरेन ट्रिप्स की भी फ़ेहरिस्त सुना दूं. तुम्हारे दोनों बच्चों के नाम, कक्षाएं और हाबीज़ तक गिना दूं, बस, यही मत पूछना, कैसे ख़बरें मिलती रहीं तुम्हारी.
-बाप रे, तुम तो यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे. ये इंटैलिजेंस सर्विस कब से जॉइन कर ली? कब से चल रही थी हमारी ये जासूसी?
-ये जासूसी नहीं थी डियर, महज़ अपनी एक ख़ास दोस्त की तरक़्क़ी की सीढ़ियों को और ऊपर जाते देखने की सहज जिज्ञासा थी. तुम्हारी हर तरक़्क़ी से मेरा सीना थोड़ा और चौड़ा हो जाता था, बल्कि आगे भी होता रहेगा.
-लेकिन कभी खोज ख़बर तो नहीं ली हमारी.
-हमेशा चाहता रहा. जब भी चाहा, रुकावटें तुम्हारी तरफ़ से ही रहीं. बल्कि मैं तो ज़िंदगी भर के लिए तुम्हारी सलामती का कान्ट्रैक्ट लेना चाहता था, तुम्हीं पीछे हट गईं. तुम्हीं नहीं चाहती थीं कि तुम्हारी खोज ख़बर लूं, बल्कि टाइम दे कर भी नहीं आती थीं. कई साल पहले, शायद तुम्हारी पहली ही पोस्टिंग वाले ऑफ़िस में बधाई देने गया था तो डेढ़ घंटे तक रिसेप्शन पर बिठाए रखा था तुमने, फिर भी मिलने नहीं आई थीं. मुझे ही पता है कितना ख़राब लगा था मुझे कि मैं अचानक तुम्हारे लिए इतना पराया हो गया कि... तुम्हें आमने-सामने मिलकर इतनी बड़ी सफलता की बधाई भी नहीं दे सकता.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#7
तुम सब कुछ तो जानते थे. मैं उन दिनों एक दम नर्वस ब्रेक डाउन की हालत तक जा पहुंची थी. उन दिनों प्रोबेशन पर थी, एकदम नए माहौल, नई ज़िम्मेवारियों से एडजस्ट कर पाने का संकट, घर के तनाव, उधर ससुराल वालों की अकड़ और ऊपर से तुम्हारी हालत, तुम्हारे पागल कर देने वाले बुलावे. मैं ही जानती हूं, मैंने शुरू के वे दो एक साल कैसे गुज़ारे थे. कितनी मुश्क़िल से ख़ुद को संभाले रहती थी कि किसी भी मोर्चे पर कमज़ोर न पड़ जाऊं.
-मैं इन्हीं वजहों से तुमसे मिलना चाहता रहा कि किसी तरह तुम्हारा हौसला बनाए रखूं. कुछ बेहतर राह सुझा सकूं और मज़े की बात कि तुम भी इन्हीं वजहों से मिलने से कतराती रहीं. आख़िर हम दो दोस्तों की तरह तो मिल ही सकते थे.
-तुम्हारे चाहने में ही कोई कमी रह गई होगी .
रहने भी दो. उन दिनों हमारे कैलिबर का तुम्हें चाहने वाला शहर भर में नहीं था. यह बात उन दिनों तुम भी मानती थीं.
-और अब?
-अब भी इम्तहान ले लो. इतनी दूर से भी तुम्हारी पूरी खोज ख़बर रखते हैं. देख लो, बीस बरस बाद ही सही, मिलने आए हैं. फ़ोन भी हमीं कर रहे हैं.
-लेकिन हो कहां? मुझे तो तुम्हारी रत्ती भर भी ख़बर नहीं मिली कभी.
-ख़बरें चाहने से मिला करती हैं. वैसे मैं अब भी वहीं, उसी विभाग में वही सब कुछ पढ़ा रहा हूं जहां कभी तुम मेरे साथ पढ़ाया करती थी. कभी आना हुआ उस तरफ़ तुम्हारा?
-वैसे तो कई बार आई लेकिन...
-लेकिन हमेशा डरती रही, कहीं मुझसे आमना-सामना न हो जाए...
-नहीं वो बात नहीं थी. दरअसल, मैं किस मुंह से तुम्हारे सामने आती. बाद में भी कई बार लगता रहा, काफ़ी हद तक मैं ख़ुद ही उन सारी स्थितियों की ज़िम्मेवार थी. उस वक़्त थोड़ी हिम्मत दिखाई होती तो...
-तो क्या होता?
-होता क्या, मिस्टर धवन के बच्चों के पोतड़े धोने के बजाये तुम्हारे बच्चों के पोतड़े धोती.
-तो क्या ये सारी जद्दोजहद बच्चों के पोतड़े धुलवाने के लिए होती है?
-दुनियाभर की शादीशुदा औरतों का अनुभव तो यही कहता है.
-तुम्हारा ख़ुद का अनुभव क्या कहता है?
-मैं दुनिया से बाहर तो नहीं.
-विश्वास तो नहीं होता कि एक आईएएस अधिकारी को भी बच्चों के पोतड़े धोने पड़ते हैं.
-श्रीमान जी, आईएएस हो या आईपीएस, जब औरत शादी करती है तो उसकी पहली भूमिका बीवी और मां की हो जाती है. उसे पहले यही भूमिकाएं अदा करनी ही होती हैं, तभी ऑफ़िस के लिए निकल पाती है. तुम्हीं बताओ, अगर तुम्हारे साथ पढ़ाती रहती, मेरा मतलब, वहां रहती या तुमसे रिश्ता बन पाता तो क्या इन कामों से मुझे कोई छूट मिल सकती थी?
-बिलकुल मैं तुमसे ऐसा कोई काम न कराता. बताओ, जब तुम मेरे कमरे में आती थी तो कॉफ़ी कौन बनाता था?
-रहने भी दो. दो-एक बार कॉफ़ी बनाकर क्या पिला दी, जैसे ज़िंदगीभर सुनाने के लिए एक क़िस्सा बना दिया.
-अच्छाल एक बात बताओ, अभी भी तुम्हारा चश्मा नाक से बार-बार सरकता है या टाइट करा लिया है?
-नहीं, मेरी नाक अभी भी वैसी ही है, चाहे जितने महंगे चश्मे ख़रीदो, फिसलते ही हैं.
-पुरानी नकचड़ी जो ठहरी. बताऊं क्या?
-कसम ले लो, तुम्हारी नाक के नखरे तो जगज़ाहिर थे.
-लेकिन तुम्हारी नाक से तो कम ही. जब देखो, गंगा जमुना की अविरल धारा बहती ही रहती थी. वैसे तुम्हारे ज़ुकाम का अब क्या हाल है?
-वैसा ही है.
-कुछ लेते क्यों नहीं?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#8
तुम्हें पता तो है, दवा लो तो ज़ुकाम सात दिन में जाता है और दवा न लो तो एक हफ़्ते में. ऐसे में दवा लेने का क्या मतलब?
-जनम जात कंजूस ठहरे तुम. ज़ुकाम तुम्हारा होता था और रुमाल मेरे शहीद होते थे. लगता तो नहीं तुम्हारी कंजूसी में अब भी कोई कमी आई होगी. तुमसे शादी की होती तो मुझे तो भूखा ही मार डालते.
-रहने भी दो. हमेशा मेरी प्लेट के समोसे भी खा जाया करती थी.
-बड़े आए समोसे खिलाने वाले. ऑर्डर ख़ुद देते थे और पैसे मुझसे निकलवाते थे.
-अच्छा, बाइ द वे, क्या तुम्हारी मम्मी ने उस दिन मेरे वापिस आने के बाद वाकई ज़हर खा लिया था या यह सब एक नाटक था, तुम्हें ब्लैकमेल करने का. मुझसे तुम्हें दूर रखने का रामबाण उपाय?
-अब छोड़ो उन सारी बातों को. अब तो मम्मी ही नहीं रही हैं इस दुनिया में.
-ओह सॉरी, मुझे पता नहीं था. और कौन-कौन हैं घर में?
-तुम तो जासूसी करते रहे हो. पता ही होगा.
-नहीं, वो बात नहीं है. तुम्हारे ही श्रीमुख से सुनना चाहता हूं.
-बड़ी लड़की अनन्या का एमबीए का दूसरा साल है. उससे छोटा लड़का है दीपंकर. आईआईटी में इंजीनियरिंग कर रहा है.
-और मिस्टर धवन कहां हैं आजकल?
-आजकल वर्ल्ड बैंक में डेप्युटेशन पर हैं.
-ख़ुश तो हो?
-बेकार सवाल है.
-क्यों?
-पहली बात तो, किसी भी शादीशुदा औरत से यह सवाल नहीं पूछा जाता चाहे वह आपके कितनी भी क़रीब क्यों न हो. और दूसरे, शादी के बीस साल बाद इस सवाल का वैसे भी कोई मतलब नहीं रह जाता. तब हम सुख-दुख नहीं देखते. यही देखते हैं कि पति-पत्नी ने इस बीच एक-दूसरे की अच्छी-बुरी आदतों के साथ कितना एडजस्ट करने की आदत डाल ली है. तुम अपनी कहो, क्या तुम्हारी कहानी इससे अलग है?
-कहने लायक है ही कहां मेरे पास कुछ.
-क्यों, सुना तो था, मेरी शादी के साल के भर बाद ही शहर के भीड़ भरे बाज़ारों से तुम्हारी भी बारात निकली थी और तुम एक चांद की प्यारी दुल्हन को ब्याह कर लाए थे. कैसी है वो तुम्हारी चंद्रमुखी?
-अब कहां की चंद्रमुखी और कैसी चंद्रमुखी?
-क्या मतलब?
-मेरी शादी एक बहुत बड़ा हादसा थी. सिर्फ़ दो ढाई महीने चली.
-ऐसा क्या हो गया था?
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#9
शादी के पहले से उसका अपने जीजाजी से अफ़ेयर थे. उसकी शादी ही इसी सोच के तहत की गई थी कि उसकी बहन का घर उजड़ने से बच जाए. लेकिन वह शादी के बाद भी छुप-छुप कर उनसे मिलने उनके शहर जाती रही थी. मैंने भी उसे बहुत समझाया था, लेकिन सब बेकार. इधर मैंने तलाक़ की अर्जी दी थी और उधर उसकी दीदी ने ख़ुदकुशी की थी. दो परिवार एक ही दिन उजड़े थे.
-ओह, मुझे बिलकुल पता नहीं था कि तुम इतने भीषण हादसे से गुज़रे हो. कहां है वो आजकल.
-शुरू-शुरू में तो सरेआम जीजा के घर जा बैठी थी. बाद में पता चला था, पागल-वागल हो गई थी. क्या तुम्हें सचमुच नहीं पता था?
-सच कह रही हूं. सिर्फ़ तुम्हारी शादी की ही ख़बर मिली थी. मुझे अच्छा लगा था कि तुम्हें मेरे बाद बहुत दिन तक अकेला नहीं रहना पड़ा था. लेकिन मुझे यह अहसास तक नहीं था कि तुम्हारे साथ यह हादसा भी हो चुका है. फिर घर नहीं बसाया? बच्चे वगैरह?
-मेरे हिस्से में दो ही हादसे लिखे थे. न प्रेम सफल होगा न विवाह. तीसरे हादसे की तो लकीरें ही नहीं हैं मेरे हाथ में.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#10
हैलो
-हुंम...
-चुप क्यों हो गईं?
-कुछ सोच रही थी.
-क्या?
-यही कि कई बार हमें ऐसे गुनाहों की सज़ा क्यों मिलती है, जो हमने किए ही नहीं होते. किसी एक की ग़लती या ज़िद से कितने परिवार टूट बिखर जाते हैं.
-जाने दो दीप्ति, अगर ये चीज़ें मेरे हिस्से में लिखी थीं तो मैं उनसे बच ही कैसे सकता था. ख़ैर, ये बताओ तुमसे मुलाक़ात हो सकती है. यूं ही, थोड़ी देर के लिए. यूं समझो, तुम्हें अरसे बाद एक बार फिर पहले की तरह जीभर कर देखना चाहता हूं.
-नहीं...
-क्यों ?
-नहीं, बस नहीं.
-दीप्ति, तुम्हें भी पता है, अब मैं न तो तुम्हारी ज़िंदगी में आ सकता हूं और न ही तुम मुझे ले कर किसी भी तरह का मोह या भरम ही पाल सकती हो. मेरे तो कोई भी भरम कभी थे ही नहीं. वैसे भी इन सारी चीज़ों से अरसा पहले बहुत ऊपर उठ चुका हूं.
-शायद इसी वजह से मैं न मिलना चाहूं.
-क्या हम दो परिचितों की तरह एक कप कॉफ़ी के लिए भी नहीं मिल सकते?
-नहीं.
-इसकी वजह जान सकता हूं.
-मुझे पता है और शायद तुम भी जानते हो, हम आज भी सिर्फ़ दो दोस्तों की तरह नहीं मिल पाएंगे. हो ही नहीं पाएगा. यह एक बार मिलकर सिर्फ़ एक कप कॉफ़ी पीना ही नहीं होगा. मैं तुम्हें अच्छी तरह से जानती हूं. तुम बेशक अपने आप को संभाल ले जाओ, इतने बड़े हादसे से ख़ुद को इतने बरसों से हुए ही हो. लेकिन मैं आज भी बहुत कमज़ोर पड़ जाऊंगी. ख़ुद को संभालना मेरे लिए हमेशा बहुत मुश्क़िल होता है.
-मैं तुम्हें क़त्तई कमज़ोर नहीं पड़ने दूंगा.
-यही तो मैं नहीं चाहती कि मुझे ख़ुद को संभालने के लिए तुम्हारे कंधे की ज़रूरत पड़े.
-अगर मैं बिना बताए सीधे ही तुम्हारे ऑफ़िस में चला आता तो?
-हमारे ऑफ़िस में पहले रिसेप्शन पर अपना नाम पता और आने का मकसद बताना पड़ता है. फिर हमसे पूछा जाता है कि मुलाक़ाती को अंदर आने देना है या नहीं.
-ठीक भी है. आप ठहरी इतने बड़े मंत्रालय में संयुक्त सचिव के रुतबे वाली वरिष्ठ अधिकारी और मैं ठहरा एक फटीचर मास्टर. अब हर कोई ऐरा गैरा तो...
-बस करो प्लीज़. मुझे ग़लत मत समझो. इसमें कुछ भी ऑफ़िशियल नहीं है. ऐसा नहीं है कि मैंने इस बीच तुम्हें याद न किया हो या तुम्हें मिस न किया हो. बल्कि मेरी ज़िंदगी का एक बेहतरीन दौर तुम्हारे साथ ही गुज़रा है. ज़िंदगी के सबसे अर्थपूर्ण दिन तो शायद वही रहे थे. आईएएस की तैयारियों से लेकर नितांत अकेलेपन के पलों में मैंने हमेशा तुम्हें अपने आसपास पाया था. सच कहूं तो अब भी मैं तुमसे कहीं न कहीं जुड़ाव महसूस करती हूं, बेशक उसे कोई नाम न दे पाऊं या उसे फिर से जोड़ने, जीने की हिम्मत न जुटा पाऊं. संस्कार इज़ाजत नहीं देंगे. हैलो... सुन रहे हो न?
-हां हां... बोलती चलो.
-लेकिन अब इतने बरसों के बाद इस तरह मैं तुम्हारा सामना नहीं कर पाऊंगी. मुझे समझने की कोशिश करो प्लीज़.
-ठीक है नहीं मिलते. आमने-सामने न सही, तुम्हें दूर पास से देखने का तो हक़ है मुझे. मैं भी ज़रा देखूं, तुम्हारा चश्मा अब भी फिसलता क्यों है. पहले की तरह उसे ऊपर बेशक न कर पाऊं, कम से कम देख तो लूं. और हमारी दोस्त जॉइंट सेक्रेटरी बनने के बाद कैसे लगती है, यह भी तो देखें.
-कम से कम सिर पर सींग तो नहीं होते उनके.
-देखने मैं क्या हर्ज़ है?
-जब मुझे सचमुच तुम्हारी ज़रूरत थी या तुम्हें कैसे भी करके मिलने आना चाहिए था तब तो तुमने कभी परवाह नहीं की और अब...
-इस बात को जाने दो कि मैं मिलने के लिए सचमुच सीरियस था या नहीं, सच तो यह है कि एक बार तुम्हारी शादी यह तय हो जाने के बाद तुमने ख़ुद ही तो एक झटके से सारे संबंध काट लिए थे.
-झूठ मत बोलो, मैं शादी के बाद भी तुमसे मिलने आई थी.
-हां, अपना मंगलसूत्र और शादी की चूड़ियां दिखाने कि अब मैं तुम्हारी दीप्ति नहीं मिसेज़ धवन हूं. किसी और की ब्याहता.
-मुझे गाली तो मत दो. तुम्हें सब कुछ पता तो था और तुमने सब कुछ ज्यों का त्यों स्वीकार कर भी कर लिया था जैसे मैं तुम्हारे लिए कुछ थी ही नहीं.
-स्वीकार न करता तो क्या करता. मेरे प्रस्ताव के जवाब में तुम्हारी मम्मी का ज़हर खाने का वो नाटक और तुम्हारा एकदम सरंडर कर देना, मेरा तो क्या, किसी का भी दिल पिघला देता.
-तुम एक बार तो अपनी मर्दानगी दिखाते. मैं भी कह सकती कि मेरा चयन ग़लत नहीं है.
-क्या फ़िल्मी स्टाइल में तुम्हारा अपहरण करता या मजनूं की तरह तुम्हारी चौखट पर सिर पटक पटक कर जान दे देता?
-अब तुम ये गड़े मुरदे कहां से खोदने लग गए. क्या बीस बरस बात यही सब याद दिलाने के लिए फ़ोन किया है?
-मेरी ऐसी कोई इच्छा नहीं थी. तुम्हीं ने...
-तुम कोई और बात भी तो कर सकते हो.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#11
-करने को तो इतनी बातें हैं, बीस बरस पहले की, बीस बरस के दौरान की और अब की लेकिन कितना अच्छा लगता, आमने-सामने बैठ कर बात कर सकते. लेकिन मैं उसके लिए तुम्हें मजबूर नहीं करूंगा.
-ज़िद मत करो. अब मैं सिर्फ़ तुम्हारी दीप्ति ही तो नहीं हूं. सारी बातें देखनी...
-तो फिर ठीक है. सी यू सून. रखता हूं फ़ोन.
-मिलने के ख़्वाब तो छोड़ ही दो श्रीमान. एनी वे, सो नाइस ऑफ़ यू फ़ॉर कॉलिंग ऑफ्टर सच ए लॉन्ग पीरियड. इट वाज़ अ प्लीजेंट सरप्राइज़. तुमसे बातें करते करते वक्त का पता ही नहीं चला. मुझे अभी एक अर्जेंट मीटिंग में जाना है. उसके पेपर्स भी देखने हैं. लेकिन तुम तो कह रहे थे, एक रुपए का और सिक्का नहीं है तुम्हारे पास. पिछले बीस मिनट से तुम पीसीओ से तो बात नहीं कर रहे. वैसे बोल कहां से रहे हो.
-उसे जाने दो. वैसे मुझे भी एक अर्जेंट मीटिंग के लिए निकलना है.
-तो क्या किसी मीटिंग के सिलसिले में आए हो यहां?
-हां, आया तो उसी के लिए था. सोचा इस बहाने तुमसे भी...
-कहां है तुम्हारी मीटिंग?
-ठीक उसी जगह जहां तुम्हारी मीटिंग है.
-क्या मतलब?
-मतलब साफ है डियर, तुम्हारे ही विभाग ने हमारी यूनिवर्सिटी के नॉन कॉनवेन्शनल एनर्जी रिसोर्सेज के प्रोजेक्ट पर बात करने के लिए हमारी टीम को बुलवाया है. इसमें महत्वपूर्ण ख़बर सिर्फ़ इतनी ही है कि यह प्रोजेक्ट मेरे ही अधीन चल रहा है. यह तो यहीं आकर पता चला कि अब तुम ही इस केस को डील करोगी और...
-ओह गॉड. आइ जस्ट कांट बिलीव. अब क्या होगा. तुमने पहले क्यों नहीं बताया. इतनी देर से मुझे बुद्धू बना रहे थे और...
-रिलैक्स डियर, रिलैक्स. तुम्हें बिलकुल भी परेशान होने की ज़रूरत नहीं है. मैं वहां यही जतलाऊंगा, तुमसे ज़िंदगी में पहली और आख़िरी बार मिल रहा हूं. बस, एक ही बात का ख़्याल रखना, अपना चश्मा टाइट करके ही मीटिंग में आना.
-यू चीट...
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#12
'












'''''
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#13
एक अनार, तीन बीमार









banana banana banana
Heart Heart Heart Heart
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#14
विभाग प्रसन्न है. महिला अधिकारी पोस्टिंग पर आ रही हैं. जानकारी मिली है मैडम ख़ूबसूरत हैं. विभाग को आशा है यहां की वायु और ऋतु ताज़ादम हो उठेगी.
अपेक्षाकृत छोटी जगह से आई मैडम इस बड़ी जगह को देखकर घबरा नहीं रहीं, किंचित् परेशान हैं. मैडम से सभी जोशीले अंदाज़ में मिले, पर वे ऐसे संकोच, बल्कि दहशत, से मिलीं मानो किसी से परिचय नहीं करना चाहतीं.
पहली विभागीय टिप्पणी,‘‘अभी नई हैं. धीरे-धीरे खुलेंगी.’’
मैडम यद्यपि विभागीय लोगों से संकोच से मिलीं, तथापि समझती हैं किसी भी कार्यालय की तरह यहां भी उन्हें एक बड़े पुरुष वर्ग का नियमित सामना करना है. इस बाबत उन्हें किसी को अपना शुभचिंतक अर्थात् सहयोगी बनाना होगा. तभी यहां खपना आसान हो सकेगा. तीन व्यक्ति हैं, जो मैडम के लिए काम के साबित होंगे. पहले है मैडम के इंस्पेक्टर, रामसेवक. मैडम बच्चियों के एडमिशन, गैस कनेक्शन, फ़र्नीचर, परदे इत्यादि की ख़रीद के लिए रामसेवक को घर तलब करने लगीं और आप मैडम की व्यक्तिगत सूचनाओं का विश्वस्त सूत्र बन गए,‘‘मैडम की दो बेटियां हैं. फ़र्स्ट और थर्ड में पढ़ती हैं. पति शहडोल में व्याख्याता हैं. लोग कहते हैं मैडम मिलनसार नहीं है, जबकि मेरे साथ बहुत हंसमुख होती हैं.’’
दूसरे हैं आयकर सलाहकार नील नारंग. मैडम इनसे कुछ क़ानूनी बिन्दुओं पर डिस्कस करती हैं. नील नारंग अनुमान लगाते हैं-मैडम में ज्ञान और कौशल का अभाव है, इसलिए मैडम को इनकी सहायता लेते रहना होगा.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#15
तीसरे हैं इस कार्यालय के सर्वाधिक सक्रिय वक़ील निश्छल कुलश्रेष्ठ. ये विभाग के सबसे ज़रूरी और सर्वोदई टाइप के व्यक्ति हैं. मैडम की मेज पर इनके केस बहुतायत में हैं. इनका काफ़ी समय मैडम के कक्ष में प्रकरण निपटाते हुए व्यतीत होता है. निश्छल कुलश्रेष्ठ की अनुभवी दृष्टि ने भांप लिया है मैडम कार्यदक्ष नहीं हैं. घूस-रिश्वत भी खुलकर नहीं मांग पाती हैं. जो दे दो, यथेष्ट मान लेती हैं.
यदि सर्वेक्षण कराया जाए तीनों में किसका आधार मज़बूत है तो सुई निश्चल कुलश्रेष्ठ की ओर घूमती है. रामसेवक मैडम के मातहत हैं. नील नारंग मैडम को विश्वसनीय जान नहीं पड़ते. कुलश्रेष्ठ की सर्वोदई छवि की जानकारी मैडम को हो चुकी है, अतः प्रकरण संबंधी क़ानूनी अड़चनें, सावधानियां, बारीकियां, धाराएं, बोर्ड और हाईकोर्ट के फ़ैसले, किसी विशेष प्रकरण में विशेष परिस्थिति में मिलनेवाली कर की छूट, हानि-लाभ इत्यादि कुलश्रेष्ठ से पूछती रहती हैं. जानकारी प्राप्त करना सीधे उजागर न हो, इस हेतु बतौर सावधानी वार्ता में आत्मीयता को स्वल्प स्पर्श देते हुए बाज़ार भाव, धर्म, राजनीति, चुनाव, विभाग के यम-नियम, लोगों की कार्य पद्धति, विचार इत्यादि औपचारिक संदर्भों पर कुछ कहती-सुनती हैं.
कुलश्रेष्ठ प्रचारित करते हैं,‘‘मैडम मेरे साथ बड़ी जल्दी बेतकल्लुफ़ हो गईं.’’
रामसेवक कहते,‘‘मेरे साथ भी.’’
नील नारंग कहते,‘‘मेरे साथ भी.’’
ये तीनों इन दिनों प्रतिद्वंद्विता और आपसी समीपता एक साथ महसूस कर रहे हैं. मैडम के संदर्भ में तीनों कुछ बातें छिपा लेते हैं, कुछ उद्घाटित करते हैं. तीनों की कोशिश रहती है तथ्यों को इस ढंग से रखें जिससे अनुमान निकले-मैडम एक उन्हीं से प्रभावित हैं.
रामसेवक बताने लगते,‘‘मैडम मुझे घर बहुत बुलाती हैं.’’
नारंग कटाक्ष करते हैं,‘‘गैस सिलेंडर भरवाते होंगे, बच्चियों की कॉलेज फ़ीस जमा करवाते होंगे, मैडम के शहडोल जाने का रिज़र्वेशन करवाते होंगे.’’
रामसेवक ज़ोर देकर कहते,‘‘काम तो बहाना है. काम छोटा होता है. बैठक लंबी जमती है.’’
कुलश्रेष्ठ अपने पत्ते जल्दी नहीं खोलते. प्रहसन का-सा आनंद लेते हुए अपनी चतुर-चालाक मुस्कान को प्रस्फुटित करते हैं,‘‘काश, हम भी किसी बहाने मैडम के घर गए होते.’’
रामसेवक के मुख पर गौरव,‘‘अपनी-अपनी तक़दीर है, कुलश्रेष्ठ जी! मैडम के पति यहां रहते नहीं तो बहुत से काम हमें ही संभालने पड़ते हैं.’’
यहां रामसेवक यह तथ्य छिपा लेते हैं जब वे एक ही कॉलोनी में रहने का लाभ लेते हुए शाम को मैडम के घर जाते हैं और पूछते हैं,‘टहलने निकला तो सोचा, पूछता चलूं मेरे लायक कोई काम हो.’
तब मैडम शासनपूर्ण सख़्ती से कह देती हैं,‘रामसेवकजी, जब बुलाया जाए तब आएं.’
नील नारंग बताते हैं,‘‘मैडम मेरी सहायता के बिना प्रिपरेशन नहीं कर सकतीं. उनमें विवेक-बुद्धि नहीं है. मदद कर मोहतरमा को कृतार्थ कर रहा हूं. दरस-परस होता है, चाय-कॉफ़ी का दौर भी.’’
रामसेवक, नारंग को तिर्यक होकर देखते हैं,‘‘अच्छा, तो आपकी अब तक निलंबित रही बुद्धि बहाल हो गई, जो मैडम की मेज का काम आप ही संभाल रहे हैं?’’
रामसेवक ने नारंग का हौसला तोड़ना ज़रूरी समझा,‘‘आप मैडम की चतुराई समझें, नारंगजी. वे आप पर काम थोप रही हैं.’’
कुलश्रेष्ठ ठीक मौक़े पर कूद पड़ते हैं,‘‘आप तो नारंगजी, लगे रहें. मैं नाचीज़ आपके कुछ काम आ सकूं तो ख़ुद पर गर्व महसूस करूंगा.’’
नारंग उपलब्धि भरी हंसी हंसते हैं. नारंग नहीं बताते जब उत्साहित होकर किसी प्रकरण में लीगल पॉइंट्स बताने की बुद्धिमानी दिखाते हैं, मैडम डोज़ दे देती हैं,‘जब आपसे पूछूं, कृपया तभी बताएं.’
‘सॉरी मैडम.’ नारंग अचकचा जाते हैं. इन्हें मैडम की यह उपेक्षा भरी फटकार पुरुषोचित अहं पर हमला जान पड़ती है.
तीसरे उम्मीदवार निश्छल कुलश्रेष्ठ ग़ज़ब के व्यक्तित्व हैं. इनकी बौद्धिक ऊर्जा, तर्क, आग्रह ग़ज़ब के हैं. इनकी पहली प्राथमिकता तमाम दंद-फंद कर अपने मुवक़्क़िल पर लगे कर को घटाना अथवा समाप्त कराना होता है. ये कौन-सी बात ज़ाहिर करते हैं, कौन-सी नहीं, इनके अतिरिक्त कोई नहीं जानता. बताने लगे,‘‘आयकर आयुक्त आ रहे थे. उन्हें रिसीव करने मैडम को भी रेलवे स्टेशन जाना था. स्टेशन आठ किलोमीटर दूर. परेशान थीं. बोलीं, ‘मैं विभागीय लोगों के साथ नहीं जाना चाहती.’ परेशानी होती है. मैंने स्थिति को समझा. ड्यूटी करनी है और महिला होने की ढेर परेशानियां. मैंने ड्राइवर के साथ अपनी कार भेज दी.’’
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#16
सुनकर रामसेवक मलिन पड़ गए. मैडम को गाड़ी चाहिए तो उनसे कहें! वे किसी व्यापारी की गाड़ी भेज देंगें.
नारंगजी थोड़ा हंसे,‘‘कुलश्रेष्ठजी, आप मैडम के नियर-डियर बनते जा रहे हैं. मालूम होता है, बाज़ी आपके हाथ लगेगी.’’
‘‘आप भ्रम में न रहें, नारंगजी. मुझे लगता है, मैडम हमें महत्व कम देती हैं, इस्तेमाल अधिक कर रही हैं.’’ रामसेवकजी का तात्पर्य ‘हमें’ के स्थान पर ‘आप दोनों’ से है.
*****
प्रसंगवश बता दें, विभाग में कुछ ऐसे लोग भी हैं जो मैडम को स्त्री नहीं पदाधिकारी मानते हैं. इनका मानना है, जो लोग मैडम को इस तरह चर्चित-प्रचारित कर रहे हैं वे मानसिक विलासिता, चारित्रिक भटकाव, प्रमाद, कुंठा अथवा हीनता से संक्रमित हैं.
कुल मिलाकर कार्यालय में चुहल-चुटकियों का दौर चल रहा है. मैडम की गतिविधि पर नज़र रखी जा रही है,‘‘आज काजल लगाकर आई हैं.’’
‘‘काजल की बात करते हो. अभी एक पार्टी में लाली लगाए हुए थीं.’’
‘‘सुना है वह तिकड़ी मैडम की जिगरी बनी हुई है.’’
‘‘बकवास है. तीनों ख़ुद को बेवजह उछाल रहे हैं.’’
‘‘कुलश्रेष्ठ, मैडम के लिए काम के आदमी हैं. मैडम भली प्रकार काम जानती नहीं हैं और...’’
‘‘काम कैसे जानें? क़ानून की किताबें देखने की फ़ुर्सत ही कहां मिलती होगी? गृहस्थी, बच्चियां, शहडोल प्रवास.’’
‘‘सुना है, रात की पार्टियों में नहीं जातीं.’’
‘‘औरतों को बहुत सोचना पड़ता है.’’
‘‘क्लोज़िंग के समय ऑफ़िस में देर तक काम चलता है. मैडम पांच बजते ही घर जाने को फड़फड़ाने लगती हैं कि बच्चियां अकेली हैं. सुनते हैं, बड़े साहब (आयकर सहायक आयुक्त) का आदेश भी नहीं मानतीं. अरे, पद संभाला है, ज़िम्मेदारी भी संभालो.’’
मैडम बड़े साहब को समुचित आदर देती हैं पर देर तक रुकने को सहमत नहीं होतीं. साहब इसे अवमानना समझते हैं. कुलश्रेष्ठ चूंकि इस कार्यालय के सर्वाधिक ज़रूरी तत्व हैं, इसलिए साहब के लिए भी नितान्त आवश्यक और अपेक्षणीय हैं. अपने भव्य चेम्बर में विराजे साहब, कुलश्रेष्ठ से बोले,‘‘कुलश्रेष्ठजी, मैडम आपको कुछ विचित्र नहीं लगतीं? उनके चेम्बर में आपका काफ़ी वक़्त गुज़रता है. आपका क्या ख़्याल है?’’ साहब बेचैन थे.
कुलश्रेष्ठ बोले,‘‘भली हैं. काम में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करतीं.’’
‘‘हस्तक्षेप तब करेंगी ना यदि क़ानूनी प्रक्रिया को ठीक-ठीक समझेंगी.’’
‘‘...’’
‘‘विज़िट पर चलने को कहो तो क्षमा चाहती हैं कि उन्हें बाहर आने-जाने में असुविधा होती है. यह क्या बात है? पद पर हैं तो दौरे करने ही होंगे.’’
‘‘महिलाओं को कुछ दिक़्क़तें होती हैं,’’ कुलश्रेष्ठ, साहब के समक्ष गुरु-गम्भीर बने रहते हैं.
‘‘हां, जैसे... गाड़ी में चार व्यक्ति हैं तो मैडम किसके पास बैठें? मर्द तो गाड़ी रुकवाकर कहीं भी फारिंग हो ले, मैडम जहां-तहां नहीं बैठ सकतीं. दौरे पर नहीं जाना चाहतीं. हम अपना व्यक्तिगत काम तो कराते नहीं. कार्यालयीन काम है, जिसका आप वेतन लेती हैं. ...क्या है न, मैडम साथ में रहें तो तबीयत हलकी लगती है!’’
ऊंचे व्यक्तित्व भी भीतर से बौने साबित होते हैं.
‘‘राइट सर.’’
*****
कुलश्रेष्ठ नस पहचानकर सही नस ही पकड़ते हैं. एक की बात दूसरे से नहीं कहते. सभी के प्रिय तथा राज़दार बने रहते हैं. यही कारण है, मैडम अन्य के साथ संकोच से परिचित हुईं, कुलश्रेष्ठ के साथ आरंभिक हिचक के बाद कुछ खुलने लगीं. इतने बड़े कार्यालय में खपना है तो किसी पर भरोसा करना पड़ेगा.
कुलश्रेष्ठ मैडम के कक्ष में केस कराने पहुंचे. वे फ़ाइल खोले हुए थीं.
‘‘आज इस केस का निपटारा हो जाए.’’
‘‘आप तो मैडम आदेश करें,’’ कुलश्रेष्ठ ने फ़ाइल पर नज़र डाली.
‘‘मैं पहले छोटी जगह में थी. वहां इतना काम नहीं था. यह बड़ी जगह है. पूरे संभाग का काम यहां होता है. वर्कलोड बहुत है.’’
‘‘आप जिस ज़िम्मेदारी से काम करती हैं, वह अद्भुत है.’’
‘‘बावजूद इसके साहब फ़रमान जारी करते हैं कि मुझे दफ़्तर में देर तक रुककर काम करना चाहिए!’’
‘‘उन्हें कौन मार्गदर्शन दे सकता है? मेरा तो मानना है, जब से आप आई हैं, काम ने अच्छी गति पकड़ी है. आप न अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करती हैं, न काम को रोककर रखना चाहती हैं. यहां ऐसे-ऐसे विचित्र अधिकारी आए हैं कि क्या कहें. एक साहब बहुत ईमानदार थे; पर उनका व्यवहार ऐसा जैसे घूस न लेकर हम पर एहसान कर रहे हैं. हरदम बौखलाए रहते थे. चाहते थे-वे ईमानदार हैं, इसलिए उन्हें अतिरिक्त सम्मान दिया जाए. कई बार वे ऐसे बिंदु पर अड़ जाते थे, जो निरर्थक साबित होते थे.’’
‘‘आप लोग काम कैसे कर पाते थे?’’
‘‘कर पाते थे. हम लोगों को अधिकारियों के उपद्रव सहने की आदत है.’’
‘‘उपद्रव! ओ गॉड! क्या आप मेरा भी कोई उपद्रव बताएंगे?’’
‘‘आप काम में अनावश्यक हस्तक्षेप नहीं करती हैं.’’
******
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#18
फिर कुलश्रेष्ठ ने इन बातों को नारंग और रामसेवक के समक्ष कुछ इस तरह रखा,‘‘मैडम मुझे अपना सबसे बड़ा शुभचिंतक मानने लगी हैं. हमारी निगहबानी में रहें तो उनके योग-क्षेम की गारंटी हमारी.’’
बात रामसेवक को सहज ग्राह्म नहीं हुई,‘‘अच्छा कुलश्रेष्ठजी, आपको ऐसा नहीं लगता, मैडम हम तीनों से कुछ ज़्यादा ही काम लेती हैं?’’
‘‘इश्क़ करना है तो मशक़्क़त करनी पड़ेगी. रामसेवकजी, मैं मैडम के कार्यकाल में जितनी आसानी से केस निपटा रहा हूं, वह पहले कभी नहीं हुआ.’’
कुलश्रेष्ठ शक्तिभर मोरचे पर डटे रहना चाहते हैं.
‘‘हां, काम आसान हो गया है.’’ नारंग ने अनुमोदन किया.
‘‘आप दोनों भ्रम में न रहें. मैडम अपने काम के आदमियों को चुनकर अपना काम आसान कर रही हैं,’’ रामसेवक, कुलश्रेष्ठ के हौसले पस्त करना चाहते हैं. इन्हें आभास है, कुलश्रेष्ठ बढ़त बनाते जा रहे हैं.
कुलश्रेष्ठ को झटका लगा,‘‘रामसेवकजी, मर्द स्त्री का इस्तेमाल करे या स्त्री मर्द का, मूल रूप से स्त्री ही इस्तेमाल होती है. स्त्री स्वतंत्रता के नाम पर इनका इस्तेमाल और भी आसान हो गया है. विश्व सुंदरी, ब्रह्मांड सुंदरी बाज़ार के लिए इस्तेमाल हो रही है. ये ख़ुद को स्वतंत्र, स्वावलंबी, स्वशासी मानती हैं तो मानें.’’
‘‘ठीक फ़रमाते हैं. यदि हमारा इस्तेमाल हो रहा है तो यही सही. हमें मैडम की मौजूदगी की, उन्हें देखने की, सुनने की, संवाद करने की आदत पड़ गई है,’’ नारंग स्वयं को उम्मीदवारी से खारिज करने को तैयार नहीं हैं.
मैडम को कभी किसी सूत्र से ज्ञात हो, ये जो उनके सहयोगी बने हुए हैं उन्हें पदाधिकारी के स्थान पर निखालिस स्त्री समझते हैं, तब वे कितनी परेशान होंगी, कहा नहीं जा सकता. ओहदे को उपेक्षित कर उसमें आरूढ़ स्त्री को लक्षित किया जाए, यह किसी भी स्त्री के लिए अपमानजनक होगा. मैडम के लिए भी है.
*****
केस की फ़ाइल कुलश्रेष्ठ ही देख रहे थे. उनके साथ वह व्यापारी भी था जिसका केस था. व्यापारी मैडम को निरंतर देखे जा रहा था. उन्हें असुविधा हो रही थी.
‘‘मिस्टर! इस तरह घूर रहे हैं? आप आदमी हैं या...’’
‘‘ज... ज... जी... मतलब?’’
‘‘मैं डिस्टर्ब हो रही हूं.’’
‘‘मैडम! आप मुझे टॉर्चर कर रही हैं. मेरे केस की फ़ाइल है और मैं आपकी ओर देखूंगा नहीं? मेरी नज़र ऐसी ही है. इसके लिए मुझे आज तक किसी अधिकारी ने नहीं टोका.’’
‘‘न टोका होगा. स्त्रियों के समक्ष कैसे प्रस्तुत हुआ जाए, आपको इसकी तमीज़ नहीं है,’’ मैडम हांफते हुए बोलीं.
‘‘आप तो ऑफ़िसर हैं.’’
‘‘गेट आउट... गेट आउट!’’ मैडम के कंठ से घुटी हुई ध्वनि निकली.
‘‘निरंकारीजी, आप बाहर जाइए,’’ कुलश्रेष्ठ को जैसे चेत आया. उन्होंने व्यापारी को कक्ष से बाहर भेज दिया.
निरंकारी के जाने के बाद कुलश्रेष्ठ ने मैडम को ताका.
‘‘मैडम, ये यहां के पुराने और घुटे हुए लोग हैं. किसी की नहीं सुनते.’’
मैडम गहरी निराशा में. जैसे दिए गए अधिकारों को छीन लिया गया है अथवा अधिकारों का प्रयोग करने की स्वतंत्रता नहीं है.
‘‘अभद्रता अनदेखी की जानी चाहिए?’’ मुद्रा कुछ ऐसी करुण मानो लाख दृढ़ता दिखाएं, पर स्वयं ही अपने स्त्री होने के दुर्बल बोध से छूट नहीं पा रही हैं.
‘‘क्या कीजिएगा? यहां तमाम तरह की घटनाएं होती रहती हैं. एक बार इसी दफ़्तर के एक चपरासी ने एसी के बंगले पर जाकर ख़ूब गाली-गलौज की. एक छोटा व्यापारी, जिसे लाखों टैक्स लगा था, एसी के चेम्बर में ही उन्हें मुफ़्तखोर, घूसखोर कहता रहा; फिर बहुत रोया कि सिर के बाल बेचकर टैक्स भरूं? हमें जीने देंगे?... ऐसा हो जाता है. फिर भी मैं मानता हूं, महिला अधिकारी के सामने सौहार्द बनाए रखना चाहिए.’’ कुलश्रेष्ठ मैडम को कंसोल करना चाह रहे थे कि एक उन्हीं के साथ यह नहीं हुआ है.
‘‘महिला अधिकारी! मतलब? अधिकारी, अधिकारी होता है, पुरुष या स्त्री नहीं. उसे पदाधिकारी की तरह ही मान्यता दी जानी चाहिए,’’ मैडम ज़ोरदार ढंग से खंडन करना चाहती थीं; किंन्तु स्त्री बोध दुर्बल बना रहा था.
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#19
‘‘ऐसा होना चाहिए.’’
‘‘आपका यह शहर अजीब है, कुलश्रेष्ठजी. आपके लोग अजीब हैं. रामसेवकजी की बात कर रही हूं. कभी किसी आवश्यक काम के लिए रामसेवकजी को घर बुला लेती हूं तो वे टहलते हुए चाहे जब आने लगे. मजबूरन मुझे कहना पड़ा,‘जब बुलाया जाए तब आएं.’’
मैडम प्रसंग बदलकर स्वयं को सामान्य दर्शाने की चेष्टा करती जान पड़ीं.
कुलश्रेष्ठजी उत्फुल्ल हो उठे और मन ही मन सोचने लगे,‘रामसेवकजी, आपकी कोशिशें निरुद्देश्य नहीं, पर निष्फल हैं.’ फिर उन्होंने मैडम से कहा,‘‘पद की गरिमा को समझना चाहिए. पदाधिकारी स्त्री हो तब तो पूरी सावधानी के साथ व्यवहार करना चाहिए.’’
‘‘मैं सावधानी की बात नहीं कर रही. दरअस्ल लोग पद और पदाधिकारी के संदर्भ में स्त्री-पुरुष का विभेद ले आते हैं. यह ग़लत है,’’ मैडम ने अपना मत दोहराया.
कुलश्रेष्ठ कह देना चाहते थे,‘मैडम, आपको लगता है, व्यापारी घूर रहा है, रामसेवक अनावश्यक घुसपैठ करते हैं, विज़िट पर जाना नहीं चाहतीं, दफ़्तर में देर तक रुक नहीं सकतीं लेकिन कहती हैं, पद के बीच में स्त्री-पुरुष का विभेद न लाया जाए.’ किंतु प्रकट में बोले,‘‘मैडम, मैंने कुछ ग़लत कह दिया हो तो क्षमा करें.’’
मैडम की चिंता और तनाव कुछ कम हुआ,‘‘आप व्यापक दृष्टि रखते हैं. इसीलिए आपसे कुछ बातें कह लेती हूं.’’
*****
तीन वर्ष पूरे होते न होते मैडम का स्थानांतरण हो गया. कुलश्रेष्ठ, रामसेवक, नारंग ने मैडम को अपने घर मध्यान्ह भोज पर आमंत्रित किया. मैडम तीनों के परिवार से प्रसन्नतापूर्वक मिलीं. तीनों को अच्छे सहयोग तथा सामंजस्य के लिए धन्यवाद दिया. मैडम कुलश्रेष्ठ की पत्नी स्तुति से पहली बार मिल रही थीं, फिर भी आत्मीय हो गईं. स्तुति के पीछे-पीछे रसोई में पहुंच गईं. वे स्तुति की ओर केंद्रित रहीं. घरेलू क़िस्म की बातें करती रहीं. कुलश्रेष्ठ ने ध्यान दिया, मैडम इस समय तनाव, झिझक, दबाव में कतई नहीं हैं. प्रसन्न और स्वाभाविक दिख रही हैं. चलते समय स्तुति से बोलीं,‘‘आपके परिवार के साथ समय बिताकर अच्छा महसूस कर रही हूं. कुलश्रेष्ठजी बहुत सहयोगी वृत्ति के सुलझे हुए व्यक्ति हैं. आप बहुत स्नेही और शांत हैं. शायद इसीलिए आपके घर का वातावरण सौहार्दपूर्ण है.’’
तत्पश्चात् मैडम कुलश्रेष्ठ से संबोधित हुई,‘‘कुलश्रेष्ठजी, यहां का स्टाफ़ अच्छा है. आप सभी ने मुझे अच्छा सहयोग दिया. मेरा काम सहज व आसान हो सका. ख़ासकर आपने बहुत सहयोग किया. मैं हमेशा आपको याद रखूंगी.’’
‘‘मैं चाहता हूं, आप एसी बनकर यहां आएं,’’ कुलश्रेष्ठ ने सदिच्छा दर्शाई.
मैडम के जाने के बाद स्तुति कहने लगी,‘‘बड़ी भद्र और शालीन महिला हैं. इतने बड़े पद पर होते हुए भी दर्प-दम्भ नहीं है. मैं डरी हुई थी, पर मैडम तो बहुत सहज-सरल बल्कि घरेलू लगीं.’’
पता नहीं क्या था स्तुति के कथन में. पता नहीं क्या था विदा होती हुई मैडम की मुद्रा में. कुलश्रेष्ठ को लगा, वे तेज़ी से बदल रहे हैं. पता नहीं क्यों, पर पहली बार-हां, पहली बार कुलश्रेष्ठ को पछतावा हुआ. ‘क्यों इस स्त्री को अनावश्यक रूप से चर्चित कर दिया गया? ये तो तमाम अधिकारियों की तरह ही कभी सहज कभी असहज, प्रसन्न-अप्रसन्न, रुष्ट-तुष्ट, सरल-जटिल, सहयोगी-असहयोगी, विज्ञ-अविज्ञ रहीं. स्त्री होने के बोध से इस कदर दबी रहीं कि न कभी अपने अधिकारों का खुलकर
प्रयोग कर पाईं, न किसी बिंदु पर ज़िद्दी होकर अड़ी रहीं. उन्होंने ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया, जो पदाधिकारी की सीमा से बाहर हो. हम लोगों की क्षुद्रता ये कि हमारे लिए इनका स्त्री होना इतना महत्वपूर्ण हो गया कि हमने इन्हें पदाधिकारी की तरह देखना ज़रूरी नहीं समझा. इन्हें मनोरंजन का केन्द्र बनाकर हम तीनों ने शायद अपनी लंपटता, टुच्चापन ही उजागर किया है. शायद एक लफंगापन, घटिया विचार, कुंठा प्रत्येक पुरुष के भीतर हर वक़्त, हर उम्र में कुलबुलाती रहती है. स्त्रियों के संबंध में निराधार चर्चा कर हम लोग रति सुख पाते हैं. मैडम मेरे प्रति कृतज्ञ हैं. मैं उनके प्रति जो शुभ चिंतना रखता रहा वह जान पाएं तो उनका स्वाभिमान किस तरह चूर हो जाएगा? ओह! इनका पद, शक्ति, क्षमता वैसी है जैसे किसी भी पुरुष अधिकारी की होती है; फिर भी कार्यालय में रहना आसान हो सके, सब कुछ ठीक-ठाक चले, इसलिए इन्हें किसी को सहयोगी बनाना पड़ता है. सजग-सतर्क रहना पड़ता है. किसी को क्या हक था ठेठ अफ़वाहें फैलाकर मैडम को चर्चित करने का? हम पुरुष ऐसे क्यों हैं? क्यों? क्यों?’
*****
मैडम के स्थान पर नेमीचंद धगट आ गए हैं. जब कभी मौज में आकर नारंग और रामसेवक, मैडम की चर्चा करते हैं, कुलश्रेष्ठ उदास हो जाते हैं. नारंग व रामसेवक उनकी उदासी का कारण तलाशने लगते हैं.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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