31-10-2020, 07:59 AM
स)
बाबा जी की आँखों में आँखें डाल कर उन्हें देखती अवनी की आँखें और अधिक चमक उठीं और इसी के साथ बाबा जी को ठीक उसी क्षण अपनी आँखों के आगे एक चलचित्र चलता हुआ सा अनुभव होने लगा..
वाद्य यंत्र बजने बंद हो चुके थें.
केवल मंत्रों की ध्वनियाँ ही गूँज रही थीं वहाँ... जो कि निकल रहे थे बाबा जी के दोनों सहयोगियों और शिष्यों के कंठों से...
और बाबा जी किसी बुत की भांति चुपचाप अवनी की आँखों में देखते हुए खड़े थे..
थोड़े समय बाद... यही कोई पंद्रह मिनट बीते होंगे,
बाबा जी के शरीर में एक तीव्र कंपन हुई... और वे तुरंत आँखें बंद कर उन्हें मसलने लगे..
“ओह... बुरा हुआ... बहुत बुरा हुआ...”
स्तंभित स्वर में शोकाकुल होते हुए बोले.
रुना कब देबू का बायाँ हाथ पकड़ ली थी ये किसी के नज़रों में नहीं आया था; परन्तु अब उसका हाथ छोड़ते सबने देखा.
देबू और रुना की आँखें भीगी हुई थीं.
सहयोगियों का तो पता नहीं पर दोनों शिष्य गोपू और चांदू को बड़ा अचरज होने लगा था ये पूरा दृश्य यूँ बदलता हुआ देख कर. कहाँ तो अब तक दोनों ही पक्षों में तीखे शब्दों और व्यंग्य बाणों के प्रयोग हो रहे थे... दोनों में से कोई भी पहले प्रहार के लिए तत्पर था.. पर अब.. दोनों ही पक्ष ऐसे भावुक क्यों हो रहे हैं?
“हाँ.. बुरा तो हुआ... बहुत बुरा हुआ था... पर आपको को बुरा लगा... लेकिन उसका क्या; जिसके साथ इतना बुरा हुआ... जिसके सम्मान की हत्या हुई.. जिसके विश्वास का गला घोंटा गया...” रुंधे स्वर में रुना बोली.
बाबा जी चुप थे.. कुछ कहना अवश्य ही चाह रहे थे परन्तु इस समय कदाचित चुप रहना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा.
रुना ने कहना जारी रखा,
“हर व्यक्ति यही दो तो चाहता है... सम्मान और विश्वास... यदि यही दो न मिले... या जिसकी ओर सहारा समझ कर हम देखे.. वही यदि इन दो बातों का हत्यारा निकल जाए तो...?? फिर क्या कोई और मार्ग शेष रह जाता है?? …. आत्महत्या करने के सिवाय???”
बाबा जी अब भी बहुत दुखी थे..
सच में...
यदि कोई इस तरह किसी के साथ व्यवहार करे... भरोसा तोड़े... तब तो...
‘नहीं...’
मन ही मन सोचा बाबा ने..
‘ये ठीक नहीं.. मुझे कुछ कहना होगा...’
अवनी की ओर देख कर दृढ़ स्वर में बाबा ने कहा,
“सुनो बेटी, तुम दोनों के साथ ही बहुत अन्याय हुआ ये बात मैं मानता हूँ... और बेटी तुम्हारे साथ अन्याय तो क्या, घोर पाप हुआ है. परन्तु इसका अर्थ ये तो नहीं कि तुम दोनों अपने हाथों को वर्ष दर वर्ष, अविराम रक्तरंजित करते जाओ.. क्योंकि इतने वर्षों में कई ऐसे भी मारे गए जिनका तुम्हारे; तुम दोनों के साथ हुए दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना के साथ कोई संबंध नहीं था. प्रतिशोध की अग्नि ऐसी होती है पुत्री की यदि समय पर न बुझी तो बाद में कई सारे जतन करने के बाद भी शांत नहीं होती और एक समय बाद व्यक्ति विशेष; चाहे वो मृत हो या जीवित; के स्वभाव, चरित्र, प्रकृति, इत्यादि सब कुछ जला कर भस्म कर देती है. तुम दोनों ने कईयों के रक्त से अपने हाथ लाल कर लिए हैं... बहुत हुआ... अब अपने क्रोधाग्नि को शांत करने का यत्न करो और ये सब छोड़ दो. यदि इतना करते हो तो मैं तुम्हें ये वचन देता हूँ कि मैं स्वयं तुम दोनों को इस योनि से आज ही मुक्ति दिलाऊँगा और एक सुखी जीवन के लिए अगले जन्म का मार्ग प्रशस्त करूँगा.”
इतना कह कर बाबा चुप हुए....
शौमक और अवनी भावहीन मूर्ति समान बाबा की बातों को सुन रहे थे... उनके चुप होते ही दो पल बाद दोनों ने एक दूसरे को देखा.
अवनी के होंठों पर एक हल्की मुस्कान बिखर गई.
शौमक उसका आशय समझ गया. उसने भी मुस्कराते हुए सहमति में सिर हिलाया.
फ़िर दोनों एक साथ बाबा जी की ओर देखा.
और एक साथ ही कहा,
“नहीं.!!”
“नहीं??!”
“हमारी प्रतिशोध की अग्नि कब और कैसे शांत होगी ये हम स्वयं निश्चित करेंगे. कोई बाहरी आ कर हमें नहीं बतायेगा कि हमें कब, क्या करना है.”
बाबा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.
“लेकिन क्यों... क्यों ऐसा करते रहना चाहते हो तुम लोग? आखिर कब तक?”
“तब तक.. जब तक कि इस गाँव के सभी दोषी मारे नहीं जाते.”
“लेकिन सभी तो दोषी नहीं हैं!?”
“कौन दोषी है या नहीं है; इसका निर्णय भी हम करेंगे!”
इस बार भी दोनों ने एक साथ कहा.
“देखो बेटी, (बाबा अवनी की ओर देखते हुए बोले) मैं समझता हूँ तुम्हारी पीड़ा को. तुम्हारे साथ बहुत बहुत बुरा हुआ है और दोषी को दंड तो मिलना ही चाहिए. परन्तु इन गाँव वालों का इतना भी भयंकर दोष नहीं की इस तरह सब को एक एक कर के मार दिया जाए....”
बाबा के बात को बीच में ही काटते हुए बोली अवनी,
“तो क्या उन लोगों से निवेदन कर के उन्हें मारूँ?? ये गाँव वाले भी कम दोषी नहीं हैं.. अतएव इन्हें भी उचित दंड मिलना ही चाहिए और ये दंड मृत्युदंड ही है.”
“मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूँगा.”
“तू रोकेगा??”
“हाँ.”
“फिर तो तू भी मारा जाएगा!”
“चिंता नहीं.”
“सोच ले.”
“इसमें सोचना कैसा? मैं यहाँ अच्छे से सोच कर ही आया था. गाँव वाले मेरी शरण में हैं अब... मैं उनका कोई अहित नहीं होने दूँगा.”
“हाहाहा.. तेरी ही शरण में रहते हुई ही आठ लोग मारे गए इतने दिनों में.!!”
“हाँ.. वो भी इसलिए क्योंकि उन लोगों ने मेरी बात नहीं मानी थी.”
“तू फिर भी नहीं रोक पाएगा उन्हें मरने से ऐ साधक!”
“प्रयास कर लो.”
“क्या ये तुम्हारी चुनौती है, साधक?”
“हाँ... चुनौती है.”
दोनों की ही आँखें अत्यधिक क्रोध से लाल हो गए.
उनके क्रोध और तेज़ से आस पास के पेड़ हिलने लगे और तेज़ हवाएँ चलने लगीं.
बाबा तो तैयार हो कर ही आए. थे. तुरंत उन्होंने अब तक अधबुझी हो चुकी हवन से एक लकड़ी का टुकड़ा उठा लिया और उन दोनों की ओर फेंक दिया. दोनों हवा में ही लड़खड़ा गए.
अधिक समय नहीं था हाथ में. कुछ क्षणों बाद ही वे संभल जाएँगे.
बाबा भी तैयार...
हवन से एक छोटी लकड़ी निकाला.. दूसरे हाथ में थोड़ा सा भस्म लिया.. दोनों का आपस में स्पर्श कराया और फिर उस लकड़ी को एक ओर रख कर उस भस्म से शरीर पर भस्म-लेप किया, धारण किए हुए उन तांत्रिक-आभूषणों को पोषित किया, छोटे से बर्तन में रखे रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और उस पर थोड़े अनाज रख दिया...
फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और क्षण भर में दिशा-पूजन किया!
झोले में से दो कपाल निकाले. एक कपाल को सामने रख कर दूसरे कपाल को त्रिशूल पर टांग दिया!
पीछे बैठे उनके एक सहयोगी ने दो हाथों की अस्थियां बाबा को दिया... बाबा ने उन अस्थियों को सामने रखे कपाल पर रखा और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
दोनों अस्थियों को आपस में जो से दे मारा.. और फिर से उस कपाल से छुआ दिया..
ऐसा करते ही दोनों अस्थियाँ काँप उठी और कपाल भी अपने स्थान पर ज़ोर से हिला !
वातावरण में एक अत्यंत ही दिल दहला देने वाला कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
तंत्र क्रिया सक्रिय एवं आरम्भ हो गई..!
और अब तक संभल चुके शौमक और अवनी भी इस पूरे व्यवस्था को आश्चर्य से आँखें फाड़े देख रहे थे.
बाबा को उन्होंने कम कर के आँका तो नहीं था पर अब तो बाबा उनके कल्पना से भी कहीं अधिक तंत्र ज्ञाता निकले!
कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई वहाँ..
सहयोगी और शिष्य अब अत्यंत धीमे स्वर में मंत्रपाठ कर रहे थे..
इनके अलावा अगर और कहीं से आवाज़ें आ रही थीं तो बस सम्मुख जल रही हवन की लकड़ियों से आती चट-चट की आवाज़ें...!
मरघट की सी शांति चारों ओर छाई हुई थी...
बाबा काफ़ी सतर्कता से तीक्ष्ण दृष्टि से उन दोनों को देख रहे थे..
शौमक और अवनी भी बराबर सावधानी बरतते हुए बाबा, उनके सहयोगियों और शिष्यों को देख रहे थे.
बाबा ने एक विशेष संकेत किया.. शिष्यों ने मंत्रपाठ के उच्चारण की गति और स्वर; दोनों को तनिक बढ़ा दिया. वातावरण में अब मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी श्मशान में हवा भर दी जा रही हो जिसके परिणामस्वरूप वो अब फुफकारने लगी है!
हवन से उठता धुआँ वहाँ उपस्थित सभी के अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
शौमक कदाचित अब भी असमंजस में था परन्तु अवनी ने मानो कुछ ठान लिया था.
उसके दोनों हथेलियाँ सख्ती से मुट्ठी में परिणत हो गए थे और दोनों मुट्ठियों से एक चमक बिखरने लगी थीं..
ये देख बाबा यूँ धीमे हँसे जैसे कोई अभिभावक एक बच्चे के भोले शरारत को देख हँसता है. बाबा ने पास ही रखा एक कपाल उठाया, सहयोगी ने तुरंत उसमें मदिरा डाला.. बाबा ने एक मंत्र पढ़ा और एक महानाद करते हुए मदिरा कंठ से नीचे उतार लिया!
फिर बाबा जी ने वाचाल-प्रेत का आह्वान किया, वो उपस्थित हुआ! उसके बाद कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया. फिर वे दोनों मुस्तैद हो गए!
फिर आरम्भ हुआ तंत्र युद्ध!!
दोनों और से तंत्रों का अद्भुत टकराव होने लगा.
बाबा के पास उन दोनों के हरेक वार – प्रहार का पर्याप्त उत्तर था.. और बड़ी ही सरलता से उन दोनों के वारों से निपट रहे थे.
बाबा पर रत्ती भर भी अपने वारों का प्रभाव न होता देख कर अवनी प्रतिक्षण अत्यंत क्रोधित होती हुई और भी अधिक शक्ति से वार करने लगी और शौमक अपनी पूरजोर दम लगा कर बाबा के वारों से अवनी को सुरक्षित रखने का प्रयास करने लगा.
वैसे, बाबा केवल अवनी के प्रहारों से स्वयं की रक्षा ही कर रहे, पलट कर वार नहीं कर रहे थे.
तभी उनका एक सहयोगी उठ कर बाबा के कानों में कुछ कहा... बाबा ने ऊपर गगन में देखा.. समय निकला जा रहा था... इन दोनों से अधिक समय तक यूँ ही लड़ते रहने का कोई अर्थ नहीं था.
तंत्र युद्ध में उनकी शक्ति देख बाबा जी समझ गए थें कि इन्हें ये शक्तियाँ चंडूलिका से मिल रही हैं... क्योंकि ऐसे तंत्र और वार करने की शक्ति साधारण आत्माओं में तो कभी होती ही नहीं है...
तुरंत ही स्वयं को एक तंत्र कवच में सुरक्षित कर के बाबा ने नेत्र बंद कर के मंत्र पढ़ना शुरू किया. उनके चेहरे पर आते जाते भावों ने ये बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया की अब बाबा इस खेल को यहीं समाप्त करने हेतु किसी महा शक्ति का आह्वान कर रहे हैं.
और कुछ ही पलों बाद वो शक्ति वहाँ उपस्थित भी हो गई.
एक महा गर्जन के साथ!
महाप्रेत था ये...
सभी प्रकार की आत्माओं, भूत – पिशाच, चुड़ैल, डायन, इत्यादि का बाप!
बाप क्या... अगर इसे इन सबका भगवान भी कह दिया जाए तो कदचित कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
अब तो अवनी का भी हालत ख़राब!
और किसी से भी लड़ लेगी.. कुछ समय तक टक्कर दे देगी.. परन्तु ये..?! ये तो महाप्रेत है.. अवनी जैसी आत्माओं का मास्टरजी!
इससे पहले की शौमक और अवनी कोई उपाय सोचते; बाबा जी ने त्वरित गति से एक ऊर्जा पाश से दोनों को घेर लिया. अब चंडूलिका लाख चाह कर भी इनकी किसी तरह कोई सहायता नहीं कर पाएगी.
“इन्हें उचित दंड दो!”
बाबा के मुख से हुंकार रुपी आदेश निकला.
महाप्रेत न एक क्षण भी न गँवाया.. दोनों को पकड़ा और शुरू हो गई उठा पटक..
आख़िर कितनी देर और टिकते.
दया की भीख माँगने लगे.
अवनी की हेकड़ी निकली हो न हो... चाहे क्रोध शांत हुआ हो या न हो.. लेकिन महाप्रेत के हाथों शौमक की दुर्गति होते और न देख सकी.
उसने भी हाथ जोड़े.
क्षमा माँगी.
“ठहरो!”
महाप्रेत रुका. पलट कर बाबा जी की ओर देखा.. अगले आदेश के लिए.
पर बाबा ने और कोई आदेश नहीं दिया. महाप्रेत के लिए पहले से तैयार भोग को आगे बढ़ाया.
महाप्रेत तो अति प्रसन्न!
भोग स्वीकार किया और बाबा को प्रणाम कर के अदृश्य हो गया.
बाबा अब उन दोनों प्रेमी आत्माओं की ओर देखा.
मुस्कराए,
पूछा,
“अब भी टक्कर लेना है?”
“नहीं...” दोनों ने कराहते हुए कहा.
“तो अब....?”
“हम अपनी भूल स्वीकार करते हैं.”
“ह्म्म्म...तो.. अवनी.. तुम्हारे साथ हुए पूरे घटना को सविस्तार सुनाओ.”
“पर मैंने तो तुम... आपको सब दिखा दिया.”
“केवल मैंने देखा.. और किसी ने नहीं.”
“तो?”
“तो यह कि अब तुम वो सारी घटना सुनाओगी.. यही तुम्हारी एक प्रकार की स्वीकारोक्ति भी होगी.”
समय व्यर्थ न गँवाते हुए वह बोलना शुरू की,
“जब गाँव वाले मेरे पीछे पड़े थे तब मैं अपने परिवार वालों के साथ न जा कर अलग जाने का निर्णय लिया. मैं जंगल के रास्ते भागी. ऐसे संकट की घड़ी में केवल और केवल शौमक के गुरु ही मुझे बचा सकते थे. मैं भागते भागते उनके पास गई और उनसे भेंट होते ही उनके पैर पकड़ ली. प्राणों की भीख माँगने लगी.
उस साधक ने मुझे पकड़ कर उठाया. दो मीठे बोल बोला. सान्तवना दिया की सब ठीक हो जाएगा. मुझे अंदर जा कर सोने के लिए कहा. उससे पहले कुछ खाने पीने को दिया. खा पी कर मैं सो गई.
अगले दिन सो कर उठी. अच्छा लगने के बजाए पूरा शरीर मानो टूट सा रहा था.
बदन के सभी कपड़े अस्त व्यस्त थे.
शौच के लिए गई तो देखा की योनि से रक्तस्राव हो रहा है. एक अलग ही पीड़ा है वहाँ. समझते देर न लगी मुझे.
रात में मेरे निद्रा में ही कल तक अक्षत रही कौमार्य को तोड़ दिया गया है! धर्षण हुआ है मेरा!
ये एक सदमा था मेरे लिए.
उस साधक से आमने सामने बात करने के लिए मैं उन्हें ढूँढने लगी. पर वो कहीं नहीं मिले. मैं वहाँ से, उनकी कुटिया से तुरंत निकल जाना चाही.. पर आश्चर्य!! कितना भी प्रयास कर लूँ.. कुटिया से पाँच कदम दूर जाने के बाद मैं आगे बढ़ ही नहीं पा रही थी. जब भी आगे बढ़ती, किसी अदृश्य दीवार से टकरा जाती! निरंतर प्रयास करती रही पर विफ़ल रही. थक हार कर मैं कुटिया में ही रोते रोते सो गई.. भूखे पेट...
संध्या समय वो साधक लौट आया.
हाथ में कुछ सामान भी था.
मुझे खाने को दिया.
मैं मना करना चाहती थी पर उस साधक की आँखों में देखते ही मैं अपने सारे प्रतिरोध, कुंठा इत्यादि को भूल गई... खाना खाने के बाद मुझे परोसे गए एक कपाल में मदिरा को भी पी गई.
आँखें भारी होने लगी.. नींद आने लगी बहुत ज़ोरों से...
वहीँ लुढ़क गई.
फिर रात भर मेरे साथ मेरे इच्छा विरुद्ध यौन क्रीड़ा चलता रहा. मेरे बदन के हरेक इंच को जैसे कच्चा ही चबा जाना चाहता था वह. पिछली रात तो कदाचित बदन पर कपड़े रह गए थे.. लेकिन आज पूरी तरह से निर्वस्त्र कर के ही माना वो नीच.. इतनी बुरी तरह से पूरे शरीर के हरेक अंगों का माँस मर्दन हुआ; जिसका मैंने कभी अपने सबसे बुरे स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी.
लेकिन इस बुरे स्वप्न का यहीं अंत नहीं था..
क्योंकि...
केवल योनि से मिले सुख से संतुष्ट नहीं हुआ वो. कुछ अलग चाहता था.. मैं समझ गई थी कि ये क्या चाहता है... पर मैं मना कर पाऊँ; इतनी शक्ति नहीं बची थी मेरे अंदर.
फ़िर उसने वही किया जो वो चाह रहा था..
अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित किया मेरे साथ... बहुत तड़पी मैं.. पर उसे तो केवल स्वयं के आनंद से ही मतलब था.
अगले दिन मुझे पता चला की वो इसी तरह हर गाँव से ऐसे पाँच लड़कियों से संसर्ग करता है जिनका कौमार्य पर कोई दाग न हो.. फिर एक महाशक्ति को एक विशिष्ट रात्रि में बलि देता है.. नर बलि!
उसने स्वयं हँसते हुए कहा की इसकी ये तंत्र क्रिया दूसरे सभी तंत्रों से भिन्न है; बल्कि दूसरे शब्दों में देखा व कहा जाए तो ये कोई तंत्र क्रिया नहीं कुछ और ही था.. कुछ ऐसा जो इस दुनिया में विरले लोगों को ही पता है.
हर किसी में साहस नहीं होता है ये क्रिया करने का!
इस क्रिया व पद्धति को करने से उसे और अधिक विशिष्ट शक्तियां मिलेंगी. वो और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा.
इस गाँव में आने के कुछ ही समय में उसने इसी गाँव की चार लड़की के साथ दुराचार कर के उनका बलि दे चुका था.. अंतिम की खोज थी उसे. एक दिन गाँव के हाट (बाजार) में मुझे शौमक के साथ देख लिया था.
उसके चेले की इतनी सुंदर, देह से पूर्ण एक प्रेमिका हो सकती है ऐसा उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था.
शौमक के द्वारा मेरे ऊपर से वशीकरण हटा लेने के तुरंत बाद ही उस साधक ने भी मुझ पर वशीकरण अस्त्र चलाया और मुझे शौमक पर मुग्ध करवा दिया.
संसर्ग करते समय उस साधक ने मुझसे कहा था कि उसे पता था कि मैं और शौमक इस गाँव से बाहर नहीं जा सकते.. और मैं स्वयं ही इनके पास आऊँगी.. ये उस रात मेरी ही प्रतीक्षा में थे... तैयार!
अगले दो दिनों तक मेरे साथ यही कुकर्म चलता रहा..
चौथे दिन की रात्रि को मेरा बलि होना था... और संयोग से उस दिन उस साधक ने दिन भर और जी भर कर मदिरा पान किया. उसे बेहोश देख मैंने एक बार फिर वहाँ से भाग जाने का प्रयास करने का निर्णय लिया.
कदाचित उस दिन उस कुटिया को चारों ओर से बाँधने भूल गया था वो नीच... इसलिए मैं बड़े आराम से वहाँ से निकल गई.
पर अब भाग कर जाती कहाँ...
कौमार्य नष्ट हो चुका था मेरा... शौमक का क्या हुआ... वो जीवित रहा भी या नहीं... क्या ऐसी दशा में मुझे अपनाएगा? और यदि अपना भी लिया; तो क्या मुझे ये शोभा देगा की मैं अपने देवता को झूठे, बासी फूल अर्पण करूँ?
क्या मुँह ले कर घर जाऊँ? क्या वापस लौट आने के लिए ही घर से भाग कर प्रेमी के साथ शादी की थी? समस्त गाँव वालों के सामने तो परिवार वालों के मुँह पर कालिख पोत ही चुकी थी मैं.. तो अब कैसे... परिवार वाले मुझे स्वीकार कर अपनाना भी चाहे तो समाज उन्हें ऐसा करने नहीं देगा...
कहेंगे की ऐसा करने से एक ऐसे उदाहरण की सृष्टि होगी जिससे भविष्य पर गाँव की कई जवान – नादान लड़कियों पर गलत प्रभाव पड़ेगा.
किसी और के घर नहीं जा सकती. कोई रख भी ले तो कहीं वो भी उस नीच साधक की ही भांति न निकले..
चलते चलते इसी स्थान पर, इसी पेड़ के नीचे आ कर बैठी मैं. रुलाई छूट गई मेरी. बहुत देर तक रोती रही..
और कोई मार्ग शेष न था.. अतः एक भयानक निर्णय ले ली.
आत्महत्या!!
हत्या तो मेरी उसी रात हो गई थी; जिस रात उस नीच ने मेरा देह धर्षण कर के कौमार्य ले लिया था..
अब तो बस खानापूर्ति करनी थी.
स्वयं को दैहिक रूप से मार कर...
कार्य सहज न था. भला स्वयं के प्राण लेना भी कभी सहज होता है??
अपने भगवान और पूर्वजों से क्षमा माँगी..मन को दृढ़ की... और इसी पेड़ की सबसे ऊँची डाली से.... लटक गई.
समाप्त... मेरी इहलीला.”
अवनी की आपबीती ने सबकी आँखों को भीगा दिया.
अंदर से हर कोई बुरी तरह से हिल गया.
कुछ पलों की चुप्पी के बाद बाबा ने पूछा,
“अब वो शैतान तांत्रिक कहाँ है?”
अवनी के बदले शौमक ने उत्तर दिया,
“अवनी के उसके चंगुल से छूट कर निकल जाने और बाद में आत्महत्या कर लेने के कारण उसका बलि का कार्यक्रम अधूरा रह गया था. जो सिद्धि उसे कुछ ही समय पश्चात मिलने वाली थी अब उसमें और भी अधिक विलम्ब हो गया. इसी कारण वो क्रोध से अत्यंत पागल हो उठा था. लक्ष्य के इतने निकट पहुँच कर असफ़ल होना किसी से भी सहन नहीं होता है.
अवनी के इस हरकत से उसे जो असफ़लता मिली और जो क्षति हुई; क्रोध के उन्माद में इसका प्रतिशोध वो पूरे गाँव से लेने की सोचा और एक रात यहाँ से जाने से पहले एक भयंकर क्रिया का संपादन किया. एक ऐसा अनुष्ठान जो कि किसी भी साधारण मनुष्य की कल्पना से परे थी.
चंडूलिका को जाग्रत किया उसने!
और हमें उसके अधीन कर दिया.
(कहते हुए कुछ क्षणों के लिए शौमक रुक गया. देखा की सभी उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे.. मुख से निकलते एक एक शब्दों को. पेड़, पौधे, घास, इत्यादि सभी वनस्पतियाँ भी मानो ठहर कर उसकी बातें सुनने को उत्सुक थे.)
(शौमक ने कहना जारी रखा...)
शादी की पहली रात से ही एक साथ घटी इतने सारे घटनाओं का हम दोनों पर बहुत गहरा धक्का लगा था जिसका प्रभाव हमारे मरणोपरांत भी रहा. उस तथाकथित तांत्रिक घेतांक और चंडूलिका ने हम दोनों को और भी अधिक वहशी बना दिया. अब हम दोनों को ही यौन संतुष्टि चाहिए थी.. हम दोनों ही गाँव वालों के बुद्धि को भ्रमित कर उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करते और जब काम हो जाता तब चंडूलिका के इशारे पर ही उन्हें मार भी दिया करते थे.. वैसे भी गाँव वालों को लेकर हमारे मन में अब तो कोई अच्छा विचार रहा नहीं था.. इसलिए उन लोगों को मारने में रत्ती भर का भी संकोच नहीं होता था.”
इतना कह कर शौमक अपनी बात ख़त्म किया.
कदाचित बाबा से रहा नहीं गया; ज़ोर से बोल पड़े,
“बस... !! बहुत हुआ... अब और नहीं.. अब और कष्ट नहीं!!”
कहते हुए आसन पर बैठ गए.
मंत्रोच्चारण प्रारंभ किया.
अब की बार अलग ही उद्देश्य था बाबा का जो शीघ्र ही सामने आ गया.
एक नारियल लिया. लम्बा सा लाल तिलक लगाया. मंत्रोच्चारण चलता रहा.
और थोड़े ही समय पश्चात् एक मद्धम नील प्रकाश से आलोकित हो गया वह नारियल. थोड़े और मंत्रोच्चारण के बाद अचानक न जाने कहाँ से एक सफ़ेद तेज़ रौशनी आई और उस नारियल में समा गई!
बाबा सामने देख कर बोले,
“तुम दोनों ने बहुत कष्ट झेला है.. अब विश्राम करो. मैं कल सुबह ही तुम दोनों की अंत्येष्टि एवं अन्य क्रियाकर्म कर दूँगा. साथ में पिंडदान की व्यवस्था भी. अब जाओ! विश्राम करो!!”
बाबा के हुंकार रुपी आदेश का तुरंत प्रभाव देखने को मिला.
धीरे धीरे शौमक और अवनी हवा में विलीन हो गए. मुखमंडल में एक सुखद प्रसन्नता, आभार एवं संतुष्टि लिए.
बाबा ने भुजंग का आह्वान किया. उसके आते ही बाबा ने सामने धरा पर बेसुध पड़े देबू और रुना को उनके घर पहुँचा देने का आदेश दिया.
तत्क्षणात् आदेश का पालन हुआ.
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अगले दिन सुबह,
अपने वचनानुसार बाबा ने सभी कार्य संपन्न कर दिया.
फ़िर अपने साथ सहयोगियों और शिष्यों को लेकर जंगल के बहुत अंदर एक सुनसान स्थान पर गए. जंगल के और सभी स्थानों से ये स्थान तनिक हट कर था.
बाबा ने गणना कर के ज़मीन पर एक बहुत गहरा गड्ढा खुदवाया.
तत्पश्चात वहाँ उस गड्ढे के अंदर मंत्रोच्चारण के बीच उस नारियल को झोले में से निकाल कर बहुत सावधानी से एक लाल कपड़े में पूरी तरह से लपेट कर ढक कर रख दिया और फिर मंत्रोच्चारण के साथ ही उस गड्ढे को भरने का आदेश दिया.
गड्ढा भरते ही चांदू बहुत उत्सुकतावश पूछ बैठा,
“गुरूदेव... इस नारियल में क्या है? कल एक अद्भुत प्रकाश को इसमें प्रविष्ट होते देखा था.”
“इसमें उस चंडूलिका की प्रतिछाया है वत्स... महाप्रेत को बुलाते समय मैंने शौमक और अवनी को अपने तंत्र पाश में बाँध दिया था. ऐसा करते ही उस चंडूलिका को पता चल गया था की कदाचित कल उसकी पराजय निश्चित है. जो महाप्रेत को बुलाने की क्षमता रखता हो वो और कई तरह की सिद्धियाँ भी अवश्य ही रखता होगा.
यह सोच कर ही वह फ़ौरन इस गाँव को छोड़ कर अन्यत्र कहीं चली गई. जाने से पहले अपनी प्रतिछाया को छोड़ गई. क्यों... इसका कोई सटीक उत्तर नहीं है मेरे पास.
इस बात का सदैव ध्यान रहे वत्स... की ये है तो चंडूलिका की प्रतिछाया मात्र; पर कम शक्तिशाली नहीं है. अतः ये इस सुनसान... इस वीराने में ही इस गड्ढे के अंदर नारियल में कैद रहनी चाहिए.. किसी भी प्रकार से यदि बाहर निकलने में सफ़ल हो गई तो घोर अनर्थ हो जाएगा...
..... वैसे..”
“वैसे.. क्या गुरूदेव?”
“ऐसा कहते हैं कि इन्हें जो कोई भी स्वतंत्र करता है ये उन्हीं की हो कर रह जाती हैं... संसार का समस्त सुख, हर प्रकार का सुख अपने उद्धार करने वाले की झोली में डाल देती है. कभी कभी तो कई प्रकार की शक्तियाँ भी प्रदान करती हैं.
पर ये सब कहने सुनने की बातें हैं.. वास्तविकता से इनका कोई लेना देना है या नहीं; ये कोई नहीं जानता आज तक.”
“परन्तु गुरूदेव... गाँव वालों ने वाकई बहुत बुरा किया था न शौमक और अवनी के साथ.”
“गाँव वाले क्या कर रहे थे ये स्वयं गाँव वालों को भी पता नहीं था क्योंकि वे सभी उस शैतान घेतांक के सम्मोहनी विद्या से प्रभावित थे. गाँववालों को अपनी करनी केवल दिख रही थी; अपने सोच पर कदापि नियंत्रण नहीं था उन लोगों का.”
अब गोपू ने एक प्रश्न किया,
“गुरूदेव, ये शौमक और अवनी की आत्माएँ देबू और रुना के शरीर में क्यों प्रवेश कर गए थे... कारण क्या था?”
“देबू और रुना, दोनों ही काफ़ी हद तक शौमक और अवनी के जैसे दिखने में थे. अति संयोग ही है यह कि देबू और रुना के जन्म के समय की ग्रह – नक्षत्र की दिशा दशा बिल्कुल वैसी ही थी जैसी शौमक और अवनी की. और देबू भी रुना की ओर आकर्षित था कुछ समय से. इन्हीं सब कारणों ने ऐसी अवांछनीय परिस्थितियों को बल दिया.”
“घेतांक और चंडूलिका का क्या होगा गुरूदेव... क्या वो फिर कभी गाँव वापस आएँगे?”
“चंडूलिका तो नहीं आएगी वत्स. इनका एक स्वभाव होता है कि जिस स्थान को एक बार ये छोड़ देती है, वो वहाँ दोबारा कभी नहीं जाती. अतः गाँव वाले चंडूलिका के आतंक से अब पूर्णतः मुक्त हैं और सदैव रहेंगे. रहा प्रश्न घेतांक का तो उसका कुछ कह नहीं सकता. वापस आ भी सकता है... और नहीं भी. वैसे, न आने के ही संभावनाएँ अधिक हैं; क्योंकि अगर आ गया, तो अब गाँव वाले उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे.”
इसके बाद बाबा और उनके दो सहयोगियों ने कुछेक क्रियाएँ और की वहाँ और फिर सब वहाँ से चले गए.
गाँव में कुछेक दिन और रह कर, सब के धन्यवाद स्वरूप अनेक प्रकार के भेंट पा कर; एक निश्चित दिन, निश्चित घड़ी देख कर बाबा अपने सहयोगियों और शिष्यों के साथ गाँव वालों से विदा ले कर चले गए. गाँव वालों ने नम आँखों से उन्हें विदा किया.
*समाप्त*
बाबा जी की आँखों में आँखें डाल कर उन्हें देखती अवनी की आँखें और अधिक चमक उठीं और इसी के साथ बाबा जी को ठीक उसी क्षण अपनी आँखों के आगे एक चलचित्र चलता हुआ सा अनुभव होने लगा..
वाद्य यंत्र बजने बंद हो चुके थें.
केवल मंत्रों की ध्वनियाँ ही गूँज रही थीं वहाँ... जो कि निकल रहे थे बाबा जी के दोनों सहयोगियों और शिष्यों के कंठों से...
और बाबा जी किसी बुत की भांति चुपचाप अवनी की आँखों में देखते हुए खड़े थे..
थोड़े समय बाद... यही कोई पंद्रह मिनट बीते होंगे,
बाबा जी के शरीर में एक तीव्र कंपन हुई... और वे तुरंत आँखें बंद कर उन्हें मसलने लगे..
“ओह... बुरा हुआ... बहुत बुरा हुआ...”
स्तंभित स्वर में शोकाकुल होते हुए बोले.
रुना कब देबू का बायाँ हाथ पकड़ ली थी ये किसी के नज़रों में नहीं आया था; परन्तु अब उसका हाथ छोड़ते सबने देखा.
देबू और रुना की आँखें भीगी हुई थीं.
सहयोगियों का तो पता नहीं पर दोनों शिष्य गोपू और चांदू को बड़ा अचरज होने लगा था ये पूरा दृश्य यूँ बदलता हुआ देख कर. कहाँ तो अब तक दोनों ही पक्षों में तीखे शब्दों और व्यंग्य बाणों के प्रयोग हो रहे थे... दोनों में से कोई भी पहले प्रहार के लिए तत्पर था.. पर अब.. दोनों ही पक्ष ऐसे भावुक क्यों हो रहे हैं?
“हाँ.. बुरा तो हुआ... बहुत बुरा हुआ था... पर आपको को बुरा लगा... लेकिन उसका क्या; जिसके साथ इतना बुरा हुआ... जिसके सम्मान की हत्या हुई.. जिसके विश्वास का गला घोंटा गया...” रुंधे स्वर में रुना बोली.
बाबा जी चुप थे.. कुछ कहना अवश्य ही चाह रहे थे परन्तु इस समय कदाचित चुप रहना ही उन्हें श्रेयस्कर लगा.
रुना ने कहना जारी रखा,
“हर व्यक्ति यही दो तो चाहता है... सम्मान और विश्वास... यदि यही दो न मिले... या जिसकी ओर सहारा समझ कर हम देखे.. वही यदि इन दो बातों का हत्यारा निकल जाए तो...?? फिर क्या कोई और मार्ग शेष रह जाता है?? …. आत्महत्या करने के सिवाय???”
बाबा जी अब भी बहुत दुखी थे..
सच में...
यदि कोई इस तरह किसी के साथ व्यवहार करे... भरोसा तोड़े... तब तो...
‘नहीं...’
मन ही मन सोचा बाबा ने..
‘ये ठीक नहीं.. मुझे कुछ कहना होगा...’
अवनी की ओर देख कर दृढ़ स्वर में बाबा ने कहा,
“सुनो बेटी, तुम दोनों के साथ ही बहुत अन्याय हुआ ये बात मैं मानता हूँ... और बेटी तुम्हारे साथ अन्याय तो क्या, घोर पाप हुआ है. परन्तु इसका अर्थ ये तो नहीं कि तुम दोनों अपने हाथों को वर्ष दर वर्ष, अविराम रक्तरंजित करते जाओ.. क्योंकि इतने वर्षों में कई ऐसे भी मारे गए जिनका तुम्हारे; तुम दोनों के साथ हुए दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना के साथ कोई संबंध नहीं था. प्रतिशोध की अग्नि ऐसी होती है पुत्री की यदि समय पर न बुझी तो बाद में कई सारे जतन करने के बाद भी शांत नहीं होती और एक समय बाद व्यक्ति विशेष; चाहे वो मृत हो या जीवित; के स्वभाव, चरित्र, प्रकृति, इत्यादि सब कुछ जला कर भस्म कर देती है. तुम दोनों ने कईयों के रक्त से अपने हाथ लाल कर लिए हैं... बहुत हुआ... अब अपने क्रोधाग्नि को शांत करने का यत्न करो और ये सब छोड़ दो. यदि इतना करते हो तो मैं तुम्हें ये वचन देता हूँ कि मैं स्वयं तुम दोनों को इस योनि से आज ही मुक्ति दिलाऊँगा और एक सुखी जीवन के लिए अगले जन्म का मार्ग प्रशस्त करूँगा.”
इतना कह कर बाबा चुप हुए....
शौमक और अवनी भावहीन मूर्ति समान बाबा की बातों को सुन रहे थे... उनके चुप होते ही दो पल बाद दोनों ने एक दूसरे को देखा.
अवनी के होंठों पर एक हल्की मुस्कान बिखर गई.
शौमक उसका आशय समझ गया. उसने भी मुस्कराते हुए सहमति में सिर हिलाया.
फ़िर दोनों एक साथ बाबा जी की ओर देखा.
और एक साथ ही कहा,
“नहीं.!!”
“नहीं??!”
“हमारी प्रतिशोध की अग्नि कब और कैसे शांत होगी ये हम स्वयं निश्चित करेंगे. कोई बाहरी आ कर हमें नहीं बतायेगा कि हमें कब, क्या करना है.”
बाबा को अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ.
“लेकिन क्यों... क्यों ऐसा करते रहना चाहते हो तुम लोग? आखिर कब तक?”
“तब तक.. जब तक कि इस गाँव के सभी दोषी मारे नहीं जाते.”
“लेकिन सभी तो दोषी नहीं हैं!?”
“कौन दोषी है या नहीं है; इसका निर्णय भी हम करेंगे!”
इस बार भी दोनों ने एक साथ कहा.
“देखो बेटी, (बाबा अवनी की ओर देखते हुए बोले) मैं समझता हूँ तुम्हारी पीड़ा को. तुम्हारे साथ बहुत बहुत बुरा हुआ है और दोषी को दंड तो मिलना ही चाहिए. परन्तु इन गाँव वालों का इतना भी भयंकर दोष नहीं की इस तरह सब को एक एक कर के मार दिया जाए....”
बाबा के बात को बीच में ही काटते हुए बोली अवनी,
“तो क्या उन लोगों से निवेदन कर के उन्हें मारूँ?? ये गाँव वाले भी कम दोषी नहीं हैं.. अतएव इन्हें भी उचित दंड मिलना ही चाहिए और ये दंड मृत्युदंड ही है.”
“मैं तुम्हें ऐसा नहीं करने दूँगा.”
“तू रोकेगा??”
“हाँ.”
“फिर तो तू भी मारा जाएगा!”
“चिंता नहीं.”
“सोच ले.”
“इसमें सोचना कैसा? मैं यहाँ अच्छे से सोच कर ही आया था. गाँव वाले मेरी शरण में हैं अब... मैं उनका कोई अहित नहीं होने दूँगा.”
“हाहाहा.. तेरी ही शरण में रहते हुई ही आठ लोग मारे गए इतने दिनों में.!!”
“हाँ.. वो भी इसलिए क्योंकि उन लोगों ने मेरी बात नहीं मानी थी.”
“तू फिर भी नहीं रोक पाएगा उन्हें मरने से ऐ साधक!”
“प्रयास कर लो.”
“क्या ये तुम्हारी चुनौती है, साधक?”
“हाँ... चुनौती है.”
दोनों की ही आँखें अत्यधिक क्रोध से लाल हो गए.
उनके क्रोध और तेज़ से आस पास के पेड़ हिलने लगे और तेज़ हवाएँ चलने लगीं.
बाबा तो तैयार हो कर ही आए. थे. तुरंत उन्होंने अब तक अधबुझी हो चुकी हवन से एक लकड़ी का टुकड़ा उठा लिया और उन दोनों की ओर फेंक दिया. दोनों हवा में ही लड़खड़ा गए.
अधिक समय नहीं था हाथ में. कुछ क्षणों बाद ही वे संभल जाएँगे.
बाबा भी तैयार...
हवन से एक छोटी लकड़ी निकाला.. दूसरे हाथ में थोड़ा सा भस्म लिया.. दोनों का आपस में स्पर्श कराया और फिर उस लकड़ी को एक ओर रख कर उस भस्म से शरीर पर भस्म-लेप किया, धारण किए हुए उन तांत्रिक-आभूषणों को पोषित किया, छोटे से बर्तन में रखे रक्त के घोटे से माथे को सुसज्जित किया! और फिर अपना त्रिशूल निकाला! बाएं गाड़ा! आसान बिछाया और उस पर थोड़े अनाज रख दिया...
फिर चिमटा निकाला, चारों दिशाओं में खड़खड़ाया और क्षण भर में दिशा-पूजन किया!
झोले में से दो कपाल निकाले. एक कपाल को सामने रख कर दूसरे कपाल को त्रिशूल पर टांग दिया!
पीछे बैठे उनके एक सहयोगी ने दो हाथों की अस्थियां बाबा को दिया... बाबा ने उन अस्थियों को सामने रखे कपाल पर रखा और क्रंदक-मंत्र पढ़ा!
दोनों अस्थियों को आपस में जो से दे मारा.. और फिर से उस कपाल से छुआ दिया..
ऐसा करते ही दोनों अस्थियाँ काँप उठी और कपाल भी अपने स्थान पर ज़ोर से हिला !
वातावरण में एक अत्यंत ही दिल दहला देने वाला कानफोड़ू अट्ठहास हुआ!
तंत्र क्रिया सक्रिय एवं आरम्भ हो गई..!
और अब तक संभल चुके शौमक और अवनी भी इस पूरे व्यवस्था को आश्चर्य से आँखें फाड़े देख रहे थे.
बाबा को उन्होंने कम कर के आँका तो नहीं था पर अब तो बाबा उनके कल्पना से भी कहीं अधिक तंत्र ज्ञाता निकले!
कुछ देर के लिए चुप्पी छा गई वहाँ..
सहयोगी और शिष्य अब अत्यंत धीमे स्वर में मंत्रपाठ कर रहे थे..
इनके अलावा अगर और कहीं से आवाज़ें आ रही थीं तो बस सम्मुख जल रही हवन की लकड़ियों से आती चट-चट की आवाज़ें...!
मरघट की सी शांति चारों ओर छाई हुई थी...
बाबा काफ़ी सतर्कता से तीक्ष्ण दृष्टि से उन दोनों को देख रहे थे..
शौमक और अवनी भी बराबर सावधानी बरतते हुए बाबा, उनके सहयोगियों और शिष्यों को देख रहे थे.
बाबा ने एक विशेष संकेत किया.. शिष्यों ने मंत्रपाठ के उच्चारण की गति और स्वर; दोनों को तनिक बढ़ा दिया. वातावरण में अब मंत्र ऐसे गूँज रहे थे जैसे शिथिल पड़े हुए धौंकनी रुपी श्मशान में हवा भर दी जा रही हो जिसके परिणामस्वरूप वो अब फुफकारने लगी है!
हवन से उठता धुआँ वहाँ उपस्थित सभी के अस्तित्व की पहचान लिए इस भूलोक से विदा लिए जा रहा था!
शौमक कदाचित अब भी असमंजस में था परन्तु अवनी ने मानो कुछ ठान लिया था.
उसके दोनों हथेलियाँ सख्ती से मुट्ठी में परिणत हो गए थे और दोनों मुट्ठियों से एक चमक बिखरने लगी थीं..
ये देख बाबा यूँ धीमे हँसे जैसे कोई अभिभावक एक बच्चे के भोले शरारत को देख हँसता है. बाबा ने पास ही रखा एक कपाल उठाया, सहयोगी ने तुरंत उसमें मदिरा डाला.. बाबा ने एक मंत्र पढ़ा और एक महानाद करते हुए मदिरा कंठ से नीचे उतार लिया!
फिर बाबा जी ने वाचाल-प्रेत का आह्वान किया, वो उपस्थित हुआ! उसके बाद कर्ण-पिशाचिनी का आह्वान कर उसको भी राजी कर लिया. फिर वे दोनों मुस्तैद हो गए!
फिर आरम्भ हुआ तंत्र युद्ध!!
दोनों और से तंत्रों का अद्भुत टकराव होने लगा.
बाबा के पास उन दोनों के हरेक वार – प्रहार का पर्याप्त उत्तर था.. और बड़ी ही सरलता से उन दोनों के वारों से निपट रहे थे.
बाबा पर रत्ती भर भी अपने वारों का प्रभाव न होता देख कर अवनी प्रतिक्षण अत्यंत क्रोधित होती हुई और भी अधिक शक्ति से वार करने लगी और शौमक अपनी पूरजोर दम लगा कर बाबा के वारों से अवनी को सुरक्षित रखने का प्रयास करने लगा.
वैसे, बाबा केवल अवनी के प्रहारों से स्वयं की रक्षा ही कर रहे, पलट कर वार नहीं कर रहे थे.
तभी उनका एक सहयोगी उठ कर बाबा के कानों में कुछ कहा... बाबा ने ऊपर गगन में देखा.. समय निकला जा रहा था... इन दोनों से अधिक समय तक यूँ ही लड़ते रहने का कोई अर्थ नहीं था.
तंत्र युद्ध में उनकी शक्ति देख बाबा जी समझ गए थें कि इन्हें ये शक्तियाँ चंडूलिका से मिल रही हैं... क्योंकि ऐसे तंत्र और वार करने की शक्ति साधारण आत्माओं में तो कभी होती ही नहीं है...
तुरंत ही स्वयं को एक तंत्र कवच में सुरक्षित कर के बाबा ने नेत्र बंद कर के मंत्र पढ़ना शुरू किया. उनके चेहरे पर आते जाते भावों ने ये बिल्कुल ही स्पष्ट कर दिया की अब बाबा इस खेल को यहीं समाप्त करने हेतु किसी महा शक्ति का आह्वान कर रहे हैं.
और कुछ ही पलों बाद वो शक्ति वहाँ उपस्थित भी हो गई.
एक महा गर्जन के साथ!
महाप्रेत था ये...
सभी प्रकार की आत्माओं, भूत – पिशाच, चुड़ैल, डायन, इत्यादि का बाप!
बाप क्या... अगर इसे इन सबका भगवान भी कह दिया जाए तो कदचित कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी.
अब तो अवनी का भी हालत ख़राब!
और किसी से भी लड़ लेगी.. कुछ समय तक टक्कर दे देगी.. परन्तु ये..?! ये तो महाप्रेत है.. अवनी जैसी आत्माओं का मास्टरजी!
इससे पहले की शौमक और अवनी कोई उपाय सोचते; बाबा जी ने त्वरित गति से एक ऊर्जा पाश से दोनों को घेर लिया. अब चंडूलिका लाख चाह कर भी इनकी किसी तरह कोई सहायता नहीं कर पाएगी.
“इन्हें उचित दंड दो!”
बाबा के मुख से हुंकार रुपी आदेश निकला.
महाप्रेत न एक क्षण भी न गँवाया.. दोनों को पकड़ा और शुरू हो गई उठा पटक..
आख़िर कितनी देर और टिकते.
दया की भीख माँगने लगे.
अवनी की हेकड़ी निकली हो न हो... चाहे क्रोध शांत हुआ हो या न हो.. लेकिन महाप्रेत के हाथों शौमक की दुर्गति होते और न देख सकी.
उसने भी हाथ जोड़े.
क्षमा माँगी.
“ठहरो!”
महाप्रेत रुका. पलट कर बाबा जी की ओर देखा.. अगले आदेश के लिए.
पर बाबा ने और कोई आदेश नहीं दिया. महाप्रेत के लिए पहले से तैयार भोग को आगे बढ़ाया.
महाप्रेत तो अति प्रसन्न!
भोग स्वीकार किया और बाबा को प्रणाम कर के अदृश्य हो गया.
बाबा अब उन दोनों प्रेमी आत्माओं की ओर देखा.
मुस्कराए,
पूछा,
“अब भी टक्कर लेना है?”
“नहीं...” दोनों ने कराहते हुए कहा.
“तो अब....?”
“हम अपनी भूल स्वीकार करते हैं.”
“ह्म्म्म...तो.. अवनी.. तुम्हारे साथ हुए पूरे घटना को सविस्तार सुनाओ.”
“पर मैंने तो तुम... आपको सब दिखा दिया.”
“केवल मैंने देखा.. और किसी ने नहीं.”
“तो?”
“तो यह कि अब तुम वो सारी घटना सुनाओगी.. यही तुम्हारी एक प्रकार की स्वीकारोक्ति भी होगी.”
समय व्यर्थ न गँवाते हुए वह बोलना शुरू की,
“जब गाँव वाले मेरे पीछे पड़े थे तब मैं अपने परिवार वालों के साथ न जा कर अलग जाने का निर्णय लिया. मैं जंगल के रास्ते भागी. ऐसे संकट की घड़ी में केवल और केवल शौमक के गुरु ही मुझे बचा सकते थे. मैं भागते भागते उनके पास गई और उनसे भेंट होते ही उनके पैर पकड़ ली. प्राणों की भीख माँगने लगी.
उस साधक ने मुझे पकड़ कर उठाया. दो मीठे बोल बोला. सान्तवना दिया की सब ठीक हो जाएगा. मुझे अंदर जा कर सोने के लिए कहा. उससे पहले कुछ खाने पीने को दिया. खा पी कर मैं सो गई.
अगले दिन सो कर उठी. अच्छा लगने के बजाए पूरा शरीर मानो टूट सा रहा था.
बदन के सभी कपड़े अस्त व्यस्त थे.
शौच के लिए गई तो देखा की योनि से रक्तस्राव हो रहा है. एक अलग ही पीड़ा है वहाँ. समझते देर न लगी मुझे.
रात में मेरे निद्रा में ही कल तक अक्षत रही कौमार्य को तोड़ दिया गया है! धर्षण हुआ है मेरा!
ये एक सदमा था मेरे लिए.
उस साधक से आमने सामने बात करने के लिए मैं उन्हें ढूँढने लगी. पर वो कहीं नहीं मिले. मैं वहाँ से, उनकी कुटिया से तुरंत निकल जाना चाही.. पर आश्चर्य!! कितना भी प्रयास कर लूँ.. कुटिया से पाँच कदम दूर जाने के बाद मैं आगे बढ़ ही नहीं पा रही थी. जब भी आगे बढ़ती, किसी अदृश्य दीवार से टकरा जाती! निरंतर प्रयास करती रही पर विफ़ल रही. थक हार कर मैं कुटिया में ही रोते रोते सो गई.. भूखे पेट...
संध्या समय वो साधक लौट आया.
हाथ में कुछ सामान भी था.
मुझे खाने को दिया.
मैं मना करना चाहती थी पर उस साधक की आँखों में देखते ही मैं अपने सारे प्रतिरोध, कुंठा इत्यादि को भूल गई... खाना खाने के बाद मुझे परोसे गए एक कपाल में मदिरा को भी पी गई.
आँखें भारी होने लगी.. नींद आने लगी बहुत ज़ोरों से...
वहीँ लुढ़क गई.
फिर रात भर मेरे साथ मेरे इच्छा विरुद्ध यौन क्रीड़ा चलता रहा. मेरे बदन के हरेक इंच को जैसे कच्चा ही चबा जाना चाहता था वह. पिछली रात तो कदाचित बदन पर कपड़े रह गए थे.. लेकिन आज पूरी तरह से निर्वस्त्र कर के ही माना वो नीच.. इतनी बुरी तरह से पूरे शरीर के हरेक अंगों का माँस मर्दन हुआ; जिसका मैंने कभी अपने सबसे बुरे स्वप्न में भी कल्पना नहीं की होगी.
लेकिन इस बुरे स्वप्न का यहीं अंत नहीं था..
क्योंकि...
केवल योनि से मिले सुख से संतुष्ट नहीं हुआ वो. कुछ अलग चाहता था.. मैं समझ गई थी कि ये क्या चाहता है... पर मैं मना कर पाऊँ; इतनी शक्ति नहीं बची थी मेरे अंदर.
फ़िर उसने वही किया जो वो चाह रहा था..
अप्राकृतिक यौन संबंध स्थापित किया मेरे साथ... बहुत तड़पी मैं.. पर उसे तो केवल स्वयं के आनंद से ही मतलब था.
अगले दिन मुझे पता चला की वो इसी तरह हर गाँव से ऐसे पाँच लड़कियों से संसर्ग करता है जिनका कौमार्य पर कोई दाग न हो.. फिर एक महाशक्ति को एक विशिष्ट रात्रि में बलि देता है.. नर बलि!
उसने स्वयं हँसते हुए कहा की इसकी ये तंत्र क्रिया दूसरे सभी तंत्रों से भिन्न है; बल्कि दूसरे शब्दों में देखा व कहा जाए तो ये कोई तंत्र क्रिया नहीं कुछ और ही था.. कुछ ऐसा जो इस दुनिया में विरले लोगों को ही पता है.
हर किसी में साहस नहीं होता है ये क्रिया करने का!
इस क्रिया व पद्धति को करने से उसे और अधिक विशिष्ट शक्तियां मिलेंगी. वो और अधिक शक्तिशाली हो जाएगा.
इस गाँव में आने के कुछ ही समय में उसने इसी गाँव की चार लड़की के साथ दुराचार कर के उनका बलि दे चुका था.. अंतिम की खोज थी उसे. एक दिन गाँव के हाट (बाजार) में मुझे शौमक के साथ देख लिया था.
उसके चेले की इतनी सुंदर, देह से पूर्ण एक प्रेमिका हो सकती है ऐसा उसने स्वप्न में भी नहीं सोचा था.
शौमक के द्वारा मेरे ऊपर से वशीकरण हटा लेने के तुरंत बाद ही उस साधक ने भी मुझ पर वशीकरण अस्त्र चलाया और मुझे शौमक पर मुग्ध करवा दिया.
संसर्ग करते समय उस साधक ने मुझसे कहा था कि उसे पता था कि मैं और शौमक इस गाँव से बाहर नहीं जा सकते.. और मैं स्वयं ही इनके पास आऊँगी.. ये उस रात मेरी ही प्रतीक्षा में थे... तैयार!
अगले दो दिनों तक मेरे साथ यही कुकर्म चलता रहा..
चौथे दिन की रात्रि को मेरा बलि होना था... और संयोग से उस दिन उस साधक ने दिन भर और जी भर कर मदिरा पान किया. उसे बेहोश देख मैंने एक बार फिर वहाँ से भाग जाने का प्रयास करने का निर्णय लिया.
कदाचित उस दिन उस कुटिया को चारों ओर से बाँधने भूल गया था वो नीच... इसलिए मैं बड़े आराम से वहाँ से निकल गई.
पर अब भाग कर जाती कहाँ...
कौमार्य नष्ट हो चुका था मेरा... शौमक का क्या हुआ... वो जीवित रहा भी या नहीं... क्या ऐसी दशा में मुझे अपनाएगा? और यदि अपना भी लिया; तो क्या मुझे ये शोभा देगा की मैं अपने देवता को झूठे, बासी फूल अर्पण करूँ?
क्या मुँह ले कर घर जाऊँ? क्या वापस लौट आने के लिए ही घर से भाग कर प्रेमी के साथ शादी की थी? समस्त गाँव वालों के सामने तो परिवार वालों के मुँह पर कालिख पोत ही चुकी थी मैं.. तो अब कैसे... परिवार वाले मुझे स्वीकार कर अपनाना भी चाहे तो समाज उन्हें ऐसा करने नहीं देगा...
कहेंगे की ऐसा करने से एक ऐसे उदाहरण की सृष्टि होगी जिससे भविष्य पर गाँव की कई जवान – नादान लड़कियों पर गलत प्रभाव पड़ेगा.
किसी और के घर नहीं जा सकती. कोई रख भी ले तो कहीं वो भी उस नीच साधक की ही भांति न निकले..
चलते चलते इसी स्थान पर, इसी पेड़ के नीचे आ कर बैठी मैं. रुलाई छूट गई मेरी. बहुत देर तक रोती रही..
और कोई मार्ग शेष न था.. अतः एक भयानक निर्णय ले ली.
आत्महत्या!!
हत्या तो मेरी उसी रात हो गई थी; जिस रात उस नीच ने मेरा देह धर्षण कर के कौमार्य ले लिया था..
अब तो बस खानापूर्ति करनी थी.
स्वयं को दैहिक रूप से मार कर...
कार्य सहज न था. भला स्वयं के प्राण लेना भी कभी सहज होता है??
अपने भगवान और पूर्वजों से क्षमा माँगी..मन को दृढ़ की... और इसी पेड़ की सबसे ऊँची डाली से.... लटक गई.
समाप्त... मेरी इहलीला.”
अवनी की आपबीती ने सबकी आँखों को भीगा दिया.
अंदर से हर कोई बुरी तरह से हिल गया.
कुछ पलों की चुप्पी के बाद बाबा ने पूछा,
“अब वो शैतान तांत्रिक कहाँ है?”
अवनी के बदले शौमक ने उत्तर दिया,
“अवनी के उसके चंगुल से छूट कर निकल जाने और बाद में आत्महत्या कर लेने के कारण उसका बलि का कार्यक्रम अधूरा रह गया था. जो सिद्धि उसे कुछ ही समय पश्चात मिलने वाली थी अब उसमें और भी अधिक विलम्ब हो गया. इसी कारण वो क्रोध से अत्यंत पागल हो उठा था. लक्ष्य के इतने निकट पहुँच कर असफ़ल होना किसी से भी सहन नहीं होता है.
अवनी के इस हरकत से उसे जो असफ़लता मिली और जो क्षति हुई; क्रोध के उन्माद में इसका प्रतिशोध वो पूरे गाँव से लेने की सोचा और एक रात यहाँ से जाने से पहले एक भयंकर क्रिया का संपादन किया. एक ऐसा अनुष्ठान जो कि किसी भी साधारण मनुष्य की कल्पना से परे थी.
चंडूलिका को जाग्रत किया उसने!
और हमें उसके अधीन कर दिया.
(कहते हुए कुछ क्षणों के लिए शौमक रुक गया. देखा की सभी उसकी बातों को बड़े ध्यान से सुन रहे थे.. मुख से निकलते एक एक शब्दों को. पेड़, पौधे, घास, इत्यादि सभी वनस्पतियाँ भी मानो ठहर कर उसकी बातें सुनने को उत्सुक थे.)
(शौमक ने कहना जारी रखा...)
शादी की पहली रात से ही एक साथ घटी इतने सारे घटनाओं का हम दोनों पर बहुत गहरा धक्का लगा था जिसका प्रभाव हमारे मरणोपरांत भी रहा. उस तथाकथित तांत्रिक घेतांक और चंडूलिका ने हम दोनों को और भी अधिक वहशी बना दिया. अब हम दोनों को ही यौन संतुष्टि चाहिए थी.. हम दोनों ही गाँव वालों के बुद्धि को भ्रमित कर उनसे यौन सम्बन्ध स्थापित करते और जब काम हो जाता तब चंडूलिका के इशारे पर ही उन्हें मार भी दिया करते थे.. वैसे भी गाँव वालों को लेकर हमारे मन में अब तो कोई अच्छा विचार रहा नहीं था.. इसलिए उन लोगों को मारने में रत्ती भर का भी संकोच नहीं होता था.”
इतना कह कर शौमक अपनी बात ख़त्म किया.
कदाचित बाबा से रहा नहीं गया; ज़ोर से बोल पड़े,
“बस... !! बहुत हुआ... अब और नहीं.. अब और कष्ट नहीं!!”
कहते हुए आसन पर बैठ गए.
मंत्रोच्चारण प्रारंभ किया.
अब की बार अलग ही उद्देश्य था बाबा का जो शीघ्र ही सामने आ गया.
एक नारियल लिया. लम्बा सा लाल तिलक लगाया. मंत्रोच्चारण चलता रहा.
और थोड़े ही समय पश्चात् एक मद्धम नील प्रकाश से आलोकित हो गया वह नारियल. थोड़े और मंत्रोच्चारण के बाद अचानक न जाने कहाँ से एक सफ़ेद तेज़ रौशनी आई और उस नारियल में समा गई!
बाबा सामने देख कर बोले,
“तुम दोनों ने बहुत कष्ट झेला है.. अब विश्राम करो. मैं कल सुबह ही तुम दोनों की अंत्येष्टि एवं अन्य क्रियाकर्म कर दूँगा. साथ में पिंडदान की व्यवस्था भी. अब जाओ! विश्राम करो!!”
बाबा के हुंकार रुपी आदेश का तुरंत प्रभाव देखने को मिला.
धीरे धीरे शौमक और अवनी हवा में विलीन हो गए. मुखमंडल में एक सुखद प्रसन्नता, आभार एवं संतुष्टि लिए.
बाबा ने भुजंग का आह्वान किया. उसके आते ही बाबा ने सामने धरा पर बेसुध पड़े देबू और रुना को उनके घर पहुँचा देने का आदेश दिया.
तत्क्षणात् आदेश का पालन हुआ.
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अगले दिन सुबह,
अपने वचनानुसार बाबा ने सभी कार्य संपन्न कर दिया.
फ़िर अपने साथ सहयोगियों और शिष्यों को लेकर जंगल के बहुत अंदर एक सुनसान स्थान पर गए. जंगल के और सभी स्थानों से ये स्थान तनिक हट कर था.
बाबा ने गणना कर के ज़मीन पर एक बहुत गहरा गड्ढा खुदवाया.
तत्पश्चात वहाँ उस गड्ढे के अंदर मंत्रोच्चारण के बीच उस नारियल को झोले में से निकाल कर बहुत सावधानी से एक लाल कपड़े में पूरी तरह से लपेट कर ढक कर रख दिया और फिर मंत्रोच्चारण के साथ ही उस गड्ढे को भरने का आदेश दिया.
गड्ढा भरते ही चांदू बहुत उत्सुकतावश पूछ बैठा,
“गुरूदेव... इस नारियल में क्या है? कल एक अद्भुत प्रकाश को इसमें प्रविष्ट होते देखा था.”
“इसमें उस चंडूलिका की प्रतिछाया है वत्स... महाप्रेत को बुलाते समय मैंने शौमक और अवनी को अपने तंत्र पाश में बाँध दिया था. ऐसा करते ही उस चंडूलिका को पता चल गया था की कदाचित कल उसकी पराजय निश्चित है. जो महाप्रेत को बुलाने की क्षमता रखता हो वो और कई तरह की सिद्धियाँ भी अवश्य ही रखता होगा.
यह सोच कर ही वह फ़ौरन इस गाँव को छोड़ कर अन्यत्र कहीं चली गई. जाने से पहले अपनी प्रतिछाया को छोड़ गई. क्यों... इसका कोई सटीक उत्तर नहीं है मेरे पास.
इस बात का सदैव ध्यान रहे वत्स... की ये है तो चंडूलिका की प्रतिछाया मात्र; पर कम शक्तिशाली नहीं है. अतः ये इस सुनसान... इस वीराने में ही इस गड्ढे के अंदर नारियल में कैद रहनी चाहिए.. किसी भी प्रकार से यदि बाहर निकलने में सफ़ल हो गई तो घोर अनर्थ हो जाएगा...
..... वैसे..”
“वैसे.. क्या गुरूदेव?”
“ऐसा कहते हैं कि इन्हें जो कोई भी स्वतंत्र करता है ये उन्हीं की हो कर रह जाती हैं... संसार का समस्त सुख, हर प्रकार का सुख अपने उद्धार करने वाले की झोली में डाल देती है. कभी कभी तो कई प्रकार की शक्तियाँ भी प्रदान करती हैं.
पर ये सब कहने सुनने की बातें हैं.. वास्तविकता से इनका कोई लेना देना है या नहीं; ये कोई नहीं जानता आज तक.”
“परन्तु गुरूदेव... गाँव वालों ने वाकई बहुत बुरा किया था न शौमक और अवनी के साथ.”
“गाँव वाले क्या कर रहे थे ये स्वयं गाँव वालों को भी पता नहीं था क्योंकि वे सभी उस शैतान घेतांक के सम्मोहनी विद्या से प्रभावित थे. गाँववालों को अपनी करनी केवल दिख रही थी; अपने सोच पर कदापि नियंत्रण नहीं था उन लोगों का.”
अब गोपू ने एक प्रश्न किया,
“गुरूदेव, ये शौमक और अवनी की आत्माएँ देबू और रुना के शरीर में क्यों प्रवेश कर गए थे... कारण क्या था?”
“देबू और रुना, दोनों ही काफ़ी हद तक शौमक और अवनी के जैसे दिखने में थे. अति संयोग ही है यह कि देबू और रुना के जन्म के समय की ग्रह – नक्षत्र की दिशा दशा बिल्कुल वैसी ही थी जैसी शौमक और अवनी की. और देबू भी रुना की ओर आकर्षित था कुछ समय से. इन्हीं सब कारणों ने ऐसी अवांछनीय परिस्थितियों को बल दिया.”
“घेतांक और चंडूलिका का क्या होगा गुरूदेव... क्या वो फिर कभी गाँव वापस आएँगे?”
“चंडूलिका तो नहीं आएगी वत्स. इनका एक स्वभाव होता है कि जिस स्थान को एक बार ये छोड़ देती है, वो वहाँ दोबारा कभी नहीं जाती. अतः गाँव वाले चंडूलिका के आतंक से अब पूर्णतः मुक्त हैं और सदैव रहेंगे. रहा प्रश्न घेतांक का तो उसका कुछ कह नहीं सकता. वापस आ भी सकता है... और नहीं भी. वैसे, न आने के ही संभावनाएँ अधिक हैं; क्योंकि अगर आ गया, तो अब गाँव वाले उसे जीवित नहीं छोड़ेंगे.”
इसके बाद बाबा और उनके दो सहयोगियों ने कुछेक क्रियाएँ और की वहाँ और फिर सब वहाँ से चले गए.
गाँव में कुछेक दिन और रह कर, सब के धन्यवाद स्वरूप अनेक प्रकार के भेंट पा कर; एक निश्चित दिन, निश्चित घड़ी देख कर बाबा अपने सहयोगियों और शिष्यों के साथ गाँव वालों से विदा ले कर चले गए. गाँव वालों ने नम आँखों से उन्हें विदा किया.
*समाप्त*