31-10-2020, 07:55 AM
ब)
उधर देबू भी अपने बिस्तर से उठ चुका था..
दरअसल देबू और रुना दोनों ही अपने घरों से निकल गए थे..
दोनों जैसे किसी एक जगह जल्द से जल्द पहुँचना चाह रहे थे.. दोनों के ही चेहरे और आँखों में चिंता व परेशानी साफ झलक रही थी..
पर यहाँ सबसे आश्चर्य वाली बात जो थी वो यह कि देबू और रुना; दोनों के ही पैर ज़मीन को नहीं छू रहे थे ! दोनों के ही शरीर धरती से कुछ इंच ऊपर हवा में थे और मानो इसी तरह हवा में ही उड़ते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर बढ़े जा रहे थे.
कुछ क्षणों में ही जिस मार्ग से वे दोनों अपने अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थे; वो मार्ग और उनका गंतव्य... दोनों स्पष्ट हो गए.
वे दोनों गाँव की एक संकरी जंगली पगडंडी से होते हुए उसी वन की ओर बढ़े जा रहे थे जहाँ इस समय बाबा जी अपने सहयोगियों व शिष्यों के साथ एक गुप्त अनुष्ठान में रत थे.
दरअसल अब तक बाबा जी ने एक हवन आरम्भ कर दिया था... उस हवन से उठती ज्वाला और उन पाँचों के मुख से निकलते मंत्रोच्चारण क्षण प्रतिक्षण आक्रामक से होते जा रहे थे.
विशेष कर बाबा जी तो बहुत ही दृढ़ संकल्पित लग रहे थे. उनके हरेक मंत्र पाठ से आस पास उपस्थित निर्जीव पदार्थ तक में कंपन सी हो रही थी.
अग्नि की लपटें तक बाबा जी के मुख से निकलने वाले हरेक मन्त्र व उनके लय, छंद, ताल पर थिरकन कर रही थीं.
ये क्रम अभी अनवरत चल ही रहा था कि तभी एक साथ देबू और रुना हवा में उसी तरह रहते हुए वहाँ पहुँच गए.
पहले तो दोनों ने एक दूसरे को आश्चर्य से देखा.. आँखों ही आँखों में बात हुई और फिर गुस्से से काँपते हुए दोनों ने उन पाँच साधकों की ओर देखा.
दोनों के बदली नेत्रों और बदले रूप को देख कर गोपू और चांदू भयभीत तो अवश्य हुए पर बाबा जी पर उनका अगाध विश्वास था... इसलिए निर्भय हो कर अपने मन्त्र जाप में रमे रहे और वाद्य यंत्र बजाते रहे.
देबू और रुना को वहाँ आया देख कर बाबा जी को भी कुछ क्षणों के लिए अचरज अवश्य हुआ पर तब तक उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ इतनी अधिक प्रबल रूप से सक्रिय हो चुकी थीं कि उन्हें समझते देर न लगी की ये दोनों वास्तव में शौमक और अवनी हैं.... देबू और रुना के शरीर में... देबू और रुना; जो इसी ग्राम के ग्रामवासी हैं.
सब ने गौर किया की अत्यंत क्रोध में होने के बाद भी दोनों के शरीर से एक अद्भुत आभा प्रकाशित हो रही थी. देबू जहाँ अत्यंत सुकुमार लग रहा था वहीँ रुना हद से अधिक चित्ताकर्षक एवं रूपवती लग रही थी.
दोनों ही इतने अच्छे लग रहे थे की यदि ये कोई और समय होता और देखने वाले साधारण जन होते तो अब तक देबू और रुना को देव-देवी या यक्ष-यक्षिणी मान कर उनकी पूजा – आराधना और जयजयकार शुरू कर दिए होते.
पाँचों एकाग्रचित्त हो कर अनुष्ठान में पूरा मन लगाते हुए देबू और रुना पर दृष्टि जमाए हुए थे.
जब उन पाँचों में से कोई कुछ न बोला तब रुना क्रोध से काँपती – हाँफती कुछ कदम आगे बढ़ी और खनकते; पर खतरनाक आवाज़ में बोली,
“ये क्या कर रहे हो तुम लोग..? कौन हो तुम? क्या चाहते हो?”
कोई कुछ नहीं बोला.
रुना ने दोबारा वही प्रश्न किया.
कोई कुछ न बोला.
पर बाबा जी ने एक बार उन दोनों की ओर देखा और आँखों से एक प्रकार का संकेत किया जिसके बाद देबू व रुना और प्रश्न न कर के चुपचाप वहीँ खड़े रहे.
अग्नि में थोड़ी धान को स्वाहा करते हुए बाबा जी ने उन दोनों को देखा और कहा,
“मैं कुछ बोलूँ इसके पहले ये बताओ की हमारे पहनावे से तुम्हें क्या लगता है... हम कौन हैं?”
“साधु – संन्यासी लग रहे हैं.” देबू ने उत्तर दिया.
“हाँ. वही हैं हम.”
“ऐसे इस अनुष्ठान का कारण?”
“ओह.. तो तुम्हें पता है की हम यहाँ अनुष्ठान कर रहे हैं..??”
“हाँ.. और ये जो हवन किया जा रहा है; ये भी कोई साधारण हवन नहीं है. अन्य हवनों से बहुत भिन्न है.” देबू ने उत्तर दिया.
“हम्म.. वाह! तुम तो बहुत जानते हो?” बाबा जी ने व्यंग्य किया.
देबू और रुना पर इस व्यंग्य का कोई असर नहीं हुआ.
रुना का क्रोध तो अभी भी शांत नहीं हुआ था. उसकी आँखें तो ऐसी लग रही थीं मानो बाबा जी को कच्चा ही चबा जाने को व्याकुल हो रही हो.
“हाँ. जानता हूँ. ये हवन हमें यहाँ बुलाने के लिए किया जा रहा है.”
“सिर्फ़ बुलाने के लिए?”
“अ...और भी कारण हो सकते हैं. उतना मुझे पता नहीं.” रुना ने चुपके से देबू का एक हाथ दबा दिया. देबू ने भी बात नहीं बढ़ाने का सोच कर जरा सा जवाब दिया.
“ठीक है. पर ये तो बताओ की ये हवन किसे बुलाने के लिए किया जा रहा है?”
“हमें बुलाने के लिए!”
“हमें..? किसे??”
“हमें.”
“तुम दोनों कौन हो?”
“आप नहीं जानते?”
“नहीं जानता. तुम ही बताओ.”
“हमें मतलब मुझे अर्थात् देबू को और इन्हें; रुना को.”
“पर हमने तो किसी ओर को यहाँ बुलाने के लिए ये हवन किया था..”
“ठीक से नहीं किया होगा तुमने.” विष घुला हुआ सा स्वर में बोली रुना अब... इतनी देर बाद. उसके हाव भाव और अब उसके स्वर से ये स्पष्ट हो गया कि इस तरह यहाँ बुलाए जाने को ले कर वो तनिक भी खुश नहीं थी.
“मेरे द्वारा किया हुआ कोई भी अनुष्ठान, यज्ञ, हवन इत्यादि कभी विफल नहीं होता..... (थोड़ा रुक कर).. अवनी!”
ये नाम सुनते ही देबू और रुना चिहुंक उठे. कदाचित इस तरह इस नाम का लिए जाने के बारे में उन दोनों ने कल्पना नहीं की थी.
“क्या हुआ? तुम दोनों के होश क्यों उड़ गए?”
“नहीं.. ऐसा तो कुछ नहीं हुआ.” देबू ने बात संभालने का प्रयास किया.
बाबा जी हँस पड़े.
बोले,
“अब हमें इतना भी मूर्ख मत समझो... शौमक... कहने - दिखने के लिए तो तुम दोनों देबू और रुना हो परन्तु वास्तव में..... तुम दोनों शौमक और अवनी हो जो इन दोनों बेचारे ग्रामवासी के शरीर को अपना घर बनाए हुए हो.”
इस रहस्योद्घाटन के बाद रुना अर्थात् अवनी का गुस्सा पलक झपकते ही फुर्र हो गया. देबू.. अर्थात् शौमक भी एकदम से चुप हो गया.
“क्या हुआ...? अब कुछ नहीं कहना?” बाबा जी मुस्कराते हुए बोले.
“चाहते हैं क्या आप?” कुछ सोच कर शौमक ने पूछा.
“तुम दोनों के बारे में जानना चाहता हूँ.”
“आप नहीं जानते?”
“नहीं जानता.”
“लगता तो नहीं है.”
“हम्म..”
“ये ढोंग कर रहा है. इसका कोई और ही मतलब है. ये पाखंडी है.... साला.”
रुना ने दांत भींचते हुए कहा.
उसकी बात सुन बाबा जी हँसते हुए बोले,
“सुनो बालिके... तुम्हारी दुःखद मृत्यु को हुए वर्षों बीत गए... किन्तु बुद्धि कदाचित किशोरावस्था पार कर अभी अभी नवयुवती होते एक किशोरी की भांति ही है. यदि मैं पाखंडी होता तो रात के इस समय अपने सहयोगियों के साथ इस प्रकार के अनुष्ठान करने का साहस नहीं करता... यदि मैं पाखंडी होता तो तुम दोनों शक्तिशाली आत्माओं को यहाँ बुला लाने योग्य शक्ति न रखता. संदेह करना तुम्हारा अधिकार हो सकता है परन्तु विवेक का प्रयोग उससे भी कहीं अधिक वांछनीय है.”
अवनी के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था. गुस्से में मुँह फेर ली.
देबू ने स्थिति को अपने हाथ में लेने का प्रयास किया,
“हमारी कहानी सुन कर आप क्या करेंगे?”
“तुम दोनों के विषय में कुछ तो जानता अवश्य हूँ किन्तु दूसरों के मुख से सुनी हुई बातों पर विश्वास नहीं करना चाहता. जिनकी ये कहानी है... मैं उन्हीं से सुनना चाहता हूँ. एक वाक्य में कहूँ तो मैं सत्य जानना चाहता हूँ.... और जान कर क्या करूँगा.. ये तो सब कुछ जान लेने के बाद ही कह पाऊंगा.”
देबू और रुना... यानि शौमक और अवनी ने एक दूसरे को देखा... देबू ने रुना का हाथ पकड़ा और उसकी आँखों में कुछ क्षण देखता रहा. उन कुछ क्षणों में ऐसा लगा मानो समय जहाँ का तहाँ ठहर गया हो.
फिर बाबा जी की ओर मुड़ गया.
और एक बदले से आवाज़ में बोला,
“ठीक है... मैं सुनाता हूँ.”
“ठीक है. तुम ही शुरू करो.”
एक गहरी साँस ले कर शौमक अपने बारे में कहना शुरू किया,
“जब से होश संभाला है माँ बाप की कोई खबर नहीं. बाप का भी कोई सगा नहीं था इसलिए नानी ने ही मुझे अपने साथ रखा. बचपन से ही पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था.. कॉलेज जाता अवश्य था पर पढ़ने नहीं; वहाँ आने वाले दूसरे बच्चों के साथ खेलने के लिए. कॉलेज से आने के बाद भी दिन भर खेलता, धमा चौकड़ी करता था. हाँ, इस बात का बचपन से ही बड़ा ध्यान रखता था कि मेरे कारण मेरी नानी को कोई दिक्कत न हो कभी भी. नहाना भी अच्छा नहीं लगता था.. क्योंकि नहा लेने के बाद दोबारा खेल कूद कर गंदा होना अच्छा नहीं लगता था और बिना खेले कहीं भी एक पल के लिए शांति से बिल्कुल नहीं बैठता था. दिन इसी तरह मस्ती में बीतते जा रहे थे. समय बीतने के साथ साथ अब मैं बड़ा भी होने लगा था.
यही कोई दस - बारह साल का रहा होऊँगा कि एक बार गाँव में कुछ साधु – संन्यासी लोग आए. गाँव में आए ऐसे अपरिचितों की ओर ध्यान आकर्षित होना अस्वाभाविक नहीं था. प्रायः खेल से कुछ समय निकाल कर उन लोगों को देखने जाता था. कभी गाँव के ही ऐसे लोगों के साथ जो उन साधु – संन्यासी लोगों के लिए खाने पीने का सामान ले कर जाते तो कभी कभी मैं कहीं पेड़ पर चढ़ कर या झाड़ियों के पीछे से छुप कर उन साधु – संन्यासियों को देखता रहता था. रोज़ रोज़ उनको देखने रहने से मैं उनके खान पान, रहन सहन, दैनिक क्रियाकलाप को देख कर प्रभावित एवं उनकी ओर आकर्षित होता गया.
मैं उनके साथ मिलने लगा, बैठ कर बातें करने लगा.
धीरे धीरे मैं अधिक से अधिक समय उन लोगों के साथ बिताने लगा.
खेल छूटता गया...
पर अब मुझे कोई परवाह नहीं रहा अपने दोस्तों का, उनके साथ खेलने वाले खेलों का.
मैं तो बस सुबह शाम उन साधु – संन्यासियों के साथ ही बीताता रहता.
और एक दिन जब साधुओं को गाँव छोड़ कर कहीं ओर जाने का समय आया तो मैंने भी उन्हें अपने साथ ले चलने की हठ किया. वे नहीं माने. कहा की अभी मेरा समय नहीं हुआ है. मैं बहुत निराश हो गया. चूँकि इतने दिनों में मेरे प्रति उनका भी एक लगाव हो गया था इसलिए जाने से पहले उन लोगों ने मुझे ढेर सारा आशीर्वाद और फल इत्यादि दिए, और एक स्वस्थ और अच्छे जीवन की मंगलकामना की...
उन साधु – संन्यासियों के चले जाने के कई दिनों बाद तक भी मैं बहुत अधिक निराशा में रहा. सुबह शाम, उठते बैठते बस यही मनाता की बस एक बार फिर से वही साधु – संन्यासी लोग कुछ दिनों के लिए आ जाए.
मेरी ये इच्छा पूरी भी हुई... हुबहू तो नहीं... पर.....
कुछ समय और बीतने के बाद गाँव में एक और संन्यासी आया...
अकेला...
किन्तु ये वाला संन्यासी पहले वालों से भिन्न था...
इसके वस्त्र काले थे, माथे पर एक बड़ा सा काला तिलक, नशे में डूबे बड़े बड़े लाल नेत्र...
हमेशा अपने में ही मगन रहता था. गाँव वाले इनसे बातचीत करने का प्रयास करते पर ये संन्यासी अधिकांश समय चुप ही रहता.. सबसे बात नहीं करता था...
मेरा भोला मन उसकी ओर आकर्षित होने लगा और कुछेक भेंट के बाद मैं उसकी भी सेवा करने लगा. पीने के लिए घड़े में पानी भर देना, साधना के सभी सामानों को अच्छे उठा कर उनके नियत स्थान पर रखना, भोजन तैयार रखना, उनके सोते समय उनके पैरों को दबा देना, इत्यादि.
मेरे इस निष्काम सेवा से वो साधक बहुत ही प्रसन्न हुआ...
और एक दिन मुझसे ढेर सारी बातें की.. मैं कहाँ रहता, क्या करता हूँ, घर में कौन कौन हैं... सब कुछ जान लेने के बाद वो और भी कई तरह की बातें करने लगा जैसे की ये जीवन नश्वर है, सब कुछ क्षण भंगुर है, सारा संसार कितना रहस्यमयी एवं मायावी है, इत्यादि.
उस दिन के बाद से मैं और भी अधिक ज्ञान पाने की लालसा में उनकी और भी अधिक सेवा करने लगा.
बदले में वो साधक भी मुझे कुछ न कुछ सिखाया करता था.
वो जो कुछ भी जैसे जैसे सिखाता जाता; मैं बिल्कुल वैसे वैसे करता जाता था.
इसी तरह दिन बीतते गए.
मैं अब उस साधक का सहयोगी बन चुका था. उसके अधिकांश तंत्र विधियों को मैं स्वयं अपनी आँखों से सफल होता हुआ देख चुका था. समय लगा मुझे कुछ सीखने में पर समय बीतने के साथ साथ बहुत कुछ सच में सीख गया था.
इधर, अपनी गाँव की ही एक लड़की से प्यार हो गया था.
अवनी नाम था उसका. (कहते हुए उसने रुना / अवनी की ओर देखा.)
(थोड़ा रुक कर बोलना शुरू किया)
अवनी से प्रेम करना तो सरल था.. पर अवनी से प्रेम पाना नहीं.
क्योंकि वो थी एक धनी संपन्न घर की बेटी और मैं.... मेरा तो यदि सुबह का खाना हो जाए तो दोपहर का पता नहीं होता और यदि दोपहर का हो जाए तो रात में क्या होगा उसका पता नहीं होता था.
अवनी को जब से देखा था तब से इतना अधिक खोया खोया सा रहने लगा था कि अपने दैनिक कार्यों को पूरे निष्ठा से पूर्ण कर पाना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा था.
रात दिन अपने और अवनी के साथ के सपने देखता रहता था.
अपने सेवा में त्रुटि पाता देख उस साधक को भी अटपटा सा लगा.
सो एक दिन उन्होंने मुझसे मेरे भटकाव का कारण पूछ लिया. मैं अपने मन के भावों को छुपाता अवश्य था परन्तु यदि पकड़ा जाऊं तो सत्य बताने से पीछे नहीं हटता था.
सो मैंने सब कुछ सच सच उस साधक को; जो अब मेरे गुरु थे.. उनको बता दिया... अवनी मुझे मिल नहीं सकती और अवनी के बिना मैं जी नहीं पाता.. इसलिए मैं गुरु जी से हठ करने लगा की कोई उपाय कर के मेरे लिए अवनी के मन में प्रेम लाया जाए. पहले तो गुरु जी ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया. कह दिया कि ये उचित नहीं है. ऐसे ही किसी के मन में प्रेम नहीं लाया जा सकता है. और यदि लाया भी गया तो ये बहुत बड़ा धोखा होगा.
किन्तु मैं कहाँ मानने वाला था.
मैंने भी प्रण कर लिया की यदि गुरु जी कोई उपाय नहीं कर देंगे तो मैं अपने प्राण दे दूँगा... आत्महत्या कर लूँगा.
गुरु जी से रहा नहीं गया... मेरी बात मान गए. एक रात शुभ घड़ी देख कर उन्होंने सम्मोहिनी विद्या का प्रयोग किया. कहा, जब तक मैं चाहूँगा ये विद्या तब तक अवनी पर अपना प्रभाव जमाए रखेगी. ये कह कर उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया.
अगले दिन सुबह से ही मुझे चमत्कार दिखा. बाजार में खरीददारी करते समय अवनी से टकरा गया.
मैंने देखा की वो मुझे मुस्कराते हुए देख रही थी. मैं समझ गया... अब अवनी भी मुझे चाहने लगी है.
और फिर हमारा रोज़ का मिलना शुरू हुआ. घंटों समय साथ बिताया करते थे हम. उससे मिलने के लिए मैं अपने गुरु से अनुमति भी ले लिया करता था.
हमारा प्रेम तो परवान चढ़ने लगा परन्तु जल्द ही थोड़े ही समय बाद मुझे बहुत बुरा लगने लगा अपने इस कृत्य पर. ऐसे भी कभी कोई प्रेम होता है क्या? इसे प्रेम पाना नहीं अपितु प्रेम करवाना कहते हैं... छि... धिक्कार है मुझे स्वयं पर... गुरु जी ने सही कहा था... ये सब अत्यंत ही अनुचित और अन्याय है.
इस विद्या का तोड़ तो गुरु जी ने बता ही दिया था; अतएव जैसे ही मुझमें अपराधबोध जागृत हुआ मैंने इस विद्या के हट जाने की कामना की. फलस्वरूप अवनी के ऊपर से वशीकरण का प्रभाव हट गया..
मैं बहुत ही दुखी हो गया था कि अब अवनी मेरी नहीं होगी...
पर आश्चर्य!
घोर आश्चर्य...!
अवनी अब भी मुझसे प्रेम करती थी! ये देख-जान कर मुझे बहुत अच्छा लगा और स्वयं को सौभाग्यमान मान कर ये सोचा की शायद अवनी भी मुझसे सच में प्यार करने लगी है. फिर तो कई महीने प्रेम में हम दोनों सुबह शाम, दिन रात मगन रहे.
और जैसा हर प्रेम कहानी में होता है... हमारा चोरी छिपे मिलना अधिक दिनों तक गुप्त नहीं रहा.... हम पकड़े गए. और जैसा की होना था.. वही हुआ. अवनी के घरवालों को ये सब बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. मुझे तो देखना तक पसंद नहीं किया उन लोगों ने.
पंचायत बैठी.
पूरा गाँव आया... भरी सभा में सख्त निर्देश मिला की फिर कभी हम दोनों नहीं मिलेंगे. दोनों के अलग रास्ते होंगे.
उस दिन सबके सामने तो हमने निर्देश मान लिया पर वास्तव में हमारा प्रेम कभी कम नहीं हुआ. हम फिर मिलने लगे और शीघ्र ही ये निर्णय लिया दोनों ने मिल कर की अब हमें शादी कर लेनी चाहिए और इस गाँव को छोड़ दूर कहीं और जा कर बस जाना चाहिए.
सही अवसर देख कर हम घर से भाग गए...
गाँव के मंदिर में ही शादी की. गुरु जी के पास जा कर उनसे आशीर्वाद ले कर विदा लिया. हम तुरंत गाँव छोड़ देना चाहते थे... पर... (तनिक रुक रुना / अवनी की ओर देखा).. न जाने क्यों हमने सोचा की शादी की पहली रात यहीं गाँव में ही कहीं गुज़ार ली जाए..
(अब बाबा जी ने भी रुना / अवनी की ओर देखा और मुस्करा दिए. वो समझ गए कि दरअसल शौमक जल्द से जल्द गाँव छोड़ना चाहता था पर अवनी ही शादी की पहली रात गाँव में गुज़ारना चाहती थी. देबू / शौमक रुना / अवनी के सम्मान के खातिर झूठ बोल रहा है.)
पर पहली रात को ही हम पकड़े गए.
गाँव वाले काफी आक्रामक हो गए थे.. बुरी तरह मारना पीटना शुरू कर दिया था मुझे... अवनी को भी बहुत लगी थी.. अवनी को मैंने भागने का संकेत दे कर स्वयं भी भागा.. दोनों दो अलग दिशा में भागे...
(इतना कह कर देबू / शौमक रुक गया.. गला भर आया था उसका. अवनी की भी आँखों में आँसू आ गए थे.. बाबा जी समेत उनके शिष्यों और सहयोगियों को भी बहुत बुरा लगने लगा अब.)
भागता भागता मैं नदी की ओर चला गया. गाँव वाले इस तरह पीछे पड़ गए थे मानो सबके दिमाग में खून सवार था. कोई भी कुछ नहीं सुनना चाहता था. मेरे पास अपने प्राण बचाने के लिए सिवाय भागने के और कोई उपाय नहीं था.
सामने नदी थी तो मैं नदी में ही चला गया... स्वयं को बचाने के लिए. तैरते हुए दक्षिण दिशा में चला गया. वहाँ गहराई थोड़ी अधिक है.... मैं डूबने लगा था.. गाँव वाले कुछेक नौका ले कर मेरे पास तक आए भी थे पर एक दूरी पर रुक गए. सब पीछे हो लिए. सहायता के लिए चिल्लाता मैं क्षण भर में समझ गया कि ये लोग मुझे बचाना नहीं चाहते हैं. अपने ही गाँव वालों के इस व्यवहार पर मैं आश्चर्यचकित सा रह गया. मेरे वो गाँववाले जिनके सहृदयता व सहायता भाव के किस्से दूर दूर तक प्रचलित थे... वे ही आज अपने ही गाँव के लड़के को अपने सामने प्राणलेवा संकट में यूँ ऐसे ही छोड़ कर जा रहे थे. सहायता माँगता तो आखिर किससे?
अंत में प्रेम करने का दंड मुझे अपने प्राण दे कर भोगना पड़ा.”
इतना कह कर देबू / शौमक सुबकते हुए चुप हो गया..
उसकी ये व्यथा कथा सुन कर तुरंत कोई कुछ नहीं बोला.
कुछ पल चुप्पी में ही बीत गए.
स्वयं बाबा जी को भी यह दुविधा होने लगी की वो शौमक को सान्तवना दें या कोई अन्य प्रश्न करे....
अंत में उन्होंने यही निर्णय लिया की अब शौमक से प्रश्न न कर के अवनी से करेंगे.
अवनी की ओर देख कर बाबा जी ने मुस्कराते हुए पूछा,
“बेटी, मैं जानता हूँ की तुम्हारी कहानी भी कुछ हद तक शौमक जैसी ही रही होगी.. फिर भी, यदि कुछ और है बताने को तो अभी बता सकती हो.”
भरे गले में गुस्से से बोली,
“उससे क्या होगा?”
एक दीर्घ श्वास लेते हुए बाबा जी बोले,
“देखो बेटी, बता देने से न तो तुम्हारे पुराने दिन वापिस आएँगे और न ही तुम दोनों फिर से जीवन प्राप्त कर लोगे... पर यदि बता दिया तो तुम्हारे मन पर से बोझ उतर जाएगा... मन में कोई बोझ; अब चाहे वो कोई गुप्त बात हो या कोई ग्लानि; यदि लंबे समय तक मन में रहे तो वो अपने आप ही एक अभिशाप बन जाता है. यदि बताने के लिए कुछ हो और वो तुम बता दो तो विश्वास करो मेरा कि उससे तुम्हें शांति मिलेगी, मन हल्का होगा...”
रुना / अवनी ने बगल में ही खड़े देबू / शौमक को एकबार देखा. उसकी आँखों से ये आभास हुआ की कदाचित किसी बात पर उसे विश्वास नहीं हो रहा और और साथ ही उसका दिल दुखा था.. और कदाचित वो बात शौमक का उसपे वशीकरण प्रयोग से संबंधित था.
वो सिर झुका ली..
अश्रुधाराएँ पहले की तुलना में और अधिक बहने लगे..
वो सिर उठाई... होंठों पर एक कुटिल मुस्कान थी..
भयानक हिंसक स्वर में बोली,
“हाँ... है कुछ बताने को... (अत्यंत दुःख और क्रोध से काँपने लगी वो)... और वो ये कि मैंने आत्महत्या नहीं की थी!”
वाक्य के अंत में ‘नहीं की थी’ को इतने ज़ोर से बोली की वहाँ उपस्थित सभी वनस्पतियों के पत्ते थरथरा कर काँप उठे... बाबा जी समेत बाकियों के कान कुछ क्षण के लिए शून्य से पड़ गए.
अचरज में डूबे बाबा जी पूछे,
“आत्महत्या नहीं की थी? पर सारा गाँव तो यही.....”
बाबा जी की बात को बीच में काटते हुए बोली अवनी,
“मेरे साथ हुई दुर्घटना को मैं बेहतर जानूँगी या वो कमीने गाँव वाले?”
“निःसंदेह तुम्ही जानोगी. बताओ क्या हुआ था तुम्हारे साथ?”
कुटिल मुस्कान गायब हो गई... होंठ अत्यधिक क्रोध के कारण काँपने लगे...
बोली,
“तुम.... आपने मुझे बेटी कहा है... इसलिए मैं बताऊँगी नहीं... वरन, दिखाऊँगी...”
और अचानक से रुना / अवनी की दोनों आँखें सफ़ेद प्रकाश से जल उठे... वो सीधे बाबा जी की आँखों में देख रही थी. बाबा जी भी उसी की आँखों में टकटकी लगाए देख रहे थे.....
![[Image: White-eyes.png]](https://i.ibb.co/k8zMW8w/White-eyes.png)
उधर देबू भी अपने बिस्तर से उठ चुका था..
दरअसल देबू और रुना दोनों ही अपने घरों से निकल गए थे..
दोनों जैसे किसी एक जगह जल्द से जल्द पहुँचना चाह रहे थे.. दोनों के ही चेहरे और आँखों में चिंता व परेशानी साफ झलक रही थी..
पर यहाँ सबसे आश्चर्य वाली बात जो थी वो यह कि देबू और रुना; दोनों के ही पैर ज़मीन को नहीं छू रहे थे ! दोनों के ही शरीर धरती से कुछ इंच ऊपर हवा में थे और मानो इसी तरह हवा में ही उड़ते हुए अपने अपने गंतव्य की ओर बढ़े जा रहे थे.
कुछ क्षणों में ही जिस मार्ग से वे दोनों अपने अपने गंतव्य की ओर अग्रसर थे; वो मार्ग और उनका गंतव्य... दोनों स्पष्ट हो गए.
वे दोनों गाँव की एक संकरी जंगली पगडंडी से होते हुए उसी वन की ओर बढ़े जा रहे थे जहाँ इस समय बाबा जी अपने सहयोगियों व शिष्यों के साथ एक गुप्त अनुष्ठान में रत थे.
दरअसल अब तक बाबा जी ने एक हवन आरम्भ कर दिया था... उस हवन से उठती ज्वाला और उन पाँचों के मुख से निकलते मंत्रोच्चारण क्षण प्रतिक्षण आक्रामक से होते जा रहे थे.
विशेष कर बाबा जी तो बहुत ही दृढ़ संकल्पित लग रहे थे. उनके हरेक मंत्र पाठ से आस पास उपस्थित निर्जीव पदार्थ तक में कंपन सी हो रही थी.
अग्नि की लपटें तक बाबा जी के मुख से निकलने वाले हरेक मन्त्र व उनके लय, छंद, ताल पर थिरकन कर रही थीं.
ये क्रम अभी अनवरत चल ही रहा था कि तभी एक साथ देबू और रुना हवा में उसी तरह रहते हुए वहाँ पहुँच गए.
पहले तो दोनों ने एक दूसरे को आश्चर्य से देखा.. आँखों ही आँखों में बात हुई और फिर गुस्से से काँपते हुए दोनों ने उन पाँच साधकों की ओर देखा.
दोनों के बदली नेत्रों और बदले रूप को देख कर गोपू और चांदू भयभीत तो अवश्य हुए पर बाबा जी पर उनका अगाध विश्वास था... इसलिए निर्भय हो कर अपने मन्त्र जाप में रमे रहे और वाद्य यंत्र बजाते रहे.
देबू और रुना को वहाँ आया देख कर बाबा जी को भी कुछ क्षणों के लिए अचरज अवश्य हुआ पर तब तक उनकी ज्ञानेन्द्रियाँ इतनी अधिक प्रबल रूप से सक्रिय हो चुकी थीं कि उन्हें समझते देर न लगी की ये दोनों वास्तव में शौमक और अवनी हैं.... देबू और रुना के शरीर में... देबू और रुना; जो इसी ग्राम के ग्रामवासी हैं.
सब ने गौर किया की अत्यंत क्रोध में होने के बाद भी दोनों के शरीर से एक अद्भुत आभा प्रकाशित हो रही थी. देबू जहाँ अत्यंत सुकुमार लग रहा था वहीँ रुना हद से अधिक चित्ताकर्षक एवं रूपवती लग रही थी.
दोनों ही इतने अच्छे लग रहे थे की यदि ये कोई और समय होता और देखने वाले साधारण जन होते तो अब तक देबू और रुना को देव-देवी या यक्ष-यक्षिणी मान कर उनकी पूजा – आराधना और जयजयकार शुरू कर दिए होते.
पाँचों एकाग्रचित्त हो कर अनुष्ठान में पूरा मन लगाते हुए देबू और रुना पर दृष्टि जमाए हुए थे.
जब उन पाँचों में से कोई कुछ न बोला तब रुना क्रोध से काँपती – हाँफती कुछ कदम आगे बढ़ी और खनकते; पर खतरनाक आवाज़ में बोली,
“ये क्या कर रहे हो तुम लोग..? कौन हो तुम? क्या चाहते हो?”
कोई कुछ नहीं बोला.
रुना ने दोबारा वही प्रश्न किया.
कोई कुछ न बोला.
पर बाबा जी ने एक बार उन दोनों की ओर देखा और आँखों से एक प्रकार का संकेत किया जिसके बाद देबू व रुना और प्रश्न न कर के चुपचाप वहीँ खड़े रहे.
अग्नि में थोड़ी धान को स्वाहा करते हुए बाबा जी ने उन दोनों को देखा और कहा,
“मैं कुछ बोलूँ इसके पहले ये बताओ की हमारे पहनावे से तुम्हें क्या लगता है... हम कौन हैं?”
“साधु – संन्यासी लग रहे हैं.” देबू ने उत्तर दिया.
“हाँ. वही हैं हम.”
“ऐसे इस अनुष्ठान का कारण?”
“ओह.. तो तुम्हें पता है की हम यहाँ अनुष्ठान कर रहे हैं..??”
“हाँ.. और ये जो हवन किया जा रहा है; ये भी कोई साधारण हवन नहीं है. अन्य हवनों से बहुत भिन्न है.” देबू ने उत्तर दिया.
“हम्म.. वाह! तुम तो बहुत जानते हो?” बाबा जी ने व्यंग्य किया.
देबू और रुना पर इस व्यंग्य का कोई असर नहीं हुआ.
रुना का क्रोध तो अभी भी शांत नहीं हुआ था. उसकी आँखें तो ऐसी लग रही थीं मानो बाबा जी को कच्चा ही चबा जाने को व्याकुल हो रही हो.
“हाँ. जानता हूँ. ये हवन हमें यहाँ बुलाने के लिए किया जा रहा है.”
“सिर्फ़ बुलाने के लिए?”
“अ...और भी कारण हो सकते हैं. उतना मुझे पता नहीं.” रुना ने चुपके से देबू का एक हाथ दबा दिया. देबू ने भी बात नहीं बढ़ाने का सोच कर जरा सा जवाब दिया.
“ठीक है. पर ये तो बताओ की ये हवन किसे बुलाने के लिए किया जा रहा है?”
“हमें बुलाने के लिए!”
“हमें..? किसे??”
“हमें.”
“तुम दोनों कौन हो?”
“आप नहीं जानते?”
“नहीं जानता. तुम ही बताओ.”
“हमें मतलब मुझे अर्थात् देबू को और इन्हें; रुना को.”
“पर हमने तो किसी ओर को यहाँ बुलाने के लिए ये हवन किया था..”
“ठीक से नहीं किया होगा तुमने.” विष घुला हुआ सा स्वर में बोली रुना अब... इतनी देर बाद. उसके हाव भाव और अब उसके स्वर से ये स्पष्ट हो गया कि इस तरह यहाँ बुलाए जाने को ले कर वो तनिक भी खुश नहीं थी.
“मेरे द्वारा किया हुआ कोई भी अनुष्ठान, यज्ञ, हवन इत्यादि कभी विफल नहीं होता..... (थोड़ा रुक कर).. अवनी!”
ये नाम सुनते ही देबू और रुना चिहुंक उठे. कदाचित इस तरह इस नाम का लिए जाने के बारे में उन दोनों ने कल्पना नहीं की थी.
“क्या हुआ? तुम दोनों के होश क्यों उड़ गए?”
“नहीं.. ऐसा तो कुछ नहीं हुआ.” देबू ने बात संभालने का प्रयास किया.
बाबा जी हँस पड़े.
बोले,
“अब हमें इतना भी मूर्ख मत समझो... शौमक... कहने - दिखने के लिए तो तुम दोनों देबू और रुना हो परन्तु वास्तव में..... तुम दोनों शौमक और अवनी हो जो इन दोनों बेचारे ग्रामवासी के शरीर को अपना घर बनाए हुए हो.”
इस रहस्योद्घाटन के बाद रुना अर्थात् अवनी का गुस्सा पलक झपकते ही फुर्र हो गया. देबू.. अर्थात् शौमक भी एकदम से चुप हो गया.
“क्या हुआ...? अब कुछ नहीं कहना?” बाबा जी मुस्कराते हुए बोले.
“चाहते हैं क्या आप?” कुछ सोच कर शौमक ने पूछा.
“तुम दोनों के बारे में जानना चाहता हूँ.”
“आप नहीं जानते?”
“नहीं जानता.”
“लगता तो नहीं है.”
“हम्म..”
“ये ढोंग कर रहा है. इसका कोई और ही मतलब है. ये पाखंडी है.... साला.”
रुना ने दांत भींचते हुए कहा.
उसकी बात सुन बाबा जी हँसते हुए बोले,
“सुनो बालिके... तुम्हारी दुःखद मृत्यु को हुए वर्षों बीत गए... किन्तु बुद्धि कदाचित किशोरावस्था पार कर अभी अभी नवयुवती होते एक किशोरी की भांति ही है. यदि मैं पाखंडी होता तो रात के इस समय अपने सहयोगियों के साथ इस प्रकार के अनुष्ठान करने का साहस नहीं करता... यदि मैं पाखंडी होता तो तुम दोनों शक्तिशाली आत्माओं को यहाँ बुला लाने योग्य शक्ति न रखता. संदेह करना तुम्हारा अधिकार हो सकता है परन्तु विवेक का प्रयोग उससे भी कहीं अधिक वांछनीय है.”
अवनी के पास इस बात का कोई उत्तर नहीं था. गुस्से में मुँह फेर ली.
देबू ने स्थिति को अपने हाथ में लेने का प्रयास किया,
“हमारी कहानी सुन कर आप क्या करेंगे?”
“तुम दोनों के विषय में कुछ तो जानता अवश्य हूँ किन्तु दूसरों के मुख से सुनी हुई बातों पर विश्वास नहीं करना चाहता. जिनकी ये कहानी है... मैं उन्हीं से सुनना चाहता हूँ. एक वाक्य में कहूँ तो मैं सत्य जानना चाहता हूँ.... और जान कर क्या करूँगा.. ये तो सब कुछ जान लेने के बाद ही कह पाऊंगा.”
देबू और रुना... यानि शौमक और अवनी ने एक दूसरे को देखा... देबू ने रुना का हाथ पकड़ा और उसकी आँखों में कुछ क्षण देखता रहा. उन कुछ क्षणों में ऐसा लगा मानो समय जहाँ का तहाँ ठहर गया हो.
फिर बाबा जी की ओर मुड़ गया.
और एक बदले से आवाज़ में बोला,
“ठीक है... मैं सुनाता हूँ.”
“ठीक है. तुम ही शुरू करो.”
एक गहरी साँस ले कर शौमक अपने बारे में कहना शुरू किया,
“जब से होश संभाला है माँ बाप की कोई खबर नहीं. बाप का भी कोई सगा नहीं था इसलिए नानी ने ही मुझे अपने साथ रखा. बचपन से ही पढ़ाई में मेरा मन नहीं लगता था.. कॉलेज जाता अवश्य था पर पढ़ने नहीं; वहाँ आने वाले दूसरे बच्चों के साथ खेलने के लिए. कॉलेज से आने के बाद भी दिन भर खेलता, धमा चौकड़ी करता था. हाँ, इस बात का बचपन से ही बड़ा ध्यान रखता था कि मेरे कारण मेरी नानी को कोई दिक्कत न हो कभी भी. नहाना भी अच्छा नहीं लगता था.. क्योंकि नहा लेने के बाद दोबारा खेल कूद कर गंदा होना अच्छा नहीं लगता था और बिना खेले कहीं भी एक पल के लिए शांति से बिल्कुल नहीं बैठता था. दिन इसी तरह मस्ती में बीतते जा रहे थे. समय बीतने के साथ साथ अब मैं बड़ा भी होने लगा था.
यही कोई दस - बारह साल का रहा होऊँगा कि एक बार गाँव में कुछ साधु – संन्यासी लोग आए. गाँव में आए ऐसे अपरिचितों की ओर ध्यान आकर्षित होना अस्वाभाविक नहीं था. प्रायः खेल से कुछ समय निकाल कर उन लोगों को देखने जाता था. कभी गाँव के ही ऐसे लोगों के साथ जो उन साधु – संन्यासी लोगों के लिए खाने पीने का सामान ले कर जाते तो कभी कभी मैं कहीं पेड़ पर चढ़ कर या झाड़ियों के पीछे से छुप कर उन साधु – संन्यासियों को देखता रहता था. रोज़ रोज़ उनको देखने रहने से मैं उनके खान पान, रहन सहन, दैनिक क्रियाकलाप को देख कर प्रभावित एवं उनकी ओर आकर्षित होता गया.
मैं उनके साथ मिलने लगा, बैठ कर बातें करने लगा.
धीरे धीरे मैं अधिक से अधिक समय उन लोगों के साथ बिताने लगा.
खेल छूटता गया...
पर अब मुझे कोई परवाह नहीं रहा अपने दोस्तों का, उनके साथ खेलने वाले खेलों का.
मैं तो बस सुबह शाम उन साधु – संन्यासियों के साथ ही बीताता रहता.
और एक दिन जब साधुओं को गाँव छोड़ कर कहीं ओर जाने का समय आया तो मैंने भी उन्हें अपने साथ ले चलने की हठ किया. वे नहीं माने. कहा की अभी मेरा समय नहीं हुआ है. मैं बहुत निराश हो गया. चूँकि इतने दिनों में मेरे प्रति उनका भी एक लगाव हो गया था इसलिए जाने से पहले उन लोगों ने मुझे ढेर सारा आशीर्वाद और फल इत्यादि दिए, और एक स्वस्थ और अच्छे जीवन की मंगलकामना की...
उन साधु – संन्यासियों के चले जाने के कई दिनों बाद तक भी मैं बहुत अधिक निराशा में रहा. सुबह शाम, उठते बैठते बस यही मनाता की बस एक बार फिर से वही साधु – संन्यासी लोग कुछ दिनों के लिए आ जाए.
मेरी ये इच्छा पूरी भी हुई... हुबहू तो नहीं... पर.....
कुछ समय और बीतने के बाद गाँव में एक और संन्यासी आया...
अकेला...
किन्तु ये वाला संन्यासी पहले वालों से भिन्न था...
इसके वस्त्र काले थे, माथे पर एक बड़ा सा काला तिलक, नशे में डूबे बड़े बड़े लाल नेत्र...
हमेशा अपने में ही मगन रहता था. गाँव वाले इनसे बातचीत करने का प्रयास करते पर ये संन्यासी अधिकांश समय चुप ही रहता.. सबसे बात नहीं करता था...
मेरा भोला मन उसकी ओर आकर्षित होने लगा और कुछेक भेंट के बाद मैं उसकी भी सेवा करने लगा. पीने के लिए घड़े में पानी भर देना, साधना के सभी सामानों को अच्छे उठा कर उनके नियत स्थान पर रखना, भोजन तैयार रखना, उनके सोते समय उनके पैरों को दबा देना, इत्यादि.
मेरे इस निष्काम सेवा से वो साधक बहुत ही प्रसन्न हुआ...
और एक दिन मुझसे ढेर सारी बातें की.. मैं कहाँ रहता, क्या करता हूँ, घर में कौन कौन हैं... सब कुछ जान लेने के बाद वो और भी कई तरह की बातें करने लगा जैसे की ये जीवन नश्वर है, सब कुछ क्षण भंगुर है, सारा संसार कितना रहस्यमयी एवं मायावी है, इत्यादि.
उस दिन के बाद से मैं और भी अधिक ज्ञान पाने की लालसा में उनकी और भी अधिक सेवा करने लगा.
बदले में वो साधक भी मुझे कुछ न कुछ सिखाया करता था.
वो जो कुछ भी जैसे जैसे सिखाता जाता; मैं बिल्कुल वैसे वैसे करता जाता था.
इसी तरह दिन बीतते गए.
मैं अब उस साधक का सहयोगी बन चुका था. उसके अधिकांश तंत्र विधियों को मैं स्वयं अपनी आँखों से सफल होता हुआ देख चुका था. समय लगा मुझे कुछ सीखने में पर समय बीतने के साथ साथ बहुत कुछ सच में सीख गया था.
इधर, अपनी गाँव की ही एक लड़की से प्यार हो गया था.
अवनी नाम था उसका. (कहते हुए उसने रुना / अवनी की ओर देखा.)
(थोड़ा रुक कर बोलना शुरू किया)
अवनी से प्रेम करना तो सरल था.. पर अवनी से प्रेम पाना नहीं.
क्योंकि वो थी एक धनी संपन्न घर की बेटी और मैं.... मेरा तो यदि सुबह का खाना हो जाए तो दोपहर का पता नहीं होता और यदि दोपहर का हो जाए तो रात में क्या होगा उसका पता नहीं होता था.
अवनी को जब से देखा था तब से इतना अधिक खोया खोया सा रहने लगा था कि अपने दैनिक कार्यों को पूरे निष्ठा से पूर्ण कर पाना दिन ब दिन कठिन होता जा रहा था.
रात दिन अपने और अवनी के साथ के सपने देखता रहता था.
अपने सेवा में त्रुटि पाता देख उस साधक को भी अटपटा सा लगा.
सो एक दिन उन्होंने मुझसे मेरे भटकाव का कारण पूछ लिया. मैं अपने मन के भावों को छुपाता अवश्य था परन्तु यदि पकड़ा जाऊं तो सत्य बताने से पीछे नहीं हटता था.
सो मैंने सब कुछ सच सच उस साधक को; जो अब मेरे गुरु थे.. उनको बता दिया... अवनी मुझे मिल नहीं सकती और अवनी के बिना मैं जी नहीं पाता.. इसलिए मैं गुरु जी से हठ करने लगा की कोई उपाय कर के मेरे लिए अवनी के मन में प्रेम लाया जाए. पहले तो गुरु जी ने स्पष्ट शब्दों में मना कर दिया. कह दिया कि ये उचित नहीं है. ऐसे ही किसी के मन में प्रेम नहीं लाया जा सकता है. और यदि लाया भी गया तो ये बहुत बड़ा धोखा होगा.
किन्तु मैं कहाँ मानने वाला था.
मैंने भी प्रण कर लिया की यदि गुरु जी कोई उपाय नहीं कर देंगे तो मैं अपने प्राण दे दूँगा... आत्महत्या कर लूँगा.
गुरु जी से रहा नहीं गया... मेरी बात मान गए. एक रात शुभ घड़ी देख कर उन्होंने सम्मोहिनी विद्या का प्रयोग किया. कहा, जब तक मैं चाहूँगा ये विद्या तब तक अवनी पर अपना प्रभाव जमाए रखेगी. ये कह कर उन्होंने मुझे आशीर्वाद दिया.
अगले दिन सुबह से ही मुझे चमत्कार दिखा. बाजार में खरीददारी करते समय अवनी से टकरा गया.
मैंने देखा की वो मुझे मुस्कराते हुए देख रही थी. मैं समझ गया... अब अवनी भी मुझे चाहने लगी है.
और फिर हमारा रोज़ का मिलना शुरू हुआ. घंटों समय साथ बिताया करते थे हम. उससे मिलने के लिए मैं अपने गुरु से अनुमति भी ले लिया करता था.
हमारा प्रेम तो परवान चढ़ने लगा परन्तु जल्द ही थोड़े ही समय बाद मुझे बहुत बुरा लगने लगा अपने इस कृत्य पर. ऐसे भी कभी कोई प्रेम होता है क्या? इसे प्रेम पाना नहीं अपितु प्रेम करवाना कहते हैं... छि... धिक्कार है मुझे स्वयं पर... गुरु जी ने सही कहा था... ये सब अत्यंत ही अनुचित और अन्याय है.
इस विद्या का तोड़ तो गुरु जी ने बता ही दिया था; अतएव जैसे ही मुझमें अपराधबोध जागृत हुआ मैंने इस विद्या के हट जाने की कामना की. फलस्वरूप अवनी के ऊपर से वशीकरण का प्रभाव हट गया..
मैं बहुत ही दुखी हो गया था कि अब अवनी मेरी नहीं होगी...
पर आश्चर्य!
घोर आश्चर्य...!
अवनी अब भी मुझसे प्रेम करती थी! ये देख-जान कर मुझे बहुत अच्छा लगा और स्वयं को सौभाग्यमान मान कर ये सोचा की शायद अवनी भी मुझसे सच में प्यार करने लगी है. फिर तो कई महीने प्रेम में हम दोनों सुबह शाम, दिन रात मगन रहे.
और जैसा हर प्रेम कहानी में होता है... हमारा चोरी छिपे मिलना अधिक दिनों तक गुप्त नहीं रहा.... हम पकड़े गए. और जैसा की होना था.. वही हुआ. अवनी के घरवालों को ये सब बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगा. मुझे तो देखना तक पसंद नहीं किया उन लोगों ने.
पंचायत बैठी.
पूरा गाँव आया... भरी सभा में सख्त निर्देश मिला की फिर कभी हम दोनों नहीं मिलेंगे. दोनों के अलग रास्ते होंगे.
उस दिन सबके सामने तो हमने निर्देश मान लिया पर वास्तव में हमारा प्रेम कभी कम नहीं हुआ. हम फिर मिलने लगे और शीघ्र ही ये निर्णय लिया दोनों ने मिल कर की अब हमें शादी कर लेनी चाहिए और इस गाँव को छोड़ दूर कहीं और जा कर बस जाना चाहिए.
सही अवसर देख कर हम घर से भाग गए...
गाँव के मंदिर में ही शादी की. गुरु जी के पास जा कर उनसे आशीर्वाद ले कर विदा लिया. हम तुरंत गाँव छोड़ देना चाहते थे... पर... (तनिक रुक रुना / अवनी की ओर देखा).. न जाने क्यों हमने सोचा की शादी की पहली रात यहीं गाँव में ही कहीं गुज़ार ली जाए..
(अब बाबा जी ने भी रुना / अवनी की ओर देखा और मुस्करा दिए. वो समझ गए कि दरअसल शौमक जल्द से जल्द गाँव छोड़ना चाहता था पर अवनी ही शादी की पहली रात गाँव में गुज़ारना चाहती थी. देबू / शौमक रुना / अवनी के सम्मान के खातिर झूठ बोल रहा है.)
पर पहली रात को ही हम पकड़े गए.
गाँव वाले काफी आक्रामक हो गए थे.. बुरी तरह मारना पीटना शुरू कर दिया था मुझे... अवनी को भी बहुत लगी थी.. अवनी को मैंने भागने का संकेत दे कर स्वयं भी भागा.. दोनों दो अलग दिशा में भागे...
(इतना कह कर देबू / शौमक रुक गया.. गला भर आया था उसका. अवनी की भी आँखों में आँसू आ गए थे.. बाबा जी समेत उनके शिष्यों और सहयोगियों को भी बहुत बुरा लगने लगा अब.)
भागता भागता मैं नदी की ओर चला गया. गाँव वाले इस तरह पीछे पड़ गए थे मानो सबके दिमाग में खून सवार था. कोई भी कुछ नहीं सुनना चाहता था. मेरे पास अपने प्राण बचाने के लिए सिवाय भागने के और कोई उपाय नहीं था.
सामने नदी थी तो मैं नदी में ही चला गया... स्वयं को बचाने के लिए. तैरते हुए दक्षिण दिशा में चला गया. वहाँ गहराई थोड़ी अधिक है.... मैं डूबने लगा था.. गाँव वाले कुछेक नौका ले कर मेरे पास तक आए भी थे पर एक दूरी पर रुक गए. सब पीछे हो लिए. सहायता के लिए चिल्लाता मैं क्षण भर में समझ गया कि ये लोग मुझे बचाना नहीं चाहते हैं. अपने ही गाँव वालों के इस व्यवहार पर मैं आश्चर्यचकित सा रह गया. मेरे वो गाँववाले जिनके सहृदयता व सहायता भाव के किस्से दूर दूर तक प्रचलित थे... वे ही आज अपने ही गाँव के लड़के को अपने सामने प्राणलेवा संकट में यूँ ऐसे ही छोड़ कर जा रहे थे. सहायता माँगता तो आखिर किससे?
अंत में प्रेम करने का दंड मुझे अपने प्राण दे कर भोगना पड़ा.”
इतना कह कर देबू / शौमक सुबकते हुए चुप हो गया..
उसकी ये व्यथा कथा सुन कर तुरंत कोई कुछ नहीं बोला.
कुछ पल चुप्पी में ही बीत गए.
स्वयं बाबा जी को भी यह दुविधा होने लगी की वो शौमक को सान्तवना दें या कोई अन्य प्रश्न करे....
अंत में उन्होंने यही निर्णय लिया की अब शौमक से प्रश्न न कर के अवनी से करेंगे.
अवनी की ओर देख कर बाबा जी ने मुस्कराते हुए पूछा,
“बेटी, मैं जानता हूँ की तुम्हारी कहानी भी कुछ हद तक शौमक जैसी ही रही होगी.. फिर भी, यदि कुछ और है बताने को तो अभी बता सकती हो.”
भरे गले में गुस्से से बोली,
“उससे क्या होगा?”
एक दीर्घ श्वास लेते हुए बाबा जी बोले,
“देखो बेटी, बता देने से न तो तुम्हारे पुराने दिन वापिस आएँगे और न ही तुम दोनों फिर से जीवन प्राप्त कर लोगे... पर यदि बता दिया तो तुम्हारे मन पर से बोझ उतर जाएगा... मन में कोई बोझ; अब चाहे वो कोई गुप्त बात हो या कोई ग्लानि; यदि लंबे समय तक मन में रहे तो वो अपने आप ही एक अभिशाप बन जाता है. यदि बताने के लिए कुछ हो और वो तुम बता दो तो विश्वास करो मेरा कि उससे तुम्हें शांति मिलेगी, मन हल्का होगा...”
रुना / अवनी ने बगल में ही खड़े देबू / शौमक को एकबार देखा. उसकी आँखों से ये आभास हुआ की कदाचित किसी बात पर उसे विश्वास नहीं हो रहा और और साथ ही उसका दिल दुखा था.. और कदाचित वो बात शौमक का उसपे वशीकरण प्रयोग से संबंधित था.
वो सिर झुका ली..
अश्रुधाराएँ पहले की तुलना में और अधिक बहने लगे..
वो सिर उठाई... होंठों पर एक कुटिल मुस्कान थी..
भयानक हिंसक स्वर में बोली,
“हाँ... है कुछ बताने को... (अत्यंत दुःख और क्रोध से काँपने लगी वो)... और वो ये कि मैंने आत्महत्या नहीं की थी!”
वाक्य के अंत में ‘नहीं की थी’ को इतने ज़ोर से बोली की वहाँ उपस्थित सभी वनस्पतियों के पत्ते थरथरा कर काँप उठे... बाबा जी समेत बाकियों के कान कुछ क्षण के लिए शून्य से पड़ गए.
अचरज में डूबे बाबा जी पूछे,
“आत्महत्या नहीं की थी? पर सारा गाँव तो यही.....”
बाबा जी की बात को बीच में काटते हुए बोली अवनी,
“मेरे साथ हुई दुर्घटना को मैं बेहतर जानूँगी या वो कमीने गाँव वाले?”
“निःसंदेह तुम्ही जानोगी. बताओ क्या हुआ था तुम्हारे साथ?”
कुटिल मुस्कान गायब हो गई... होंठ अत्यधिक क्रोध के कारण काँपने लगे...
बोली,
“तुम.... आपने मुझे बेटी कहा है... इसलिए मैं बताऊँगी नहीं... वरन, दिखाऊँगी...”
और अचानक से रुना / अवनी की दोनों आँखें सफ़ेद प्रकाश से जल उठे... वो सीधे बाबा जी की आँखों में देख रही थी. बाबा जी भी उसी की आँखों में टकटकी लगाए देख रहे थे.....