20-10-2020, 10:15 PM
१९)
“गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव... मैं जीना चाहता हूँ गुरूदेव.”
“शांत... शांत हो जाओ वत्स.. पहले शांत हो कर बैठो तो सही.”
बाबा जी ने डर से काँपते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा. कालू बहुत डरा हुआ था. बुरी तरह काँप रहा था. होश उड़े हुए थे उसके. चेहरा सफ़ेद सा पड़ चुका था और पसीने से तर था.
सिर पर बाबा के हाथ का स्नेहमयी स्पर्श पा कर शांत होने का व्यर्थ प्रयास करने लगा कालू पर भय में रत्ती भर की भी कमी न आई.
पहले की अपेक्षा उसे अब थोड़ा शांत होता देख बाबा ने बहुत स्नेह से पूछा,
“वत्स.. अब बोलो.. क्या बात है?”
“ग..ग...ग...गुरु...गुरूदे... गुरूदेव... व..व..वो.. म..म..मार... मार देगी... मार डालेगी... म...मु..मुझे भी..”
“कौन मार देगी?”
बाबा ने स्नेहिल ढंग से ही पूछा परन्तु अब स्वयं को कालू की बातों में थोड़ा केन्द्रित भी कर लिया,
कालू पूर्ववत् काँपते हुए ही उत्तर दिया,
“न..नाम... न...नहीं बताऊंगा...”
“क्यों?”
“क...क्योंकि....क...क्यों...कि...”
“आगे बोलो वत्स... क्योंकि....??”
“क्योंकि... व.. वो... म..मुझे... म.. म.. मा... मार डा.. डालेगी... गुरूदेव.... म..मुझे बचा... ल...लीजिए... ग..गुरूदेव...”
अब की बार तो लगभग रो ही पड़ा कालू.
उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बाबा ने बड़े अपनेपन से कहा,
“देखो वत्स.. अगर तुम नाम नहीं भी बताओगे... तो भी वो तुम्हें मार देगी... हैं न... क्योंकि उसका तो कदाचित लक्ष्य तो तुम अब बन ही गए हो... यदि नाम बता दोगे तो कदाचित मैं तुम्हारी कोई सहायता कर पाऊं. बोलो वत्स... कौन है वो जिसे तुम्हारे प्राण चाहिए?”
“भ.. भा... भाभी.”
“भाभी? कौन भाभी?”
“र..र.....”
“बोलो वत्स.. कौन भाभी?”
“र...रुना भाभी.”
“रुना भाभी??”
“ह... हा.. हाँ ग..ग.. गुरूदेव....”
“रुना भाभी.. अर्थात् गाँव की शिक्षिका?”
“ज.. जी.. गुरूदेव.. पहले ग... गाँव में पढ़ाती थ.. थी...”
“अब नहीं पढ़ाती?”
“पढ़ाती ह.. है.”
“अभी तो तुमने कहा कि वो पहले पढ़ाती थी?”
“अ.. अब.. शहर में... छ... छोटे ब...ब... बच्चों के कॉलेज में...”
“ओह.. अच्छा..!”
“ज.. जी.. ग.. गुरूदेव.”
एक क्षण रुक कर बाबा जी ने फिर पूछा,
“हम्म... अच्छा वत्स.. तुमने ये तो बता दिया की तुम्हें कौन मारना चाहती है.. अब ये तो बताओ की वो तुम्हें क्यों मारना चाहती है?”
“क....क.. क्यों... क्योंकि......”
“हाँ वत्स, बोलो... डरो नहीं.”
“क.. क्यों...कि... म.. मैंने उ...उसे मारते उ... उन्हें दे देख लिया थ.. था.”
“किसे मारते किसे देख लिया?”
“र.. रुना भाभी को दे.. देखा... स.. सुधीर को....मारते हुए.. अ... और.... ब.. बब्लू को भी.”
“बब्लू?”
“ज... जी.. स...सुधीर को मारने के अगले तीन र.. रात बाद बब्लू को भी मार दिया उन्होंने.”
“किसने? रुना भाभी ने?”
“जी गुरूदेव.”
“ओह्ह.”
कह कर बाबा जी चुप हो गए.
पूरा मामला तो उन्हें बहुत हद तक बहुत स्पष्ट तो था ही... बस ये नया काण्ड उन्हें थोड़ा परेशान कर दिया.
अगले कुछ मिनटों तक बाबा जी को कुछ न बोलते देख कर कालू ने रोते हुए उनके पैर पकड़ लिया,
“गुरूदेव.. गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव.. म.. मैं न... नहीं मरना... चाहता.. गुरूदेव.”
रोते बिलखते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा जी अत्यंत शांत व धीर-गम्भीर स्वर में बोले,
“अब जब हमारे पास आए हो तो हम तुम ऐसे ही कुछ नहीं होने देंगे. शांत हो जाओ.. रोना बंद करो.”
बाबा जी के कहने पर कालू ने धीरे धीरे रोना तो बंद किया पर सिसकियाँ अब भी चालू थीं.
इधर बाबा जी भी चुपचाप बैठे हुए थे...
उन्हें चिंतामग्न देख चांदू से न रहा गया. समीप आ कर पूछा,
“क्या बात है गुरूदेव? आपको किस चिंता ने इतना चिंतित कर दिया है?”
“अंह?!... ओह.. कुछ नहीं.” बाबा जी जैसे गहरी चिंता से बाहर आए.
कालू की ओर देखते हुए पूछा,
“तुम्हें रुना ने कब देखा था? सुधीर को मारते समय या बब्लू को?”
“सुधीर को म... मारते समय शायद... उन..उनको स.. संदेह... रहा ह... होगा की कोई उन्हें द.. दे.... देख र.. रहा है... पर बब्लू को म.. मारते समय... म.. मु... मुझे.... म.. मे... मेरी ओर देखते हुए ही उ.. उसे... मारी.”
“बब्लू को कैसे मारा उसने?”
“ग.. गर्दन... स... से रक्त... च..चूसते ह...हुए.”
“और?”
“और....??”
“मतलब फिर क्या किया उसने?”
“म.. मे...मेरी ओ.. ओर दे.. देख कर मुस्कराई अ... और चेहरा पोंछते हुए चली गई. उसकी वो मुस्कान और भयानक रूप... म.. मुझसे भ... भूले... नहीं भूलती... गुरूदेव.”
“क्या बब्लू को मारने से पहले... अ.. अच्छा छोड़ो... (गोपू की ओर देख कर बाबा ने एक विशेष संकेत किया जिसपे गोपू ने भी हाँ में सिर हिला कर स्वीकृति दिया)... ये बताओ कि क्या उसने तुम्हें कुछ कहा था जाने से पहले?”
“नहीं गुरूदेव.”
“अच्छे से याद है?”
“ज.. जी गुरूदेव.”
“ह्म्म्म.. कोई अनोखी बात... कोई भी ऐसी बात जो तुम्हें उसमें बिल्कुल ही अलग दिखा या लगा हो?”
“ग.. गुरु... देव.. रुना भाभी हत्याएँ कर रही हैं.... र.. रक्त पी रही हैं... इससे ब... बड़ा अलग और अ.. अविश्वसनीय बात और क्या होगा मेरे लिए.. या.. किसी के लिए भी.”
कालू का उत्तर सुन कर बाबा जी चुप हो गए.
सत्य भी है, जिसे समस्त ग्रामवासी हमेशा से एक सुसंस्कृत, शिक्षित व समाज को एक नूतन दिशा – पथ दिखाने वाली जानता – मानता आया हो; उनके लिए रुना का यह रूप वास्तव में ही बहुत ही अविश्वसनीय होगा.
कुछ सोच कर बाबा जी कालू को बोले,
“सुनो कालू, क्या तुमने इन घटनाओं की चर्चा किसी से की है अभी तक?”
“न.. नहीं गुरूदेव.”
“हम्म.. वाह! बहुत अच्छा. करना भी नहीं.”
“क.. क्यों गुरूदेव?”
“किसी से इस घटना की चर्चा जब तक तुम नहीं करोगे.. तब तक तुम सुरक्षित रहोगे.”
“सच में.. गुरूदेव?”
“बिल्कुल.”
“प.. पर.. वो मेरी... ओर....”
“अब और कोई प्रश्न नहीं वत्स, जाओ.. बहुत समय व्यतीत हो गया. अब लौट जाओ. और निश्चिन्त रहो.. जब तक तुम इन घटनाओं की चर्चा किसी से नहीं करोगे तब तक तुम पूरी तरह से सुरक्षित रहोगे. समझे?”
“ज.. जी.. गुरूदेव... आपकी जय हो...”
बोलते हुए कालू बाबा जी के चरणों में लोट गया. बाबा जी ने उसे अच्छे से सान्तवना और आशीष दिया.
उसके जाने से पहले बोले,
“पूजा-पाठ करते हो?”
“न... नहीं गुरूदेव.. कुछ विशेष नहीं करता.”
“ओह.. तब तो शरीर पर कोई कवच आदि भी धारण नहीं किए होगे?”
“क.. कवच.. गुरूदेव?”
“समझा. नहीं धारण किए हो.”
“न.. नहीं गुरूदेव... मैंने य... ये पहना है.”
“क्या.. दिखाओ.”
कालू ने गले में पहना एक छोटा सा ताबीज नुमा लॉकेट दिखाया बाबा जी को.
बाबा जी ने कुछ क्षण अच्छे से देखने के बाद बोले,
“कहाँ से मिला तुम्हें ये?”
“मिला??”
“हाँ.. मिला... ये तुम्हें मिला है कहीं से. तुम्हें किसी ने दिया नहीं है... है न?”
कालू लज्जा से सिर झुकाता हुआ बोला,
“जी गुरूदेव.”
“तो बताओ फिर.. कहाँ से मिला तुम्हें ये?”
“घर के पीछे.. हमारा जो पुआल घर है.. गायों का चारा जहाँ रखते हैं... वहीँ से.”
“वहाँ से?”
“जी गुरूदेव..”
“अच्छा... ठीक है.. इसे सदैव ही पहने रहना. अब तुम जाओ... तुम्हारा कल्याण हो.”
कालू ने एक बार फिर बाबा जी को प्रणाम किया और बाहर चला गया. उसके जाते ही बाबा जी ने गोपू को संकेत दिया. गोपू लपक कर कालू के पीछे पीछे गया.
कालू को पीछे से टोकते हुए गोपू बोला,
“कालू... सुनो..”
“कहिए.”
“एक और प्रश्न है जिसे गुरूदेव स्वयं नहीं पूछ सकते इसलिए मुझे कहा है तुमसे पूछने के लिए.”
“पूछिए... क्या पूछना चाहते हैं आप?”
“जिस दिन.. जिस समय बब्लू को रुना भाभी ने मारा था... तुम वहीँ थे?”
“जी.. था.”
“बहुत पहले से?”
“जी.”
“बब्लू को मारने से पहले रुना भाभी ने कुछ किया उसके साथ?”
इस प्रश्न पर कालू से तुरंत उत्तर देते नहीं बना. हिचक और संकोच से गोपू की ओर देखते हुए सिर हाँ में हिलाया.
“क्या किया था रुना भाभी ने?”
कालू चुप रहा. बेचारे को समझ में नहीं आ रहा था कि बोले तो आखिर कैसे बोले?
गोपू के द्वारा फिर से प्रश्न किए जाने और ज़ोर देने पर झिझकते हुए कहा,
“हाँ... उन दोनों में.....”
कालू की बात को काटते हुए गोपू बोला,
“सम्भोग हुआ था?”
“न.. न.. नहीं... स.. सम्भोग नहीं.. पर.. वैसा ही... कुछ... अ... अर्थात्... दो... दोनों अर्धनग्न अवश्य हो गए थे... परन्तु.... सम्भोग.... नहीं हुआ.... था.”
“ये सच बोल रहे हो न?”
कालू की ओर दृष्टि तीक्ष्ण करता हुआ गोपू बोला.
कालू थोड़ा सहम कर पर दृढ़ता से बोला,
“ज..जी.. बिल्कुल...”
“ह्म्म्म.. ठीक है... अब तुम जाओ.”
कालू अपनी साइकिल सम्भाला और जल्दी से वहाँ से विदा हो लिया.
कुटिया में घुसने के साथ ही गोपू बोल पड़ा,
“गुरूदेव... क्रीड़ा हुआ भी ... और नहीं भी.”
सुनकर बाबा जी गम्भीर स्वर में ‘ह्म्म्म’ कर के चुप रहे.
चांदू और गोपू; दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और फिर बाबा जी को देखते हुए उनके पास आ कर चरणों के समीप बैठ गए.
बाबा बोले,
“ये रुना नहीं है...”
“क्या?!!”
चांदू और गोपू अचम्भित से होते हुए बोल पड़े.
बाबा जी बोलते रहे,
“यदि ये रुना होती तो सदैव ही इस बात का बड़ी भली भांति ध्यान रखती की उसे कोई देख न ले. वो पकड़ी न जाए. पर यहाँ हो रहा है उल्टा. कोई उसे किसी को मारने से पहले प्रणय क्रीड़ा करते हुए देख रहा है इस बात से बहुत आनंदित होती है वो. कालू को मारने के बजाए उसकी ओर देख कर मुस्कराते हुए अपने आखेट का रक्त पीना... (थोड़ा रुक कर सिर हिलाते हुए)... नहीं... मैं निश्चित हूँ. ये रुना नहीं है.”
“तो क्या इसलिए आपने कालू को इस बात का चर्चा किसी से करने से मना किया गुरूदेव?”
“हाँ वत्स.. जब वो घटना का वर्णन कर रहा था.. तभी मुझे ये बात स्पष्ट हो गया था..”
“व.. वो कैसे गुरूदेव...?”
चांदू ने यह प्रश्न बड़े भोलेपन से किया.
बाबा जी दोनों शिष्यों की ओर देखते हुए मुस्कराए और फिर बोले,
“वो ऐसे की आज से करीब पाँच दिन पहले जब मैं ध्यानमग्न था तब मुझे अवनी की आत्मा से कुछ क्षणों के लिए साक्षात्कार होने का अवसर प्राप्त हुआ. मैंने उसे उसका मानव रूप दिखाने का निवेदन किया जिसे वो तुरंत ही मान गई और मुझे तभी की तभी अपना मानव रूप दिखाई. उसके जीवित रहते उसका जो मानव... नारी रूप था उसे देख कर मैं अचंभित रह गया. मुझे ये जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ की इस चेहरे को मैंने पहले भी इसी गाँव में कहीं देखा है. अपना मानव नारी रूप दिखाने के तुरंत बाद ही अवनी चली गई. मैं उसे दोबारा बुला सकता था पर उसका यूँ ऐसे चले जाना इस बात का संकेत था कि उसे अभी कहीं और आवश्यक रूप से होना है.....”
चांदू बाबा जी के वाक्य का पूरा होने तक प्रतीक्षा नहीं कर सका और बड़ी अधीरता से पूछा बैठा,
“कहीं और..? कहाँ गुरूदेव..? क्या किसी और के पास होना चाहिए था उसे?”
चांदू के बालसुलभ व्यवहार को देख बाबा जी हँसते हुए बोले,
“हाँ वत्स.. उसके ऐसे व्यवहार से तो ऐसा ही लगा था.”
“तो क्या आप जानते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए था?”
“हाँ वत्स.”
“कहाँ गुरूदेव.. कृप्या बताईए.”
“चंडूलिका के पास!”
चंडूलिका का नाम सुन कर दोनों शिष्य एक क्षण के लिए सहम गए. सच कहा जाए तो दोनों को ही समझ में नहीं आया की इस बात पे क्या प्रतिक्रिया दी जाए.
कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद गोपू ने धीरे से कहा,
“गुरूदेव.. आप कह रहे थे की आपने अवनी के मानव नारी रूप को इसी गाँव में कहीं देखा है. क्या आपको इसका भी उत्तर मिल गया?”
“हाँ वत्स, मैंने इसी गाँव में देखा था उसे.”
गोपू ये पूछना चाह रहा कि ‘किसे देखा है आपने’.. पर गुरूदेव से एक के बाद एक इतने प्रश्न करना वो अपने सभ्य आचरण के प्रतिकूल मान कर न चाहते हुए भी चुप रहा. लेकिन उसकी ये उत्कंठा उसकी आँखों में जिज्ञासा लिए गुरूदेव की ओर बराबर बनी रही.
गुरु तो आखिर गुरु होते हैं. शिष्य के मनोभाव उन्होंने तुरंत ताड़ लिया.
बोले,
“इसी गाँव की शिक्षिका रह चुकी.... रुना!”
असीमित आश्चर्य का गुबार एकाएक दोनों के कंठों से विस्मित स्वरों के रूप में फूट पड़ा,
“क्या?!! रुना भाभी?!!”
“हाँ.. वही.”
“वही जिनके विषय में अभी कुछ देर पहले कालू बता रहा था??” गोपू पूछा.
बाबा जी ने उसे ऐसे देखा मानो उसी से कोई प्रश्न करने लगे हों.
गोपू को पलक झपकते ही अपनी भूल का आभास हुआ एवं सहमते हुए धीरे से कहा,
“नहीं... नहीं... कालू वाली रुना भाभी कोई और है.”
गोपू के चुप होते ही चांदू बोल पड़ा,
“परन्तु गुरूदेव.... ये अवनी और रुना भाभी...??”
“ह्म्म्म.. वत्स, इसे विधि का विधान कहो... या नियति का कोई चक्कर... आज से वर्षों पहले जो अवनी थी... ठीक वैसी ही रुना भी दिखने – सुनने में है. यहाँ तक की दोनों की कुंडली में कई तरह योग एवं गणना तक एक समान है. अपने योगबल से मैं जितना जान पाया.. उस अनुसार दोनों के न केवल चेहरे अपितु लंबाई और शरीर भी एक समान ही है... अंतर इतना है कि रुना का शरीर.... अं......”
गुरूदेव को वाक्य पूरा करने थोड़ी झिझक होते देख चांदू स्वयं ही बोल पड़ा,
“रुना जी का शरीर अवनी के शरीर के अपेक्षाकृत अधिक भरा हुआ है?”
“हाँ... यही बात. वैसे भी विवाह और संतानोत्पत्ति के इतने वर्ष बाद ऐसे परिवर्तन आना सामान्य बात है.”
“तो....??”
“तो अब यही वत्स की अब पूरा माजरा हमें या तो शौमक और अवनी दोनों बताएँगे या फिर चंडूलिका स्वयं!”
“चंडूलिका?”
“हाँ.. परन्तु लगता नहीं है की उसके साथ मेरा कोई सामना होगा... क्योंकि यदि ये सब कुछ... अर्थात् गाँव में जो कुछ भी हो रहा है... इन सबमें यदि चंडूलिका प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती तो अभी तक ये गाँव आधा श्मशान बन चुका होता... अब रही बात तांत्रिक घेतांक की तो अब इस गाँव में नहीं है.. वो कहाँ है ये मैंने जानने का प्रयास नहीं किया... वो अब इस दुनिया में है भी या नहीं.. ये जानने में भी मेरी कोई रूचि नहीं है. रुचिकर एवं करने योग्य कार्य अभी के लिए यही है की इन ग्रामवासियों को कैसे बचाया जाए और शौमक और अवनी का कैसे उद्धार किया जाए.”
“अ... और गुरूदेव... आप कालू से कुछ कवच इत्यादि के बारे में पूछ रहे थे??” गोपू ने पूछा.
“हाँ वत्स.. तुमने कालू के गले में वो माला, बेहतर है उसे लॉकेट या ताबीज बोल दो; तो देखा ही होगा. वो उसका नहीं है. वो लॉकेट एक सिद्ध महात्मा का है जो कदाचित इस लॉकेट के वास्तविक धारक का गुरूदेव रहे होंगे. यदि ये लॉकेट कालू का ही होता तो रुना भाभी...या वो जो कोई भी है... उसके साथ कालू का यूँ आमना सामना नहीं होता. पर आमना सामना हुआ... इसका अर्थ ये हुआ की लॉकेट वास्तविक रूप से किसी ओर का है... जो कि अब कालू के पास है.. उसके गले में शोभायमान है... परन्तु शक्ति अभी भी वैसी की वैसी ही है. इसलिए वह नकारात्मक शक्ति कालू के आस पास नहीं फटक पा रही है.”
कहते हुए बाबा जी ने अपने दोनों शिष्यों की ओर देखा.
दोनों को ही तनिक उलझन में देख कर बोले,
“याद करो... कालू ने क्या क्या कहा था.. जब वो मूत्र त्यागने सुधीर से कुछ क़दमों से दूर हुआ, तभी वो रहस्यमयी महिला आई. फिर बब्लू के साथ भी वो था.. कुछ कदम चल कर उससे दूर हुआ नहीं की वो शक्ति बब्लू के पास आ पहुँची.”
“अर्थात्... गुरूदेव.. जब तक कालू उस लॉकेट को पहना हुआ है तब तक कोई भी नकारात्मक शक्ति न तो कालू के पास आ सकती है और न ही कालू जिनके साथ है; उनके पास.”
“बिल्कुल.”
“लेकिन... गुरूदेव... ये लॉकेट... कालू के घर के पीछे...?”
“जब शुभो की मृत्यु हुई तब मैंने तुम्हें उसके घर और आस पास जानकारी इकठ्ठा करने भेजा था... याद है?”
“ज..जी गुरूदेव.”
“उस दिन तुम लौट कर आए थे और कहा था कि मृत्यु वाले दिन ही सुबह सुबह शुभो कालू से मिलने उसके घर गया था... और उस समय कालू अपने घर के पीछे पुआल घर में था?”
“जी गुरूदेव.”
“तो बस... हो सकता है वहाँ उन दोनों में कोई कहा सुनी हुई हो... या हाथापाई... या किसी और तरीके से वह लॉकेट शुभो के गले से निकल गया और फलस्वरूप रात में वो मारा गया.”
“अर्थात्, उस शक्ति को पता चल चुका था की शुभो के गले में अब वो लॉकेट नहीं है?!” गोपू कुछ सोचता हुआ बोला.
“हाँ... यही संभव होता प्रतीत होता है... कदाचित वो उस पर दृष्टि जमाए हुए थी बहुत पहले से या... फिर... ये सब संयोग मात्र है.”
थोड़ी देर चुप रह कर बाबा जी फिर बोले,
“गोपू, अमावस्या कब है?”
दो क्षणों की गणना के तुरंत बाद ही गोपू बोला,
“आज से १२ दिन बाद गुरूदेव.”
बाबा जी ने हाथ बढ़ा कर पत्रिका माँगा. चांदू के द्वारा पत्रिका देते ही बाबा जी उसमें किसी चीज़ का बहुत ध्यानपूर्वक आंकलन एवं विश्लेषण करने लगे. फिर पत्रिका को एक ओर रखते हुए एक दीर्घ, गहरी साँस छोड़ते हुए बोले,
“ये अमावस्या ही उपयुक्त रहेगा.”
“वो क्या गुरूदेव?”
“वैसे तो अमावस्या वाले रात ऐसे कुछ योग बनते हैं की कुछ विशेष प्रकार के नकारात्मक शक्तियों को विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है. परन्तु ये अमावस्या कुछ ऐसी है जिस दिन... पूरे २४ घंटे के लिए कुछ योग ऐसे बन रहे हैं जिसके कारण ऐसी ही विशेष प्रकार की शक्तियाँ अपेक्षाकृत थोड़ी सरलता से वश में आ सकती हैं. यद्यपि शक्तिशाली तो ये तब भी होंगी एवं कड़ा प्रतिरोध भी होगा इनकी ओर से... पर अब करना तो पड़ेगा ही... इसी विशेष दिन की प्रतीक्षा कर रहा था मैं इतने दिनों से.”
“किस बात की प्रतीक्षा गुरूदेव?” चांदू ने पूछा.
बाबा जी जप के लिए आसन बिछाते हुए दृढ़ गंभीर स्वर में बोले,
“एक निर्णायक लड़ाई की..! तुम दोनों तैयारियाँ शुरू कर दो.”
“गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव... मैं जीना चाहता हूँ गुरूदेव.”
“शांत... शांत हो जाओ वत्स.. पहले शांत हो कर बैठो तो सही.”
बाबा जी ने डर से काँपते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा. कालू बहुत डरा हुआ था. बुरी तरह काँप रहा था. होश उड़े हुए थे उसके. चेहरा सफ़ेद सा पड़ चुका था और पसीने से तर था.
सिर पर बाबा के हाथ का स्नेहमयी स्पर्श पा कर शांत होने का व्यर्थ प्रयास करने लगा कालू पर भय में रत्ती भर की भी कमी न आई.
पहले की अपेक्षा उसे अब थोड़ा शांत होता देख बाबा ने बहुत स्नेह से पूछा,
“वत्स.. अब बोलो.. क्या बात है?”
“ग..ग...ग...गुरु...गुरूदे... गुरूदेव... व..व..वो.. म..म..मार... मार देगी... मार डालेगी... म...मु..मुझे भी..”
“कौन मार देगी?”
बाबा ने स्नेहिल ढंग से ही पूछा परन्तु अब स्वयं को कालू की बातों में थोड़ा केन्द्रित भी कर लिया,
कालू पूर्ववत् काँपते हुए ही उत्तर दिया,
“न..नाम... न...नहीं बताऊंगा...”
“क्यों?”
“क...क्योंकि....क...क्यों...कि...”
“आगे बोलो वत्स... क्योंकि....??”
“क्योंकि... व.. वो... म..मुझे... म.. म.. मा... मार डा.. डालेगी... गुरूदेव.... म..मुझे बचा... ल...लीजिए... ग..गुरूदेव...”
अब की बार तो लगभग रो ही पड़ा कालू.
उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बाबा ने बड़े अपनेपन से कहा,
“देखो वत्स.. अगर तुम नाम नहीं भी बताओगे... तो भी वो तुम्हें मार देगी... हैं न... क्योंकि उसका तो कदाचित लक्ष्य तो तुम अब बन ही गए हो... यदि नाम बता दोगे तो कदाचित मैं तुम्हारी कोई सहायता कर पाऊं. बोलो वत्स... कौन है वो जिसे तुम्हारे प्राण चाहिए?”
“भ.. भा... भाभी.”
“भाभी? कौन भाभी?”
“र..र.....”
“बोलो वत्स.. कौन भाभी?”
“र...रुना भाभी.”
“रुना भाभी??”
“ह... हा.. हाँ ग..ग.. गुरूदेव....”
“रुना भाभी.. अर्थात् गाँव की शिक्षिका?”
“ज.. जी.. गुरूदेव.. पहले ग... गाँव में पढ़ाती थ.. थी...”
“अब नहीं पढ़ाती?”
“पढ़ाती ह.. है.”
“अभी तो तुमने कहा कि वो पहले पढ़ाती थी?”
“अ.. अब.. शहर में... छ... छोटे ब...ब... बच्चों के कॉलेज में...”
“ओह.. अच्छा..!”
“ज.. जी.. ग.. गुरूदेव.”
एक क्षण रुक कर बाबा जी ने फिर पूछा,
“हम्म... अच्छा वत्स.. तुमने ये तो बता दिया की तुम्हें कौन मारना चाहती है.. अब ये तो बताओ की वो तुम्हें क्यों मारना चाहती है?”
“क....क.. क्यों... क्योंकि......”
“हाँ वत्स, बोलो... डरो नहीं.”
“क.. क्यों...कि... म.. मैंने उ...उसे मारते उ... उन्हें दे देख लिया थ.. था.”
“किसे मारते किसे देख लिया?”
“र.. रुना भाभी को दे.. देखा... स.. सुधीर को....मारते हुए.. अ... और.... ब.. बब्लू को भी.”
“बब्लू?”
“ज... जी.. स...सुधीर को मारने के अगले तीन र.. रात बाद बब्लू को भी मार दिया उन्होंने.”
“किसने? रुना भाभी ने?”
“जी गुरूदेव.”
“ओह्ह.”
कह कर बाबा जी चुप हो गए.
पूरा मामला तो उन्हें बहुत हद तक बहुत स्पष्ट तो था ही... बस ये नया काण्ड उन्हें थोड़ा परेशान कर दिया.
अगले कुछ मिनटों तक बाबा जी को कुछ न बोलते देख कर कालू ने रोते हुए उनके पैर पकड़ लिया,
“गुरूदेव.. गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव.. म.. मैं न... नहीं मरना... चाहता.. गुरूदेव.”
रोते बिलखते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा जी अत्यंत शांत व धीर-गम्भीर स्वर में बोले,
“अब जब हमारे पास आए हो तो हम तुम ऐसे ही कुछ नहीं होने देंगे. शांत हो जाओ.. रोना बंद करो.”
बाबा जी के कहने पर कालू ने धीरे धीरे रोना तो बंद किया पर सिसकियाँ अब भी चालू थीं.
इधर बाबा जी भी चुपचाप बैठे हुए थे...
उन्हें चिंतामग्न देख चांदू से न रहा गया. समीप आ कर पूछा,
“क्या बात है गुरूदेव? आपको किस चिंता ने इतना चिंतित कर दिया है?”
“अंह?!... ओह.. कुछ नहीं.” बाबा जी जैसे गहरी चिंता से बाहर आए.
कालू की ओर देखते हुए पूछा,
“तुम्हें रुना ने कब देखा था? सुधीर को मारते समय या बब्लू को?”
“सुधीर को म... मारते समय शायद... उन..उनको स.. संदेह... रहा ह... होगा की कोई उन्हें द.. दे.... देख र.. रहा है... पर बब्लू को म.. मारते समय... म.. मु... मुझे.... म.. मे... मेरी ओर देखते हुए ही उ.. उसे... मारी.”
“बब्लू को कैसे मारा उसने?”
“ग.. गर्दन... स... से रक्त... च..चूसते ह...हुए.”
“और?”
“और....??”
“मतलब फिर क्या किया उसने?”
“म.. मे...मेरी ओ.. ओर दे.. देख कर मुस्कराई अ... और चेहरा पोंछते हुए चली गई. उसकी वो मुस्कान और भयानक रूप... म.. मुझसे भ... भूले... नहीं भूलती... गुरूदेव.”
“क्या बब्लू को मारने से पहले... अ.. अच्छा छोड़ो... (गोपू की ओर देख कर बाबा ने एक विशेष संकेत किया जिसपे गोपू ने भी हाँ में सिर हिला कर स्वीकृति दिया)... ये बताओ कि क्या उसने तुम्हें कुछ कहा था जाने से पहले?”
“नहीं गुरूदेव.”
“अच्छे से याद है?”
“ज.. जी गुरूदेव.”
“ह्म्म्म.. कोई अनोखी बात... कोई भी ऐसी बात जो तुम्हें उसमें बिल्कुल ही अलग दिखा या लगा हो?”
“ग.. गुरु... देव.. रुना भाभी हत्याएँ कर रही हैं.... र.. रक्त पी रही हैं... इससे ब... बड़ा अलग और अ.. अविश्वसनीय बात और क्या होगा मेरे लिए.. या.. किसी के लिए भी.”
कालू का उत्तर सुन कर बाबा जी चुप हो गए.
सत्य भी है, जिसे समस्त ग्रामवासी हमेशा से एक सुसंस्कृत, शिक्षित व समाज को एक नूतन दिशा – पथ दिखाने वाली जानता – मानता आया हो; उनके लिए रुना का यह रूप वास्तव में ही बहुत ही अविश्वसनीय होगा.
कुछ सोच कर बाबा जी कालू को बोले,
“सुनो कालू, क्या तुमने इन घटनाओं की चर्चा किसी से की है अभी तक?”
“न.. नहीं गुरूदेव.”
“हम्म.. वाह! बहुत अच्छा. करना भी नहीं.”
“क.. क्यों गुरूदेव?”
“किसी से इस घटना की चर्चा जब तक तुम नहीं करोगे.. तब तक तुम सुरक्षित रहोगे.”
“सच में.. गुरूदेव?”
“बिल्कुल.”
“प.. पर.. वो मेरी... ओर....”
“अब और कोई प्रश्न नहीं वत्स, जाओ.. बहुत समय व्यतीत हो गया. अब लौट जाओ. और निश्चिन्त रहो.. जब तक तुम इन घटनाओं की चर्चा किसी से नहीं करोगे तब तक तुम पूरी तरह से सुरक्षित रहोगे. समझे?”
“ज.. जी.. गुरूदेव... आपकी जय हो...”
बोलते हुए कालू बाबा जी के चरणों में लोट गया. बाबा जी ने उसे अच्छे से सान्तवना और आशीष दिया.
उसके जाने से पहले बोले,
“पूजा-पाठ करते हो?”
“न... नहीं गुरूदेव.. कुछ विशेष नहीं करता.”
“ओह.. तब तो शरीर पर कोई कवच आदि भी धारण नहीं किए होगे?”
“क.. कवच.. गुरूदेव?”
“समझा. नहीं धारण किए हो.”
“न.. नहीं गुरूदेव... मैंने य... ये पहना है.”
“क्या.. दिखाओ.”
कालू ने गले में पहना एक छोटा सा ताबीज नुमा लॉकेट दिखाया बाबा जी को.
बाबा जी ने कुछ क्षण अच्छे से देखने के बाद बोले,
“कहाँ से मिला तुम्हें ये?”
“मिला??”
“हाँ.. मिला... ये तुम्हें मिला है कहीं से. तुम्हें किसी ने दिया नहीं है... है न?”
कालू लज्जा से सिर झुकाता हुआ बोला,
“जी गुरूदेव.”
“तो बताओ फिर.. कहाँ से मिला तुम्हें ये?”
“घर के पीछे.. हमारा जो पुआल घर है.. गायों का चारा जहाँ रखते हैं... वहीँ से.”
“वहाँ से?”
“जी गुरूदेव..”
“अच्छा... ठीक है.. इसे सदैव ही पहने रहना. अब तुम जाओ... तुम्हारा कल्याण हो.”
कालू ने एक बार फिर बाबा जी को प्रणाम किया और बाहर चला गया. उसके जाते ही बाबा जी ने गोपू को संकेत दिया. गोपू लपक कर कालू के पीछे पीछे गया.
कालू को पीछे से टोकते हुए गोपू बोला,
“कालू... सुनो..”
“कहिए.”
“एक और प्रश्न है जिसे गुरूदेव स्वयं नहीं पूछ सकते इसलिए मुझे कहा है तुमसे पूछने के लिए.”
“पूछिए... क्या पूछना चाहते हैं आप?”
“जिस दिन.. जिस समय बब्लू को रुना भाभी ने मारा था... तुम वहीँ थे?”
“जी.. था.”
“बहुत पहले से?”
“जी.”
“बब्लू को मारने से पहले रुना भाभी ने कुछ किया उसके साथ?”
इस प्रश्न पर कालू से तुरंत उत्तर देते नहीं बना. हिचक और संकोच से गोपू की ओर देखते हुए सिर हाँ में हिलाया.
“क्या किया था रुना भाभी ने?”
कालू चुप रहा. बेचारे को समझ में नहीं आ रहा था कि बोले तो आखिर कैसे बोले?
गोपू के द्वारा फिर से प्रश्न किए जाने और ज़ोर देने पर झिझकते हुए कहा,
“हाँ... उन दोनों में.....”
कालू की बात को काटते हुए गोपू बोला,
“सम्भोग हुआ था?”
“न.. न.. नहीं... स.. सम्भोग नहीं.. पर.. वैसा ही... कुछ... अ... अर्थात्... दो... दोनों अर्धनग्न अवश्य हो गए थे... परन्तु.... सम्भोग.... नहीं हुआ.... था.”
“ये सच बोल रहे हो न?”
कालू की ओर दृष्टि तीक्ष्ण करता हुआ गोपू बोला.
कालू थोड़ा सहम कर पर दृढ़ता से बोला,
“ज..जी.. बिल्कुल...”
“ह्म्म्म.. ठीक है... अब तुम जाओ.”
कालू अपनी साइकिल सम्भाला और जल्दी से वहाँ से विदा हो लिया.
कुटिया में घुसने के साथ ही गोपू बोल पड़ा,
“गुरूदेव... क्रीड़ा हुआ भी ... और नहीं भी.”
सुनकर बाबा जी गम्भीर स्वर में ‘ह्म्म्म’ कर के चुप रहे.
चांदू और गोपू; दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और फिर बाबा जी को देखते हुए उनके पास आ कर चरणों के समीप बैठ गए.
बाबा बोले,
“ये रुना नहीं है...”
“क्या?!!”
चांदू और गोपू अचम्भित से होते हुए बोल पड़े.
बाबा जी बोलते रहे,
“यदि ये रुना होती तो सदैव ही इस बात का बड़ी भली भांति ध्यान रखती की उसे कोई देख न ले. वो पकड़ी न जाए. पर यहाँ हो रहा है उल्टा. कोई उसे किसी को मारने से पहले प्रणय क्रीड़ा करते हुए देख रहा है इस बात से बहुत आनंदित होती है वो. कालू को मारने के बजाए उसकी ओर देख कर मुस्कराते हुए अपने आखेट का रक्त पीना... (थोड़ा रुक कर सिर हिलाते हुए)... नहीं... मैं निश्चित हूँ. ये रुना नहीं है.”
“तो क्या इसलिए आपने कालू को इस बात का चर्चा किसी से करने से मना किया गुरूदेव?”
“हाँ वत्स.. जब वो घटना का वर्णन कर रहा था.. तभी मुझे ये बात स्पष्ट हो गया था..”
“व.. वो कैसे गुरूदेव...?”
चांदू ने यह प्रश्न बड़े भोलेपन से किया.
बाबा जी दोनों शिष्यों की ओर देखते हुए मुस्कराए और फिर बोले,
“वो ऐसे की आज से करीब पाँच दिन पहले जब मैं ध्यानमग्न था तब मुझे अवनी की आत्मा से कुछ क्षणों के लिए साक्षात्कार होने का अवसर प्राप्त हुआ. मैंने उसे उसका मानव रूप दिखाने का निवेदन किया जिसे वो तुरंत ही मान गई और मुझे तभी की तभी अपना मानव रूप दिखाई. उसके जीवित रहते उसका जो मानव... नारी रूप था उसे देख कर मैं अचंभित रह गया. मुझे ये जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ की इस चेहरे को मैंने पहले भी इसी गाँव में कहीं देखा है. अपना मानव नारी रूप दिखाने के तुरंत बाद ही अवनी चली गई. मैं उसे दोबारा बुला सकता था पर उसका यूँ ऐसे चले जाना इस बात का संकेत था कि उसे अभी कहीं और आवश्यक रूप से होना है.....”
चांदू बाबा जी के वाक्य का पूरा होने तक प्रतीक्षा नहीं कर सका और बड़ी अधीरता से पूछा बैठा,
“कहीं और..? कहाँ गुरूदेव..? क्या किसी और के पास होना चाहिए था उसे?”
चांदू के बालसुलभ व्यवहार को देख बाबा जी हँसते हुए बोले,
“हाँ वत्स.. उसके ऐसे व्यवहार से तो ऐसा ही लगा था.”
“तो क्या आप जानते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए था?”
“हाँ वत्स.”
“कहाँ गुरूदेव.. कृप्या बताईए.”
“चंडूलिका के पास!”
चंडूलिका का नाम सुन कर दोनों शिष्य एक क्षण के लिए सहम गए. सच कहा जाए तो दोनों को ही समझ में नहीं आया की इस बात पे क्या प्रतिक्रिया दी जाए.
कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद गोपू ने धीरे से कहा,
“गुरूदेव.. आप कह रहे थे की आपने अवनी के मानव नारी रूप को इसी गाँव में कहीं देखा है. क्या आपको इसका भी उत्तर मिल गया?”
“हाँ वत्स, मैंने इसी गाँव में देखा था उसे.”
गोपू ये पूछना चाह रहा कि ‘किसे देखा है आपने’.. पर गुरूदेव से एक के बाद एक इतने प्रश्न करना वो अपने सभ्य आचरण के प्रतिकूल मान कर न चाहते हुए भी चुप रहा. लेकिन उसकी ये उत्कंठा उसकी आँखों में जिज्ञासा लिए गुरूदेव की ओर बराबर बनी रही.
गुरु तो आखिर गुरु होते हैं. शिष्य के मनोभाव उन्होंने तुरंत ताड़ लिया.
बोले,
“इसी गाँव की शिक्षिका रह चुकी.... रुना!”
असीमित आश्चर्य का गुबार एकाएक दोनों के कंठों से विस्मित स्वरों के रूप में फूट पड़ा,
“क्या?!! रुना भाभी?!!”
“हाँ.. वही.”
“वही जिनके विषय में अभी कुछ देर पहले कालू बता रहा था??” गोपू पूछा.
बाबा जी ने उसे ऐसे देखा मानो उसी से कोई प्रश्न करने लगे हों.
गोपू को पलक झपकते ही अपनी भूल का आभास हुआ एवं सहमते हुए धीरे से कहा,
“नहीं... नहीं... कालू वाली रुना भाभी कोई और है.”
गोपू के चुप होते ही चांदू बोल पड़ा,
“परन्तु गुरूदेव.... ये अवनी और रुना भाभी...??”
“ह्म्म्म.. वत्स, इसे विधि का विधान कहो... या नियति का कोई चक्कर... आज से वर्षों पहले जो अवनी थी... ठीक वैसी ही रुना भी दिखने – सुनने में है. यहाँ तक की दोनों की कुंडली में कई तरह योग एवं गणना तक एक समान है. अपने योगबल से मैं जितना जान पाया.. उस अनुसार दोनों के न केवल चेहरे अपितु लंबाई और शरीर भी एक समान ही है... अंतर इतना है कि रुना का शरीर.... अं......”
गुरूदेव को वाक्य पूरा करने थोड़ी झिझक होते देख चांदू स्वयं ही बोल पड़ा,
“रुना जी का शरीर अवनी के शरीर के अपेक्षाकृत अधिक भरा हुआ है?”
“हाँ... यही बात. वैसे भी विवाह और संतानोत्पत्ति के इतने वर्ष बाद ऐसे परिवर्तन आना सामान्य बात है.”
“तो....??”
“तो अब यही वत्स की अब पूरा माजरा हमें या तो शौमक और अवनी दोनों बताएँगे या फिर चंडूलिका स्वयं!”
“चंडूलिका?”
“हाँ.. परन्तु लगता नहीं है की उसके साथ मेरा कोई सामना होगा... क्योंकि यदि ये सब कुछ... अर्थात् गाँव में जो कुछ भी हो रहा है... इन सबमें यदि चंडूलिका प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती तो अभी तक ये गाँव आधा श्मशान बन चुका होता... अब रही बात तांत्रिक घेतांक की तो अब इस गाँव में नहीं है.. वो कहाँ है ये मैंने जानने का प्रयास नहीं किया... वो अब इस दुनिया में है भी या नहीं.. ये जानने में भी मेरी कोई रूचि नहीं है. रुचिकर एवं करने योग्य कार्य अभी के लिए यही है की इन ग्रामवासियों को कैसे बचाया जाए और शौमक और अवनी का कैसे उद्धार किया जाए.”
“अ... और गुरूदेव... आप कालू से कुछ कवच इत्यादि के बारे में पूछ रहे थे??” गोपू ने पूछा.
“हाँ वत्स.. तुमने कालू के गले में वो माला, बेहतर है उसे लॉकेट या ताबीज बोल दो; तो देखा ही होगा. वो उसका नहीं है. वो लॉकेट एक सिद्ध महात्मा का है जो कदाचित इस लॉकेट के वास्तविक धारक का गुरूदेव रहे होंगे. यदि ये लॉकेट कालू का ही होता तो रुना भाभी...या वो जो कोई भी है... उसके साथ कालू का यूँ आमना सामना नहीं होता. पर आमना सामना हुआ... इसका अर्थ ये हुआ की लॉकेट वास्तविक रूप से किसी ओर का है... जो कि अब कालू के पास है.. उसके गले में शोभायमान है... परन्तु शक्ति अभी भी वैसी की वैसी ही है. इसलिए वह नकारात्मक शक्ति कालू के आस पास नहीं फटक पा रही है.”
कहते हुए बाबा जी ने अपने दोनों शिष्यों की ओर देखा.
दोनों को ही तनिक उलझन में देख कर बोले,
“याद करो... कालू ने क्या क्या कहा था.. जब वो मूत्र त्यागने सुधीर से कुछ क़दमों से दूर हुआ, तभी वो रहस्यमयी महिला आई. फिर बब्लू के साथ भी वो था.. कुछ कदम चल कर उससे दूर हुआ नहीं की वो शक्ति बब्लू के पास आ पहुँची.”
“अर्थात्... गुरूदेव.. जब तक कालू उस लॉकेट को पहना हुआ है तब तक कोई भी नकारात्मक शक्ति न तो कालू के पास आ सकती है और न ही कालू जिनके साथ है; उनके पास.”
“बिल्कुल.”
“लेकिन... गुरूदेव... ये लॉकेट... कालू के घर के पीछे...?”
“जब शुभो की मृत्यु हुई तब मैंने तुम्हें उसके घर और आस पास जानकारी इकठ्ठा करने भेजा था... याद है?”
“ज..जी गुरूदेव.”
“उस दिन तुम लौट कर आए थे और कहा था कि मृत्यु वाले दिन ही सुबह सुबह शुभो कालू से मिलने उसके घर गया था... और उस समय कालू अपने घर के पीछे पुआल घर में था?”
“जी गुरूदेव.”
“तो बस... हो सकता है वहाँ उन दोनों में कोई कहा सुनी हुई हो... या हाथापाई... या किसी और तरीके से वह लॉकेट शुभो के गले से निकल गया और फलस्वरूप रात में वो मारा गया.”
“अर्थात्, उस शक्ति को पता चल चुका था की शुभो के गले में अब वो लॉकेट नहीं है?!” गोपू कुछ सोचता हुआ बोला.
“हाँ... यही संभव होता प्रतीत होता है... कदाचित वो उस पर दृष्टि जमाए हुए थी बहुत पहले से या... फिर... ये सब संयोग मात्र है.”
थोड़ी देर चुप रह कर बाबा जी फिर बोले,
“गोपू, अमावस्या कब है?”
दो क्षणों की गणना के तुरंत बाद ही गोपू बोला,
“आज से १२ दिन बाद गुरूदेव.”
बाबा जी ने हाथ बढ़ा कर पत्रिका माँगा. चांदू के द्वारा पत्रिका देते ही बाबा जी उसमें किसी चीज़ का बहुत ध्यानपूर्वक आंकलन एवं विश्लेषण करने लगे. फिर पत्रिका को एक ओर रखते हुए एक दीर्घ, गहरी साँस छोड़ते हुए बोले,
“ये अमावस्या ही उपयुक्त रहेगा.”
“वो क्या गुरूदेव?”
“वैसे तो अमावस्या वाले रात ऐसे कुछ योग बनते हैं की कुछ विशेष प्रकार के नकारात्मक शक्तियों को विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है. परन्तु ये अमावस्या कुछ ऐसी है जिस दिन... पूरे २४ घंटे के लिए कुछ योग ऐसे बन रहे हैं जिसके कारण ऐसी ही विशेष प्रकार की शक्तियाँ अपेक्षाकृत थोड़ी सरलता से वश में आ सकती हैं. यद्यपि शक्तिशाली तो ये तब भी होंगी एवं कड़ा प्रतिरोध भी होगा इनकी ओर से... पर अब करना तो पड़ेगा ही... इसी विशेष दिन की प्रतीक्षा कर रहा था मैं इतने दिनों से.”
“किस बात की प्रतीक्षा गुरूदेव?” चांदू ने पूछा.
बाबा जी जप के लिए आसन बिछाते हुए दृढ़ गंभीर स्वर में बोले,
“एक निर्णायक लड़ाई की..! तुम दोनों तैयारियाँ शुरू कर दो.”