19-09-2020, 10:20 PM
१४)
“सब सच सच बताओ बिस्वास...”
“म..मम.. मैं...क्या बताऊँ गुरूदेव?”
“वही जो मैं जानना चाहता हूँ.
बिस्वास चुप.. कोई आवाज़ नहीं.. कोई शब्द नहीं. नज़रें झुका कर इधर उधर देखने लगते हैं.
परन्तु बाबा जी के चेहरे के भावों पर कोई अंतर नहीं दिखा.
अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से वो बिस्वास के चेहरे रुपी दुर्ग पर कड़ा प्रहार कर रहे थे. उनका तेज़ सह पाना उच्च स्तरीय ज्ञानी और सिद्ध पुरुष के लिए भी सरल नहीं था तो बिस्वास तो मात्र एक साधारण मनुष्य है.
थूक निगलते हुए उन्होंने अपने गुरूजी की ओर देखा.
समझने में अब कोई परेशानी नहीं रही कि गुरूजी बिना सत्य जाने नहीं मानने वाले. गुरूजी एक बहुत ही उच्च स्तर के सिद्ध पुरुष हैं ये तो बिस्वास जी जानते ही थें परन्तु वो भूतकाल का भी आंकलन कर सकते हैं ये कभी नहीं सोचा था.
फिर भी बात को टालने के लिए एक और प्रयास ... अंतिम प्रयास करने का सोचा उन्होंने.
नासमझ व भोला बनने का प्रयत्न करते हुए एक बार फिर बाबा के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा,
“गुरूदेव... मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ. किस सत्य को बताने को कह रहे हैं आप? कब की बात है? कौन सी बात है? म.. मैं....”
बिस्वास जी और कुछ कहे उसके पहले ही बाबा ने हाथ उठा कर उसे चुप हो जाने का संकेत किया.
विचार और कथन में पूरी स्थिरता और चेहरे पर गम्भीरता लिए बाबा ने कहा,
“देखो बिस्वास... मैं और तुम... दोनों ही जानते हैं कि जो सत्य अब तक सबसे छुपा हुआ है उसे अब सामने आना चाहिए और मुझसे कोई भी सत्य छिप नहीं सकता. जानते हो न इस बात को?”
बिस्वास जी आँखें नीची करते हुए सहमति में सिर हिलाया.
बाबा बोले,
“तो जब तुम जानते ही हो इस बात को तो फिर क्यों कुछ छुपाने का प्रयास कर रहे हो? जो भी सत्य है; चाहे वो कितना भी कड़वा क्यों न हो... आखिर सत्य ही है. देर सवेर हमें सत्य को अपनाना ही पड़ता है. सत्य की यही एक सबसे बड़ी गुण होती है कि वो सदैव स्वयं को सामने प्रकट करने के लिए तत्पर रहता है. जैसे कितना भी घनघोर वर्षा क्यों न हो... कितनी भी काली घटा क्यों न छाई रहे.. सूर्य निकलता ही निकलता है... ठीक वैसे ही, सत्य चाहे कैसा भी क्यों न हो; सत्य आखिर में सत्य ही होता है.”
अपनी बात को कहते कहते बाबा बिस्वास जी के हाव भाव पर गौर कर रहे थे.
बाबा द्वारा कही गई बातों से बिस्वास के मन में जमी कोई बर्फ पिघल रही है... उसे कुछ अपराधबोध हो रहा है... ये बात बाबा के अनुभवी आँखों ने तुरंत ही ताड़ लिया.
“कहो बिस्वास. डरो नहीं... यदि उस सत्य में तुम्हारी किसी तरह की भूमिका हो भी तो यदि तुम स्वीकार कर लो तो तुम पर से बोझ उतर जाएगा. यदि कोई अपराधबोध हो...तो वो भी पल भर में समाप्त हो जाएगा.”
बिस्वास जी के मन में अब तक जो संदेह था... वो अब विश्वास में बदल गया. वो भली भांति समझ गए कि बाबा जी यूँ ही उनसे पूछ रहे हैं; सत्य क्या है ये उनको पहले ही ज्ञात हो गया है.
कुछ देर की चुप्पी के बाद बिस्वास जी अचानक बाबा के पैरों पर गिर पड़े.
रोने लगे...
क्षमा याचना करने लगे.
“गुरूदेव... मुझे क्षमा कीजिए गुरूदेव... मेरी रक्षा कीजिए...!”
बिस्वास जी की अचानक ऐसी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देख कर कुछ क्षणों के लिए तो बाबा भी चकित से हो गए.
उन्होंने गौर किया..
बिस्वास जी वाकई रो रहे थे...
बिलख रहे थे.
बिलख बिलख कर क्षमा याचना कर रहे थे और स्वयं की रक्षार्थ हेतु प्रार्थना – निवेदन भी कर रहे थे.
बाबा तो पहले से जान रहे थे कि सत्य क्या है... अतः उन्हें बिस्वास जी के ऐसे व्यवहार पर अधिक आश्चर्य न हुआ. अपितु प्रसन्न ही हुए कि वो सत्य को कहने का साहस करते हुए गुरु चरणों में क्षमा की भी याचना कर रहे हैं.
मुस्कराते हुए अपने पैरों पर रखे बिस्वास जी के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा इतना ही बोले,
“शांत वत्स... शांत.”
बाबा के हाथ का स्पर्श अपने सिर पर पा कर बिस्वास जी फूले न समाए और अत्यधिक उद्गार से उनकी और भी अधिक रुलाई फूट पड़ी.
बाबा के स्नेह वचन और आशीर्वाद स्वरूप हाथ को सिर पर पा कर बिस्वास जी न केवल प्रसन्न हुए अपितु उनके अंदर एक नए साहस और विश्वास का संचार भी होने लगा.
बाबा के पैरों पर से सिर तो उठा लिया अपना पर अभी भी बाबा से नज़रें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे.
बाबा अभी भी गम्भीर रूप में ही थे.. फिर भी होंठों पर एक हल्की मुस्कान थी..
चांदू की ओर देखा...
और आँखों के संकेत से बिस्वास जी को पानी पिलाने के लिए कहा.
चांदू ने शीघ्र ही एक बड़े से तांबे के ग्लास में शीतल जल भर कर बिस्वास जी को दिया.
बिस्वास जी ने ग्लास तो ले लिया पर पीना तभी शुरू किए जब बाबा ने उन्हें दोबारा आदेश दिया.
पानी पी कर कुछ देर में रोने के कारण अपनी उखड़ती सांसों पर नियंत्रण पा कर बिस्वास जी शांत हुए पर अब भी कुछ बोले नहीं.
थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद जब बाबा ने देखा कि बिस्वास जी के कंठ से बोल नहीं फूटे तब उन्होंने ही एक धमाका करने का सोचा और एक हल्की सी मुस्कान लिए, परन्तु पूरी गम्भीरता से; पैरों के पास नीचे बैठे बिस्वास जी की ओर तनिक झुकते हुए कहा,
“वत्स, उस दिन तुम भी उन लोगों के साथ थे न?”
कहीं खोए हुए बिस्वास जी ने अनमने भाव से बाबा की ओर बिना देखे ही उत्तर दिया,
“कहाँ... कब ... किसके साथ?”
“उस दिन... जब उन दोनों युवक युवती को पूरा गाँव ढूँढ रहा था... उन लोगों में से एक तुम भी थे न?”
बाबा के इस प्रश्न ने वाकई एक धमाका किया बिस्वास जी के कानों में. पूरे बदन में बिजली सी दौड़ गई.
अपने स्थान पर बैठे बैठे ही लगभग उछलते हुए बाबा को शंकित नज़रों से देखा... मानो ये निश्चित करना चाहते हों कि अभी अभी उन्होंने जो सुना वो बाबा के ही श्रीमुख से निकली है.
बाबा एकटक बिस्वास जी की ओर देखते रहे... चश्मे के पीछे से झाँकती बिस्वास जी के विस्फारित नेत्रों पर टिकी थी बाबा की आँखें.
बिस्वास जी को अब भी कुछ बोलता न देख कर बाबा फिर बोले,
“उनमें से एक की मृत्यु का कारण स्वयं को मानते हो न?”
ये वाला प्रश्न पर्याप्त था बिस्वास जी को ये विश्वास दिलाने के लिए कि अब तो वो लाख चाह कर भी सच्चाई को अपने भले के लिए अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश भी नहीं कर सकता क्योंकि निश्चित ही ये भी बाबा के हाथों पकड़ी ही जाएगी.
झूठ बोलने का अब तो कोई मतलब ही नहीं रह गया था.
बिस्वास जी ने गले में जम गए थूक को निगला और निगलते हुए ही सिर हिला कर सहमति जताया.
बाबा के हाव भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया.
जिससे ये स्पष्ट हो गया कि वे ऐसे ही किसी उत्तर की अपेक्षा कर रहे थे.
“किसकी?”
धीर गम्भीर स्वर में उन्होंने अगला प्रश्न किया.
बड़ी कठिनाई से उत्तर निकला परन्तु बहुत ही धीमा,
“शौमक”
“ज़ोर से बोलो, बिस्वास.”
“श...शौमक.!”
हकलाते हुए अब भी कठिनाई से ही बोले बिस्वास जी.
“ह्म्म्म.” बाबा इतना ही बोले.
कदाचित अब दृष्टि फेरने की बारी बाबा की थी.
बिस्वास जी के मुँह से नाम सुनने के बाद बाबा तुरंत कुछ न बोलकर कमरे की खिड़की से बाहर देखने लगे. बाबा की चुप्पी ने तीनों; चांदू, गोपू और बिस्वास जी को सस्पेंस में डाल दिया.
थोड़ी देर बाद बाबा बिस्वास जी की ओर देखते हुए फिर पूछे,
“बिस्वास... अब जो पूछूँगा उसका उत्तर एकदम स्पष्ट शब्दों में देना... ठीक?”
मुखमंडल पर चिंता की आभा लिए बिस्वास जी सहमति जताते हुए ‘ठीक है गुरूदेव’ कहा.
“बिस्वास.... शौमक की मृत्यु हत्या थी या दुर्घटना?... स्मरण रहे... मैंने तुम्हें सब सच बताने के लिए कहा है.”
“ज...जी...!”
बाबा के इस प्रश्न ने तो निःसंदेह बिस्वास जी को अब भारी दबाव में ला दिया. हाथ में थामा हुआ ग्लास अब काँपने लगा. साँसें उखड़ने लगी. ललाट पर पसीने की कई बूँदें एक साथ छलक आईं.
स्वयं को संयत करने के लिए दोबारा होंठों को ग्लास से लगाया.
दो लंबे घूँट लगाए.
फिर बाबा की ओर देखा.
बाबा उत्तर की प्रतीक्षा में उन्हीं की ओर देख रहे थे.
“बाबा.. थी तो वो... दुर्घटना ही..”
“पर वास्तविकता में वो एक हत्या थी... यही न?”
बाबा ने बिस्वास जी के वाक्य को पूरा किया. जैसे ही बाबा ने इस वाक्य को कहा; वैसे ही तुरंत गोपू और चांदू की आँखें अविश्वास से बड़ी बड़ी हो गई.
बिस्वास जी ने सिर हिला कर धीमे स्वर में ‘जी’ कहा.
“कौन कौन सम्मिलित थे इस पाप कार्य में ?”
“लगभग सभी.”
“क्यों मारना चाहते थे सब उसे?”
“अ..अम.... व.. वो... काला जादू.... करता था... हानि करता था गाँव वालों का.... गुरूदेव.”
इस वाक्य को बिस्वास जी ने ऐसे कहा मानो वो अपने साथ साथ पूरे गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हों.
बाबा धीरे से हँस दिए...
बोले,
“तुम्हें कैसे पता वो काला जादू करता था?”
“ग..गाँव वालों.....”
“झूठ!”
बिस्वास जी के वाक्य को पूरा करने के पहले ही बाबा गरज उठे.. डांटते हुए उन्हें चुप कर दिया.
बाबा के क्रोध से बिस्वास जी सकपका गए.
कोई बहाना दे कर अपनी बात को सही ठहराने का साहस न किया.
“बिस्वास.. मैं बार बार कह रहा हूँ... सच बोलो. यदि तुम अपने साथ साथ समस्त गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हो तो सत्य कहो. कल गोपू ने तुम्हें बचा लिया था.. परन्तु हर बार... हमेशा तुम्हें बचाने के लिए नहीं रहने वाला. यदि पूर्ण सत्य नहीं बताओगे तो मैं भी तुम्हारी यथोचित रक्षा नहीं कर पाऊंगा और वो युवती जो कल तुम्हें लगभग मार ही चुकी थी; वो ज्यादा दिनों तक चुप नहीं बैठेगी. वो फिर हमला करेगी और कदाचित अगले हमले में वो वाकई में तुम्हें एक हौलनाक मृत्यु दे दे!”
बाबा के इस चेतावनी में भय का ऐसा पुट था कि बिस्वास जी के सिट्टी पिट्टी गुम हो गए.
हाथ जोड़ लिया...
फिर से क्षमा माँगी..
कहा,
“गुरूदेव... ग...गुरूदेव.... म..मैं....”
कहते हुए रो ही पड़े.
बाबा ने उनके सिर पर हाथ रख कर उन्हें सांत्वना दिया और चुप कराते हुए उनसे बगैर लाग लपेट के पूरी बात सच सच कह सुनाने को कहा.
“गुरूदेव... व.. वो... एक प्रकार से हत्या ही थी गुरूदेव... वह युवक बच सकता था... पर... पर... किसी ने सहायता नहीं की. उसका उस नदी तक पीछा करना... खास कर दक्षिण दिशा की ओर... वहाँ तक उसे दौड़ाते ... उसका पीछा करते हुए जाना .... सब.. कुछ... कुल मिलाकर एक प्रकार से उसकी हत्या ही है गुरूदेव.”
कहते हुए अब तो और भी बुरी तरह से बिलखने लगे थे बिस्वास जी. नदी की बात क्या करना; स्वयं उनकी आँखों से ही अश्रुओं की नदी बहने लगी. स्पष्ट था कि इस बात को... जोकि स्वयं एक प्रकार से रहस्य ही था आज तक; कहने में उन्हें बहुत कष्ट हुई है. सहज नहीं था इस रहस्य को स्वीकार कर पाना.
बिस्वास जी के इस प्रकार बिलखने से बाबा को बुरा तो लगा पर वो जानते हैं कि बिस्वास जी का ये पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं है! सत्य तो ये है कि बाबा को उनके योगबल से ही संपूर्ण सत्य का पता चल गया था परंतु वे बिस्वास जी के मुँह से सत्य जानना चाहते थे.
इसलिए धीरे से व बड़े प्यार से पूछे,
“और?”
बिस्वास जी तुरंत न बोले पर इस बार बाबा को भी अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी.
कुछ क्षण बाद बिस्वास जी स्वयं ही बोले,
“अ... व... व... उ.. उस हत्या... में मैं स्वयं भी भागीदार था.”
“वो कैसे?”
“म... मैंने...नहीं... म... .मैं चाहता था... वो... मरे..”
“क्यों?”
“क... क्योंकि.. मैं अवनी... अवनी... स...”
“हाँ... वत्स... आगे बोलो...”
“क्योंकि मैं अवनी से .... प्यार करता ... था... उस...उससे स... श.. शादी कर.. करना चाहता था.”
“और... ये अवनी कौन है वत्स?”
“अ.. अवनी है नहीं गुरूदेव... थी..”
“थी??”
“ज..जी गुरूदेव... व.. वो उस रात.. के दो दिन बाद मर गई.”
“कहाँ मरी थी वो?”
“जंगल.. जंगल में... फाँसी लगा कर.”
“ओह!”
“ज..जी गुरूदेव.”
अब धीरे धीरे पूरी विषयवस्तु बाबा के सामने स्पष्ट होती जा रही थी.
थोड़ा रुक कर बाबा फिर पूछे,
“फाँसी लगाने के लिए फंदा कहाँ से मिला होगा उसे...?”
“उसे फंदे के लिए अलग से किसी रस्सी वगैरह की क्या आवश्यकता थी गुरूदेव. व.. वो तो... स.. साड़ी को ही फंदा बना कर झूल गई.”
“ओह्ह... बहुत बुरा हुआ! ... अच्छा, तुम तो अवनी से प्रेम करते थे... है न?”
“जी.”
“उसे बताया नहीं कभी?”
“बताया था.. पर उसका कहना था कि वो पहले से ही किसी ओर से प्रेम करती है और जिससे प्रेम करती है; उसके प्रेम के सिवा अब किसी और का प्रेम नहीं चाहिए उसे.”
“तो तुमने क्या किया?”
“क..कई बार उसे मनाने का प्रयास किया.. पर सफल नहीं रहा.. वो उस शौमक के प्रेम में पूरी तरह अंधी थी... उस.. उस आवारा के पास था ही क्या...? एक टूटी फूटी झोंपड़ी... एक बूढ़ी माँ.. वही किसी तरह अपना और अपने उस निकम्मे बेटे का पेट पाल रही थी. क्या मिलता अवनी को ऐसे लड़के से शादी करके... उल्टे उस लड़के के ही वारे न्यारे होते अगर उसकी शादी अवनी से होती.. अगर अवनी उसकी पत्नी हो जाती... क्योंकि अवनी का परिवार काफ़ी धनी जो था.”
“लेकिन जब तुम देख ही रहे थे कि वह लड़की शौमक के अलावा किसी और के साथ शादी नहीं करना चाहती तो तुम्हें उसे छोड़ देना चाहिए था. उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए था.”
“व..वही तो नहीं हो पा रहा था मुझसे.. गुरूदेव.. मेरे तो जैसे मन में ही बैठ गया था कि मुझे अगर शादी करनी है तो इसी से करनी है.. नहीं तो.. नहीं तो..”
“नहीं तो क्या वत्स?”
अब तक ग्लास ज़मीन पर एक ओर रख चुके बिस्वास जी बाबा के इस प्रश्न पर उत्तर देने के स्थान पर अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ कर बैठ गए और बहुत धीमे स्वर में कहा,
“पता नहीं.. गुरूदेव... उस समय मुझे जो सूझता... मैं तब वही करता.”
“तो क्या इसलिए शौमक की सहायता नहीं की तुमने?”
“जी गुरूदेव. वो निकम्मा कामचोर... कोई माने या न माने गुरूदेव.. पर मैं और गाँव के और भी कई लोग ये जानते थे कि शौमक जादू टोना सीखता – करता था... और... आखिर में अवनी से शादी कर ही ली उसने. शादी की पहली रात भी मनाने वाला था. अवनी की शादी किसी ओर से होता देख मैं सहन तो नहीं कर पाता लेकिन फिर भी खुद को मना लेता. पर... पर... शौमक की उससे शादी की खबर सुन कर मैं तो बुरी तरह से गुस्से से पागल हो गया था. स्वयं पर इतना सा भी नियंत्रण न रख पाया. उसे मारना मेरा उद्देश्य नहीं था.. केवल प्रताड़ित करना चाहता था.. डराना चाहता था.. दंड देना चाहता था. जब देखा की वह नदी के उस दक्षिण दिशा के उस खास जगह में डूब रहा था तो यही सोच कर उसकी सहायता नहीं किया की चलो अब कम से कम अवनी को पाने का मार्ग कुछ तो सरल हुआ. पर... ”
बिस्वास जी के वाक्य को अब बाबा ने पूरा किया,
“पर कौन जानता था की नियति को कुछ और ही स्वीकार था... यही न!”
बिस्वास जी केवल सिर हिला कर सहमति जता पाए. उनकी आँखों से फिर अश्रुधारा बहने लगी.
बाबा ने कुछ कहा नहीं. बिस्वास जी को थोड़ी देर रो लेने का समय दिया ताकि उनका मन कुछ हल्का हो जाए.
बिस्वास जी जब शांत हुए तब,
“बिस्वास... बस एक अंतिम प्रश्न रह गया है पूछने को. आशा है की उसका भी तुम बिल्कुल सही उत्तर दोगे.”
“जी गुरूदेव.. अवश्य.. वैसे भी अब छुपाने को रह ही क्या गया है. आप पूछिए.”
“क्या हरिपद भी इन सब में बराबर का भागीदार था?”
एक क्षण के लिए बिस्वास जी चौंक पड़े.. लेकिन तुरंत ही सामान्य हो गए.
ये प्रश्न ऐसा अवश्य था जिसकी अभी बिस्वास जी ने कल्पना नहीं की थी पर अब जब बाबा ने पूछ ही लिया है तो बिस्वास जी को भली भांति पता है कि क्या उत्तर देना है.
“जी गुरूदेव. वो इन सब में भागीदार भी था और मेरा साझीदार भी था. उसे मेरी मंशा का पूरा पूरा भान था.”
दृढ़ स्वर में उत्तर दिया उन्होंने.
उनके उत्तर देने के दौरान बाबा उनके मुखमंडल को ऐसे देख रहे थे मानो कुछ पढ़ने – ताड़ने का प्रयास कर रहे हों.
कुछ और इधर उधर के प्रश्न करने के बाद बाबा ने बिस्वास जी को विदा किया. विदा करने से पहले एक मन्त्र सिद्ध माला भी दिया ताकि कोई बुरी शक्ति उनका हानि लाख चाह कर भी न कर पाए.
बिस्वास जी के जाने के बाद गोपू बड़े असमंजस भाव से बोल उठा,
“गुरु देव.. मैं जिसे अब तक सबसे अच्छा समझ रहा था; अंततः वही बुरा निकला?!”
बाबा मुस्कराए और बोले,
“तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ. तुम्हारा प्रश्न सर्वथा उचित ही है. इस संसार में अक्सर ही ऐसा होता है वत्स.. किसी को कुछ समझो तो वो कुछ और ही समझा जाता है.”
अब चांदू बोला,
“तो इसका ये मतलब हुआ क्या गुरूदेव कि ये पूरा गाँव... सभी गाँव वाले दोषी हैं?”
“नहीं वत्स.. गाँव वाले तो अवनी के घर वालों के साथ मिल कर बस उन दोनों को पकड़ना चाहते थे.. पकड़ कर उचित दंड भी देते.. लेकिन हत्या जैसा जघन्य अपराध नहीं करते.. पर ये जो कुछ भी हुआ है.. इसका दोषी तो बिस्वास, हरिपद और उनके कुछ साथी हैं जो इस पूरे घटनाक्रम को अपने लाभ हेतु दुरूपयोग करते हुए इसे दूसरा ही रूप दे दिया.”
“परन्तु गुरूदेव... लोग जो इस तरह मर रहे हैं... इसका कारण?”
“वत्स, कारण या तो बिस्वास की कही गई घटना से जुड़ी हो सकती है या फ़िर इस कारण के पीछे कोई और कारण हो सकता है.”
“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं गुरूदेव?”
चांदू ने ऐसे प्रश्न किया मानो उसे अब भी बाबा के बातों में कुछ अजीब होने की आशंका हो रही है.
“ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसा ही कुछ होने का आभास हो रहा है मुझे. दक्षिण दिशा में नदी में डूब कर प्राण गँवाने वाले शौमक का क्रोध, उसकी प्रतिशोध की भावना तो समझ में आ रही है.. पर.. जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण मुझे फ़िलहाल समझ में नहीं आ रहा है.”
“आपका अर्थ समझ में नहीं आया गुरूदेव.. क्या नदी में जितनी भी मृत्यु हुई है.. सब शौमक की आत्मा ने किया है?”
“हाँ वत्स, नदी के उस भाग में आज तक जितनी भी मृत्यु हुई है; उन सब के पीछे शौमक की आत्मा का ही हाथ है. सभी मरने वाले या तो विवाहिता या फिर नवयौवनाएँ थीं. इसका यही अर्थ हो सकता है कि विवाह के तुरंत बाद वाली क्रिया पूर्ण न हो पाने के कारण ही वो औरतों और युवतियों को दक्षिण भाग के भंवर में फँसा कर पहले अपनी तुष्टि करता है; फ़िर निर्दयता के साथ मार देता है.. किन्तु... जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण समझ में नहीं आ रहे हैं. शौमक मरता नहीं यदि पूरे परिदृश्य की संरचना वैसी नहीं होती जैसा की बिस्वास ने कुछ देर पहले हमें बताया था. लेकिन अवनी ने तो जंगल में आत्महत्या की थी. उसके घर वाले तो उसे ले जाने गए थे.. सकुशल.. तो फिर... आत्महत्या क्यों की? क्या वो भी विवाह की पहली रात न मना पाने के कारण दुखी थी? क्या ये दुःख इतना बड़ा था कि आत्महत्या कर ली जाए?”
बाबा के इस प्रश्न का उत्तर दोनों शिष्यों में से किसी के पास भी नहीं था और स्वयं बाबा के पास भी नहीं.
सभी कुछ देर तक चुप रहते हुए कुछ न कुछ; अंदर ही अंदर सोच रहे थे कि बाबा फिर बोल पड़े,
“सच कहूँ तो शौमक और अवनी से संबंधित प्रश्न मुझे उतना दुविधा में नहीं डाल रहे जितना की उस युवती का उद्देश्य जो उस दिन बिस्वास को प्रायः मार ही चुकी थी...”
सुनते ही गोपू तपाक से बोल उठा,
“कौन? वो... अ... क्या नाम... हाँ... लाडली??”
“हाँ.. लाडली. वो वहाँ क्यों थी... वो भला बिस्वास को क्यों मारना चाहेगी.. और तो और... उसे भेजने.. उससे कार्य करवाने की क्षमता भला किस में है?”
“क्यों गुरूदेव.. आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
“क्योंकि वो कोई साधारण मनुष्य नहीं थी.. अरे साधारण तो क्या.. वो तो कोई मनुष्य ही नहीं थी. ये बात तो मैं पहले भी बता चुका हूँ तुम लोगों को.”
“जी गुरूदेव. परन्तु कृप्या ये बताइए कि आप उस लाडली को लेकर बारम्बार चिंतित क्यों हुए जा रहे हैं? क्या वो ही अवनी नहीं थी? क्या आप उसे जानते हैं?”
“नहीं. वो अवनी नहीं थी. गोपू के माध्यम से गोपू के साथ साथ मैंने भी उसके शरीर की ऊर्जा अनुभव किया है.. और अनुभव करते ही मैं जान गया था कि वो कौन है. इसलिए मैं चिंतित हूँ कि उससे अपना कार्यसिद्ध करवाने की क्षमता रखने वाला कौन है.. कौन है वो जिसने इस लाडली को भेजा था क्योंकि जिसने भी लाडली को भेजा था वह निःसंदेह काफ़ी क्षमतावान सिद्धहस्त है... क्योंकि ये लाडली तो स्वयं अपने आप में बहुत.. बहुत ही शक्तिशाली चीज़ है.”
गोपू और चांदू ने एक दूसरे को देखा.. फिर एक साथ ही पूछा,
“व.. वो.. कौन थी, गुरूदेव?”
बाबा का चेहरा बहुत ही गम्भीर हो गया.
शरीर एक ऐसे भाव में आ गया मानो तुरंत ही किसी अदृश्य सुरक्षा कवच से स्वयं के साथ साथ अपने शिष्यों को भी घेर लिया हो.
चेहरे के भाव उनके हृदय की अवस्था की स्पष्ट चुगली करने लगे की बाबा चिंतित तो हैं लेकिन दृढ़ संकल्पित भी हैं.
बाबा को चुप देख गोपू और चांदू ने फिर एक दूसरे को देखा.
फिर बाबा को देखा.
अपने स्थान से थोड़ा आगे बढ़ कर बाबा के थोड़ा निकट आए दोनों.
और दोबारा अपना प्रश्न किया,
“वो कौन थी गुरूदेव?”
प्रश्न के समाप्त होते ही बाबा बोल पड़े; एकदम सर्द... भाव रहित अंदाज़ में,
“चंडूलिका !!”
“सब सच सच बताओ बिस्वास...”
“म..मम.. मैं...क्या बताऊँ गुरूदेव?”
“वही जो मैं जानना चाहता हूँ.
बिस्वास चुप.. कोई आवाज़ नहीं.. कोई शब्द नहीं. नज़रें झुका कर इधर उधर देखने लगते हैं.
परन्तु बाबा जी के चेहरे के भावों पर कोई अंतर नहीं दिखा.
अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से वो बिस्वास के चेहरे रुपी दुर्ग पर कड़ा प्रहार कर रहे थे. उनका तेज़ सह पाना उच्च स्तरीय ज्ञानी और सिद्ध पुरुष के लिए भी सरल नहीं था तो बिस्वास तो मात्र एक साधारण मनुष्य है.
थूक निगलते हुए उन्होंने अपने गुरूजी की ओर देखा.
समझने में अब कोई परेशानी नहीं रही कि गुरूजी बिना सत्य जाने नहीं मानने वाले. गुरूजी एक बहुत ही उच्च स्तर के सिद्ध पुरुष हैं ये तो बिस्वास जी जानते ही थें परन्तु वो भूतकाल का भी आंकलन कर सकते हैं ये कभी नहीं सोचा था.
फिर भी बात को टालने के लिए एक और प्रयास ... अंतिम प्रयास करने का सोचा उन्होंने.
नासमझ व भोला बनने का प्रयत्न करते हुए एक बार फिर बाबा के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा,
“गुरूदेव... मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ. किस सत्य को बताने को कह रहे हैं आप? कब की बात है? कौन सी बात है? म.. मैं....”
बिस्वास जी और कुछ कहे उसके पहले ही बाबा ने हाथ उठा कर उसे चुप हो जाने का संकेत किया.
विचार और कथन में पूरी स्थिरता और चेहरे पर गम्भीरता लिए बाबा ने कहा,
“देखो बिस्वास... मैं और तुम... दोनों ही जानते हैं कि जो सत्य अब तक सबसे छुपा हुआ है उसे अब सामने आना चाहिए और मुझसे कोई भी सत्य छिप नहीं सकता. जानते हो न इस बात को?”
बिस्वास जी आँखें नीची करते हुए सहमति में सिर हिलाया.
बाबा बोले,
“तो जब तुम जानते ही हो इस बात को तो फिर क्यों कुछ छुपाने का प्रयास कर रहे हो? जो भी सत्य है; चाहे वो कितना भी कड़वा क्यों न हो... आखिर सत्य ही है. देर सवेर हमें सत्य को अपनाना ही पड़ता है. सत्य की यही एक सबसे बड़ी गुण होती है कि वो सदैव स्वयं को सामने प्रकट करने के लिए तत्पर रहता है. जैसे कितना भी घनघोर वर्षा क्यों न हो... कितनी भी काली घटा क्यों न छाई रहे.. सूर्य निकलता ही निकलता है... ठीक वैसे ही, सत्य चाहे कैसा भी क्यों न हो; सत्य आखिर में सत्य ही होता है.”
अपनी बात को कहते कहते बाबा बिस्वास जी के हाव भाव पर गौर कर रहे थे.
बाबा द्वारा कही गई बातों से बिस्वास के मन में जमी कोई बर्फ पिघल रही है... उसे कुछ अपराधबोध हो रहा है... ये बात बाबा के अनुभवी आँखों ने तुरंत ही ताड़ लिया.
“कहो बिस्वास. डरो नहीं... यदि उस सत्य में तुम्हारी किसी तरह की भूमिका हो भी तो यदि तुम स्वीकार कर लो तो तुम पर से बोझ उतर जाएगा. यदि कोई अपराधबोध हो...तो वो भी पल भर में समाप्त हो जाएगा.”
बिस्वास जी के मन में अब तक जो संदेह था... वो अब विश्वास में बदल गया. वो भली भांति समझ गए कि बाबा जी यूँ ही उनसे पूछ रहे हैं; सत्य क्या है ये उनको पहले ही ज्ञात हो गया है.
कुछ देर की चुप्पी के बाद बिस्वास जी अचानक बाबा के पैरों पर गिर पड़े.
रोने लगे...
क्षमा याचना करने लगे.
“गुरूदेव... मुझे क्षमा कीजिए गुरूदेव... मेरी रक्षा कीजिए...!”
बिस्वास जी की अचानक ऐसी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देख कर कुछ क्षणों के लिए तो बाबा भी चकित से हो गए.
उन्होंने गौर किया..
बिस्वास जी वाकई रो रहे थे...
बिलख रहे थे.
बिलख बिलख कर क्षमा याचना कर रहे थे और स्वयं की रक्षार्थ हेतु प्रार्थना – निवेदन भी कर रहे थे.
बाबा तो पहले से जान रहे थे कि सत्य क्या है... अतः उन्हें बिस्वास जी के ऐसे व्यवहार पर अधिक आश्चर्य न हुआ. अपितु प्रसन्न ही हुए कि वो सत्य को कहने का साहस करते हुए गुरु चरणों में क्षमा की भी याचना कर रहे हैं.
मुस्कराते हुए अपने पैरों पर रखे बिस्वास जी के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा इतना ही बोले,
“शांत वत्स... शांत.”
बाबा के हाथ का स्पर्श अपने सिर पर पा कर बिस्वास जी फूले न समाए और अत्यधिक उद्गार से उनकी और भी अधिक रुलाई फूट पड़ी.
बाबा के स्नेह वचन और आशीर्वाद स्वरूप हाथ को सिर पर पा कर बिस्वास जी न केवल प्रसन्न हुए अपितु उनके अंदर एक नए साहस और विश्वास का संचार भी होने लगा.
बाबा के पैरों पर से सिर तो उठा लिया अपना पर अभी भी बाबा से नज़रें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे.
बाबा अभी भी गम्भीर रूप में ही थे.. फिर भी होंठों पर एक हल्की मुस्कान थी..
चांदू की ओर देखा...
और आँखों के संकेत से बिस्वास जी को पानी पिलाने के लिए कहा.
चांदू ने शीघ्र ही एक बड़े से तांबे के ग्लास में शीतल जल भर कर बिस्वास जी को दिया.
बिस्वास जी ने ग्लास तो ले लिया पर पीना तभी शुरू किए जब बाबा ने उन्हें दोबारा आदेश दिया.
पानी पी कर कुछ देर में रोने के कारण अपनी उखड़ती सांसों पर नियंत्रण पा कर बिस्वास जी शांत हुए पर अब भी कुछ बोले नहीं.
थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद जब बाबा ने देखा कि बिस्वास जी के कंठ से बोल नहीं फूटे तब उन्होंने ही एक धमाका करने का सोचा और एक हल्की सी मुस्कान लिए, परन्तु पूरी गम्भीरता से; पैरों के पास नीचे बैठे बिस्वास जी की ओर तनिक झुकते हुए कहा,
“वत्स, उस दिन तुम भी उन लोगों के साथ थे न?”
कहीं खोए हुए बिस्वास जी ने अनमने भाव से बाबा की ओर बिना देखे ही उत्तर दिया,
“कहाँ... कब ... किसके साथ?”
“उस दिन... जब उन दोनों युवक युवती को पूरा गाँव ढूँढ रहा था... उन लोगों में से एक तुम भी थे न?”
बाबा के इस प्रश्न ने वाकई एक धमाका किया बिस्वास जी के कानों में. पूरे बदन में बिजली सी दौड़ गई.
अपने स्थान पर बैठे बैठे ही लगभग उछलते हुए बाबा को शंकित नज़रों से देखा... मानो ये निश्चित करना चाहते हों कि अभी अभी उन्होंने जो सुना वो बाबा के ही श्रीमुख से निकली है.
बाबा एकटक बिस्वास जी की ओर देखते रहे... चश्मे के पीछे से झाँकती बिस्वास जी के विस्फारित नेत्रों पर टिकी थी बाबा की आँखें.
बिस्वास जी को अब भी कुछ बोलता न देख कर बाबा फिर बोले,
“उनमें से एक की मृत्यु का कारण स्वयं को मानते हो न?”
ये वाला प्रश्न पर्याप्त था बिस्वास जी को ये विश्वास दिलाने के लिए कि अब तो वो लाख चाह कर भी सच्चाई को अपने भले के लिए अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश भी नहीं कर सकता क्योंकि निश्चित ही ये भी बाबा के हाथों पकड़ी ही जाएगी.
झूठ बोलने का अब तो कोई मतलब ही नहीं रह गया था.
बिस्वास जी ने गले में जम गए थूक को निगला और निगलते हुए ही सिर हिला कर सहमति जताया.
बाबा के हाव भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया.
जिससे ये स्पष्ट हो गया कि वे ऐसे ही किसी उत्तर की अपेक्षा कर रहे थे.
“किसकी?”
धीर गम्भीर स्वर में उन्होंने अगला प्रश्न किया.
बड़ी कठिनाई से उत्तर निकला परन्तु बहुत ही धीमा,
“शौमक”
“ज़ोर से बोलो, बिस्वास.”
“श...शौमक.!”
हकलाते हुए अब भी कठिनाई से ही बोले बिस्वास जी.
“ह्म्म्म.” बाबा इतना ही बोले.
कदाचित अब दृष्टि फेरने की बारी बाबा की थी.
बिस्वास जी के मुँह से नाम सुनने के बाद बाबा तुरंत कुछ न बोलकर कमरे की खिड़की से बाहर देखने लगे. बाबा की चुप्पी ने तीनों; चांदू, गोपू और बिस्वास जी को सस्पेंस में डाल दिया.
थोड़ी देर बाद बाबा बिस्वास जी की ओर देखते हुए फिर पूछे,
“बिस्वास... अब जो पूछूँगा उसका उत्तर एकदम स्पष्ट शब्दों में देना... ठीक?”
मुखमंडल पर चिंता की आभा लिए बिस्वास जी सहमति जताते हुए ‘ठीक है गुरूदेव’ कहा.
“बिस्वास.... शौमक की मृत्यु हत्या थी या दुर्घटना?... स्मरण रहे... मैंने तुम्हें सब सच बताने के लिए कहा है.”
“ज...जी...!”
बाबा के इस प्रश्न ने तो निःसंदेह बिस्वास जी को अब भारी दबाव में ला दिया. हाथ में थामा हुआ ग्लास अब काँपने लगा. साँसें उखड़ने लगी. ललाट पर पसीने की कई बूँदें एक साथ छलक आईं.
स्वयं को संयत करने के लिए दोबारा होंठों को ग्लास से लगाया.
दो लंबे घूँट लगाए.
फिर बाबा की ओर देखा.
बाबा उत्तर की प्रतीक्षा में उन्हीं की ओर देख रहे थे.
“बाबा.. थी तो वो... दुर्घटना ही..”
“पर वास्तविकता में वो एक हत्या थी... यही न?”
बाबा ने बिस्वास जी के वाक्य को पूरा किया. जैसे ही बाबा ने इस वाक्य को कहा; वैसे ही तुरंत गोपू और चांदू की आँखें अविश्वास से बड़ी बड़ी हो गई.
बिस्वास जी ने सिर हिला कर धीमे स्वर में ‘जी’ कहा.
“कौन कौन सम्मिलित थे इस पाप कार्य में ?”
“लगभग सभी.”
“क्यों मारना चाहते थे सब उसे?”
“अ..अम.... व.. वो... काला जादू.... करता था... हानि करता था गाँव वालों का.... गुरूदेव.”
इस वाक्य को बिस्वास जी ने ऐसे कहा मानो वो अपने साथ साथ पूरे गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हों.
बाबा धीरे से हँस दिए...
बोले,
“तुम्हें कैसे पता वो काला जादू करता था?”
“ग..गाँव वालों.....”
“झूठ!”
बिस्वास जी के वाक्य को पूरा करने के पहले ही बाबा गरज उठे.. डांटते हुए उन्हें चुप कर दिया.
बाबा के क्रोध से बिस्वास जी सकपका गए.
कोई बहाना दे कर अपनी बात को सही ठहराने का साहस न किया.
“बिस्वास.. मैं बार बार कह रहा हूँ... सच बोलो. यदि तुम अपने साथ साथ समस्त गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हो तो सत्य कहो. कल गोपू ने तुम्हें बचा लिया था.. परन्तु हर बार... हमेशा तुम्हें बचाने के लिए नहीं रहने वाला. यदि पूर्ण सत्य नहीं बताओगे तो मैं भी तुम्हारी यथोचित रक्षा नहीं कर पाऊंगा और वो युवती जो कल तुम्हें लगभग मार ही चुकी थी; वो ज्यादा दिनों तक चुप नहीं बैठेगी. वो फिर हमला करेगी और कदाचित अगले हमले में वो वाकई में तुम्हें एक हौलनाक मृत्यु दे दे!”
बाबा के इस चेतावनी में भय का ऐसा पुट था कि बिस्वास जी के सिट्टी पिट्टी गुम हो गए.
हाथ जोड़ लिया...
फिर से क्षमा माँगी..
कहा,
“गुरूदेव... ग...गुरूदेव.... म..मैं....”
कहते हुए रो ही पड़े.
बाबा ने उनके सिर पर हाथ रख कर उन्हें सांत्वना दिया और चुप कराते हुए उनसे बगैर लाग लपेट के पूरी बात सच सच कह सुनाने को कहा.
“गुरूदेव... व.. वो... एक प्रकार से हत्या ही थी गुरूदेव... वह युवक बच सकता था... पर... पर... किसी ने सहायता नहीं की. उसका उस नदी तक पीछा करना... खास कर दक्षिण दिशा की ओर... वहाँ तक उसे दौड़ाते ... उसका पीछा करते हुए जाना .... सब.. कुछ... कुल मिलाकर एक प्रकार से उसकी हत्या ही है गुरूदेव.”
कहते हुए अब तो और भी बुरी तरह से बिलखने लगे थे बिस्वास जी. नदी की बात क्या करना; स्वयं उनकी आँखों से ही अश्रुओं की नदी बहने लगी. स्पष्ट था कि इस बात को... जोकि स्वयं एक प्रकार से रहस्य ही था आज तक; कहने में उन्हें बहुत कष्ट हुई है. सहज नहीं था इस रहस्य को स्वीकार कर पाना.
बिस्वास जी के इस प्रकार बिलखने से बाबा को बुरा तो लगा पर वो जानते हैं कि बिस्वास जी का ये पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं है! सत्य तो ये है कि बाबा को उनके योगबल से ही संपूर्ण सत्य का पता चल गया था परंतु वे बिस्वास जी के मुँह से सत्य जानना चाहते थे.
इसलिए धीरे से व बड़े प्यार से पूछे,
“और?”
बिस्वास जी तुरंत न बोले पर इस बार बाबा को भी अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी.
कुछ क्षण बाद बिस्वास जी स्वयं ही बोले,
“अ... व... व... उ.. उस हत्या... में मैं स्वयं भी भागीदार था.”
“वो कैसे?”
“म... मैंने...नहीं... म... .मैं चाहता था... वो... मरे..”
“क्यों?”
“क... क्योंकि.. मैं अवनी... अवनी... स...”
“हाँ... वत्स... आगे बोलो...”
“क्योंकि मैं अवनी से .... प्यार करता ... था... उस...उससे स... श.. शादी कर.. करना चाहता था.”
“और... ये अवनी कौन है वत्स?”
“अ.. अवनी है नहीं गुरूदेव... थी..”
“थी??”
“ज..जी गुरूदेव... व.. वो उस रात.. के दो दिन बाद मर गई.”
“कहाँ मरी थी वो?”
“जंगल.. जंगल में... फाँसी लगा कर.”
“ओह!”
“ज..जी गुरूदेव.”
अब धीरे धीरे पूरी विषयवस्तु बाबा के सामने स्पष्ट होती जा रही थी.
थोड़ा रुक कर बाबा फिर पूछे,
“फाँसी लगाने के लिए फंदा कहाँ से मिला होगा उसे...?”
“उसे फंदे के लिए अलग से किसी रस्सी वगैरह की क्या आवश्यकता थी गुरूदेव. व.. वो तो... स.. साड़ी को ही फंदा बना कर झूल गई.”
“ओह्ह... बहुत बुरा हुआ! ... अच्छा, तुम तो अवनी से प्रेम करते थे... है न?”
“जी.”
“उसे बताया नहीं कभी?”
“बताया था.. पर उसका कहना था कि वो पहले से ही किसी ओर से प्रेम करती है और जिससे प्रेम करती है; उसके प्रेम के सिवा अब किसी और का प्रेम नहीं चाहिए उसे.”
“तो तुमने क्या किया?”
“क..कई बार उसे मनाने का प्रयास किया.. पर सफल नहीं रहा.. वो उस शौमक के प्रेम में पूरी तरह अंधी थी... उस.. उस आवारा के पास था ही क्या...? एक टूटी फूटी झोंपड़ी... एक बूढ़ी माँ.. वही किसी तरह अपना और अपने उस निकम्मे बेटे का पेट पाल रही थी. क्या मिलता अवनी को ऐसे लड़के से शादी करके... उल्टे उस लड़के के ही वारे न्यारे होते अगर उसकी शादी अवनी से होती.. अगर अवनी उसकी पत्नी हो जाती... क्योंकि अवनी का परिवार काफ़ी धनी जो था.”
“लेकिन जब तुम देख ही रहे थे कि वह लड़की शौमक के अलावा किसी और के साथ शादी नहीं करना चाहती तो तुम्हें उसे छोड़ देना चाहिए था. उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए था.”
“व..वही तो नहीं हो पा रहा था मुझसे.. गुरूदेव.. मेरे तो जैसे मन में ही बैठ गया था कि मुझे अगर शादी करनी है तो इसी से करनी है.. नहीं तो.. नहीं तो..”
“नहीं तो क्या वत्स?”
अब तक ग्लास ज़मीन पर एक ओर रख चुके बिस्वास जी बाबा के इस प्रश्न पर उत्तर देने के स्थान पर अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ कर बैठ गए और बहुत धीमे स्वर में कहा,
“पता नहीं.. गुरूदेव... उस समय मुझे जो सूझता... मैं तब वही करता.”
“तो क्या इसलिए शौमक की सहायता नहीं की तुमने?”
“जी गुरूदेव. वो निकम्मा कामचोर... कोई माने या न माने गुरूदेव.. पर मैं और गाँव के और भी कई लोग ये जानते थे कि शौमक जादू टोना सीखता – करता था... और... आखिर में अवनी से शादी कर ही ली उसने. शादी की पहली रात भी मनाने वाला था. अवनी की शादी किसी ओर से होता देख मैं सहन तो नहीं कर पाता लेकिन फिर भी खुद को मना लेता. पर... पर... शौमक की उससे शादी की खबर सुन कर मैं तो बुरी तरह से गुस्से से पागल हो गया था. स्वयं पर इतना सा भी नियंत्रण न रख पाया. उसे मारना मेरा उद्देश्य नहीं था.. केवल प्रताड़ित करना चाहता था.. डराना चाहता था.. दंड देना चाहता था. जब देखा की वह नदी के उस दक्षिण दिशा के उस खास जगह में डूब रहा था तो यही सोच कर उसकी सहायता नहीं किया की चलो अब कम से कम अवनी को पाने का मार्ग कुछ तो सरल हुआ. पर... ”
बिस्वास जी के वाक्य को अब बाबा ने पूरा किया,
“पर कौन जानता था की नियति को कुछ और ही स्वीकार था... यही न!”
बिस्वास जी केवल सिर हिला कर सहमति जता पाए. उनकी आँखों से फिर अश्रुधारा बहने लगी.
बाबा ने कुछ कहा नहीं. बिस्वास जी को थोड़ी देर रो लेने का समय दिया ताकि उनका मन कुछ हल्का हो जाए.
बिस्वास जी जब शांत हुए तब,
“बिस्वास... बस एक अंतिम प्रश्न रह गया है पूछने को. आशा है की उसका भी तुम बिल्कुल सही उत्तर दोगे.”
“जी गुरूदेव.. अवश्य.. वैसे भी अब छुपाने को रह ही क्या गया है. आप पूछिए.”
“क्या हरिपद भी इन सब में बराबर का भागीदार था?”
एक क्षण के लिए बिस्वास जी चौंक पड़े.. लेकिन तुरंत ही सामान्य हो गए.
ये प्रश्न ऐसा अवश्य था जिसकी अभी बिस्वास जी ने कल्पना नहीं की थी पर अब जब बाबा ने पूछ ही लिया है तो बिस्वास जी को भली भांति पता है कि क्या उत्तर देना है.
“जी गुरूदेव. वो इन सब में भागीदार भी था और मेरा साझीदार भी था. उसे मेरी मंशा का पूरा पूरा भान था.”
दृढ़ स्वर में उत्तर दिया उन्होंने.
उनके उत्तर देने के दौरान बाबा उनके मुखमंडल को ऐसे देख रहे थे मानो कुछ पढ़ने – ताड़ने का प्रयास कर रहे हों.
कुछ और इधर उधर के प्रश्न करने के बाद बाबा ने बिस्वास जी को विदा किया. विदा करने से पहले एक मन्त्र सिद्ध माला भी दिया ताकि कोई बुरी शक्ति उनका हानि लाख चाह कर भी न कर पाए.
बिस्वास जी के जाने के बाद गोपू बड़े असमंजस भाव से बोल उठा,
“गुरु देव.. मैं जिसे अब तक सबसे अच्छा समझ रहा था; अंततः वही बुरा निकला?!”
बाबा मुस्कराए और बोले,
“तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ. तुम्हारा प्रश्न सर्वथा उचित ही है. इस संसार में अक्सर ही ऐसा होता है वत्स.. किसी को कुछ समझो तो वो कुछ और ही समझा जाता है.”
अब चांदू बोला,
“तो इसका ये मतलब हुआ क्या गुरूदेव कि ये पूरा गाँव... सभी गाँव वाले दोषी हैं?”
“नहीं वत्स.. गाँव वाले तो अवनी के घर वालों के साथ मिल कर बस उन दोनों को पकड़ना चाहते थे.. पकड़ कर उचित दंड भी देते.. लेकिन हत्या जैसा जघन्य अपराध नहीं करते.. पर ये जो कुछ भी हुआ है.. इसका दोषी तो बिस्वास, हरिपद और उनके कुछ साथी हैं जो इस पूरे घटनाक्रम को अपने लाभ हेतु दुरूपयोग करते हुए इसे दूसरा ही रूप दे दिया.”
“परन्तु गुरूदेव... लोग जो इस तरह मर रहे हैं... इसका कारण?”
“वत्स, कारण या तो बिस्वास की कही गई घटना से जुड़ी हो सकती है या फ़िर इस कारण के पीछे कोई और कारण हो सकता है.”
“आप ऐसा क्यों कह रहे हैं गुरूदेव?”
चांदू ने ऐसे प्रश्न किया मानो उसे अब भी बाबा के बातों में कुछ अजीब होने की आशंका हो रही है.
“ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसा ही कुछ होने का आभास हो रहा है मुझे. दक्षिण दिशा में नदी में डूब कर प्राण गँवाने वाले शौमक का क्रोध, उसकी प्रतिशोध की भावना तो समझ में आ रही है.. पर.. जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण मुझे फ़िलहाल समझ में नहीं आ रहा है.”
“आपका अर्थ समझ में नहीं आया गुरूदेव.. क्या नदी में जितनी भी मृत्यु हुई है.. सब शौमक की आत्मा ने किया है?”
“हाँ वत्स, नदी के उस भाग में आज तक जितनी भी मृत्यु हुई है; उन सब के पीछे शौमक की आत्मा का ही हाथ है. सभी मरने वाले या तो विवाहिता या फिर नवयौवनाएँ थीं. इसका यही अर्थ हो सकता है कि विवाह के तुरंत बाद वाली क्रिया पूर्ण न हो पाने के कारण ही वो औरतों और युवतियों को दक्षिण भाग के भंवर में फँसा कर पहले अपनी तुष्टि करता है; फ़िर निर्दयता के साथ मार देता है.. किन्तु... जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण समझ में नहीं आ रहे हैं. शौमक मरता नहीं यदि पूरे परिदृश्य की संरचना वैसी नहीं होती जैसा की बिस्वास ने कुछ देर पहले हमें बताया था. लेकिन अवनी ने तो जंगल में आत्महत्या की थी. उसके घर वाले तो उसे ले जाने गए थे.. सकुशल.. तो फिर... आत्महत्या क्यों की? क्या वो भी विवाह की पहली रात न मना पाने के कारण दुखी थी? क्या ये दुःख इतना बड़ा था कि आत्महत्या कर ली जाए?”
बाबा के इस प्रश्न का उत्तर दोनों शिष्यों में से किसी के पास भी नहीं था और स्वयं बाबा के पास भी नहीं.
सभी कुछ देर तक चुप रहते हुए कुछ न कुछ; अंदर ही अंदर सोच रहे थे कि बाबा फिर बोल पड़े,
“सच कहूँ तो शौमक और अवनी से संबंधित प्रश्न मुझे उतना दुविधा में नहीं डाल रहे जितना की उस युवती का उद्देश्य जो उस दिन बिस्वास को प्रायः मार ही चुकी थी...”
सुनते ही गोपू तपाक से बोल उठा,
“कौन? वो... अ... क्या नाम... हाँ... लाडली??”
“हाँ.. लाडली. वो वहाँ क्यों थी... वो भला बिस्वास को क्यों मारना चाहेगी.. और तो और... उसे भेजने.. उससे कार्य करवाने की क्षमता भला किस में है?”
“क्यों गुरूदेव.. आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?”
“क्योंकि वो कोई साधारण मनुष्य नहीं थी.. अरे साधारण तो क्या.. वो तो कोई मनुष्य ही नहीं थी. ये बात तो मैं पहले भी बता चुका हूँ तुम लोगों को.”
“जी गुरूदेव. परन्तु कृप्या ये बताइए कि आप उस लाडली को लेकर बारम्बार चिंतित क्यों हुए जा रहे हैं? क्या वो ही अवनी नहीं थी? क्या आप उसे जानते हैं?”
“नहीं. वो अवनी नहीं थी. गोपू के माध्यम से गोपू के साथ साथ मैंने भी उसके शरीर की ऊर्जा अनुभव किया है.. और अनुभव करते ही मैं जान गया था कि वो कौन है. इसलिए मैं चिंतित हूँ कि उससे अपना कार्यसिद्ध करवाने की क्षमता रखने वाला कौन है.. कौन है वो जिसने इस लाडली को भेजा था क्योंकि जिसने भी लाडली को भेजा था वह निःसंदेह काफ़ी क्षमतावान सिद्धहस्त है... क्योंकि ये लाडली तो स्वयं अपने आप में बहुत.. बहुत ही शक्तिशाली चीज़ है.”
गोपू और चांदू ने एक दूसरे को देखा.. फिर एक साथ ही पूछा,
“व.. वो.. कौन थी, गुरूदेव?”
बाबा का चेहरा बहुत ही गम्भीर हो गया.
शरीर एक ऐसे भाव में आ गया मानो तुरंत ही किसी अदृश्य सुरक्षा कवच से स्वयं के साथ साथ अपने शिष्यों को भी घेर लिया हो.
चेहरे के भाव उनके हृदय की अवस्था की स्पष्ट चुगली करने लगे की बाबा चिंतित तो हैं लेकिन दृढ़ संकल्पित भी हैं.
बाबा को चुप देख गोपू और चांदू ने फिर एक दूसरे को देखा.
फिर बाबा को देखा.
अपने स्थान से थोड़ा आगे बढ़ कर बाबा के थोड़ा निकट आए दोनों.
और दोबारा अपना प्रश्न किया,
“वो कौन थी गुरूदेव?”
प्रश्न के समाप्त होते ही बाबा बोल पड़े; एकदम सर्द... भाव रहित अंदाज़ में,
“चंडूलिका !!”