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भाग 6 चालु.....
दृश्य में बदलाव
श्रृष्टि को साथ लिए साक्षी एक कमरे में पहुंची जिसे देखकर ही बतलाया जा सकता हैं। ये एक आर्किटेक का स्प्रेट कार्यालय है मगर ऐसा नहीं था वह पहले से ही चार पांच लोग मौजूद थे। उन सभी को आवाज़ देते हुए साक्षी बोला... हैलो गायेज इनसे मिलो इनका नाम है श्रृष्टि आज ही ज्वाइन किया हैं और अगले एक हफ्ते तक हमारे साथ काम करेंगे।
"नाईस नेम एंड स्वीट गर्ल।" "सो स्वीट नेम एंड सेक्सी गर्ल।" ऐसे तरह तरह के कॉमेंट सभी ने पास किया। जो श्रृष्टि को पसन्द नहीं आया मगर वो जानती थी इस तरह का कॉमेंट आम बात हैं। जो अमूमन साथ में काम करने वालो से सुनने को मिल जाता हैं। इसलिए ज्यादा बुरा नहीं माना, एक एक कर अपने बारे में बताते जा रहें थे। वो कहा से हैं, पहले कहा काम करता था। यह तक कैसे पंहुचा अब तक कितने प्रोजेक्ट पर काम कर चुके हैं। फलाना डिमाका एक विस्तृत जानकारी देने लग गए। जिस कारण बहुत अधिक समय जाया हों रहा था। इसलिए श्रृष्टि उन्हें रोकते हुए बोलीं...हे गायेज अपने बारे में जानकारी बाद में दे देना अभी काम क्या करना हैं इस पर बात कर लेते हैं।
"अरे श्रृष्टि भले ही एक हफ्ते के लिए हमें साथ में काम करना हैं फ़िर भी एक दूसरे की जानकारी तो होना ही चाहिए हों सकता है आगे भी हमें साथ में काम करना पड़े इसलिए अभी जान पहचाना हों जाएं तो आगे चलकर काम करने में आसानी होगा (सामने खडे साथियों को एक आंख दबाकर समीक्षा आगे बोलीं) चलो गायेज हमारी नई साथी को अपने बारे में जानकारी दो, ओर हा ठीक से देना जिससे कि श्रृष्टि हमारे साथ अच्छे से घुल मिल जाएं।"
श्रृष्टि उन्हें कुछ कहती या रोकती उससे पहले ही सभी अपनी अपनी राम कहानी का पिटारा खोलकर शुरू हों गए। अभी उनकी राम कहानी चल ही रहा था कि "ये क्या हों रहा हैं सभी काम धाम छोड़कर गप्पे हाकने में लगे हों। तुम्हें गप्पे मारने की नहीं काम करने की सैलरी दिया जाता हैं।" ये आवाज़ वहा गूंजा जो की राघव का था।
राघव को आया देखकर सभी तुंरत संभले ओर साक्षी चापलूसी करते हुए बोलीं...सर हम तो काम ही करना चाहते थे मगर श्रृष्टि ही कह रहीं थीं वो नई हैं सभी उसे अपने बारे में विस्तृत जानकारी दे, काम तो बाद में होता रहेगा।
साक्षी के साथ में काम करने वाले दूसरे साथियों ने उसके हां में हां मिलाकर सारा दोष श्रृष्टि पर मढ दिया। ये सुन और देखकर श्रृष्टि मन में बोलीं...सभी के सभी नम्बर वन कमीने हैं। इनसे बचकर रहना होगा नहीं तो गलती ये करेंगे और दोष मेरे सिर थोप देंगे। ये तो बाद की बात है अभी क्या करूं? अभी कुछ नहीं बोला तो बात और बिगड़ जाएगी। हे प्रभु तेरी मूझसे क्या दुश्मनी हैं? गलती न होते हुए भी मुझे पाचेडे में फसवा देता है। क्यों, आखिर क्यो ऐसा करता हैं?
मन ही मन खुद से बातें और ऊपर वाले से सावल करने के बाद श्रृष्टि अपने बचाव में बोलने जा ही रहीं थीं कि राघव बीच में बोला...श्रृष्टि जी मुझे लगता हैं एक गैर ज़िम्मेदार लड़की को नौकरी देखकर मैंने ख़ुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया हैं। मुझे डर हैं कहीं आपकी संगत में रहकर मेरे काबिल और ज़िम्मेदार मुलाजिम कहीं आप की तरह गैर ज़िम्मेदार न बन जाएं।
श्रृष्टि... सर...।
"बाते बहुत हुआ (श्रृष्टि को बीच में रोकर राघव आगे बोला) श्रृष्टि जी आपको एक मौका और दे रहा हूं अबकी मुझे निराश न करना। (फिर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी न्यू ज्वाइनी से परिचय हों गया हों तो काम पर लग जाओ।" इतना बोलकर राघव चला गया।
क्या अब गेंद साक्षी के पास में है ???
साक्षी कुछ अपना नया रंग दिखायेगी या फिर श्रुष्टि से मिलजुल के काम को आगे बढ़ाएगी ?
राघव के मन में क्या चल रहा है ?
श्रुष्टि की जो पहली छाप उसके दिमांग में है क्या वो कायम रहेगी?
श्रुष्टि को अब क्या एक नयी नौकरी की तलाश कर लेना चाहिए ?
जानिये मेरे साथ अगले भाग में
जारी रहेगा...
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भाग - 7
"बाते बहुत हुआ (श्रृष्टि को बीच में रोकर राघव आगे बोला) श्रृष्टि जी आपको एक मौका और दे रहा हूं अबकी मुझे निराश न करना। (फिर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी न्यू ज्वाइनी से परिचय हों गया हों तो काम पर लग जाओ।" इतना बोलकर राघव चला गया।
बिना कारण, बिना कोई गलती किए पहले ही दिन बॉस से सुनने को मिला जिस कारण श्रृष्टि उदास सी सिर झुकाए खडी थीं और साक्षी अपने साथियों को थम्स अप का इशारा करते हुए कह रहीं थीं उनका पैंतरा काम कर गया फ़िर श्रृष्टि के पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रखकर बोलीं... श्रृष्टि (बस इतना बोलकर रूकी फिर चासनी की मिठास शब्दों में घोलकर आगे बोलीं) श्रृष्टि माना कि जो हुआ उसमे सारी गलती हमारी थीं फ़िर भी गलती का ठीकरा तुम पर ही फोड़ दिया इसके लिए माफ कर देना यार।
इतना बोलकर अपने साथियों की और देखकर इशारा किया तो वो लोग भी अपना अपना तर्क देकर माफ़ी मांगने लग गए। सभी को माफी मांगते देखकर श्रृष्टि हल्का सा मुस्कुरा दिया फिर मन ही मन बोलीं...तुम लोग जीतना मुझे बुद्धू समझ रहें हों मैं उतनी हूं नहीं, हां माना की मैं भोली दिखती हूं और कुछ हद तक भोली भी हूं भी पर इतना भी नहीं कि तुम लोगों की चापलूसी समझ न पाऊं, मैं तुम जैसे लोगों का सामना पहले भी कर चुकी हूं और अच्छा किया जो पहले ही दिन तुम लोगों ने अपनी असलियत दिखा दी।
श्रृष्टि ख़ुद से बाते करने में लगीं हुईं थीं और साक्षी एक बार फिर से बोलीं...अरे यार तुम न ज्यादा तनाव न लो हम ख़ुद सर से बात करेंगे और कहेंगे तुम्हारी कोई गलती नहीं थी हम ने ही तुम्हें काम करने से रोका था। (फ़िर अपने साथियों की ओर देखकर बोलीं) अरे तुम लोग भी कुछ बोलों।
सभी हामी भरते हुए अपनी अपनी बात कहने लग गए और श्रृष्टि मुस्कुराकर देखते हुए बोलीं... चलो अच्छा हुआ तुम लोगों को गलती का आभास तो हुआ। अब कुछ काम कर लेते हैं। आखिर हमे पगार गप्पे हाकने की नहीं बल्कि काम करने की मिलती हैं।
श्रृष्टि के कहने के बाद सभी काम में जुट गए। श्रृष्टि के पास पहले से ही काम का अनुभव था इसलिए उसे समझने में ज्यादा दिक्कत नहीं हुआ। बीच बीच में अल्प विराम लिया जिसे साक्षी और उसके साथियों ने लंबा खींचना चाहा मगर श्रृष्टि उनके मनसा पर पानी फेरते हुए अपने काम में लग गई। मजबूरन उन्हें भी श्रृष्टि के साथ काम में लगना पड़ा।
शाम के वक्त सभी बैठें चाय की चुस्कियां ले रहे थे साथ ही हसीं ठिठौली भी कर रहें थे। उसी वक्त राघव वहा आया, द्वार भिड़ा हुआ था लेकिन पूरी तरह बंद नहीं था। लगभग चार इंची जितना झिर्री खुला हुआ था। वहा से भीतर देखा तो उसे श्रृष्टि दिखा जो चाय की चुस्कियां लेते हुए हंस हंस कर बात कर रहीं थीं। यह देखकर राघव की निगाह श्रृष्टि पर ठहर गइ।
सहसा श्रृष्टि को लगा द्वार पर कोई हैं। इसलिए अपनी निगाह उस ओर कर लिया पर वहा उसे कोई नहीं दिखा तो भ्रम समझकर जानें दिया।
एक एक कर लगभग तीन दिन का समय बीत गया। इन तीन दिनों में साक्षी और उसके साथियों ने कई नए पैंतरे आजमाए ताकि वो श्रृष्टि को राघव की नजरो में गिरा सकें मगर ऐसा हों नहीं पाया बल्की इसका उल्टा ही असर हुए। काम के प्रति श्रृष्टि की लगन और जज्बा देखकर साक्षी के साथी श्रृष्टि की कायल हों गए। मगर साक्षी इससे ओर ज्यादा चीड़ गई इसलिए अपने तरकश में से एक और पैंतरा ढूंढ़ निकाला।
अगले दिन सभी काम में व्यस्त थे और साक्षी संडास जानें की बात कहकर निकल आई और जा पहुंची राघव के पास, साक्षी को आया देखकर राघव बोला...साक्षी कोई जरुरी काम था जो तुम इस वक्त मेंरे पास आई हों जबकि मैंने तुम्हें बुलाया भी नहीं!
साक्षी... हां सर बहुत जरुरी काम हैं।
राघव...अच्छा, चलो अपना जरुरी काम बाद में बताना पहले न्यू ज्वाइन श्रृष्टि के बारे मे बताओं वो काम कैसे कर रहीं हैं।
"ओ हो नई ज्वाइन श्रृष्टि की बडी फिक्र हैं।" मन ही मन इतना बोलकर अपने तरकश से तीर निकाला और राघव पर छोड़ दिया... सर मै श्रृष्टि के बारे में ही बात करने आई थीं। वो न अपने काम के प्रति बिलकुल भी ज़िम्मेदार नहीं हैं। अपने सही कहा था उसे नौकरी देकर अपने खुद ही अपने पैर पर कुल्हाड़ी मार लिया हैं।
"ऐसा हैं।" खेद व्यक्त करते हुए ऐसे बोला जैसे उसे उसकी गलती का पछतावा हो रहा हो। तो साक्षी थोड़ ओर बढ़ा चढ़कर बोलीं... सर ये श्रृष्टि न, काम कम करती हैं और गप्पे ज्यादा हाकती हैं। कितना भी कह लो सुनती ही नहीं हैं। मैं तो उससे परेशान हों चुकी हूं। मैं और मेरे साथी काम करते हैं और वो हम में से किसी को काम करने से रोककर बतियाने लग जाती हैं।
"ये तो श्रृष्टि बहुत गलत कर रहीं हैं।" पूरी बात राघव गुस्सैल लहजे में कहा तो साक्षी आगे बोलीं... सर मेरा काम था आपको अगाह करना जो मैंने कर दिया अब आपको जो करना हैं वो करे बाद में मुझे न कहना कि मैंने आपको पहले से अगाह क्यों नहीं किया?
राघव... ठीक हैं तुम जाओ ओर अपना काम करो, श्रृष्टि का क्या करना हैं? मैं सोचता हूं।
श्रृष्टि वहां जी जान लगाकर काम कर रहीं है और यहां साक्षी संडास जानें का बहाना करके श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भरके चली गईं। साक्षी के जाते ही रिवोल्विंग चेयर को थोडा पीछे खिसकाया फ़िर एक टांग पर टांग चढ़ाए दोनों हाथों को सिर के पीछे लगाकर रिवोल्विंग चेयर के पूस्त से टिकाए पैर को नाचते हुए रहस्यमई मुस्कान से मुस्कुराने लग गया।
[i]जायिगा नहीं अभी भाग चालू है [/i]
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अब आगे
दृश्य में बदलाब
साक्षी काम करने वाली कमरे में पहुंच चुकी थी। उसे देखकर श्रृष्टि बोलीं...साक्षी संडास में बहुत वक्त लगा दिया। क्या करने गई थीं जो इतना वक्त लग गया?
साक्षी... वहीं जो सभी करने जाते हैं।
श्रृष्टि... अच्छा, मैं तो कुछ और ही सोचा था। खैर छोड़ो चलो काम पर लगते हैं।
"हां हां करले जीतना काम करना है। तू यहां जी जान से काम कर रहीं है और वहां सर सोच रहे हैं तू गप्पे करने में मस्त हैं।" मन ही मन बोलकर काम में लग गई।
शाम को चाय के वक्त राघव उस कमरे के पास आया पर भीतर नहीं गया बहार खड़े होकर हसीं मजाक करते हुए चाय पीती हुई श्रृष्टि को कुछ वक्त तक देखता रहा फ़िर वापस जाते वक्त खुद से बोला…मुझे क्या हों गया हैं? क्यो श्रृष्टि को देखते ही मेरा दिल मचल सा उठता हैं? क्यों अलग सा अहसास मेरे दिल में जाग उठता हैं? क्यों मैं उसकी और खींचा चला आता हूं?
क्यों, क्यों और क्यो? राघव इस क्यों का जवाब ढूंढ रहा था मगर उसे मिल नहीं रहा था। यहां दिन पर दिन बीतता जा रहा था और राघव श्रृष्टि पर कोई करवाई नहीं कर रहा था जबकि साक्षी ने इस बीच मौका देखकर श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान कई बार भर चुकी था। मगर राघव हैं कि दर्शक बने सपेरे का खेल देख रहा था। ऐसा क्यो कर रहा था? ये तो राघव ही जानता हैं। किंतु इसका नतीजा उलट ही दिख रहा था। राघव के बेपरवाह रवैया से साक्षी हद से ज्यादा चीड़ गईं। वो श्रृष्टि के सामने अच्छे होने का ढोंग करते रहना चाहती थी और पीठ पीछे श्रृष्टि के खिलाफ राघव के कान भी भरना चाहती थी। इसलिए खुलकर सामने से कुछ कर नहीं पा रही थीं।
साक्षी की चालबाजी से अंजान श्रृष्टि ईमानदारी और लगन से काम करने में लगीं हुईं थीं। श्रृष्टि के देखा देखी साक्षी सहित बाकी साथियों को भी लगन से काम करना पड़ रहा था या यू कहूं श्रृष्टि ख़ुद भी काम कर रहीं थी और बाकियों से भी काम करवा रहीं थीं। जिसका नतीजा ये हुआ। यहां प्रोजेक्ट जो काफी समय से लटका हुआ था लगभग समाप्ति के कगार पर आ चुका था।
राघव ने श्रृष्टि को मात्र एक हफ्ता साक्षी के साथ काम करने को कहा था। मगर दो हफ्ता श्रृष्टि को साक्षी के साथ काम करते हुए बीत चुका था। जिसकी चिंता साक्षी का वजन दिन पर दिन कम करता जा रहा था मगर श्रृष्टि पर इस बात का कोई असर ही नहीं पड़ रहा था उसे तो काम से मतलब था चाहे वो साक्षी के साथ करे या किसी और के साथ करें। ऐसे में एक दिन सुबह ऑफिस आते ही राघव ने श्रृष्टि और साक्षी सहित पूरे टीम को बुलवा भेजा।
दोनों यही सोच रही होगी अब क्या हुआ सर को?
साक्षी को क्या ठंडक पहोची की आखिर उसका मुकाम आ ही गया ?
या फिर राघव खुद ही कुछ करने वाला था ?? क्यों की उसने पूरी टीम को बुलाया है ??
बने रहिये मेरे साथ अगले भाग तक !!!!!!!
जारी रहेगा...
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आपके कोमेन्ट्स की प्रतीक्षा में ..................
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मुझे ये तो पता था की मुझे उतने पाठक नहीं मिलेंगे क्यों की बहोत सारे पाठको की उम्मीद से विपरीत ये कहानी है
खेर अब कहानी हाथ पे ली ही है तो पूरी करनी जरुर है ..... मुझे भी श्रुष्टि की तरह हताश नहीं होना चाहिए
यही शायद श्रुष्टि की रित है जो हताश हुआ वो गया और जो लड़ा वो तैर गया [img]data:image/gif;base64,R0lGODlhAQABAIAAAAAAAP///yH5BAEAAAAALAAAAAABAAEAAAIBRAA7[/img]
इसी उम्मीद में अगला भाग पेश कर रही हु शायद कुछ लोगो को पसंद आये .................
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Good afternoon to All !!!!!
आज तो कोई कोमेंट ही नहीं !!!!!!!!!!!!!
चलिए कहानी में आगे बढ़ते है ................. आशा है पसंद आएगी ........
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भाग - 8
बॉस का बुलावा आए और कलीग न जाए ऐसा भाला हों सकता हैं क्या।? सभी एक के बाद एक कमरे के भीतर प्रवेश कर गए। सबसे अंत में श्रृष्टि ने कमरे के भीतर प्रवेश किया। न चाहते हुए भी राघव की निगाह एक बार फ़िर श्रृष्टि के भोला, मासूम, खिला हुआ चेहरा और लबों पर तैरती मुस्कान पर अटक गया।
निगाहें अटकाए राघव श्रृष्टि को देखने में व्यस्त था और श्रृष्टि दो चार कदम भीतर की ओर बढ़ी ही थी कि सहसा उसे आभास हुआ। उसका बॉस उसे टकटकी लगाए देख रहा हैं।
आभास होते ही श्रृष्टि के गालों पर शर्म की लाली छा गईं और मंद मंद मुस्कान से मुस्कराते हुए अपने निगाहों को नीचे झुका लिया। और अपने कपड़ो को ठीक करने लगी कही कोई चुक तो नहीं है ना| और ये हर नारी का प्राकृतिक स्वभाव है उसने अपने कपड़ो की व्यवष्ठिता कु सिनिश्चित कर लिया और ठाडा आगे बढ़ी! उधर राघव के लवों पर भी स्वतः ही मुस्कान तैर गया।
दोनों के इस बरताव पर भले ही किसी ओर की नज़र पड़ा हों चाहें न पड़ा हों लेकिन साक्षी की निगाहों से बच न सका।
राघव को द्वार की ओर टकटकी लगाए देखते हुए मुस्कुराता देखकर साक्षी ने भी अपनी निगाह उस ओर कर लिया। वहा शरमाई सी मुस्कुराती हुई श्रृष्टि, साक्षी की निगाह में आ गईं। ये देखकर मन ही मन बोलीं... तो ये बात हैं। ये श्रृष्टि तो बडी तेज निकली अभी आए हुए कुछ ही दिन हुआ हैं और देखो कैसे सर से नैन लड़ा रहीं हैं। एक मैं हूं जो कब से कोशिश कर रहीं हूं और सर है की पिघलते ही नहीं! मुज से आगे है ये श्रुष्टि और लगता है इस मामले में काभी अनुभवि भी है
दोनों के नैनों से नैनों का टकराव शायद साक्षी को हजम नहीं हुआ इसलिए मेज पर रखा फ्लॉवर पॉट को टेबल से नीचे धकेलकर गिरा दिया।
फ्लॉवर पॉट के टूटने की आवाज़ कानों को छूते ही राघव की तंद्रा टूटा और हकलताते हुए बोला... क क क्या टूटा
"टूटा तो फ्लॉवर पॉट हैं पर लगाता है किसी का कुछ ओर भी टूट गया।" यहां आवाज साक्षी की थी। जिसमे तंज का घोल शब्दो में घुला हुआ था।
कोई बात नहीं, कभी न कभी इसे टूटना ही था तो आज ही टूट गया। (फिर सामने की और देखकर बोला) अरे श्रृष्टि जी आप वहा खडी क्यों हो आगे आओ।
राघव की आवाज कानों को छूते ही श्रृष्टि की झुकी हुई निगाहें ऊपर उठा तब एक बार फ़िर से दोनों की निगाह टकरा गई। मंद मंद मुस्कान लवों पर सजाएं कुछ कदम की दुरी तय कर मेज के पास आकर खड़ी हों गईं।
राघव की निगाह जो अब तक श्रृष्टि पर टिका हुआ था। श्रृष्टि के नजदीक आते ही राघव बोला... श्रृष्टि जी आप अपना काम जिम्मेदारी से कर रहीं हों न (फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) साक्षी जरा इनके काम काज का विवरण दो आखिर पता तो चले श्रृष्टि जी जिम्मेदारी से काम कर रहीं हैं कि नहीं या फ़िर बतियाने में ही समय काट रहीं हैं।
राघव की बाते श्रृष्टि को चुभ गई। उसका असर यूं हुआ लवों से मुस्कान नदारद हों गई और खिला हुआ चेहरा बुझ सा गया।
यहाँ साक्षी का भी चेहरा उतर ही गया! बोले तो क्या बोले ?? राघव सर ने एक ऐसी गेंद डाल दी जो उसके पसीने छुडाने के लिए काफी थी ! साक्षी से जवाब देते नहीं बन रहा था। आखिर कहती भी तो क्या कहती श्रृष्टि के खिलाफ कान उसी ने भरे थे। अब उसी मुंह से श्रृष्टि का गुण गान करना था जो उससे हों नहीं रहा था। इसलिए साक्षी चुप रहीं मगर दूसरे साथियों में से एक बोला पड़ा...सर सिर्फ जिम्मेदारी कहना गलत होगा बल्की श्रृष्टि मैम बहुत ज्यादा जिम्मेदारी से काम कर रहीं हैं। इनके भीतर काम को लेकर अलग ही जज्बा और जुनून हैं। श्रृष्टि मैम जब काम करती हैं तो सूद बूद खोए इनका ध्यान सिर्फ़ काम पर ही रहता हैं। सर हम तो इनके कायल हों गए हैं।
"सर वैसे तो कहना नहीं चाहिए क्योंकि यह बात हमारे साख पर भी सवाल खड़ा करता हैं। मगर सच कहने में कोई गुरेज नहीं हैं। श्रृष्टि मैम की योग्यता अतुलनीय है। जिस प्रॉजेक्ट को हम पूर्ण नहीं कर पा रहे थे। सिर्फ़ कुछ ही दिनों में श्रृष्टि मैम के वजह से वह प्रॉजेक्ट पूर्ण होने के कगार पर पहुंच गया।" ये शब्द दूसरे सहयोगी का था।
सहयोगियों से तारीफ, जिसकी शायद ही श्रृष्टि ने उम्मीद किया था क्योंकि पहले ही दिन उन लोगों ने जो सलूक उसके साथ किया था। उसके बाद उनसे तारीफ की उम्मीद करना व्यर्थ था मगर आज उन्होंने श्रृष्टि के इस भ्रम को तोड़ दिया। जिस कारण श्रृष्टि का बुझा हुआ मुखड़ा फिर से खिल उठा।
उम्मीद तो साक्षी को भी नही था कि लंबे समय से उसके साथ काम कर रहे उसके साथीगण बस कुछ दिन श्रृष्टि के साथ काम करके उसकी मुरीद बन जायेंगे और बॉस के सामने तारीफो के पुल बांध देंगे मगर उन्होंने वहीं कहा जो सच था। और उसमे वो कुछ कर भी नहीं सकती थी! उसका पलड़ा अब दोनों तरफ था अगर श्रुष्टि के विरोध में बोलती तो वो गलत साबित होता और भुतकाल में वो जो कर चुकी थी अब वो गलत साबित हो रहा था दूसरा पलड़ा भी उसके तरफ नहीं था ! उसकी हालत ये थी की काटो तो खून ना निकले मानो की फ्रिज हो गई थी!
जिसे सुनकर राघव बोला... श्रृष्टि जी अपने मेरी धरना को गलत ठहरा दिया। अपने सिद्ध कर दिया मैंने आपको नौकरी देकर अपने पैर पर कुल्हाड़ी नहीं मारा हैं। ( फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोल) श्रृष्टि जी का रिपोर्ट कार्ड साक्षी तुमसे मांगा था। तुमने कुछ कहा नहीं मगर तुम्हारे दूसरे साथियों ने कह दिया। मुझे लगाता हैं तुम्हारा भी यहीं कहना होगा। क्यों मैं सही कह रहा हूं न?
राघव सर ने बहोत बड़ा बम साक्षी के सन्मुख फोड़ दिया अब साक्षी के पास हां कहने के अलावा दुसरा कोई रास्ता बचा ही नहीं था। इसलिए उसके मुंह से सिर्फ़ हां ही निकला इसका मतलब साक्षी की हां उसके मन से नहीं निकला था। अपितु सहयोगियों से श्रृष्टि की तारीफे सुनकर श्रृष्टि के प्रति साक्षी के मन में द्वेष पैदा हों गया।
साक्षी से हां सुनने के बाद राघव बोला... चलो अच्छा हुआ जो यहां प्रॉजेक्ट पूर्ण होने के कगार पर आ गया। श्रृष्टि जी कितने दिन और लगेंगे कुछ अंदाजा हैं?। या बता सकते हो आप ?
श्रृष्टि… सर तीन से चार दिन ओर लग जायेंगे।
"जी सर इतने दिन ओर लग जायेंगे।" सहसा सहयोगियों में से एक बोला जिसके जवाब में राघव बोला... ठीक है। उस प्रॉजेक्ट को खत्म करो फ़िर तुम सभी को मेरे और से उपहार मिलेगा और श्रृष्टि जी के लिए मेरे पास एक खाश उपहार हैं।(फ़िर साक्षी से मुखातिब होकर बोला) तुम क्या कहती हो श्रृष्टि जी को खाश उपहार मिलना चाहिए की नही?
हर एक बात के लिए साक्षी को बीच में खीच लेना साक्षी को सुहा नहीं रहा था। मन ही मन वो श्रुष्टि और राघव सर दोनों को मा बाहें की दे रही थी, भीतर ही भीतर साक्षी गुस्से में खौल रहीं थीं, उबाल रहीं थी मगर विडंबना ये थी कि प्रत्यक्ष रूप से दर्शा नहीं पा रही थीं। साक्षी का यूं गुस्सा करना जायज़ नहीं था क्योंकि साक्षी सच्चाई से अवगत थीं। श्रृष्टि ने काम ही तारीफो वाला किया था। खैर साक्षी से कुछ बोला नहीं गया मगर श्रृष्टि बोलने से खुद को रोक नहीं पाई... सर अपने खास उपहार मुझे देने की बात कहा जानकार अच्छा लगा मगर मुझे लगाता हैं खास उपहार साक्षी मैम को मिलना चाहिए क्योंकि वो प्रॉजेक्ट हेड हैं और प्रॉजेक्ट पूर्ण होने का सारा श्रेय साक्षी मैम को दिया जाना चाहिए। उनके विचार, अनुभव और सुजाव से ही ये सब मुमकिन हो पाया है (वो भी तो शातिर ही थी अपनी होशियारी को बखूबी उपयोग करना जानती थी )
श्रृष्टि की ये बातें राघव सहित सभी को भा गया। एक पल को साक्षी के कानों को सुखद अनुभूति करवाया लेकिन अगले ही पल साक्षी पूर्ववत हों गई क्योंकि उसे लगा श्रृष्टि उसकी पैरवी करके उस पर कोई अहसान कर रही हैं। जो एक जूनियर से उम्मीद नहीं थी
श्रृष्टि की बाते सुनकर राघव मुस्कुरा दिया फ़िर शांत लहजे में बोला... श्रृष्टि जी आपकी सोच की मैं दाद देता हूं क्योंकि आज कल लोग बिना कुछ किए भी श्रेय लेने के ताक में रहते हैं और अपने तो श्रेय पाने लायक काम किया हैं इसलिए आप सभी के बॉस होने के नाते फैसला लेने का मै अधिकार रखता हूं। किसको क्या मिलना चाहिए ये मुझ पर छोड़ दीजिए। अब आप सभी जाइए ओर अपना काम कीजिए।
राघव के कहने पर एक एक कर सभी चलते बने सभी के जाते ही राघव एक बार फ़िर से अपने रिवोल्विंग चेयर को पीछे खिसकाकर एक पैर पर दुसरा पैर चढ़ाकर दोनों हाथों को सिर के पीछे टिकाए हाथ सहित सिर को चेयर के पुस्त से टिका लिया फ़िर रहस्यमई मुस्कान बिखेरते हुए मुस्कुराने लग गया।
अब बात ये है की आगे साक्षी क्या करेगी ? इत्निअसानी से वो पीछे हट जाए वैसी तो शायद नहीं है
उसके मन में जो श्रुष्टि के प्रति ध्वेश है वो उसे और श्रुष्टि को कहा तक ले जायेगी ????
राघव सर का ये श्रुष्टि को टिकटिकाना क्या कहता है ????
राघव का ये रहस्यमय मुश्कान का मतलब क्या समजे ?????
चलिए ये सब सवालो के जवाब हम अगले भाग में जानने की कोशिश करेंगे
बने रहिये मेरे साथ
जारी रहेगा...
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आप के कोममेंट्स के आशा है
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भाग - 9
राघव के कहने पर एक एक कर सभी चलते बने सभी के जाते ही राघव एक बार फ़िर से अपने रिवोल्विंग चेयर को पीछे खिसकाकर एक पैर पर दुसरा पैर चढ़ाकर दोनों हाथों को सिर के पीछे टिकाए हाथ सहित सिर को चेयर के पुस्त से टिका लिया फ़िर रहस्यमई मुस्कान बिखेरते हुए मुस्कुराने लग गया।
दिन भर की कामों से निजात पाकर शाम को श्रृष्टि घर पहुंची, थकान से परिपूर्ण बेटी का चेहरा देखकर माताश्री बोलीं... श्रृष्टि बेटा जाओ कपड़े बदलकर आओ फिर तेरी सिर की मालिश करके दिन भर की थकान दूर कर देती हूं।
"बस अभी आई" बोलकर श्रृष्टि कमरे में चली गई। श्रुष्टि को ये सुजाव बचपन से ही अच्छा लगता था! मा के हाथ से मालिश वाह क्या बात है! कुछ ही देर में कपड़े बदलकर बहार आई। तब तक माताश्री कटोरी में तेल लिए मालिश की तैयारी कर चुकी थीं।
माताश्री के सामने जाकर श्रृष्टि पलथी मारकर जमीन पर बैठ गई और मताश्री तेल डालकर बालों में अच्छे से फैला दिया फ़िर.. ठप.. ठप, ठप ठपाठप, ठप ठप…
"अहा मां दर्द होता हैं।" मा से नाटक करते हुए
"उमहु रूक न मालिश वाले गाने की सज ढूंढ़ रहीं हूं।"
"उसके लिए बाध्य यंत्र बजाओ मेरा सिर क्यों बजा रहीं हो।"
"अहा तू कुछ देर चुप बैठ न"
ठप.. ठप, ठप ठपाठप, ठप ठप…
हूं हूं हूं हूं…
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये...
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये...
तन की थकन मैं दूर करूं
मन में नयी उमंग भरूं
ताक धीना धीन, ताक धीना धीन
ताक धीना धीन, दीधीन दीधीन...
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये
बम अकड बम के….
दुनिया है क्या सर्कस नया
कुछ भी नहीं जोकर है हम…
"मां रूको इससे आगे मैं गाऊंगी"
दुनिया है क्या सर्कस नया
कुछ भी नहीं जोकर है हम
तुम जो बोलो वो करके दिखाऊं
उंगली पे सारे जग को नचाऊँ
कह रहे है ज़मीन आसमान
ऐसा परिवार होगा कहा
इस घर पे मेरा
सब कुछ निसार है…
आगे के बोल मां बेटी ने साथ में गया
बम अकड बम के
मैं चम्पी करूं जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये…
बूम अकड बूम के
मैं चम्पी करून जमके
तो बंद अकल सबकी खुल जाये
मालिक हो तुम….
"मां रूको ऐसे नहीं आगे का मै गाकर सुनती हूं।"
मां हो तुम, बेटी हूं मैं
इस बात की मुझको है खुशी
मां हो तुम, बेटी हूं मैं
इस बात की मुझको है खुशी
कहना मानूं सदा आपकी
खिदमत में आपकी शीश झुकाऊं
माँ ने दी है मुझे जिंदगी
मेहनत ही शौहरत हैं मेरी
ये बात आपने सिखाया
बम अकड बम के
चम्पी करो जमके
तो बंद अकल मेरी खुल जाये…
(नोट:- यहां गाना अपने जमाने का एक मशहूर गाना है जिसे समीर साहब ने लिखा। मैं इस गाने में कुछ फेर बदल किया जो कि गलत हैं इसके लिए मैं आप सभी प्रिय पाठक बंधुओं से माफी मांगती हूं।)
अंत के जितने भी बोल श्रृष्टि ने ख़ुद से बनाया फिर गाकर सुनाया उसे सुनकर माताश्री के हाथ स्वत ही रूक गए और आंखो से कुछ बूंद आंसू के मोती श्रृष्टि के सिर पर गिर गया।
माताश्री के हाथ रूकते ही अच्छी खासी चल रही मालिश में विघ्न पड़ गया। जिसका आभास होते ही श्रृष्टि बोलीं... मां रूक क्यों गईं। मालिश करो न बड़ा सकून मिल रहा था।
श्रृष्टि की आवाज कानों को छूते ही। माताश्री ने बहते आसुओं को पोछकार फिर से मालिश करने में लग गईं। कुछ देर की मालिश के बाद श्रृष्टि मां की ओर पलटी फ़िर उनके गोद में सिर रखकर बोलीं... मां आपको पता है आज ऑफिस में क्या हुआ?
"मुझे कैसे पाता चलेगा। तू ने अभी तक बताया ही नहीं।" बेटी के सिर पर हाथ फिरते हुए माताश्री बोलीं।
श्रृष्टि.. मां आप तो जानती हों पहले ही दिन मेरे सहयोगियों ने मेरे साथ कैसा व्यवहार किया था लेकिन आज जब सर मेरा रिपोर्ट कार्ड जानने सभी को बुलाया तब चमत्कार हों गया सभी ने सिर्फ मेरी तारीफ़ किया। उनकी बातें सुनकर मैं हैरान रह गई।
"मेरी बेटी इतनी हुनरमंद और मेहनती हैं कि उन्हें तारीफ तो करना ही था।" शाबाशी का भाव शब्दों में घोलकर माताश्री बोलीं।
"पर मां वो साक्षी मैम मूझसे बिलकुल भी खुश नही थी। जब सर ने मुझे खास उपहार देने की बात कहीं उसके बाद मेरे सभी सहयोगियों ने मुझे बधाई दिया मगर साक्षी मैम ने कुछ भी नहीं बोला सिर्फ़ इतना ही नहीं वो दिन भर मूझसे ठीक से बात भी नहीं किया , मूझसे रूठी रूठी सी रहीं।" शिकायती लहजे में माताश्री को सारा सार सुना दिया।
"श्रृष्टि बेटा ये जो श्रृष्टि है न ये बड़ा अजीब है इसे जितना समझना चाहो उतना ही उलझा देती हैं। जैसे हाथ की पांचों उंगलियां एक बराबर नहीं होती वैसे ही सभी लोग एक जैसे नहीं होते। किसी को तुम्हारा काम पसन्द आयेगा किसी को नहीं, जिन्हे तुम्हारा काम पसन्द नहीं आ रहा है उन पर तुम्हें खास ध्यान देने की जरूरत हैं क्योंकि ऐसे लोगों के मन में तुम्हारे लिए द्वेष उत्पन्न हों जायेगा फ़िर द्वेष के चलते तुम्हें सभी के नजरों में गिराने की ताक में लगे रहेंगे।" ज्ञान का घोल बेटी को पिलाते हुए माताश्री बोलीं।
माताश्री की बातों का जवाब सिर्फ़ हां में दिया फिर कुछ देर की चुप्पी के बाद श्रृष्टि बोलीं... मां साक्षात्कार वाले दिन जिन अंकल ने मेरी मदद किया था मैं उन्हें धन्यवाद कहना चहती हूं। मगर मेरे पास उनका पता ठिकाना नहीं हैं।
"तो क्या तुम खाली हाथ धन्यवाद देने जाओगी। उन्होंने तुम पर बहुत बड़ा अहसान किया हैं। सिर्फ़ उन्हीं के कारण तुम्हें नौकरी मिली है इसलिए मुझे लगाता हैं तुम्हें खाली हाथ नहीं बल्की कुछ लेकर जाना चाहिए"
श्रृष्टि…मां मैं उनका अहसान जिंदगी भर उतार नहीं पाऊंगी फ़िर भी मैं सोच रहीं थी जब मेरी पहली सेलरी मिलेगी तब सबसे पहले उनके लिए मिठाई और एक जोड़ी पैंट शर्ट का कपड़ा लेकर जाऊं क्योंकि उस दिन मैंने देखा था उनका शार्ट कई जगह से फटा हुआ था जिसे सिल रखे थे मगर कहां जाने पर वो मिलेंगे यहीं तो पता नहीं हैं।
"पहले तुम्हें सैलरी मिल जाएं फ़िर क्या करना हैं बता दूंगी। अगर इस बीच वो दिख जाएं तो उनसे उनका पता ठिकाना या फ़िर नम्बर मांग लेना।"
"ये आपने सही कहा। अच्छा मां मैं बाल धोकर आती हूं तब तक आप कड़क चाय बना लो।"
सब मुझे ही करके देना पड़ेगा ??? क्या तुम अपनी आप कुछ नहीं कर सकती ??? एक जूठा और घिसापिटा डायलोग माताश्री ने सुनाया जो श्रुति के लिए रोज का था.
क्या करेगी ये लड़की कही जाके ?? अपने पति, बच्चे और घर को कैसे संभालेगी ???
सब जगह तेरी मा आएगी क्या ??? वो ही सब कहती हुई रसोई की तरफ चल दी!
जाते जाते श्रुष्टि के बोल मा के कर्णपटल पर पड़े
"सब से पहले शादी का कोई इरादा नहीं दूसरा अगर जाना ही हुआ तो दहेज़ में आप को लेके जाउंगी " हा हा हा हा
बने रहिए
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अब आगे......
अगले दिन से श्रृष्टि की कर्म यात्रा एक बार फिर सुचारू हो गई। श्रृष्टि का एक मात्र लक्ष्य था कैसे भी करके अपूर्ण रह गए काम को चार दिन से पहले खत्म कर लिया जाएं। जिसमें उसके सहयोगी भरपूर साथ दे रहें थे मगर साक्षी के मन में द्वेष का पर्दा पड़ चुका था।
साक्षी किसी भी कीमत पर अपूर्ण रह गए काम को पूर्ण होने से रोकना चाहती थीं। और वो भी कम से कम 5 दिन जो श्रुष्टि ने राघव सर को कामिट किया था! इसलिए कभी वो कमरे की लाइट बंद कर देती थी जो की एक बचकाना हरकत थी फ़िर भी कुछ वक्त का नुकसान हों ही जाता था।
कभी वो चाय नाश्ते के बहाने सहयोगियों को बातो में माजा लेती तो कभी जरुरी फाइल कही छुपा देती। जिस वजह से सिर्फ समय की बर्बादी हों रहा था।
जीतना समय श्रृष्टि के हाथ में बच रहा था उतने समय का सदुपयोग करते हुए ओर ज्यादा लगन और रफ़्तार से ख़ुद भी काम कर रहीं थी और सहयोगियों से काम करवा रहीं थीं।
इतनी लगन और रफ़्तार से काम करने का कोई फायदा नहीं हुआ। अंतः साक्षी अपने मकसद में कामियाब हों ही गई। श्रृष्टि को दिए समय से तीन दिन ऊपर हों चुका था। देर होने का जीतना पछतावा श्रृष्टि को हों रहा था उतना ही साक्षी मन ही मन खुश हों रहीं थीं।
बीते एक हफ्ते से राघव रोजाना शाम के चाय के वक्त वहा आता रहा मगर भीतर न जाकर बहार से ही छुप छुप कर श्रृष्टि को देखकर चला जाया करता था। आज फिर शाम के वक्त आया और श्रृष्टि को छुप कर देख रहा था कि सहसा श्रृष्टि को आभास हुआ। द्वार पर कोई हैं।
"द्वार पर कौन हैं।" बोलकर चाय का कप रखा और द्वार की और चल दिया।
अब यहाँ तो सवाल यही उठता है की क्या श्रुष्टि अपने कमिटमेंट को पूरा कर पाएगी ???
अगर हां तो अच्छी बात है श्रुष्टि के लिए
पर अगर ना तो साक्षी पूरी शक्ति से अपने हाथ खोल सकेगी ????????
ऑफिस में सभी काम करते है पर गेम हर कोई खेलता है, सब को अपने अपने तरीके से आगे की ओर बढ़ना है और सभी यही कोशिश करते है श्रुष्टि भी वही करने की कोशिश में है देखते है आगे श्रुष्टि के नसीब में आगे क्या है ????????
जानिये मेरे साथ अगले भाग में
जारी रहेगा…..
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(09-08-2024, 06:12 PM)maitripatel Wrote: अब आगे......
अगले दिन से श्रृष्टि की कर्म यात्रा एक बार फिर सुचारू हो गई। श्रृष्टि का एक मात्र लक्ष्य था कैसे भी करके अपूर्ण रह गए काम को चार दिन से पहले खत्म कर लिया जाएं। जिसमें उसके सहयोगी भरपूर साथ दे रहें थे मगर साक्षी के मन में द्वेष का पर्दा पड़ चुका था।
साक्षी किसी भी कीमत पर अपूर्ण रह गए काम को पूर्ण होने से रोकना चाहती थीं। और वो भी कम से कम 5 दिन जो श्रुष्टि ने राघव सर को कामिट किया था! इसलिए कभी वो कमरे की लाइट बंद कर देती थी जो की एक बचकाना हरकत थी फ़िर भी कुछ वक्त का नुकसान हों ही जाता था।
कभी वो चाय नाश्ते के बहाने सहयोगियों को बातो में माजा लेती तो कभी जरुरी फाइल कही छुपा देती। जिस वजह से सिर्फ समय की बर्बादी हों रहा था।
जीतना समय श्रृष्टि के हाथ में बच रहा था उतने समय का सदुपयोग करते हुए ओर ज्यादा लगन और रफ़्तार से ख़ुद भी काम कर रहीं थी और सहयोगियों से काम करवा रहीं थीं।
इतनी लगन और रफ़्तार से काम करने का कोई फायदा नहीं हुआ। अंतः साक्षी अपने मकसद में कामियाब हों ही गई। श्रृष्टि को दिए समय से तीन दिन ऊपर हों चुका था। देर होने का जीतना पछतावा श्रृष्टि को हों रहा था उतना ही साक्षी मन ही मन खुश हों रहीं थीं।
बीते एक हफ्ते से राघव रोजाना शाम के चाय के वक्त वहा आता रहा मगर भीतर न जाकर बहार से ही छुप छुप कर श्रृष्टि को देखकर चला जाया करता था। आज फिर शाम के वक्त आया और श्रृष्टि को छुप कर देख रहा था कि सहसा श्रृष्टि को आभास हुआ। द्वार पर कोई हैं।
"द्वार पर कौन हैं।" बोलकर चाय का कप रखा और द्वार की और चल दिया।
अब यहाँ तो सवाल यही उठता है की क्या श्रुष्टि अपने कमिटमेंट को पूरा कर पाएगी ???
अगर हां तो अच्छी बात है श्रुष्टि के लिए
पर अगर ना तो साक्षी पूरी शक्ति से अपने हाथ खोल सकेगी ????????
ऑफिस में सभी काम करते है पर गेम हर कोई खेलता है, सब को अपने अपने तरीके से आगे की ओर बढ़ना है और सभी यही कोशिश करते है श्रुष्टि भी वही करने की कोशिश में है देखते है आगे श्रुष्टि के नसीब में आगे क्या है ????????
जानिये मेरे साथ अगले भाग में
जारी रहेगा…..
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बहुत ही अच्छी कहानी है मैत्री जी| कहानी का वेग उपयुक्त है, सही दिशा देते हुए आप पाठकों को बाँध के रखे हुए हैं|
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चले अब इस कहानी को आगे ले जाया जाये .................अगले भाग की ओर कुच करते है ..........
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जी धन्यवाद आप का
बस बने रहिये अंत तक शायद आप को मजा आएगा लेकिन एक बात धयान रहे इस कहानी में सेक्स नहीं है
लोगो की उम्मीद से विपरीत है ये कहानी हा शायद कुछ शब्द प्रयोग हो सकता है जो की आम भाषा में बोले जाते है
शुक्रिया
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(09-08-2024, 08:56 PM)vickydada1234 Wrote: बहुत ही अच्छी कहानी है मैत्री जी| कहानी का वेग उपयुक्त है, सही दिशा देते हुए आप पाठकों को बाँध के रखे हुए हैं|
जी धन्यवाद आपका
बस बने रहिये अंत तक शायद आपको मजा आएगा बस एक बात ध्यान में रहे की इस कहानी में कोई सेक्स नहीं है
ये कहानी इस फोरम के लोगो के उम्मीद से विपरीत कहानी है ये
हां शायद कुछ शब्द के प्रयोग हो सकता है (गाली) जो की आम भाषा में बोले जाते है
फिर से आपका बहोत बहोत शुक्रिया vickydada1234 जी
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भाग - 10
सहसा श्रृष्टि के आवाज देने से राघव के मस्तिस्क का सर्किट उलझ गया। क्या करे क्या न करे असमंजस की स्थिति में फस गया। मन किया वापस लौट जाएं मगर वो भी नहीं कर सकता था। क्योंकि श्रृष्टि द्वार की ओर आ रहीं थीं। कुछ ही कदम आगे बढ़ पाता कि श्रृष्टि बहार निकलकर उसे देख लेती फ़िर न जानें श्रृष्टि क्या क्या सोच लेती। सहसा राघव ने द्वार को धक्का दिया फ़िर बोला…श्रृष्टि जी मैं राघव।
"अरे सर आप..।" बस इतना ही बोला था कि श्रृष्टि के मन में एक शंका उत्पन्न हुआ और मन ही मन बोलीं...
"कही सर छुपकर तो नहीं देख रहे थे"? पर उन्हे छुपकर देखने की जरूरत क्यों पड़ गईं? वो जब चाहें भीतर आ सकते हैं फिर छुप कर देखने की वजह क्या हों सकता हैं?
"कहीं सर मुझे..." नहीं नहीं मुझे क्यों देखने लगे,
"उस दिन भी तो कैसे टकटकी लगाएं देख रहे थे। जब हम सभी उनके कमरे में गए थे। तो आज छुप कर क्यों नहीं देख सकते हैं?"
नहीं नहीं सर ऐसा नहीं कर सकते।
"मैं भी कितनी पागल हूं क्या से क्या सोचने लग गई लगाता है ज्यादा काम की वजह से मेरा दिमाग फिर गया हैं।"
राघव जिस शंका के चलते वापस नहीं गया। आखिरकार श्रृष्टि के मस्तिष्क ने उस ओर इशारा कर ही दिया। मगर इस वाबली ने अलग ही तर्क देकर अपने मस्तिष्क को चुप करा दिया।
यहां श्रृष्टि ख़ुद से बाते करने में मग्न थी ठीक उसी वक्त राघव भी खुद से बाते करने में मग्न था
"कहीं श्रृष्टि जी को शक तो नहीं हों गया? कि मैं उन्हें छुपकर देख रहा था। नहीं नहीं उनके शक को पुख्ता होने नहीं दिया जा सकता। मुझे कुछ करना होगा जिससे उनका ध्यान उस और न जाएं।"
अजीब कशमकश में दोनो उलझे हुए हैं। एक को शक हों गया मगर अपने मस्तिष्क को तर्क देकर उस ओर सोचने से रोक दिया। दुसरा अगर शक हुआ भी है तो शक को पुख्ता करने के लिए शक पर ध्यान केंद्रित न कर पाएं। उससे रोकना चहता हैं। क्या लिखा है दोनों की किस्मत में ये तो वक्त ही बता सकता हैं हमे सिर्फ उस वक्त का इंतजार करना हैं।
खैर राघव अपने मन की बातों को विराम देते हुए बोला...श्रृष्टि जी काम कहा तक पूरा हुआ?
श्रृष्टि तो उस वक्त मन ही मन खुद से बातें करने में मग्न थी। राघव की बातों को कितना सूना कीतना नहीं ये तो सृष्टि ही जाने। जब मन की बाते खत्म हुआ तब श्रृष्टि बोली…सर आप मेरे लिए जी न लगाया करो।
श्रृष्टि की बाते सुनकर किसी को फर्क पड़ा हों चाहें न पड़ा हों मगर साक्षी को बहुत ज्यादा फर्क पड़ा तभी तो धीरे से बोली... ओ तो किस्सा यहां तक पहुंच गया। मोहतरमा को जी सुनना पसन्द नहीं हैं। तो क्या जी बोलना पसन्द हैं?
इतना बोलकर साक्षी अपने नजरों को इधर उधर घुमाया, कही किसी ने सुना तो नहीं, जब देखा उसके नजदीक कोई खड़ा नहीं हैं तब अपना ध्यान सामने की ओर कर लिया। जहां राघव मुस्कुराते हुए बोला...क्यों?
श्रृष्टि... सर मुझे अच्छा नहीं लगता हैं। आप सिर्फ मेरा नाम लिया कीजिए जैसे साक्षी मैम का और बाकियों का लेते हों।
राघव... अच्छा ठीक हैं श्रृष्टि जी ओ नही नही श्रृष्टि! अब आप ये बताइए काम कहा तक पंहुचा।
श्रृष्टि...सॉरी सर मैंने आपको जो समय बताया था उतने समय में काम पुरा नहीं कर पाई बल्की उससे तीन दिन ज्यादा हों गया फिर भी थोडा काम बाकी रह गया।
राघव... लगता है ज्यादा तारीफ़ करने से आप हवा में उड़ने लग गईं थीं जो चार दिन के जगह सात दिन में भी काम पूरा नहीं हों पाया। लगता है आप भी कुछ लोगों की तरह आलसी हों गई हों ( इतनी बाते साक्षी की ओर देखकर बोला फिर श्रृष्टि की ओर देखकर आगे बोला) श्रृष्टि जिम्मेदारी से काम नहीं कर सकतीं हों तो जिम्मेदारी लेना भी नहीं चाहिए और वादा तो बिल्कुल भी नहीं करना चाहिए। जीतना काम रह गया उसे जल्दी से पूरा कर लिजिए।
इतना बोलकर राघव चला गया और श्रृष्टि एक बार फिर राघव की बातों से आहत हो गई। करें कोई भरे कोई वाला किस्सा एक बार फिर श्रृष्टि के साथ हों गया। काम समय से पूरा न हों पाए इसके लिए अडंगा साक्षी ने लगाया और सुनना श्रृष्टि को पड़ा। उसने साक्षी की ऑर देखा और मन ही मन में गन्दी गाली दे दी !!!
जहां श्रृष्टि आहत थी। वहीं साक्षी मन ही मन खुश हों रहीं थीं। उसकी मनसा जो पूरा हो गया था। वो यहीं तो चाहती थी कि देर होने के कारण राघव श्रृष्टि को कड़वी बातें सुनाए जो राघव सुनाकर चला गया।
अगले दिन ऑफिस आते ही श्रृष्टि की पहली प्राथमिकता अधूरा छूटा काम पूरा करने की थी। जिसे सहयोगियों के साथ पुरा करने में जुट गई। साक्षी का मंतव्य पूरा हो चुका था। इसलिए आज उसने काम में किसी भी तरह का कोई विघ्न उत्पन्न नहीं किया। लगभग दोपहर के खाने के वक्त तक काम पूरा हों गया। एक लंबी गहरी चैन की स्वास भरते हुए श्रृष्टि बोलीं... आखिरकार पूरा हों ही गया। साक्षी मैम आप जाकर सर जी को ये प्रोजैक्ट सौफ आइए।
"ओ तो ये बात हैं कल ही आशंका जताया था और आज वो सच हों गया। मोहतरमा तो सच में जी बोलने लग गईं। ये श्रृष्टि तो रॉकेट की रफ्तार से बढ़ रहीं हैं। जाओ जाओ जितनी रफ़्तार से जाना हैं जाओ। तेरी रफ्तार पर गतिरोध लगाने के लिए मैं हूं।" जी शब्द सुनते ही साक्षी मन ही मन बोलीं जबकि श्रृष्टि ने साधारण लहजे में बोला था। श्रृष्टि के बोलते ही सहयोगियों में से एक बोला... हां साक्षी मैम आप जल्दी से जाकर यह प्रॉजेक्ट राघव सर को सौप आइए वरना देर हुआ तो श्रृष्टि मैम को फिर से सुनना पड़ेगा।
साक्षी...बडी जोरों की भूख लगा है और लंच टाईम भी हों गया है। पहले लंच करूंगी फ़िर जाऊंगी। श्रृष्टि तुम्हें कोई आपत्ती तो नहीं हैं। अगर हो तो बोल दो मैं अभी दे आती हूं।
"नहीं मैम मुझे कोई आपत्ती नहीं हैं।" मुस्कुराते हुए श्रृष्टि बोला।
लंच के बाद साक्षी प्रॉजेक्ट लेकर राघव के पास पहुंच गई। प्रॉजेक्ट देखने के बाद राघव बोला...इतने विघ्न के बाद आखिरकार ये प्रोजैक्ट पूरा हों ही गया। साक्षी मुझे लगता हैं अगर श्रृष्टि तुम्हारे टीम में नहीं होती तो ये प्रोजैक्ट और लंबा खीच जाता। क्यों मैं सही कह रहा हूं न?
"सर आप मुझ पर उंगली उठा रहें हों। इशारों इशारों में मुझे आलसी कह रहें हों।" खीजते हुए साक्षी बोलीं
राघव...मैंने ऐसा तो नहीं कहा खैर छोड़ो अब तुम जाओ और आज रेस्ट कर लो कल से नया काम दूंगा और हा कल तुम सभी को उपहार भी तो देना हैं। यहां उपहार श्रृष्टि के लिए जीतना खास होगा उतना ही खास तुम्हारे लिऐ भी होगा। अब जब खाली समय हैं? तो बैठकर सोच लेना वो खास उपहार क्या हों सकता हैं?
ख़ास उपहार मिलने की बात से साक्षी मुस्कान बिखेरते हुए चली गई (उसके लिए खास का मतलब कुछ और ही था ) उसके जाते ही राघव पूर्वात बैठ कर रहस्यमई मुस्कान से मुस्कुराने लग गया।
यहां साक्षी साथियों के पास वापस आकर रेस्ट करने की बात कहीं तो सब के चेहरे पर मुस्कान आ गया।
रेस्ट करने का ऑर्डर मिल चुका था तो सभी लग गए बतियाने, विविध प्रकार की बाते होने लग गइ। बातों के दौरान एक दूसरे की टांगे खींचा जा रहा था।
नाराज होने के जगह सभी लुफ्त ले रहें थे। धीरे धीरे बातों का सिलसिला आगे बड़ा बढ़ते बढ़ते सहसा एक सहयोगी अपने प्रेम जीवन का बखान सुनाने लग गया। जिसे सुनकर साक्षी बोलीं...श्रृष्टि जरा अपने लव लाईफ के बारे मे भी कुछ बताओं, हम भी तो जानें इतनी खूबसूरत भोली सी सूरत वाली लड़की का कोई तो परवाना होगा जो अपने शब्दों में तुम्हारी तारीफ़ करता हों तुम्हारे नाज नखरे सहता हों।
"ऐसा कोई नहीं है अगर होता तो मैं बता देती।" शरमाई सी श्रृष्टि बोलीं।
"चल झूठी" एक धाप श्रृष्टि के पीठ पर जमाते हुए साक्षी बोलीं।
"मैं झूठ नहीं बोल रहीं हूं चलो माना कि मैं झूठ बोल रहीं हूं। सच आप ही बता दो। आपके लाईफ में कोई तो ऐसा होगा जिसे आप पसन्द करती हों जिसे देखकर आपके दिल का सितार राग छेड़ देता हों।" पलटवार करते हुए श्रृष्टि बोलीं।
"हां है एक, जिसे कई बार इशारा दे चुकी हूं पर निर्मोही ध्यान ही नहीं देता हर बार मेरे चाहत की नाव को बीच धार में डूबा देता हैं।" अफसोस जताते हुए साक्षी ने दिल की बात कह दिया।
"कौन है, कौन है वो निर्मोही" श्रृष्टि सहित सभी उतावला होकर एक स्वर में बोला।
सभी के पूछने पर भी साक्षी ने उस शख्स के बारे मे कुछ नहीं बताया। बार बार पुछा गया प्रत्येक बार सिर्फ नहीं का प्रतिउत्तर आया। अंतः सभी ने इस मुददे को टालकर बातों की दिशा बादल दिया। बातों बातों में यह दिन बीत गया और सभी अपने अपने घरों को ओर प्रस्थान कर गए।
जारी रहेगा….
क्या एक प्रेम कहानी जन्म ले रही है या फिर दो कलि और एक माली ?????
अब ये ख़ास उपहार क्या है ????? सब को असमंजस में डाला हुआ है ??
क्या राघव अपनी जेब से कोई नया पत्ता निकालेगा ????
चलिए जानते है अगले एपिसोड में ..............बने रहिये
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दोस्तों क्षमा याचना
मुझे अपने बिजनेस की वजह से विदेश जाना पड रहा है तो सोमवार को शायद अपडेट नहीं दे पाऊँगी क्यों की मै ट्रांजिट में रहूंगी
लेकिन मैंने एक व्यवश्था की हुई है की आप को अपडेट मिलते रहे लेकिन पोस्टिंग का समय उस व्यक्ति पर निर्भर रहेगा |और लिखने का समय पे आधारित भी है......
और वैसे भी सिर्फ 4 ही दिनों की बात है फिर वापिस
असुविधा के लिए खेद है ..........बने रहिये
कोशिश करती हु शाम तक दूसरा एपिसोड भी दे दू ताकि कल रविवार को समय मिले ना मिले ......
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चलिए जैसा की मैंने कहा था की शाम तक और एक एपिसोड दे दूंगी कोशिश काम्याब हुई .... एक और एपिसोड तैयार हो चुका है
क्या पता कल सब का रविवार है पढेंगे भी या नहीं ...............
सोमवार को मै नहीं हु तो एपिसोड नहीं दे पाउंगी
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भाग - 11
सभी के पूछने पर भी साक्षी ने उस शख्स के बारे मे कुछ नहीं बताया। बार बार पुछा गया प्रत्येक बार सिर्फ नहीं का प्रतिउत्तर आया। अंतः सभी ने इस मुद्दे को टालकर बातों की दिशा बदल दिया। बातों बातों में यह दिन बीत गया और सभी अपने अपने घरों को ओर प्रस्थान कर गए।
अगले दिन सभी समय से दफ्तर आ गए मगर राघव कुछ देर से आया। जब वो आया उस वक्त उसका चेहरा उतरा हुआ था। ऐसा लग रहा था जैसे किसी बात से उसको गहरा धक्का लगा हों।
किसी तरह चेहरे के भाव को छुपाए, और बिना किसी से बात किए दफ्तर के निजी कमरे में चला गया। राघव के इस रवैया से जो जो उसे अपने दफ्तर के निजी कमरे तक आने के रास्ते में मिले सभी के सभी हैरत में पड़ गए क्योंकि राघव दफ्तर आते ही दफ्तर के निजी कमरे में जाते वक्त रास्ते में जो जो मिलता था सभी का हांल चाल पूछते हुए जाता था। मगर आज ऐसा नहीं किया जिस कारण सभी हैरत में रह गए।
दफ्तर के निजी कमरे में राघव गुमसुम सा बैठा कुछ सोच रहा था और पेपर वेट को गुमा रहा था। उसी वक्त एक शख्स कमरे में प्रवेश किया ओर बोला... राघव बेटा।
शख्स की आवाज सुनते ही राघव की निगाह उस शख्स की ओर गया। "पापा" बस ये लव्ज निकला फिर आंखो से सैलाव की तरह झर झर आसूं बह निकला। राघव को यूं आसूं बहाता देख वो शख्स तुंरत राघव के पास पहुंचे और गले से लगा लिया फ़िर बोला... राघव तू चंद्रेश तिवारी का बेटा है तिवारी कंस्ट्रक्शन ग्रुप का मालिक हैं फ़िर भी चंद बातों से इतना आहत हों गया कि आंसुओ का सैलाब ला दिया। देख अपने बाप को जिसे बडी बडी आंधी भी डिगा नहीं पाया तू उस अडिग चंद्रेश तिवारी का बेटा होकर रो रहा हैं।
"पापा मैं आपकी तरह मजबूत नहीं हूं और ना ही मैं कोई पत्थर हूं। एक साधारण सा मानव हूं जिसे कांटा चुभने पर दर्द होता हैं। जब वो कांटा अपनो के दिए तंज का हों तब और ज्यादा चुभता हैं।" सुबकते हुए राघव ने अपनी व्यथा सुना दिया।
"नहीं रोते तू तो बचपन में चोट लगने पर भी नहीं रोता था फिर अब क्यों?"
" क्यों? सौतेले का तंज खुले चोट से ज्यादा दर्द देता हैं जो मूझसे सहन नहीं होता हैं। मैं तो उन्हें सौतेला नहीं मानता फिर क्यों मां और अरमान मुझे सौतेला बेटा, सौतेला भाई कहकर ताने देते रहते हैं। आज भी मां ने सिर्फ इसलिए ताने दिया क्योंकि मैने अरमान को जयपुर भेज दिया। आप ही बताइए मैं अकेला क्या क्या करूं उसकी भी तो कुछ ज़िम्मेदारी बनती हैं।"
तिवारी... सब मेरी ही करनी का फल हैं जो तुझे भोगना पड़ रहा हैं। मैं उस वक्त तेरे भले का न सोचा होता तो आज तुझे यूं तंज न सुनना पड़ता मगर तू फिक्र न कर जल्दी ही मैं इसका कुछ समाधान निकल लूंगा।
राघव... पापा आप मां का कहना मान लिजिए जायदाद का 60 प्रतिशत हिस्सा उनके और अरमान के नाम कर दीजिए बाकी का बचा हुआ मेरे और आपके नाम कर लिजिए शायद इसी बहाने मुझे मां की ममता ओर प्यार का छाव मिल जाएं जिसके लिए अपने उनसे शादी किया था।
तिवारी... क्या किया जा सकता है मैं इस पर विचार करके देखता हूं। अब तू चल कैंटीन से कुछ खा ले।
राघव जानें को तैयार नहीं हो रहा था तब तिवारी जी राघव को सुरसुरी करते हुए बोला... जब तक तू नाश्ता करने जाने को तैयार नहीं होता तब तक मैं तुझे सुरसुरी करता रहूंगा। अब तू सोच कब तक यूं सुरसुरी करना सह सकता हैं।
"पापा छोड़िए न ये घर नही दफ्तर हैं।" खिलखिलाते हुए राघव बोला।
तिवारी... दफ्तर है तो क्या हुआ जब तक तू नाश्ता करने को तैयार नहीं होता तब तक मैं नहीं रूकने वाला।
ज्यादा देर राघव सुरसुरी सह नहीं पाया अंतः हार मानकर नाश्ता करने चल दिया।
जारी रहेगा भाग
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अब आगे
अब कुछ बाते जान लेते हैं जिससे पाठक बंधु भ्रमित न हों। चंद्रेश तिवारी अपना सफर एक छोटा सा भवन निर्माता से शुरू किया था जो समय के साथ एक नामी कंस्ट्रक्शन ग्रुप में बदल गया। चंद्रेश तिवारी का छोटा सा हसता खेलता सुखी परिवार हुआ करता था। सहसा एक दुर्घटना में उनकी पत्नी चल बसी राघव उस वक्त सिर्फ पांच साल का था।
तिवारी के सामने अब दुविधा ये थीं कि काम देखे की अपने पांच साल के बेटे को, काम से मुंह मोड़ नहीं सकता था और बेटे से भी मुंह नहीं मोड़ सकता था। दोस्तों और रिश्तेदारों ने दुसरी शादी करने की सलाह दिया पहले तो नकार दिया फ़िर बहुत समजाने के बाद मान लिया ये सोचकर राघव को एक मां का प्यार और देखभाल करने वाला मिल जायेगा।
तब एक रिश्तेदार के जरिए बरखा से मिला जो तलाक सुदा थी साथ ही एक बेटा भी था। तिवारी ठहरे भले मानुष उन्हें उन पर दया आ गई तब उन्होंने सोचा राघव को मां और अरमान को बाप का छाव मिल जायेगा। यहीं तिवारी से गलती हों गया। शादी के बाद अरमान को बाप का प्यार मिलता रहा लेकिन राघव मां की ममता के लिए तरसता रहा।
तिवारी के सामने बरखा मेरा बेटा मेरा बेटा करती रहती। तिवारी के बहार जाते ही राघव के साथ बुरा सलूक करना शुरू कर देती साथ ही डराकर रखती थीं कि अगर पापा को बताया तो उसे इस घर से बहार कर देगी विचारा घर से दूर जानें की बात से ही सहम जाता था और तिवारी से कुछ नहीं कहता था।
धीरे धीरे समय बीता गया और राघव साल दर साल बड़ा होता गया मगर उसकी यातनाओं में रत्ती भर भी कमी नहीं आया इससे परेशान होकर उच्च शिक्षा के लिए बहार चला गया और जब तब भवन इंजीनियर नहीं बन गया तब तक घर नहीं लौटा।
राघव छुट्टियों में भी घर नहीं आता था। सहसा तिवारी के मन में शंका घर कर गया कि जो घर से दूर जाना नहीं चाहता था वो घर से जाते ही घर आने को राजी क्यों नहीं हो रहा हैं। बरखा से कारण जानना चाहा मगर उसने भी गोल मोल जवाब दे दिया।
बरखा की जवाब से तिवारी को संतुष्टि नहीं मिला तो राघव के पास पहुंच गया। बहुत कहने के बाद आखिरकर राघव ने सच्चाई बता ही दिया। सच्चाई जानकार तिवारी को बहुत गुस्सा आया उसका मन किया बरखा को तलाक दे दे पर मां की गलती की सजा बेटे को नहीं देना चहता था। इसलिए तलाक देने का विचार त्याग दिया।
इन्हीं दिनों तिवारी का लगाव बरखा से खत्म हों गया था लेकिन अरमान से पूर्ववत बना रहा। वहां राघव पढाई पर ध्यान दे रहा था और यहां अरमान बाप के पैसे को मौज मस्ती में लूटा रहा था। कई बार तिवारी ने टोका मगर इसका नतीजा बरखा के साथ तू तू मैं मैं हों जाता था।
राघव अपनी पढ़ाई खत्म करके घर लौट आया और बाप को रिटायरमेंट देकर सभी ज़िम्मेदारी अपने कंधे ले लिया फिर अपने कार्य कुशलता से बाप का काम और नाम को ऊंचाई पर ले जानें लग गया।
अरमान कभी मन होता तो राघव का हाथ बटा देता वरना मौज मस्ती में लगा रहता। अरमान की कारस्तानी से परेशान होकर कभी कभी राघव टोक देता और तिवारी तो पल पल टोकते ही रहते थे इसका नतीजा ये आया की गृह कलेश बढ गया।
रोज रोज के कलेश से परेशान होकर तिवारी ने दोनों मां बेटे को सबक सिखाने के लिए चल अचल संपूर्ण संपत्ति का 30 30 प्रतिशत हिस्सा राघव और खुद के नाम कर लिया और बाकी बचे हिस्से का 20 20 प्रतिशत हिस्सा बरखा और अरमान के नाम कर दिया।
ये बात अरमान और बरखा को पसंद नहीं आया इसलिए दोनों मां बेटे खुलकर सामने आ गए और राघव को तिवारी के सामने ताने देने लग गए तिवारी कुछ कहता तो उससे भी लड़ पड़ते थे। इन्हीं वजह से परेशान होकर बरखा को तलाक देकर और कुछ हर्जाना भरकर इस मामले को रफा दफा कर देने की बात सोचा मगर ये भी नहीं कर पाया ये सोचकर कि कहीं समाज के ठेकेदार ये न कहें कि जब जरूरत थी तब बरखा से शादी कर लिया अब जरूरत खत्म हो गया तो बरखा और उसके बेटे को बेसहारा छोड़ दिया। अंतः मजबूर होकर तिवारी ख़ुद के किए एक फैसले पर पछताते हुए इस रिश्ते के बोझ को सहे जा रहा हैं और राघव खाने से ज्यादा ताने सुनकर दिन काट रहा हैं।
नाश्ता करते वक्त तिवारी ने बेटे को एक बार फिर से समझाया फ़िर थोडा हसाया जिससे राघव का मुड़ सही हों गया। नाश्ते के बाद बेटे को दफ्तर के निजी कमरे में छोड़कर चला गया। बाप के जाते ही राघव ने एक फोन करके किसी को बुलाया।
क्या यही जिंदगी है कोई क्षण ख़ुशी तो कभी गम !!!!!????
इस कहानी में मुझे लगता है हर पात्र दो तरफा जिंदगी जी रहा है आशा और निराशा, गम और ख़ुशी, शायद हम भी अपनी जिंदगी में ऐसे ही है क्या पता ???? आप खुद ही सोच लीजिये अपनी जिंदगी के बारे में .........
फिर भी सभी आशावादी है, हर सुबह एक नयी अच्छी आशा के साथ अपनी जिंदगी को आगे बढाने के लिए ...........
जारी रहेगा….अगले एपिसोड में मिलते है ............
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