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Thriller सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा
#21
सिंदबाद जहाजी की पहली यात्रा










जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#22
सिंदबाद ने कहा कि मैंने अच्छी-खासी पैतृक संपत्ति पाई थी किंतु मैंने नौजवानी की मूर्खताओं के वश में पड़कर उसे भोग-विलास में उड़ा डाला। मेरे पिता जब जीवित थे तो कहते थे कि निर्धनता की अपेक्षा मृत्यु श्रेयस्कर है। सभी बुद्धिमानों ने ऐसा कहा है। मैं इस बात को बार-बार सोचता और मन ही मन अपनी दुर्दशा पर रोता। अंत में जब निर्धनता मेरी सहन शक्ति के बाहर हो गई तो मैंने अपना बचा-खुचा सामान बेच डाला और जो पैसा मिला उसे लेकर समुद्री व्यापारियों के पास गया और कहा कि अब मैं भी व्यापार के लिए निकलना चाहता हूँ। उन्होंने मुझे व्यापार के बारे में बड़ी अच्छी सलाह दी। उसके अनुसार मैंने व्यापार की वस्तुएँ मोल लीं और उन्हें लेकर उनमें से एक व्यापारी के जहाज पर किराया देकर सामान लादा और खुद सवार हो गया। जहाज अपनी व्यापार यात्रा पर चल पड़ा।

जहाज फारस की खाड़ी में से होकर फारस देश में पहुँचा जो अरब के बाईं ओर बसा है और हिंदुस्तान के पश्चिम की ओर। फारस की खाड़ी लंबाई में ढाई हजार मील और चौड़ाई में सत्तर मील थी। मुझे समुद्री यात्रा का अभ्यास नहीं था इसलिए कई दिनों तक मैं समुद्री बीमारी से ग्रस्त रहा। फिर अच्छा हो गया। रास्ते में हमें कई टापू मिले जहाँ हम लोगों ने माल खरीदा और बेचा। एक दिन हमारा जहाज पाल उड़ाए हुए जा रहा था। तभी हमारे सामने एक हरा-भरा सुंदर द्वीप दिखाई दिया। कप्तान ने जहाज के पाल उतरवा लिए और लंगर डाल दिए और कहा कि जिन लोगों का जी चाहे वे इस द्वीप की सैर कर आएँ। मैं और कई अन्य व्यापारी, जो जहाज पर बैठे-बैठे ऊब गए थे, खाने का सामान लेकर उस द्वीप पर नाव द्वारा चले गए। किंतु वह द्वीप उस समय हिलने लगा जब हमने खाना पकाने के लिए आग जलाई। यह देखकर व्यापारी चिल्लाने लगे कि भाग कर जहाज पर चलो, यह टापू नहीं, एक बड़ी मछली की पीठ है। सब लोग कूद-कूद कर जहाज की छोटी नाव पर बैठ गए। मैं अकुशलता के कारण ऐसा न कर सका। नाव जहाज की ओर चल पड़ी। इधर मछली ने, जो हमारे आग जलाने से जाग गई थी, पानी में गोता लगाया। मैं समुद्र में बहने लगा। मेरे हाथ में सिर्फ एक लकड़ी थी जिसे मैं जलाने के लिए लाया था। उसी के सहारे समुद्र में तैरने लगा। मैं जहाज तक पहुँच पाऊँ इससे पहले ही जहाज लंगर उठा कर चल दिया।

मैं पूरे एक दिन और एक रात उस अथाह जल में तैरता रहा। थकन ने मेरी सारी शक्ति हर ली और मैं तैरने के लिए हाथ-पाँव चलाने के योग्य भी न रहा। मैं डूबने ही वाला था कि एक बड़ी समुद्री लहर ने मुझे उछाल कर किनारे पर फेंक दिया। किंतु किनारा समतल नहीं था। बल्कि खड़े ढलवान का था। मैं किसी प्रकार मरता-गिरता वृक्षों की जड़ें पकड़ता हुआ ऊपर पहुँचा और मुर्दे की भाँति जमीन पर गिर रहा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#23
जब सूर्योदय हुआ तो मेरा भूख से बुरा हाल हो गया। पैरों से चलने की शक्ति नहीं थी इसलिए घुटनों के बल घिसटता हुआ चला। सौभाग्य से कुछ ही दूर पर मुझे मीठे पानी का एक सोता मिला जिसका पानी पीकर मुझमें जान आई। मैंने तलाश करके कुछ मीठे फल और खाने लायक पत्तियाँ भी पा लीं और उनसे पेट भर लिया। फिर मैं द्वीप में इधर-उधर घूमने लगा। मैंने एक घोड़ी चरती देखी। बहुत सुंदर थी किंतु पास जाकर देखा तो पाया कि खूँटे से बँधी थी। फिर पृथ्वी के नीचे से मुझे कुछ मनुष्यों के बोलने की आवाज आई और कुछ देर में एक आदमी जमीन से निकल कर मेरे पास आकर पूछने लगा कि तुम कौन हो, क्या करने आए हो। मैं ने उसे अपना हाल बताया तो वह मुझे पकड़कर तहखाने में ले गया।

वहाँ कई मनुष्य और थे। उन्होंने मुझे खाने को दिया। मैंने उनसे पूछा कि तुम लोग इस निर्जन द्वीप में तहखाने में बैठे क्या कर रहे हो। उन्होंने बताया, हम लोग बादशाह के साईस हैं। इस द्वीप के स्वामी बादशाह वर्ष भर में एक बार यहाँ अपनी अच्छी घोड़ियाँ भेजते हैं ताकि उन्हें दरियाई घोड़ों से गाभिन कराया जाए। इस तरह जो बछेड़े पैदा होते हैं वे राजघराने के लोगों की सवारी के काम आते हैं। हम घोड़ियों को यहाँ बाँध देते हैं और छुपकर बैठ जाते हैं। दरियाई घोड़े की आदत होती है कि वह संभोग के बाद घोड़ी को मार डालता है। जब वह घोड़ा संभोग के बाद हमारी घोड़ी को मारना चाहता है तो हम लोग तहखाने से बाहर निकलकर चिल्लाते हुए उसकी ओर दौड़ते हैं। घोड़ा हमारा शब्द सुनकर भाग जाता है और समुद्र में डुबकी लगा लेता है। कल हम लोग अपनी राजधानी को वापस होंगे।

मैंने उनसे कहा कि मैं भी तुम लोगों के साथ चलूँगा क्योंकि इस द्वीप से तो किसी तरह खुद अपने देश को जा नहीं सकता। हम लोग बातचीत कर ही रहे थे कि दरियाई घोड़ा समुद्र से निकला और घोड़ी से संभोग करके वह उसे मार ही डालना चाहता था कि साईस लोग चिल्लाते हुए दौड़े और घोड़ा भाग कर समुद्र में जा छुपा। दूसरे दिन वे सारी घोड़ियों को इकट्ठा करके राजधानी में आए। मैं भी उनके साथ चला गया। उन्होंने मुझे अपने बादशाह के सामने पेश किया। उसके पूछने पर मैंने अपना सारा हाल कहा। उसे मुझ पर बड़ी दया आई। उसने अपने सेवकों को आज्ञा दी कि इस आदमी को आराम से रखो। अतएव मैं सुख- सुविधापूर्वक रहने लगा।

मैं वहाँ व्यापारियों और बाहर से आने वाले लोगों से मिलता रहता था ताकि कोई ऐसा मनुष्य मिले जिसकी सहायता से मैं बगदाद पहुँचूँ। वह नगर काफी बड़ा और सुंदर था और प्रतिदिन कई देशों के जहाज उसके बंदरगाह पर लंगर डालते थे। हिंदुस्तान तथा अन्य कई देशों के लोग मुझसे मिलते रहते और मेरे देश की रीति-रस्मों के बारे में पूछते रहते और मैं उन से उनके देश की बातें पूछता।

बादशाह के राज्य में एक सील नाम का द्वीप था। उसके बारे में सुना था कि वहाँ से रात-दिन ढोल बजने की ध्वनि आया करती है। जहाजियों ने मुझे यह भी बताया कि वहाँ के *ों का विश्वास है कि सृष्टि के अंतकाल में एक अधार्मिक और झूठा आदमी पैदा होगा जो यह दावा करेगा कि मैं ही ईश्वर हूँ। वह काना होगा और गधा उसकी सवारी होगी। मैं एक बार वह द्वीप देखने भी गया। रास्ते में समुद्र में मैंने विशालकाय मछलियाँ देखीं। वे सौ-सौ हाथ लंबी थीं बल्कि उनमें से कुछ तो दो-दो सौ हाथ लंबी थीं। उन्हें देखकर डर लगता था। किंतु वे स्वयं इतनी डरपोक थीं कि तख्ते पर आवाज करने से ही भाग जाती थीं। एक और तरह की मछली भी मैंने देखी। उसकी लंबाई एक हाथ से अधिक न थी किंतु उसका मुँह उल्लू का-सा था। मैं इसी प्रकार बहुत समय तक सैर-सपाटा करता रहा।

एक दिन मैं उस नगर के बंदरगाह पर खड़ा था। वहाँ एक जहाज ने लंगर डाला और उसमें कई व्यापारी व्यापार वस्तुओं की गठरियाँ लेकर उतरे। गठरियाँ जहाज के ऊपरी तख्ते पर जमा थीं और तट से साफ दिखाई देती थीं। अचानक एक गठरी पर मेरी नजर पड़ी जिस पर मेरा नाम लिखा था। मैं पहचान गया कि यह वही गठरी है जिसे मैंने बसरा में जहाज पर लादा था। मैं जहाज के कप्तान के पास गया। उसने समझ लिया था कि मैं डूब चुका हूँ। वैसे भी इतने दिनों की मुसीबतों और चिंता के कारण मेरी सूरत बदल गई थी इसलिए वह मुझे पहचान न सका।

मैं ने उससे पूछा कि यह लावारिस-सी लगने वाली गठरी कैसी है। उसने कहा, हमारे जहाज पर बगदाद का एक व्यापारी सिंदबाद था। हम एक रोज समुद्र के बीच में थे कि एक छोटा-सा टापू दिखाई दिया और कुछ व्यापारी उस पर उतर गए। वास्तव में वह टापू न था बल्कि एक बहुत बड़ी मछली की पीठ थी जो सागर तल पर आकर सो गई थी। जब व्यापारियों ने खाना बनाने के लिए उस पर आग जलाई तो पहले तो वह हिली फिर समुद्र में गोता लगा गई। सारे व्यापारी नाव पर या तैरकर जहाज पर आ गए किंतु बेचारा सिंदबाद वहीं डूब गया। ये गठरियाँ उसकी ही हैं। अब मैंने इरादा किया है इस गठरी का माल बेच दूँ और इसका जो दाम मिले उसे बगदाद में सिंदबाद के परिवार वालों के पास पहुँचा दूँ।

मैंने उससे कहा कि जिस सिंदबाद को तुम मरा समझ रहे हो वह मैं ही हूँ और यह गठरी तथा इसके साथ की गठरियाँ मेरी ही हैं। उसने कहा, 'अच्छे रहे, मेरे आदमी का माल हथियाने के लिए खुद सिंदबाद बन गए। वैसे तो शक्ल-सूरत से भोले लगते हो मगर यह क्या सूझी है कि इतना बड़ा छल करने को तैयार हो गए। मैंने स्वयं सिंदबाद को डूबते देखा है। इसके अतिरिक्त कई व्यापारी भी साक्षी हैं कि वह डूब गया है। मैं तुम्हारी बात पर कैसे विश्वास करूँ।

मैंने कहा, भाई कुछ सोच-समझ कर बात करो। तुमने मेरा हाल तो सुना ही नहीं और मुझे झूठा बना दिया। उसने कहा, अच्छा बताओ अपना हाल। मैंने सारा हाल बताया कि किस प्रकार लकड़ी के सहारे तैरता रहा और चौबीस घंटे समुद्र में तैरने के बाद निर्जन द्वीप में पहुँचा और किस तरह से बादशाह के साईसों ने मुझे वहाँ से लाकर बादशाह के सामने पेश किया।

कप्तान को पहले तो मेरी कहानी पर विश्वास न हुआ। फिर उसने ध्यानपूर्वक मुझे देखा और अन्य व्यापारियों को भी मुझे दिखाया। सभी ने कुछ देर में मुझे पहचान लिया और कहा कि वास्तव में यह सिंदबाद ही है। सब लोग मुझ नया जीवन पाने पर बधाई और भगवान को धन्यवाद देने लगे।

कप्तान ने मुझे गले लगाकर कहा, ईश्वर की बड़ी दया है कि तुम बच गए। अब तुम अपना माल सँभालो और इसे जिस प्रकार चाहो बेचो। मैंने कप्तान की ईमानदारी की बड़ी प्रशंसा की और कहा कि मेरे माल में से थोड़ा-सा तुम भी ले लो। किंतु उसने कुछ भी नहीं लिया, सारा माल मुझे दे दिया।

मैं ने अपने सामान में से कुछ सुंदर और बहुमूल्य वस्तुएँ बादशाह को भेंट कीं। उसने पूछा, तुझे यह मूल्यवान वस्तुएँ कहाँ से मिलीं? मैंने उसे पूरा हाल सुनाया। वह यह सुनकर बहुत खुश हुआ। उसने मेरी भेंट सहर्ष स्वीकार कर ली और उसके बदले में उनसे कहीं अधिक मूल्यवान वस्तुएँ मुझे दे दीं। मैं उससे विदा होकर फिर जहाज पर आया और अपना माल बेचकर उस देश की पैदावार यथा चंदन, आबनूस, कपूर, जायफल, लौंग, काली मिर्च आदि ली और फिर जहाज पर सवार हो गया। कई देशों और टापुओं से होता हुआ हमारा जहाज बसरा के बंदरगाह पर पहुँचा। वहाँ से स्थल मार्ग से बगदाद आया। इस व्यापार में मुझे एक लाख दीनार का लाभ हुआ। मैं अपने परिवार वालों और बंधु-बांधवों से मिलकर बड़ा प्रसन्न हुआ। मैं ने एक विशाल भवन बनवाया और कई दास और दासियाँ खरीदीं और आनंद से रहने लगा। कुछ ही दिनों में मैं अपनी यात्रा के कष्टों को भूल गया।

सिंदबाद ने अपनी कहानी पूरी करके गाने-बजाने वालों से, जो उसके यात्रा वर्णन के समय चुप हो गए थे, दुबारा गाना-बजाना शुरू करने को कहा। इन्हीं बातों में रात हो गई। सिंदबाद ने चार सौ दीनारों की एक थैली मँगाकर हिंदबाद को दी और कहा कि अब तुम अपने घर जाओ, कल फिर इसी समय आना तो मैं तुम्हें अपनी यात्राओं की और कहानियाँ सुनाऊँगा। हिंदबाद ने इतना धन पहले कभी देखा न था। उसने सिंदबाद को बहुत धन्यवाद दिया। उसके आदेश के अनुसार हिंदबाद दूसरे अच्छे और नए वस्त्र पहन कर उसके घर आया। सिंदबाद उसे देखकर प्रसन्न हुआ और उसने मुस्कराकर हिंदबाद से उसकी कुशल-क्षेम पूछी।

कुछ देर में सिंदबाद के अन्य मित्र भी आ गए और नित्य के नियम के अनुसार स्वादिष्ट व्यंजन सामने लाए गए। जब सब लोग खा-पीकर तृप्त हो चुके तो सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, अब मैं तुम लोगों को अपनी दूसरी सागर यात्रा की कहानी सुनाता हूँ, यह पहली यात्रा से कम विचित्र नहीं है। सब लोग ध्यान से सुनने लगे और सिंदबाद ने कहना शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#24

 
सिंदबाद जहाजी की दूसरी यात्रा

जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#25
मित्रो, पहली यात्रा में मुझ पर जो विपत्तियाँ पड़ी थीं उनके कारण मैंने निश्चय कर लिया था कि अब व्यापार यात्रा न करूँगा और अपने नगर में सुख से रहूँगा। किंतु निष्क्रियता मुझे खलने लगी, यहाँ तक कि मैं बेचैन हो गया और फिर इरादा किया कि नई यात्रा करूँ और नए देशों और नदियों, पहाड़ों आदि को देखूँ। अतएव मैंने भाँति-भाँति की व्यापारिक वस्तुएँ मोल लीं और अपने विश्वास के व्यापारियों के साथ व्यापार यात्रा का कार्यक्रम बनाया। हम लोग एक जहाज पर सवार हुए और भगवान का नाम लेकर कप्तान ने जहाज का लंगर उठा लिया और जहाज पर चल पड़ा।

हम लोग कई देशों और द्वीपों में गए और हर जगह क्रय-विक्रय किया। फिर एक दिन हमारा जहाज एक हरे-भरे द्वीप के तट से आ लगा। उस द्वीप में सुंदर और मीठे फलों के बहुत से वृक्ष थे। हम लोग उस द्वीप पर सैर के लिए उतर गए। किंतु वह द्वीप बिल्कुल उजाड़ था यानी वहाँ किसी मनुष्य का नामोनिशान भी नहीं था, बल्कि कोई पक्षी भी दिखाई नहीं देता था। मेरे साथी पेड़ों से फल तोड़ने लगे लेकिन मैंने एक सोते के किनारे बैठ कर खाना निकाला और खाया और उसके साथ शराब पी। शराब कुछ अधिक हो गई और मैं सो गया तो बहुत समय तक सोता ही रहा। जब आँख खुली तो देखा कि मेरा कोई साथी वहाँ नहीं है और हमारा जहाज भी पाल उड़ाता हुआ समुद्र में आगे जा रहा है। कुछ ही क्षणों में जहाज मेरी आँखों से ओझल हो गया।

मैंने यह देखा तो हतप्रभ रह गया। मुझे उस समय जो दुख और संताप हुआ उसका मैं वर्णन नहीं कर सकता। मुझे विश्वास हो गया कि इसी उजाड़ द्वीप में मैं मर जाऊँगा और मेरी खबर लेने वाला भी कोई न रहेगा। मैं चिल्ला-चिल्ला कर रोने लगा और सिर और छाती पीटने लगा। मैं अपने को बार-बार धिक्कारता कि कमबख्त तुझ पर पहली यात्रा ही में क्या कम विपत्तियाँ पड़ी थीं कि दुबारा यह मुसीबत मोल ले ली। लेकिन कब तक रोता-पीटता। अंत में भगवान का नाम लेकर उठा और इधर-उधर घूमने लगा कि कोई राह मिले तो जाऊँ। कोई रास्ता न दिखाई दिया तो मैं एक ऊँचे पेड़ पर चढ़ गया कि शायद इधर-उधर कोई ऐसी जगह मिले जहाँ रात काटूँ। किंतु द्वीप के पेड़ों, समुद्र के जल और आकाश के अतिरिक्त कुछ न देख सका।

कुछ देर बाद टापू पर मुझे दूर पर एक सफेद चीज दिखाई दी। मैंने सोचा कि शायद वहीं ठिकाना मिले यद्यपि समझ में नहीं आता था कि वह क्या है। मैं पेड़ से उतरा और अपना बचा-खुचा खाना लेकर उस सफेद चीज के पास पहुँचा। वह एक बड़े गुंबद-सा था लेकिन उसका कोई दरवाजा न था। वह चिकनी चीज थी जिस पर चढ़ा भी नहीं जा सकता था। उसके चारों ओर घूमने में पचास कदम होते थे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#26
अचानक मैंने देखा कि अँधेरा हो गया। मुझे आश्चर्य हुआ कि यह शाम का समय तो है नहीं, अँधेरा कैसे हो गया। फिर मैंने देखा कि एक विशालकाय पक्षी जो मेरे अनुमान में भी पहले नहीं आ सकता था मेरी तरफ उड़ा आता है। मैं उसे देखकर भयभीत हुआ। फिर मुझे कुछ जहाजियों के मुँह से सुनी बात याद आई कि रुख नामी एक बहुत ही बड़ा पक्षी होता है। अब मैंने जाना कि वह सफेद विशालकाय वस्तु इसी मादा रुख का अंडा है। मादा रुख आकर अपने अंडे पर उसे सेने के लिए बैठ गई। उसका एक पाँव मेरे समीप पड़ गया। उसका एक-एक नाखून एक बड़े वृक्ष की जड़ जैसा था। मैंने अपनी पगड़ी से अपना शरीर उसके एक नाखून से कसकर बाँध लिया क्योंकि मुझे आशा थी कि यह पक्षी कहीं उड़कर जाएगा ही।

सवेरे वह पक्षी उड़ा और इतना ऊँचा हो गया कि जहाँ से पृथ्वी बड़ी कठिनता से दिखाई देती थी। कुछ ही देर में वह उतर कर एक बड़े जंगल में जा पहुँचा। मैंने जमीन से लगते ही अपनी पगड़ी की गाँठ खोलकर उससे अलग हो गया। उसी समय रुख ने एक बहुत ही बड़े अजगर को धर दबोचा और उसे पंजों में लेकर फिर उड़ गया।

जहाँ मुझे रुख ने छोड़ा था वह एक बहुत नीची और खड़ी ढलान की एक घाटी थी। वहाँ पर आने जाने की शक्ति किसी मनुष्य में नहीं हो सकती। मुझे खेद हुआ कि मैं कहाँ आ गया, यह जगह उस द्वीप से भी खराब है। मैंने देखा कि वहाँ की भूमि पर असंख्य हीरे बिखरे पड़े हें। उनमें से कुछ तो इतने बड़े थे जो साधारण मनुष्य के अनुमान के बाहर थे। मैंने बहुत से हीरे इकट्ठे किए और एक चमड़े की थैली में उन्हें भर लिया। किंतु हीरों के मिलने की प्रसन्नता क्षणिक ही थी क्योंकि मैंने शाम होते ही यह भी देखा कि वहाँ बहुत-से अजगर तथा अन्य विशालकाय और भयानक साँप घूम रहे हैं। यह साँप दिन में रुख के डर से खोहों में छुपे रहते थे और रात को निकलते थे। मैंने भाग्यवश एक छोटी-सी गुफा पा ली और उसमें छुपकर बैठ गया और उसका मुँह पत्थरों से अच्छी तरह बंद कर दिया ताकि कोई अजगर अंदर न आ सके। मैंने अपने पास बँधे भोजन में से कुछ खाया किंतु मुझे रात भर नींद नहीं आई क्योकि साँपों और अजगरों की भयानक फुसकारें मुझे डराती रहीं और मैं रात भर जान के डर से काँपता रहा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#27
सुबह होने पर साँप फिर छुप गए और मैं बाहर निकल कर एक खुली जगह में सो गया। कुछ ही देर में मेरे पास एक भारी-सी चीज गिरी। आवाज से मेरी आँख खुल गई। मैंने देखा कि वह एक विशाल मांस पिंड था। कुछ ही देर में देखा कि इसी तरह के अन्य मांस पिंड घाटी में चारों ओर से गिरने लगे। मुझे यह सब देखकर घोर आश्चर्य हुआ।

कुछ ही देर में मुझे जहाजियों के मुँह से सुनी एक बात याद आई कि एक घाटी में असंख्य हीरे हैं। किंतु वहाँ कोई जा नहीं सकता। हीरों के व्यापारी आस-पास के पहाड़ों पर चढ़कर वहाँ बड़े-बड़े मांस पिंड फेंक देते हैं जिनमें हीरे चिपक जाते हैं। इसके बाद विशालकाय गिद्ध आकर उन मांस पिंडों को ले जाते हैं। जब वे ऊपर बने अपने घोंसलों में जाते हैं तो व्यापारी लोग बड़ा शोरगुल करके उन्हें उड़ा देते हैं और मांस पिंडों में चिपके हुए हीरे ले लेते हैं।

मैं पहले परेशान था कि इस कब्र जैसी घाटी से कैसे निकलूँगा क्योंकि पिछले दिन बहुत घूमने-फिरने पर भी निकलने की कोई राह नहीं दिखाई दी थी। किंतु उन मांस पिंडों को देख कर मुझे बाहर निकलने की कुछ आशा बँधी। मैंने पुराने उपाय से काम लिया। मैंने अपने को एक मांस पिंड के नीचे की ओर बाँध लिया। कुछ ही देर में एक विशाल गिद्ध उतरा और मांस पिंड को और उसके साथ मुझे लेकर उड़ गया। मैंने वह चमड़े की थैली भी मजबूती से अपनी कमर में बाँध ली जिसमें पहले मेरा भोजन था। और जिसमें बाद में मैंने हीरे भर लिए थे। गिद्ध ने मुझे पहाड़ की चोटी पर बने अपने घोंसले में पहुँचा दिया। मैंने तुरंत स्वयं को मांस खंड से अलग कर लिया।

उसी समय बहुत-से व्यापारी शोरगुल करते हुए आए और बड़ा गिद्ध डरकर भाग गया। उन व्यापारियों में से एक की दृष्टि मुझ पर पड़ी। वह मुझे देख कर मुझ पर क्रोध करने लगा कि तू यहाँ क्यों आया। उसने समझा कि मैं हीरे चुराने के लिए गिद्ध के घोंसले में चला आया था। अन्य व्यापारियों ने भी मुझे घेर लिया। मैंने कहा कि भाइयो, आप लोग मेरी कहानी सुनेंगे तो मुझ पर क्रोध करने के बजाय मुझ पर दया ही करेंगे, मेरे पास बहुत-से हीरे इस थैली में हैं, वे सारे हीरे मैं आप लोगों को दे दूँगा। यह कहकर मैंने अपनी सारी कहानी उन लोगों को सुनाई और उन सभों को मेरी विचित्र कथा और संकटों से बचकर निकलने पर बड़ा आश्चर्य हुआ।

व्यापारियों का नियम था कि एक-एक गिद्ध के घोंसले को एक-एक व्यापारी चुन लेता था। वहाँ से मिले हीरों पर उसके सिवा किसी का अधिकार नहीं होता था। इसीलिए वह व्यापारी, जिसके हिस्से में वह घोंसला था, मुझ पर क्रोध कर रहा था। मैंने अपनी थैली उलट दी। सब लोगों की आँखें आश्चर्य से फट गईं क्योंकि मैंने कई बहुत बड़े-बड़े हीरे भी भर लिए थे। मैंने उस व्यापारी से, जिसके हिस्से में वह घोंसला था, कहा कि आप यह सारे हीरे ले लीजिए। उसने कहा कि यह हीरे तुम्हारे हैं, मैं इनमें से कुछ न लूँगा। किंतु जब मैंने बहुत जोर दिया तो उसने एक बड़ा हीरा और दो-चार छोटे हीरे ले लिए और कहा कि इतना धन मुझे सारी जिंदगी आराम से रहने को काफी है और मुझे दोबारा यहाँ आने और हीरे प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

रात मैंने उन्हीं व्यापारियों के साथ गुजारी। उन्होंने मुझसे विस्तार से मेरी कहानी जाननी चाही और मैंने सारे अनुभवों का उनसे वर्णन किया। मुझे अपने सौभाग्य पर स्वयं जैसे विश्वास नहीं हो रहा था। दूसरे दिन उन्हीं व्यापारियों के साथ रुहा नामी द्वीप में पहुँचा। यहाँ पर भी बड़े-बड़े साँप भरे पड़े थे। हम लोगों का भाग्य अच्छा था कि उन साँपों से हमें कोई क्षति नहीं हुई।

रुहा द्वीप में कपूर के बहुत बड़े पेड़ थे। कपूर के पेड़ की टहनियों को छुरी से चीरकर नीचे एक बर्तन रख देते हैं। पेड़ का रस निकलकर बर्तन में जमा हो जाता है और जमकर यही कपूर कहलाता है। पूरा रस निकल जाने पर वह टहनी मुरझा कर सूख जाती है। कपूर का पेड़ इतना बड़ा होता है कि उसकी छाया में सौ आदमी बैठ सकते हैं। उस द्वीप में एक पशु होता है जिसे गेंडा कहते है। वह भैंसे से बड़ा और हाथी से छोटा होता हैं। उसकी नाक पर एक लंबी सींग होती है। उस सींग पर सफेद रंग के आदमी की तस्वीर बनी होती है। कहा जाता है कि गेंडा हाथी के पेट में सींग घुसेड़ कर उसे मार डालता है और अपने सिर पर उठा लेता है। किंतु हाथी का खून और चरबी जब उसकी आँखों में पड़ती है तो वह अंधा हो जाता है। ऐसी दशा में रुख पक्षी आता है और गेंडे और हाथी दोनों को पंजों में दबाकर उड़ जाता है और अपने घोंसले में जाकर अपने बच्चों को उनका मांस खिलाता है।

उस द्वीप से होता हुआ मैं और बहुत-से द्वीपों में गया और अपने हीरों के बदले वहाँ की बहुमूल्य वस्तुएँ खरीदीं। इस प्रकार कई द्वीपों और देशों में व्यापार करता हुआ बसरा के बंदरगाह और वहाँ से बगदाद पहुँचा। मेरे पास इस यात्रा में भी बहुत धन इकट्ठा हो गया था। मैंने उसमें से काफी दान किया और कई निर्धनों को धन से संतुष्ट किया। अपनी दूसरी सागर यात्रा का वृत्तांत समाप्त करके सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें देकर विदा किया और कहा कि कल इसी समय यहाँ आना तो तुम्हें अपनी तीसरी सागर यात्रा का वृत्तांत सुनाऊँगा। यह सुन कर हिंदबाद भी उसे धन्यवाद देकर विदा हुआ और अन्य उपस्थित लोग भी।
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#28
तीसरे दिन नियत समय पर हिंदबाद तथा अन्य मित्रगण सिंदबाद के घर आए। दोपहर का भोजन समाप्त होने पर सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, अब मेरी तीसरी यात्रा की कहानी सुनो जो पहली दो यात्राओं से कम विचित्र नहीं है।
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#29
सिंदबाद जहाजी की तीसरी यात्रा
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#30
सिंदबाद ने कहा कि घर आकर मैं सुखपूर्वक रहने लगा। कुछ ही दिनों में जैसे पिछली दो यात्राओं के कष्ट और संकट भूल गया और तीसरी यात्रा की तैयारी शुरू कर दी। मैंने बगदाद से व्यापार की वस्तुएँ लीं और कुछ व्यापारियों के साथ बसरा के बंदरगाह पर जाकर एक जहाज पर सवार हुआ। हमारा जहाज कई द्वीपों में गया जहाँ व्यापार करके हम लोगों ने अच्छा लाभ कमाया।

किंतु एक दिन हमारा जहाज तूफान में फँस गया। इसके कारण हम लोग सीधे मार्ग से भटक गए। अंत में एक द्वीप के पास जाकर जहाज ने लंगर डाल दिया और पाल खोल डाले। कप्तान ने ध्यान देकर द्वीप को देखा फिर उसकी आँखों में आँसू बहने लगे। हमने इसका कारण पूछा तो उसने कहा, 'अब हम लोगों का भगवान ही रक्षक है। क्योंकि इस द्वीप के समीप ही जंगली लोगों के द्वीप हैं। उनके शरीर पर लाल-लाल बाल होते हैं। इन वन-वासियों से भटके हुए जहाजियों पर बड़े-बड़े संकट आए हैं। वे हम लोगों से आकार में छोटे है किंतु हम उनके आगे विवश हैं। यदि उनमें से एक भी हमारे हाथ से मारा जाए तो वे हमें चीटियों की तरह चारों ओर से घेर लेंगे और हमारा सफाया कर देंगे।'

हम सब लोग इस बात को सुनकर बहुत घबराए किंतु कर ही क्या सकते थे। कुछ देर में जैसा कप्तान ने कहा था वैसा ही हुआ। जंगली लोगों का एक बड़ा समूह, जिनके शरीर छोटे-छोटे थे और लाल रंग के बालों से भरे हुए थे, तट पर आए और तैर कर जहाज के चारों ओर आ गए। वे अपनी भाषा में कुछ कहने लगे किंतु वह हमारी समझ में नहीं आया। वे बंदरों की तरह आसानी से जहाज पर चढ़ आए। उन्होंने पालों को लपेट दिया और लंगर की रस्सी काटकर जहाज को किनारे पर खींच लाए। उन्होंने हमें जहाज से उतार लिया और घसीटते हुए अपने द्वीप में ले गए। उस द्वीप के निकट कोई जहाज उनके डर से नहीं आता था किंतु हमारी तो मौत ही हमें घसीट लाई थी।

उन्होंने हमें एक घर के अंदर बंद कर दिया। हमने देखा कि आँगन में मनुष्यों की हड्डियों का एक ढेर जमा है और बहुत-सी मोटी लोहे की छड़ें रखी हैं। हम यह देख कर भय के कारण अचेत हो गए। बहुत देर के बाद हमें होश आया तो हम अपनी दशा को विचारकर रोने लगे। अचानक एक दरवाजा खुला और अंदर से एक अत्यंत विशालकाय आदमी हमारे आँगन में आया। उसका शरीर ताड़ की तरह था और मुँह घोड़े की तरह। उसके केवल एक ही आँख थी जो माथे के बीच में थी और अंगारे की तरह दहक रही थी। उसके दाँत बहुत बड़े और नुकीले थे और उसके मुख से बाहर निकले हुए थे। उसका निचला होंठ इतना बड़ा था कि उसकी छाती तक लटकता था। उसके कान हाथी जैसे थे और उसके कंधों को ढँके हुए थे और उसके नाखून बड़े कड़े और घुमावदार थे, जैसे शिकारी जानवरों के होते हैं। हम सब उस राक्षस को देख कर एक बार फिर गश खा गए।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#31
जब हम होश में आए तो देखा कि राक्षस हम लोगों के पास ही खड़ा है और हमें देख रहा है। फिर वह हमारे और निकट आया और हममें से एक-एक को उठाकर हाथ में घुमा-फिरा कर देखने लगा। जैसे कसाई लोग बकरियों और भेड़ों को उनकी मोटाई का अंदाज लगाने के लिए देखते हैं। सबसे पहले उसने मुझे पकड़ा लेकिन दुबला-पतला देख कर रख दिया। फिर उसने हर एक को इसी तरह देखा और अंत में कप्तान को सब से मोटा-ताजा पाकर उसे एक हाथ से पकड़ा और दूसरे हाथ से एक छड़ उसके शरीर में आर-पार कर दी और फिर आग जला कर कप्तान को भून कर खा गया। फिर अंदर जा कर सो गया। उसके खर्राटे बादल की गरज की तरह आते रहे और रात भर हमें भयभीत करते रहे। दिन निकलने पर वह जागा और घर से बाहर चला गया।

हम सब अपनी दशा पर रोने लगे। हमारी समझ ही में नहीं आ रहा था कि उस भयंकर राक्षस से किस प्रकार प्राण बच सकते हैं। हम सबने अपने को ईश्वर की इच्छा पर छोड़ दिया। घर से बाहर निकल कर हमने फल-फूल खाकर भूख बुझाई। हमने चाहा कि रात को उस घर में न जाएँ किंतु और कोई स्थान था ही नहीं जहाँ रात बिताते, फिर राक्षस तो हमें ढूँढ़ निकालता ही। अतएव हम उसी मकान में आ गए। कुछ रात बीतने पर वह राक्षस फिर आया। उसने फिर हम लोगों को पहले की तरह उठा-उठा कर देखा और हमारे एक साथी को अन्य लोगों की अपेक्षा अधिक मोटा-ताजा पाकर उसके शरीर में छड़ घुसेड़कर भूनकर खा गया।

सवेरे जब वह बाहर गया तो हम लोग बाहर निकले। हमारे कई साथियों ने कहा कि इस प्रकार की कष्टदायक मृत्यु से अच्छा है हम लोग समुद्र में डूब मरें। किंतु हममें से एक ने कहा कि हम लोग * है और हमारे लिए आत्महत्या बड़ा पाप है। हमें यह न करना चाहिए कि राक्षस से बचने के लिए स्वयं अपनी हत्या कर लें। उसकी बात मानकर हम आत्महत्या से रुक गए और सोचने लगे कि कैसे जान बच सकती हैं।

मुझे एक उपाय सूझा। मैंने कहा, 'देखो, यहाँ सागर तट पर बहुत-सी लकड़ियाँ और रस्सियाँ मौजूद हैं। हम लोग इनकी चार-पाँच नावें बना लें और किसी जगह छुपाकर रख दें। यदि किसी प्रकार अवसर मिले तो हम उन पर निकल भागेंगे। अधिक से अधिक यही तो होगा कि नावें डूब जाएँगी। किंतु राक्षस के हाथों मरने से तो वह मौत कहीं अच्छी होगी।'

मेरे सुझाव को सब लोगों ने पसंद किया। हम लोगों को नाव बनाना आता था और हमने दिन भर में चार-पाँच ऐसी छोटी-छोटी नावें बना लीं जिनमें तीन-तीन आदमी आ सकते थे। शाम को हम फिर उस घर के अंदर गए। राक्षस ने हर रोज की तरह हम लोगों को उठा-उठाकर देखा और एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति को सलाख में भेद कर भून दिया और खा गया। जब वह सो गया और उसके खर्राटे बहुत गहरे हो गए तो मैंने अपने साथियों को अपनी योजना बताई और हमने उस पर कार्य करना आरंभ कर दिया।

वहाँ कई सलाखें पड़ी हुई थीं और आग अभी तक खूब जल रही थी। मैंने और नौ अन्य होशियार और साहसी लोगों ने एक-एक सलाख को आग में लाल कर दिया। फिर उस राक्षस की आँख में हम सभी ने उन सलाखों को घुसेड़ दिया जिससे वह बिल्कुल अंधा हो गया। उसने अपने हाथ इधर-उधर मारने शुरू किए। हम लोग उससे बच कर कोनों में जा छुपे। अगर वह किसी को पा जाता तो कच्चा ही खा जाता। फिर वह चिंघाड़ता हुआ घर के बाहर भाग गया और हम लोग समुद्र के तट पर आकर उन नावों पर चढ़ गए जिन्हें हमने पहले से बना रखा था। हम चाहते थे कि सवेरा होने पर यात्रा आरंभ करें। तभी हमने देखा कि दो राक्षस उस राक्षस के हाथ पकड़े अपने बीच में लिए आते हैं जिसे हमने अंधा किया था। अन्य कई राक्षस भी उनके पीछे दौड़े आते थे। हमने उन्हें देखते ही नावें समुद्र में डाल दीं और तेजी से उन्हें खेने लगे। राक्षस समुद्र में तैर नहीं सकते थे किंतु उन्होंने तट पर से ही बड़ी-बड़ी चट्टानें हमारी ओर फेंकना शुरू किया। केवल एक नाव को छोड़ कर जिस पर मैं और मेरे दो साथी बैठे थे सारी नावें राक्षसों की फेंकी चट्टानों से डूब गईं। हम अपनी नाव को तेजी से खेकर इतनी दूर आ गए जहाँ पर उनकी चट्टानें आ नहीं सकती थीं।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#32
किंतु खुले समुद्र में आकर भी हमें चैन न मिला। तेज हवा हमारी छोटी-सी नाव को तिनके की तरह पानी पर उछालने लगी। चौबीस घंटे हम इसी दशा में रहे। फिर हमारी नाव एक द्वीप में पहुँच गई। हम लोग प्रसन्नतापूर्वक उस द्वीप पर उतरे और तट पर लगे पेड़ों से पेट भर फल खाने के बाद हमारे शरीरों में कुछ शक्ति आई। रात को हम लोग समुद्र के तट ही पर सो रहे। अचानक एक जोर की सरसराहट से नींद खुली तो मैंने देखा कि एक साँप जो नारियल के पेड़ जितना लंबा था हमारे एक साथी को खाए जाता है। उसने पहले हमारे साथी के शरीर को चारों ओर से कस कर तोड़ डाला फिर उसे निगल गया। कुछ देर में साँप ने उसकी हड्डियाँ उगल दीं और चला गया। हम दो बचे हुए आदमियों ने बड़े दुख और चिंता में रात बिताई। कितनी मुश्किलों से राक्षस से छूटे थे तो यह मुसीबत आ गई जिससे छुटकारा ही नहीं दिखाई देता था। दिन में हमने फल खाकर गुजारा किया। शाम तक हमने अपने बचने के लिए एक पेड़ खोज लिया था। और रात होते ही उस पर चढ़ गए।

मैं तो वृक्ष पर काफी ऊँचे पहुँच गया था किंतु मेरा साथी उतने ऊँचे न जा सका और नीचे की एक मोटी डाल पर लेट गया। साँप फिर रात को आया। पेड़ की जड़ पर पहुँच कर उसने अपना शरीर ऊँचा किया और मेरे साथी को पकड़ कर खा गया और फिर वहाँ से चला गया। मैं सारी रात भय से अधमरा-सा रहा। सूर्योदय होने पर मैं पेड़ से उतरा और फिर कुछ फल आदि खाकर पेट भरा। मुझे विश्वास था कि आज मैं अवश्य ही उस साँप का ग्रास बनूँगा क्योंकि उसने मुझे देख तो लिया ही है। मैंने काफी सोच-विचार के बाद यह तरकीब निकाली कि पेड़ के चारों ओर ढेर सारी कँटीली झाड़ियाँ रख दीं और ऊपर भी काँटों की ऐसी ओट कर ली कि किसी को दिखाई न दूँ।
रात को साँप आया। वह झाड़ियों के कारण पेड़ की जड़ तक न पहुँच पाया किंतु सारी रात घात लगाकर बैठा रहा। सवेरे वह चला गया। मैं रातों की जगाई और जान के डर और रात भर साँप की फुँफकार सुनने से इतना अशक्त और निराश हो गया था कि सोचने लगा कि ऐसे जीने से तो समुद्र में डूब जाना अच्छा है। इसी इरादे से समुद्र तट पर गया। किंतु सौभाग्यवश किनारे कुछ ही दूर पर एक जहाज दिखाई दिया। मैंने चिल्लाकर आवाज देना और पगड़ी को हवा में हिलाना शुरू किया। जहाज के लोगों ने मुझे देखा और कप्तान ने एक नाव भेजकर मुझे जहाज पर चढ़ा लिया।

वे लोग मुझसे पूछने लगे कि मैं उस द्वीप में कैसे पहुँचा। एक बूढ़े आदमी ने कहा कि, 'मुझे आश्चर्य है कि तुम जीवित किस तरह बचे हो। मैंने तो सुना है कि इन द्वीपों में नरभक्षी राक्षस रहते हैं जो आदमियों को भूनकर खाते हैं। इसके अलावा यहाँ विशालकाय सर्प भी हैं जो दिन में गुफाओं में सोते रहते हैं और रात में शिकार के लिए निकलते हैं और कोई आदमी पाते हैं तो उसे निगल जाते हैं।'

मैं उनकी बातों का उत्तर न दे सका क्योंकि भूख और जगाई के कारण निढाल हो रहा था। उन्होंने मुझे भोजन कराया और चूँकि मेरे वस्त्र तार-तार हो रहे थे इसलिए एक जोड़ा कपड़ा भी मुझे दिया। फिर मैंने विस्तारपूर्वक अपनी विपत्तियों का वर्णन किया और बताया कि किस प्रकार राक्षस और साँप से बचा। सबने कहा कि तुम पर भगवान की बड़ी कृपा है जिससे तुम जीवित बच रहे।

हम लोगों का जहाज सिलहट द्वीप में पहुँचा जहाँ चंदन होता है जो बहुत-सी दवाओं में डाला जाता है। जहाज ने वहाँ लंगर डाला और व्यापारीगण अपना सामान लेकर द्वीप पर क्रय-विक्रय करने के लिए उतर गए। कप्तान ने मुझसे कहा, 'भाई, तुम बगदाद के निवासी हो। वहाँ के एक व्यापारी का बहुत-सा माल बहुत दिनों से मेरे जहाज पर पड़ा है। तुम उसकी गठरियाँ ले जाकर उसके स्त्री-बच्चों को दे देना। मैं चिट्ठी लिख दूँगा तो वे लोग तुम्हारी लदान की मजदूरी दे देंगे।'

मैंने उसको धन्यवाद दिया कि उसने मुझे काम तो दिलाया। उसने अपने लिपिक से कहा कि उस व्यापारी का माल इस आदमी को सौंप दे।

लिपिक ने पूछा कि उस व्यापारी का नाम क्या था। कप्तान ने कहा कि माल का मालिक सिंदबाद जहाजी था। मुझे इस बात पर इतना आश्चर्य हुआ कि कप्तान का मुँह देखने लगा। कुछ देर में मैंने पहचाना कि मेरी दूसरी यात्रा में भी जहाज का कप्तान यही था। उस द्वीप पर मुझे सोता हुआ छोड़कर मेरे साथी जहाज पर चले गए थे और सभी ने समझ लिया था कि मैं कहीं मर खप-गया हूँ। यद्यपि इस घटना को बहुत दिन नहीं हुए थे तथापि इधर लगातार पड़ने वाली विपत्तियों के कारण मेरे चेहरे का रंग और नक्श इतने बदल गए थे कि कप्तान मुझे पहचान नहीं सका।

मैंने पूछा कि यह सामान क्या सिंदबाद जहाजी का है। कप्तान ने कहा, 'यह सामान निःसंदेह सिंदबाद का है। वह बगदाद का निवासी था और बसरा बंदरगाह से हमारे जहाज पर माल लेकर चढ़ा था। एक दिन हम लोग एक द्वीप पर पहुँचे और जहाज का लंगर डाला ताकि द्वीप से लेकर मीठा पानी जहाज पर भर लें। कई व्यापारी भी घूमने-फिरने को उतर गए। उनमें सिंदबाद भी था। कुछ देर में अन्य लोग तो जहाज पर आ गए लेकिन सिंदबाद न आया। मैंने चार घड़ी तक उसकी राह देखी किंतु जब हवा अनुकूल देखी तो मैंने पाल खोल दिए और जहाज को आगे बढ़ा दिया।'

मैंने पूछा कि तुम्हें क्या पूरा विश्वास है कि सिंदबाद मर गया है। कप्तान ने कहा कि मुझे इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि सिंदबाद अब दुनिया में नहीं है। मैंने उससे कहा, 'तुम मुझे पूरे ध्यान से देखो और पहचानो कि मैं ही सिंदबाद हूँ कि नहीं। हुआ यह था कि द्वीप पर उतर कर मैं एक स्रोत के निकट खा-पीकर गहरी नींद सो गया था। मेरे साथियों ने मुझे जगाया ही नहीं। शायद उन्हें यह मालूम भी न था कि मैं कहाँ सो रहा हूँ। जब मेरी आँख खुली ओर मैं समुद्र तट पर पहुँचा तो देखा कि तुम्हारा जहाज दूर चला गया है।'

कप्तान ने यह सुनकर मुझे ध्यानपूर्वक देखा और मुझे पहचान गया। उसने मुझे गले लगाया और भगवान को धन्यवाद दिया कि मैं जीवित हूँ हालाँकि मुझे मरा हुआ समझ रहा था। उसने कहा, 'तुम्हारे माल को भी मैंने हर जगह व्यापार में लगाया और इस पर हर सौदे में मुनाफा हुआ है। अब मैं तुम्हारे माल को तुम्हारे मुनाफे के साथ तुम्हें सौंपता हूँ।' यह कहकर उसने मुझे मेरी गठरियाँ सौंप दीं और वह नगद राशि भी दे दी जो मेरे माल के व्यापार के लाभ के रूप में उसके पास थी। मुझे यह सब मिलने की कोई आशा नहीं थी और मैंने भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया।

फिर हमारा जहाज सिलहट द्वीप से अन्य द्वीपों में गया जहाँ से हमने लौंग, दारचीनी आदि खरीदा। हमने दूर-दूर की यात्रा की। एक जगह हमने इतने बड़े कछुए देखे जिनकी लंबाई चौड़ाई पचास-पचास हाथ की थी और अजीब मछलियाँ भी जो गाय की तरह दूध देती हैं। कछुओं का चमड़ा बहुत कड़ा होता है, उसकी ढालें बनाई जाती हैं। हमने एक और अजीब किस्म की मछलियाँ देखीं। इसका रंग और मुँह ऊँट जैसा होता है। घूमते-फिरते हमारा जहाज बसरा के बंदरगाह में आया। वहाँ से मैं बगदाद आ गया।

मैं कुशल-क्षेम से अपने घर आने पर भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इस खुशी में मैंने बहुत-सा धन भिखारियों को तथा निर्धनों के सहायतार्थ दिया। इस यात्रा में मुझे इतना लाभ हुआ कि जिसकी गिनती नहीं की जा सकती। मैंने दान आदि करने के अतिरिक्त कई सुंदर भवन तथा आराम-आसाइश की चीजें भी खरीदीं।

तीसरी समुद्र यात्रा का वर्णन करने के बाद सिंहबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें दीं। उससे यह भी कहा कि कल तुम फिर इसी समय आना और तब मैं तुम्हें अपनी चौथी यात्रा का हाल सुनाऊँगा। चुनांचे सिंदबाद तथा अन्य उपस्थित लोग सिंदबाद के घर से विदा हुए। दूसरे दिन निश्चित समय पर सब लोग आए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने कहना शुरू किया।
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#33
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सिंदबाद जहाजी की चौथी यात्रा
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#34
सिंदबाद ने कहा, कुछ दिन आराम से रहने के बाद मैं पिछले कष्ट और दुख भूल गया था और फिर यह सूझी कि और धन कमाया जाए तथा संसार की विचित्रताएँ और देखी जाएँ। मैंने चौथी यात्रा की तैयारी की और अपने देश की वे वस्तुएँ जिनकी विदेशों में माँग है प्रचुर मात्रा में खरीदीं। फिर मैं माल लेकर फारस की ओर चला। वहाँ के कई नगरों में व्यापार करता हुआ मैं एक बंदरगाह पर पहुँचा और व्यापार किया।

एक दिन हमारा जहाज तूफान में फँस गया। कप्तान ने जहाज को सँभालने का बहुत प्रयत्न किया किंतु सँभाल न सका। जहाज समुद्र की तह से ऊपर उठी पानी में डूबी एक चट्टान से टकरा कर चूर-चूर हो गया। कई लोग तो वहीं डूब गए किंतु मैं और कुछ अन्य व्यापारी टूटे तख्तों के सहारे किसी प्रकार तट पर आ लगे। हम लोग एक द्वीप में आ गए थे। इधर-उधर घूम कर हम लोगों ने वृक्षों के फल तोड़-तोड़ कर खाए और अपनी भूख मिटाई।

फिर हम समुद्र तट पर आ कर लेट गए और अपने दुर्भाग्य को कोसने लगे। किंतु इससे क्या होना था। हमें नींद आ गई और रात भर गहरी नींद में सोते रहे। सवेरे उठ कर फिर द्वीप में घूमने और फल आदि इकट्ठा करने लगे। अचानक काले रंग के आदमियों की एक बड़ी भीड़ ने हमें घेर लिया। उन्होंने हमारे गले में रस्सियाँ बाँध दीं और भेड़-बकरियों की भाँति हमें हाँक-हाँककर बहुत दूर पर बसे अपने गाँव में ले गए। फिर उन्होंने हमारे सामने एक खाद्य पदार्थ रखकर इशारे से कहा कि इसे खाओ। मेरे साथियों ने बगैर कुछ सोचे-समझे उसे पेट भर खाया और तुरंत ही नशे मे मतवाले हो गए। मैंने वह चीज बहुत कम खाई और काले लोगों की हरकतों को ध्यान से देखने लगा। मेरे साथी तो कुछ न समझ सके लेकिन मैंने समझ लिया कि इन लोगों की नीयत अच्छी नहीं है। फिर उन्होंने खाने के लिए हमें नारियल के तेल में पका हुआ चावल दिया। इस खाद्य से आदमी मोटे हो जाते हैं। मैं समझ गया कि काले लोगों का इरादा है कि हमें मोटा करें और फिर अपने कबीले की दावत करके हम लोगों का मांस पका कर सब लोग खाएँ। मेरे साथी तो नशे में खूब पेट भर कर खाते थे किंतु मैं बहुत थोड़ा खाता था ताकि मोटा न होऊँ और नर भक्षियों का आहार न बनूँ। मैं कम खाने और अपने प्राणों की चिंता में इतना दुबला हो गया कि बदन में हड्डी-चमड़े के सिवाय कुछ न रहा।
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#35
मैं दिन में उस द्वीप में घूमा-फिरा करता था। एक दिन मैंने देखा कि गाँव के सब लोग काम पर चले गए हैं। केवल एक बूढ़ा बैठा था। मैं अवसर पाकर भाग निकला। बूढ़े ने मुझे बहुतेरा चिल्ला-चिल्लाकर बुलाया किंतु मैं न रुका। शाम को गाँव में लोग आए तो मेरी खोज में निकले। किंतु तब तक मैं बहुत ही दूर निकल चुका था। मैं दिन भर भागता रात में कहीं छुपकर सो जाता। रास्ते में फल आदि से भूख मिटाता या नारियल तोड़कर उसका पानी पी लेता जिससे भूख और प्यास दोनों शांत होती थी।

आठवें दिन मैं समुद्र के तट पर पहुँचा। वहाँ देखा कि मेरी तरह के बहुत-से श्वेत वर्ण मनुष्य काली मिर्च इकट्ठी कर रहे हैं क्योंकि वहाँ काली मिर्च बहुत पैदा होती थी। उन्हें देख कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैं उनके पास पहुँच गया। वे भी चारों ओर जमा हो गए और अरबी भाषा में मुझसे पूछने लगे कि तुम कहाँ से आ रहे हो। मैं अरबी बोली सुनकर और भी हर्षित हुआ और मैंने विस्तार से उन्हें बताया कि जहाज टूटने पर हम लोग द्वीप के किसी अन्य तट पर लगे जहाँ से हमें बहुत-से श्याम वर्ण लोग पकड़ कर ले गए।

उन लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। वे बोले, 'अरे वे लोग नरभक्षी हैं। तुम्हें उन्होंने छोड़ कैसे दिया?' मैंने उन्हें आगे का हाल बताया कि किस प्रकार कम खाकर और मौका पाकर भाग कर मैंने जान बचाई।
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#36
उन लोगों को मेरे जीते-जागते बच निकलने पर अति आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। जब तक उनका काम पूरा न हुआ मैं उनके साथ मिलकर काम करता रहा, फिर वे लोग मुझे अपने साथ जहाज पर लेकर अपने देश आए और अपने बादशाह के सामने मुझे यह कह कर पेश किया कि यह व्यक्ति नरभक्षियों के चंगुल से सही-सलामत निकल आया है। बादशाह को जब मैंने अपना पूरा हाल सुनाया तो उसे भी सुनकर बड़ा आश्चर्य और प्रसन्नता हुई। वह बादशाह बड़ा दयालु प्रकृति का था। उसने मुझे पहनने के लिए वस्त्र तथा अन्य सुख-सुविधाएँ दीं।

बादशाह के कब्जे में जो द्वीप था वह बहुत बड़ा और धन-धान्य से पूर्ण था। वहाँ के व्यापारी अन्य देशों में अपने यहाँ की चीजें ले जाते थे और बाहर के कई व्यापारी भी आते थे। मुझे आशा होने लगी कि किसी दिन मैं अपने देश पहुँच जाऊँगा। बादशाह मुझ पर बड़ा कृपालु था। उसने मुझे अपना दरबारी बना लिया। लोग मुझे देखकर ऐसा बर्ताव करने लगे जैसे मैं उनके देश का निवासी हूँ।

मुझे यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वहाँ लोग बगैर जीन-लगाम ही घोड़ों पर सवार होते थे। यहाँ तक कि बादशाह भी घोड़े की नंगी पीठ पर सवारी करता था। मैंने एक दिन बादशाह से पूछा कि आप लोग जीन-लगाम लगाकर घोड़े पर क्यों नहीं चढ़ते। उसने कहा, जीन लगाम क्या होती है। उसने यह भी कहा कि मैं उसके लिए ये चीजें बना दूँ।

मैंने एक नमूना बनाकर लकड़ी के कारीगर को दिया। उसने मेरे नमूने के अनुसार जीन बना दी। मैंने उसे चमड़े से मढ़वाया और उस पर अतलस और कमरख्वाब का आवरण चढ़ाया। एक लोहार से रकाबे बनाने को कहा और लगाम का सामान भी बनवाया। जब सारा सामान तैयार हो गया तो मैं उसे घोड़े पर सजाकर घोड़ा बादशाह के सामने ले गया। वह उस पर सवार हुआ तो उसे बहुत प्रसन्नता और संतोष हुआ। उसने मुझे बहुत इनाम-इकराम दिया और पहले से भी अधिक मुझे मानने लगा। फिर मैंने बहुत-सी जीनें और लगामें बनवा कर राज्य परिवार के सदस्यों, मंत्रियों आदि को दीं। उन्होंने उनके बदले हजारों रुपए तथा अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ मुझे प्रदान कीं। राज दरबार में मेरा मान बढ़ा तो नगरवासी भी मेरा बहुत सम्मान करने लगे।

एक दिन बादशाह ने मेरे साथ एकांत बातचीत की। वह बोला, 'मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ और तुम पर अधिकाधिक कृपा करना चाहता हूँ। मेरे दरबार के लोग और साधारण प्रजाजन भी तुम्हारी बुद्धिमत्ता के कारण तुम्हें बहुत मानते हैं। मैं चाहता हूँ कि तुम एक काम करो। मुझे पूर्ण विश्वास है कि जो मैं कहूँगा तुम उससे इनकार नहीं करोगे।' मैंने कहा, 'आप जो भी आज्ञा करेंगे वह मेरे हित में होगी क्योंकि आपकी मुझ पर कृपा रहती है। मैं क्यों आपकी आज्ञा का उल्लंघन करूँगा?' उसने कहा, 'मैं चाहता हूँ कि तुम स्थायी रूप से यहाँ बस जाओ और अपने देश जाने का विचार छोड़ दो। इसलिए मैं यहाँ की एक सुंदर और सुशील कन्या से तुम्हारा विवाह करना चाहता हूँ।' मैंने सहर्ष इसे स्वीकार किया।

उसने एक अत्यंत रूपवती और गुणवती नव यौवना से मेरा विवाह करा दिया। मैं उसे पाकर बगदाद में बसे अपने परिवार को भूल-सा गया। कुछ दिनों बाद मेरे पड़ोसी की पत्नी बीमार हो गई और कुछ दिन बाद मर गई। पड़ोसी से मेरी अच्छी दोस्ती थी इसलिए मातमपुर्सी को उसके घर गया। वह आदमी अत्यंत शोक में डूबा था और उसके आँसू ही नहीं थमते थे। मैंने उसे समझाया कि वह धैर्य रखे, भगवान चाहेगा तो दूसरी शादी के बाद और अच्छा जीवन बीतेगा। उसने कहा, 'तुम कुछ नहीं जानते इसीलिए ऐसी तसल्ली दे रहे हो। मैं तो दो-चार घंटे का ही मेहमान हूँ।'

मैंने परेशान होकर उससे स्थिति स्पष्ट करने को कहा तो वह बोला, 'आज मुझे मृत पत्नी के साथ जीते जी दफन किया जाएगा। हमारे यहाँ बहुत पुराने जमाने से यह रस्म चली आ रही है कि पति मरता है तो पत्नी उसके साथ दफन कर दी जाती है और पत्नी मरती है तो पति को उसके साथ गाड़ दिया जाता है। अब मेरी जान बचने की कोई सूरत ही नहीं है। यहाँ के निवासी एकमत हो कर इस रिवाज को स्वीकार करते हैं। कोई इसके विरुद्ध कुछ नहीं कर सकता।'

इस भयंकर रिवाज की बात सुनते ही मेरे होश उड़ गए। मैं उसी समय से अपने बारे में चिंता करने लगा क्योंकि मेरा भी विवाह हो चुका था। थोड़ी देर में उसके सगे संबंधी एकत्र हो गए। उन्होंने कफन आदि का प्रबंध किया। उन्होंने औरत की लाश को नहला-धुलाकर बहुमूल्य वस्त्र पहनाए और एक खुली अर्थी पर रख कर ले चले। उसका पति भी शोकसूचक वस्त्र पहने रोता-पीटता उनके पीछे चला।

सब लोग एक बड़े पहाड़ पर पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने एक बड़ी चट्टान हटाई तो उसके नीचे बड़ा गहरा और अँधेरा गड्ढा दिखाई दिया। सब लोगों ने रस्सी के द्वारा अर्थी को गड्ढे की तह तक उतार दिया। उसके बाद मृत स्त्री के पति को भी गड्ढे में उतार दिया। उन्होंने उसके साथ सात रोटियाँ और जल से भरा पात्र भी रख दिया और उसे उतारने के बाद गढ्ढे का मुँह चट्टान से बंद कर दिया। वह पहाड़ बहुत लंबा-चौड़ा था। उसके दूसरी ओर समुद्र था और उस ओर का क्षेत्र दुर्गम और निर्जन था। चट्टान को यथावत रख कर और पति-पत्नी के लिए शोक करके सब लोग वापस हुए।

मैं बहुत ही डर गया था और सोचता था कि ऐसी अमानुषिक रीति जो दुनिया के किसी देश में नहीं है यहाँ क्यों मानी जाती है। किंतु जिससे भी बात करता वह इस रिवाज का समर्थन करता और मेरी बात को गलत कहता था। यहाँ तक कि जब मैंने बादशाह से बात की तो उसने कहा, 'सिंदबाद, यह हमारे बुजुर्गों की बहुत पुरानी चलाई गई रस्म है। मैं अगर चाहूँ भी तो इसे रोक नहीं सकता। यह रस्म मुझ पर भी लागू होती है। भगवान न करे अगर रानी का देहांत हो जाय तो मुझे भी उसके साथ जीते जी दफन कर दिया जाएगा।' मैंने पूछा कि यह रस्म क्या उन अन्य देशवासियों पर भी लागू होती है जो यहाँ पर रहने लगे हैं। बादशाह मुस्कराने लगा और बोला, 'यह रस्म देशी-विदेशी सब के लिए है। इससे कोई व्यक्ति बाहर नहीं समझा जाता।'
इसके बाद मैं बहुत घबराया रहने लगा। मैं बराबर सोचता था कि कहीं मेरी पत्नी मर गई तो मुझे भी ऐसी भयानक मौत मरना पड़ेगा। मैं इसीलिए अपनी पत्नी के स्वास्थ्य की बहुत देखभाल करने लगा। किंतु ईश्वर की इच्छा कौन टाल सकता है। कुछ समय के बाद मेरी पत्नी सख्त बीमार हुई और कुछ दिनों में काल कवलित हो गई। मुझ पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। मैं सर पीटता था और कहता था कि मैं बेकार ही उस द्वीप से भागा। इस प्रकार जीते जी गाड़े जाने से कहीं अच्छा था कि नरभक्षी मुझे मार कर खा जाते।
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#37
इतने में बादशाह अपने दरबारियों और सेवकों के साथ मेरे घर आया। नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी वहाँ एकत्र हो गए और उसे अर्थी पर रख कर लोग ले चले और उनके पीछे मैं भी रोता-पीटता आँसू बहाता चला। दफन के पहाड़ पर पहुँच कर मैंने एक बार फिर अपने प्राण बचाने का प्रयत्न किया। मैंने बादशाह से कहा, स्वामी, मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ। मुझे यह कठोरतम दंड क्यों दिया जा रहा है। मुझ पर दया करके मुझे जीवन प्रदान कर दीजिए। मैं अकेला भी नहीं हूँ, मेरे देश में स्त्री-बच्चे मौजूद हैं। उनका खयाल करके मुझे छोड़ दीजिए।

मैंने हजार फरियाद की किंतु बादशाह या अन्य किसी व्यक्ति को मुझ पर दया न आई। पहले मेरी पत्नी की अर्थी को गड्ढे में उतारा गया फिर मुझे एक दूसरी अर्थी पर बिठाकर मेरे साथ रोटियाँ और पानी का घड़ा रख कर उतार दिया गया और गड्ढे पर चट्टान को वापस रख दिया गया।

वह कंदरा लगभग पचास हाथ गहरी थी। उसमें उतरते ही वहाँ उठने वाली बदबू से, जो लाशों के सड़ने से पैदा हो रही थी, मेरा दिमाग फटने लगा। मैं अपनी अर्थी से उठकर दूर भागा। मैं चीख-चीखकर रोने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा। मैं कहता था 'भगवान जो करता है उसे अच्छा ही कहा जाता है। जाने मेरे इस दुर्भाग्य में क्या अच्छाई है। मैं तीन-तीन यात्रा के कष्टों और खतरों से भी चैतन्य नहीं हुआ और फिर मरने के लिए चौथी यात्रा पर चला आया। अब तो यहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है।' इसी प्रकार मैं घंटों रोता रहा।

किंतु सुख हो या दुख, मनुष्य को भूख तो सताती ही है। मैं नाक-मुँह बंद करके अपनी अर्थी पर पहुँचा और थोड़ी रोटी खाकर पानी पिया। कुछ दिनों इस तरह जिया। रोटियाँ खत्म हो गईं तो सोचा कि अब तो भूखा मरना ही है। इतने में ऊपर उजाला हुआ। ऊपर की चट्टान खोल कर लोगों ने एक मृत पुरुष और उसके साथ उसकी विधवा को गढ्ढे में उतार दिया। जब लोग चट्टान बंद कर चुके तो मैंने एक मुर्दे की पाँव की हड्डी उठाई और चुपचाप पीछे से आकर स्त्री के सिर पर उसे इतनी जोर से मारा कि वह गश खाकर गिर पड़ी। मैंने लगातार चोटें करके उसे मार डाला और साथ रखी हुई रोटियाँ और पानी लेकर अपने कोने में चला गया। दो-चार दिन बाद एक आदमी को उसकी मृत पत्नी के साथ उतारा गया। मैंने पहले की तरह आदमी को खत्म करके उसकी रोटियाँ और पानी ले लिया। मेरे भाग्य से नगर में महामारी पड़ी और रोज दो-एक लाशें और उसके साथ जीवित व्यक्ति आने लगे जिन्हें मारकर मैं उनकी रोटियाँ ले लेता।

एक दिन मैंने वहाँ ऐसी आवाज सुनी जैसे कोई साँस ले रहा हो। वहाँ अँधेरा तो इतना रहता था कि दिन-रात का पता नहीं चलता था। मैंने आवाज ही पर ध्यान दिया तो साँस के साथ पाँवों की भी हलकी आहट आई। मैं उठा तो मालूम हुआ कि कोई चीज एक तरफ दौड़ रही है। मैं भी उसके पीछे दौड़ा। कुछ देर इसी प्रकार दौड़ने के बाद मुझे दूर एक तारे जैसी चमक दिखाई दी जो झिलमिला-सी रही थी। मैंने उस तरफ दौड़ना आरंभ किया तो देखा कि एक इतना बड़ा छेद है जिसमें से मैं बाहर जा सकता हूँ।

वास्तव में मैं पहाड़ के दूसरी ओर के ढाल पर निकल आया था। पहाड़ इतना ऊँचा था कि नगर निवासी जानते ही नहीं थे कि उधर क्या है। उस छेद में से होकर कोई जंतु मुर्दों को खाने के लिए अंदर आया करता था और उसी के सहारे मुझे बाहर निकलने का रास्ता मिला। मैं उस छेद से बाहर खुले आकाश के नीचे आ निकला और भगवान को उनकी अनुकंपा के लिए धन्यवाद दिया। मुझे अब अपने बच निकलने की आशा हो गई थी।

अब मैने कुछ सोचना आरंभ किया क्योंकि अभी तक तो मुर्दों की दुर्गंध के कारण कुछ सोच नहीं पाता था। थोड़ा-थोड़ा भोजन करके मैंने इतने दिन तक किसी प्रकार अपने को जीवित रखा था। मैं एक बार फिर जी कड़ा करके उस मुर्दों की गुफा में घुस गया। बहुत-से मुर्दों के साथ बहुमूल्य रत्न भूषण, आदि रख दिए जाते थे। मैंने टटोल-टटोल कर अंदाज से बहुत-से हीरे जवाहरात इकट्ठे किए।

मुर्दों के कफनों ही में उनकी अर्थियों की रस्सियों से हीरे-जवाहरात की कई गठरियाँ बाँधीं और एक-एक करके उन्हें बाहर ले आया, जहाँ से सामने समुद्र दिखाई देता था। मैंने समुद्र तट पर दो-तीन दिन फल फूल खाकर बिताए।

चौथे दिन मैंने तट के पास से एक जहाज गुजरता देखा। मैंने पगड़ी खोलकर उसे हवा में उड़ाते हुए खूब चिल्लाकर आवाजें दीं। जहाज के कप्तान ने मुझे देख लिया। उसने जहाज रोककर एक नाव मुझे लेने को भेजी। नाविक लोग मुझसे पूछने लगे कि तुम इस निर्जन स्थान पर कैसे आए। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाने के बजाय कह दिया कि दो दिन पहले हमारा जहाज डूब गया था, मेरे सभी साथी भी डूब गए, सिर्फ मैं कुछ तख्तों के सहारे अपनी जान और कुछ सामान बचा लाया। वे लोग मुझे गठरियों समेत जहाज पर ले गए।

जहाज पर कप्तान से भी मैंने यही बात कही और उसकी कृपा के बदले उसे कुछ रत्न देने लगा किंतु उसने लेने से इनकार कर दिया। हम वहाँ से चल कर कई द्वीपों में गए। हम सरान द्वीप से दस दिन की राह पर स्थित नील द्वीप गए। वहाँ से हम कली द्वीप पहुँचे जहाँ सीसे की खाने हैं और हिंदुस्तान की कई वस्तुएँ ईख, कपूर आदि भी होती हैं। कली द्वीप बहुत बड़ा है और वहाँ व्यापार बहुत होता है। हम लोग अपनी चीजें खरीदते-बेचते कुछ समय के बाद बसरा पहुँचे जहाँ से मैं बगदाद आ गया। मुझे असीमित धन मिला था। मैंने कई मसजिदें आदि बनवाईं और आनंदपूर्वक रहने लगा। यह कहकर सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और दूसरे रोज भी आने को कहा। अगले दिन सब लोग फिर एकत्र हुए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने अपनी पाँचवीं यात्रा का वर्णन शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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