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Thriller सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा
#1

सिंदबाद जहाजी की  यात्रा









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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
सिंदबाद ने कहा कि मेरी विचित्र दशा थी। चाहे जितनी मुसीबत पड़े मैं कुछ दिनों के आनंद के बाद उसे भूल जाता था और नई यात्रा के लिए मेरे तलवे खुजाने लगते थे। इस बार भी यही हुआ। इस बार मैंने अपनी इच्छानुसार यात्रा करनी चाही। चूँकि कोई कप्तान मेरी निर्धारित यात्रा पर जाने को राजी नहीं हुआ इसलिए मैंने खुद ही एक जहाज बनवाया। जहाज भरने के लिए सिर्फ मेरा माल काफी न था इसीलिए मैंने अन्य व्यापारियों को भी उस पर चढ़ा लिया और हम अपनी यात्रा के लिए गहरे समुद्र में आ गए।

कुछ दिनों में हमारा जहाज एक निर्जन टापू पर लगा। वहाँ रुख पक्षी का एक अंडा रखा था जैसा कि एक पहले की यात्रा में मैंने देखा था। मैंने अन्य व्यापारियों को उसके बारे में बताया। वे उसे देखने उसके पास गए। उस अंडे में से बच्चा निकलने वाला था। जब जोर की ठक-ठक की आवाज के साथ बच्चे की चोंच अंडा तोड़ कर निकली तो व्यापारियों को सूझा कि रुख के बच्चे को भूनकर खा जाएँ। वे कुल्हाड़ियों से अंडा तोड़ने लगे। मेरे लाख मना करने पर भी वे न माने और बच्चा निकालकर उसे काट-भून कर खा गए।

कुछ ही देर में चार बड़े-बड़े बादल जैसे आते दिखाई दिए। मैंने पुकारकर कहा कि जल्दी से जहाज पर चलो, रुख पक्षी आ रहे हैं। हम जहाज पर पहुँचे ही थे कि बच्चे के माता-पिता वहाँ आ गए और अंडे को टूटा और बच्चे को मरा देख कर क्रोध में भयंकर चीत्कार करने लगे। कुछ देर में वे उड़कर चले गए। हमने तेजी से जहाज एक ओर भगाया कि रुख पक्षियों के क्रोध से बचें किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। कुछ ही देर में रुख पक्षियों का एक पूरा झुंड हमारे सिर पर आ पहुँचा। उनके पंजों में विशालकाय चट्टानें दबी थीं। उन्होंने हम पर चट्टान गिराना शुरू किया। एक चट्टान जहाज से थोड़ी दूर पर गिरी और उससे पानी इतना उथल-पुथल हुआ कि जहाज डगमगाने लगा। दूसरी चट्टान जहाज के ठीक ऊपर गिरी और जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए। सारे व्यापारी और व्यापार का माल जलमग्न हो गया। मुझे ही प्राण रक्षा का अवसर मिला और मैं एक तख्ते का सहारा लेकर किसी तरह एक टापू पर पहुँचा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
HomeGreat Storiesअलिफ लैलाAlif Laila
 
सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा ~ अलिफ लैला
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सिंदबाद ने कहा कि मेरी विचित्र दशा थी। चाहे जितनी मुसीबत पड़े मैं कुछ दिनों के आनंद के बाद उसे भूल जाता था और नई यात्रा के लिए मेरे तलवे खुजाने लगते थे। इस बार भी यही हुआ। इस बार मैंने अपनी इच्छानुसार यात्रा करनी चाही। चूँकि कोई कप्तान मेरी निर्धारित यात्रा पर जाने को राजी नहीं हुआ इसलिए मैंने खुद ही एक जहाज बनवाया। जहाज भरने के लिए सिर्फ मेरा माल काफी न था इसीलिए मैंने अन्य व्यापारियों को भी उस पर चढ़ा लिया और हम अपनी यात्रा के लिए गहरे समुद्र में आ गए।

कुछ दिनों में हमारा जहाज एक निर्जन टापू पर लगा। वहाँ रुख पक्षी का एक अंडा रखा था जैसा कि एक पहले की यात्रा में मैंने देखा था। मैंने अन्य व्यापारियों को उसके बारे में बताया। वे उसे देखने उसके पास गए। उस अंडे में से बच्चा निकलने वाला था। जब जोर की ठक-ठक की आवाज के साथ बच्चे की चोंच अंडा तोड़ कर निकली तो व्यापारियों को सूझा कि रुख के बच्चे को भूनकर खा जाएँ। वे कुल्हाड़ियों से अंडा तोड़ने लगे। मेरे लाख मना करने पर भी वे न माने और बच्चा निकालकर उसे काट-भून कर खा गए।

कुछ ही देर में चार बड़े-बड़े बादल जैसे आते दिखाई दिए। मैंने पुकारकर कहा कि जल्दी से जहाज पर चलो, रुख पक्षी आ रहे हैं। हम जहाज पर पहुँचे ही थे कि बच्चे के माता-पिता वहाँ आ गए और अंडे को टूटा और बच्चे को मरा देख कर क्रोध में भयंकर चीत्कार करने लगे। कुछ देर में वे उड़कर चले गए। हमने तेजी से जहाज एक ओर भगाया कि रुख पक्षियों के क्रोध से बचें किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। कुछ ही देर में रुख पक्षियों का एक पूरा झुंड हमारे सिर पर आ पहुँचा। उनके पंजों में विशालकाय चट्टानें दबी थीं। उन्होंने हम पर चट्टान गिराना शुरू किया। एक चट्टान जहाज से थोड़ी दूर पर गिरी और उससे पानी इतना उथल-पुथल हुआ कि जहाज डगमगाने लगा। दूसरी चट्टान जहाज के ठीक ऊपर गिरी और जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए। सारे व्यापारी और व्यापार का माल जलमग्न हो गया। मुझे ही प्राण रक्षा का अवसर मिला और मैं एक तख्ते का सहारा लेकर किसी तरह एक टापू पर पहुँचा।


तट पर कुछ देर तक सुस्ताने के बाद मैं उस द्वीप पर घूम फिर कर देखने लगा कि क्या किया जा सकता हैं। मैंने देखा कि वहाँ सुंदर फलों के कई बाग हैं। कई पेड़ों के फल कच्चे थे किंतु बहुत-से फल पके और मीठे थे। कई जगह मैंने मीठे पानी के स्रोत देखे। मैंने पेट भरकर पके फल खाए और एक स्रोत से पानी पिया। रात हो गई थी इसीलिए मैं एक जगह पर सोने के इरादे से लेट गया। किंतु मुझे नींद न आई। निर्जन स्थान का भय भी था और अपने दुर्भाग्य पर दुख भी था। मैं रोता था और स्वयं को धिक्कारता था कि इतनी धन-दौलत होने पर भी, जिससे आयुपर्यंत सुख और ऐश्वर्य के साथ रह सकता था, यह फिर यात्रा करने की मूर्खता क्यों की। कभी यह भी सोचने लगता था कि इस द्वीप से किस तरह निकलकर बाहर जाया जा सकता है।

इतने में सवेरा हो गया। मैं भी अपनी उधेड़बुन को छोड़कर उठ खड़ा हुआ और फलवाले पेड़ों को घूम-घूमकर देखने लगा। कुछ ही देर में मैंने देखा कि वहाँ किनारे एक बूढ़ा बैठा है। वह बहुत कमजोर लगता था और मालूम होता था कि उसकी कमर से नीचे का भाग पक्षाघात-ग्रस्त है। पहले मैंने सोचा कि यह भी मेरी तरह का कोई भूला-भटका यात्री है जिसका जहाज डूब गया है। मैंने उसके समीप जाकर उसका अभिवादन किया। उसने कुछ उत्तर न दिया, केवल सिर हिलाया।

मैंने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो। उसने मुझे संकेत में बताया कि चाहता है कि मैं उसे अपने कंधों पर बिठाकर नहर पार करा दूँ। मैंने सोचा कि शायद उस पार यह मेरे कंधों पर चढ़कर पेड़ों से फल तोड़ना और खाना चाहता है। मैंने उसे अपनी गर्दन पर चढ़ा लिया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#4
अब मुझे वह बात याद आती है तो हँसता हूँ। नहर के पार जाकर मैंने उतारना चाहा तो वह बूढ़ा जो बिल्कुल मरियल लगता था एकदम से शक्तिवान हो गया। उसने मेरी गर्दन के चारों ओर इतने जोर से पाँव करे कि मेरा दम घुटने लगा। मेरी आँखें बाहर को निकलने को हुईं और मैं अचेत होकर गिर पड़ा। फिर उसने पाँव ढीले किए जिससे मैं साँस लेने लगा और कुछ देर में होश आ गया। अब बूढ़े ने मुझे उठने का इशारा किया और मेरे न उठने पर उसने एक पाँव मेरे पेट में गड़ाया और दूसरा मुँह पर मारा। इससे मैं विवश हो गया कि उसके कहने के अनुसार काम करूँ। मैं उसे लिए घूमने लगा। वह पेड़ों के नीचे मुझे ले जाता और फल तोड़ता, खुद खाता और कुछ मुझे भी खाने को दे देता।

रात होने पर मैं लेटने की तैयारी करने लगा। बूढ़ा अब भी मेरी गर्दन से न उतरा। वैसे ही अपनी गर्दन के चारों ओर उसके पाँवों का घेरा लिए हुए लेट गया और सो गया। वह भी इसी दशा में सो गया। सुबह उसने ठोकर मारकर मुझे जगाया और उसी तरह मुझ पर सवार होकर वह द्वीप में घूमता फिरा। मैं क्रोध और दुख से अधमरा हो गया किंतु कुछ कर ही नहीं सकता था क्योंकि वह मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता था और रुकने पर एड़ियों को ठोकरें मारता था जिससे मुझे अतीव कष्ट होता था।

एक दिन मैंने वहाँ पर कद्दू के सूखे खोल पड़े देखे। मैंने उन्हें साफ किया और उनमें पके अंगूरों का रस निचोड़ कर भर दिया। कुछ दिनों बाद फिर घूमता हुआ वहाँ गया तो देखा कि रस से खमीर उठ गया है और वह मदिरा बन गया है। मैं बहुत कमजोर हो गया था इसीलिए स्वयं को शक्ति देने का यह उपाय किया था। मैंने थोड़ी- सी शराब पी और मुझ में शक्ति आ गई। मैं तेजी से चलने लगा और गाने भी लगा। बूढ़े को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उसने इशारे से एक कद्दू की शराब देने के लिए कहा।

मैं तो दो-चार घूँट ही लेता था। उसे थोड़ी मदिरा पीकर आनंद आया तो वह एकदम से पूरे कद्दू की शराब पी गया। इससे उसे तेज नशा चढ़ आया। वह गाने लगा और झूमने और डगमगाने लगा। जब मेरी गर्दन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई तो मैंने उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उसके गिरते ही मैंने एक पत्थर से उसका सिर कुचल -कुचलकर उसे मार डाला। मुझे उसी पकड़ से छूट कर बड़ा सुख मिला और मैं समुद्र तट पर आ गया।

संयोग से उसी समय एक जहाज के कुछ लोग जहाज में मीठा पानी भरने उस द्वीप में उतरे। उन्हें मेरी कहानी सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, 'क्या तुम सचमुच इस बूढ़े के हाथ पड़े थे? उसने तो न जाने कितनों को इसी तरह दौड़ाकर और गला घोंटकर मार डाला है। उसके हाथ से कोई नहीं बचा। तुम वास्तव में बहुत भाग्यशाली हो। इस द्वीप के अंदर कोई नहीं जाता, सभी इससे भय खाते हैं।' फिर वे मुझे अपने जहाज पर ले आए। कप्तान ने भी मेरा हाल सुनकर मुझ पर दया की और बगैर किराए के पूरी सुविधा के साथ मुझे ले चला। यात्रा के दौरान एक बड़े व्यापारी से मेरी गहरी मित्रता हो गई।

एक अन्य द्वीप पर पहुँच कर उस व्यापारी ने अपने कई नौकर जमीन पर भेजे और मुझे एक टोकरा देकर कहा कि इनके साथ चले जाओ और जैसा यह करें वैसा ही तुम भी करना और इनसे अलग न होना वरना बड़ी मुसीबत में फँस जाओगे।' मैं सब आदमियों के साथ टापू पर उतर गया। द्वीप पर नारियल के बहुत-से पेड़ थे किंतु वे इतने ऊँचे थे कि उन पर चढ़ना असंभव लगता था। वहाँ बहुत-से बंदर भी थे। वे हमारे डर से तुरंत पेड़ों पर चढ़ गए। अब मेरे साथियों ने यह किया कि ढेले-पत्थर जमा किए और बंदरों पर फेंकने लगे। मैंने भी ऐसे ही किया। बंदर क्रोध में आ कर नारियल तोड़ तोड़कर हम लोगों के सिरों पर फेंकने लगे। कुछ ही देर में सारी जमीन पर नारियल बिछ गए। हम लोगों ने नारियलों से टोकरे भरे। मैं इस प्रकार नारियल प्राप्त होने पर आश्चर्य में पड़ गया। फिर मैं उन लोगों के साथ शहर में आया जहाँ नारियल अच्छे दामों में बिक गए।

व्यापारी ने नारियलों की कीमत में मेरा हिस्सा मुझे देकर कहा कि तुम रोज इसी तरह जाकर नारियल जमा किया करो और उनसे जो पैसा मिले उसे बचाते जाओ। कुछ दिनों में तुम्हारे पास इतना धन इकट्ठा हो जाएगा कि आसानी से अपने देश को वापस जा सकोगे। मैंने उसकी बात मानी और कई दिन तक इसी तरह नारियल बेचता रहा। मेरा पास इस सौदे से पर्याप्त धन हो गया।
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सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा ~ अलिफ लैला

सिंदबाद ने कहा कि मेरी विचित्र दशा थी। चाहे जितनी मुसीबत पड़े मैं कुछ दिनों के आनंद के बाद उसे भूल जाता था और नई यात्रा के लिए मेरे तलवे खुजाने लगते थे। इस बार भी यही हुआ। इस बार मैंने अपनी इच्छानुसार यात्रा करनी चाही। चूँकि कोई कप्तान मेरी निर्धारित यात्रा पर जाने को राजी नहीं हुआ इसलिए मैंने खुद ही एक जहाज बनवाया। जहाज भरने के लिए सिर्फ मेरा माल काफी न था इसीलिए मैंने अन्य व्यापारियों को भी उस पर चढ़ा लिया और हम अपनी यात्रा के लिए गहरे समुद्र में आ गए।

कुछ दिनों में हमारा जहाज एक निर्जन टापू पर लगा। वहाँ रुख पक्षी का एक अंडा रखा था जैसा कि एक पहले की यात्रा में मैंने देखा था। मैंने अन्य व्यापारियों को उसके बारे में बताया। वे उसे देखने उसके पास गए। उस अंडे में से बच्चा निकलने वाला था। जब जोर की ठक-ठक की आवाज के साथ बच्चे की चोंच अंडा तोड़ कर निकली तो व्यापारियों को सूझा कि रुख के बच्चे को भूनकर खा जाएँ। वे कुल्हाड़ियों से अंडा तोड़ने लगे। मेरे लाख मना करने पर भी वे न माने और बच्चा निकालकर उसे काट-भून कर खा गए।

कुछ ही देर में चार बड़े-बड़े बादल जैसे आते दिखाई दिए। मैंने पुकारकर कहा कि जल्दी से जहाज पर चलो, रुख पक्षी आ रहे हैं। हम जहाज पर पहुँचे ही थे कि बच्चे के माता-पिता वहाँ आ गए और अंडे को टूटा और बच्चे को मरा देख कर क्रोध में भयंकर चीत्कार करने लगे। कुछ देर में वे उड़कर चले गए। हमने तेजी से जहाज एक ओर भगाया कि रुख पक्षियों के क्रोध से बचें किंतु कोई लाभ नहीं हुआ। कुछ ही देर में रुख पक्षियों का एक पूरा झुंड हमारे सिर पर आ पहुँचा। उनके पंजों में विशालकाय चट्टानें दबी थीं। उन्होंने हम पर चट्टान गिराना शुरू किया। एक चट्टान जहाज से थोड़ी दूर पर गिरी और उससे पानी इतना उथल-पुथल हुआ कि जहाज डगमगाने लगा। दूसरी चट्टान जहाज के ठीक ऊपर गिरी और जहाज के टुकड़े-टुकड़े हो गए। सारे व्यापारी और व्यापार का माल जलमग्न हो गया। मुझे ही प्राण रक्षा का अवसर मिला और मैं एक तख्ते का सहारा लेकर किसी तरह एक टापू पर पहुँचा।

तट पर कुछ देर तक सुस्ताने के बाद मैं उस द्वीप पर घूम फिर कर देखने लगा कि क्या किया जा सकता हैं। मैंने देखा कि वहाँ सुंदर फलों के कई बाग हैं। कई पेड़ों के फल कच्चे थे किंतु बहुत-से फल पके और मीठे थे। कई जगह मैंने मीठे पानी के स्रोत देखे। मैंने पेट भरकर पके फल खाए और एक स्रोत से पानी पिया। रात हो गई थी इसीलिए मैं एक जगह पर सोने के इरादे से लेट गया। किंतु मुझे नींद न आई। निर्जन स्थान का भय भी था और अपने दुर्भाग्य पर दुख भी था। मैं रोता था और स्वयं को धिक्कारता था कि इतनी धन-दौलत होने पर भी, जिससे आयुपर्यंत सुख और ऐश्वर्य के साथ रह सकता था, यह फिर यात्रा करने की मूर्खता क्यों की। कभी यह भी सोचने लगता था कि इस द्वीप से किस तरह निकलकर बाहर जाया जा सकता है।

इतने में सवेरा हो गया। मैं भी अपनी उधेड़बुन को छोड़कर उठ खड़ा हुआ और फलवाले पेड़ों को घूम-घूमकर देखने लगा। कुछ ही देर में मैंने देखा कि वहाँ किनारे एक बूढ़ा बैठा है। वह बहुत कमजोर लगता था और मालूम होता था कि उसकी कमर से नीचे का भाग पक्षाघात-ग्रस्त है। पहले मैंने सोचा कि यह भी मेरी तरह का कोई भूला-भटका यात्री है जिसका जहाज डूब गया है। मैंने उसके समीप जाकर उसका अभिवादन किया। उसने कुछ उत्तर न दिया, केवल सिर हिलाया।

मैंने उससे पूछा कि तुम क्या कर रहे हो। उसने मुझे संकेत में बताया कि चाहता है कि मैं उसे अपने कंधों पर बिठाकर नहर पार करा दूँ। मैंने सोचा कि शायद उस पार यह मेरे कंधों पर चढ़कर पेड़ों से फल तोड़ना और खाना चाहता है। मैंने उसे अपनी गर्दन पर चढ़ा लिया।

अलिफ़ लैला की अन्य कहानियाँ:
Complete Alif Laila Stories In Hindi ~ अलिफ लैला की कहानियाँ

अब मुझे वह बात याद आती है तो हँसता हूँ। नहर के पार जाकर मैंने उतारना चाहा तो वह बूढ़ा जो बिल्कुल मरियल लगता था एकदम से शक्तिवान हो गया। उसने मेरी गर्दन के चारों ओर इतने जोर से पाँव करे कि मेरा दम घुटने लगा। मेरी आँखें बाहर को निकलने को हुईं और मैं अचेत होकर गिर पड़ा। फिर उसने पाँव ढीले किए जिससे मैं साँस लेने लगा और कुछ देर में होश आ गया। अब बूढ़े ने मुझे उठने का इशारा किया और मेरे न उठने पर उसने एक पाँव मेरे पेट में गड़ाया और दूसरा मुँह पर मारा। इससे मैं विवश हो गया कि उसके कहने के अनुसार काम करूँ। मैं उसे लिए घूमने लगा। वह पेड़ों के नीचे मुझे ले जाता और फल तोड़ता, खुद खाता और कुछ मुझे भी खाने को दे देता।

रात होने पर मैं लेटने की तैयारी करने लगा। बूढ़ा अब भी मेरी गर्दन से न उतरा। वैसे ही अपनी गर्दन के चारों ओर उसके पाँवों का घेरा लिए हुए लेट गया और सो गया। वह भी इसी दशा में सो गया। सुबह उसने ठोकर मारकर मुझे जगाया और उसी तरह मुझ पर सवार होकर वह द्वीप में घूमता फिरा। मैं क्रोध और दुख से अधमरा हो गया किंतु कुछ कर ही नहीं सकता था क्योंकि वह मुझे एक क्षण के लिए भी नहीं छोड़ता था और रुकने पर एड़ियों को ठोकरें मारता था जिससे मुझे अतीव कष्ट होता था।

एक दिन मैंने वहाँ पर कद्दू के सूखे खोल पड़े देखे। मैंने उन्हें साफ किया और उनमें पके अंगूरों का रस निचोड़ कर भर दिया। कुछ दिनों बाद फिर घूमता हुआ वहाँ गया तो देखा कि रस से खमीर उठ गया है और वह मदिरा बन गया है। मैं बहुत कमजोर हो गया था इसीलिए स्वयं को शक्ति देने का यह उपाय किया था। मैंने थोड़ी- सी शराब पी और मुझ में शक्ति आ गई। मैं तेजी से चलने लगा और गाने भी लगा। बूढ़े को यह देखकर आश्चर्य हुआ। उसने इशारे से एक कद्दू की शराब देने के लिए कहा।

मैं तो दो-चार घूँट ही लेता था। उसे थोड़ी मदिरा पीकर आनंद आया तो वह एकदम से पूरे कद्दू की शराब पी गया। इससे उसे तेज नशा चढ़ आया। वह गाने लगा और झूमने और डगमगाने लगा। जब मेरी गर्दन पर उसकी पकड़ ढीली हो गई तो मैंने उसे पृथ्वी पर पटक दिया। उसके गिरते ही मैंने एक पत्थर से उसका सिर कुचल -कुचलकर उसे मार डाला। मुझे उसी पकड़ से छूट कर बड़ा सुख मिला और मैं समुद्र तट पर आ गया।

संयोग से उसी समय एक जहाज के कुछ लोग जहाज में मीठा पानी भरने उस द्वीप में उतरे। उन्हें मेरी कहानी सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा, 'क्या तुम सचमुच इस बूढ़े के हाथ पड़े थे? उसने तो न जाने कितनों को इसी तरह दौड़ाकर और गला घोंटकर मार डाला है। उसके हाथ से कोई नहीं बचा। तुम वास्तव में बहुत भाग्यशाली हो। इस द्वीप के अंदर कोई नहीं जाता, सभी इससे भय खाते हैं।' फिर वे मुझे अपने जहाज पर ले आए। कप्तान ने भी मेरा हाल सुनकर मुझ पर दया की और बगैर किराए के पूरी सुविधा के साथ मुझे ले चला। यात्रा के दौरान एक बड़े व्यापारी से मेरी गहरी मित्रता हो गई।

एक अन्य द्वीप पर पहुँच कर उस व्यापारी ने अपने कई नौकर जमीन पर भेजे और मुझे एक टोकरा देकर कहा कि इनके साथ चले जाओ और जैसा यह करें वैसा ही तुम भी करना और इनसे अलग न होना वरना बड़ी मुसीबत में फँस जाओगे।' मैं सब आदमियों के साथ टापू पर उतर गया। द्वीप पर नारियल के बहुत-से पेड़ थे किंतु वे इतने ऊँचे थे कि उन पर चढ़ना असंभव लगता था। वहाँ बहुत-से बंदर भी थे। वे हमारे डर से तुरंत पेड़ों पर चढ़ गए। अब मेरे साथियों ने यह किया कि ढेले-पत्थर जमा किए और बंदरों पर फेंकने लगे। मैंने भी ऐसे ही किया। बंदर क्रोध में आ कर नारियल तोड़ तोड़कर हम लोगों के सिरों पर फेंकने लगे। कुछ ही देर में सारी जमीन पर नारियल बिछ गए। हम लोगों ने नारियलों से टोकरे भरे। मैं इस प्रकार नारियल प्राप्त होने पर आश्चर्य में पड़ गया। फिर मैं उन लोगों के साथ शहर में आया जहाँ नारियल अच्छे दामों में बिक गए।

व्यापारी ने नारियलों की कीमत में मेरा हिस्सा मुझे देकर कहा कि तुम रोज इसी तरह जाकर नारियल जमा किया करो और उनसे जो पैसा मिले उसे बचाते जाओ। कुछ दिनों में तुम्हारे पास इतना धन इकट्ठा हो जाएगा कि आसानी से अपने देश को वापस जा सकोगे। मैंने उसकी बात मानी और कई दिन तक इसी तरह नारियल बेचता रहा। मेरा पास इस सौदे से पर्याप्त धन हो गया।

कुछ दिनों बाद जिस जहाज ने मुझे बचाया था वह उस बंदरगाह से चला गया। मैं वहीं रुक गया क्योंकि मैं दूसरी ओर जाना चाहता था। मैंने बहुत-से नारियल अपने पास भी जमा कर लिए थे। कुछ दिनों में एक जहाज उधर जाने वाला आया जिधर मैं जाना चाहता था। मैं अपनी नारियल की खेप लेकर सवार हुआ। वहाँ से जहाज उस द्वीप में आया जहाँ काली मिर्च पैदा होती है। वहाँ से हम लोग उस टापू में गए जहाँ चंदन और आबनूस के पेड़ बहुतायत से हैं। वहाँ के निवासी न तो मदिरापान करते हैं न अन्य किसी प्रकार के कुकर्म करते हैं। उन दोनों द्वीपों में मैंने नारियल बेच कर काली मिर्च और चंदन खरीदा। इसके अतिरिक्त कई अन्य व्यापारियों के सलाह से मैं समुद्र से मोती निकलवाने की योजना में उनका भागीदार बन गया। हम लोगों ने बहुत से गोताखोरों को मजदूरी पर लगाया। भगवान की कुछ ऐसी कृपा हुई कि मेरे गोताखोरों ने अन्य गोताखोरों की अपेक्षा कहीं अधिक मोती निकाले और मेरे मोती अन्य मोतियों से बड़े और सुडौल भी थे। इसके बाद मैं एक जहाज पर बसरा बंदरगाह आ गया। वहाँ पर मैंने काली मिर्च, चंदन और मोतियों को बेचा तो मेरी आशा से कहीं अधिक लाभ हुआ। मैंने उसका दसवाँ भाग दान में दे दिया और अपने सुख सुविधा की वस्तुएँ खरीदकर बगदाद में अपने घर पर आकर रहने लगा।

पाँचवी यात्रा का वृत्तांत सुनाकर सिंदबाद ने हिंदबाद को फिर चार सो दीनारें दीं और उसे तथा अन्य मित्रों को विदा करके अगले दिन फिर नया यात्रा वृत्तांत सुनने के लिए आमंत्रित किया। अगले दिन सब आए और खाना पीना होने के बाद यात्रा वृत्तांत आरंभ हो गया।
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सिंदबाद ने हिंदबाद और अन्य लोगों से कि आप लोग स्वयं ही सोच सकते हैं कि मुझ पर कैसी मुसीबतें पड़ीं और साथ ही मुझे कितना धन प्राप्त हुआ। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता था। एक वर्ष बाद मुझ पर फिर यात्रा का उन्माद चढ़ा। मेरे सगे-संबंधियों ने मुझे बहुत रोका किंतु मैं न माना। आरंभ में मैंने बहुत-सी यात्रा थल मार्ग से की और फारस के कई नगरों में जाकर व्यापार किया। फिर एक बंदरगाह पर एक जहाज पर बैठा और नई समुद्र यात्रा शुरू की।

कप्तान की योजना तो लंबी यात्रा पर जाने की थी किंतु वह कुछ समय बाद रास्ता भूल गया। वह बराबर अपनी यात्रा पुस्तकों और नक्शों को देखा करता था ताकि उसे यह पता चले कि कहाँ है। एक दिन वह पुस्तक पढ़ कर रोने-चिल्लाने लगा। उसने पगड़ी फेंक दी और बाल नोचने लगा। हमने पूछा कि तुम्हें यह क्या हो गया है, तो उसने कुछ देर में बताया कि यहाँ एक समुद्री धारा हमें एक ओर लिए जाती हैं, वह हमें एक तट पर ऐसा पटकेगी कि हमारा जहाज टूट जाएगा और हम सब उसी तट पर मर जाएँगे। यह कहकर उसने जहाज के पाल उतरवा दिए।

उससे कुछ न हुआ। धारा के वेग से उछल कर जहाज पहाड़ी से टकराया और शीशे की तरह बिखर गया। चूँकि तट ही पर यह हुआ था इसीलिए हम लोग खाद्य सामग्री और अन्य सामान किनारे पर ले आए। कप्तान ने कहा 'भाग्य पर किसी का वश नहीं है। अब हम सब लोग एक-दूसरे के गले लगकर रो लें और अपनी-अपनी कब्रें खोद लें क्योंकि यहाँ से कोई बचकर नही गया है।' यह सुनकर हम लोग एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे क्योंकि हमने देखा कि किनारे पर दूर-दूर तक जहाजों के टुकड़े और मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। मालूम होता था कि हजारों यात्री वहाँ आकर मर गए हैं। चारों ओर उनके व्यापार की वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं।


उस पहाड़ पर बिल्लौर और लाल की खदान थीं। पास ही कई नदियाँ एक स्थान पर मिलकर एक गुफा के अंदर जाती थीं। उस पहाड़ से राल टपक कर समुद्र में गिरती थी और मछलियाँ उसे खाकर कुछ समय बाद उसे उगल देती थीं। वही अभ्रक बन जाती थी। उस अभ्रक के ढेर भी वहाँ थे। समुद्र में समुद्री धारा से बचना इसीलिए असंभव था कि पहाड़ की ऊँचाई के कारण जहाजों को विपरीत दिशा में खींच ले जाने वाली तेज हवा रुक जाती थी। पहाड़ इतना ऊँचा था कि उस पर चढ़कर दूसरी ओर जा निकलना भी असंभव था।

हम लोग अपने दुर्भाग्य पर रोते रहे और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जहाज पर से लाया हुआ खाना हमने बराबर बाँट लिया। हममें से जो भी मरता बाकी लोग कब्र खोदकर उसे दफन कर देते थे। मैं ही सबसे अधिक मुर्दे गाड़ा करता और उनका बचा हुआ भोजन ले लेता। इस प्रकार मेरे पास खाद्य सामग्री काफी हो गई। धीरे- धीरे मेरे सभी साथी मर गए। अकेला रह जाने के कारण मैं और भी दुखी हुआ। मैंने भी अपनी कब्र खोद ली ताकि मरने का समय आए तो उसमें जा लेटूँ।
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सिंदबाद जहाजी की छठी यात्रा ~ अलिफ लैला
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सिंदबाद ने हिंदबाद और अन्य लोगों से कि आप लोग स्वयं ही सोच सकते हैं कि मुझ पर कैसी मुसीबतें पड़ीं और साथ ही मुझे कितना धन प्राप्त हुआ। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता था। एक वर्ष बाद मुझ पर फिर यात्रा का उन्माद चढ़ा। मेरे सगे-संबंधियों ने मुझे बहुत रोका किंतु मैं न माना। आरंभ में मैंने बहुत-सी यात्रा थल मार्ग से की और फारस के कई नगरों में जाकर व्यापार किया। फिर एक बंदरगाह पर एक जहाज पर बैठा और नई समुद्र यात्रा शुरू की।

कप्तान की योजना तो लंबी यात्रा पर जाने की थी किंतु वह कुछ समय बाद रास्ता भूल गया। वह बराबर अपनी यात्रा पुस्तकों और नक्शों को देखा करता था ताकि उसे यह पता चले कि कहाँ है। एक दिन वह पुस्तक पढ़ कर रोने-चिल्लाने लगा। उसने पगड़ी फेंक दी और बाल नोचने लगा। हमने पूछा कि तुम्हें यह क्या हो गया है, तो उसने कुछ देर में बताया कि यहाँ एक समुद्री धारा हमें एक ओर लिए जाती हैं, वह हमें एक तट पर ऐसा पटकेगी कि हमारा जहाज टूट जाएगा और हम सब उसी तट पर मर जाएँगे। यह कहकर उसने जहाज के पाल उतरवा दिए।

उससे कुछ न हुआ। धारा के वेग से उछल कर जहाज पहाड़ी से टकराया और शीशे की तरह बिखर गया। चूँकि तट ही पर यह हुआ था इसीलिए हम लोग खाद्य सामग्री और अन्य सामान किनारे पर ले आए। कप्तान ने कहा 'भाग्य पर किसी का वश नहीं है। अब हम सब लोग एक-दूसरे के गले लगकर रो लें और अपनी-अपनी कब्रें खोद लें क्योंकि यहाँ से कोई बचकर नही गया है।' यह सुनकर हम लोग एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे क्योंकि हमने देखा कि किनारे पर दूर-दूर तक जहाजों के टुकड़े और मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। मालूम होता था कि हजारों यात्री वहाँ आकर मर गए हैं। चारों ओर उनके व्यापार की वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं।

उस पहाड़ पर बिल्लौर और लाल की खदान थीं। पास ही कई नदियाँ एक स्थान पर मिलकर एक गुफा के अंदर जाती थीं। उस पहाड़ से राल टपक कर समुद्र में गिरती थी और मछलियाँ उसे खाकर कुछ समय बाद उसे उगल देती थीं। वही अभ्रक बन जाती थी। उस अभ्रक के ढेर भी वहाँ थे। समुद्र में समुद्री धारा से बचना इसीलिए असंभव था कि पहाड़ की ऊँचाई के कारण जहाजों को विपरीत दिशा में खींच ले जाने वाली तेज हवा रुक जाती थी। पहाड़ इतना ऊँचा था कि उस पर चढ़कर दूसरी ओर जा निकलना भी असंभव था।

हम लोग अपने दुर्भाग्य पर रोते रहे और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जहाज पर से लाया हुआ खाना हमने बराबर बाँट लिया। हममें से जो भी मरता बाकी लोग कब्र खोदकर उसे दफन कर देते थे। मैं ही सबसे अधिक मुर्दे गाड़ा करता और उनका बचा हुआ भोजन ले लेता। इस प्रकार मेरे पास खाद्य सामग्री काफी हो गई। धीरे- धीरे मेरे सभी साथी मर गए। अकेला रह जाने के कारण मैं और भी दुखी हुआ। मैंने भी अपनी कब्र खोद ली ताकि मरने का समय आए तो उसमें जा लेटूँ।

मैं रात-दिन अपने को धिक्कारता था कि घर पर इतना सुख का जीवन छोड़कर यहाँ मंदगामी मौत मरने के लिए क्यों आया। किंतु पछताने से क्या होना था। भगवान की दया से एक रात अचानक एक विचार मेरे मन में आया। मैंने सोचा कि नदियाँ मिलकर एक बड़ी नदी के रूप में जब खोह के अंदर बहती ही जाती हैं तो खोह के बाद कहीं और निकलती भी होंगी। इसीलिए मैंने सोचा कि किसी तरह इस नदी के सहारे ही किसी देश में जा निकलूँ। किनारे पर बीसियों जहाज टूटे पड़े थे। मैंने तख्तों को जोड़- जाड़कर एक नाव बनाई। मैंने सोचा कि किनारे पर तो मरना निश्चित ही है, नदी में जाने पर भी अधिक से अधिक मौत ही होगी और हो सकता है कि बच ही जाऊँ।

बचने की आशा में मैंने नाव पर खाद्य सामग्री के अलावा वहाँ पड़े हुए असंख्य रत्नों और मृत यात्रियों के बिखरे हुए सामान की बहुमूल्य वस्तुओं में से चुन-चुनकर चीजें जमा की ओर उनकी कई गठरियाँ बनाईं। नाव को नदी के किनारे लाकर मैंने उसके दोनों ओर गठरियाँ रखीं ताकि नाव बहुत हल्की भी न रहे और संतुलित भी रहे। यह करने के बाद मैंने डाँड़ सँभाली और ईश्वर का नाम लेकर नदी में नाव छोड़ दी।

नाव गुफा में गई तो बिल्कुल अँधेरे में आ गई। मुझे दिखाई न देता था। नाव को कभी धारा पर छोड़कर सुस्ताने लगता, कभी खेने लगता। कहीं-कहीं गुफा की छत इतनी नीचे थी कि मेरे सिर पर टकराती थी। अपने पास जो मैंने रख लिया था उसमें से बहुत थोड़ा-थोड़ा खाता था ताकि जीवित भर रह सकूँ। कुछ समय के बाद मुझ पर निद्रा का ऐसा प्रकोप हुआ कि मैं सो गया तो घंटों तक सोता रहा। जब जागा तो देखा कि नाव खुले में नगर के समीप नदी के तट पर बँधी हुई है। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर बहुत- से श्याम वर्ण लोग हैं। मैंने इन्हें सलाम करके उनका हाल-चाल पूछा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#8
खैर, आदमियों के बीच पहुँचकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई और मैंने ऊँचे स्वर में अपनी भाषा अरबी में भगवान को धन्यवाद दिया और कहा कि भगवान क्षण-क्षण पर मनुष्य की सहायता करता है और मनुष्य को चाहिए कि उसकी अनुकंपा से निराश न हो और मुझे भी उचित है कि आँख बंद करके स्वयं भगवान के सहारे छोड़ दूँ।

उन लोगों में से एक को अरबी भाषा आती थी। मेरी बातें सुनकर वह मेरे पास आया और कहने लगा, 'तुम हम लोगों को देखकर चिंता न करो। हम लोग इस क्षेत्र के वासी हैं। हम यहाँ नदी से अपने खेतों में पानी देने के लिए आते हैं। आज नदी में पानी कम आ रहा था जैसे धारा को कोई चीज रोके हुए हो। हमने आगे जाकर देखा तो एक मोड़ पर तुम्हारी नाव टेढ़ी होकर अटकी थी जिससे पानी धारा में आना कम हो गया था। हममें से एक व्यक्ति तैर कर गया और तुम्हारी नाव को उसने फिर सीधा करके धारा में डाला। फिर हमने तुम्हारी नाव यहाँ बाँध दी। अब तुम बताओ कि कौन हो और कहाँ से आए हो।'

मैंने उससे कहा कि मेरी भूख से जान निकली जा रही है, पहले कुछ खाने को दो। उन लोगों ने कई तरह की खाने की चीजें दीं। फिर मैंने आरंभ से अंत तक अपना हाल उन्हें बताया। उन लोगों को यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने कहा कि हम तुम्हें अपने बादशाह के पास ले जाएँगे, वहाँ तुम उन्हें अपना हाल सुनाना। मैंने कहा, मैं इसके लिए तैयार हूँ।

वे लोग मेरी गठरियाँ उठा कर मेरे साथ चले। यह सरान द्वीप (लंका) था। मैंने राज दरबार में प्रवेश किया और सिंहासन पर बैठे राजा को देखकर हिंदुओं की प्रथानुसार उसे प्रणाम किया और उसके सिंहासन को चूमा। बादशाह ने पूछा, तू कौन है। मैंने कहा, मेरा नाम सिंदबाद जहाजी है, मैं बगदाद नगर का निवासी हूँ। उसने कहा, तू कहाँ जा रहा है और मेरे राज्य में कैसे आया। मैंने उसे अपनी यात्रा का वृत्तांत आद्योपांत बताया। उसे यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने आज्ञा दी कि सिंदबाद के जीवन का वृत्तांत लिख लिया जाए बल्कि सोने के पानी से लिखा जाए ताकि यह हमारे यहाँ के इतिहास की तथा अन्य ज्ञानवर्धक पुस्तकों में भी जगह पर सके।

उसने मेरी गठरियाँ खोलने की आज्ञा दी। उनमें के बहुमूल्य रत्नों तथा चंदनादि अन्य वस्तुओं को देखकर उसे और भी आश्चर्य हुआ। मैंने कहा, 'महाराजाधिराज, यह सब आप ही का है, आप इसमें से जितना चाहें ले लें बल्कि सब कुछ लेना चाहें तो वह भी करें।' उसने मुस्कराकर उत्तर दिया, 'नहीं, यह सब तेरा हैं, हम इसमें से कुछ नहीं लेंगे।' फिर उसने आज्ञा दी कि इस मनुष्य को इसके माल-असबाब के साथ एक अच्छे घर में ठहराओ, इसकी सेवा के लिए अनुचर रखो और हर प्रकार इसकी सुख-सुविधा का खयाल रखो। उसके सेवकों ने ऐसा ही किया और मुझे एक शानदार मकान में ले जाकर उतारा। मैं रोज राज दरबार जाया करता था और वहाँ से छुट्टी मिलने पर इधर-उधर घूम-फिर कर राज्य की देखने योग्य चीजें देखा करता था।

सरान द्वीप भूमध्य रेखा के किंचित दक्षिण में है। इसीलिए वहाँ सदैव ही दिन और रात बराबर होते हैं। उस द्वीप की लंबाई चालीस कोस है और इतनी ही उसकी चौड़ाई है। राजधानी के चारों ओर ऊँचे-ऊँचे पहाड़ हैं। वहाँ से समुद्र तट तीन दिन की राह पर है। वहाँ लाल (मणि) तथा अन्य रत्नों की कई खानें हैं और वहाँ कोरंड नामी पत्थर भी पाया जाता है जिससे हीरों और अन्य रत्नों को काटते और तराशते हैं। वहाँ नारियल के तथा अन्य कई फलों के वृक्ष भी बहुतायत से हैं। वहाँ के समुद्र में मोती भी बहुत मिलते हैं। हजरते आदम, जो कुरान और बाइबिल के अनुसार मनुष्यों के आदि पुरुष हैं, जब स्वर्ग से उतारे गए थे तो इसी द्वीप के एक पहाड़ पर लाए गए थे।

जब मैं वहाँ खूब घूम-फिर कर देख चुका तो मैंने बादशाह से निवेदन किया कि अब मुझे मेरे देश जाने की अनुमति दीजिए। उसने मुझे अनुमति ही नहीं बल्कि कई बहुमूल्य वस्तुएँ इनाम के तौर पर भी दीं। उसने खलीफा हारूँ रशीद के नाम एक पत्र और बहुत-से उपहार भी मुझे दिए कि मैं उन्हें खलीफा तक पहुँचा दूँ। मैंने सिर झुका कर यह स्वीकार किया। बादशाह ने मेरे ले जाने के लिए एक मजबूत जहाज का प्रबंध किया और कप्तान और खलासियों को ताकीद की कि सिंदबाद को बड़े सम्मान से उसके देश में पहुँचाना, रास्ते में इसे किसी प्रकार की असुविधा न हो।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#9
रान द्वीप के बादशाह ने जो पत्र खलीफा के नाम दिया था वह पीले रंग के नरम चमड़े पर लिखा था। यह चमड़ा किसी पशु विशेष का था और बहुत ही मूल्यवान था। उस पर बैंगनी स्याही से पत्र लिखा था। पत्र का लेख इस प्रकार था, 'यह पत्र सरान द्वीप के बादशाह की ओर से भेजा जा रहा है। उस बादशाह की सवारी के आगे एक हजार सजे-सजाए हाथी चलते हैं, उसका राजमहल ऐसा शानदार है जिसकी छतों में एक लाख मूल्यवान रत्न जड़े हैं और उसके खजाने में अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त बीस हजार हीरे जड़े मुकुट रखे हैं। सरान द्वीप का बादशाह खलीफा हारूँ रशीद को निम्नलिखित उपहार भातृभाव से भेज रहा है। वह चाहता है कि खलीफा और उसके दृढ़ मैत्री संबंध हो जाएँ और एक-दूसरे का अहित हम दोनों न चाहें। मैं सरान द्वीप का बादशाह खलीफा की कुशल-क्षेम चाहता हूँ।'

जो उपहार बादशाह ने खलीफा को भेजे थे उनमें मणि का बना हुआ एक प्याला था जिसका दल पौन गिरह (लगभग पौने दो इंच) मोटा था और उसके चारों ओर मोतियों की झालर थी। झालर के मोतियों में प्रत्येक तीन माशे के वजन का था। एक बिछौना अजगर की खाल का, जो एक इंच से अधिक मोटा था। इस बिछौने की विशेषता यह थी कि उस पर सोने वाला आदमी कभी बीमार नहीं पड़ता था। तीसरा उपहार एक लाख सिक्कों के मूल्य की चंदन की लकड़ी थी। चौथा उपहार तीस दाने कपूर के थे जो एक-एक पिस्ते के बराबर थे। पाँचवाँ उपहार एक दासी थी जो अत्यंत ही रूपवती थी और अति मूल्यवान वस्त्राभूषणों से सुसज्जित थी।

हमारा जहाज कुछ समय की यात्रा के बाद सकुशल बसरा के बंदरगाह में पहुँच गया। मैं अपना सारा माल और खलीफा के लिए भेजा गया पत्र और उपहार लेकर बगदाद आया। सब से पहले मैंने यह किया कि उस दासी को - जिसे मैंने परिवार के युवकों से सुरक्षित रखा था - तथा अन्य उपहार और पत्र लेकर खलीफा के राजमहल में पहुँचा। मेरे आने की बात सुनकर खलीफा ने मुझे तुरंत बुला भेजा। उस के सेवकगण मुझे सारे सामान के साथ खलीफा के सम्मुख ले गए। मैंने जमीन चूमकर खलीफा को पत्र दिया। उसने पत्र को पूरा पढ़ा और फिर मुझ से पूछा, 'तुमने तो सरान द्वीप के बादशाह को देखा है, क्या वह ऐसा ही ऐश्वर्यशाली है जैसा इस पत्र में लिखा है?

मैंने कहा, 'वह वास्तव में ऐसा ही है जैसा उसने लिखा है। उसने पत्र में बिल्कुल अतिशयोक्ति नहीं की, मैंने उसका ऐश्वर्य और प्रताप अपनी आँखों से देखा है। उसके राजमहल की शान-शौकत का शब्दों में वर्णन नहीं हो सकता। जब वह कहीं जाता है तो सारे मंत्री और सामंत अपने-अपने हाथियों पर सवार होकर उसके आगे-पीछे चलते हैं। उसके अपने हाथी के हौदे के सामने अंग रक्षक सुनहरे काम के बरछे लिए चलते हैं और पीछे सेवक मोरछल हिलाता रहता है। उस मोरछल के सिरे पर एक बहुत बड़ा नीलम लगा हुआ है। सारे हाथियों के हौदे और साज-सामान ऐसे सुसज्जित हैं जिसका वर्णन मेरे वश की बात नहीं है।

'जब बादशाह की सवारी चलती है तो एक उद्घोषक उच्च स्वर में कहता है कि शानदार बादशाह की सवारी आ रही है जिसके महल में एक लाख रत्न जड़े हैं और जिसके पास बीस हजार हीरक जटित मुकुट हैं और जिसके सामने कोई राजा नहीं ठहर सकता चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान।'

'पहले उद्घोषक के बोलने के बाद दूसरा उद्घोषक कहता है कि बादशाह के पास चाहे जितना ऐश्वर्य हो मरना तो इसके लिए प्रारब्ध है। इस पर पहला कहता है कि इसे सब लोगों का आशीर्वाद मिलना चाहिए कि यह अनंत जीवन पाए।

'यह बादशाह इतना न्यायप्रिय है कि इसके राज्य में न कोई न्यायाधीश है न कोतवाल। उसकी प्रजा ऐसी सुबुद्ध है कि कोई न किसी पर अन्याय करता है न किसी को दुख पहुँचाता है। चूँकि सब लोग बड़े मेल-मिलाप से रहते हैं इसीलिए कोई जरूरत ही नहीं पड़ती कि व्यवस्था ऊपर से कायम की जाए। इसीलिए सरान द्वीप के राज्य में न पुलिस या कोतवाल रखे गए हैं न न्यायाधीश।'

खलीफा ने यह सुनकर कहा कि तुम्हारे वर्णन और इस पत्र से जान पड़ता है कि वह बादशाह बड़ा ही समझदार और होशियार है, इसीलिए इतनी अच्छी व्यवस्था कर पाता है कि पुलिस आदि की आवश्यकता ही न हो। यह कहकर खलीफा ने मुझे खिलअत (सम्मान परिधान) दी और विदा किया।
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#10
यह कहानी कहकर सिंदबाद ने कहा कि आप लोग कल फिर आएँ तो मैं अपनी सातवीं और अंतिम समुद्र यात्रा का वर्णन करुँगा। यह कहकर उसने चार सौ दीनारें हिंदबाद को दीं। दूसरे दिन भोजन के समय हिंदबाद आया और सिंदबाद के मुसाहिब भी आए। भोजनोपरांत सिंदबाद ने कहानी शुरू की।
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#11
सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा
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#12
सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, मैंने दृढ़ निश्चय किया था कि अब कभी जल यात्रा न करूँगा। मेरी अवस्था भी इतनी हो गई थी कि मैं कहीं आराम के साथ बैठ कर दिन गुजारता। इसीलिए मैं अपने घर में आनंदपूर्वक रहने लगा। एक दिन अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहा था कि एक नौकर ने आ कर कहा कि खलीफा के दरबार से एक सरदार आया है, वह आपसे बात करना चाहता है। मैं भोजन करके बाहर गया तो सरदार ने मुझसे कहा कि खलीफा ने तुम्हें बुलाया है। मैं तुरंत खलीफा के दरबार को चल पड़ा।

खलीफा के सामने जा कर मैंने जमीन चूम कर प्रणाम किया। खलीफा ने कहा, 'सिंदबाद, मैं चाहता हूँ कि सरान द्वीप के बादशाह के पत्र के उत्तर में पत्र भेजूँ और उसके उपहारों के बदले उपहार भेजूँ। तुम यह सब ले जा कर सरान द्वीप के बादशाह को पहुँचा दो।'

मुझे यह आदेश पा कर बड़ी परेशानी हुई। मैंने हाथ जोड़ कर कहा, 'हे समस्त मुसलमानों के अधिपति, मुझ में आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस तो नहीं है किंतु मैंने समुद्र की कई यात्राएँ की हैं और हर एक में ऐसे ऐसे जानलेवा कष्ट झेले हैं कि अब दृढ़ निश्चय किया है कि कभी जहाज पर पाँव नहीं रखूँगा।' यह कह कर मैंने खलीफा को संक्षेप में अपनी छहों यात्राओं की विपदा सुनाई। खलीफा को यह सब सुन कर आश्चर्य बहुत हुआ किंतु उसने अपना निर्णय न बदला। उसने कहा, 'वास्तव में तुम पर बड़े कष्ट पड़े हैं लेकिन मेरे कहने से एक बार और यात्रा करो क्योंकि इस काम को तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। फिर तुम कभी यात्रा न करना।'

मैंने देखा कि खलीफा अपने निश्चय से हटनेवाला नहीं है और तर्क-वितर्क से कोई लाभ न होगा इसीलिए मैंने यात्रा पर जाना स्वीकार कर लिया। खलीफा ने मुझे राह खर्च के लिए चार हजार दीनार देने को कहा और कहा कि तुम तुरंत ही अपने घर जाओ और घर की व्यवस्था ठीक करके यात्रा की तैयारी शुरू कर दो। मैं घर जा कर अपने काम- काज को समेटने लगा और यात्रा के लिए तैयारी करके कुछ दिनों के बाद खलीफा के दरबार में जा पहुँचा।

मुझे खलीफा के सामने हाजिर किया गया। मैंने रीति के अनुसार धरती चूम कर खलीफा को प्रणाम किया। खलीफा मुझे देख कर प्रसन्न हुआ और उसने मेरी कुशलक्षेम पूछी। मैंने भगवान की अनुकंपा और खलीफा की दया की प्रशंसा की। खलीफा ने मुझे चार हजार दीनार यात्रा व्यय के लिए दिलाए।

मैं खलीफा की आज्ञानुसार उसके दिए हुए उपहार ले कर बसरा बंदरगाह पर आया और वहाँ से एक जहाज ले कर सरान द्वीप को चल दिया। यात्रा निर्विघ्न समाप्त हुई। मैं सूचना दे कर सरान द्वीप के बादशाह के सामने गया और अपना परिचय दिया। उसने कहा, हाँ सिंदबाद, मैंने तुम्हें पहचान लिया। तुम कुशल-मंगल से तो हो। मैंने बादशाह की न्यायप्रियता और मृदु स्वभाव की प्रशंसा की और कहा कि मैं खलीफा की ओर से आपके लिए कुछ भेंट और एक पत्र लाया हूँ।

खलीफा ने जो उपहार भेजे थे उनमें अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त एक अत्यंत सुंदर लाल रंग का कालीन था जिसका मूल्य चार हजार दीनार था। उस पर बहुत ही सुंदर सुनहरा काम किया हुआ था। एक प्याला माणिक का था जिसका दल एक अंगुल मोटा था। प्याले पर एक मनुष्य का चित्र बना था जो तीर-कमान से एक शेर का शिकार कर रहा था। एक राज सिंहासन भी था, जो ऊपर से नीचे तक रत्नों से जड़ा था और हजरत सुलेमान के तख्त को भी मात करता था। इसके अलावा और बहुत-सी मूल्यवान और दुर्लभ वस्तुएँ थीं। उपहारों को देखने के बाद बादशाह ने खलीफा का पत्र पढ़ा।
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#13
खलीफा ने अपने पत्र में लिखा था, 'आपको अब्दुल्ला हारूँ रशीद का, जो भगवान की दया से अपने पूर्वजों का उत्तराधिकारी है, प्रणाम पहुँचे। हमें आपका पत्र और आपके भेजे हुए उपहार प्राप्त हुए। हमें इन बातों से बड़ी प्रसन्नता है कि हम आप के उपहारों के बदले में कुछ उपहार आप को भेज रहे हैं। हमें पूर्ण आशा है कि यह पत्र आपकी सेवा में पहुँचेगा और इससे आपको ज्ञात होगा कि आपके लिए हमारे मन में कितना प्रेम हैं।'
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#14
HomeGreat Storiesअलिफ लैलाAlif Laila
सिंदबाद जहाजी की सातवीं यात्रा ~ अलिफ लैला
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सिंदबाद ने कहा, दोस्तो, मैंने दृढ़ निश्चय किया था कि अब कभी जल यात्रा न करूँगा। मेरी अवस्था भी इतनी हो गई थी कि मैं कहीं आराम के साथ बैठ कर दिन गुजारता। इसीलिए मैं अपने घर में आनंदपूर्वक रहने लगा। एक दिन अपने मित्रों के साथ भोजन कर रहा था कि एक नौकर ने आ कर कहा कि खलीफा के दरबार से एक सरदार आया है, वह आपसे बात करना चाहता है। मैं भोजन करके बाहर गया तो सरदार ने मुझसे कहा कि खलीफा ने तुम्हें बुलाया है। मैं तुरंत खलीफा के दरबार को चल पड़ा।

खलीफा के सामने जा कर मैंने जमीन चूम कर प्रणाम किया। खलीफा ने कहा, 'सिंदबाद, मैं चाहता हूँ कि सरान द्वीप के बादशाह के पत्र के उत्तर में पत्र भेजूँ और उसके उपहारों के बदले उपहार भेजूँ। तुम यह सब ले जा कर सरान द्वीप के बादशाह को पहुँचा दो।'

मुझे यह आदेश पा कर बड़ी परेशानी हुई। मैंने हाथ जोड़ कर कहा, 'हे समस्त मुसलमानों के अधिपति, मुझ में आपकी आज्ञा का उल्लंघन करने का साहस तो नहीं है किंतु मैंने समुद्र की कई यात्राएँ की हैं और हर एक में ऐसे ऐसे जानलेवा कष्ट झेले हैं कि अब दृढ़ निश्चय किया है कि कभी जहाज पर पाँव नहीं रखूँगा।' यह कह कर मैंने खलीफा को संक्षेप में अपनी छहों यात्राओं की विपदा सुनाई। खलीफा को यह सब सुन कर आश्चर्य बहुत हुआ किंतु उसने अपना निर्णय न बदला। उसने कहा, 'वास्तव में तुम पर बड़े कष्ट पड़े हैं लेकिन मेरे कहने से एक बार और यात्रा करो क्योंकि इस काम को तुम्हारे अतिरिक्त कोई नहीं कर सकता। फिर तुम कभी यात्रा न करना।'

मैंने देखा कि खलीफा अपने निश्चय से हटनेवाला नहीं है और तर्क-वितर्क से कोई लाभ न होगा इसीलिए मैंने यात्रा पर जाना स्वीकार कर लिया। खलीफा ने मुझे राह खर्च के लिए चार हजार दीनार देने को कहा और कहा कि तुम तुरंत ही अपने घर जाओ और घर की व्यवस्था ठीक करके यात्रा की तैयारी शुरू कर दो। मैं घर जा कर अपने काम- काज को समेटने लगा और यात्रा के लिए तैयारी करके कुछ दिनों के बाद खलीफा के दरबार में जा पहुँचा।

मुझे खलीफा के सामने हाजिर किया गया। मैंने रीति के अनुसार धरती चूम कर खलीफा को प्रणाम किया। खलीफा मुझे देख कर प्रसन्न हुआ और उसने मेरी कुशलक्षेम पूछी। मैंने भगवान की अनुकंपा और खलीफा की दया की प्रशंसा की। खलीफा ने मुझे चार हजार दीनार यात्रा व्यय के लिए दिलाए।

मैं खलीफा की आज्ञानुसार उसके दिए हुए उपहार ले कर बसरा बंदरगाह पर आया और वहाँ से एक जहाज ले कर सरान द्वीप को चल दिया। यात्रा निर्विघ्न समाप्त हुई। मैं सूचना दे कर सरान द्वीप के बादशाह के सामने गया और अपना परिचय दिया। उसने कहा, हाँ सिंदबाद, मैंने तुम्हें पहचान लिया। तुम कुशल-मंगल से तो हो। मैंने बादशाह की न्यायप्रियता और मृदु स्वभाव की प्रशंसा की और कहा कि मैं खलीफा की ओर से आपके लिए कुछ भेंट और एक पत्र लाया हूँ।

खलीफा ने जो उपहार भेजे थे उनमें अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त एक अत्यंत सुंदर लाल रंग का कालीन था जिसका मूल्य चार हजार दीनार था। उस पर बहुत ही सुंदर सुनहरा काम किया हुआ था। एक प्याला माणिक का था जिसका दल एक अंगुल मोटा था। प्याले पर एक मनुष्य का चित्र बना था जो तीर-कमान से एक शेर का शिकार कर रहा था। एक राज सिंहासन भी था, जो ऊपर से नीचे तक रत्नों से जड़ा था और हजरत सुलेमान के तख्त को भी मात करता था। इसके अलावा और बहुत-सी मूल्यवान और दुर्लभ वस्तुएँ थीं। उपहारों को देखने के बाद बादशाह ने खलीफा का पत्र पढ़ा।
अलिफ़ लैला की अन्य कहानियाँ:
Complete Alif Laila Stories In Hindi ~ अलिफ लैला की कहानियाँ
खलीफा ने अपने पत्र में लिखा था, 'आपको अब्दुल्ला हारूँ रशीद का, जो भगवान की दया से अपने पूर्वजों का उत्तराधिकारी है, प्रणाम पहुँचे। हमें आपका पत्र और आपके भेजे हुए उपहार प्राप्त हुए। हमें इन बातों से बड़ी प्रसन्नता है कि हम आप के उपहारों के बदले में कुछ उपहार आप को भेज रहे हैं। हमें पूर्ण आशा है कि यह पत्र आपकी सेवा में पहुँचेगा और इससे आपको ज्ञात होगा कि आपके लिए हमारे मन में कितना प्रेम हैं।'

सरान द्वीप का बादशाह यह पत्र पढ़ कर बहुत खुश हुआ। अब मैंने विदा माँगी। वह अपनी कृपालुता के कारण मुझे विदा न करना चाहता था किंतु जब मैंने इसके लिए बार - बार अनुनय की तो उसने मुझे खिलअत (सम्मान परिधान) तथा बहुत - सा इनाम दे कर विदा किया। मैं अपने जहाज पर वापस आया और कप्तान से कहा कि मैं शीघ्रातिशीघ्र बगदाद पहुँचना चाहता हूँ। उसने जहाज को तेज चलाया किंतु भगवान की कुछ और ही इच्छा थी। हमारा जहाज चले तीन-चार ही दिन हुए थे कि समुद्री लुटेरों ने आ कर हमें घेर लिया। हम उनका सामना करने में असमर्थ रहे। लुटेरों ने जहाज का सारा सामान भी लूट लिया और हम सब लोगों को भी बंदी बना लिया। हममें से जिन लोगों ने प्रतिरोध करना चाहा उन्हें लुटेरों ने मार डाला। फिर लुटेरों ने हम लोगों के कपड़े उतार कर गुलामों जैसे कपड़े, जो गाढ़े के बने होते हैं, पहनाए और एक दूरस्थ द्वीप में ले जा कर हमें बेच डाला।

मुझे एक मालदार व्यापारी ने खरीद लिया। उसने अपने घर ले जा कर मुझे अपने गुलामों जैसे कपड़े पहनाए और मुझे खाने-पीने को दिया। वह यह तो जानता नहीं था कि मैं कौन हूँ और क्या करता हूँ। उसने एक दिन मुझसे पूछा कि तुम्हें कोई काम आता है या नहीं तब मैंने बताया कि मेरा धंधा व्यापार का था और समुद्री लुटेरों ने हमारा जहाज लूट लिया और हम लोगों को गुलाम बना कर बेच दिया। मालिक ने पूछा कि तुम्हें तीर चलाना आता है या नहीं। मैंने कहा कि बचपन में मैंने इसका अभ्यास किया था और अब भी इसे भूला नहीं हूँगा।

अब मालिक ने धनुष-बाण दे कर मुझे अपने साथ एक हाथी पर बैठाया और नगर से कई दिनों की राह पर स्थित एक बड़े वन में गया। वहाँ एक बड़ा वृक्ष दिखा कर कहा कि इस पर छुप कर बैठो और इधर से जो हाथी निकले तो उसे मारो, जब कोई हाथी शिकार हो जाए तो मुझे आ कर बताओ।

यह कह कर उसने मेरे पास कई दिनों के लिए भोजन रख दिया और स्वयं वापस शहर को चला गया।

मैं वृक्ष पर चढ़ गया। रात भर प्रतीक्षा करता रहा किंतु कोई हाथी न दिखाई दिया। दूसरे दिन सवेरे के समय वहाँ हाथियों का एक झुंड आया। मैंने कई तीर छोड़े और एक हाथी घायल हो कर गिर पड़ा और अन्य हाथी भाग गए। मैं शहर में आया और अपने मालिक को बताया कि मेरे तीर से एक हाथी गिरा है। वह यह सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ और उसने तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन मुझे खिलाए। दूसरे दिन हम दोनों उसी जंगल में गए। मालिक के कहने पर मैंने गड्ढा खोद कर हाथी को गाड़ दिया। मालिक ने कहा, जब हाथी सड़ जाए तो उसके दाँत निकाल कर ले आना क्योंकि यह बहुमूल्य वस्तु है।

मैं दो महीने तक यही काम करता रहा। मैं उसी वृक्ष पर चढ़ता-उतरता रहता था। मैंने इस बीच कई हाथियों को निशाना बनाया। एक दिन मैं उस वृक्ष पर चढ़ा था कि हाथियों का एक विशाल समूह आया। वे सब पेड़ को घेर कर खड़े हो गए और अत्यंत भयानक रव करने लगे। वे संख्या में इतने अधिक थे कि सारी धरती काली दिखाई देती थी और उनके पैरों की धमक से भूकंप आ रहा था। उन्होंने मुझे देख लिया था और वे पेड़ को उखाड़ने लगे। यह देख कर मैं डर के मारे अधमरा हो गया। तीर-कमान मेरे हाथ से गिर पड़े। एक बड़े हाथी ने अंतत: सूँड़ लपेट कर उस वृक्ष को उखाड़ ही डाला। मैं धरती पर गिर गया। उसने मुझे उठा कर पीठ पर रख लिया।

मैं मुर्दे की तरह उसकी पीठ पर पड़ा रहा। वह मुझे ले कर एक ओर चला और शेष हाथी उसके पीछे चले। हाथी मुझे एक लंबे-चौड़े मैदान में ले गए और मुझे उतार कर एक ओर चले गए और अदृश्य हो गए। फिर मैं उठा और चारों ओर देखने लगा। कुछ दूर पर मुझे एक बड़ा खड्ढा दिखाई दिया जिसमें हाथियों के अस्थिपंजरों के ढेर लगे थे। अब मैंने सोचा कि हाथी कितना बुद्धिमान जीव होता है। जब हाथियों ने देखा कि मैं उनके दाँतों के लिए ही उनका शिकार करता हूँ तो उन्होंने खुद मुझे यहाँ ला कर यह खड्ड दिखाया और यह इशारा किया कि तुम हमें मत मारो बल्कि यहाँ से जितने चाहो हाथी दाँत ले लो। मालूम होता था कि जब कोई हाथी मृत्यु के निकट होता है तो खड्ड में गिर कर मर जाता है।

मैं वहाँ एक क्षण के लिए ही ठहरा और वापस अपने मालिक के यहाँ पहुँचा। रास्ते में मुझे एक भी हाथी नहीं दिखाई दिया। मालूम होता था कि सभी हाथी उस जंगल को छोड़ कर किसी दूर के जंगल में चले गए थे। मेरा मालिक मुझे देख कर बड़ा प्रसन्न हुआ और कहने लगा, 'अरे अभागे सिंदबाद, तू अभी तक कहाँ था? मैं तो तेरी चिंता में मरा जा रहा था। मैं तुझे ढूँढ़ता हुआ उस जंगल में गया तो देखा कि पेड़ उखड़ा पड़ा है और तेरे तीन-कमान जमीन पर पड़े हैं। मैंने बहुत खोजा किंतु तेरा पता न मिला। मैं तेरे जीवन से निराश हो कर बैठ गया था। अब तू अपना पूरा हाल सुना। तुझ पर क्या बीती और तू अब तक किस प्रकार जीवित बचा है?'
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#15
मैंने व्यापारी को पूरा हाल सुनाया। वह उस खड्ड की बात सुन कर बहुत प्रसन्न हुआ। मेरे साथ वह उस खड्ड तक पहुँचा और जितने हाथी दाँत उसके हाथी पर लद सकते थे उन्हें लाद कर शहर वापस आया। फिर उसने मुझ से कहा, 'भाई, आज से तुम मेरे गुलाम नहीं हो। तुमने मेरा बड़ा उपकार किया है, तुम्हारे कारण मेरे पास अपार धन हो जाएगा। मैंने तुम से अभी तक एक बात छुपा रखी थी। मेरे कई गुलाम हाथियों ने मार डाले हैं। जो कोई हाथियों के शिकार को जाता था दो या तीन दिन से अधिक नहीं जी पाता था। भगवान ने तुम्हें हाथियों से बचाया। इससे मालूम होता है कि तुम बहुत दिन जिओगे। इससे पहले बहुत-से गुलाम खो कर भी मैं मामूली लाभ ही पाता था, अब तुम्हारे कारण मैं ही नहीं इस नगर के सारे व्यापारी संपन्न हो जाएँगे। मैं तुम्हें न केवल स्वतंत्र करूँगा बल्कि तुम्हें बड़ी धन-दौलत भी दूँगा और अन्य व्यापारियों से भी बहुत कुछ दिलवाऊँगा।'

मैंने कहा, 'आप मेरे स्वामी हैं। भगवान आपको चिरायु करे। मैं आपका बड़ा कृतज्ञ हूँ कि आपने समुद्री डाकुओं के पंजे से मुझे छुड़ा लिया और मेरा बड़ा भाग्य था कि मैं इस नगर में आ कर बिका। अब मैं आपसे और अन्य व्यापारियों से इतनी दया चाहता हूँ कि मुझे मेरे देश पहुँचा दें।' उसने कहा, 'तुम धैर्य रखो। जहाज यहाँ पर एक विशेष ॠतु में आते हैं और उनके व्यापारी हमसे हाथी दाँत मोल लेते हैं। जब वे जहाज आएँगे तो हम लोग तुम्हारे देश को जाने वाले किसी जहाज पर तुम्हें चढ़ा देंगे।' मैंने उसे सैकड़ों आशीर्वाद दिए।

मैं कई महीनों तक जहाजों के आने की प्रतीक्षा करता रहा। इस बीच मैं कई बार जंगल में गया और हाथी दाँत लाया और इनसे उसका घर भर दिया। व्यापारियों को भी उस खड्ड के बारे में बताया और वे सभी वहाँ से हाथी दाँत ला कर अत्यंत संपन्न हो गए। जहाजों की ॠतु आने पर जहाज वहाँ पहुँचे। मेरे स्वामी व्यापारी ने अपने घर के आधे हाथी दाँत मुझे दे दिए और एक जहाज पर मेरे नाम से उन्हें चढ़ा दिया और अनेक प्रकार की खाद्य सामग्री भी मुझे दे दी। अन्य व्यापारियों ने भी मुझे बहुत कुछ दिया। मैं जहाज पर कई द्वीपों की यात्रा करता हुआ फारस के एक बंदरगाह पर पहुँचा। वहाँ से थल मार्ग से बसरा आया और हाथी दाँत बेच कर कई मूल्यवान वस्तुएँ ली। फिर बगदाद आ गया।

बगदाद आ कर मैं तुरंत ही खलीफा के दरबार में पहुँचा और उससे पत्र और उपहारों को सरान द्वीप के बादशाह के पास पहुँचाने का हाल कहा। खलीफा ने कहा कि मेरा ध्यान सदैव तुम्हारी कुशलता की ओर लगा रहता था और मैं भगवान से प्रार्थना करता था कि तुम्हें सही-सलामत वापस लाए। जब मैंने अपना हाथियोंवाला अनुभव उसे सुनाया तो उसे यह सुन कर बड़ा आश्चर्य हुआ और उसने अपने एक लेखनकार को यह आदेश दिया कि मेरे वृत्तांत को सुनहरे अक्षरों में लिख ले और शाही अभिलेखागार में रखे। फिर उसने मुझे खिलअत और बहुत-से इनाम दे कर विदा किया।

सिंदबाद ने कहा कि मित्रो, इसके बाद मैं किसी यात्रा पर नहीं गया और भगवान के दिए हुए धन का उपभोग करता हूँ। फिर उसने हिंदबाद से कहा कि अब तुम बताओ कि कोई और मनुष्य ऐसा कहीं है जिसने मुझ से अधिक विपत्तियाँ झेली हों। हिंदबाद ने सम्मानपूर्वक सिंदबाद का हाथ चूमा और कहा, 'सच्ची बात तो यह है कि इन सात समुद्र यात्राओं के दौरान जितनी मुसीबत आपने उठाई और जितनी बार प्राणों के संकट से बच कर निकले उतनी किसी की भी शक्ति नहीं है। मैं अभी तक बिल्कुल अनजान था कि अपनी निर्धनता को रोता था और आपकी सुख-सुविधाओं से ईर्ष्या करता था। मैं रूखी-सूखी खाता हूँ किंतु भगवान को लाख धन्यवाद है कि अपने स्त्री-पुत्रों के बीच आनंद से रहता हूँ। ऐसी कोई विपत्ति मुझ पर नहीं आई जैसी विपत्तियाँ आपने उठाई हैं। वास्तव में जो सुख आप भोग रहे हैं आप उससे अधिक के अधिकारी हैं। भगवान करें आप सदैव इसी प्रकार ऐश्वर्यवान और सुखी रहें।'

सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और उससे कहा कि तुम अब मेहनत-मजदूरी करना छोड़ दो और मेरे मुसाहिब हो जाओ। मैं सारी उम्र तुम्हारे स्त्री-बच्चों का भरण-पोषण करूँगा। हिंदबाद ने ऐसा ही किया और सारी आयु आनंद से बिताई।
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#16
सिंदबाज जहाजी की कहानी






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#17
सिंदबाज जहाजी की कहानी







ब शहरजाद ने यह कहानी पूरी की तो शहरयार ने, जिसे सारी कहानियाँ बड़ी रोचक लगी थीं, पूछा कि तुम्हें कोई और कहानी भी आती हैं। शहरजाद ने कहा कि बहुत कहानियाँ आती हैं। यह कह कर उसने सिंदबाद जहाजी की कहानी शुरू कर दी।  


उसने कहा कि इसी खलीफा हारूँ रशीद के शासन काल में एक गरीब मजदूर रहता था जिसका नाम हिंदबाद था। एक दिन जब बहुत गर्मी पड़ रही थी वह एक भारी बोझा उठा कर शहर के एक भाग से दूसरे भाग में जा रहा था। रास्ते में थक कर उसने एक गली में, जिसमें गुलाब जल का छिड़काव किया हुआ था और जहाँ ठंडी हवा आ रही थी, उतारा और एक बड़े-से घर की दीवार के साए में सुस्ताने के लिए बैठ गया। उस घर से इत्र, फुलेल और नाना प्रकार की अन्य सुगंधियाँ आ रही थीं, इसके साथ ही एक ओर से पक्षियों का मनोहर कलरव सुनाई दे रहा था और दूसरी ओर, जहाँ रसोईघर था, नाना प्रकार के व्यंजनों के पकने की सुगंध आ रही थी। उसने सोचा कि यह तो किसी बहुत बड़े आदमी का मकान मालूम होता है, जानना चाहिए कि किस का है।
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#18
मकान के दरवाजे से कई सेवक आ जा-रहे थे। मजदूर ने उन में से एक से पूछा कि इस घर का स्वामी कौन है। सेवक ने कहा, बड़े आश्चर्य की बात है तू बगदाद का निवासी है और इस घर के परम प्रसिद्ध मालिक को नहीं जानता। यह घर सिंदबाद जहाजी का है जो लाखों बल्कि करोड़ों की संपत्ति का मालिक है।



हिंदबाद ने यह सुनकर आकाश की ओर हाथ उठाए और कहा, 'हे संसार को उत्पन्न करने वाले और पालने वाले भगवान, यह क्या अन्याय है। एक यह सिंदबाद है जो रात-दिन ऐश करता है, एक मैं हूँ हिंदबाद जो रात-दिन जानतोड़ परिश्रम करके किसी प्रकार अपने स्त्री-बच्चों का पेट पालता हूँ। यह और मैं दोनों मनुष्य हैं। क्या अंतर है?' यह कह कर उसने जैसे भगवान पर अपना रोष प्रकट करने के लिए पृथ्वी पर पाँव पटका और सिर हिलाकर निराशापूर्वक अपने दुर्भाग्य पर दुख करने लगा।

इतने में उस विशाल भवन से एक सेवक निकला और उसकी बाँह पकड़कर बोला, 'चल अंदर, हमारे मालिक सिंदबाद ने तुझे बुलाया है।' हिंदबाद यह सुनकर बहुत डरा। उसने सोचा कि मैंने जो कहा वह सिंदबाद ने सुन लिया है और क्रुद्ध होकर मुझे बुला भेजा है ताकि मुझे इस गुस्ताखी के लिए सजा दे। वह घबराकर कहने लगा कि मैं अंदर नहीं जाऊँगा, मेरा बोझा यहाँ पड़ा है, उसे कोई उठा ले जाएगा। किंतु सेवकों ने उसे न छोड़ा। उन्होंने कहा कि तेरे बोझे को हम सुरक्षापूर्वक अंदर रख देंगे और तुझे भी कोई नुकसान नहीं होगा। हिंदबाद ने बहुत देर तक सेवकों से वाद-विवाद किया किंतु उसका कोई फल न निकला और अंततः उसे उनके साथ महल के अंदर जाना ही पड़ा।
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#19
सेवक हिंदबाद को कई आँगनों से होता हुआ एक बड़ी दालान में ले गया जहाँ बहुत- से लोग भोजन करने के लिए बैठे थे। नाना प्रकार के व्यंजन वहाँ रखे थे और इन सब के बीच में एक शानदार अमीर आदमी, जिसकी सफेद दाढ़ी छाती तक लटकी थी, बैठा था। उस के पीछे सेवकों का पूरा समूह हाथ बाँधे खड़ा था। हिंदबाद यह ऐश्वर्य देखकर घबरा गया। उसने झुककर अमीर को सलाम किया। सिंदबाद ने उसके फटे और मैले कपड़ों पर ध्यान न दिया और प्रसन्नतापूर्वक उसके सलाम का जवाब दिया और अपनी दाहिनी ओर बिठाकर उसे सामने अपने हाथ से उठाकर स्वादिष्ट खाद्य और मदिरा पात्र रखा। जब सिंदबाद ने देखा कि सभी उपस्थित जन भोजन कर चुके हैं तो उसने हिंदबाद की ओर फिर ध्यान दिया।


बगदाद में जब किसी का सम्मानपूर्वक उद्बोधन करना होता था तो उसे अरबी कहते थे। सिंदबाद ने हिंदबाद से कहा, 'अरबी, तुम्हारा नाम क्या है। मैं और यहाँ उपस्थित अन्य जन तुम्हारी यहाँ पर उपस्थिति से अति प्रसन्न हैं। अब मैं चाहता हूँ कि तुम्हारे मुँह से फिर वे बातें सुनूँ जो तुमने गली में बैठे हुए कही थीं।' सिंदबाद जहाँ बैठा था वह भाग गली से लगा हुआ था और खुली खिड़की से उसने वह सब कुछ सुन लिया था जो हिंदबाद ने रोष की दशा में कहा था।
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#20
हिंदबाद ने लज्जा से सिर नीचा कर लिया और कहा, 'सरकार, उस समय मैं थकन और गरमी के कारण आपे में नहीं था। मेरे मुँह से ऐसी दशा मे कुछ अनुचित बातें निकल गई थीं। इस सभा में उन्हें दुहराने की गुस्ताखी मैं नहीं करना चाहता। आप कृपया मेरी उस उद्दंडता को क्षमा कर दें।'


सिंदबाद ने कहा, 'भाई, मैं कोई अत्याचारी नहीं हूँ जो किसी की कुछ बातों के कारण ही उस की हानि करूँ। मुझे तुम्हारी बातों पर क्रोध नहीं बल्कि दया ही आई थी और तुम्हारी दशा देखकर और भी दुख हुआ। लेकिन मेरे भाई, तुमने गली में बैठकर जो कहा उस से तुम्हारा अज्ञान ही प्रकट होता है। तुम समझते हो कि यह धन-दौलत और यह ऐश-आराम मुझे बगैर कुछ किए-धरे ही मिल गया है। ऐसी बात नहीं है। मैंने संसार में जितनी विपत्तियाँ पड़ सकती हैं लगभग सभी झेली हैं। इसके बाद ही भगवान ने मुझे आराम की यह सामग्री दी है।'

यह कहकर सिंदबाद ने दूसरे मेहमानों से कहा, 'मुझ पर विगत वर्षों में बड़ी-बड़ी मुसीबतें आईं और बड़े विचित्र अनुभव हुए। मेरी कहानी सुनकर आप लोगों को घोर आश्चर्य होगा। मैंने धन प्राप्त करने के निमित्त सात बार बड़ी-बड़ी यात्राएँ कीं और बड़े दुख और कष्ट उठाए। आप लोग चाहें तो मैं वह सब हाल सुनाऊँ।' मेहमानों ने कहा कि जरूर सुनाइए। सिंदबाद ने अपने सेवकों से कहा कि वह बोझा, जो हिंदबाद बाजार से अपने घर लिए जा रहा था, उसके घर पहुँचा दें। उन्होंने ऐसा ही किया। अब सिंदबाद ने अपनी पहली यात्रा का वृत्तांत कहना आरंभ किया।
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