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प्रकाश जहाँ था, वहीं खड़ा रहा। पल-भर के लिए उसकी आँख बीना से मिलीं। उसे लगा कि बीना का चेहरा पहले से कुछ साँवला हो गया है और उसकी आँखों के नीचे स्याह दायरे उभर आये हैं। वह पहले से काफ़ी दुबली भी लग रही थी। कुछ पल रुके रहने के बाद प्रकाश आगे बढ़ गया और चेरीवाला लिफ़ाफ़ा बीना की तरफ़ बढ़ाकर ख़ुश्क गले से बोला, “यह मैं बच्चे के लिए लाया था।”
बीना ने लिफ़ाफ़ा ले लिया, मगर लेते हुए उसकी आँखें दूसरी तरफ़ मुड़ गयीं। “पलाश!” उसने कुछ अस्थिर आवाज़ में बच्चे को पुकारा, “यह ले, पापा तेरे लिए चेरी लाए हैं।”
“मैं नहीं लेता,” बच्चे ने गैलरी से कहा और भागकर और भी दूर चला गया।
बीना ने एक असहाय नज़र बच्चे पर डाली और प्रकाश की तरफ़ देखकर बोली, “कहता है, मैं पापा से नहीं बोलूँगा। वे सुबह रुके क्यों नहीं, चले क्यों गए?”
प्रकाश बीना को उत्तर न देकर गैलरी में चला गया और कुछ दूर बच्चे का पीछा करके उसने उसे बाँहों में उठा लिया। “मैं तुमसे नहीं बोलूँगा, कभी नहीं बोलूँगा,” बच्चा अपने को छुड़ाने की चेष्टा करता कहता रहा।
“ऐसी क्या बात है?” प्रकाश उसे पुचकारने की चेष्टा करने लगा, “पापा से इस तरह नाराज़ होते हैं क्या?”
“तुमने मेरी तस्वीरें क्यों नहीं देखीं?”
“कहाँ थी तेरी तस्वीरें? मुझे तो पता ही नहीं था।”
“पता क्यों नहीं था? तुम दुकान के बाहर से ही क्यों चल गए थे?”
“अच्छा ला, पहले तेरी तस्वीरें देखें, फिर घूमने चलेंगे।”
“यह सुबह आपको दिखाने के लिए ही तस्वीरें लेने गया था।” बीना के साथ खड़ी एक युवा स्त्री ने कहा। प्रकाश ने ध्यान नहीं दिया था कि उसके साथ कोई और भी है।
“तस्वीरें मेरे पास थोड़े ही न हैं? उसी के पास हैं।”
“सुबह फोटोग्राफर ने निगेटिव दिखाए थे, पाज़िटिव वह अब इस वक़्त देगा,” उसी स्त्री ने फिर कहा।
“तो चल, पहले दुकान पर चलकर तेरी तस्वीरें ले लें। देखें तो सही कैसी तस्वीरें हैं!”
“मैं ममी को साथ लेकर जाऊँगा,” बच्चे ने उसकी बाँहों में मचलते हुए कहा।
“हाँ, हाँ, तेरी ममी भी साथ आ रही है,” कहते हुए प्रकाश ने एक बार बीना की तरफ़ देख लिया। बीना होंठ दाँतों में दबाए आँखें झपक रही थी। वह चुपचाप उसके साथ चल दी।
फोटोग्राफर की दुकान में दाख़िल होते ही बच्चा प्रकाश की बाँहों से उतर गया और फोटोग्राफर से बोला, “मेरे पापा को मेरी तस्वीरें दिखाओ।” फोटोग्राफर ने तस्वीरें निकालकर मेज़ पर फैला दीं, तो बच्चा एक-एक तस्वीर उठाकर प्रकाश को दिखाने लगा, “देखो पापा, यह वहीं की तस्वीर है न जहाँ से तुमने कहा था, सारा काश्मीर नज़र आता है? और यह तस्वीर भी देखो जो तुमने मेरी घोड़े पर बैठे हुए उतारी थी...।”
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“दो दिन से बिलकुल साफ़ बोल रहा है,” बीना के साथ की युवा स्त्री ने कहा, “कहता है पापा ने कहा है तू बड़ा हो गया है, इसलिए अब तुतलाकर मत बोला कर।”
प्रकाश कुछ न कहकर तस्वीरें देखता रहा। फिर दस का एक नोट निकालकर फोटोग्राफर को देते हुए कहा, “इसमें से आप अपने पैसे काट लीजिए!”
फोटोग्राफर पल-भर असमंजस में उसे देखता रहा। फिर बोला, “पैसे तो अभी आप ही के मेरी तरफ़ निकलते हैं। मेम साहब ने जो बीस रुपये दिये थे, उनमें से दो-एक रुपये अभी बचते होंगे। कहें तो अभी हिसाब कर दूँ।”
“नहीं, रहने दीजिए हिसाब बाद में हो जाएगा,” कहकर प्रकाश ने नोट वापस जेब में रख लिया और बच्चे की उँगली पकड़े दुकान से बाहर निकल आया। कुछ क़दम चलने पर पीछे से बीना का स्वर सुनाई दिया, “यह आपके साथ घूमने जा रहा है?”
“हाँ!” प्रकाश ने थोड़ा चौंककर पीछे देख लिया, “मैं अभी थोड़ी देर में इसे वापस छोड़ जाऊँगा।”
“देखिए, आपसे एक बात कहनी थी...।”
“कहिए...।”
बीना पल-भर कुछ सोचती हुई चुप रही। फिर बोली, “इसे ऐसी कोई बात मत बताइएगा जिससे यह...।”
प्रकाश को लगा जैसे कोई ठंडी चीज़ उसके स्नायुओं से छूट गयी हो। उसकी आँखें झुक गयीं और उसने धीरे-से कहा, “नहीं, मैं ऐसी कोई बात इससे नहीं कहूँगा।” उसे खेद हुआ कि एक दिन पहले जब बच्चा हठ करके कह रहा था कि ‘पापा’ और ‘पिताजी’ एक ही व्यक्ति को नहीं कहते—‘पापा’ को पापा कहते हैं और ‘पिताजी’ ममी के पापा को—तो वह क्यों उसकी ग़लतफ़हमी दूर करने की कोशिश करता रहा था।
वह अकेला बच्चों के साथ क्लब की सडक़ पर चलने लगा, तो कुछ दूर जाकर बच्चा सहसा रुक गया। “हम कहाँ जा रहे हैं, पापा?” उसने पूछा।
“पहले क्लब चल रहे हैं,” उसने कहा, “वहाँ से घोड़ा लेकर आगे घूमने जाएँगे।”
“नहीं, मैं वहाँ उस आदमी के पास नहीं जाऊँगा,” कहकर बच्चा सहसा पीछे की तरफ़ चल दिया।
“किस आदमी के पास?”
“वह जो वहाँ क्लब में था। मैं उसके हाथ से पानी भी नहीं पिऊँगा।”
“क्यों?”
“मुझे वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”
प्रकाश पल-भर बच्चे को देखता रहा, फिर उसकी तरफ़ मुड़ आया। “हाँ, हम उस आदमी के पास नहीं चलेंगे,” उसने कहा, “मुझे भी वह आदमी अच्छा नहीं लगता।”
बहुत दिनों के बाद उस रात प्रकाश को गहरी नींद आयी। ऐसी नींद, जिसमें सपने दिखाई न दें, उसके लिए लगभग भूली हुई चीज़ हो चुकी थी। फिर भी जागने पर उसे अपने में ताज़गी का अनुभव नहीं हुआ, अनुभव हुआ एक खालीपन का। जैसे कोई चीज़ उसके अन्दर उफनती रही हो, जो गहरी नींद सो लेने से चुक गयी हो। रोज़ की तरह उठकर वह बालकनी पर गया। देखा आकाश साफ़ है। रात को सोया था, तो बारिश हो रही थी। मगर उस धुले-निखरे आकाश को देखकर आभास तक नहीं होता था कि कभी वहाँ बादल भी घिरे रहते थे। सामने की पहाडिय़ाँ सुबह की धूप में धुलकर उजली हो उठी थीं।
प्रकाश काफ़ी देर वहाँ खड़ा रहा—अपनी ताज़गी में एक जड़ता का अनुभव करता हुआ। फिर दूर उठते बादल की तरह कोई चीज़ उसे अपने में उमड़ती महसूस होने लगी और उसका मन एक दबी-सी आशंका से सिहर गया। कहीं ऐसा तो नहीं कि...?
वह बालकनी से हट आया। पिछली शाम बच्चे ने उसे बताया था। उसकी ममी कह रही थी कि दिन साफ़ हुआ, तो वे लोग सुबह वहाँ से चले जाएँगे। रात को जैसी बारिश हो रही थी, उससे सुबह तक आसमान खुलने की कोई सम्भावना नहीं लगती थी। इसलिए सोते वक़्त वह इस तरफ़ से लगभग निश्चिन्त था। मगर रात-रात में आसमान का रूप बिलकुल बदल गया था। तो क्या सचमुच आज वे लोग वहाँ से चले जाएँगे?
उसने कमरे में बिखरे सामान को देखा—कुछ इनी-गिनी चीज़ें थीं। चाहा कि उन्हें सहेज दे, मगर किसी भी चीज़ को रखने-उठाने को मन नहीं हुआ। बिस्तर को देखा। उसमें रोज़ से बहुत कम सलवटें थीं। लगा जैसे रात की गहरी नींद के लिए वह बिस्तर ही दोषी हो, और गहरी नींद बरसते आकाश के साफ़ हो जाने के लिए!
धीरे-धीरे दोपहर की तरफ़ बढऩे लगी। इससे उसके मन को कुछ सहारा मिला। वह चाह रहा था कि इसी तरह शाम हो जाए और फिर रात—और बच्चा उससे विदा लेने न आए। मगर जब दोपहर भी ढलने लगी और बच्चा नहीं आया, तो उसके मन में एक और आशंका सिर उठाने लगी। कहीं ऐसा तो नहीं कि उसकी ममी सुबह-सुबह ही उसे लेकर वहाँ से चली गयी हो?
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वह बार-बार बालकनी पर जाता—एक धडक़ती आशा लिये। बार-बार टूरिस्ट होटल की सडक़ पर नज़र दौड़ाता और पहले से अधिक अस्थिर होकर कमरे में लौट आता। उसकी धमनियों में लहू की हर बूँद उत्कंठित और व्याकुल थी। उसने सुबह से कुछ खाया नहीं था, इसलिए भूख भी उसे परेशान कर रही थी। कुछ देर बाद कमरा बन्द करके वह खाना खाने चला गया। बड़े-बड़े कौर निगलकर किसी तरह दो रोटियाँ गले से उतारीं और जल्दी से वापस चला आया। मगर उतनी देर भी कमरे से बाहर रहना उसे एक अपराध-सा लग रहा था। लौटते हुए उसने सोचा कि उसे खुद जाकर टूरिस्ट होटल से पता कर लेना चाहिए। मगर सडक़ की चढ़ाई चढ़ते हुए उसने दूर से देखा—बीना बच्चे के साथ उसकी बलकनी के नीचे सडक़ पर खड़ी थी।
वह तेज़-तेज़ चलकर उनके पास पहुँच गया। मगर बच्चे ने उसकी तरफ़ नहीं देखा। वह अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ किसी चीज़ के लिए हठ कर रहा था। प्रकाश ने उसकी बाँह हाथ में ली, तो वह बाँह छुड़ाने के लिए ज़मीन पर लोटने लगा। “मैं तुम्हारे घर नहीं जाऊँगा,” उसने लगभग चीखकर कहा। प्रकाश अचकचा गया और उसकी बाँह छोडक़र जड़-सा खड़ा रहा।
“मुझसे नाराज़ है क्या?” उसने बिना दोनों में से किसी की तरफ़ देखे पूछ लिया।
“ममी, मेरे साथ ऊपर क्यों नहीं चलती?” बच्चा उसी तरह चिल्लाया।
प्रकाश और बीना की आँखें मिलने को हुईं, मगर पूरी तरह नहीं मिल पायीं। प्रकाश ने बच्चे की बाँह फिर हाथ में ले ली और तटस्थ स्वर में बीना से कहा, “आप भी आ जाइए न!”
“इसे आज जाने क्या हुआ!” बीना कुछ झुँझलाहट के साथ बोली, “सुबह से बात-बात पर तंग कर रहा है!”
“इस वक़्त यह अकेला मेरे साथ ऊपर नहीं जाएगा,” प्रकाश ने स्वर की तटस्थता अब भी बनाए रखी।
“चल, मैं तुझे ज़ीने तक पहुँचा देती हूँ,” बीना उसे उत्तर न देकर बच्चे से बोली, “ऊपर से जल्दी लौट आना। घोड़े वाले उधर तैयार खड़े हैं।”
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प्रकाश को मन में एक नश्तर-सा चुभता महसूस हुआ। मगर जल्दी ही उसने अपने को सँभाल लिया। “आप लोग आज ही जा रहे हैं?” उसने चेष्टा की कि शब्दों से उसके मन का भाव प्रकट न हो।
“जी हाँ,” बीना दूसरी तरफ़ देखती रही, “जाना तो सुबह ही था, मगर इसके हठ की वजह से इतनी देर हो गयी। अब भी यह...।” और बात बीच में ही छोडक़र उसने बच्चे से फिर कहा, “चल, तुझे ज़ीने तक पहुँचा दूँ।”
बच्चा प्रकाश के हाथ से बाँह छुड़ाकर कुछ दूर भाग गया। “मैं नहीं जाऊँगा,” उसने कहा।
“अच्छा आ,” बीना बोली, “मैं तुझे ऊपर पहुँचा देती हूँ—उस दिन की तरह।”
“मैं नहीं जाऊँगा,” और बच्चा कुछ क़दम और दूर चला गया।
“आप आप क्यों नहीं जातीं? यह इस तरह अपना हठ नहीं छोड़ेगा,” प्रकाश ने होंठ काटते हुए कहा। बीना ने आँख झपकने तक उसकी तरफ़ देख लिया। उस दृष्टि में एक तीखा चुभता-सा भाव था। मगर आँख झपकने के साथ ही वह भाव धुल गया और उसने अपने को सहेज लिया। उसके चेहरे पर एक दृढ़ता आ गयी और उसने बच्चे को बाँहों में उठा लिया। “चल, मैं तेरे साथ चलती हूँ,” उसने कहा।
बच्चे का रुआँसा भाव हँसी में बदल गया और उसने माँ के गले में बाँहें डाल दीं। प्रकाश उनसे आगे-आगे ज़ीना चढऩे लगा।
ऊपर पहुँचकर बीना ने बच्चे को बाँहों से उतार दिया और कहा, “ले अब मैं जा रही हूँ।”
“नहीं,” बच्चे ने उसका हाथ पकड़ लिया, “तुम यहीं रहो।”
“बैठ जाइए न,” प्रकाश ने कुर्सी पर पड़ी दो-एक चीज़ें जल्दी से हटा दीं और कुर्सी बीना की तरफ़ बढ़ा दी। बीना कुर्सी पर न बैठकर चारपाई के कोने पर बैठ गयी। तभी बच्चे का ध्यान न जाने किस चीज़ ने खींच लिया। वह उन दोनों को छोडक़र बालकनी में चला गया और वहाँ से उचककर सडक़ की तरफ़ देखने लगा।
प्रकाश कुर्सी की पीठ पर हाथ रखे जैसे खड़ा था, वैसे ही खड़ा रहा। बीना चारपाई के कोने में और भी सिमटकर दीवार की तरफ़ देखने लगी। असावधानी के एक क्षण में उनकी आँखें मिल गयीं, तो बीना ने अपनी पूरी शक्ति संचित करके पूछ लिया, “कल इसकी जेब में कुछ रुपये मिले थे। वे आपने रखे थे?”
“हाँ,” प्रकाश ने अटकते स्वर से कहा, “सोचा था, उनसे यह...कोई चीज़ बनवा लेगा।”
बीना पल-भर चुप रही। फिर बोली, “क्या चीज़ बनवानी होगी?”
“कोई भी चीज़। कोई अच्छा-सा ओवरकोट या...।”
कुछ देर फिर चुप्पी रही। फिर बीना ने पूछ लिया, “कैसा कोट बनवाना होगा?”
“कैसा भी। जैसा इसे अच्छा लगे, या...या जैसा आप ठीक समझें।”
“कोई खास तरह का कपड़ा लेना हो, तो बता दीजिए।”
“खास कपड़ा कोई नहीं...कैसा भी हो।”
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“कोई खास रंग...?”
“नहीं...हाँ...नीले रंग का हो, तो ज़्यादा अच्छा है।” कहकर प्रकाश को थोड़ा अफ़सोस हुआ। उसे पता था बीना को नीले रंग पसन्द नहीं हैं।
बच्चा उछलता हुआ बालकनी से लौट आया और बीना का हाथ पकडक़र बोला, “अब चलो।”
“पापा से प्यार तो किया नहीं और आते ही चल भी दिया?” प्रकाश ने उसे बाँहों में ले लिया। बच्चे ने उसके होंठों से होंठ मिलाकर एक बार अच्छी तरह उसे चूम लिया और फिर झट से उसकी बाँहों से निकलकर माँ से बोला, “अब चलो।”
बीना चारपाई से उठ खड़ी हुई। बच्चा उसका हाथ पकडक़र उसे बाहर की तरफ़ खींचने लगा। “तलो न ममी देल हो लही है,” वह फिर तुतलाने लगा और बीना को साथ खींचता हुआ दहलीज़ पार कर गया।
“तू जाकर पापा को चिट्ठी लिखेगा न?” प्रकाश ने पीछे से आवाज़ दी।
“लिथूंदा।” मगर उसने पीछे मुडक़र नहीं देखा। पीछे मुडक़र देखा एक बार बीना ने, और जल्दी से आँखें हटा लीं। आँखों की कोरों में अटके आँसू उसने बहने नहीं दिए। “तूने पापा को टा-टा नहीं किया,” उसने बच्चे के कन्धे पर हाथ रखे हुए कहा।
“टा-टा पापा!” बच्चे ने बिना पीछे की तरफ़ देखे हाथ हिलाया और ज़ीने से बीना उतरने लगी। आधे ज़ीने से फिर उसकी आवाज़ सुनाई दी, “पापा का धल अच्छा है ममी, हमाला धल अच्छा है। पापा ते धल में तो कुछ छामान ही नहीं है...!”
“तू अब चुप करेगा कि नहीं!” बीना ने उसे झिडक़ दिया, “जो मुँह में आता है बोलता जाता है।”
“नहीं तुप तलूँदा, नहीं तलूँदा तुप...,” बच्चे का स्वर फिर रुआँसा हो गया और वह तेज़-तेज़ नीचे उतरने लगा। “पापा का धल दन्दा! पापा का धल थू...!”
रात होते-होते आकाश फिर घिर गया। प्रकाश क्लब के बाथरूम में बैठा एक के बाद एक बियर की बोतलें खाली करता रहा। बारमैन अब्दुल्ला लोगों के लिए रम और ह्विïस्की के पेग ढालता हुआ बार-बार कनखियों से उसकी तरफ़ देख लेता। इतने दिनों में पहली बार वह प्रकाश को इस तरह पीते देख रहा था। “लगता है आज साहब ने कहीं से बड़ा माल मारा है,” उसने एकाध बार शेर मोहम्मद से कहा, “आगे कभी एक बोतल से ज़्यादा नहीं पीता था, और आज चार-चार बोलतें पीकर भी बस करने का नाम नहीं ले रहा।”
शेर मोहम्मद ने सिर्फ़ मुँह बिचका दिया और अपने काम में लगा रहा।
प्रकाश की आँखें अब्दुल्ला से मिलीं, तो अब्दुल्ला मुस्करा दिया। प्रकाश कुछ क्षण इस तरह उसे देखता रहा जैसे वह आदमी न होकर एक धुँधला-सा साया हो, और सामने का गिलास परे सरकाकर उठ खड़ा हुआ। काउंटर के पास जाकर उसने दस-दस के दो नोट अब्दुल्ला के सामने रख दिए। अब्दुल्ला बाकी पैसे गिनता हुआ खुशामदी स्वर में बोला, “आज साहब बहुत खुश नज़र आता है।”
“हाँ।” प्रकाश इस तरह उसे देखता रहा जैसे उसके सामने से वह साया धुँधला होकर बादलों में गुम हुआ जा रहा हो। वह चलने को हुआ, तो अब्दुल्ला ने पहले सलाम किया, फिर आहिस्ता से पूछ लिया, “क्यों साहब, वह कौन बच्चा था उस दिन आपके साथ? किसका लडक़ा है वह?”
प्रकाश को लगा जैसे साया अब बिलकुल गुम हो गया हो और सामने सिर्फ़ बादल ही बादल घिरा रह गया हो। उसने जैसे बादल को चीरकर देखने की चेष्टा करते हुए कहा, “कौन लडक़ा?”
“अब्दुल्ला पल-भर भौचक्का-सा हो रहा। फिर खिलखिलाकर हँस पड़ा। “तब तो मैंने शेर मोहम्मद से ठीक ही कहा था...” वह बोला।
“क्या?”
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“कि साहब तबीअत का बादशाह है। जब चाहे किसी के लडक़े को अपना लडक़ा बना ले, और जब चाहे...यहाँ गुलमर्ग में यह सब चलता है। आप जैसा हमारा एक और साहब है...।”
प्रकाश को लगा कि बादल बीच से फट गया है और चीलों की कई पंक्तियाँ उस दर्रे में से होकर दूर उड़ी जा रही हैं—वह चाह रहा है कि दर्रा किसी तरह भर जाए जिससे वे पंक्तियाँ आँखों से ओझल हो जाएँ; मगर दर्रे का मुहाना धीरे-धीरे और बड़ा होता जा रहा है। उसके गले से एक अस्पष्ट-सी आवाज़ निकली और वह अब्दुल्ला की तरफ़ से आँखें हटाकर वहाँ से चल दिया।
“बस एक बाज़ी और...!” अपनी आवाज़ की गूँज प्रकाश को स्वयं अस्वाभाविक-सी लगी। उसके साथियों ने हल्का-सा विरोध किया, मगर पत्ते एक बार फिर बँटने लगे।
कार्ड-रूम तब तक लगभग खाली हो चुका था। कुछ देर पहले तक वहाँ काफ़ी चहल-पहल थी—कई-कई नाज़ुक हाथों से पत्तों की नाज़ुक चालें चली जा रही थीं और तिपाइयों पर शीशे के नाज़ुक गिलास रखे उठाए जा रहे थे। मगर अब आस-पास चार-चार खाली कुर्सियों से घिरी चौकोर मेज़ें ही रह गयी थीं जो बहुत अकेली और उदास लग रही थीं। पॉलिश की चमक के बावजूद उनमें एक वीरानगी उभर आयी थी। दीवार में बुखारी की आग कब की ठंडी पड़ चुकी थी। जाली के उस तरफ कुछ बुझे-अधबुझे अंगारे रह गये थे—सर्दी से ठिठुरकर स्याह पड़ते और राख में गुम होते हुए।
उसने पत्ते उठा लिये। हर बार की तरह इस बार भी सब बेमेल पत्ते थे—ऐसी बाज़ी कि आदमी चुपचाप फेंककर अलग हो जाए। मगर उसी के ज़ोर देने से पत्ते बँटे थे, इसलिए वह उन्हें फेंक नहीं सकता था। उसने नीचे से पत्ता उठाया, तो वह और भी बेमेल था। हाथ से कोई भी पत्ता चलकर वह उन पत्तों का मेल बिठाने की कोशिश करने लगा।
बाहर मूसलाधार बारिश हो रही थी—पिछली रात की बारिश से भी तेज़। खिड़की के शीशों से टकराती बूँदें एक चुनौती लिये आतीं मगर बेबस होकर नीचे ढुलक जातीं। उन्हें देखकर लगता जैसे कई चेहरे खिड़की के साथ सटकर लगातार आँसू बहा रहे हों। किसी क्षण हवा से किवाड़ हिल जाते, तो वे चेहरे जैसे हिचकियाँ लेने लगते। हिचकियाँ बन्द होने पर गुस्से से घूरने लगते। उन चेहरों के पीछे घना अँधेरा था जहाँ लगता था, कोई चीज़ छटपटाती हुई दम तोड़ रही है।
“डिक्लेयर!” प्रकाश चौंक गया। उसके हाथ के पत्तों में अब भी कोई मेल नहीं था—इस बार भी उसे फुल हैंड देना था। पत्ते फेंककर उसने पीछे टेक लगा ली और फिर खिड़की से सटे चेहरों को देखने लगा।
“तुम बहुत ख़ुशक़िस्मत आदमी हो प्रकाश, हममें सबसे ख़ुशक़िस्मत तुम्हीं हो...!” प्रकाश की आँखें खिड़की से हट आयीं। पत्ते उठाकर रख दिए गए थे और मेज़ पर हार-जीत का हिसाब किया जा रहा था। हिसाब करने वाला आदमी ही उससे कह रहा था, “कहते हैं न, जो पत्तों में बदकिस्मत हो, वह ज़िन्दगी में ख़ुशक़िस्मत होता है! अब देख लो सबसे ज़्यादा तुम्हीं हारे हो, इसलिए मानना पड़ेगा कि सबसे ख़ुशक़िस्मत आदमी तुम्हीं हो।”
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प्रकाश ने अपने नाम के आगे लिखे जोड़ को देखा। पल-भर के लिए उसकी धडक़न बढ़ गयी कि जेब में उतने पैसे हैं भी या नहीं। उसने पूरी जेब खाली कर ली। लगभग हारी हुई रक़म के बराबर ही पैसे थे। रक़म अदा कर देने के बाद दो-एक छोटे सिक्के ही उसके पास बच रहे—और उनके साथ वह अन्तर्देशीय पत्र जो शाम की डाक से आया था और जिसे जेब में रखकर वह क्लब चला आया था। पत्र निर्मला का था जो उसने अब तक खोलकर पढ़ा नहीं था। जेब में पड़े-पड़े वह काफ़ी मुचड़ गया था। निर्मला के अक्षरों पर नज़र पड़ते ही उसके कई-कई चेहरे उसके सामने उभरने लगे—उसके हाथ का एक-एक अक्षर जैसे एक-एक चेहरा हो! घर से चलने के दिन भी वह उसके कितने-कितने चेहरे देखकर आया था! एक चेहरा हँस रहा था, एक रो रहा था; एक बाल खोले ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था और धमकियाँ दे रहा था और एक...एक भूखी आँखों से उसके शरीर को निगलना चाह रहा था! उसने अपनी ज़रूरत का कुछ सामान साथ लाना चाहा था, तो एक चेहरा उसके साथ कुश्ती करने पर उतारू हो गया था।
“निर्मला!” उसने हताश होकर कहा था, “तुम्हें इस तरह गुत्थमगुत्था होते शरम नहीं आती?”
“क्यों?” निर्मला हँस दी थी, “मरद और औरत रात-दिन गुत्थमगुत्था नहीं होते क्या?”
वह बिना एक कमीज़ तक साथ लिये घर से निकल आया था। बनियानें, तौलिये, कमीज़ें सब कुछ उसने आते हुए रास्ते में ख़रीदा था। यह सोचने के लिए वह नहीं रुका था कि उसके पास जो चार-पाँच सौ रुपये हैं, वे इस तरह कितने दिन चलेंगे! बिछाने-ओढऩे का सारा सामान भी उसने वहीं से किराये पर लिया था...!
और वहाँ आने के चौथे-पाँचवें दिन से ही निर्मला के पत्र आने शुरू हो गए थे—वह उसके किसी मित्र के यहाँ जाकर उसका पता ले आयी थी। उन पत्रों में भी निर्मला के सब चेहरे झलक जाते थे...वह सख़्त बीमार है और अस्पताल जा रही है...उसके भाई सिक्युरिटी में ख़बर करने जा रहे हैं कि उनका बहनोई लापता हो गया है...वह रात-दिन बेचैन रहती है और दीवारों से पूछती रहती है कि उसका पति कहाँ है...वह जोगन का वेश धारण करके जंगलेां में जा रही है...दो दिन के अन्दर-अन्दर पत्र का उत्तर न आया, तो उसके भाई उसे हवाई जहाज़ में वहाँ भेज देंगे...उसके छोटे भाई ने उसे बहुत पीटा है कि वह अपने ‘ख़सम’ के पास क्यों नहीं जाती...!
अन्तर्देशीय पत्र प्रकाश की उँगलियों में मसल गया था। उसे फिर से जेब में रखकर वह उठ खड़ा हुआ। बाहर ड्योढ़ी में कुछ लोग खड़े थे—इस इन्तज़ार में कि बारिश रुके, तो वहाँ से चलें। उनके बीच से होकर वह बाहर निकल आया।
“आप इस बारिश में जा रहे हैं?” किसी ने पूछ लिया। उसने उत्तर नहीं दिया और चुपचाप कच्चे रास्ते पर चलने लगा। सामने नीडोज़ होटल की बत्तियाँ जगमगा रही थीं—बाकी सब तरफ़, दायें-बायें और ऊपर-नीचे अँधेरा ही अँधेरा था। क्लब के अहाते से निकलकर वह सडक़ पर पहुँचा, तो पानी और तेज़ हो गया।
उसका सिर पूरा भीग गया था और पानी की धारें गरदन से होकर कमीज़ के अन्दर जा रही थीं। हाथ-पैर सुन्न हो रहे थे, फिर भी आँखों में एक जलन-सी महसूस हो रही थी। कीचड़ से लथपथ जूता चलने में आवाज़ करता, तो शरीर में कोई चीज़ झनझना जाती। तभी एक नई सिहरन उसके शरीर में दौड़ गयी। उसे लगा कि वह सडक़ पर अकेला नहीं है—कोई और भी अपने नन्हे-नन्हे पाँव पटकता उसके साथ चल रहा है। रास्ते की नाली पर बना लकड़ी का पुल पार करते हुए उसने घूमकर पीछे देख लिया। उसके साथ-साथ चल रहा था एक भीगा कुत्ता—कान झटकता हुआ, ख़ामोश और अन्तर्मुख!
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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(29-04-2019, 09:17 PM)neerathemall Wrote: मोहन राकेश
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