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Non-erotic कहानी में, जो लड़की होती है
#1
कहानी में, जो लड़की होती है






Heart Heart Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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#2
घर से सिर्फ एक हजार स्र्पये मिलते थे। बहन एम स़ी ए़ कर रही थी, वह बी ई़ । कॉलेज की वार्षिक फीस घर देता था, इसलिए मासिक खर्च के लिए एक हजार से जियाद: की न औकात थी, न गुंजाइश। पिता बिल्कुल नहीं चाहते थे। किटकिट करते थे। इतने पैसों में दोनों बहनों के हाथ पीले कर सकते थे। छोटी आय। कस्बे का माहौल। हर कोई चोंच चलाता, अरे! शहर में अकेली रह कर पढ़ रही हैं। पढ़ाई के नाम पर आजकल लोग धंधा करवाते हैं! गैंग के गैंग पक़डे जाते हैं शहरों में कॉलगर्लों के। कॉलेज-यूनिवर्सिटी की लड़कियाँ और अच्छी-अच्छी मॉडल और हीरोइनें तक धंधा अपनाए हुए हैं। थोड़ी सी फिगर ठीक हो- आगे-पीछे के पहाड़, अच्छी हाइट, फेयर कलर, अठारह से बाईस की एज और अधकचरी हिंदी-अंग्रेजी।।। फिर देखो कैसा नामा चीरती हैं आजकल लड़कियाँ शहरों में!
माँ दोनों ओर के क्लेश उठाती। पर बेटियों की आँखों में संघर्ष की चमक देख उसका आत्म विश्वास पुख्ता हो जाता हर बार। वह किसी बात पर कान न देती। पति से जिद करती, पढ़ने दो। हाथ तो पीले हो ही जायेंगे एक दिन। लड़की किसी की कुँआरी रही है? करने दो अपने मन की।।।। अपने भले के लिए कर रही हैं। अड़ंंगा नहीं डालो। तुम पे जितना बने दो, बाद बाकी का टयूशन-ब्यूसन करके खुद कर लेंेगी।।।।
और बाद बाकी का खुद कर रही थीं वे। नमिता मैथ पढ़ाती थी एक कोचिंग इंस्टीटयूट में, नीति इंग्लिश। नीति एम।सी।ए। कर रही थी। एक पुराना कम्प्यूटर सिस्टम अरेंज कर लिया था।
कमरे में ही खाना बनाती थीं। एक पलंग, एक टेबिल-कुर्सी और गैस सिलेण्डर-स्टोव्ह के अलावा किताबें, जूते-चप्पल तमाम अटरम-शटरम भी वहीं मौजूद रहता। लेट-बॉथ कॉमन। नीचे का रहना। आजू-बाजू और सामने पढ़ने-पढ़ाने वाले लड़के रहते। सब उन्हीं की तरह संघर्षरत्। कोई पी।ई।टी।, पी।एम।ई। की तैयारी करते टयूशन पढ़ाते। कोई बी।ई। के बाद प्राइवेट इंजीनियरिंग कॉलेज में प्राध्यापकी करते गैट वगैरह की तैयारी करते।।।। सभी अपने लक्ष्य के लिए समर्पित। औसत वक़्त किताबों में मशगूल। अपने सपनों में विचरते। ।।।कस्बे के लोग आकर देखते तो बहुत से भ्रम मिट जाते जो सिनेमा, टीवी फैलाते हैं।।।।
नीति का एम।सी।ए। हो गया। उसे लौटना पड़ा। उसी साल हाथ पीले हुए। नमिता की बीई का आखिरी साल था। नीति के बॉयफ्रेंड की एमसीए रह गई। बीच में घर से फीस नहीं मिली। अब वह नमिता का बॉयफ्रेंड था। हैल्प बतौर वह कभी सब्जी दे देती। कभी साथ खिला लेती सुबह या शाम। कभी वह उसे पढ़ने देता और खुद बना देता। ज़िंदगी लगभग सांझे चूल्हे में ढल गई थी।

उसके दोस्त बहुत थे। बरसों सेे रह रहा था-न! एक था श्रीकांत। वह तो नीति-नमिता का भी फेमिली फ्रेंड था। अब सहारा सिटी होम्स भीलवाड़ा में मुलाज़िम है। उसने आश्वासन दे रखा है कि जगह होते ही बुला लेगा सोमेश को भी। तब तक डिग्री कम्पलीट करले। ।।।और एक था सोनू, जो बी।एम।ई। कर चुका था। कभी-कभार अपनी गर्लफ्रेंड को लेकर उसके रूम पर आ जाता। तब वह नमिता के कमरे में जाकर पढ़ने लगता। वह कॉलेज गई होती। नहीं गई होती तब भी कोई एतराज नहीं जताती। लेकिन मक़ान मालकिन जो कि ऊपर रहती थी, उसने हर बार डांटा सोमेश को। वह बहुत पैनी नज़र रखती थी। वह बाक़ायदा गिना देती कि कब-कब लड़की, कितने-कितने घंटे के लिए लेकर आया उसका दोस्त! और कब-कब बदल कर लाया!
वह जानता था। लेकिन यह मानने को तैयार न था कि वे उसके बिस्तर पर हम-बिस्तर होते हैं। जैसा सोनू ने उसे समझाया कि पिछली लड़की दगा दे गई। वह कितना रोया, उदास रहा! पता है सोमेश को- दोस्ती और लव का मानी ़़फकत बॉडी रिलेसनशिप नहीं होता। मगर ज्यादातर लोगों कोे दोस्ती और लव में सेक्स के सिवा कुछ दिखता नहीं। नई लड़की उसके घाव भर रही थी कि तभी पुरानी फिर आ गई।।।। सोनू के लिए वह बेवफ़ा होकर भी बहुत अहम थी। सोमेश नहीं समझता कि इतनी उलझनों के बीच प्रेमालाप और सेक्स कूद पड़ेगा।।।। उसे मकान मालकिन अव्वल दर्जे की मूर्ख नज़र आती थी।
मगर एक रोज़ पापा का फोन आया तो उसने सोमेश को बुलाने से पहले कह दिया, उसका रूम तोे अव बन गया है। रोज़ बदल-बदल कर लड़कियाँ आ रही हैं! हम तो इसे निकाल रहे हैं।।।।
उस दिन से पापा ने उससे बात करना बंद कर दी। हालांकि उसने मक़ान मालकिन को समझा लिया। पर क्या फायदा, मासिक खर्च मिलना बंद हो गया। अब वह बैंक वगैरह में इंट्रीज करके खर्च निकाल रहा है। शेेष बचे सेमिस्टर हेतु फीस का अकाल दिख रहा है। एमसीए होता दिखता नहीं। तमाम समय तो जॉब में सिर मारते निकल जाता है। पढ़ाई हो कैसे?
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
उन्हीं दिनों वह नमिता को शायद, प्रेम भी करने लगा- जो उसने अपने कम्प्यूटर पर यह कविता। लिखी: और बाद में डिलीट कर दी कि कहीं पढ़ न ले!
खामोश रातों में
क्या देखती हो तुम
आइने के सामने ख़डे होकर?
आँखोें में उतर आई चमक को
या
स्याह जुल्फों को
जो ढलक आई हैं शानों पर!
नहीं।।।
शायद, पढ़ती हो
चेहरे पर तहरीरें मोहब्बत की
लिखावट उन उंगलियों की।।।

वह कह नहीं सकता था। चुपके-चुपके देखता जरूर था। चौबीसौ घंटे साथ रहने की कोशिश करता। कोई अंग छू जाता तो अजीब-सी अनुभूति से भर उठता। कह नहीं पाता, पर शो जरूर करता कि वह उसकी गर्लफ्रेंड है। जाहिर है, थी भी। उसने श्रीकांत, सोनू और कई मित्रों को कान्टेक्ट नम्बर उसी के मोबाइल फोन का दे रखा था। ज्यादातर करीब होता। सुबह ६ से ९ बजे तक और शाम ५ से रात १०-११ बजे तक। घंटी बजते ही नमिता बटन दबाकर हलो कहती। वह मुँह फाड़ हाथ बढ़ाने को होता। फोन उसे पक़डा देती।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#4
़़जिंदगी इसी तरह गुज़र जाय। वह इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहता। बी।ई। के बाद नमिता गैट की तैयारी करेगी। एम।टेक। करेगी वह। गैट क्वालीफाय करना जरूरी है। फ्री सीट पर एडमीशन मिल जायेगा। और स्कॉलरशिप मिलेगी सो अलग। तभी तो कर पाएगी एम।टेक।।
उसने ठान लिया है। वह हर तरह की मदद करता रहेगा। किचेन से लेकर पढ़ाई तक। मगर घर वाले पीछे पड़े हैं कि बी।ई। के बाद ही नमिता के हाथ पीले कर दें! यही संकट है। वह रोज़ भरता है कि शादी को अभी ४-६ साल और टालो तुम। ।।।अड़ जाओ- मुझे एमटेक करना है। जॉब ढूंढ़ना है। फिर देखूँगी।।।।

नमिता कश्मकश में है। विवशता आँखोें में झलकती है। सब कुछ जाति-बिरादरी में ही होगा। होगा कैसे नहीं! उसकी क्या बिसात?
और देखो- मोहब्बत की सौ अलामतें! उस दिन `नाच' देख रहा था अभिषेक के साथ। इंटरवल तक थियेटर चौथाई रह गया। उसने मोबाइल माँगा। नमिता को लगाया, बस आ रहा हूँ। तुम पढ़ना। मैं आकर बना लूँगा।
-लड़की का सेलफोन है! अभिषेक ने कहा।
-तूने कैसे जाना? उसके चेहरे पर सलज्ज मुस्कान थी।
-जान लिया, लड़की का नम्बर है।।। उसने मोबाइल चमकाते हुए कहा।
-ए, कॉल नहीं करना, वो ऐसी लड़की नहीं है।
-सारी लड़कियाँ एक जैसी होती हैं।
-नहीं होतीं।
-पटा के दिखाऊँ?
वह डर गया।
-नहीं, नहीं! तू फोन नहीं करना।।।। वह स्र्आँसा हो आया।
-नहींं करूँगा, मर मत।।।।

मगर भयभीत था वह। नम्बर आ चुका था अभिषेक के मोबाइल में। दो दिन उसने फोन नहीं किया। उसे राहत मिली। तीसरे दिन रात में लगा दिया-
हलो! एक खनकदार आवाज कान के परदे पर चस्पां हो गई।
-हलो- नीरो है?
-कौन नीरो, सॉरी- नीरो नहीं है!
-नहीं, काटना नहीं, आपकी आवाज बहुत मीठी है।।।
नमिता चुप।
-क्या करती हैं? -मेरे पापा कहते हैं, फोन का पूरा इस्तेमाल करना चाहिए!
सिऱ्फ- जी! शेष- नमिता चुप।
-बताया नहीं अपने बारे में।।।
-बी।ई।।
-अरे! कौन से कॉलेज से?
-एम।पी।सी।टी।ई।।
-ब्राँच?
-मैकेनिकल।
-सुनो- फोन रखना नहीं।।। मैं भी हूँ मैकेनिकल में। एम।आई।टी।एस। से।
-अच्छा! आपके कॉलेज की रेपुटेशन तो अच्छी है। वह दब गई।
-अरे- कुच्छ नहीं, अब तो सब दूर कचड़ा है। रीसेम। फी भी और पढ़ाई भी। और डिग्री का वज़न भी! कंपनी वाले घर बैठे बुलाने से रहे।।।। फायनल है। अब तो दूध का दूध, पानी का पानी नज़र आने लगा।।।।
-मेरा भी है।।।
कहने के बाद उसने स्विच ऑफ कर दिया। बाद में कहा- होगे, क्या करना। ।।।सुबह सोमेश से कहा- तुमने परसों टॉकीज से जिस नम्बर से फोन किया, रात में उसी ने इंटरव्यू ले लिया।।।।
वह भयभीत-सा अपराधबोध से भर गया, देखना- बता नहीं पाया, वो मेरा फ्रेंड अभिषेक।।। वो भी बीई।।।
-पता चल गया।।। नमिता हँसी, चिपकू है।।।।
उसे तसल्ली हुई।
उसे खेद था कि यह उसने क्या किया। उसे डर लगा कि अब वह रोज़-बरोज़ रिंग मारेेगा! लेकिन फिर ढांढ़स बंधा मन को, नमिता रिस्पॉन्स नहीं देगी।
दिन गुजरते रहे। सर्दियाँ थीं। मौका श्रीकांत की मैरिज रिसेप्शन का। वे लोग टैम्पो से जरा जल्दी पहुँच गए। कस्बे से जुड़े थे इसलिए। पांडाल सजा हुआ मगर खाली था उस वक़्त। सोमेश ने पॉलीमिन की रेड टीशर्ट, जीन्स की ब्लू पैंट पहन रखी थी। मरकरी लाइट्स में अलहदा चमकता हुआ।।।। मन प्रफुल्लता से हुमकता हुआ। लोग जहाँ कोट, जैकेट, स्वेटर और कोई-कोई स्कार्फ, कनटोपे पहने- उनके बीच वह कितना स्मार्ट नज़र आ रहा था! जरा भी सिकुड़ नहीं रहा। सीना फुलाए इधर से उधर। सर्र-सर्र। ठंड जैसे छू भी नहीं रही।।।। नमिता का साथ- कंधे से कंधा और और क़दम से क़दम मिला हुआ! जाने क्या सोच कर उसने भी आज पुलोवर, कार्डीगन या कोट नहीं पहना। पिंक कलर के सलवार सूट से मैच करता शॉल कंधे पर टुपट्टे की तरह सजा लिया था ़़फकत। ।।।श्रीकांत और तमाम दोस्तों से हाथ मिला सोमेश का, नमिता की नमस्ते। जोड़े पर नज़रें टिकी रह जातीं।
श्रीकांत सूट में नहीं था अभी। इंतजाम देख रहा था। नमिता को होटल में भिजवा दिया उसने, जहाँ वधु की सजावट चल रही थी। सोमेश वुफे व्यवस्था चैक करने लगा। गार्डन में सब ठीक था। श्रीकांत विचलित। स्वजन आये नहीं थे अब तक। परिवार बड़ा था। माँ तो साथ थी, पर पापा, दादा, ताऊ, ताई, भाई, भाभी तक नहीं आए! श्रीकांत ने भीलवाड़ा में रहते हुए कोर्टमैरिज कर ली थी। अब रिसेप्शन देकर सामाजिक स्वीकृति ली जा रही थी, अपने देश में! कस्बे से लोग आ नहीं रहे थे। उसके तनाव का कारण यही था। बार-बार मोबाइल लगा रहा था। पता चल रहा था- वहाँ से निकल चुके हैं। रास्ते में हैं- कहाँ? पता नहीं! शायद, मुरैना। शायद, मुरैना और ग्वालियर के बीच।।। क्या पता अम्भा और मुरैना के बीच लटके हों। किसी पर मोबाइल नहीं। कोई सम्पर्क भी नहीं कर रहा उससे कि घबराये नहीं, देरी का कारण अमुक-अमुक है। १० बज गए। ९ से ११ का टाइम था। पांडाल में २-२, ५-५ मिनट कुर्सी गर्माकर लोग गार्डन में खाने पर टूट रहे थे। और मंच सूना था।।।। सोमेश उकसा रहा था- तू तैयार होकर आ! जा- बैठ मंच पर! रस्म होने दे।।।। पहली कतार में वधु पक्ष के मेहमान बैठे हुए। श्रीकांत रिक्त स्थान की पूर्ति-सा दोस्तों और अपने गुस्र्जनों से उनका परिचय करा रहा था।।।।
सोमेश ने उसका हैंडसैट लेकर नमिता को मैसेज दे दिया कि भाभी को ले आओ।।।। वह तो इसी प्रतीक्षा में थी! दस मिनट के अंतराल में वीडियो कैमरे की तेज़ चकाचौंध के बीच नमिता और श्रीकांत की मम्मी के मध्य वह भारी परिधान और गहनों से झुकी, श्रीकांत की वधु खुशबू, डग-डग भरती चली आ रही थी। ।।।तब उसने जोर देकर जैसे आखिरी बार कहा श्रीकांत से, अब तू भी झट से तैयार हो आ और जाकर बैठ जा मंच पर।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#5
-उसके साथ तो अब जिंदगी भर बैठना ही है! वह झुंझलाया। गेट की ओर मुँह फाड़ता बेमन चल दिया तैयार होने। ।।।मिक्स सोंग काटने को दौड़ रहे थे। तभीे एक धूलधूसरित गाड़ी आकर स्र्की, जिसमें से श्रीकांत के परिवारजन निकल पड़े। वह सबके चरणों में झुक कर बेहाल होने लगा। कंठ स्र्ंध गया खुशी से। दादा के गले लग कर बोला, कितनी देर लगादी।
ताऊ ने उलाहना दिया, तूने लव और मैरिज की हवा भी लगने दी?।।।
वह शरमा गया, सॉरी-सॉरी! आई थिंक, बाइ द वे, अदर कास्ट में जाता तो क्या होता!
-जाता तो जाता ही! उस वक़्त होश था तुझे? भाभी ने और शर्मसार कर दिया।
मिलेजुले गुस्सा और प्यार के साथ वे लोग अग्रपंक्ति में आकर बैठ गए। श्रीकांत के तइंर् जीवन का अनमोल क्षण था वह। वह झटपट सूट पहन कर आ गया। वीडियो कैमरे की तेज़ लाइट में चेहरे फिल्मी सैट से दमकते हुए। नमिता खुशबू की तरफ, वह श्रीकांत की तरफ ख़डा मूर्तिवत्! गिफ्ट देने वालों का ताँता लगा हुआ। सब को खाने की पड़ी थी। जो खा चुके थे, उन्हें जाने की। नमिता उधर, वह इधर गिफ्ट पैकेट संभालते हुए। कैमरों के फ्लैश बार-बार चेहरों को चमकाते, आँखों को चौंधियाते हुए। वह भी कुछ अनोखा महसूस कर रहा था। जैसे, श्रीकांत की जगह खुद बैठा है! और खुशबू वाली चेयर पर नमिता! मन में गुदगुदी-सी उठ रही थी। इसी बीच अभिषेक ने आकर हाथ मिलाया। ख्वाब में थोड़ा व्यवधान पड़ा। पर वह गले से लिपट गया। खुशी छलकी पड़ रही थी। जैसे, उसी की मैरिज सेरेमनी हो!
कहा अभिषेक ने, चल भूख लग रही है, श्रीकांत को बैठने दे!
-खैर। मैं तो बाद में लूँगा, चल तुझे पहुँचा दूँ।।। उसने नमिता को भी देखा- तुम भी ले-लो! जैसे, आँखों से बोला।
वह साथ हो ली।
अभिषेक पीछे पलट कर बोला- हाय!
-हाय! वह चौंक गई।
-आप लोग परिचित हैं, अच्छा रहा मैंने पहल नहीं की!
-तेरी गर्लफ्रेंड है, ना- नमिता! उसने कानाफूसी की।
-हाँ! पर तूने कैसे जाना? तेरे हैंडसैट पर चेहरा आ जाता है-क्या!
-नहीं-यार! ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।।।। अभिषेक हँसा।
नमिता बेवजह लजा गई।
-मैं बताने वाला था, वह घबराया-सा बोला, देखना- मिस नमिता एमपीटीसीई से मैकेनिकल ब्राँच में।।।
-फाइनल में है-ना! अपन भी तो।।। तूने अब तक बताया नहीं? हैल्प मिल जाती हम लोगों को।
उसने जैसे डिप्रैश किया।।।।
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#6
मेजों पर लोग टूट रहे थे, प्लेटें नदारद।
भीड़ बहुत थी। खाना कम। प्लेट एक भी नहीं।।।।
-श्रीकांत का फ्रेंड सर्कल बड़ा है, वह हँसा।
-सभी कार्डों पर विद फेमिली लिखा गया था, नमिता ने जुगलबंदी की।
-और एक-एक कार्ड पर १००-१०० दोस्तों के नाम।।। अभिषेक ने कहकहा लगाया।
सोमेश प्लेटों के लिए मारा-मारा फिरा। यहाँ-वहाँ, कहीं मिली नहीं।।।।
-चलो, जब तक चाट खाई जाय।।। अभिषेक ने कहा।

स्टॉल पर जमकर भीड़ थी। वह चीला के लिए बार-बार हाथ बढ़ाता, बलवान हाथ नीचे झुका देते। तमाम देर बाद एक जैसेतैसे हाथ आया, उसे भी एक दूसरे पंजे ने झपट लिया। एक कौर रह गया मुट्ठी में। उसने पलट कर नमिता की ओर बढ़ाया। वह मुस्करा कर रह गई, लिया नहीं। तब तक अभिषेक दो रसगुल्ले ले आया। नमिता ने एक उठा लिया। हाफ-हाफ दोनों ने। फिर सोमेश गया रसगुल्लों के स्टॉल पर। थाल खाली मिला! जबकि अभिषेक एक चीला ले आया, नमिता ने ना-ना करके खा लिया।।।। ता़़ज्जुब, उसने सोमेश को उकसाया टिक्की के लिए!
जोरदार धक्के पड़ रहे थे चारोंतरफ से। टिक्की सिंक नहीं पाती, बँट जाती। हाथ फैला रह जाता उसका।।।। तभी अभिषेक नमिता को लेकर आगया बगल में। अपने हाथ में लेकर उसका हाथ आगे बढ़ा दिया, लड़कियों को पहले दो, लड़कियों को।।। वकालत करने लगा वह। थोड़ी-सी असफलता जनित खिसियाहट से भरा वह सरकता गया पीछे।
टिक्की वाला यूं भी लड़कियों को ही दौने पक़डा रहा था। पर लड़कियों के हाथ भी दर्जनों थे। चार-छह टिक्कियाँ सिंकतीं और दौने झपट लिए जाते। फिर दसियों मिनट प्रतीक्षा। मन ही मन एक से हजार-पाँचसो तक की गिनतियाँ। ।।।आखिर तमाम मश़़क्कत के बाद दो दौने झपट लिए उन्होंने।
स्टॉल से हट कर दूब पर ख़डे सोमेश के पास आ गए, जो अब ठिठुरन महसूस कर रहा था। एक आलू टिक्की नमिता के पेट में और हाफ-हाफ उन दोनों के। भूख और तेज़ हो गई।।।। लेकिन तब तक प्लेटें आ गइंर्। जर्द पड़ गए चेहरे चमकने लगे। टेबिलों पर लगे थालों की कतारों की ओर बढ़ गए फोरन। नीचे फ्लेम चमक रही थी, ऊपर पुलाव नदारद। मटर पनीर, रोटी, पूरी भी नहीं। दाल, मिक्सवेज, सलाद और रायता बचा था- बस! खालो, पीलो मौज उड़ालो।।। हँसी से पेट में बल पड़ने लगे। वे बचीखुची चीजें प्लेटों में भरकर गार्डन के बीचोंबीच बैंच पर आ बैठे। अभिषेक टेंट के पीछे तंदूर के पास जा घुसा। सोमेश ने नमिता से कहा, पहले कितने थाल भरे थे- पालकपूरी, छौले, तंदूरी, बेड़मी।।। क्या नहीं था!
-इससे तो अच्छी गाँव की पंगत होती है। नमिता ने कहा।
-हाँ! सबको भरपेट मिल जाता है।।। टाटपट्टी पर न सही, स्टेण्डर मुताबिक कुर्सी-टेबिल पर कर दो।।।।
-वो बेहतर।।। उसमें सम्मान है- खिलाने, पूछने वाले तो हैं! इज्जत है, मेहमान की।।।।

अभिषेक लौट आया, बहारो फूल बरसाओ, एक तंदूरी मिली! उसने रोटी उठा कर हिलायी। सोमेश और नमिता के गालों में मुस्कान के गड्ढे बने।
-सैक़डों लोग ख़डे हैं-सैक़डों।।। भैया कसम! वह हँसी से दोहरा हो रहा था, तंदूर बुझ चुका-था।।। फिर से गर्म हो र-हा है।।। किसी ने आटे पर मटर की थैली गिरा दी। गजब की मारामारी मची है। भूखे-बेहाल डॉक्टर-इंजीनियर।।। बंदरों-सी खोंखों मचाए हैं।।। खाकर ही जायेंगे। घरों में कौन रसोई रचेगा अब।
-तू हँस, हँसता रह! मुस्कराते हुए सोमेश ने रोटी उठा ली। आधी नमिता को पक़डा दी।
उसे लग रहा था, अभिषेक नहीं मिलता तो सचमुच भूखी लौट जाती।।।। सोमेश के बस की नहीं थी मारा-मारी! अब कौन आटा माड़ता! दुपहर की सूखी खिचड़ी दो-दो कौर गटक कर आँखें मूंद लेते। बाद में श्रीकांत को दावत का मज़ा चखाते।
और थोड़ी देर में अभिषेक नान से भरी प्लेट लिए चला आ रहा था।
-अबे! सर्ब करने वाले लड़के से छीन लाया-क्या? सोमेश चपल था। नमिता की आँखें धन्यवाद उगल रही थीं। दो-दो, तीन-तीन अपनीअपनी प्लेटों में लपक लीं उन्होंने! आसपास के लोग भी अभिषेक पर झपटने लगे।।।।
-भैया कसम, हलवाई रो रहा है! अभिषेक ने एक और फुवारा छोड़ा, श्रीकांत ने ढाईसौ का आर्डर देकर हजार लोग ख़डे कर दिए।। जै हो! जल्वे हैं श्रीकांत तेरे।।।
फिर वह उड़ा और तीन-चार दौने गाजर का हलुवा झपट लाया! गर्मागर्म! नमिता और सोमेश की अंतड़ियाँ तृप्त हो उठीं। स्वादिष्ट डकारें आने लगीं। घंटे भर पहले की सारी कोफ्त मिट गई। अभिषेक मज़ेदार लग उठा सोमेश को भी। यारों का यार! नमिता ने सोचा। ।।।उस पर बाइक थी। गुड नाइट बोल कर चला गया। वापसी में टैम्पो नहीं मिला। सोमेश ने तोलमोल कर एक ऑटो पटाया। फिर भी चालीस देने पड़े! लेकिन नमिता के बगल में बैठा तो लगा कि खुशबू को विदा करा कर ले जा रहा है! अनुभूति से रोमरोम खिल गया। हृदय अजीब से स्पंदनों से भर उठा।
रास्ते में वह बोली, कैसा बासी-बासी सा लग रहा था।।।।
-हाँ!
-रिसेप्शन तो शादी के दूसरे-तीसरे दिन ही अच्छा लगता है, ना!
-हाँ, देखना- ताज़गी तो नहीं थी।।। उसने संभल-संभल कर कहा, एक-दो महीने हो गए-ना मैरिज को।।।। घर वाले कुढ़े हुए थे,
-वही तो! नमिता बोली, शादी की उमंग-उत्साह ही दूसरा होता है। वो मज़ा नहीं था। श्रीकांत भैया के चेहरे पर भी चमक नहीं रही। ।।।भाभी भी बुझी-बुझी सी थी।
-हाँ, ये तो है! उसने ताईद की, अरेंज मैरिज-सा माहौल, वो मज़ा तो नहीं था।।।।
फिर थोड़ी देर बाद नमिता ने कहा-
`लेकिन ये हो जाता है आजकल,' ऑटो भाग रहा था।
`पहले बाहर नहीं निकलते थे। मिलना-जुलना नहीं होता था आपस में। तब अरेंज मैरिज ही एक मात्र विकल्प थी। लेकिन अब तो साथ रहते, काम करते, मिलते-जुलते और फिर उम्र का भी तक़ाजा।।।
वह मुँह ताक रहा था नमिता का!
उसे ताज्जुब था- बड़े गहरे अनुभव से बोल रही है। यानी मानसिक रूप से तैयार है! अगर परिस्थिति बनी तो लोहा ले सकेगी।।।। उसे अच्छा लगा। दिली खुशी हुई। संभावना कि उसके लिए जगह बन रही है!
फाटक अंदर से बंद था। ताला अंदर से पड़ता था। चाबी फाटक के पार बॉटनी वाले सर के कमरे की ख़िडकी पर टंगी रहती। रात के डेढ़-दो बज रहे थे। सर्दियों की रातें। चिल्लाने पर भी नींद नहीं खुलती। खुल भी जाये तो रजाई के भीतर दुबके लड़के ठण्ड में बाहर नहीं निकलते। ऊपर मकान मालकिन सुन भी लेगी तो उतरेगी नहीं। बच्चों को भेजने का तो सवाल ही नहीं। दीवान जी होते तो जरूर फाटक खोलने आ जाते! डिस्टरबेन्स से बचने के लिए ही तो मकान मालकिन ने डोरबैल हटवा दी है!
-चीखो! नमिता ने कहा, सामने वाले पीएससी-पीएमटी वाले सुन लेंगे! ।।।नहीं तो एनआईटीएम वाले सर निकल आएंगे।।।।
फाटक सिर से कोई ज्यादा ऊँचा नहीं! मगर ऊपर नुकीले सरिये हैं। सोमेश ने कहा, चढ़ कर उतर जाऊँ?
-उलझ गए तो।।। वह डरी।
-फिर!
-चीखो-खटकाओ।।।
-खोलना % ।।।देखना- स%र! खोलना। अमित % खोलना! विवेक % सुनना-जरा!
उसे हँसी आ रही थी। आज के समूचे प्रकरण पर। क्या बिगनिंग, क्या एण्ड!
-देखना % खोलना-सर % ।।।सोमेश चीख रहा है। वह बजा रही है फाटक- खटखटखट।।।।
-कहाँ गए थे तुम लोग।।। बापरे! मकान मालकिन उतर रही है! जीने पर स्वर से भी पहले उसके पैर, घड़ फिर गर्दन नज़र आती है! आँखें मींजती हुई। अलसाया मगर चिड़चिड़ाया स्वर, रात मैं भी चैन नहीं। फिल्मों से पेट नहीं भरता, मौजमस्ती से %
धत्तोरे की! सब कूड़ा! सारा मज़ा किरकिरा हो गया।।।
-देखना।।। वह मिमियाया, दीदी।।। वो श्रीकांत है-ना, उसी का मैरिज रिसेप्शन था। हजीरे से यहाँ तक पहले तो कोई साधन नहीं मिला, फिर ऑटो लिया। तो भी देर हो गई।
-देर हो गई।।। उसने मुँह बिचकाया, आने दो तुम्हारे पापा को- कहूँगी, बड़ा पढ़ता है।।। रात-रात भर आवारा हुआ घूमता-फिरता है।।।।। बड़बड़-बड़ और ख़डख़ड करके ताला खोल कर चली गई।
फाटक खुल गया, छुट्टी हुई। वे बहस करते तो और फँसते! सीधे अपने कमरों पर आ लगे। मगर नमिता पर्स टटोलते ही घबरा गई! गिफ्ट निकालते कहीं चाबी सरक गई उसकी! सोमेश टॉयलेट से लौटा तो वह कमरे में बैठी मिली। ।।।वह भी विचलित हो गया थोड़ी देर के लिए, अरे! कहाँ-कैसे? फिर सोचसमझ कर बोला, दो-तीन घंटे बचे हैं।।। देखना- एक एक करवट यहीं सो लेते हैं! अभी तोड़ेंगे तो सब इकट्ठे हो जाएंगे, तमाशा होगा।।।
बात सच थी। ।।।वह भी टॉयलेट से लौट कर फर्श पर बिछे इकलौते बिस्तर पर अपनी करवट लेट गई। ।।।फिर पता नहीं चला कब झपक गई।
मगर उसे नींद नहीं आ रही थी। सोती हुई नमिता उसे फरिश्ते-सी पवित्र और फूल-सी निष्कलुष लग रही थी।।।। वह कम्प्यूटर खोल कर `जोगर्स पार्क' देखने लगा। ।।।एक जज खिलाफ था प्रेम के, दुनिया भर के प्रेमियों के, प्रेम विवाहों के।।।। आफ्टर रिटायरमेंट मार्निंगवॉक के लिए जाते जोगर्स पार्क में मिली युवती के साथ योगा करते, प्रेम संबंधों पर बतियाते-बतियाते जीवन भर की धारणा बदल गई। वह खुद प्रेम करने लगा उस युवती से।।।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#7
सोमेश की आँखों में नींद नहीं। अब कोई शुरूवात है! अब पूरी संभावना है! दिल धड़क रहा था। हालांकि वह प्रेम करने नहीं पढ़ाई करने आया था। अगर प्रेम करता तो नमिता की बहन नीति से ही कर लेता। नीति में ज्यादा संभावना थी। उसका तो कोई खास लक्ष्य भी नहीं था। मगर नमिता की नज़र तो चिड़िया की आँख पर है। कितना संघर्ष कर रही है। रूखा-सूखा खा-लेना। दो-चार घंटे सो लेना। फिर पढ़ाई, कॉलेज, कोचिंग। ।।।एडमीशन की फीस जुटा रही है धीरे-धीरे। फाइनल के बाद कोचिंग देना छोड़ देगी। गैट के लिए खुद कोचिंग लेगी। तब एक-एक पैसा काम आयेगा।

हफ्ते भर बाद अभिषेक का मैसेज आया, नमिता के मोबाइल पर- कहाँ रहती हो?
उसने बटन दबाये, सी-५२, पी।एन।टी। कॉलोनी।
तुरंत बाद फोन कॉल- पीएनटी में कहाँ?
-पानी की टंकी के पास, सिक्युरिटी में एक दीवान जी हैं, उन्हीं के मक़ान में।
-वहीं-कहीं सोमेश भी तो है।।।
-उसी के सामने वाले रूम में हूँ!
-ओ % बताया नहीं उसने कभी!
-क्या पता।।। उसने कंधे उचकाये।
मौज में ऐसा करती है कभी-कभी। मस्ती में होती है तब अक्सर गुनगुनाने लगती है। लेकिन सोमेश को बताना भूल गई यह वाक्या! रात जब सारे कामों से निबट कर बारह-साड़े बाहर के लगभग मेडीटेशन पर बैठी- वही निरर्थक शब्द, पों।।। पों।।। पों।।। जो मंत्र कह कर दिया गया था, दोहराते ध्यान केन्द्रित हुआ, अचानक याद आया! वह दौड़ी। ।।।सोमेश सोतेे समय तक गेट सिऱ्फ भेड़ कर रखता है! क्योंकि उसे हरदम इंतजार रहता है और वह अक्सर आती भी रहती है! कमरे में झांक कर बोली, बताया सब कुछ- उसका मैसेज, फोन कॉल! वह कम्प्यूटर पर बैठा था, बुझ गया। सेंध लगा रहा है अभिषेक धीरे-धीरे! उसे एक नया सदमा घेरने लगा। नींद उड़ने लगी।
अगले दिन वह कॉलेज नहीं गया, न बाजार। सारा दिन बेकार गुज़ार दिया। अभिषेक आया नहीं। और जब उम्मीद नहीं बची। उसकी जान में जान आने लगी तो रात में यमदूत की तरह दस-साड़े दस बजे अक्समात् प्रकट हो गया। सीधे नमिता के कमरे पर ही दस्तक दी। जैसे, इधर आता तो वह ले नहीं जाता। यहीं बुला लेता नमिता को और यहीं से चलता करता उसे!

यक-बयक अपनी गरीबी पर शरमा गई वह। कहाँ बिठाये। एक पलंग, एक कुरसी। पलंग पर थाली रखे खाना खा रही थी पढ़ती हुई। ।।।अभिषेक चेयर पर बैठ गया। नमिता ने हड़बड़ी में थाली उठा कर गैस के पास रख दी। अभिषेक ने कहा, खा-लो इत्मीनान से, मैं खाकर आया हूँ, बाई गॉड!
-अच्छा, चाय लोगे!
-हाँ, चल जायेगी।।।।
वह उठ कर सोमेश की किचेन में गई। दूध उठा कर उसके कमरे में झांकी, अभिषेक आया है! चाय बनाती हूँ।।। तुम भी पियोगे?
-हाँ, नहीं।।। वह हड़बड़ा गया, देखना- अभी कॉफी बनायी थी। तुम लेती नहीं, इसलिए पूछा नहीं, कब आया?
सोमेश ख़डा हो गया। लेटा था जमीन पर बिस्तर में। उसका रूम तो नमिता से भी छोटा है। मगर उन्हीं पैसों में किचेन जुड़ी हुई है।
-अभीअभी! आओ, तुम भी।।। नमिता लौट गई।
वह लुंजपुंज हाथपांव से पीछे-पीछे चला आया। अभिषेक ने बड़ी गर्मजोशी से स्वागत किया। जैसे, मेजबान हो! बड़ी अजीब बात थी। सोमेश हतप्रभ रह गया।
वे दोनों चहक रहे थे-
जनवरी में बैच भेल जा रहा है।
हमारा भिलाई।
अच्छा!
हाँ!
प्रोजेक्ट ढंग का बन जाय तो कोई राह बने।।।
और-क्या!

उम्मीद झिलमिला रही थी। ।।।कप थमा दिये नमिता ने। सोमेश बोला, देखना- अभी कॉफी,
-छोड़ो देर हो गई।।। नमिता चहकी, हजम हो चुकी कब की तुम्हारी कॉफी!
बात हँसने की थी। मगर वह हँसा तो लगा, रो रहा है! इमोशनल है, उसने पाया। अभी ऐसा क्या! अभी क्या देख लिया उसने अभिषेक और नमिता के बीच। हाँ- ये तो है कि दोनों एक ही ब्राँच के हैं। कहो, एक ही कम्पनी में लग जायें! कहो, किसी दिन एक ही कॉलेज में पढ़ाने लगें! ।।।वह कहाँ तक पीछा करेगा? कब तक साथ छुड़ायेगा? ।।।उसने निश्वास छोड़ा।
-एक सकलकंदी रखी है, दूँ! नमिता ने अभिषेक से पूछा
-चलेगी, उसने चाय सिप करते हुए कहा- बल्कि दौड़ेगी, मुझे पसंद भी है- भुनी है-ना!
-हाँ, घी लगा कर भूनी।
-क्योंकि उवालने से मिठास निकल जाती है।।।
-और क्या।।।
उसने सकलकंदी छील कर प्लेट में रख दी।
-स्वादिष्ट है, बहुत स्वादिष्ट है! अभिषेक ने खाते-खाते कहा।
सोमेश ने सोचा फ्लर्ट कर रहा है। जब सकलकंदी की इतनी तारीफ, तो फिर खाने की कितनी करेगा! लड़के इसी तरह लिफ्ट लेते हैं! उसने नमिता को देखा उदासी से। ।।।कल आवाज की तारीफ की, परसों कपड़ों की करेगा, नरसों मिस इंडिया बना देगा।।। वह स्र्आँसा हो आया।
रात भीग रही थी। कम्प्यूटर में विजुअल बेसिक में पार्ट्स खुल रहे थे, जुड़ रहे थे। माउस पर मुट्ठी कसे उंगलियाँ नाच रही थीं अभिषेक की की-बोर्ड पर भी। ।।।नमिता का चेहरा स्क्रीन और उसके चेहरे के और पास होता जा रहा था। और जैसे नशे में अभिषेक के चेहरे की दमक बढ़ रही थी, आँखों में चमक।
सोमेश का दिल बैठ रहा था। उसके जाने के बाद वह भी अपने कमरे में आ लेटा। मगर नींद उचट गई थी, रात भर आई नहीं। आशंका जक़ड चुकी थी। बेखुदी में सोते वक़्त भी सिटकनी नहीं लगाई। ब्रह्म मुहूर्त में झपका होगा। नमिता दरवाजा खोल कर झाँकी! उसने उनींदे देखा- चेहरा बल्ब की रोशनी में उगते सूरज-सा दिखा। आँखें मल कर बैठ गया। दिल में फिर नई आशा सजने लगी। तीन-चार दिन में भूल गया वो वाकया भी।।।। नमिता पूर्ववत! किसी भी पल कमरे में आ धमकना। बनी हुई सब्जी दे जाना। कभी देखकर कि उसकी रसोई जगी नहीं, साधिकार बुला लेना। एक थाली में दो कटोरियाँ रख कर साथ खिला लेना। सब्जी आदि के लिये झोला पक़डा देना। दूध आदि के लिए बर्तन।।।। और वह, वह भी बदस्तूर उमंग से लबरेज! कभी उसके कम्प्यूटर पर, कभी अपने पर नईनई चीजें बताता। वक़्त मिलने पर शाम को उसके साथ पार्क तक टहलने निकल जाता। साथ योगा करना, सिखाना सब पूर्ववत् था।
मगर बीच-बीच में फोन आ जाता अभिषेक का।
-क्या कर रही हो?
-चाय पी रही हूँ।
-हमें नहीं पिलाओगी?
-हमने कब मना किया।
-आ जाऊँ!
-आ जाओ।।।
-चलोगी-कहीं?
-नहीं।
-वहाँ मज़ा नहीं आएगा।
-आजायेगा।।।' वह कट कर देती। कभी-कभी जब ज्यादा उतावला हो जाता, स्विच ऑफ कर लेती।

और सोमेश के पास होती या सोमेश उसके पास, तब फोन आ जाता तो वह बात करते-करते उठ जाती। आँगन में गेट तक टहलते हुए धीरे-धीरे बतियाती।
सोमेश का दिल बैठता जाता।
मगर वह रह रह कर मज़बूत कर लेता खुद को। ऐसा हो नहीं सकता। नमिता ऐसी लड़की नहीं। उसे बड़ी श्रद्धा है। वह बहुत इ़़ज्जत करता है। उसे बड़ा यक़ीन है। सो फिसल नहीं सकती।।।। खुली हुई जरूर है। जो लड़की बीई कर रही है। कस्बे की लड़की। शहर में अकेली रह कर बीई कर रही है, उसकी हिम्मत तो देखो! उसका इतना खुला होना अनहोनी नहीं है। बेशक़ वह चरित्रवान और नेकदिल है। इसी शहर में उसने लड़कियाँ देखी हैं- लड़कियाँ! पर्स में कोण्डोम डाले घूमती हैं!

दिन गुजरते गए। भिलाई का टूर भी निबट गया। वह उधर गई वह घर होे आया। शहर उसके बिना जंगल हो जाता है। रूम काटने को दौड़ता है। अगर वह कभी हमेशा के लिए यह शहर छोड़ कर चली गई तो फिर कभी यहाँ आ नहीं सकेगा। इसके जर्रे-जर्रे में दिखेगी वह।।।।
और फिर फाइनल भी निबट गया। ।।।प्रोजेक्ट के लिए अभिषेक भेल गया था। रिजल्ट से पहले ही भोपाल में वीडियोकोन ने उसे अनुबंधित कर लिया। वह इंग्लिश मीडियम से था। गुड रैंक, गवर्नमेंट कॉलेज की छाप। उम्दा साफ्टवेयर।।।। और नमिता प्राइवेट कॉलेज से, हिंदी मीडियम से, पोजीशन भी बनी नहीं, प्रोजेक्ट कचड़ा।।। जैसा सबका था। मगर वह निराश नहीं हुई। उसकी अपने ही कॉलेज में बात हो गई अगले सत्र से पढ़ाने की। गैट की तैयारी पर प्रभाव पड़ेगा जरूर मगर पगार से बहुत कुछ बनेगा। घर पर निर्भरता नहीं रहेगी। अभी शादी टाल सकेगी कुछ वर्ष और।।। खर्च चलेगा। थोड़ा पैसा भी सेव होगा। आड़े वक़्त काम आएगा। मानो गैट नहीं निकाल पाई! तो भी एम।टेक। कर सकेगी।।।। स्कॉलरशिप के अभाव में क्या लक्ष्य छोड़ देगी?।।। दोनों ने मिल के सोचा है।।।। समय संकल्प की पूर्ति में गुज़र रहा है। युद्ध से पहले की तैयारी का समय।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#8
मगर अभिषेक का फोन आने पर एकान्त तलाशने लगती है।।।। जब से वह एक बार होकर गया है, आत्मीयता और गाढ़ी हो गई है। ग्वालियर रहते आता था, तब वह बात नहीं थी। भोपाल शिफ्ट होने के बाद आया और खास कर मिलने आया तो बात कुछ विशेष हो गई। दिन भर एक-दूसरे के सामने से हटे नहीं। रात को सोमेश बिठाने गया और ट्रेन दो घंटे लेट थी तो प्लेटफार्म से एक बार फिर लौट आया! एक-एक पल करीब रह कर जी-मर लेना चाहता था, जैसे! वह वाकया वह भूलती नहीं। सोमेश ने बहुत कहा कि मेरे कमरे में चल कर रेस्ट कर ले। फिर रात भर तो सफर करेगा ही! लेकिन वह नमिता की चेयर पर उन्हीं पाँवों बैठा रहा।।।। और यहीं मोहब्बत की, उसकी गहराई की शिनाख्त होती थी।।।। मगर जो उसे सुखकर है, वही अखरता है, सोमेश को! उस दिन वह बहुत असहज रहा। खास कर प्लेटफार्म से लौटने के बाद के समय में।।। उसने कहा भी नमिता से कि वह बोरियत से बचने, रेस्ट करने नहीं, तुमसे मिलने ही आया था! वह मुस्करा कर रह गई, जैसे जानती थी! तब से अक्सर रीमिक्स देखती है! पढ़ते वक़्त भी सुनती रहती है धीमी आवाज में। पहले यही चीजें काटती थीं!

छुटि्टयाँ अपने-अपने घर काट कर लौट आए हैं दोनों। वह अभी तक कह नहीं पाया है, कहे कैसे? कहे भी तो क्या कि मुझ बेरोजगार के खूंटे से बंध जाओ, नमिता! कहाँ तो वह कैरियर इज फर्स्ट का पाठ पढ़ाता है।।। नहीं, अभी बीच में ऐसा कोई प्रस्ताव नहीं दे सकेगा। खास कर अपने लिए! तिस पर एक नई मुसीबत ये हो गई है कि जो आशा का दीप दिख रहा था, वह जगने से पहले ही बुझ गया है। कॉलेज प्रबंधन समिति ने एक्सपीरियेंस होल्डर्स को ही रखने का डिसीजन लिया है! अब फिर से कोचिंग सेंटर में पढ़ा कर ही खर्च निकालना होगा। ।।।और हिम्मत टूट न जाये, इसलिये उसने कह रखा है कि हम अपना कोचिंग चलाएंगे। सुबह योगा की ट्रेनिंग दिया करेंगे। ठीक रहेगा।।।।
सोचती है- नमिता, ठीक तो रहेगा। पर तैयारी पर असर पड़ेगा। बिजनेस और कम्पटीशन दोनों एक साथ नहीं सधते। एक बंधी नौकरी होती तो माइंड फ्री होता। वर्किंग आवर्स के अलावा सिऱ्फ कम्पटीशन का भूत रहता।।।। लेकिन-लेकिन! वह सोचते-सोचते पजल्ड हो जाती।

नए सत्र के साथ ही कभी गर्मी कभी बारिश का मौसम शुरू हो चुका था। अभिषेक को सब डिटेल मिल रहा था। वह भोपाल के लिए प्रेरित कर रहा था, नमिता को। उसे फुरसत नहीं है। कम्पनी छुट्टी नहीं दे रही, नहीं तो आकर समझाता! मोबाइल रोज़ काँपता है। नम्बर देख कर नमिता उठ जाती है। ।।।वह बुला रहा है ।।।कम्पनी में तुम्हें भी जॉब मिल सकता है। बायोडेटा और प्रोजेक्ट की सीडी लेती आओ।।।। यहाँ तैयारी भी अच्छी हो जायेगी। कोचिंग के लिये कोटा के बाद एम।पी। में भोपाल ही बेस्ट प्लेस है। फिर मैं भी हूँ। कम्पनी सेलरी भी अच्छी देगी। नमिता-नमिता।।।

उसने सोमेश से कहा, बुला रहा है- क्या करूं?
एक-दो रोज़ आहत हुआ वह। फिर ऊपरी मन से बोला, अच्छा चली जाओ, देख आओ- क्या बिगड़ता है?
-तुम नहीं चलोगे?
-मैं क्या करूँगा, घर हो आऊँगा जब तक।।। जाना भी डयू है।
नमिता मान गई। उसने ट्रेन का वापसी रिजर्वेशन टिकट लाकर दे दिया। रात में बिठा देगा, सुबह पहुँचेगी। दिन में कम्पनी हो आयेगी, रात को फिर बैठ कर सुबह अपनी जगह।।।।
और क्या करना! ठीक है। वह भी संतुष्ट थी।
यहाँ सोमेश ने सी-ऑफ किया और ६-७ घंटे के सफर के बाद वहाँ अभिषेक ने पिकअप कर लिया उसे। कोई उलझन नहीं हुई। भाग्य से उसे इतने अच्छे मित्र मिले हैं- दिल भर आता है कई बार।।।। अभिषेक कम्पनी के गेस्ट हाउस मेंे ले आया। ए।सी। रूम। साफ-सुथरे लेट-बाथ। सादा खाना। भरपूर आराम। दिन मस्ती में गुज़रा। वह डयूटी करते लंच ब्रेक में आया, बता गया- बायोडेटा और प्रोजेक्ट पहुंच गया है प्रबंधकों पर। शायद, कल बुला लिया जाय! ।।।वह सोते-जागते सपने बुनते सोचती रही कि जॉब मिल जाय तो सारी अनिश्चितता और मारामारी मिटे। ऊब गई पढ़ाई से। साल-दो-साल के गैप से फिर देखेगी आगे की राह।।।

शाम को अभिषेक उसे बड़े तालाब पर ले आया। सूर्यास्त बहुत सुंदर दिखा। निर्मल जल की शांत लहरों पर दहकते शोले! आग की लम्बी-सी खाई।।।। मन हिलोरें लेने लगा। सारा आगा-पीछा, सारे रंजोगम भूल गई उन अद्भुत क्षणों में।।।। तटके फुटपाथ और पार्क रंग-बिरंगे बच्चोंे और युवा जोड़ों से भरे चिड़ियों से चहचहा रहे थे! सारी वोटें, सारी बैंचें हथिया लीं उन्होंने। फव्वारे मरकरी और नियोन बल्बों की जगमगाहट में तिलस्मी मंजर प्रतीत हो रहे थे।।।। अभिषेक से सटी प्रमुदित-सी वह सारे अजूबे देख रही थी। और उसने भी चलते-चलते हाथ कमर में डाल लिया था! दूरी न के बराबर रह गई। सभी जोड़े तो आपस में गुँथे थे ऐसे ही! कोई एतराज नहीं जताया नमिता ने। बड़ी जगह में आकर गोया दिल भी बड़ा हो गया था। माहौल किस कदर अपने आप में ढाल लेता है मनुष्य को, वह प्रत्यक्ष अनुभव कर रही थी।।।।
पार्क से निकलकर फुटपाथ पर आ गए।
-चाट खाओगी? उसने पूछा।
वह हँसी, जैसे, कोई पुराना अनुभव याद आया, `नहीं।।।'
-आइसक्र्रीम? वह मुस्कराया।
इन्कार नहीं किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#9
आइसक्रीम खाने के बाद बाइक पर।।।। उसने पूछा नहीं- अब कहाँ ले जाओगे? कंधे का सहारा लिये बैठी रही। चिकनी-चौड़ी चमचमाती सड़कों पर बाइक प्लेन की तरह सर्र-सर्र उड़ती रही, घुमावदार मोड़ों पर मोटरवोट-सी लहराती हुई। वह जीवन के सर्वाधिक तीक्ष्ण और मदहोश लम्हों से गुज़र रही थी। मन स्पेस में कुलाँचे भर रहा था। लग रहा था ये सफ़र कभी बीते नहीं।।।। मगर अचानक उसे होश आया, कंधे पर चिबुक धर कर धड़कती-सी बोली, टे्रन नहीं छूट जाय-कहीं!
-ट्रेन! वह चौंक गया सहसा, आज का ही वापसी रिजर्वेशन है?
-हाँ!
-मगर चली गइंर् तो इंटरव्यू टल जायेगा! बाइक धीमी पड़ गई।
-जाना नहीं, टिकट कैन्सल कराना है।।। उसने दबे स्वर में कहा।
अभिषेक ने तुरंत बाइक स्टेशन की ओर मोड़ दी।।।।

वह ऊहापोह में थी- क्या सोचता होगा! कितनी कंजूस है।।। गरीब है बेचारी! पर क्या करे? उसके तइंर् तो एक-एक पाई की अहमियत थी। कितने अभावों में जी रही थी, किससे कहती।।।।
लौट कर बाईपास के एक ढाबे पर गरमागरम लज़ीज़ खाना खिलाते हुए पूछा अभिषेक ने, अब गेस्ट हाउस चलोेेेगी?
-हाँ! और-क्या! उसने निर्विकल्प कहा।
वह असमंजस में पड़ गया। बेसिन से लौट कर हाथ पोंछते हुए बोला, रात इसी में गुज़र जायेगी। नार्थ-साउथ हैं गेस्ट हाउस और पंचवटी।
वह खामोश रह गई। मगर रास्ते में फिर कहा, अच्छा होता मुझे गेस्ट हाउस छोड़ देते, तुम्हें असुविधा होगी।।।।
अभिषेक ने कोई उत्तार नहीं दिया। रात बढ़ रही थी और फर्राटेदार हवा भली लग रही थी अभी। वक़्त पंख लगा कर उड़ रहा था, गोया। फिर जाने कब बाइक एक मुकाम पर आकर ठहर गई। सुबह वाली जगह तो नहीं थी यह।।।।
-किराये का फ्लैट है।।। छोटा-सा! उसने मुस्करा कर स्वागत किया।

मेरे रूम से बड़ा और बेहतर होगा। नमिता ने मन ही मन सोचा। वह छिंदवाड़ा से है। अम्भा के मुकाबले वहाँ फिर भी खुलापन है। उतनी दकियानूसी नहीं। विकास बड़ी तेजी से बदलता है समाज को।।।।
बाइक रखने के बाद वह जीना चढ़ा कर ऊपर ले आया नमिता को। बरामदा, एक रूम और लेट-बॉथ, इतना ही था- बस।
बरामदेे में दो कुर्सियाँ पड़ी थीं एक छोटी-सी मेज। रूम में फर्श पर बिस्तर और उस पर भी पुस्तकों-पत्रिकाआें का हुजूम, गेट के पीछे दीवाल पर कपड़ों की नुमाइश, एक ओर स्टैंड के बीच के खाने में टीवी और टॉप पर गुलदस्तों की तरह खाली कप और गिलास।।।। वह मुस्कराई, अभी कोई अंतर नहीं आया।।।। वह झेंपता-सा बोला, तुम जाकर चेंज-वेंज करलोे, तब तक मैं व्यवस्थित करता हूँ!
बैग तो गेस्ट हाउस में ही छूट गया था, क्या बदलती? निवृत होते ख्याल आया कि अब क्या इंतजाम करेगा वह? बिस्तर तो एक है! लौटी तो उसे सचमुच जहाँ का तहाँ ख़डा पाया।।।। नज़र मिलते ही गोया शर्मिंदगी में हँसता-सा बोला, न्यू पोस्टिंग, न्यू सेटलमेंट।।। मई-जून में आया, तब पता नहीं था कि बारिश पड़ते ही रात भीगने के साथ यहाँ एक मोटी चादर भी लेनी पड़ती है! बैड, कम्प्यूटर तक।।। अभी ग्वालियर में ही पड़ा है-सॉरी!
वह फिर मुस्करायी। गरीबी का एहसास काफी हद तक कम हो गया था।।।।
-तुम सोओ! हठात् वह बरामदे की ओर चल दिया।
-तुम भी सोओ-ना! वह तो पक्की थी। चाबी गुम गई थी तब वह और सोमेश भी तो अपनी-अपनी करवट लेट गए थे!
अभिषेक का दिल धड़कने लगा।
मोब सिरहानेे रखकर निर्विकल्प नमिता अपनी करवट लेट गई। थोड़ी देर में बत्ताी बुझा कर वह भी अपनी करवट लेटा तो बरामदेे की रोशनी आधे कमरे में गिर रही थी। बुझाना मुनासिब नहीं समझा उसने। कुछ देर बातें हुइंर् कैरियर को लेकर। अपने-अपने संघर्ष कहे एक-दूसरे से। फिर जम्हाइयाँ गहरी हो गइंर् और झपक गए बतियाते-बतियाते।

सोमेश ने कहा जरूर था कि जब तक मैं घर हो आऊँगा! मगर गया नहीं, क्योंकि उसे अगले ही दिन तो नमिता को रिसीव करना था! ट्रेन गुज़र गई तो थोड़ी घबराहट के साथ उसने रात सवा तीन बजे प्लेटफार्म के एसटीडी बूथ से नम्बर मिलाया।।।। तब सीपीयू में देर से अटकी जैसे कोई फ्लॉपी खुली, नींद टूट गई नमिता की। टॉप की चेन खुली थी! और अभिषेक का हाथ।।। स्थिति भाँप कर उसे धक्का-सा लगा।
-हलो।।। उसने करवट लेकर काँपते स्वर में कहा।
-कहाँ हो? सोमेश का चिंतित स्वर कान में बजा।
-यहीं! वह शर्म से डूबे स्वर में बोली।
-यहाँ-कहाँ? उसने धड़कते दिल से सूने प्लेटफार्म पर नज़रें दौड़ाइंर्ं।
-यहीं, भोपाल में।।।
-क्यों? आई नहीं।।।।
-कल इंटरव्यू है!
-अच्छा! वह बुझ गया, ठीक है, ओके- विश यू, ऑल द बेस्ट।

अगले दिन कंपनी जाकर पता चला कि अभी कोई नई यूनिट नहीं डाली जा रही, इसलिए- भरती फिलहाल नहीं होेगी!
फिर अभिषेक ने बहुत रोकी मगर वह बिना रिजर्वेशन के ही शाम की गाड़ी से लौट पड़ी। ।।।रात एक-डेढ़ बजे पहुँची घर के फाटक पर। सोमेश उस वक़्त जाग रहा था, मगर उसे पता नहीं चला। पता चलता, जो वह आवाज लगाती, गेट बजाती! वह तो नुकीले सरियों पर चढ़ कर धम्म से कूद पड़ी!
आहट पाकर वह दौड़ा। उसे देख कर दिल धक्धक् कर उठा...
-कमाल है, आवाज भी नहीं दे सकती थीं.... वह आहत स्वर में धीरे-से चीखा।

नमिता का दिल भर आया। वह अपने कमरे में जाकर सिसकने लगी।































(।कविता फिरोज की डायरी से)
ए. असफल
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#10
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#11
कस्तूरी











:s banana :s
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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#12
कस्तूरी
गोरा रंग, भूरी आँखे, गोल चेहरा और तीखे नैन नक्श वाली उस लडक़ी में गजब का आकर्षण था।
एक हाथ में तौलिया और दूसरे हाथ में टूथब्रश व पेस्ट थामे वह लडक़ी रोहित वाली बर्थ के पास से निकल कर बाथरूम की ओर चली गई। खिडक़ियों से आती हवा तरंगों पर उसका आसमानी सलवार सूट और गरदन तक कटे बाल लहराते हुये गुजर गये थे। उस खूबसूरती ने पूरी तरह से रोहित की नींद उडा दी थी।
सामान्यत: वह सुबह आठ बजे से पहले कभी नहीं उठता। ट्रेन के सफर में तो दस ग्यारह भी बज जायें तो क्या फिक्र! इसी कारण अम्बाला से टाटानगर तक के लिये सफर में उसने ऊपर वाली बर्थ का आरक्षण करवाया था ताकि दिन के समय भी बर्थ पर लेटने की सुविधा रहे।डेली पैसेन्जरों के कारण दिन में नीचे वाली बर्थ पर लेटना असंभव है। रेल विभाग ने कहने को 'स्लीपर क्लास बना दिया है मगर डेली पैसेन्जर तो पूर्व की भांति ही चढ ज़ाते हैं। उन्हें बैठने न दो तो झगडा करने पर उतारु हो जाते हैं। मानो रेल उनकी जागीर हो। वैसे लोगों का बिना उचित टिकट के स्लीपर क्लास में सफर और बैठने के लिये मारा मारी करना सीना जोरी नहीं तो और क्या है?
रोहित ने अंगडाई ली और खिडक़ी की ओर झुक कर बाहर देखा। खट खट्खट् खट् ट्रेन पूरी रफ्तार से दौडी ज़ा रही थी। उसने घडी देखी, आठ बज चुके हैं। तब तो दिल्ली पार हो गई। उसने सोचा था,दिल्ली जंक्शन पर उतर कर जरा चहल कदमी करेगा, ठंडा वंडा पियेगा। क्या बात है इस शहर की,पांच साल तक रहने की बातें करने वाला कोई तेरह दिन रहता है कोई दस महीने! मगर जाते वक्त कोई नहीं पूछता कि कब लौटियेगा हुजूर? पुरानी दिल्ली से हट कर लोगों ने नई दिल्ली तो बना ली मगर जिन्दगी का नया ढंग नहीं सीख पाये
दस दिन पहले अम्बाला से मौसी का फोन आने के बाद से ही मां ने जिद पकड ली थी कि ,
'' जाओ मौसी ने बुलाया है।''
मौसी ने कहा था, '' लाडो, रोहित के लिये बडी अच्छी लडक़ी देखी है वे लोग भी बनारस के रहने वाले हैं। यहाँ अपनी बहन के पास आयी है। उसके जीजाजी यहां इनके ही साथ काम करते हैं।''
मां तो जैसे तैयार बैठी थी, '' दीदी, मैं क्या बताऊं। मेरा बस चले तो मैं तुरन्त हाँ कर दूँ। मगर आजकल के लडक़ों को तो तुम जानती ही हो। चार अक्षर क्या पढ लिये हमें ही पढाने लगते हैं। मैं रोहित को भेज देती हूँ। उससे हाँ करवा लो तो हमारी भी हाँ है।''
फिर रोहित मां को न टाल सका। प्रोग्राम बनाते और आरक्षण कराते पाँच दिन और बीत गये। सातवें दिन वह अम्बाला पहुंच गया, मगर सब व्यर्थ गया था। लडक़ी दो दिन पूर्व ही बनारस लौट गयी थी।उसकी मां वहाँ बीमार थी। रोहित भी पुन: आने को कह कर लौट पडा। इस बीच मौसी उस लडक़ी की सुन्दरता का विवरण रोहित के दिमाग में कूट कूट कर भर चुकी थी। कभी वह सोचता, चलो शादी के झंझट से कुछ और दिनों के लिये बच गया। फिर दूसरे ही पल उसके मन में एक सुन्दर पत्नी का खयाल आता। जब विचारों में सुन्दर पत्नी और साधारण मगर गुण वाली पत्नी के बीच विवाद छिडता तो वह दुविधाग्रस्त हो जाता, किसे चुने? बडे बुर्जुगों की माने तो साधारण परन्तु गुण वाली का चुनाव करता। हमउम्र साथियों की सुने तो सुन्दर लडक़ी काखैर इस बार तो बात टल गयी।अगली बार देखा जायेगा।
वह आसमानी सूट, बॉब कट बालों वाली सुन्दर गोरी लौटती नजर आई। अपने हाथ में थमे तौलिये से आहिस्ता आहिस्ता चेहरे को थपथपाते हुये। इस बार उसका चेहरा अच्छी तरह देखने को मिला।रोहित का दिल धक्क से रह गया। जाने क्यों लडक़ी का चेहरा जाना पहचाना लगा। उसने लडक़ी के चेहरे पर नजरें गडा दीं, मानो परिचय वहीं छुपा है। तभी लडक़ी ने अपनी नजरें उठा कर रोहित को देखा। शायद उसे स्वयं को घूरे जाने का अहसास हो गया था। रोहित झेंप गया। लडक़ी क्या सोचेगी कि, वह उसे क्यों घूर रहा है? एक तो लडक़ी उसे भली लगी दूसरे उसका चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। रोहित नहीं चाहता था कि लडक़ी के समक्ष उसका इंप्रेशन खराब हो। रोहित ने अपनी नजरें जल्दी से खिडक़ी के बाहर घुमा लीं। लडक़ी अपनी बर्थ की ओर बढती हुई उसकी नजरों से ओझल हो गयी।
ह्नउसे कहाँ देखा है, रोहित ने दिमाग पर जोर डाला, जवाब नदारद! फिर क्यों उसका चेहरा इतना जाना पहचाना सा लग रहा है। क्या सिर्फ इसलिये कि वह बहुत सुन्दर है( ऐसी हालत में हर सुन्दर लडक़ी जानी पहचानी लगती है)। उसका अंर्तमन इस तर्क को नकारता है। नहीं, लडक़ी का चेहरा निश्चय ही जाना पहचाना सा है। काश! उसकी आवाज सुनने को मिल जाती। वक्त के प्रवाह में भले ही चेहरे बदल जाते हों मगर आवाज नहीं बदलती। ऐसी स्थिति में आवाज तुरन्त ही पहचान करवा देती है।
खैर... छोडो भी, रोहित ने विचारों को झटका। होगी कोई। कई बार ऐसा होता है कि, छोटी सी बात भी याद नहीं आती। जितना प्रयत्न करो, उतनी ही दूर चली जाती है। प्रयत्न करना छोड दें तो, वह बात सहज ही याद आ जाती है। इसी आधार पर रोहित ने प्रयत्न करना छोड दिया। तकिये के नीचे से पत्रिका निकाल कर पृष्ठ पलटने लगा। मगर ध्यान उस लडक़ी में ही अटका रहा। उसने पत्रिका पुन: तकिये के नीचे घुसा दी।
'' चाऽयचाय गरमइलायची वाली चाऽय'' आवाज लगाता पेन्ट्री कार का बेयरा दूसरी तरफ से डब्बे में घुसा। चाय पी जाये। उसने सोचा, वह अपनी बर्थ पर उठ बैठा। कुछ यात्रियों ने बेयरे को चाय के लिये रोक रखा था। बेयरे के यहां आने तक हाथ मुंह धो ले, वह उतर कर बाथरूम की तरफ बढ ग़यामगर वह लडक़ी है बहुत सुन्दर!
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#13
बाथरूम से निकलने तक ट्रेन सीटी बजाती धीमी होने लगी। पेन्ट्री की चाय छोडो अब स्टेशन की चाय पी जाये, उसने सोचा। ट्रेन अलीगढ ज़ंक्शन पर रुक गयी। चाय लेने के बाद वह प्लेटफार्म पर चहल कदमी करता उस डब्बे तक बढ ग़या जिधर वो लडक़ी बैठी थी। कुछ बर्थों के बाद एक खिडक़ी पर वह लडक़ी प्लेटफार्म पर खडे चाय वाले से चाय लेती दिखी। तो उसे भी प्लेटफार्म और पेन्ट्री कार की चाय का फर्क पता है, मुस्कुराता हुआ रोहित थोडा आगे बढ ग़या। फिर खडा होकर चाय की चुस्कियों के साथ तिरछी नजर से उस लडक़ी को देखने लगा, कैसे उस लडक़ी से बात की जाये।शायद बातचीत से ही पता चले कि उसका चेहरा इतना पहचाना सा क्यों लग रहा है? काश वह लडक़ी उसके साथ वाली बर्थ पर होती तो, कितनी आसानी से बातें की जा सकती थीं।
रोहित ने कई बार ट्रेन के सफर किये हैं। ट्रेन के लम्बे सफर में साथ वाली बर्थ पर सुन्दर और अकेली लडक़ी के सहयात्री बनने का उसका ख्वाब कभी भी पूरा नहीं हुआ अब तक। वह लडक़ी भी तो इतनी दूर बैठी है। अब उसकी बर्थ पर जाकर तो बात नहीं की जा सकती ना! अगर उसने जवाब नहीं दिया या फिर जवाब में कोई ऐसी वैसी बात कह दी तो, बेकार ही में अपनी भद पिट जायेगी।नहींउससे बातें करना आसान नहीं। तो फिर कैसे पता चलेगा कि वह इतना परिचित क्यों लग रही है?
प्लेटफार्म के छोर पर सिग्नल हरा हो गया। इंजन की सीटी बजने और ट्रेन के सरकने तक रोहित चाय का खाली कसोरा फेंक कर डब्बे में समा गया।
जितना लडक़ी की तरफ से ध्यान हटाता, वह चेहरा उतना ही आँखों के सामने आ जाता। लडक़ी के परिचित होने का अहसास घन की तरह दिमाग पर प्रहार करने लगतापता तो चलना चाहिये, वह लडक़ी है कौन? थोदी देर बर्थ पर करवटें बदलने के बाद उसकी बेचैनी बेतरह बढ ग़यी। वह, लडक़ी को फिर नजर भर देखना चाहता था। इसके लिये तो लडक़ी की तरफ जाना होगा। रोहित बर्थ से उतरा, पैरों में चप्पलें फंसा कर डब्बे की उस ओर बढने लगा, जिधर लडक़ी थी। डिब्बे में अच्छी खासी भीड थी। कुछ लोग ताश की पत्ते बीच में बिखेरे खेल का आनन्द ले रहे थे। उसे लगा आगे बढना कठिन है, लौटना पडेग़ा। मगर लडक़ी को एक झलक देखने की तीव्र इच्छा ने उसे आगे की ओर ठेला। ताश के खिलाडियों ने उसे घूर कर देखा और बडी अनिच्छा से दांये बांये सरक कर आगे जाने के लिये उस पर अहसान किया। रोहित ने चैन की सांस ली। आगे बढ क़र उसने कनखियों से लडक़ी पर नजर डाली। मगर हाय रे दुर्भाग्य! लडक़ी लेट कर पत्रिका पढ रही थी। पूरा चेहरा पत्रिका की आड में छिपा था। रोहित के लिये वहाँ खडे रहना कठिन था, उसकी देह पर ही वह एक मुलायम सी नजर फेर कर वह आगे बढ ग़या। लडक़ियों को कितना आराम है, दिन में भी नीचे वाली बर्थ पर लेटी हुई है।
थोडी देर यूं ही डब्बे के दूसरे छोर वाले दरवाजे पर खडा रहने के बाद वह वापस लौटा। उसने सोचा,इस बार तो निश्चय ही लडक़ी की एक झलक पा लेगा। परन्तु इस बार लडक़ी बर्थ के नीचे रखी टोकरी पर झुकी हुई थी। गर्दन तक कटे बालों ने उसके चेहरे को चारों तरफ से ढंक रखा था
निराश रोहित अपनी बर्थ की ओर बढ ग़या। ताश के खिलाडी फ़िर से उसके सामने थे। शायद उनकी बाजी किसी दिलचस्प मोड पर थी। तभी तो उसे देख कर इस बार उनके चेहरे पर अप्रिय भाव कुछ ज्यादा ही उभर आये। उनके बीच से रास्ता निकाल कर बढते हुये रोहित ने सुना, किसी ने कटाक्ष किया था।
'' टिकट चेकर का काम कर रहे हैं क्या भाई साब?''
जी में आया कि पलट कर करारा जवाब दे दे। परन्तु बात बढ ज़ाने की आशंका से वह बिना कुछ कहे अपनी बर्थ पर आ गया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#14
कस्तूरी-2





Heart banana Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#15
सारा दोष उस लडक़ी का है। उसकी बर्थ रोहित के पास भी तो हो सकती थी। या फिर अलीगढ ज़ंक्शन पर प्लेटफार्म पर उतर कर चाय भी तो पी सकती थी। यह भी तो अनुमान नहीं लगाया जा सकता कि, वह कहाँ ट्रेन में चढी है, पठानकोट, अमृतसर, व्यास या कहीं और से। अम्बाला से तो नहीं चढी वरना, वहाँ स्टेशन पर ही दिख जाती।
चेहरे से तो पंजाबी लगती है। कभी कभी उसके चेहरे पर बंगाली या मारवाडीपन भी दिखता है सलवार सूट तो ,., पहनावा भी होता है। रोहित निरन्तर लडक़ी के बारे में ही सोचे जा रहा था,कोई बात नहीं, मैं भी पीछा नहीं छोडने वाला। कानपुर जंक्शन पर ट्रेन ज्यादा देर रुकती है, वहीं उसकी आवाज सुनने का प्रयत्न करुंगा।
मैले से कपडे पहने एक छोटा लडक़ा हाथ में थमे सिक्कों को खास अन्दाज में बजाता है। लडक़े के दूसरे हाथ में पत्तों का बना झाडू है। कुछ देर से रोहित उस लडक़े को डब्बे की सफाई करता देख रहा था। उसने एक सिक्का लडक़े को थमा दिया। लडक़े का मेहनत करना उसे अच्छा लगता है, वह भीख तो नहीं मांगता। लडक़ा सिक्कों को उसी अन्दाज में बजाता अन्य यात्रियों की ओर मुड ग़या।
रोहित ने बर्थ पर लेट कर फिर से कहानियों की पत्रिका निकाल ली। परन्तु दो चार पृष्ठ पलट कर फिर से तकिये के नीचे सरका दी। आंखे मूंदते ही वह लडक़ी फिर से उसके दिमाग में उभर आयी।वही गोरा रंग, गोल चेहरा, भूरी आँखे, आकर्षक नैन नक्श , होंठों से झांकती श्वेत मोतियों सी दंत पंक्ति पतली गरदन को तीन तरफ से घेरे भीतर की तरफ मुडे क़ंधे तक कटे रेशमी बाल और बदन पर खिलता आसमानी सूट...
कानपुर जंक्शन पर चावल वाले की रेहडी यात्रियों से घिर चुकी थी। उसने जगह बना कर चावल की प्लेट ली और थोडी दूर खडे होकर लडक़ी वाली खिडक़ी पर नजर डाली। इस क्रम में उसने स्वयं को खाने में व्यस्त दिखने की पूरी सावधानी बरती ताकि, लडक़ी देखे तो समझे कि उसने अनायास ही देखा है। लडक़ी परांठे खाने में तल्लीन थी। अच्छा तो साहिबा को चावल से ज्यादा परांठे पसन्द हैं।लडक़ी का खाना खत्म हो चुका था। उसने पास से गुजरती किताबों वाली रेहडी क़ो रुकवाया। दो चार पत्रिकाएं छांट कर ले लीं। रोहित ने देखा लडक़ी ने साहित्यिक पत्रिकाएं ही लीं थीं। यानि लडक़ी की भी अभिरुचि साहित्य में है, वह मुस्कुराया। लेकिन इतनी पत्रिकायें? कहीं वह लडक़ी लेखिका तो नहीं? बिजली की तरह यह विचार उसके दिमाग में कौंधा। दूसरे पल प्रतिविचार भी आया, इतनी सुन्दर लडक़ी लेखिका नहीं हो सकती....मगर वह ज्यादा देर इस विषय पर तर्क ना कर सका। ट्रेन पटरियों पर फिसलने लगी। दरवाजे का हत्था पकड वह भी डब्बे के अन्दर झूल गया।
नई दिल्ली से चुनार स्टेशन तक इस ट्रेन में बिजली वाला इंजन लगता है।इसलिये रफ्तार पकडने में ज्यादा देर नहीं लगती। ट्रेन स्टेशन से निकल कर बडी तेजी से आबादी को पीछे छोड बढी ज़ा रही थी। स्टेशन पर जो चहल पहल डब्बे में पैदा हुई थी, वह अब गुम हो चुकी थी। एक बार फिर से वही बर्थें, वही पंखे, वही यात्री, वातावरण में पुराना बोझिलपन खींच लाये, जो अगले स्टेशन तक यूं ही बना रहना था।
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#16
अब तक के सफर में एक बात तो पक्की हो चुकी थी कि, वह लडक़ी अकेले ही सफर कर रही है।उसने अब तक का ज्यादा वक्त पत्रिकाओं में या अपनी बर्थ पर आँखे मुंदे बिताया था। आस पास की महिलाओं से भी शायद ही खुल कर कोई बात की हो। वरना एकाध हंसी या आवाज तो अब तक रोहित के कानों पर जरूर दस्तक दे चुकी होती। उसे कोई उपाय नजर नहीं आ रहा था कि वह कैसे उस लडक़ी से बातचीत करे? एक क्षण को उसने यह भी सोचा कि लडक़ी से बात करना मटिया दे,मगर वह ऐसा नहीं कर सका। घूम फिर कर एक ही बात उसके दिमाग में आती कि, लडक़ी का चेहरा इतना जाना पहचाना सा क्यों है?
डब्बे में लडक़ों के गाने की आवाजें फ़ैलने लगीं ''चलत मुसाफिर मोह लिया रे..पिंजरे वाली मुनिया''गाना रुक गया था। रोहित ने गरदन घुमा कर देखा दो लडक़े अपने अपने हाथ में तीन उंगलियों में एस्बेस्टस के दो टुकडों को फंसाये, दूसरे हाथ से उन पर सधे ढंग से प्रहार कर रहे थे। टुकडों से टक्टकाटक् टक् की लयबध्द ध्वनि निकल रही थी। ताश के खिलाडियों ने गाने वालों को रोक रखा था।
'' अरे! पुराना गाना बंद करो।''
'' दीदी तेरा देवर वाला सुनाओ।''
डोनों लडक़ों ने रुक कर सांस खींची और एस्बेस्टस के टुकडों को बजाते हुये चीख चीख कर गाने लगे,
'' दीदी तेरा देवर दीवानाहाऽय राऽम ऽऽ चिडियों को डाले दानाऽऽ''
इसी गाने की नायिका पर तो अपने मकबूल भाई फिदा हो गये। रोहित सीधा होकर लेट गया। जाने कब उसकी आँख लगी। वह जागा तो ट्रेन के बाहर शाम गहरा चुकी थी। थोडी देर में ट्रेन चुनार जंक्शन पर पहुंच गयी। वहां ट्रेन में बिजली वाले इंजन की जगह डीजल इंजन लगता है। ट्रेन लगभग पौन घंटा रुकती है। ज़ो पहली बात उसके दिमाग में आयी, लडक़ी कहाँ है? कहीं रोहित की नींद का फायदा उठा कर वह उतर तो नहीं गयी। वह प्लेटफार्म की ओर लपका। वहाँ से उसने देखा, लडक़ी बर्थ पर अपना बिस्तर ठीक कर रही है, रोहित ने चैन की सांस ली।
'' बडी ज़ल्दी सोने की तैयारी कर रही है।'' बुदबुदाता हुआ वह स्टेशन के नल की ओर बढ ग़या। हाथ मुंह धोकर लौटा तो सहसा उसे अपनी आँखों पर उसे विश्वास ही नहीं हुआ। लडक़ी प्लेटफार्म पर खडी चाय वाले से चाय ले रही थी। आस पास भीड भी नहीं थी। रोहित का दिल जोर जोर से धडक़ने लगा। जो खूबसूरत लडक़ी उसे अब तक परेशान करती रही है, वह उससे चन्द कदमों के फासले पर खडी है। अब वह लडक़ी को जरूर टोकेगा। उससे बातें करेगा और उसका परिचय जान कर रहेगा -सोचता हुआ वह चाय वाले की ओर बढ ग़या।
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#17
लडक़ी ने चाय का कसोरा(सकोरा) लेते हुये रोहित की ओर नजर उठाई। रोहित को अपना रक्त जमता सा महसूस हुआ, उसके दिल की धडक़न बहुत तीव्र हो गयी। उसने तेजी से अपना चेहरा घुमा लिया।
'' एक चाय देना, भई।'' लडक़ी चाय वाले को पैसे देकर मुडी। चाय वाला झुक कर रोहित की चाय कसोरे में डालने लगा। रोहित ने सोचा इससे अच्छा मौका नहीं मिलेगा।
'' आप कहाँ तक जायेंगी मिस''
ठीक उसी समय एक कुली सर पर दो तीन सूटकेस उठाये इनके पास से गुजरा।
'' बहन जी जरा हट के।'' रोहित की धीमी आवाज क़ुली की हांक में पूरी तरह डूब गयी। लडक़ी तेजी से किनारे हट कर डिब्बे की ओर बढ ग़यी। उसने रोहित की आवाज बिलकुल नहीं सुनी थी। मगर चाय देने के लिये उठते चाय वाले ने रोहित की आवाज सुनी थी। चाय थमाते उसने रोहित को अजीब - सी नजरों से देखा। रोहित के चेहरे पर रोम छिद्रों ने एक साथ ढेर सारा पसीना फेंक दिया। उसने हडबडाहट में चाय वाले को पैसे दिये और वहां से हट गया। चाय वाला भी चाय गरमचाय की आवाज लगाता आगे बढ ग़या।
चाय वाला उसे कैसे देख रहा था, रोहित ने चाय का घूंट भरा मगर उसे चाय कसैली लगी। गुस्से में आकर रोहित ने चाय का कसोरा रेल की पतरी पर दे मारा। काफी देर तक वह यूं ही प्लेटफार्म पर भटकता रहा। जब उसकी उत्तेजना कुछ शांत होने लगी तो, उसने स्वयं को समझाया, '' लडक़ी ने तो उसकी बात सुनी नहीं। ना ही कोई अप्रिय उत्तर उसे दिया। फिर वह क्यों इतना नर्वस हो रहा है?''उसने विचारों को हल्का सा झटका दिया। एक मुस्कान उसके होठों से उठ कर गालों पर फैल गयी और आंखों से झांकने लगी। वह डब्बे के पास लौट आया। लडक़ी अपनी बर्थ पर लेटी पत्रिका पढ रही थी। उसने अनुमान लगाया, थोडी देर में वह सो जायेगी।
डीजल इंजन ने सीटी बजाई। प्लेटफार्म के छोर पर लाल सिग्नल अपना रंग बदल कर हरा हो चुका था। वह डब्बे में चढ आया। लडक़ी सो रही है, इस विचार के साथ ही उसे लगा कि आज का सारा दिन व्यर्थ गया। धिक्कार है उस पर। एक लडक़ी से वह दो बातें नहीं कर सका। इस भय से कि उसकी छवि न बिगड ज़ाये। छवि बना कर ही उसे क्या मिल जायेगा- उसने सोचा...खैर अब तो जो हो गया सो हो गया। कल सुबह उससे बात जरूर करेगा। स्वयं से इसी तरह की बातें करता रोहित अपनी बर्थ पर लेट गया। वह खूबसूरत चेहरा एक मुस्कान के साथ उसके दिमाग पर छाता चला गया।
सुबह जब उसकी आंखें खुली तो ट्रेन मुरी जंक्शन पर खडी थी। वह फुरती से अपनी बर्थ छोड क़र नीचे उतरा। उतनी ही तेजी से हाथ मुंह पर पानी के छींटे मार वह प्लेटफार्म पर आ गया। इस स्टेशन पर ट्रेन दो टुकडों में बंट जाती है। आधे डब्बे टाटा नगर जाते हैं और शेष आधे हटिया। उसने देखा हटिया जाने वाले डब्बे दूसरी पटरी पर खडे क़िये जा चुके थे। यानि ट्रेन को मुरी जंक्शन पर आये काफी देर हो चुकी है। चाय का कसोरा थामे वह लडक़ी वाली खिडक़ी की ओर मुडा। वह चौंका,वहां एक सज्जन बैठे थे। नजदीक आकर उसने अन्दर झांका। द्याहाँ न तो वह लडक़ी थी न ही उसका सामान। रोहित के चेहरे का रंग उड ग़या।
'' कुछ ढूंढ रहे हैं क्या भाई साहब? '' उस सज्जन ने पूछा।
'' जीजी हाँ।'' उसने स्वयं पर नियंत्रण किया, '' यहाँ जो यात्री बैठे थे।''
उसने जानबूझ कर लडक़ी की बात छिपाइ।
'' यह बर्थ तो खाली थी। मैं रामगढ से बैठा हूँ। कोई खास बात थी क्या?'' उस सज्जन ने पूछा।
'' नहीं...कुछ खास नहीं...मेरी पत्रिका उन्होंने पढने को ली थी। लौटाना भूल गये।''
रोहित ने झूठ बोला और वहां से हट गया। उसे लगा लडक़ी उसके साथ छल कर गई। कितना जाना पहचाना सा लग रहा था उसका चेहरा। काश, वह अपना परिचय दे जाती! अब तो वह लडक़ी कभी नहीं मिलेगी...कहाँ उतरी होगी वह? रात भर तो कई स्टेशन आये होंगे...रेणुकोट, डाल्टनगंज, टोरी,पतरातु..कहाँ उतरी होगी वह भली सी सुन्दर लडक़ी? यह जानते हुये भी कि, वहाँ नहीं मिलेगी,रोहित हटिया जाने वाले डब्बों को भी छान आया।
सिग्नल डाऊन हो चुके थे। वह भारी मन से आकर अपने डब्बे में बैठ गया। ट्रेन चलते ही झटके के साथ ऊपर से उसका तकिया और पत्रिका नीचे आ गिरे। उसने तकिया उठाया और झाड क़र ऊपर अपनी बर्थ पर रख दिया। सामने बैठे बच्चे ने पत्रिका उठा कर उसकी तरफ बढा दी, '' अंकल,आपकी मैग्जीन।''
उसने एक नजर मुस्कुराते बच्चे पर डाली और हौले से थैंक्यू कह कर पत्रिका ले ली। खुली हुई पत्रिका को ज्यों ही उसने सीधा किया, उसकी नजर लडक़ी के चित्र पर अटक गयी, शर्तिया वह उसी लडक़ी का चित्र था। उसने शीघ्रता से पत्रिका खोल कर फैला ली। बात सच निकली। तो इसलिये लडक़ी का चेहरा जाना पहचाना लग रहा था। पत्रिका में लडक़ी के चित्र के साथ उसकी कहानी छपी थी, '' कस्तूरी''।
– कमल
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#18
किराये का इन्द्रधनुष
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#19
Heart किराये का इन्द्रधनुष Heart













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#20
बम्बई की बरसात भी बस ! मुसीबत ही है। कहां तो सोचा था कि इन दो-तीन दिनों में पूरी बम्बई घूमूंगा। इस मायानगरी को खुद अपनी पहुंचने से देखूंगा, जानूंगा और कहां फंसा पडा हूं इस गेस्ट रूम में। जब से यहां आया हूं, यह झडी ज़ो लगी है, रूकने का नाम ही नहीं ले रही। इस कमरे में चहल-कदमी करते-करते थक गया हूं। लेटने की कई बार कोशिश की है परन्तु इतना नरम बिस्तर होते हुए भी तुरन्त उठ बैठता हूं। कमरे की एक-एक चीज को कई-कई बार देख चुका हूं। सारी पत्रिकाएं तो कल ही देख ली थीं,लेकिन मन में जो एक अजीब-सी कडवाहट घर कर रही है - गुस्से की, बेचैनी की, उससे वक्त काटना और भी मुश्किल हो रहा है।और ऊपर से यह बरसात, मेरे भीतर उठते तूफान को और तेज कर रही है। पता नहीं, कब तक इस कैद में रहना होगा।
मैं इसे कैद क्यों कह रहा हूं ! यह इतना बढिया गुदगुदे मैट्रेस वाला डबल-बैड, आरामकुर्सियां, किताबों से अटी पडी अल्मारियां, शो-केस, अटैच्ड बाथरूम, जिसमें ठण्डे-गर्म पानी की सुविधा है। सब कुछ साफ-सुथरा। सब कुछ तो यहां है! क्या हुआ जो इस कमरे में समुद्र की ओर खुलने वाली कोई खिडक़ी नहीं है। और तो कोई कमी नहीं। फिर बम्बई जैसे महंगे शहर में तीन-चार दिनों के लिए इतनी अच्छी तरह से रहने और साथ में खाने-पीने की सुविधा को मैं कैद कह रहा हूं? जिसे मैं कैद कह रहा हूं कभी सपने में भी कफ परेड जैसे पॉश इलाके में 20 वीं मंजिल पर इतने आलीशान फ्लैट के गेस्ट रूम में रहने के बारे में सोच सकता था। क्या मेरी इतनी औकात है कि मैं इतनी खूबसूरत जगह में आराम से पसरा रहूं और चाय, नाश्ता सब कुछ मेरे कमरे में पहुंचा दिया आए और यह सब सेवा एक ऐसी नौकरानी करे जो मुझसे भी अच्छी अंग्रेजी बोलती है, और स्मार्ट तो इतनी है कि कल जब मैं दिन में यहां पहुंचा था और दरवाजा उसी ने खोला था तो मैं उसे खन्ना अंकल की लडक़ी रितु ही समझा था और उसे विश भी उसी के हिसाब से किया था।
कल शाम को तैयार होकर जब कमरे से बाहर निकला तो उस वक्त आंटी ड्राइंग रूम में फोन पर किसी से बात कर रही थीं। मैं यही चाह रहा था कि कोई-न-कोई ड्राइंग रूम में मिल जाए, नहीं तो फिर किसी को बुलवाने के लिए या तो आवाज देनी पडती या फिर रूबी को ढूंढना पडता। आंटी जब तक फोन पर बात करती रहीं, मैं वहीं सोफे की टेक लगाए खडा रहा। फोन रखते ही जब वे मुडीं तो मुझ पर नजर पडी। चेहरा एकदम तुनक नया। अभी तो फोन पर हंस-हंसकर बातें कर रही थीं !
- क्या बात है मनीश ! कहीं जा रहे हो क्या! उन्होंने चेहरे की तुनक कम किए बिना साडी क़ी प्लीट्स ठीक करते हुए पूछा था। मैं एकदम सकपका गया था, फिर भी हिम्मत जुटाकर बोला था - वो सुबह से कमरे में बैठा-बैठा बोर हो रहा हूं। इस समय शायद बरसात रूकी हुई है, सोच रहा था, कहीं घूम आऊं।
मैंने जानबूझकर कार और ड्राइवर की बात नहीं की थी। हल्की-सी उम्मीद थी कि शायद वे खुद ही ड्राइवर को बुलाकर मुझे घुमा लाने के लिए कह दें। वैसे भी तो आज दोनों गाडियां घर पर हैं। सुबह अंकल ही तो बता रहे थे। आंटी भीतर के कमरे की तरफ मुडते हुए बोली थीं - भई! यहां बरसात का कोई भरोसा नहीं होता। फिर भी जाना चाहो तो बिल्डिंग के सामने ही बस स्टॉप है। मैरीन ड्राइव या फाउंटेन वगैरह घूम आओ, लेकिन डिनर के वक्त तक लौट आना। रूबी को घर जाना होता है। बाहर जाने का मेरा सारा उत्साह खत्म हो गया था। लेकिन कमरे में बैठे-बैठे कुढते रहने से तो यही अच्छा था कि बरसात में ही घूमता भीगता रहूं, यही सोचकर - अच्छा आंटी कहकर मैं बाहर आ गया था।
लिफ्ट का बटन दबाने के बाद मैं आँखें मूंदे दीवार के सहारे खडा हो गया था। मुझे बाउजी पर गुस्सा आने लगा था - क्यों भेजा उन्होंने मुझे यहां अपने वन-टाइम लंगोटिया यार और इस समय एक बहुत बडे आदमी - कृष्ण गोपाल खन्ना के घर पर ठहरने के लिए? मैं कहीं भी दस-बीस रूपये वाले होटल वगैरह में ठहर जाता। वहां कम-से-कम मुझे हर वक्त ज़लील तो न होना पडता। मुझे अपने आउटसाइडर होने का या मेरे छोटेपन का अहसास तो न कराया जाता और फिर उस हालत में मैं चार दिन के लिए थोडे ही आता। इन्टरव्यू वाला दिन और उससे एक दिन पहले यानी दो दिन की बात होती और फिर मैं सेकेण्ड क्लास से आया हूं और वापसी की टिकट भी तो सेकेण्ड क्लास का बुक करवाया है, जबकि कम्पनी मुझे दोनों तरफ का फर्स्ट क्लास का किराया दे रही है।उससे जो पैसा बचता, वह रहने-खाने के काम आ जाता।
लिफ्ट आ गई थी। मैं नीचे आ गया। सडक़ पर आने के बाद मैंने आस-पास देखा, पानी थमा हुआ था लेकिन लोग तेजी से आ-जा रहे थे। मैंने यह बात सुबह भी नोट की थी, अब भी देख रहा था कि यहां पर लोग और शहरों की तुलना में ज्यादा तेज चलते हैं,कहीं देखते नहीं, बस लपकते से रहते हैं। सुबह चर्चगेट के बाहर तो मैंने कई औरतों को भागते हुए देखा था। औरतों को इस तरह भागते देखना सचमुच मेरे लिए एक नया दृश्य था। एक बहुत मोटी औरत, जिसने स्कर्ट पहना था, भागते हुए बहुत ही अजीब लग रही थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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