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अभी मुश्किल से मैंने सडक़ पार ही की थी कि एक तेज बौछार ने मुझे पूरी तरह भिगो दिया। लोगों ने फटाफट अपने फोल्डिंग छाते खोल लिये। मुझे आस-पास कोई ऐसी जगह नजर नहीं आई जहां शरण ले सकता। ऊपर वापस जाने का कतई मूड न था। नतीजतन भगता हुआ बस-स्टाप की तरफ ही चलता रहा। मूड और खराब हो गया था। अब घूमने की भी कोई तुक नहीं थी। तुक तो मुझे पहले ही नजर नहीं आ रही थी क्योंकि मुझे यहां जगहों के सिर्फ नाम ही मालूम थे, उनकी दिशा या दूरी का कोई अन्दाज नहीं था।किसी से कुछ भी पूछना बेकार लगा। बस-स्टाप से पैदल चल पडा। यूं ही काफी देर तक भटकता और भीगता रहा। भीगना मुझे अच्छा लगता है, लेकिन आज भीगने से मूड और भी बिगडता चला जा रहा था। तभी कोलाबा वाली सडक़ पर एक अच्छा-सा बार दिखाई दिया। मुझे इस वक्त अपना अकेलापन काटने का इससे अच्छा कोई रास्ता नहीं दिखाई दिया। बीयर बार में जा घुसा। बीयर पीते हुए मुझे हमेशा इस बात का अहसास होता रहता है कि आसपास कोई है जिससे मैं अपने मन की बातें कह रहा हूं। हालांकि मैं उस समय बातें खुद से ही करता हूं। जो बात किसी से कहने को बेचैन हो रहा होता हूं, किसी के सामने मन की भडास निकालना चाहता हूं तो खुद से बातें करके बहुत सुकून पाता हूं। इस वक्त भी मुझे सुकून की जरूरत थी।
बीयर के दो घूंट भरते ही मैं अन्तर्मुखी हो गया। मेरे भीतर की सारी सुगबुगाहट बुलबुलों के साथ ऊपर आने लगी। फिर से सारी चीजें दिमाग पर हावी होने लगीं। खुद पर गुस्सा आने लगा - क्यों ठहरा मैं खन्ना अंकल के घर पर। बाऊजी को कम-से-कम एक बार तो सोच लेना चाहिए था कि इन पंद्रह-बीस सालों में उनका दोस्त कितना बदल चुका होगा। ठीक है उनकी खतो-किताबत होती रहती है, लेकिन वह अलग बात है, और फिर मुझे इस बात से क्या मतलब कि खन्ना पर बाउजी के कितने अहसान हैं या दोनों बचपन के दोस्त हैं और दोनों ने मुफलिसी के दिन एक साथ काटे हैं। बाउजी किस तरह अपनी और खन्ना की दोस्ती के चर्चे किए जा रहे थे। अब मैं अगर बाउजी को बताऊं कि जिस दोस्त की उन्होंने अपने बच्चों का पेट काट कर मदद की थी, यहां तक कि एक बार हम बच्चों के लिए दीवाली पर पटाखे न खरीदकर उनके लिए बम्बई टिकट तक जुटाया था, वह आज इतना बडा आदमी हो गया है कि उसके पास उसी दोस्त के लडक़े के लिए जरा-सा भी वक्त नहीं। गर्मजोशी तो दूर, ढंग से बात करने तक की जरूरत ही नहीं समझी गयी। ये बातें सुनकर उन्हें कैसा लगेगा !
मैं बीयर पीते-पीते दुखी हो रहा था। सुबह से आया हुआ हूं और कोई बात तक नहीं कर रहा। आने पर ड्राइंग रूम में चाय पीते हुए जो दो-एक बातें हुई थीं, बाऊजी के हालचाल पूछे गए थे, उसके बाद तो मुझे जो गेस्ट रूम में पहुंचा दिया गया है, तब से वहीं घिरा बैठा था। अब बाहर निकला हूं। यहां तक कि मेरा नाश्ता और खाना भी रूबी वहीं गेस्ट रूम में पहुंचा गई थी।बीयर अपना काम कर रही थी। मैं कुढ रहा था और सभी को दोषी मान रहा था। मुझे माँ पर भी गुस्सा आ रहा था, क्यों उसने इतनी मेहनत करके खाने का सामान बना कर दिया है खन्ना के बच्चों के लिए। उसे पता तो चले कि बम्बई के बच्चे ये सब चीजें नहीं खाते। पता नहीं क्या खाते हैं ! आंटी हलवे पकवानों का डिब्बा देखते ही किस तरह मुंह बनाकर बोली थीं - क्या जरूरत थी इतना सब भेजने की? यहां तो ये सब कोई नहीं खाता। रूबी ये तुम ले जाना अपने घर, और मैं अवाक रह गया था ! माँ ने कितनी मेहनत से यह बनाया था।कितने घंटे मेहनत करती रही थी बेचारी और बाऊजी भी तो जिद किए जा रहे थे, खन्ना को ये पसन्द है, वो पसन्द है। पता नहीं बम्बई में उसे ये खाने को मिलते होंगे या नहीं! देख लें न यहां आकर ! और रितु को देखो, क्या नखरे हैं! मंजू ने इतना शानदार कार्डीगन बनाकर दिया और वो किस तरह मुंह बनाकर बोली - मुझे नहीं पहनना ये सडा हुआ कार्डीगन।और वह स्वेटर वहीं पटककर अपने कुत्ते को गोद में लिए अपने कमरे की ओर चली गई थी। सच, उस समय तो मेरा खून ही खौल गया था। मन हुआ था कि अभी अटैची उठाकर चल दूं कहीं और। साला यह भी कोई तरीका है बात करने का! माना तुम लोग रईस हो गए हो। ट्रांसपोर्ट के बिजनेस में ब्लैक की कमाई करके बीस-तीस लाख के आदमी हो गए हो लेकिन इसका ये तो कोई मतलब नहीं है कि दूसरों की इस तरह इज्जत उतार लो। अभी तो मुझे आए हुए कुल आधा घंटा ही हुआ था और किस तरह से यहां से मोहभंग हो गया था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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मन में हल्की-सी तसल्ली भी हुई थी कि अगर हम रईस नहीं हैं तो कम-से-कम इन्सानी मूल्यों पर तो टिके हुए हैं, तहजीब से बात तो कर सकते हैं। अब यही लोग मेरठ आए होते तो इनको बता देते कि मेजबानी क्या होती है! सारा परिवार इनकी जी-हुजूरी में एक टांग पर खडा होता। क्या मजाल कि कोई जरा ऊंची आवाज में बोल कर तो दिखाए। बाउजी की यही तो खासियत है। न तो किसी की बेइज्जती करते हैं, न अपनी होने देते हैं। अब उनको मैं ये सब बताऊंगा तो देखना-खन्ना अंकल से बातचीत तब बंद न हुई तो बात है। सवालों के जवाब मैं बीयर के घूंट भरते हुए खुद से पूछता रहा। बीयर के सुरूर में खुद को, सबको कोसने के बाद मैं हलका महसूस कर रहा था। सोचा, कल स्टेशन जाकर इंटरव्यू वाले दिन की टिकट की कोशिश करूंगा, ताकि फालतू में यहां दिमाग खराब न होता रहे।
दरवाजा अंकल ने खोला था। ड्राइंग रूम में हलकी रोशनी थी। उनके हाथ में भरा हुआ गिलास था और ड्राइंग रूम के कोने में बने उनके शानदार बार में बत्ती जल रही थी। बार स्टैण्ड पर आइस-बॉक्स, सोडा फाउन्टेन और खुली बोतल रखी थी।
- यस, यंग मैन, उन्होंने अपने गिलास में से लम्बा घूंट लेते हुए पूछा था - कहां घूमकर आ रहे हो?
-कहीं नहीं अंकल, बरसात की वजह से सारे दिन घर पर ही रहा, अभी जरा नीचे तक घूमने निकल गया था।
मैं उनसे नजरें नहीं मिलाना चाहता था, क्योंकि मूड अभी पूरी तरह ठीक नहीं हुआ था और मैं नहीं चाहता था कि उन्हें पता चले कि मैं बीयर पीकर आया हूं। वैसे भी अपनी और फजीहत करवाने की इच्छा नहीं थी। बेशक अंकल ने कोई ऐसी बात नहीं की थी, जिसे मैं अन्यथा लेता, लेकिन वे सुबह हो रहे पूरे ड्रामे में तो मौजूद थे। जब मैंने शहर देखने की इच्छा व्यक्त की थी तो वे भी तो मुझे गाइड कर सकते थे या रितु या ड्रायवर को मुझे घुमा लाने के लिए कह सकते थे, या फिर आंटी और रितु को चीजें रख लेने के लिए कह सकते थे।
-तुम्हारा खाना तुम्हारे कमरे में रखा है, हमें पता नहीं था तुम कितने बजे तक लौटोगे।
उन्होंने गिलास खाली किया और तिपाई पर रखते हुए बोले थे
- हम डिनर पर बाहर इन्वाइटेड हैं। आंटी वगैरह जा चुके हैं। मैं तुम्हारे लिए ही बैठा था। वे उठ खडे हुए और बाहर जाते हुए बोले - ओकेयंग मैन, सी यू टुमारो, गुड नाइट।
मैं गुडनाइट कहकर अपने कमरे में आ गया था।
कोनेवाली मेज पर ढका हुआ खाना और पानी का जग वगैरह रखे हुए थे। देखा-दो एक सब्जियां, चावल और रोटी थीं। भूख होने के बावजूद खाने की इच्छा नहीं हुई। अगर मेरी इतनी ही चिन्ता थी तो मुझे उसी वक्त बता देते या कह देते, बाहर ही खा लेता। लेकिन फिर सोचा-अगर मैं खाना न खाऊं और सुबह होने पर आंटी देखेंगी तो फिर भिनभिनाएंगी - एक तो स्पेशियली खाना बनवाया और छुआ तक नहीं। नहीं खाना था तो मना करके जाते। और मैं खाना खाकर सो गया था।
सबेरे से फिर वही रूटीन चल रहा है, बरसात हो रही है और मैं कमरे में बन्द हूं। रूबी एक बार सुबह पूछ भी गई थी वीडियो पर कोई फिल्म देखना चाहेंगे। लेकिन मैंने मना कर दिया था। फिल्म देखने का मतलब है - ड्राइंग रूम में बैठना और ड्राइंग रूम चूंकिसभी कमरों के बीच में पडता है, अतः सबकी निगाहों के बीच बैठना मुझे कतई गवारा नहीं था। रितु के कमरे से अब म्यूजिक की आवाज आनी बन्द हो गई है, लगता है कि किसी किताब वगैरह में मन लग गया होगा। फर्स्ट ईयर में है रितु। सुन्दर है, पर है अपनी माँ की तरह नकचढी। एक ही नजर में आप मालूम कर सकते हैं - माँ-बाप की बिगडैल और जिद्दी लडक़ी है। बस ड्राइंग रूम में ही कल जो हैलो हुई थी, उसके बाद नजर तो कई बार आई है लेकिन आँखें न उसने मिलाई हैं न मैंने ही जरूरत समझी है।खासकर कार्डीगन वाले प्रसंग से तो मुझे उसकी शक्ल तक से नफरत हो गई है।
इस घर में मुझे एक ही आदमी ढंग का लगा है - टीपू। सत्रह साल का टीपू देखने में खासा जवान लगता है, स्मार्ट भी है। टैन्थ में पढता है। इतना अच्छा लडक़ा, लेकिन अफसोस कि वह गूंगा-बहरा है। समझता है वह भी सिर्फ अंग्रेजी लिप मूवमेंट के सहारे।अपनी बात माइमिंग से ही समझाता है या कभी-कभी लिखकर भी। उससे आज बहुत ही शानदार ढंग से मुलाकत हुई। इन्टरव्यू के सिलसिले में कुछ तैयारी कर रहा था कि दरवाजे पर वह दिखाई दिया। पहले तो मैंने पहचाना नहीं लेकिन जब अन्दर आ गया और उसने हाथ बढाया तो मुझे याद आ गया। कल जब मैं यहां पहुंचा तो वह कॉलेज जा रहा था। शायद पैसों की किसी बात को लेकर आंटी उसे डांट रही थीं। बाऊजी ने भी मुझे उसके बारे में बताया था कि खन्ना उसकी ट्रेनिंग और पढाई की वजह से काफी परेशान रहते हैं।
उसने बहुत गर्मजोशी से मेरा हाथ थामा। मुझे बहुत अच्छा लगा। कोई तो है जो यहां शब्दों के बिना भी इतनी अच्छी तरह से कम्यूनिकेट कर रहा था। हम हाथ मिलाने भर में एक-दूसरे के मित्र बन गए। मुझे उसका आना अच्छा लगा। वह अचानक उठा और दरवाजा बन्द कर आया। हालांकि उस वक्त हम दोनों और रूबी के अलावा घर में कोई और न था। उसने जेब से सिगरेट की डिब्बी और माचिस निकाली और एक सिगरेट ऊपर करके मेरे आगे बढायी। अच्छा तो यह बात थी! सिगरेट कभी-कभार मैं पी लेता हूं।चार्म्स मेरा ब्रांड भी है, परन्तु यहां अंकल के घर पर रहने के कारण मैंने फिलहाल स्थगित कर रखी थी। अब सिगरेट देखकर तलब तो उठी लेकिन एक सोलह-सत्रह साल के लडक़े के साथ इस तरह सिगरेट पीना न जाने क्यों अच्छा नहीं लगा - हालांकि ऑफर वही कर रहा था। मेरे मना करने पर उसे आश्चर्य हुआ। उसके सिगरेट सुलगाने और पीने का अन्दाज बता रहा था कि वह पुराना खिलाडी है। उससे खुलकर बातें करना चाहता था पर कभी ऐसी स्थिति से वास्ता न पडा था कि माइमिंग के सहारे बात करनी पडे या ऊंचीआवाज में अंग्रेजी बोलते हुए होंठों से सही मूवमेंट्स के जरिए अपनी बात समझानी पडे।
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उसने इशारे से पूछा - यहां किस सिलसिलें में आया हूं।
मैंने बताया यहां एक कम्पनी में मेडिकल रिप्रेजेन्टेटिव के लिए इन्टरव्यू देना है। कल इन्टरव्यू है बेलार्ड पियर में। तभी उसने अपनी जेब से एक लडक़ी की तस्वीर निकाली। मुझे फोटो दिखाते हुए वह दिल पर हाथ रख कर मुस्कुराया। मैं समझ गया कि वह उसकी स्वीट हार्ट की फोटो थी। लडक़ी निश्चय ही सुन्दर और संवेदनशील लगी। मैंने नाम पूछा। उसने कागज लेकर उस पर बहुत सुन्दर अक्षरों में लिखा - उदिता, माई लव। और कागज को चूम लिया। मुझे हंसी आ गई। पूछा - तुम्हारे साथ पढती है क्या। उसने सिर हिलाया - नहीं। फ्रेंड की सिस्टर है। - वह भी तुम्हें चाहती है क्या! मेरे पूछने पर उसने कुछ नहीं कहा, सिर्फ एक मिनट में आने का इशारा करके चला गया। थोडी देर में वापस आया तो उसके हाथ में कई चीजें थीं - दो तीन किताबें, एक खूबसूरत पेन, सेंट की शीशी, गॉगल्स और कई छोटे-मोटे गिफ्ट आइटम। वह अपने हाथों में यह अनमोल खजाना लिए बहुत उल्लसित था। मैंने पूछा और तुमने क्या दिया है उसे। उसने आँख दबाकर कैमरा एडजस्ट और क्लिक करने की माइमिंग की।
- लेकिन इतने पैसे कहां से लाए तुम? जो कुछ उसने बताया, वह मुझे चौंकाने के लिए काफी था।
- नयी साइकिल बेचकर और घर में बताया कि खो गई।
मुझे उस पर तरस आया। बेचारे को अपने प्यार का इजहार करने के लिए क्या-क्या करना पडता है। मैंने यूं ही पूछा - कभी फिल्म वगैरह भी जाते हो, लेकिन तुरन्त ही अपने सवाल पर अफसोस होने लगा - टीपू बेचारा कैसे इन्जॉय कर पाता होगा। लेकिन मुझे टीपू की मुस्कराहट ने उबार लिया। उसने इशारे से बताया कि वे कई फिल्में एक साथ देख चुके हैं। मैं कुछ और पूछता इसके पहले ही टीपू ने मुझे घेर लिया - आपकी कोई गर्ल फ्रैंड है क्या! पहुंचने के सामने मृदुभा का चेहरा उभर आया और याद आयी यहां आने से पहले उससे हुई आखिरी मुलाकात। जब मैंने उससे पूछा था - तुम्हारे लिए क्या लाऊं बम्बई से, तो उसने कहा था - तुम सफल होकर लौट आना, मुझे और कुछ नहीं चाहिए। मैं अभी उस मुलाकात के ख्यालों में ही डूबा था कि टीपू ने मेरा कंधा हिलाकर अपना सवाल दोहराया। मैं मुस्करा दिया - हां है एक। उसने तुरन्त नाम पूछा, क्या करती है, कैसी है।
उसकी पहुंचने में चमक थी। मुझे अच्छा लगा कि मैंने सिगरेट की तरह इस मामले में झूठ नहीं बोला है। मेरी गर्ल फ्रैण्ड की बात जानकर वह खुद को मेरे और करीब महसूस करने लगा था। मैंने उसे बताया कि वह फिजिक्स में एमएससी कर रही है अभी।
- और आप? उसने मुझसे पूछा।
- हम तो भई, बीएससी के बाद से ही काम की तलाश में भटक रहे हैं।
उसने जेब में डिब्बी निकालकर एक और सिगरेट सुलगायी। तभी उसे कुछ याद आया। वह सिगरेट छोडक़र अपने कमरे में गया और जब वापस आया तो उसके हाथ में पासपोर्ट था। उसने बताया कि अगली जनवरी में वह एक साल के लिए न्यूयार्क जा रहा है। उसे पापा के क्लब ने स्पॉन्सर किया है स्पेशल ट्रेनिंग के लिए। कमरे में उसके आने से मुझे बहुत अच्छा लग रहा था। हमें बेशक एक-दूसरे की बात समझने में या अपनी बात समझाने में काफी दिक्कत हो रही थी, लेकिन फिर भी हम दोनों का अकेलापन कट रहा था। मेरा अकेलापन तो खैर दो-चार दिन का था। वह खुद को अभिव्यक्त करने के लिए कितना परेशान रहता होगा। तभी उसने घडी देखी।
बताया-उसके टयूटर के आने का वक्त हो गया है। उसने अपनी चीजें सहेजीं और फिर मिलने का वादा करके चला गया।वह अपने पीछे कई सवाल छोड ग़या है। कितना अकेलापन महसूस करता होगा टीपू। क्या रितु उससे उसी तरह लड-झगड क़र लाड-प्यार जताती होगी जिस तरह सामान्य भाई-बहन करते हैं। क्या आंटी अपने क्लब और पार्टियों से फुर्सत निकालकर इसके सिर पर हाथ फेरने या होमवर्क करवाने का टाइम निकाल पाती होंगी। क्या इसके उस तरह के दोस्त होंगे जो इसे अपने खेलों, अपनी दिनचर्या में खुशी-खुशी शामिल करते होंगे। क्या उदिता और टयूटर के अलावा भी कोई उससे बात करता होगा। मैं तो यहां दो दिनों के अकेलेपन से ही टूट रहा हूं, बेचारा टीपू तो कब से अकेला है। मुझे नहीं लगा कि वह अपनी दिनचर्या में इतना खो जाता हो कि उसे किसी साथी की जरूरत ही न होती हो। उसने अपनी एक अलग दुनिया बनायी तो होगी लेकिन उसका कितना दिल करता होगा कि कोई उसकी अकेली दुनिया में आए। देर तक उसके ख्यालों में खोया रहा।
इन्टरव्यू बहुत अच्छा हो गया है। मैं चुन लिया गया हूं और मुझे मेरे अनुरोध पर दिल्ली हैडक्वार्टर दिया गया है। दिल्ली, पंजाब और हरियाणा कवर करना होगा। अपॉइन्टमेंट लैटर दस दिनों में भेज दिया जाएगा। तुरन्त ज्वाइन करना है और पन्द्रह दिन की ट्रेनिंग के लिए फिर बम्बई आना होगा। मेरी खुशी का ठिकाना नहीं है। मेरे संघर्ष खत्म हो रहे हैं। मनपसन्द नौकरी मिल गयी है। अच्छी पोस्ट, बडी क़ंपनी, अच्छा वेतन, और टूरिंग जॉब। मैं इतना उत्साहित हूं कि जी कर रहा है कि किसी भी व्यक्ति को रोककर उसे अपने सेलेक्शन के बारे में बताऊं। बाऊजी को तुरन्त तार दूं, लेकिन तार तो कल ही पहुंच पाएगा। फोन कर दूं, पडौस के सचदेवा के घर, लेकिन उन लोगों से तो आजकल ठनी हुई है। कहीं मेरा नाम सुनकर ही फोन रख दिया तो मेरे तीस-चालीस रूपयों का खून हो जाएगा। मैं तो इसी वक्त और यहीं अपनी खुशी बांटना चाहता हूं। कितनी अजीब बात है, असीम दुख के क्षण मैंने तनहा काटे हैं और कभी किसी को अपने दुख का हमराज नहीं बनाया है। आज मैं अपनी खुशी के क्षणों में भी अकेला हूं। कोई हमराज है ही नहीं यहां। हालांकि खुशी बांटने के लिए कब से तरस रहा हूं।
घर पर तार डाला। मृदुभा को सांकेतिक भाषा में कार्ड डाला। थोडी देर मैरीन ड्राइव पर टहलता रहा। मन बहुत हलका हो गया है।समुद्र ज्वार पर है। लगा, मानो वह भी मेरी खुशी में शामिल है और लहरों के हाथ बढाकर मुझे बधाई दे रहा है। बहुत खूबसूरत है शहर का यह हिस्सा। वापिस आने का मन ही नहीं है। घर लौटते हुए शाम हो गई है। एक मन हुआ कि मिठाई का एक डिब्बा ही ले लूं अंकल वगैरह के लिए। लेकिन टाल गया। मुझे पता है मिठाई का भी वही हश्र होना है जो पकवानों और कार्डिगन का हुआ है।मुझे और फजीहत नहीं करानी अपनी, न ही मूड खराब करना है।
घर पर सिर्फ टीपू और रूबी हैं। मैंने टीपू को खबर सुनायी है। वह तपाक से मेरे गले मिला है। मैंने खुशी से उसका गाल चूम लिया है और उसके बाल बिखरा दिए हैं। वह बहुत खुश हो गया है। मुझे अच्छा लगा है कि घर पर सिर्फ टीपू मिला है। आंटी वगैरह को तो मैं बताता ही नहीं। रूबी ने चाय के लिए पूछा, लेकिन टीपू ने मना कर दिया है।
- आज की शाम हम सेलीब्रेट करेंगे। खाना भी बाहर खायेंगे, और उसने मुझे हाथ-मुंह धोने का भी मौका नहीं दिया है। घसीट कर बाहर ले आया है। हल्की-हल्की बूंदा-बांदी हो रही है और आज बरसात में भीगना अच्छा लग रहा है। पर शायद टीपू को यहां की बरसात में भीगने में कोई दिलचस्पी नहीं है। उसने एक टैक्सी रूकवायी है और कोलाबा की तरफ चलने का इशारा किया है। मैं परसों इस तरफ आया था लेकिन तब मूड खराब होने के कारण कुछ भी एन्जॉय नहीं कर पाया था। आज कोलाबा में घूमना चाहता हूं, पर टीपू पता नहीं कहां लिए जा रहा है। उसने दो-एक बार टैक्सी को दायें-बायें मुडने का इशारा किया है। टैक्सी ताज होटल के पोर्च में आकर रूकी है। अब तक ताज होटल और गेटवे को फिल्मों में ही देखा था। किसी फाइव स्टार होटल में जाने का यह पहला मौका है।मैं मेरठ के एयर कण्डीशण्ड होटलों में भी दो-एक बार ही कॉफी पीने ही जा पाया था। मैंने टैक्सी का बिल देने की बडी क़ोशिश की परन्तु टीपू ने दिया और चेंज लिए बिना मुझे घसीट कर अन्दर ले चला। मैंने जेब पर बाहर से ही हथेली के स्पर्श से महसूस कि किया पैसे सुरक्षित हैं। हालांकि मुझे यहां के दामों के बारे में कोई जानकारी नहीं है फिर भी मैंने मन ही मन हिसाब लगा लिया है,सौ-डेढ सौ रूपए तक तो खर्च होंगे ही।
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अंदर आते समय मेरा मन मध्यमवर्गीय दब्बूपन की वजह से डर रहा है, लेकिन टीपू की चाल में ऐसी कोई बात नहीं है। वह लापरवाही के अन्दाज में मेरी बांह में बांह डाले चल रहा है। मेरा सारा ध्यान आसपास की रौनक और शानोशौकत पर लगा है। मेरी निगाहों में चकित भाव है जिसे मैं छुपाने की नाकाम कोशिश कर रहा हूं।
हम पहली मंजिल पर स्थित रेस्तरां में पहुंचे। इत्तिफाक से ठीक समुद्र वाली खिडक़ी के पास की एक मेज खाली मिल गयी। समुद्र अपना असीम विस्तार लिए हमारे सामने है। दूर खडे बडे-बडे ज़हाजों की बत्तियां बहुत अच्छी लग रही हैं। छोटी-बडी क़िश्तियां ऊंचीलहरों पर इतरा रही है। इससे पहले कि मैं मीनू पर निगाह डालूं, टीपू ने दो बीयर का आर्डर दे दिया है। हमारी निगाहें मिलती हैं तो दोनों मुस्करा देते हैं। टीपू मुझसे मेरे इन्टरव्यू के बारे में पूछता है। मैं बतलाता हूं कि किस तरह सत्ताइस लडक़ों में से पांच को इन्टरव्यू के बाद भी रूकने के लिए कहा गया था। उन पांच में मैं भी था। उन्हें कुल तीन लडक़े लेने थे। बाद में इन्फॉरमली बातचीत के लिए बुलाया गया था और तभी मुझे बता दिया गया था कि मैं चुन लिया गया हूं। बीयर आ गयी है। साथ में भुनी हुई मूंगफली और सलाद। सर्विस बहुत अच्छी है और वेटर वगैरह बहुत नम्र।
हम धीरे-धीरे सिप करने लगे हैं। मैं टीपू से उसके दोस्तों, उसके परिवार वालों के व्यवहार के बारे में पूछना चाहता हूं। परिवार वालों का नाम सुनते ही उसने मुंह बिचकाया है। मुझे पहले ही आशंका थी कि उसे बहुत अच्छा ट्रीटमेंट नहीं मिलता। वह माइमिंग करके बताता रहा कि किस तरह पापा से बात किए हुए उसे कई दिन बीत जाते हैं, सिर्फ हैलो, हाय से आगे वे कभी बात नहीं करते।अव्वल तो वे घर पर होते ही नहीं। क्लब, पार्टियां, बिजनेस ट्रिप्स वगैरह और जब घर पर होते हैं तो या तो अपने बैडरूम में बैठे रहते हैं और बिजनेस के फोन वगैरह करते रहते हैं या शाम के वक्त अपने बार में बैठे पीते रहते हैं। मुझे बहुत धक्का लगा जब उसने बताया कि मम्मी अपने कुत्ते को तो गोद में बिठाकर खाना खिलाती है लेकिन उससे कभी सीधे मुंह बात नहीं करती हैं। जब भी सामने पडती हैं किसी-न-किसी बात पर डांटने लगती हैं - पढता क्यों नहीं, बाहर क्यों घूमता रहता हूं, पैसे क्यों माँगता हूं हर वक्त। वह बहुत उदास हो गया है। उसका चेहरा बता रहा है कि अरसे से किसी ने प्यार से बात तक नहीं की है। जब मैंने रितु के बारे में पूछा तो उसका चेहरा और विकृत हो गया। वह बुदबुदाया - शी इज ए बिच। तो मेरा अन्दाज सही था। वह सचमुच बिगडी हुई लडक़ी है। टीपू उसके बारे में बात करने तक को तैयार नहीं है। बहुत कुरेदने पर उसने बताया कि वह पता नहीं किन आवारा लडक़ों के साथ घूमती रहती है और ड्रग्स भी लेती है।
हम एक-एक बीयर ले चुके हैं। हलका-सा सुरूर आने लगा है। टीपू ने इशारे से दो और बीयर का आर्डर दे दिया। मेरी इच्छा नहीं है और बीयर पीने की। साथ ही टीपू की उम्र देखते हुए भी डर रहा हूं कि कहीं उसे ज्यादा न हो जाए। थोडा सा ध्यान जेब पर भी है।पर बीयर आ चुकी हैं। मैं उसका खराब मूड देखकर बातचीत को उदिता पर ले आया। उसका चेहरा कुछ संभला। लगता है, वह उदिता को जी-जान से चाहता है, वह उसकी छोटी-छोटी बातें भी बताने लगा। उदिता की चर्चा करते हुए वह इतना भावुक हो गया कि उसकी पहुंचने में पानी आ गया। उसके हाथ कांपने लगे। किसी तरह हमने बीयर खत्म की। मुझे डर लगने लगा है टीपू घर पहुंचभी पाएगा या नहीं। जब अंकल को पता चलेगा कि हम दोनों ने दो-दो बीयर पी हैं तो मुझे ही डांटेंगे। मैंने बिल मंगवाया। मैंने सौ का नोट निकालकर बिल के फोल्डर में रखा लेकिन टीपू अड ग़या - यह ट्रीट उसकी तरफ से है, वही पे करेगा। वह हाथ-पैर चलाने लगा। मैं सीन क्रिएट नहीं करना चाहता। बिल उसी ने दिया। हलकी-सी राहत भी हुई। मैं तय कर लेता हूं डिनर के पैसे मैं दूंगा। टीपू उठा और लडख़डाते हुए मेरे साथ चलने लगा। वह ठीक तरह चल भी नहीं पा रहा है। मेरी चिंता बढती जा रही है।
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बाहर आए तो दखा कि नौ बज रहे हैं। मैंने टैक्सी रूकवायी तो उसने मना कर दिया। हम पैदल ही फिर कोलाबा की ओर चल दिये हैं। हालांकि मैं भी पूरे सुरूर में हूं लेकिन टीपू की वजह से मैं खुद को भूले हुए हूं। टीपू ने मेरा हाथ मजबूती से थामा हुआ है। तभी मेरी निगाह सडक़ के दोनों तरफ खडी सजी-धजी लडक़ियों पर पडती है। पहले तो उन्हें देख कर हैरान होता हूं, तभी ख्याल आता है,अरे! ये तो धंधा करने वाली लडक़ियां हैं। पर इस तरह सरे आम! उनकी तरफ देखते हुए भी मुझे अजीब लग रहा है। कुछेक लडक़ियां तो काफी अच्छी लग रही हैं। टीपू अपने ख्यालों में मस्त चला जा रहा है। मेरे हाथ में कसा उसका हाथ अस्थिर है।
हम धीरे-धीरे कदम बढा रहे हैं। तभी मैंने देखा कि एक खंभे की आड में खडी एक खूबसूरत लडक़ी हमारी तरफ देखकर मुस्कराई।निश्चय ही यह मुस्कुराहट प्रोफेशनल है। उसके रंग-ढंग से प्रभावित होने के बावजूद मैंने उसकी तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया है और आगे बढ ग़या हूं। लेकिन टीपू ने मेरे हाथ से अपना हाथ छुडवा लिया है और उसके पास चला गया है। मैं चौंका और भौंचक-सा वहीं खडा रह गया। टीपू यह क्या कर रहा है? मेरा दब्बूपन मुझे उस लडक़ी के पास जाने से रोक रहा है। टीपू उससे इशारों से बात कर रहा है। मेंरे पांव कांपने लगे हैं। असमंजस में पड ग़या हूं। वहीं बुत-सा खडा सब देख रहा हूं। इतनी भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहाहूं कि टीपू का हाथ पकडक़र उसे वहां से हटाऊं। तभी टीपू मेरे पास लौटा है। उसकी पहुंचने में एक अजीब-सी चमक आ गयी है।उसने मेरी सहमति चाही है। मैं उसे समझाने की कोशिश करता हूं। उसका हाथ पकडक़र आगे बढना चाहता हूं पर वह वहीं मेरा हाथ पकडक़र अड ग़या है। आज आयी मुसीबत! एक तो यह पहले ही होश में नहीं है। उस पर यह सब कुछ। मैं टीपू को प्यार से समझाता हूं, पर टीपू कुछ सुनने को तैयार नहीं है। तभी टीपू ने मुझे अपनी बांहों में भरा और मेरी मनुहार करने लगा है। वह कुछ कहना चाह रहा है, पर उसके मुंह से गों-गों की आवाज निकलने लगी है। यह आवाज मैंने उसके मुंह से पहले कभी नहीं सुनी थी।लडक़ी अभी भी वहीं खडी है और कनखियों से हमारी तरफ देख रही है। मैं लडक़ी की तरफ बढक़र उससे ही टीपू की हालत पर तरस खाने के लिए कहना चाहता हूं, लेकिन हिम्मत नहीं जुटा पाता।
स्थितियां मेरी पहुंच से बाहर हो गई हैं। मैं कुछ भी करने में अपने को असमर्थ पा रहा हूं। कहां तो हम सेलिब्रेट करने निकले थे और कहां टीपू यह सब नाटक करने लगा। सोलह-सत्रह वर्ष की उम्र और यह सब धंधे। मैंने हथियार डाल दिए हैं। लेकिन मैंने तय कर लिया है कि मैं इस सब में शरीक नहीं होऊगां। टीपू ने टेक्सी रूकवायी है। लडक़ी आगे बैठी है। हम दोनों पीछे। मैंने कनखियों से लडक़ी की तरफ देखा है- बीस-बाइस साल की और पढी-लिखी लग रही है जो शायद गलत धंधे में आ गयी है। मैंने आँखें फिरा ली हैं। लडक़ी ने ही टैक्सी वाले को जगह बतायी। टीपू बहुत गंभीर है। उसकी मुट्ठियां तनी हुई हैं और वह कहीं नहीं देख रहा। हम दोनों ने एक बार भी आँखें नहीं मिलायी हैं। टैक्सी कहां जा रही है, मुझे कुछ पता नहीं।
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लगभग 10 मिनट बाद हम टैक्सी से उतरते हैं। टीपू अभी भी लडख़डा रहा है। लडक़ी एक पुरानी-सी इमारत की तीसरी मंजिल पर ले आयी है और डोर बेल दबाकर दरवाजा खुलने का इन्तजार करती है। लडक़ी को फिर कनखियों से देखता हूं। यह लडक़ी कॉलगर्ल कतई नहीं लगती। मैं कल्पना करता हूं - अगर यही लडक़ी मेरठ में होती और खुद को इस धंधे में नहीं डालती तो अच्छी-अच्छी लडक़ियां इसके आगे पानी भरतीं। मैं जितना सोचता हूं, उतना ही परेशान होता हूं। मैं इस दलदल में कहां आ फंसा! किसी को पता चले कि मनीश बम्बई में कोठे पर गया था तो क्या सोचे! तभी एक बूढी औरत ने दरवाजा खोला है। हमें देखते ही दरवाजा खुला छोडक़र भीतर चली गई है। साधारण-सा ड्राइंगरूम, लेकिन साफ-सुथरा। मेज पर कुछ पत्रिकाएं। लडक़ी हमें वहीं बैठने को कह कर भीतर चली गई है।
थोडी देर में जब वह लौटती है तो वह गाउन पहने है। परदे के पीछे खडे होकर उसने मुझे आमंत्रित किया है। यह आमंत्रण बिलकुल ठंडा है। मैं सकपका गया हूं। इसके लिए कतई तैयार नहीं हूं। मैं सिर हिलाकर मना करता हूं। कुछ कह ही न पाया। तभी टीपू मेरा हाथ पकडक़र पहले भीतर जाने के लिए मुझसे आग्रह करने लगा है। मैं मना करता हूं। और टीपू को ही खडा करके भीतर भेज देताहूं। उसके शरीर का तनाव कम हो गया है पर नशा अभी भी बरकरार है। दरवाजा बन्द कर दिया गया है और परदा फिर अपनी जगह आ गया है। मेरा नशा उड चुका है। दिमाग शून्य हो गया है। मुझे कतई गुमान न था कि इतनी खुशनुमा शाम का अन्त इस तरह से होगा और एक सोलह-सत्रह साल का मासूम और अपाहिज लडक़ा मुझे इस तरह यहां ले आएगा।
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मैंने सोफे की टेक से सिर लगा लिया है और आँखें बन्द कर ली हैं। तभी भीतर से टीपू की गों-गों की आवाज सुनाई देती है। मैं डर जाता हूं। दिमाग सुन्न हो गया है। सारी चीजें गडमड हो रही हैं। टीपू, अंकल, रितु, उदिता, मृदुभा, भीतर वाली लडक़ी। सबके चेहरे तेजी से मानस पटल पर आ-जा रहे हैं। मुझे टीपू पर तरस आ रहा है। बेचारा इतनी कम उम्र में इन धंधों में फंस गया है। उधर रितु ड्रग्स के नशे में किसी और की बांहों में झूल रही होगी। और यह लडक़ी - उसके बारे में सोचना चाहता हूं, पर कहीं लिंक नहीं जुडता। उसे इस वातावरण से अलग किसी और वातावरण के फ्रेम में देखना चाहता हूं पर उसका चेहरा बदल जाता है। उसकी जगह कोई और चेहरा ले लेता है। सिर बुरी तरह घूम रहा है। आँखें बन्द किए बैठा हूं। कमरे में हल्की रोशनी है, पर पहुंचने में जलन हो रही है। कम से कम लडक़ी को तो यह देखना चाहिए था कि वह कैसे मासूम बच्चे को फंसाकर लाई है। तभी गों-गों की आवाज आनी बन्द हो गयी। मैंने फिर आँखें बन्द कर लीं। जितना सोचता हूं, दिमाग उतना ही खराब होता है।
तभी खटके की आवाज से मेरी आँख खुली। वह लडक़ी दरवाजे में खडी है। निर्विकार सी। मैं डर गया - तो क्या वह फिर मुझे आमंत्रित करने आयी है पैसे ऐंठने के लिए। मैं कुछ हूं, इसके पहले ही वह धम्म से सामने वाले सोफे पर बैठ गयी है - सॉरी सर,वह कुछ कहना चाहती है पर सिर झुका लेती हैं।
- क्यों क्या हुआ! मेरी जान हलक में आ गयी है।
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आपके दोस्त को किसी लडक़ी की नहीं, माँ की गोद की जरूरत थी। भीतर जाइए, वह सो रहा है। इतना कहते ही वह मुझसे नजरें चुराने लगती है।
मैं भीतर लपकता हूं। टीपू सोया हुआ है और लडक़ी उसे कंधों तक चादर ओढा गयी है। मैं कमरे की पीली रोशनी में उसका चेहरा नजदीक से देखता हूं। उसके चेहरे पर तृप्ति का वही भाव है, जो माँ का दूध पीने के बाद शिशु के चेहरे पर होता है।
मेरी पहुंचने के सामने आंटी का तुनक भरा चेहरा आ जाता है।
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- सूरज प्रकाश
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एक और ज़िंदगी - मोहन राकेश
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एक और ज़िंदगी
- मोहन राकेश
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.और उस एक क्षण के लिए प्रकाश के हृदय की धडक़न जैसे रुकी रही। कितना विचित्र था वह क्षण—आकाश से टूटकर गिरे हुए नक्षत्र जैसा! कोहरे के वक्ष में एक लकीर-सी खींचकर वह क्षण सहसा व्यतीत हो गया।
कोहरे में से गुज़रकर जाती हुई आकृतियों को उसने एक बार फिर ध्यान से देखा। क्या यह सम्भव था कि व्यक्ति की आँखें इस हद तक उसे धोखा दें? तो जो कुछ वह देख रहा था, वह यथार्थ ही नहीं था?
कुछ ही क्षण पहले जब वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया था, तो क्या उसने कल्पना में भी यह सोचा था कि आकाश के ओर-छोर तक फैले हुए कोहरे में, गहरे पानी की निचली सतह पर तैरती हुई मछलियों जैसी जो आकृतियाँ नज़र आ रही हैं, उनमें कहीं वे दो आकृतियाँ भी होंगी? मन्दिरवाली सडक़ से आते हुए दो कुहरीले रंगों पर जब उसकी नज़र पड़ी थी, तब भी क्या उसके मन में कहीं ऐसा अनुमान जागा था? फिर भी न जाने क्यों उसे लग रहा था जैसे बहुत समय से, बल्कि कई दिनों से, वह उनके वहाँ से गुज़रने की प्रतीक्षा कर रहा हो, जैसे कि उन्हें देखने के लिए ही वह कमरे से निकलकर बालकनी पर आया हो और उन्हीं को ढूँढ़ती हुई उसकी आँखें मन्दिरवाली सडक़ की तरफ़ मुड़ी हों।—यहाँ तक कि उस धानी आँचल और नीली नेकर के रंग भी जैसे उसके पहचाने हुए हों और कोहरे के विस्तार में वह उन दो रंगों को ही खोज रहा हो। वैसे उन आकृतियों के बालकनी के नीचे पहुँचने तक उसने उन्हें पहचाना नहीं था। परन्तु एक क्षण में सहसा वे आकृतियाँ इस तरह उसके सामने स्पष्ट हो उठी थीं जैसे जड़ता के क्षण के अवचेतन की गहराई में डूबा हुआ कोई विचार एकाएक चेतना की सतह पर कौंध गया हो।
नीली नेकरवाली आकृति घूमकर पीछे की तरफ़ देख रही थी। क्या उसे भी कोहरे में किसी की खोज थी? और किसकी? प्रकाश का मन हुआ कि उसे आवाज़ दे, मगर उसके गले से शब्द नहीं निकले। कोहरे का समुद्र अपनी गम्भीरता में ख़ामोश था, मगर उसकी अपनी ख़ामोशी एक ऐसे तूफ़ान की तरह थी जो हवा न मिलने से अपने अन्दर ही घुमडक़र रह गया हो। नहीं तो क्या वह इतना ही असमर्थ था कि उसके गले से एक शब्द भी न निकल सके?
वह बालकनी से हटकर कमरे में आ गया। वहाँ अपने अस्तव्यस्त सामान पर नज़र पड़ी, तो शरीर में निराशा की एक सिहरन दौड़ गयी। क्या यही वह ज़िन्दगी थी जिसके लिए उसने...? परन्तु उसे लगा कि उसके पास कुछ भी सोचने के लिए समय नहीं है। उसने जल्दी-जल्दी कुछ चीज़ों को उठाया और रख दिये जैसे कि कोई चीज़ ढूँढ़ रहा हो जो उसे मिल न रही हो। अचानक खूँटी पर लटकती पतलून पर नज़र पड़ी, तो उसने पाजामा उतारकर जल्दी से उसे पहन लिया। फिर पल-भर खोया-सा खड़ा रहा। उसे समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या चाहता है। क्या वह उन दोनों के पीछे जाना चाहता था? या बालकनी पर खड़ा होकर पहले की तरह उन्हें देखते रहना चाहता था?
अचानक उसका हाथ मेज़ पर रखे ताले पर पड़ गया, तो उसने उसे उठा लिया। जल्दी से दरवाज़ा बन्द करके वह ज़ीने से उतरने लगा। ज़ीने पर आकर ध्यान आया कि जूता नहीं पहना। वह पल-भर ठिठककर खड़ा रहा, मगर लौटकर नहीं गया। नीचे सडक़ पर पहुँचते ही पाँव कीचड़ में लथपथ हो गये। दूर देखा—वे दोनों आकृतियाँ घोड़ों के अड्डे के पास पहुँच चुकी थीं। वह जल्दी-जल्दी चलने लगा। पास से गुज़रते एक घोड़ेवाले से उसने कहा कि आगे जाकर नीली नेकरवाले बच्चे को रोक ले—उससे कहे कि कोई उससे मिलने के लिए आ रहा है। घोड़ेवाला घोड़ा दौड़ाता हुआ गया, मगर उन दोनों के पास न रुककर उनसे आगे निकल गया। वहाँ जाकर न जाने किसे उसने उसका सन्देश दे दिया।
जल्दी-जल्दी चलते हुए भी प्रकाश को लग रहा था जैसे वह बहुत आहिस्ता चल रहा हो, जैसे उसके घुटने जकड़ गये हों और रास्ता बहुत-बहुत लम्बा हो गया हो। उसका मन इस आशंका से बेचैन था कि उसके पास पहुँचने तक वे लोग घोड़ों पर सवार होकर वहाँ से चल न दें, और जिस दूरी को वह नापना चाहता था, वह ज्यों की त्यों न बनी रहे। मगर ज्यों-ज्यों फासला कम हो रहा था, उसका कम होना भी उसे अखर रहा था। क्या वह जान-बूझकर अपने को एक ऐसी स्थिति में नहीं डाल रहा था जिससे उसे अपने को बचाए रखना चाहिए था?
उन लोगों ने घोड़े नहीं लिये थे। वह जब उनसे तीन-चार गज़ दूर रह गया, तो सहसा उसके पाँव रुक गये। तो क्या सचमुच अब उसे उस स्थिति का सामना करना ही था?
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“पाशी!” इससे पहले कि वह निश्चय कर पाता, अनायास उसके मुँह से निकल गया।
बच्चे की बड़ी-बड़ी आँखें उसकी तरफ़ घूम गयीं—साथ ही उसकी माँ की आँखें भी। कोहरे में अचानक कई-कई बिजलियाँ कौंध गयीं। प्रकाश दो-एक क़दम और आगे बढ़ गया। बच्चा हैरान आँखों से उसकी तरफ़ देखता हुआ अपनी माँ के साथ सट गया।
“पलाश, इधर आ मेरे पास,” प्रकाश ने हाथ से चुटकी बजाते हुए कहा, जैसे कि यह हर रोज़ की साधारण घटना हो और बच्चा अभी कुछ मिनट पहले ही उसके पास से अपनी माँ के पास गया हो।
बच्चे ने माँ की तरफ़ देखा। वह अपनी आँखें हटाकर दूसरी तरफ़ देख रही थी। बच्चा अब और भी उसके साथ सट गया और उसकी आँखें हैरानी के साथ-साथ एक शरारत से चमक उठीं।
प्रकाश को खड़े-खड़े उलझन हो रही थी। लग रहा था कि ख़ुद चलकर उस दूरी को नापने के सिवा अब कोई चारा नहीं है। वह लम्बे-लम्बे डग भरकर बच्चे के पास पहुँचा और उसे उसने अपनी बाँहों में उठा लिया। बच्चे ने एक बार किलककर उसके हाथों से छूटने की चेष्टा की, परन्तु दूसरे ही क्षण अपनी छोटी-छोटी बाँहें उसके गले में डालकर वह उससे लिपट गया। प्रकाश उसे लिये हुए थोड़ा एक तरफ़ को हट आया।
“तूने पापा को पहचाना नहीं था क्या?”
“पैताना ता,” बच्चा बाँहें उसके गले में डाले झूलने लगा।
“तो तू झट से पापा के पास आया क्यों नहीं?”
“नहीं आया,” कहकर बच्चे ने उसे चूम लिया।
“तू आज ही यहाँ आया है?”
“नहीं, तल आया ता।”
“अभी रहेगा या आज ही लौट जाएगा?”
“अबी तीन-चार दिन लहूंदा।”
“तो पापा के पास मिलने आएगा न?”
“आऊंदा।”
प्रकाश ने एक बार उसे अच्छी तरह अपने साथ सटाकर चूम लिया, तो बच्चा किलककर उसके माथे, आँखों और गालों को जगह-जगह चूमने लगा।
“कैसा बच्चा है!” पास खड़े एक कश्मीरी मज़दूर ने सिर हिलाते हुए कहा।
“तुम तहाँ लहते हो?” बच्चा बाँहें उसी तरह उसकी गरदन में डाले जैसे उसे अच्छी तरह देखने के लिए थोड़ा पीछे को हट गया।
“वहाँ!” प्रकाश ने दूर अपनी बालकनी की तरफ़ इशारा किया, “तू कब तक वहाँ आएगा?”
“अबी ऊपल जातल दूद पिऊँदा, उछके बाद तुमाले पाछ आऊँदा।” बच्चे ने अब अपनी माँ की तरफ़ देखा और उसकी बाँहों से निकलने के लिए मचलने लगा।
“मैं वहाँ बालकनी में कुरसी डालकर बैठा रहूँगा और तेरा इन्तज़ार करूँगा,” बच्चा बाँहों से उतरकर अपनी माँ की तरफ़ भाग गया, तो प्रकाश ने पीछे से कहा। क्षण-भर के लिए उसकी आँखें बच्चे की माँ से मिल गयीं, परन्तु अगले ही क्षण दोनों दूसरी-दूसरी तरफ़ देखने लगे। बच्चा जाकर माँ की टाँगों से लिपट गया। वह कोहरे के पार देवदारों की धुँधली रेखाओं को देखती हुई बोली, “तुझे दूध पीकर आज खिलनमर्ग नहीं चलना है?”
“नहीं,” बच्चे ने उसकी टाँगों के सहारे उछलते हुए सपाट जवाब दिया, “मैं दूद पीतल पापा ते पाछ जाऊँदा।”
तीन दिन, तीन रातों से आकाश घिरा था। कोहरा धीरे-धीरे इतना घना हो गया था कि बालकनी से आगे कोई रूप, कोई रंग नज़र नहीं आता था। आकाश की पारदर्शिता पर जैसे गाढ़ा सफ़ेदा पोत दिया गया था। ज्यों-ज्यों वक़्त बीत रहा था, कोहरा और घना होता जा रहा था। कुरसी पर बैठे हुए प्रकाश को किसी-किसी क्षण महसूस होने लगता जैसे वह बालकनी पहाडिय़ों से घिरे खुले विस्तार में न होकर अन्तरिक्ष के किसी रहस्यमय प्रदेश में बनी हो—नीचे और ऊपर केवल आकाश ही आकाश हो—अतल में बालकनी की सत्ता अपने में पूर्ण और स्वतन्त्र एक लोक की तरह हो...।
उसकी आँखें इस तरह एकटक सामने देख रही थीं, जैसे आकाश और कोहरे में उसे कोई अर्थ ढूँढऩा हो—अपनी बालकनी के वहाँ होने का रहस्य जानना हो।
कोहरे के बादल कई-कई रूप लेकर हवा में इधर-उधर भटक रहे थे। अपनी गहराई में फैलते और सिमटते हुए वे अपनी थाह नहीं पा रहे थे। बीच में कहीं-कहीं देवदारों की फुनगियाँ एक हरी लकीर की तरह बाहर निकली थीं—कुहरीले आकाश पर लिखी गयी एक अनिश्चित-सी लिपि जैसी। देखते-देखते वह लकीर भी गुम हुई जा रही थी—कोहरे का उफान उसे भी रहने देना नहीं चाहता था। लकीर को मिटते देखकर प्रकाश के स्नायुओं में एक तनाव-सा भर रहा था—जैसे किसी भी तरह वह उस लकीर को मिटने से बचा लेना चाहता हो। परन्तु जब लकीर एक बार मिटकर फिर कोहरे से बाहर नहीं निकली, तो उसने सिर पीछे को डाल लिया और खुद भी कोहरे में कोहरा होकर पड़ रहा...। अतीत के कोहरे में कहीं वह दिन भी था जो चार साल में अब तक बीत नहीं सका था...।
बच्चे की पहली वर्षगाँठ थी उस दिन—वही उनके जीवन की भी सबसे बड़ी गाँठ बन गयी थी...।
ब्याह के कुछ महीने बाद से ही पति-पत्नी अलग रहने लगे थे। ब्याह के साथ जो सूत्र जुडऩा चाहिए था, वह जुड़ नहीं सका था। दोनों अलग-अलग जगह काम करते थे और अपना-अपना स्वतन्त्र ताना-बाना बुनकर जी रहे थे। लोकाचार के नाते साल-छ: महीने में कभी एक बार मिल लिया करते थे। वह लोकाचार ही इस बच्चे को दुनिया में ले आया था...।
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बीना समझती थी कि इस तरह जान-बूझकर उसे फँसा दिया गया है। प्रकाश सोचता था कि अनजाने में ही उससे एक कसूर हो गया है।
साल-भर बच्चा माँ के ही पास रहा था। बीच में बच्चे की दादी छ:-सात महीने उसके पास रह आयी थी।
पहली वर्षगाँठ पर बीना ने लिखा था कि वह बच्चे को लेकर अपने पिता के पास लखनऊ जा रही है। वहीं पर बच्चे के जन्म-दिन की पार्टी देगी।
प्रकाश ने उसे तार दिया था कि वह भी उस दिन लखनऊ आएगा। अपने एक मित्र के यहाँ हज़रतगंज में ठहरेगा। अच्छा होगा कि पार्टी वहीं दी जाए। लखनऊ के कुछ मित्रों को भी उसने सूचित कर दिया था कि बच्चे की वर्षगाँठ के अवसर पर वे उसके साथ चाय पीने के लिए आएँ।
उसने सोचा था कि बीना उसे स्टेशन पर मिल जाएगी, परन्तु वह नहीं मिली। हज़रतगंज पहुँचकर नहा-धो चुकने के बाद उसने बीना के पास सन्देश भेजा कि वह वहाँ पहुँच गया है, कुछ लोग साढ़े चार-पाँच बजे चाय पीने आएँगे, इससे पहले वह बच्चे को लेकर ज़रूर वहाँ आ जाए। मगर पाँच बजे, छ: बजे, सात बज गये—बीना बच्चे को लेकर नहीं आयी। दूसरी बार सन्देश भेजने पर पता चला कि वहाँ उन लोगों की पार्टी चल रही है। बीना ने कहला भेजा कि बच्चा आठ बजे तक खाली नहीं होगा, इसलिए वह अभी उसे लेकर नहीं आ सकती। प्रकाश ने अपने मित्रों को चाय पिलाकर विदा कर दिया। बच्चे के लिए ख़रीदे हुए उपहार बीना के पिता के यहाँ भेज दिये। साथ में यह सन्देश भेजा कि बच्चा जब भी खाली हो, उसे थोड़ी देर के लिए उसके पास ले आया जाए।
मगर आठ के बाद नौ बजे, दस बजे, बारह बज गये, पर बीना न तो खुद बच्चे को लेकर आयी, और न ही उसने उसे किसी और के साथ भेजा।
वह रात-भर सोया नहीं। उसके दिमाग़ की जैसे कोई छैनी से छीलता रहा।
सुबह उसने फिर बीना के पास सन्देश भेजा। इस बार बीना बच्चे को लेकर आ गयी। उसने बताया कि रात को पार्टी देर तक चलती रही, इसलिए उसका आना सम्भव नहीं हुआ। अगर सचमुच उसे बच्चे से प्यार था, तो उसे चाहिए था कि उपहार लेकर ख़ुद उनके यहाँ पार्टी में चला आता...।
उस दिन सुबह से शुरू हुई बातचीत आधी रात तक चलती रही। प्रकाश बार-बार कहता रहा, “बीना, मैं इसका पिता हूँ। उस नाते मुझे इतना अधिकार तो है ही कि मैं इसे अपने पास बुला सकूँ।”
परन्तु बीना का उत्तर था, “आपके पास पिता का दिल होता, तो आप पार्टी में न आ जाते? यह तो एक आकस्मिक घटना ही है कि आप इसके पिता हैं।”
“बीना!” वह फटी-फटी आँखों से उसके चेहरे की तरफ़ देखता रह गया, “मैं नहीं समझ पा रहा कि तुम दरअसल चाहती क्या हो!”
“मैं कुछ भी नहीं चाहती। आपसे मैं क्या चाहूँगी?”
“तुमने सोचा है कि तुम्हारे इस तरह व्यवहार करने से बच्चे का क्या होगा?”
“जब हम अपने ही बारे में कुछ नहीं सोच सके, तो इसके बारे में क्या सोचेंगे!”
“क्या तुम पसन्द करोगी कि बच्चे को मुझे सौंप दो और खुद स्वतन्त्र हो जाओ?”
“इसे आपको सौंप दूँ?” बीना के स्वर में वितृष्णा गहरी हो गयी, “किस चीज़ के भरोसे? कल को आपकी ज़िन्दगी क्या होगी, यह कौन कह सकता है? बच्चे को उस अनिश्चित ज़िन्दगी के भरोसे छोड़ दूँ—इतनी मूर्ख मैं नहीं हूँ।”
“तो क्या तुम यही चाहोगी कि इसका फ़ैसला करने के लिए अदालत में जाया जाए?”
“आप अदालत में जाना चाहें, तो मुझे कोई एतराज़ नहीं है। ज़रूरत पडऩे पर मैं सुप्रीम कोर्ट तक आपसे लड़ूँगी। आपका बच्चे पर कोई हक नहीं है।”
बच्चे को पिता से ज़्यादा माँ की ज़रूरत होती है—कई दिन, कई सप्ताह वह मन ही मन संघर्ष करता रहा। जहाँ उसे दोनों न मिल सकें वहाँ माँ तो उसे मिलनी ही चाहिए। अच्छा है, मैं बच्चे की बात भूल जाऊँ और नए सिरे से अपनी ज़िन्दगी शुरू करने की कोशिश करूँ...।”
मगर...।
“फि$जूल की भावुकता में कुछ नहीं रखा है। बच्चे-अच्चे तो होते ही रहते हैं। सम्बन्ध-विच्छेद करके फिर से ब्याह कर लिया जाए, तो घर में और बच्चे हो जाएँगे। मन में इतना ही सोच लेना होगा कि इस बच्चे के साथ कोई दुर्घटना हो गयी थी...।”
सोचने-सोचने में दिन, सप्ताह और महीने निकलते गये। मन में आशंका उठती—क्या सचमुच पहले की ज़िन्दगी को मिटाकर इन्सान नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू कर सकता है? ज़िन्दगी के कुछ वर्षों को वह एक दु:स्वप्न की तरह भूलने का प्रयत्न कर सकता है? कितने इन्सान हैं जिनकी ज़िन्दगी कहीं न कहीं, किसी न किसी दोराहे से ग़लत दिशा की तरफ़ भटक जाती है। क्या उचित यह नहीं कि इन्सान उस रास्ते को बदलकर अपने को सही दिशा में ले आये? आख़िर आदमी के पास एक ही तो ज़िन्दगी होती है—प्रयोग के लिए भी और जीने के लिए भी। तो क्यों आदमी एक प्रयोग की असफलता को ज़िन्दगी की असफलता मान ले? कोर्ट में काग़ज़ पर हस्ताक्षर करते समय छत के पंखे से टकराकर एक चिडिय़ा का बच्चा नीचे आ गिरा।
“हाय, चिडिय़ा मर गयी,” किसी ने कहा।
“मरी नहीं, अभी ज़िन्दा है,” कोई और बोला।
“चिडिय़ा नहीं है, चिडिय़ा का बच्चा है,” किसी तीसरे ने कहा।
“नहीं चिडिय़ा है।”
“नहीं, चिडिय़ा का बच्चा है।”
“इसे उठाकर बाहर हवा में छोड़ दो।”
“नहीं, यहीं पड़ा रहने दो। बाहर इसे कोई बिल्ली-विल्ली खा जाएगी।”
“पर यह यहाँ आया किस तरह?”
“जाने किस तरह? रोशनदान के रास्ते आ गया होगा।”
“बेचारा कैसे तड़प रहा है!”
“शुक्र है,पंखे ने इसे काट नहीं दिया।”
“काट दिया होता, तो बल्कि अच्छा था। अब इस तरह लुंजे पंखों से बेचारा क्या जिएगा!”
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तब तक पति-पत्नी दोनों ने काग़ज़ पर हस्ताक्षर कर दिए थे। बच्चा उस समय कोर्ट के अहाते में कौओं के पीछे भागता हुआ किलकारियाँ भर रहा था। वहाँ आसपास धूल उड़ रही थी और चारों तरफ़ मटियाली-सी धूप फैली थी...।
फिर दिन, सप्ताह और महीने...!
अढ़ाई साल गुज़र जाने पर भी वह फिर से ज़िन्दगी शुरू करने की बात तय नहीं कर पाया था। उस बीच बच्चा तीन बार उससे मिलने के लिए आया था। वह नौकर के साथ आता और दिन-भर उसके पास रहकर अँधेरा होने पर लौट जाता। पहली बार वह उससे शरमाता रहा था, मगर बाद में उससे हिल-मिल गया था। वह बच्चे को लेकर घूमने चला जाता, उसे आइसक्रीम खिलाता, खिलौने ले देता। बच्चा जाने के वक़्त हठ करता, “अबी नहीं दाऊँदा। दूद पीतल दाऊँदा। थाना थातल दाऊँगा।”
जब बच्चा इस तरह की बात कहता, तो उसके अन्दर कोई चीज़ दुखने लगती। उसका मन होता था कि नौकर को झिडक़कर वापस भेज दे और बच्चे को कम से कम रात भर के लिए अपने पास रख ले। जब नौकर बच्चे से कहता, “बाबा, चलो, अब देर हो रही है,” तो उसका मन एक हताश आवेश से काँपने लगता, और बहुत मुश्किल से वह अपने को सँभाल पाता। आख़िरी बार बच्चा रात के नौ बजे तक रुका रह गया तो एक अपरिचित व्यक्ति उसे लेने के लिए चला आया।
बच्चा उस समय उसकी गोदी में बैठा खाना खा रहा था।
“देखिए, अब बच्चे को भेज दीजिए, इसे बहुत देर हो गयी,” उस अनजबी ने कहा।
“आप देख रहे हैं, बच्चा खाना खा रहा है,” उसका मन हुआ कि मुक्का मारकर उस आदमी के दाँत तोड़ दे।
“हाँ-हाँ, आप खाना खिला लीजिए,” अजनबी ने उदारता के साथ कहा, “मैं नीचे इन्तज़ार कर रहा हूँ।”
गुस्से के मारे उसके हाथ इस तरह काँपने लगे कि उसके लिए बच्चे को खाना खिलाना असम्भव हो गया।
जब नौकर बच्चे को लेकर चला गया, तो उसने देखा कि बच्चे की टोपी वहीं रह गयी है। वह टोपी लिये हुए दौडक़र नीचे पहुँचा, तो देखा कि नौकर और अजनबी के अलावा बच्चे के साथ कोई और भी है—उसकी माँ। वे लोग चालीस-पचास गज़ आगे चल रहे थे। उसने नौकर को आवाज़ दी, तो चारों ने मुडक़र एक साथ उसकी तरफ़ देखा। फिर नौकर टोपी लेने के लिए लौट आया और शेष तीनों आगे चलने लगे।
उस रात कम्बल में मुँह-सिर लपेटकर वह देर तक रोता रहा।
तब नए सिरे से फिर वही सवाल उसके मन में उठने लगा। क्यों वह अपने को इस अतीत से पूरी तरह मुक्त नहीं कर लेता? अगर बसा हुआ घर-बार हो, तो उसकी चहल-पहल में वह इस दुख को भूल नहीं जाएगा? उसने अपने को इसीलिए तो बच्चे से अलग किया था कि अपनी ज़िन्दगी को एक नया मोड़ दे सके—फिर इस तरह अकेली ज़िन्दगी जीकर वह यह यन्त्रणा किसलिए सह रहा है?
परन्तु नए सिरे से ज़िन्दगी शुरू करने की कल्पना में सदा एक आशंका मिली रहती थी। वह जितना उस आशंका से लड़ता था, वह उतनी ही और तीव्र हो उठती थी—जब उसका एक प्रयोग सफल नहीं हुआ, तो कैसे कहा जा सकता था कि दूसरा प्रयोग सफल होगा?
वह पहले की भूल दोहराना नहीं चाहता था, इसलिए उसकी आशंका ने उसे बहुत सतर्क कर दिया था। वह जिस किसी लडक़ी को अपनी भावी पत्नी के रूप में देखता, उसके चेहरे में उसे अपने पहले जीवन की छाया नज़र आने लगती। हालाँकि वह स्पष्ट रूप से इस विषय में कुछ भी सोच नहीं पाता था, फिर भी उसे लगता कि वह किसी ऐसी ही लडक़ी के साथ जीवन बिता सकता है जो हर लिहाज़ से बीना के उलट हो। बीना में बहुत अहंकार था, वह उसके बराबर पढ़ी-लिखी थी, उससे ज़्यादा कमाती थी। उसे अपनी स्वतन्त्रता का बहुत मान था और उस पर भारी पड़ती थी। बातचीत भी वह खुले मरदाना ढंग से करती थी। वह अब एक ऐसी लडक़ी चाहता था जो हर लिहाज से उस पर निर्भर करे और जिसकी कमजोरियाँ एक पुरुष के आश्रय की अपेक्षा रखती हों।
कुछ ऐसी ही लडक़ी थी निर्मला—उसके मित्र कृष्ण जुनेजा की बहन। दो-बार उसने उस लडक़ी को जुनेजा के यहाँ देखा था। बहुत सीधी-सी लडक़ी थी। साधारण पढ़ी-लिखी थी और साधारण ढंग से ही रहती थी। छब्बीस-सत्ताईस की होकर भी देखने में वह अठारह-उन्नीस से ज़्यादा की नहीं लगती थी। वह जुनेजा के घर की कठिनाइयों को जानता था। उन कठिनाइयों के कारण ही शायद इतनी उम्र तक उस लडक़ी की शादी नहीं हो सकी थी। जब निर्मला के साथ उसके ब्याह की बात उठायी गयी, तो उसे सचमुच लगा कि उसकी ज़िन्दगी अब सही पटरी पर आ जाएगी। बात तय हो जाने के बाद उसे अपना-आप काफ़ी भरा-भरा-सा लगने लगा। हवा और आकाश में उसे एक और ही आकर्षण लगने लगा। निर्मला ब्याहकर घर में आयी भी नहीं थी कि वह शाम को लौटते हए फूलों की बेनियाँ ख़रीदकर घर लाने लगा। अपना पहला घर उसे छोटा लगने लगा, इसीलिए उसने एक बड़ा घर ले लिया और नया फ़र्नीचर ख़रीदकर उसे सजा दिया। पास में ज़्यादा पैसे नहीं थे, फिर भी कर्ज़ लेकर उसने निर्मला के लिए कितना कुछ बनवा डाला...।
निर्मला हँसती हुई उसके घर में आयी—मगर वह एक ऐसी हँसी थी जो हँसने का मौका न रहने पर भी थमने में नहीं आती थी।
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पहले कुछ दिन तो वह समझ नहीं सका कि वह हँसी क्या है। निर्मला कभी भी बिना बात के हँसना शुरू कर देती और देर तक हँसती रहती। वह हैरान होकर उसे देखता रहता। तीन-चार साल के बच्चे भी वैसे आकस्मिक ढंग से नहीं हँसते थे जैसे वह हँसती थी। कोई उसके सामने गिर जाए या कोई चीज़ किसी के हाथ से गिरकर टूट जाए, तो उसके लिए अपनी हँसी रोकना असम्भव हो जाता था। ऐसे में लगातार दस-दस मिनट तक वह हँसी से बेहाल रहती। वह उसे समझाने की चेष्टा करता कि ऐसी बातों पर नहीं हँसा जाता, तो निर्मला को और भी हँसी छूटती। वह उसे डाँट देता, तो वह उसी आकस्मिक ढंग से बिस्तर पर लेटकर हाथ-पैर पटकती हुई रोने लगती, चिल्ला-चिल्लाकर अपनी मरी हुई माँ को पुकारने लगती, और अन्त में बाल बिखेरकर देवी बन जाती और घर-भर को शाप देने लगती। कभी अपने कपड़े फाडक़र इधर-उधर छिपा देती, अपने गहने जूतों के अन्दर सँभाल देती। कभी अपनी बाँह पर फोड़े की कल्पना करके दो-दो दिन उसके दर्द से कराहती रहती और फिर सहसा स्वस्थ होकर कपड़े धोने लगती और सुबह से शाम तक कपड़े धोती रहती।
जब मन शान्त होता, तो मुँह गोल किये वह अँगूठा चूसने लगती।
उठते-बैठते, खाते-पीते, प्रकाश के सामने निर्मला के तरह-तरह के रूप आते रहते और उसका मन एक अन्धे कुएँ में भटकने लगता। रास्ता चलते हुए उसके मन में एक शून्य-सा घिर आता और वह भौंचक्का-सा सडक़ के किनारे खड़ा होकर सोचने लगता कि वह घर से क्यों आया है और कहाँ जा रहा है। उसका किसी से मिलने या कहीं भी आने-जाने को मन न होता। कई बार वह बिलकुल जड़ होकर देर-देर तक एक ही जगह खड़ा या बैठा रहता। एक बार सडक़ पर चलते हुए वह खम्भे से टकराकर नाली में गिर गया। एक बार बस पर चढऩे की कोशिश में नीचे गिर जाने से उसकी बुश्शर्ट पीछे से फट गयी और वह इससे बेख़बर दूसरी बस में चढक़र आगे चल दिया। उसे पता तब चला जब किसी ने रास्ते में उससे कहा, “जेंटलमैन, तुम्हें घर जाकर कपड़े बदल लेने चाहिए?”
उसे लगता जैसे वह जी न रहा हो, अन्दर ही अन्दर घुट रहा हो। क्या यही वह ज़िन्दगी थी जिसे पाने के लिए उसने इतने साल अपने से संघर्ष किया था?
उसे गुस्सा आता कि जुनेजा ने उसके साथ ऐसा क्यों किया? उस लडक़ी को मानसिक अस्पताल में भेजने की जगह उसका ब्याह क्यों कर दिया? उसने जुनेजा को इस सम्बन्ध में पत्र लिखे, परन्तु उसकी ओर से कोई उत्तर नहीं मिला। उसने जुनेजा को बुला भेजा, तो वह आया भी नहीं। वह स्वयं जुनेजा से मिलने गया, तो जवाब मिला कि निर्मला अब उसकी पत्नी है—उसके मायके के लोगों का उनकी ज़िन्दगी में कोई दख़ल नहीं है।
और निर्मला रात-दिन घर में उसी तरह हँसती और रोती रहती...!
“तुम मेरे भाई से क्या पूछने गये थे?” वह बाल बिखेरकर ‘देवी’ का रूप धारण किये हुए कहती, “तुम बीना की तरह मुझे भी तलाक़ देना चाहते हो? किसी तीसरी को घर में लाना चहाते हो? मगर मैं बीना नहीं हूँ। वह सती स्त्री नहीं थी। मैं सती स्त्री हूँ। तुम मुझे छोडऩे की बात मन में लाओगे, तो मैं इस घर को जलाकर भस्म कर दूँगी—सारे शहर में भूचाल ले आऊँगी। लाऊँ भूचाल?” और बाँहें फैलाकर वह चिल्लाने लगती, “आ भूचाल, आ...आ! मैं सती स्त्री हूँ, तो इस घर की ईंट से ईंट बजा दे। आ, आ, आ!”
वह उसे शान्त करने की चेष्टा करता, तो वह कहती, “देखो, तुम मुझसे दूर रहो। मेरे शरीर को हाथ मत लगाओ। मैं सती स्त्री हूँ। देवी हूँ। तुम मेरा सतीत्व नष्ट करना चाहते हो? मुझे ख़राब करना चाहते हो? मेरा तुमसे ब्याह कब हुआ है? मैं तो अभी कँवारी हूँ। छोटी-सी बच्ची हूँ। संसार का कोई भी पुरुष मुझे नहीं छू सकता। मैं आध्यात्मिक जीवन जीती हूँ। मुझे कोई छूकर देखे तो...।”
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और बाल बिखरे हुए इसी तरह बोलती-चिल्लाती कभी वह घर की छत पर पहुँच जाती और कभी बाहर निकलकर घर के आसपास चक्कर काटने लगती। उसने दो-एक बार होंठों पर हाथ रखकर निर्मला का मुँह बन्द करना चाहा, तो वह और भी ज़ोर से चिल्लाने लगी, “तुम मेरा मुँह बन्द करना चाहते हो? मेरा गला घोटना चाहते हो? मुझे मारना चाहते हो? तुम्हें पता है मैं देवी हूँ? मेरे चारों भाई चार शेर हैं! वे तुम्हें नोच-नोचकर खा जाएँगे। उन्हें पता है उसकी बहन देवी है। कोई मेरा बुरा चाहेगा, तो वे उसे उठाकर ले जाएँगे और काल-कोठरी में बन्द कर देंगे। मेरे बड़े भाई ने अभी-अभी नई कार ली है। मैं उसे चिट्ठी लिख दूँ, तो वह भी कार लेकर आ जाएगा, और हाथ-पैर बाँधकर तुम्हें कार में डालकर ले जाएगा। छ: महीने बन्द रखेगा, फिर छोड़ेगा। तुम्हें पता नहीं वे चारों के चारों शेर कितने ज़ालिम हैं? वे राक्षस हैं, राक्षस। आदमी की बोटी-बोटी काट दें और किसी को पता भी न चले। मगर मैं उन्हें नहीं बुलाऊँगी। मैं सती स्त्री हूँ, इसलिए अपने सत्य से ही अपनी रक्षा करूँगी...!”
सब कोशिशों से हारकर वह थका हुआ अपने पढऩे के कमरे में बन्द होकर पड़ जाता, तो भी आधी रात तक वह साथ के कमरे में उसी तरह बोलती रहती। फिर बोलते-बोलते अचानक चुप कर जाती और थोड़ी देर बाद उसका दरवाज़ा खटखटाने लगती।
“क्या बात है?” वह कहता।
“इस कमरे में मेरी साँस रुक रही है,” निर्मला जवाब देती, “दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है!”
“इस समय सो जाओ,” वह कहता, “सुबह तुम जहाँ कहोगी, वहाँ ले चलूँगा।”
“मैं कहती हूँ दरवाज़ा खोलो, मुझे अस्पताल जाना है,” और वह ज़ोर-ज़ोर से धक्के देकर दरवाज़ा तोडऩे लगती।
वह दरवाज़ा खोल देता, तो वह हँसती हुई उसके सामने आ जाती।
“तुम्हें हँसी किस बात की आ रही है?” वह कहता।
“तुम्हें लगता है मैं हँस रही हूँ?” निर्मला और भी ज़ोर से हँसने लगती, “यह हँसी नहीं, रोना है रोना।”
“तुम अस्पताल चलना चाहती हो?”
“क्यों?”
“अभी तुम कह रही थीं...!”
“मैं अस्पताल जाने के लिए कहाँ कह रही थी? मैं तो कह रही थी कि मुझे उस कमरे में डर लगता है, मैं यहाँ तुम्हारे पास सोऊँगी।”
“देखो निर्मला, इस समय मेरा मन ठीक नहीं है। तुम बाद में चाहे मेरे पास आ जाना, मगर इस समय थोड़ी देर...।”
“मैं कहती हूँ मैं अकेली उस कमरे में नहीं सो सकती। मेरे जैसी छोटी-सी बच्ची क्या कभी अकेली सो सकती है?”
“तुम छोटी बच्ची नहीं हो, निर्मला!”
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“तो तुम्हें मैं बड़ी नज़र आती हूँ? एक छोटी-सी बच्ची को बड़ी कहते तुम्हारे दिल को कुछ नहीं होता? इसलिए कि तुम मुझे अपने पास सुलाना नहीं चाहते? मगर मैं यहाँ से नहीं जाऊँगी। तुम्हें मुझे अपने साथ सुलाना पड़ेगा। मैं विधवा हूँ जो अकेली सोऊँगी? मैं सुहागिन स्त्री हूँ। कोई सुहागिन क्या कभी अकेली सोती है? मैं भाँवरें लेकर तुम्हारे घर में आयी हूँ, ऐसे ही उठाकर नहीं लायी गयी। देखती हूँ तुम कैसे मुझे उस कमरे में भेजते हो?” और वह उसके पास लेटकर उससे लिपट जाती।
कुछ देर में जब उसके स्नायु शान्त हो चुकते तो लगातार उसे चूमती हुई कहती, “मेरा सुहाग! मेरा चाँद! मेरे राजा! मैं तुम्हें कभी अपने से अलग रख सकती हूँ? तुम मेरे साथ एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जिओगे। मुझे यह वर मिला है कि मैं एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक सुहागिन रहूँगी। जिसकी भी मुझसे शादी होती, वह एक सौ छत्तीस साल की उम्र तक जीता। तुम देख लेना मेरी बात सच निकलती है या नहीं। मैं सती स्त्री हूँ और सती स्त्री के मुँह से निकली बात कभी झूठ नहीं होती...।”
“तुम सुबह मेरे साथ अस्पताल चलोगी?”
“क्यों, मुझे क्या हुआ है जो मैं अस्पताल जाऊँगी? मुझे तो आज तक कभी सिरदर्द भी नहीं हुआ। मैं अस्पताल क्यों जाऊँगी?”
एक दिन प्रकाश उसके लिए कई किताबें ख़रीद लाया। उसने सोचा था कि शायद पढऩे से निर्मला के मन को एक दिशा मिल जाए और वह धीरे-धीरे अपने मन के अँधेरे से बाहर निकलने लगे। मगर निर्मला ने उन किताबों को देखा, तो मुँह बिचकाकर एक तरफ़ हटा दिया।
“ये किताबें मैं तुम्हारे पढऩे के लिए लाया हूँ,” उसने कहा।
“मेरे पढऩे के लिए?” निर्मला हैरानी के साथ बोली, “मैं इन किताबों को पढक़र क्या करूँगी? मैंने तो माक्र्सवाद, मनोविज्ञान और सभी कुछ चौदह साल की उम्र में ही पढ़ लिया था। अब इतनी बड़ी होकर मैं ये किताबें पढऩे लगूँगी?”
और उसके पास से उठकर अँगूठा चूसती हुई वह दूसरे कमरे में चली गयी।
“पापा!”
कोहरे के बादलों में भटका मन सहसा बालकनी पर लौट आया। खिलनमर्ग की सडक़ पर बहुत-से लोग घोड़े दौड़ाते जा रहे थे—एक धुँधले चित्र की बुझी-बुझी आकृतियाँ जैसे कुछ वैसे ही बुझी-बुझी आकृतियाँ क्लब से बाज़ार की तरफ़ आ रही थीं। बायीं तरफ़ बर्फ़ से ढकी पहाड़ी की एक चोटी कोहरे से बाहर निकल आयी थी, और जाने किधर से आती धूप की एक किरण ने जिसे जगमगा दिया था। कोहरे में भटके कुछ पक्षी उड़ते हुए उस चोटी के सामने आ गये, तो सहसा उनके पंख सुनहरे हो उठे—मगर अगले ही क्षण वे फिर धुँधलके में खो गये।”
प्रकाश कुर्सी से उठ खड़ा हुआ और झाँककर नीचे सडक़ की तरफ़ देखने लगा। क्या वह आवाज़ पलाश की नहीं थी? मगर सडक़ पर दूर तक वैसी कोई आकृति दिखाई नहीं दे रही थी। आँखों से टूरिस्ट होटल के गेट तक जाकर वह लौट आया और गले पर हाथ रखकर जैसे निराशा की चुभन को रोके हुए फिर कुर्सी पर बैठ गया। दस के बाद ग्यारह, बारह और फिर एक बज गया था और बच्चा नहीं आया था। क्या बच्चे के पहले जन्मदिन की घटना आज फिर दोहराई जानी थी?
“पापा!”
प्रकाश ने चौंककर सिर उठाया। वही कोहरा और वही धुँधली सुनसान सडक़। दूर घोड़ों की टापें और धीमी चाल से उस तरफ़ को आता एक कश्मीरी मज़दूर! क्या वह आवाज़ उसे अपने कानों के अन्दर से सुनाई दे रही थी?
तभी कानों के अन्दर दो नन्हे पैरों की आवाज़ भी गूँज गयी और उसके बहुत पास बच्चे का स्वर किलक उठा, “पापा!” साथ ही दो नन्हीं बाँहें उसके गले से लिपट गयीं और बच्चे के झंडूले बाल उसके होंठों से छू गये।
प्रकाश ने बच्चे के शरीर को सिर से पैर तक छू लिया। फिर उसके माथे और आँखों को हल्के से चूम लिया।
“तो मैं जाऊँ, पलाश?” एक भूली हुई मगर परिचित आवाज़ ने प्रकाश को फिर चौंका दिया। उसने घूमकर पीछे देखा। कमरे के दरवाज़े के बाहर बीना दायीं तरफ़ न जाने किस चीज़ पर आँखें गड़ाए खड़ी थी।
“आप?...अन्दर आ जाइए आप...!” कहता हुआ वह बच्चे को बाँहों में लिये अस्तव्यस्त-सा कुर्सी से उठ खड़ा हुआ।
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“नहीं, मैं जा रही हूँ,” बीना ने फिर भी उसकी तरफ़ नहीं देखा। “मुझे इतना बता दीजिए कि बच्चा कब तक लौटकर आएगा।”
“आप...जब कहें, तभी भेज दूँगा।” प्रकाश बालकनी की दहलीज लाँघकर कमरे में आ गया।
“चार बजे इसे दूध पीना होता है।”
“तो चार बजे तक मैं इसे वहाँ पहुँचा दूँगा।”
“इसने हल्का-सा स्वेटर ही पहन रखा है। दूसरे पुलोवर की ज़रूरत तो नहीं पड़ेगी?”
“आप दे दीजिए। ज़रूरत पड़ेगी, तो मैं इसे पहना दूँगा।”
बीना ने दहलीज़ के उस तरफ़ से पुलोवर उसकी तरफ़ बढ़ा दिया। उसने पुलोवर लेकर उसे शाल की तरह बच्चे को ओढ़ा दिया। “आप...,” उसने बीना से फिर कहना चाहा कि अन्दर आ जाए, मगर उससे कहा नहीं गया। बीना चुपचाप जीने की तरफ़ चल दी। प्रकाश कमरे से निकल आया। जीने से बीना ने कहा, “देखिए, इसे आइसक्रीम वगैरह मत खिलाइएगा। इसका गला बहुत जल्द ख़राब हो जाता है।”
“अच्छा!”
बीना पल-भर रुकी रही। शायद उसे और भी कुछ कहना था। मगर फिर बिना कुछ कहे नीचे उतर गयी। बच्चा प्रकाश की बाँहों में उछलता हुआ हाथ हिलाता रहा, “ममी, टा टा! टा टा!” प्रकाश उसे लिये बालकनी पर लौट आया तो वह उसके गले में बाँहें डालकर बोला, “पापा, मैं आइछक्लीम जलूल थाऊँदा।”
“हाँ-हाँ बेटे!” प्रकाश उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगा, “जो तेरे मन में आए सो खाना।”
और कुछ देर वह अपने को, बालकनी को, और यहाँ तक कि बच्चे को भी भूला हुआ सामने कोहरे में देखता रहा।
कोहरे का पर्दा धीरे-धीरे उठने लगा, तो मीलों तक फैले हरियाली के रंगमंच की धुँधली रेखाएँ स्पष्ट हो उठीं।
वे दोनों गॉल्फ-ग्राउंड पार करके क्लब की तरफ़ जा रहे थे। चलते हुए बच्चे ने पूछा, “पापा, आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं? चार क्यों नहीं होतीं?”
प्रकाश ने चौंककर उसकी तरफ़ देखा और कहा, “अरे!”
“क्यों पापा,” बच्चा बोला, “तुमने अरे क्यों कहा है?”
“तू इतना साफ़ बोल सकता है, तो अब तक तुतलाकर क्यों बोल रहा था?” प्रकाश ने उसे बाँहों में उठाकर एक अभियुक्त की तरह सामने कर लिया। बच्चा खिलखिलाकर हँसा। प्रकाश को लगा कि यह वैसी ही हँसी है जैसी कभी वह स्वयं हँसा करता था। बच्चे के चेहरे की रेखाओं से भी उसे अपने बचपन के चेहरे की याद हो आयी। उसे लगा जैसे एकाएक उसका तीस साल पहले का चेहरा उसके सामने आ गया हो और वह ख़ुद उस चेहरे के सामने एक अभियुक्त की तरह खड़ा हो।
“ममी तो ऐछे ही अच्छा लदता है,” बच्चे ने कहा।
“क्यों?”
“मेले तो नहीं पता। तुम ममी छे पूछ लेना।”
“तेरी ममी तुझे जोर से हँसने से भी मना करती है?” प्रकाश को वे दिन याद आये जब उसके खिलखिलाकर हँसने पर बीना कानों पर हाथ रख लिया करती थी।
बच्चे की बाँहें उसकी गरदन के पास कस गयीं। “हाँ,” वह बोला, “ममी तहती है अच्छे बच्चे जोल छे नहीं हँछते।”
प्रकाश ने उसे बाँहों से उतार दिया। बच्चा उसकी उँगली पकड़े घास पर चलने लगा। “त्यों पापा,” उसने पूछा, “अच्छे बच्चे जोल छे त्यों नहीं हँछते?”
“हँसते हैं बेटा!” प्रकाश ने उसके सिर को सहलाते हुए कहा, “सब अच्छे बच्चे ज़ोर से हँसते हैं।”
“तो ममी मेले तो त्यों लोतती है?”
“अब वह तुझे नहीं रोकेगी। और तू तुतलाकर नहीं ठीक से बोला कर। तेरी ममी तुझे इसके लिए भी मना नहीं करेगी। मैं उससे कह दूँगा।”
“तो तुमने पहले ममी छे, त्यों नहीं तहा?”
“ऐसे नहीं, कह कि तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा।”
बच्चा फिर हँस दिया, “तो तुमने पहले ममी से क्यों नहीं कहा?”
“पहले मुझे याद नहीं रहा। अब याद से कह दूँगा।”
कुछ देर दोनों चुपचाप चलते रहे। फिर बच्चे ने पूछा, “पापा, तुम मेरे जन्मदिन की पार्टी में क्यों नहीं आये? ममी कहती थी तुम विलायत गये हुए थे।”
“हाँ, मैं विलायत गया हुआ था।”
“तो पापा, अब तुम विलायत नहीं जाना।”
“क्यों?”
“मेरे को अच्छा नहीं लगता। विलायत जाकर तुम्हारी शकल और ही तरह की हो गयी है।”
प्रकाश एक रूखी-सी हँसी हँसा, “कैसी हो गयी है शकल?”
“पता नहीं कैसी हो गयी है? पहले दूसरी तरह की थी, अब दूसरी तरह की है।”
“दूसरी तरह की कैसे?”
“पता नहीं। पहले तुम्हारे बाल काले-काले थे। अब सफ़ेद-सफ़ेद हो गये हैं।”
“तू इतने दिन मेरे पास नहीं आया, इसीलिए मेरे बाल सफ़ेद हो गये हैं।”
बच्चा इतने ज़ोर से हँसा कि उसके क़दम लडख़ड़ा गये। “पापा, तुम तो विलायत गये हुए थे,” उसने कहा, “मैं तुम्हारे पास कैसे आता? मैं क्या अकेला विलायत जा सकता हूँ?”
“क्यों नहीं जा सकता? तू इतना बड़ा तो है।”
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“मैं सचमुच बड़ा हूँ न पापा?” बच्चा ताली बजाता हुआ बोला, “तुम यह बात भी ममी से कह देना। वह कहती है मैं अभी बहुत छोटा हूँ। मैं छोटा नहीं हूँ न पापा!”
“नहीं, तू छोटा कहाँ है?” प्रकाश मैदान में दौडऩे लगा, “अच्छा भागकर मुझे पकड़।”
बच्चा अपनी छोटी-छोटी टाँगें पटकता हुआ दौडऩे लगा। प्रकाश को फिर अपने बचपन की याद आयी। उसे दौड़ते देखकर तब एक बार किसी ने कहा था, “अरे यह बच्चा कैसे टाँगें पटक-पटककर दौड़ता है! इसे ठीक से चलना नहीं आता क्या?”
बच्चे की उँगली पकड़े प्रकाश क्लब के बार-रूम में दाख़िल हुआ, तो बारमैन अब्दुल्ला उसे देखकर दूर से मुसकराया। “साहब के लिए दो बोतल बियर,” उसने पास खड़े बैरे से कहा, “साहब आज अपने साथ एक मेहमान को लाया है।”
“बच्चे के लिए एक गिलास पानी दे दो,” प्रकाश ने काउंटर के पास रुककर कहा, “इसे प्यास लगी है।”
“ख़ाली पानी?” अब्दुल्ला बच्चे के गालों को प्यार से सहलाने लगा। “और सब दोस्तों को तो साहब बियर पिलाता है और इस बेचारे को ख़ाली पानी?” और पानी की बोतल खोलकर वह गिलास में पानी डालने लगा। जब वह गिलास बच्चे के मुँह के पास ले गया, तो बच्चे ने यह अपने हाथ में ले लिया, “मैं अपने आप पिऊँगा,” उसने कहा, “मैं छोटा थोड़े ही हूँ? मैं तो बड़ा हूँ।”
“तू बड़ा है?” अब्दुल्ला हँसा, “तब तो तुझे पानी देकर मैंने ग़लती की है। बड़े लोगों को तो मैं बियर ही पिलाता हूँ।”
“बियर क्या होता है?” बच्चे ने मुँह से गिलास हटाकर पूछा।
“बियर होता नहीं, होती है।” अब्दुल्ला ने झुककर उसे चूम लिया, “तुझे पिलाऊँ क्या?”
“नहीं,” कहकर बच्चे ने अपनी बाँहें प्रकाश की तरफ़ फैला दीं। प्रकाश उसे लेकर ड्योढ़ी की तरफ़ चला, तो अब्दुल्ला भी उन दोनों के साथ-साथ बाहर चला आया, “किसका बच्चा है, साहब?” उसने पूछा।
“मेरा लडक़ा है,” कहकर प्रकाश बच्चे को सीढ़ी से नीचे उतारने लगा।
अब्दुल्ला हँस दिया। “साहब बहुत ख़ुशदिल आदमी है,” उसने कहा।
“क्यों?”
अब्दुल्ला हँसता हुआ सिर हिलाने लगा, “आपका भी जवाब नहीं है।”
प्रकाश कुछ कहने को हुआ, मगर अपने को रोककर बच्चे को लिये हुए आगे चल दिया। अब्दुल्ला ड्योढ़ी में रुककर पीछे से सिर हिलाता रहा। बैरा शेर मोहम्मद अन्दर से निकलकर आया, तो वह और भी खुलकर हँस दिया।
“क्या बात है? अकेला खड़ा कैसे हँस रहा है?” शेर मोहम्मद ने पूछा।
“साहब का भी जवाब नहीं है,” अब्दुल्ला किसी तरह हँसी पर काबू पाकर बोला।
“किस साहब का जवाब नहीं है?”
“उस साहब का,” अब्दुल्ला ने प्रकाश की तरफ़ इशारा किया, “उस दिन बोलता था कि इसने इसी साल शादी की है और आज बोलता है कि यह पाँच साल का बाबा इसका लडक़ा है। जब आया था, तो अकेला था। और आज इसके लडक़ा भी हो गया!” प्रकाश ने एक बार घूमकर तीखी नज़र से उसकी तरफ़ देख लिया। अब्दुल्ला एक बार फिर खिलखिला उठा। “ऐसा ख़ुशदिल आदमी मैंने आज तक नहीं देखा।”
“पापा, घास हरी क्यों होती है? लाल क्यों नहीं होती?” क्लब से निकलकर प्रकाश ने बच्चे को एक घोड़ा किराये पर ले दिया था। लिनेनमार्ग को जानेवाली पगडंडी पर वह खुद उसके साथ-साथ पैदल चल रहा था। घास के रेशमी फैलाव पर कोहरे का आकाश इस तरह झुका था जैसे अन्दर की उमड़ती वासना उसे अपने को उस पर दबा देने के लिए विवश कर रही हो। बच्चा उत्सुक आँखों से आसपास की पहाडिय़ों और सामने से बहकर जाती पानी की पतली धार को देख रहा था। कभी कुछ क्षण वह अपने को भूला रहता, फिर अपने अन्दर के किसी भाव से प्रेरित होकर काठी पर उछलने लगता।
“हर चीज़ का अपना रंग होता है,” प्रकाश ने बच्चे की जाँघ को हाथ से दबाए हुए कहा और कुछ देर खुद भी हरियाली के फैलाव में खोया रहा।
“हर चीज़ का अपना रंग क्यों होता है?”
“क्योंकि कुदरत ने हर चीज़ का अपना रंग बना दिया है।”
“कुदरत क्या होती है?”
प्रकाश ने झुककर उसकी जाँघ को चूम लिया। “कुदरत यह होती है,” उसने कहा। जाँघ पर गुदगुदी होने से बच्चा भी हँसने लगा।
“तुम झूठ बोलते हो,” उसने कहा।
“क्यों?”
“तुमको इसका पता ही नहीं है।”
“अच्छा, तो तू बता, घास का रंग हरा क्यों होता है?”
“घास मिट्टी के अन्दर से पैदा होती है, इसलिए इसका रंग हरा होता है।”
“अच्छा? तुझे इसका कैसे पता चल गया?”
बच्चा उछलता हुआ लगाम को झटकने लगा। “मेरे को ममी ने बताया था।”
प्रकाश के होंठों पर एक विकृत-सी मुस्कराहट आ गयी। उसे लगा जैसे आज भी उसके और बीना के बीच एक द्वन्द्व चल रहा हो और बीना उस द्वन्द्व में उस पर भारी पडऩे की चेष्टा कर रही हो। “तेरी ममी ने तुझे और क्या-क्या बता रखा है?” वह बोला, “यह भी बता रखा है कि आदमी के दो टाँगें क्यों होती हैं और चार क्यों नहीं?”
“हाँ। ममी कहती थी कि आदमी के दो टाँगें इसलिए होती हैं कि वह आधा ज़मीन पर चलता है, आधा आसमान में।”
“अच्छा?” प्रकाश के होंठों पर हँसी और मन में उदासी की एक रेखा फैल गयी, “मुझे इसका पता नहीं था।”
“तुमको तो किसी बात का भी पता नहीं है, पापा!” बच्चा बोला, “इतने बड़े होकर भी पता नहीं है!”
घास, बर्फ़ और आकाश के रंग दिन में कई-कई बार बदल जाते थे। बदलते रंगों के साथ मन भी और से और होने लगता था। सुबह उठते ही प्रकाश बच्चे के आने की प्रतीक्षा करने लगता। बार-बार वह बालकनी पर जाता और टूरिस्ट होटल की तरफ़ देखता हुआ देर-देर तक वहाँ खड़ा रहता। नाश्ता या खाना खाने जाने के लिए भी वह वहाँ से नहीं हटना चाहता था। उसे डर था कि बच्चा इस बीच वहाँ आकर लौट न जाए। तीन दिन में उसे साथ लिये वह कितनी ही बार घूमने के लिए गया था, उसके घोड़े के पीछे-पीछे दौड़ा था और उसके साथ घास पर लोटता रहा था। बच्चा जान-बूझकर रास्ते के कीचड़ में अपने पाँव लथपथ कर लेता और होंठ बिसूरकर कहता, “पापा, पाँव धो दो।” वह उसे उठाए इधर-उधर पानी ढूँढ़ता फिरता। बच्चे को वह जिस किसी कोण से देखता, उसी कोण से उसकी तस्वीर ले लेना चाहता। जब बच्चा थक जाता और लौटकर अपनी ममी के पास जाने का हठ करने लगता, तो वह उसे तरह-तरह के लालच देकर अपने पास रोक रखना चाहता। एक बार उसने बच्चे को अपनी माँ के साथ दूर से आते देखा और उतरकर नीचे चला गया। जब वह पास पहुँचा, तो बच्चा दौडक़र उसकी तरफ़ आने की जगह माँ के साथ फोटोग्राफर की दुकान के अन्दर चला गया। वह कुछ देर सडक़ पर रुका रहा, फिर यह सोचकर ऊपर चला आया कि फोटोग्राफर की दुकान से निकलकर बच्चा अपने-आप ऊपर आ जाएगा। मगर बालकनी पर खड़े-खड़े उसने देखा कि बच्चा दुकान से निकलकर उस तरफ़ आने की बजाय हठ के साथ अपनी माँ का हाथ खींचता हुआ उसे वापस टूरिस्ट होटल की तरफ़ ले जा रहा है। उसका मन हुआ कि फिर नीचे जाकर बच्चे को अपने साथ ले आये, मगर कोई चीज़ उसके पैरों को रोके रही और वह वहीं खड़ा उसे देखता रहा। शाम तक न जाने कितनी बार वह बालकनी पर आया और कितनी-कितनी देर वहाँ खड़ा रहा। आख़िर उससे नहीं रहा गया, तो उसने नीचे जाकर कुछ चेरी ख़रीदी और बच्चे को देने के बहाने टूरिस्ट होटल की तरफ़ चल दिया। अभी वह टूरिस्ट होटल से कुछ फ़ासले पर था कि बच्चा अपनी माँ के साथ बाहर आता दिखाई दिया। मगर उस पर नज़र पड़ते ही वह वापस होटल की गैलरी में भाग गया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
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