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24-07-2021, 06:04 PM
(This post was last modified: 24-07-2021, 06:09 PM by usaiha2. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
वो सत्ताईस दिन...
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( ये आज से करीब 5000 साल पहले की एक काल्पनिक पौराणिक गाथा है, इसलिए जहाँ तक संभव हो सका है, मैंने उस समयानुसार कहानी लेखन में अपने शब्दों का चयन किया है, कहानी बयां करते समय Modern शब्दों का प्रयोग है और किरदारों के बातचीत के समय उस वक़्त की बोलने की शैली. कितना सफल रहा हूँ, ये मैं पाठकों पर छोड़ता हूँ )
(RoccoSam - original writer)
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" ये आप कैसी बातें कर रहें हैं पुरोहित जी ? ". महारानी वैदेही ने अचंभित होकर पुरोहित जी से पूछा, और फिर महाराजा नंदवर्मन की ओर देखने लगी, ताकि वो भी कुछ बोलें, मगर वे चुप रहें, और कुछ सोचने लगें.
" क्षमा चाहता हूँ महारानी जी, मगर मेरे वचन असत्य नहीं हो सकतें ! ". पुरोहित जी ने बड़े ही आदरपूर्वक कहा और अपना सर झुका लिया.
" लेकिन ऐसा तो हमने कभी नहीं सुना, अगर ऐसा हुआ तो फिर... ". महारानी ने कहा.
" पुरोहित जी, काफ़ी रात हो चुकी है, अब आप आइये... ". महारानी की बात बीच में ही काटते हुए महाराजा नंदवर्मन ने कहा. " और हाँ... कल कृपया दिन की घड़ी में आ जाइएगा, हम चाहते हैं की ये बात आप स्वयं हमारी पुत्री, दोनों पुत्रों और बड़ी कुलवधु के सामने कहें. आपके इस विचित्र कथन के बारे में हमें उनकी भी राय जाननी है ! ".
" जो आज्ञा महाराज... ". कहकर पुरोहित जी उठ खड़े हुए और महाराजा और महारानी को चिंतित छोड़ कर वहाँ से चले गएँ...
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राजकुमार देववर्मन के शयनकक्ष में सारे दीये बुझा कर कुछेक दीये ही जलाये रखे गये थें, जिससे की कमरे में बस हल्की झिलमिलाती रौशनी रहे. सारे दास दासीयों को बाहर निकाल दिया गया था, और कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद था.
बिस्तर पर चित्रांगदा अपने पीठ के बल लेटी हुई थी, उसके शरीर पर कपड़े का एक टुकड़ा मात्र तक नहीं था, और ना ही कोई गहना या आभूषण, यहाँ तक की उसने अपने कानों के झुमके, नाक की नथ, माथे का मांगटीका, गले का मंगलसूत्र, सोने की कमरबंद और पैरों की पायल तक खोल रखी थी !
चित्रांगदा के नंगे शरीर पर राजकुमार विजयवर्मन चढ़े हुए थें, जिन्हे चित्रांगदा ने अपनी बाहों में जकड़ रखा था, और अपनी गोरी टांगें उनके कमर से कस कर लपेट रखी थी, वो कमर, जिसे राजकुमार विजयवर्मन चित्रांगदा के जाँघों के बीच धीरे धीरे आगे - पीछे आगे - पीछे करते हुए उसे चोद रहें थें. वहीँ ठीक बगल में बिस्तर पर राजकुमार देववर्मन एक लंबे बड़े तकिये का सहारा लिए हुए आधे लेटे लेटे ये सब देख रहें थें. उनकी आँखे बड़ी हो चली थीं, मानो उनके सामने जो कुछ भी हो रहा था, उसका कोई भी अंश गलती से भी देखने से चूकना ना चाहते हों, उनके जबड़े खुले हुए थें, और वो अपने एक हाथ में अपना खड़ा लण्ड लिए उसे आहिस्ते आहिस्ते हिला रहें थें.
" आआआआआहहहहहह... ". चित्रांगदा अकस्मात ही सिसक उठी, उसने एक हाथ से अपने ऊपर चढ़े राजकुमार विजयवर्मन के लंबे बाल भींच कर पकड़ लिए और दूसरा हाथ राजकुमार देववर्मन की ओर बढ़ा दिया, जिसे तुरंत उन्होंने अपने हाथ में थाम लिया और उसकी नरम हथेली को अपने हाथ से दबाने लगें, मानो उसे कामसांत्वना दे रहें हो.
राजकुमार देववर्मन समझ गएँ की चित्रांगदा चरमसुख को प्राप्त करने ही वाली है, और इसीलिए वो अपना लण्ड भी अब ज़ोर ज़ोर से अपने हाथ में मसलने लगें, ताकि वो भी उसके साथ साथ स्खलित हो जायें. मगर ठीक तभी राजकुमार विजयवर्मन एक झटके के साथ खुद को चित्रांगदा की पकड़ से छुड़ाते हुए उसके बदन से अलग हो गएँ और वहीँ बिस्तर पर अपने घुटनों के बल बैठ गएँ !
" क्षमा कीजिये भाभी... आज मुझसे नहीं हो रहा !!! ". राजकुमार विजयवर्मन ने अपने दोनों हाथों से अपना लण्ड ढंक लिया और अपना सिर नीचे झुका कर आँखे शर्म से नीचे कर ली.
राजकुमार विजयवर्मन ने चित्रांगदा का साथ ऐसे समय में छोड़ा था जब उसका चूत - रस फफकने ही वाला था, असमंजस में पड़ी बेचारी अब समझ नहीं पा रही थी की क्या करे, तो तुरंत उसने अपनी जाँघे आपस में कस कर सटा ली, जिससे झड़ने के निकट पहुँच चुकी चूत की बेचैनी थोड़ी तो कम हो, और फिर आँखे मूंदे अपने चूत के पानी का वापस बच्चेदानी में लौट जाने का इंतज़ार करने लगी !
" ये कैसा असभ्य व्यवहार है अनुज ??? ". अपना लण्ड हिलाना छोड़ कर राजकुमार देववर्मन अपने छोटे भाई पर गुस्से से बौखला उठें.
चित्रांगदा थोड़ी सी सामान्य हुई, तो उसने अपनी आँखे खोली और राजकुमार देववर्मन की ओर देख कर उन्हें शांत रहने का इशारा किया, और फिर अपने एक हाथ से राजकुमार विजयवर्मन की टांगों के बीच घुसे उनके दोनों हाथों को पकड़ कर एक तरफ हटा दिया तो उनका नंगा लण्ड बाहर निकल आया. राजकुमार विजयवर्मन का लण्ड ढीला पड़ कर नीचे झूल रहा था !
" हम्म्म्ममममम...तो ये बात है ! ". चित्रांगदा ने राजकुमार विजयवर्मन का लण्ड अपने हाथ में लेकर ऐसे कहा मानो कोई राज़ की बात अभी अभी समझी हो. ढीला पड़ जाने की वजह से लण्ड के मुँह की चमड़ी सुपाड़े पर नीचे सरक कर उसे पूरी तरह से ढंक चुकी थी , चित्रांगदा ने लण्ड की चमड़ी को अपने हाथ से पीछे खिसका कर सुपाड़ा वापस से खोल दिया, और राजकुमार देववर्मन को दिखाते हुए बोली. " आज तो देवर जी के लिंग से एक बूंद भर भी कामरस नहीं निकला है... देखिये, सूखा है अभी तक ! "
" क्या आपको आपकी भाभी अब आकर्षक नहीं लग रही भाई ??? आप इस तरह से उनका अपमान नहीं कर सकतें ! ". राजकुमार देववर्मन ने अपने लण्ड पर चादर रख कर उसे ढंकते हुए सख़्त स्वर में कहा, उनका खड़ा लण्ड भी अब धीरे धीरे नरम पड़ने लगा था.
" मैंने भाभी का अनादर करने के उद्धेश्य से ऐसा नहीं किया भैया... ". राजकुमार विजयवर्मन ने धीमी आवाज़ में कहा, उनमें अपने ज्येष्ठ भ्राता की बातों का सामना करने का साहस कतई नहीं था.
" क्रोधित मत होइए राजकुमार... मैं जानती हूँ की देवर जी ने ऐसा जानबूझकर नहीं किया है ! ". चित्रांगदा ने अपने पति राजकुमार देववर्मन से कहा, फिर तिरछी नज़रों से राजकुमार विजयवर्मन को देखते हुए अपने होंठ टेढ़े करके मुस्कुराई, और बोली. " दोष इनका नहीं, इनके प्रेम का है. देवर जी प्रेम के मोहपास में फंस चुके हैं !!! ".
" प्रेम ??? किस से ? ". राजकुमार देववर्मन के गुस्से का स्थान अब उनके कौतुहल ने ले लिया था.
" आप तो ऐसे पूछ रहें हैं जैसे आपको ज्ञात ही ना हो ! ". चित्रांगदा ने अपनी आँखे नचाते हुए कहा. " पूरे राज्य को पता है, सिवाय महाराज और महारानी के ! ".
राजकुमार देववर्मन को मानो अब भी कुछ समझ नहीं आया, वो बेवकूफ़ की तरह अपनी पत्नि चित्रांगदा और अपने छोटे भाई राजकुमार विजयवर्मन को देखने लगें.
" और भला कौन ? राजकुमारी अवंतिका ! ". चित्रांगदा ने ऐसे कहा जैसे ये कोई सामान्य सी बात हो, और फिर राजकुमार विजयवर्मन के नंगे पेट पर धीरे से अपनी उंगलियां दौड़ाते हुए बोली. " क्यूँ ... है ना देवर जी ??? ".
राजकुमार विजयवर्मन चुप रहें, उनके गाल शर्म से लाल हो गएँ थें. राजकुमार देववर्मन ने उन्हें कुछ क्षण घूरा, मानो उनके जवाब का इंतज़ार कर रहें हो ताकि इस बात की पुष्टि हो सके की चित्रांगदा सच बोल रही है या झूठ, और फिर उनकी चुप्पी से खुद ही सच्चाई का अंदाजा लगा लिया, और ठहाका मारकर ज़ोर से हँस पड़े !
हँसते हँसते राजकुमार देववर्मन के पेट में बल पड़ गएँ, वो अपना पेट अपने हाथ से दबाने लगें, फिर उन्हें खांसी आने लगी, और बड़ी मुश्किल से अपनी हँसी रोक कर उन्होंने अपने छोटे भाई की ओर देखकर कहा .
" बुरा ना मानना अनुज... मैं आप पर नहीं, अपनी मुर्खता पर हँस रहा था ! भला मैं ये बात भूल कैसे गया ? ". फिर थोड़ा सोचकर पूछ बैठे. " वैसे... क्या अवंतिका भी आपसे प्रेम करती है ??? ".
अपने छोटे भाई को चुप देखकर राजकुमार देववर्मन फिर से बोलें.
" अरे हाँ.. ये कैसा प्रश्न हुआ ? अवश्य करती होंगी... एक बहन को अपने भाई से जितना प्रेम करना उचित है, कम से कम उतना तो अवश्य ही करतीं होंगी !!! ".
और फिर से ज़ोरदार ठहाका मारकर हँसने लगें.
चित्रांगदा भी मुँह दबाकर हँसती रही, मगर कुछ बोली नहीं.
राजकुमार विजयवर्मन के लिए ये हँसी ठिठोली अब असहनीय हो रही थी, वो बिस्तर से उठ कर जाने को हुए की अचानक से चित्रांगदा ने उनका हाथ पकड़ कर उन्हें रोक लिया, और नरम स्वर में उन्हें मनाती हुई बोली.
" आपके भैया मात्र आपको तंग कर रहें हैं, बुरा मत मानिये देवर जी ! ".
मगर राजकुमार देववर्मन के मन में सिर्फ अपने छोटे भाई के साथ मज़ाक करने की भावना भर ही नहीं थी... कुछ और भी था, तभी तो उन्होंने फिर से पूछा.
" अवंतिका जानती है की आप उससे प्रेम करतें हैं ? ".
राजकुमार विजयवर्मन चुप रहें, उन्हें अब किसी तरह की बात करने की इच्छा ही नहीं हो रही थी.
" उसका चुम्बन तो लिया होगा ??? ".
राजकुमार विजयवर्मन अब भी चुप रहें.
" उसका शरीर तो छुआ होगा... मेरा मतलब है, उसके स्तन, उसकी कमर, उसकी जंघा, या फिर उसके नितंब ??? वैसे मेरी पूछो तो मुझे तो उसके पुष्ट नितंब ही ज़्यादा भाते हैं !!! ".
राजकुमार विजयवर्मन और चित्रांगदा, दोनों भली भांति जानते थें की राजकुमार देववर्मन सिर्फ हँसी मज़ाक नहीं कर रहें थें, क्यूंकि ये अश्लील बातें करते करते चादर में लिपटा उनका लण्ड अब फूलने लगा था, वो सचमुच में अपनी गंदी बातों का खुद ही आनंद भी उठा रहें थें !
चरमोत्कर्ष की सीमा तक पहुँच कर अनायास ही रुक चुकी चित्रांगदा को इस वक़्त सिर्फ और सिर्फ एक सख़्त लण्ड की ज़रूरत थी, वो चाहे अपने देवर का हो या अपने पति का. और यही कारण था की अपने पति का अपनी सगी छोटी बहन के बारे में सोचकर उत्तेजित होने जैसी शर्मनाक बात से भी उसे अब कोई फर्क नहीं पड़ता था, उसे तो बस इस बात की ख़ुशी थी की उसके पति के लण्ड में फिर से कड़ापन आने लगा था ! चित्रांगदा अपने देवर राजकुमार विजयवर्मन को छोड़ अब सरक कर अपने पति राजकुमार देववर्मन से जा चिपटी, और चादर के ऊपर से ही उनका लण्ड अपनी मुट्ठी में पकड़ कर घिसने रगड़ने लगी.
" अच्छा चलो... कभी उसे पूर्णतः नग्न अवस्था में तो देखा ही होगा ??? की नहीं ??? ". राजकुमार देववर्मन ने अपनी पत्नि की चूचियाँ सहलाते हुए पूछा.
राजकुमार विजयवर्मन के सब्र का बाँध टूट चुका था, मगर फिर भी किसी तरह उन्होंने अपने गुस्से को काबू में करते हुए, जितना संभव हो सके, नम्र स्वर में अपने बड़े भाई से कहा.
" क्षमा चाहूंगा भैया... मगर अवंतिका सिर्फ मेरी ही नहीं, हम दोनों की छोटी बहन है. आपको उसके बारे में ऐसी अभद्र भाषा का प्रयोग करना शोभा नहीं देता !!! ".
" और आपको शोभा देता है अनुज ??? ". राजकुमार देववर्मन ने आँखे बाहर निकाल कर कहा.
" भाभी ने ठीक ही कहा है भैया... मैं अवंतिका से प्रेम करता हूँ. मेरे मन में उसके प्रति कोई गन्दी भावना या विचार नहीं है... ". राजकुमार विजयवर्मन ने अपना सिर उठाकर जवाब दिया.
राजकुमार देववर्मन ने अपने छोटे भाई की इस बात का कोई विरोध नहीं किया, चुप रहें, अपनी पत्नि को आगे बढ़कर चूम लिया, और फिर बोलें.
" वैसे मैंने सुना है की अभी अभी पुरोहित जी आकर गएँ हैं, माताश्री और पिताश्री से अवंतिका के विवाह के बारे में बात करने हेतु ! ".
" आपने बिल्कुल सही सुना है राजकुमार... ". चित्रांगदा ने अपने पति के चौड़े सीने के बालों में उंगली फेरते हुए, राजकुमार विजयवर्मन की ओर देखकर कहा. " मरूराज्य नरेश हर्षपाल के शौर्य की गाथा कौन नहीं जानता ? उम्र में थोड़े बड़े हैं, और उनकी 23 और भी रानीयां हैं, मगर हमारी अवंतिका जैसी रूप सौंदर्य वाली रानी कोई नहीं होगी, इसपर तो मैं किसी से भी शर्त लगा सकती हूँ !!! "
राजकुमार देववर्मन के चेहरे पर ख़ुशी की एक मुस्कान खेल गई, वो अपने छोटे भाई को देखते हुए इस बात पर उसकी प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगें, मगर राजकुमार विजयवर्मन के मुँह से एक शब्द भी ना निकला, उन्हें पता था की ये सत्य है.
" अब आप क्या करेंगे अनुज ? आपकी प्रेमकथा तो प्रारम्भ होने से पहले ही समाप्त हो गई लगती है ! ". राजकुमार देववर्मन बोलें.
चित्रांगदा ने मुस्कुरा कर एक नज़र अपने देवर को देखा, फिर करवट बदल कर अपने पति के ऊपर चढ़ कर उनकी गोद में बैठ गई. उसकी टांगों से रगड़ खाकर राजकुमार देववर्मन के कमर से लिपटी चादर एक ओर खिसक गई, और उनका तना हुआ लण्ड छिटक कर बाहर निकल आया और चित्रांगदा के पेट से चिपक गया.
" हर्षपाल का तो पता नहीं, मगर देखो, अवंतिका ने मेरे लिंग की क्या दशा कर डाली है !!! ". राजकुमार देववर्मन ने बड़ी ही निर्लज्जतापूर्वक अपने लण्ड की ओर इशारा करते हुए अपने छोटे भाई से कहा.
राजकुमार विजयवर्मन ने घृणावश अपना मुँह घुमा लिया.
अपने ज्येष्ठ भ्राता से इस बात पर बहस करने के लिए उन्हें भी उनकी तरह ही नीचे गिर कर बात करनी होगी. नम्र स्वाभाव वाले राजकुमार विजयवर्मन को ना ही ये मंजूर था, और ना ही वो ऐसा करने में सक्षम थें. वैसे उन्हें पता था की उनके बड़े भैया ऐसी बातें क्यूँ कर रहें हैं और उनके मन में किस बात का द्वेष है . राजकुमार देववर्मन चित्रांगदा से अपने विवाह के पहले अपनी बहन अवंतिका को अनेको बार अपना प्रेम प्रस्ताव दे चुके थें, मगर राजकुमारी अवंतिका ने हर बार उन्हें बड़ी ही विनम्रता और शालीनता के साथ इंकार कर दिया था, क्यूंकि वो जानती थी की ये उनकी प्रेम इच्छा नहीं, बल्कि काम इच्छा थी ! अपने इस तिरस्कार और अस्वीकार से हुए अपमान को राजकुमार देववर्मन आजीवन नहीं भूल पाए थें. और उससे भी बड़ी बात जो उन्हें हमेशा खटकती थी, वो ये थी की, राजकुमारी अवंतिका का शुरु से ही राजकुमार विजयवर्मन के प्रति रुझान रहा था !!!
" वैसे मैंने राजकुमारी अवंतिका को नग्न अवस्था में देखा है... कई बार... और हर रोज़ देखती हूँ !!! ". चित्रांगदा ने अपने पति की गोद में बैठे हुए अपनी गांड़ धीरे धीरे हिलाते हुए कहा.
" कैसे... कैसे ??? ". उत्साहित होकर राजकुमार देववर्मन ने अपनी पत्नि की कमर पकड़ कर मरोड़ डाली .
" नहाते समय... हम स्त्रीयों के गुसलखाने में... और कहाँ ??? ". चित्रांगदा ने मुस्कुरा कर कहा.
" तनिक बताओ तो वो बिना वस्त्र के कैसी दिखती है. आपके देवर जी भी सुनना चाहेंगे, देखने का तो सौभाग्य उन्हें मिलने से रहा ! ". राजकुमार देववर्मन ने कहा.
" मुझे आज्ञा दीजिये... ". कहकर राजकुमार विजयवर्मन बिस्तर से उतरकर नीचे खड़े हो गएँ और अपने कपड़े उठाने ही वाले थें की उनके बड़े भाई ने उन्हें सख़्ती से रोक लिया.
" आप अभी यहीं रुकेंगे अनुज... सुन कर तो जाइये ! "
" मुझे कोई रूचि नहीं... ". राजकुमार विजयवर्मन ने धीरे से कहा.
" कोई बात नहीं... मैं आग्रह नहीं करूँगा ! ". राजकुमार देववर्मन झट से बोलें, फिर चित्रांगदा के कमर पर थप्पड़ मार कर उसे कुछ इशारा किया, इशारा समझते ही चित्रांगदा ने अपनी गांड़ थोड़ी सी ऊपर उठाई और एक हाथ से राजकुमार देववर्मन का लण्ड पकड़ कर अपनी चूत में घुसेड़ कर वापस उनकी गोद में बैठ गई. राजकुमार देववर्मन ने चित्रांगदा के जाँघों को सहलाते हुए वापस अपने छोटे भाई की ओर देखते हुए उनसे कहा. " कम से कम आज आपने अपनी भाभी का जो अपमान किया है, उसकी भरपाई तो करते जाइये. और हाँ, ये भी देखते जाइये, की मैं नपुंसक नहीं हूँ !!! ".
राजकुमार विजयवर्मन जहाँ थें, वहीँ खड़े रह गएँ, उन्हें पता था की उनके बड़े भाई ने एक बार जो आदेश दे दिया, तो बस दे दिया !
" अब अवंतिका के बारे में बताओ प्रिये !!! ". राजकुमार देववर्मन ने चित्रांगदा के गांड़ की दोनों गोलाईयों को अपने हाथों से दबाते हुए कहा.
चित्रांगदा ने आगे झुक कर अपने दोनों हाथ अपने पति के चौड़े सीने पर टिका दिये, और फिर धीरे धीरे अपनी गांड़ ऊपर नीचे करते हुए उन्हें चोदते हुए कहना शुरू किया.
" ननद जी कोई आम राजकुमारी नहीं, साक्षात् काम की देवी लगती हैं, जब वो निर्वस्त्र होकर नहाने के लिए पानी में उतरती है ! उनकी सुराहीदार गर्दन नीचे छोटे कंधो से होती हुई उनकी छाती तक पहुँचती है, जहाँ उनके कसे हुए वक्ष सदैव ऊपर कि ओर ही उठे हुए रहते हैं. ".
" रुको मत प्रिये... और बताओ ! ". राजकुमार देववर्मन ने गहरी साँसे लेते हुए कहा, और अपनी आँखे बंद कर ली.
चित्रांगदा उनकी गोद में बैठी अपनी कमर नचाते हुए कभी उन्हें तो कभी राजकुमार विजयवर्मन को देखते हुए बोलती रही.
" ऊँचे वक्षस्थल नीचे की ओर पतली लचकदार कमर में परिवर्तित हो गई है. उनकी नाभी गोल नहीं, बल्कि एक लम्बी संकरी छोटी सी लकीर मात्र है. "
" और... और... ". राजकुमार देववर्मन के मुँह से निकला.
उन्होंने अपनी आँखे बंद ही रखी थीं. ज़ाहिर था की अपनी पत्नि के मुँह से निकले अपने बहन के शरीर के वर्णन के शब्द उन्हें कामोत्तेजित कर रहें थें. चित्रांगदा ने अपनी कमर हिलाने की गति थोड़ी सी बढ़ा दी और फिर आगे कहना जारी रखा.
" उनकी नाभी से होते हुए उनका पेट नीचे ढलान से मुड़ कर उनकी योनि में जाकर विलीन हो जाता है, और पीछे की ओर विशालकाय, मगर गोल और सुडॉल नितंब में बदल कर बाहर की ओर पुनः निकल पड़ता है. "
" अअअअअहहहहहह ... प्रिये... बहुत खूब... ". राजकुमार देववर्मन के मुँह से गरम आह निकली.
चित्रांगदा ने महसूस किया की उनके पति का लण्ड उसकी चूत में हर क्षण फूलता ही जा रहा रहा था, उसने अपने पति को इतना ज़्यादा उत्तेजित कभी नहीं देखा था... जब उनके सामने राजकुमार विजयवर्मन उसे चोदते हैं, तब भी नहीं !!!
चित्रांगदा ने अपनी ननद राजकुमारी अवंतिका का दैहिक वर्णन जारी रखा.
" उनकी कोमल मांसल जांघे आपस में हमेशा सटी हुई रहती हैं और इसी कारणवश अगर वो आपके सामने आकर पूर्णतः नंगी भी खड़ी हो जायें, तो उनकी योनि उनकी जंघा के बीच इस भांति छुप जाती है की उसके दर्शन हो पाना दुर्लभ है ! "
" हम्म्म्म... मममममममम... अवंतिका !!! ". राजकुमार देववर्मन ने ऐसे कहा मानो उन्हें साँस लेने में कठिनाई हो रही हो.
राजकुमार विजयवर्मन चुपचाप खड़े सब कुछ देखते हुए बस इस घिनौने खेल के अंत की प्रतीक्षा कर रहें थें.
" राजकुमारी अवंतिका की योनि पर अवस्थित रेशम से भी ज़्यादा मुलायम काले घुंघराले केश ऐसे लगते हैं मानो... ".
" बस... बस... रुको प्रिये... बस !!! ".
अपनी पत्नि की बात बीच में ही काटते हुए राजकुमार देववर्मन अचानक से चिल्ला उठें. उन्होंने चित्रांगदा की जाँघों को कस कर पकड़ लिया, उनका पूरा शरीर कांपने लगा, फिर अकड़ कर कठोर हो गया, उनका सिर तकिये से लुढ़क कर नीचे गिर गया, और ठीक उसी पल अतिउत्तेजना की अग्नि में जल रहे उनके लण्ड ने अपनी पत्नि की चूत को वीर्य की गाढ़ी उल्टीयों से भर दिया. वीर्य की गरम धारों की चोट चूत की नरम अंदरूनी दीवारों पर पड़ी, तो चित्रांगदा की बच्चेदानी में जमा पानी भी उमड़ पड़ा, और चूत के रास्ते होते हुए अंदर फंसे लण्ड के किनारों से रिस रिस कर बाहर बहने लगा ! चित्रांगदा की चूत ने इतनी ढेर सारी मलाई छोड़ी थी की उसके पूरे बदन में एक कंपकंपी सी दौड़ गई, और वो मूर्छित होकर अपने पति के शरीर पर गिर पड़ी !!!
बिस्तर पर बेजान पड़े राजकुमार देववर्मन का अपने शरीर पर कोई नियंत्रण ना रहा, अपने ऊपर किसी निर्जीव प्राणी की भांति लेटी हुई अपनी पत्नि की चूत में वो करीब दस मिनट तक अपना वीर्य निकालते रहें ! आज से पहले कभी भी उनका वीर्यस्खलन इतना लम्बा नहीं चला था !!!
काफ़ी देर तक दोनों पति पत्नि उसी तरह बिस्तर पर पड़े रहें, चित्रांगदा की चूत का सारा रस जब झड़ गया, तो उसकी बेहोशी टूटी. अब वो राजकुमार देववर्मन से लिपटी हुई उनकी बाहें और छाती सहला सहला कर उन्हें शांत करने लगी.
इस दौरान राजकुमार विजयवर्मन बिस्तर के पास खड़े चुपचाप उन दोनों के उठने का इंतज़ार करते रहें.
दस मिनट के बाद चित्रांगदा ने अपने पति के सीने पर से अपना चेहरा उठाकर राजकुमार विजयवर्मन को देखा और हल्के से मुस्कुरा दी, चरमसुख प्राप्ति से उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक आ गई थी. उसने अपनी एक टांग ऊपर राजकुमार देववर्मन के पेट तक उठा दी, तो उसकी चूत से उनका झड़ा हुआ लण्ड ढीला पड़कर बाहर फिसल कर निकल आया, और उनकी अपनी ही जाँघ पर पसर गया. लण्ड के निकल जाने से चूत का छेद खाली होते ही उसमें से ढेर सारा वीर्य और चूत का मिला जुला पानी छलक कर बाहर बह निकला और राजकुमार देववर्मन के जाँघों और उनके अंडकोष को भीगोते हुए नीचे बिस्तर के चादर पर फ़ैल गया !
" हठ छोड़िये ना देवर जी, आ जाइये. आपके भैया अब सो जायेंगे, पर मेरी आँखों में अभी दूर दूर तक निद्रा नहीं ! ". चित्रांगदा ने अलसाई हुई आवाज़ में राजकुमार विजयवर्मन की ओर अपना हाथ बढ़ाते हुए कहा.
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राजकुमार विजयवर्मन ने अपनी भाभी की बात अनसुनी करते हुए राजकुमार देववर्मन से पूछा.
" क्या अब मुझे आज्ञा है ??? ".
वीर्यपात की थकान से चूर राजकुमार देववर्मन में इतनी भी शक्ति नहीं बची थी की वो अपने छोटे भाई को हाँ या ना में कोई उत्तर दे पाते, या फिर शायद अब उनका मन ही नहीं था बात करने का. उन्होंने अपना एक हाथ उठाकर अपने भाई की ओर देखे बिना ही उसे जाने का इशारा भर कर दिया.
राजकुमार विजयवर्मन अपने वस्त्र पहनने लगें. अपने पति के शरीर से लिपटी हुई चित्रांगदा अपनी होंठों पर हल्की मुस्कान लिए उन्हें कपड़े पहनते हुए देखती रही. फिर जब उनका कपड़ा पहनना हो गया तो उसने पास ही पड़ी चादर खींच कर खुद का और राजकुमार देववर्मन का नंगा शरीर ढंक लिया !
राजकुमार विजयवर्मन तैयार होकर जब जाने को हुए तो पीछे से राजकुमार देववर्मन की आवाज़ आई.
" जाइये अनुज... आपका आभारी हूँ की आप हमारी क्रीड़ा देखने हेतु इतनी देर रुकें. वैसे अब से हमें शायद आपकी आवश्यकता ही ना पड़े, अवंतिका की बातें ही हमारे लिए पर्याप्त होंगी ! आपने तो देखा ही ना की आपकी भाभी ने कैसे अवंतिका की प्यारी प्यारी बातें करके हमारी सहायता की ??? ".
राजकुमार विजयवर्मन बस एक क्षण को रुकें, अपने भाई की बात सुनने के लिए, मगर पीछे मुड़कर नहीं देखा, और और ना ही अपने मुँह से एक भी शब्द निकाले, और फिर अपने बड़े भाई की बात ख़त्म होते ही तेज़ कदमो से शयनकक्ष का दरवाज़ा खोलकर बाहर चले गएँ !!!
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अपने भैया भाभी के शयनकक्ष से निकलकर राजकुमार विजयवर्मन अपने कक्ष की ओर चल पड़े. उनके मन में कई सारे ख्यालों का उधेड़बुन चल रहा था - अपने बड़े भाई का आपत्तिजनक व्यवहार, भाभी की मीठी मीठी बातों में छिपी कुटिलता, और सबसे बड़ी बात, उनका और अवंतिका का भविष्य ! उनका मन अभी तय कर ही रहा था की वो एक बार अपनी छोटी बहन राजकुमारी अवंतिका से मिलते चलें, की उनके कदम अवंतिका के शयनकक्ष की ओर ऐसे बढ़ चले, मानो सब कुछ पहले से ही तय हो चुका हो.
राजकुमार विजयवर्मन को आते देख राजकुमारी अवंतिका के शयनकक्ष के बाहर खड़ी दासी दौड़ कर अंदर चली गई, और फिर राजकुमार विजयवर्मन के द्वार तक पहुँचते पहुँचते वापस जल्दी से बाहर आ गई, और उनसे कहा.
" आपका स्वागत है राजकुमार... परन्तु राजकुमारी अवंतिका ने आपसे क्षमा मांगी है, उनके सोने का समय हो चला है ! ".
" अगर ऐसी बात है तो मुझे स्वयं उनसे मिलकर उन्हें क्षमा करना होगा ! ". राजकुमार विजयवर्मन ने ब्यंग भरी मुस्कान के साथ कहा, और दरवाज़े से अंदर दाखिल होने के लिए आगे बढे तो दासी सिर झुकाकर एक ओर खड़ी हो गई और उन्हें अंदर प्रवेश करने का रास्ता दे दिया.
कमरे के अंदर एक बड़े से आईने के सामने राजकुमारी अवंतिका बैठी हुई थी और उनके अगल बगल दो दासीयां उनके बाल बना रही थीं. राजकुमारी अवंतिका ने बिना पीछे मुड़े आईने में राजकुमार विजयवर्मन के प्रतिबिम्ब से नज़रें मिलाते हुए कहा.
" औरतों के शयनकक्ष में दासीयों के रहने का कोई तो उद्देश्य होगा ना भैया ??? ".
" अवश्य ! राजकुमारी की सेवा करना, ना की अपने ही प्रियजनों को उनसे मिलने से रोकना... ". विजयवर्मन तपाक से बोलें.
अवंतिका ने उठ कर खड़े होते हुए अपनी दोनों दासीयों को बाहर जाने का इशारा किया, तो उन दोनों के साथ साथ बाकि की दासीयां भी बाहर चली गईं. अवंतिका टहलते हुए विजयवर्मन के समीप जा खड़ी हुई और बोली.
" लगता है आपको मेरी दासी के कथन पर यकीन नहीं हुआ ! ".
" अब हो गया... ". विजयवर्मन ने अपनी बहन को चिढ़ाने के मकसद से घूरते हुए कहा. " आपकी आँखे देखकर ! सचमुच में आपको नींद आ रही है... ".
" अगर कोई अति आवश्यक बात है तो कहिये भैया, नहीं तो सुबह होने की प्रतीक्षा कीजिये... आँख खुलते ही सबसे पहले आपसे ही मिलूंगी ! ". अवंतिका ने अपना मुँह घुमाते हुए कहा.
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24-07-2021, 06:17 PM
विजयवर्मन अपनी छोटी बहन की रग रग से वाकिफ थें, उन्हें पता था की उनके मन में क्या चल रहा है, जिस वजह से वो ऐसा ब्यवहार कर रही है. फिर भी उन्होंने अवंतिका की बांह पकड़कर उन्हें अपनी ओर घुमाते हुए पूछा.
" इतना रुखापन किसलिए अवंतिका ??? कम से कम मेरा दोष क्या है, यही बता दीजिये ! ".
" रात्रि को मैं स्नान नहीं करती राजकुमार... मुझे हाथ लगाकर गंदा ना कीजिये ! ". अवंतिका ने अपने भाई की पकड़ से अपनी बांह छुड़ाते हुए कहा.
" और इस रोष का कारण ??? ".
" आप अभी कहाँ से और क्या करके आ रहें हैं, ये शायद आपको सामान्य लगता हो, पर मुझे नहीं ! ".
अवंतिका की बात सुनकर विजयवर्मन थोड़ी देर शांत रहें, और फिर बोलें.
" आपको तो ये हमेशा से पता था अवंतिका... मैंने तो ये बात आपसे कभी नहीं छुपाई. फिर अचानक आज ही मुझसे इतनी घृणा क्यूँ ??? ".
" मेरी बात रहने दीजिये भैया... परन्तु क्या आपको खुद से घृणा नहीं होती ? ".
" नहीं होती अवंतिका, क्यूंकि मुझे पता है की मैं ये सब क्यूँ करता हूँ... ". विजयवर्मन ने कठोर स्वर में कहा. " और ये आपको भी ज्ञात है, मगर चुंकि आपने फिर से उस बात को उठाया है, तो मैं फिर से आपके सामने सब कुछ स्पष्ट किये देता हूँ. भैया देववर्मन नपुंसक हैं !!! वो एकमात्र उपाय जिससे उनके शरीर में कामोत्तेजना आती है, ये है की मैं उनकी पत्नि के साथ सम्भोग करूँ और वो ये देखें. भैया भाभी के वैवाहिक जीवन में मेरी भूमिका तय करने वाला ना ही मैं स्वयं हूँ, ना ही भैया, और ना ही भाभी. ये सारा कुछ तो नियति का किया धरा है... ये ही सत्य है, अवंतिका !!! ".
" आप इस बात पर विश्वास करते हैं की बड़े भैया नपुंसक हैं ??? ". अवंतिका ने ब्यंग भरी मुस्कान के साथ कहा. " नहीं... मैं तो नहीं मानती ! अपनी घृणित और विकृत मानसिकता को नपुंसकता की आड़ में छुपाने का ये एक छलावा मात्र है... एक बहाना... बस एक षड़यंत्र ! ".
विजयवर्मन को अपनी बहन की बात में सच्चाई दिखी, उन्हें याद आ गया, की कुछ देर पहले कैसे राजकुमार देववर्मन अपनी पत्नि के मुख से अवंतिका के बारे में अभद्र बातें सुनकर वासना से भर गएँ थें, और फिर उन्होंने अपनी पत्नि के साथ सफलतापूर्वक सहवास भी किया ! एक नपुंसक ब्यक्ति के लिए ये संभव होगा ??? कदापि नहीं. मतलब ये, की अपनी पत्नि को अपने ही छोटे भाई के साथ सोते हुए देखने की लालसा, नपुंसकता नहीं, बल्कि मानसिक विकृति है ! आज तक विजयवर्मन को लग रहा था की वो बस अपने भैया भाभी का वैवाहिक जीवन बचाने में उन दोनों की सहायता कर रहें हैं , परन्तु असल में तो देववर्मन मात्र अपनी विकृत इच्छाओ की पूर्ति हेतु उनका उपयोग कर रहे थें. और इन सारे घटनाक्रम में चित्रांगदा का कितना योगदान है, ये भी मात्र समझने भर की बात है !
विजयवर्मन ने एक ठंडी आह भरी, जैसे की वो हार चुके हों, और फिर अवंतिका की दोनों बांहे पकड़कर नरमी के साथ बोलें.
" मुझे पूरा यकीन है की आपका कथन ही सत्य है. परन्तु शायद अब मैं इस भंवर में फंस चुका हूँ ! "
अवंतिका चुपचाप खड़ी रही, उन्होंने अपनी नज़रें दूसरी ओर घुमा रखी थीं, और उनके सुंदर मुखड़े पर आक्रोश साफ झलक रहा था. उनका गुस्सा देखकर ना जाने क्यूँ विजयवर्मन को अचानक से हँसी आ गई, और उन्होंने आगे बढ़कर अवंतिका के गाल चूम लिए. अवंतिका कुछ ना बोली, तो विजयवर्मन ने उनका चेहरा अपने दोनों हाथों में लेकर अपनी ओर घुमाया और उनके होंठ अपने होंठों से स्पर्श करने गये, मगर अवंतिका ने इस बार अपना चेहरा परे हटा लिया.
" अब इन सब बातों का कोई अर्थ नहीं भैया... ". अवंतिका ने विजयवर्मन के हाथों से अपना चेहरा छुड़ाते हुए कहा. " मेरा विवाह तय हो चुका है ! ".
" क्या आप ख़ुश हैं राजकुमारी ? ". विजयवर्मन ने पूछा.
" राजघरानों में विवाह के मामले में औरतों की ख़ुशी कब से पूछी जाने लगी भैया ??? ". अवंतिका ब्यंगात्मक हँसी हँसते हुए बोली.
" मैं आपके विवाह के बारे में नहीं पूछ रहा अवंतिका... ". विजयवर्मन बोलें. " क्या आप मुझसे अलग होकर खुश रह पाएंगी ? ".
" इस प्रश्न का उत्तर आप स्वयं ढूंढिये भैया... ". अवंतिका ने कहा और फिर जाने के लिए मुड़ते हुए सख़्त स्वर में बोली. " रात बहुत हो चुकी है... अब आप जाइये ! "
विजयवर्मन से और नहीं सहा गया, उन्होंने लपक कर अवंतिका का हाथ पकड़ कर उन्हें अपनी ओर खींच लिया, और उन्हें अपनी बाहों में जकड़ कर उनके होंठों से अपने होंठ सटा दियें. अवंतिका कुछ देर तक तो खुद को उनकी पकड़ से छुड़ाने का भरसक प्रयास करती रही, लेकिन फिर उनका विरोध ढीला पड़ने लगा और अंततः उन्होंने अपने हाथ विजयवर्मन के पीठ से लपेट दियें, और चुम्बन में उनका साथ देने लगीं..................................
मन भर कर एक दूसरे को चूमने के बाद जब दोनों अलग हुए तो विजयवर्मन ने देखा की अवंतिका की आँखे आंसुओं से झिलमिला रहीं हैं.
" आप रो रहीं हैं बहन ??? ". विजयवर्मन ने पूछा.
अवंतिका अपने आप को और ज़्यादा कठोर नहीं रख पाई, झट से अपने भाई से लिपट गई और उनके सीने में अपना चेहरा छुपा कर सुबक सुबक कर रोने लगी, मगर आवाज़ दबा कर, ताकि कोई सुन ना ले.
" रो लीजिये राजकुमारी... आज मैं आपको नहीं रोकूंगा ! ". विजयवर्मन ने अवंतिका का सिर सहलाते हुए कहा.
कुछ देर बाद अवंतिका ने अपने भाई के सीने से अपना चेहरा बाहर निकाला तो विजयवर्मन उसके गाल पर से उसके आंसू पोंछने लगें.
" कल सुबह पिताश्री ने अपने कक्ष में एक छोटी सी सभा बुलाई है... ". अवंतिका ने अपनी भींगी पलकें ऊपर उठाकर विजयवर्मन की आँखे में देखते हुए कहा. " हम सभी परिवार के लोगों को आमंत्रित किया है, मुझे, आपको, बड़े भैया, भाभी ! "
" अच्छा ??? मगर किसलिए ? ". विजयवर्मन ने आश्चर्य से पूछा.
" पता नहीं भैया... पुरोहित जी आने वाले हैं. कुछ विचार विमर्श करने हेतु, मेरे विवाह से सम्बंधित ! ".
" हाँ... मगर किसलिए ??? ".
" पता नहीं... ".
" कल उस पुरोहित की कहीं मेरे हाथों हत्या ही ना हो जाये ! ". विजयवर्मन ने गुस्से से दाँत पिसते हुए कहा.
रोते रोते भी अवंतिका को अचानक से हँसी आ गई.
" अरे... ये क्या भैया... भला इसमें पुरोहित जी का क्या दोष ? ".
" मैं सारा जीवन ना ही किसी से विवाह करूँगा और ना ही किसी से प्रेम ! ".
विजयवर्मन ने कहा, तो अवंतिका ने तुरंत उनके होंठों पर अपनी उंगलियां रख कर उन्हें चुप करा दिया और बोलीं.
" ये आप क्या कह रहें हैं भैया ? ".
" सच कह रहा हूँ अवंतिका... ".
" आप पुरुष हैं... आपको अधिकार है. मैं तो ऐसा कह भी नहीं सकती ! ". अवंतिका ने नज़रें झुकाते हुए कहा.
विजयवर्मन चुप हो गएँ, तो फिर अवंतिका ने विषय बदलने हेतु हँसते हुए उनसे कहा.
" वैसे आपको विवाह की आवश्यकता भी क्या है राजकुमार ? विवाह के सारे आनंद तो चित्रांगदा भाभी आपको दे ही रहीं हैं. है ना ? ".
" ठिठोली ना कीजिये राजकुमारी... मुझे ये बिल्कुल पसंद नहीं ! ". विजयवर्मन ने गुस्से में अवंतिका को अपनी बाहों से अलग करते हुए कहा.
" अरे अरे... ये क्या... आप मुझे तंग करें तो ठीक है ??? ये तो न्याय नहीं... ". अवंतिका ने विजयवर्मन का हाथ पकड़ लिया.
विजयवर्मन थोड़े से शांत हुए, तो उन्होंने अपना हाथ अवंतिका की गर्दन पर रखते हुए उनके ललाट को चूम लिया, और बोलें.
" अपना ध्यान रखियेगा राजकुमारी... ".
अवंतिका ने झट से आगे बढ़कर विजयवर्मन के गाल पर एक चुम्बन जड़ दिया, और मुस्कुराते हुए कहा.
" ये पुरोहित जी के प्राण ना लेने के लिए ! ".
विजयवर्मन ने एक नज़र मन भर कर अपनी बहन को देखा, और फिर बिना कुछ कहे शीघ्रता से शयनकक्ष से बाहर निकल गएँ !
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" राजकुमार विजयवर्मन कहाँ हैं ? ". महाराजा नंदवर्मन ने पूछा.
सभाकक्ष में सभी कोई मौजूद थें, महाराजा नंदवर्मन, महारानी वैदेही, राजकुमारी अवंतिका, राजकुमार देववर्मन और उनकी पत्नि चित्रांगदा. परिवारजनों को छोड़ कर और किसी को भी वहाँ उपस्थित रहने की आज्ञा नहीं थी, दास दासी को भी बाहर भेज दिया गया था. पुरोहित जी अपनी बात शुरू करने के लिए बस राजकुमार विजयवर्मन की प्रतीक्षा कर रहें थें.
महाराजा नंदवर्मन अभी विजयवर्मन को बुलाने के लिए किसी को भेजनें की सोच ही रहें थें, की उन्होंने कक्ष में तेज़ कदमो से प्रवेश किया.
" विलम्ब के लिए क्षमा चाहता हूँ... ". कहते हुए विजयवर्मन ने अपना स्थान ग्रहण कर लिया .
अवंतिका ने सबसे नज़रें चुरा कर उन्हें देखा.
चित्रांगदा ने मन ही मन मुस्कुराते हुए उन्हें सिर से लेकर पांव तक एक बार निहारा.
देववर्मन ने उन्हें द्वेषपूर्ण तीरछी नज़रों से घूरा.
परन्तु विजयवर्मन ने किसी को ना देखा और ना ही उनपर ध्यान दिया.
" आज्ञा हो तो सभा शुरू की जाये महाराज... ". पुरोहित जी ने कहा.
" अवश्य पुरोहित जी... ". महाराजा नंदवर्मन बोलें, फिर सबकी ओर देखते हुए उन्होंने कहना शुरू किया. " जैसा की आप सबों को ज्ञात है की राजकुमारी अवंतिका का ब्याह मरूराज्य नरेश हर्षपाल से तय हो चुका है. महाराजा हर्षपाल ने स्वयं स्वीकार किया है की हमारे राज्य से रिश्ता जोड़ना उनके लिए अपार सौभाग्य की बात होगी. वहीँ दूसरी ओर इस सम्बन्ध से हमारे राज्य का गौरव और मर्यादा तो बढ़ेगी ही, साथ ही हमारे राज्य की शक्ति में भी अपार बढ़ोतरी होगी. परन्तु... ". महाराजा नंदवर्मन एक क्षण के लिए रुकें, पुरोहित जी की ओर देखा, और फिर कहा. " परन्तु पुरोहित जी ने हमें एक अत्यंत अदभुत बात बताई है, जो की हमारी चिंता और दुविधा का कारण है. एक ऐसी विचित्र बात जो की हमने ना कभी सुनी ना कभी देखी है. और उसी बात पर विचार विमर्श करने के लिए हमने आप सबों को यहाँ आने का कष्ट दिया है. "
महारानी वैदेही ने महाराज के रुकते ही पुरोहित जी से कहा.
" पुरोहित जी, हम चाहते हैं की आप ही वो बात हम सभी को बतायें... ".
विजयवर्मन, देववर्मन, चित्रांगदा और अवंतिका, सबके चेहरे पर कौतुहल साफ झलक रहा था, सभी की नज़रें अब पुरोहित जी पर टिकी हुई थी, तो पुरोहित जी ने कहना शुरू किया.
" जैसा की महाराज ने कहा, ये एक अदभुत बात है, मगर ऐसा कुछ भी नहीं जो पंडितों और पुरोहितों को ज्ञात ना हो. ये बात और है की ऐसा देखने में बहुत ही कम मिलता है ! "
" पहेलियाँ ना बुझाईये पुरोहित जी, स्पष्ट कहिये की आखिर बात क्या है. " देववर्मन ने अधीर होते हुए कहा.
" अवश्य राजकुमार... ". पुरोहित जी मुस्कुराये, फिर कहा . " राजकुमारी में एक दोष है... ".
" दोष ??? तनिक संभल कर बोलिये पुरोहित जी... आप हमारी छोटी राजकुमारी के बारे में बात कर रहें हैं ! ". चित्रांगदा ने बीच में ही टोका.
" कुलवधु चित्रांगदा... पुरोहित जी को अपनी बात समाप्त तो करने दीजिये. ". महाराजा नंदवर्मन ने चित्रांगदा को देखते हुए कहा, तो उसने विनम्रता से अपनी नज़रें झुका ली.
पुरोहित जी ने आगे कहा.
" मुझे ये दुखद बात राजकुमारी की कुंडली देखकर पता चली. इसे मरणमान्यवर दोष कहते हैं. ये एक अत्यंत शक्तिशाली और जटिल दोष है... ".
सभी ध्यान से सुनने लगें.
" जिस कन्या में ये दोष होता है, अगर उस कन्या का विवाह किसी पुरुष से हो जाये, तो अत्यंत कम समय में उस पुरुष के प्राण जाना सुनिश्चित है ! "
इतना कहकर पुरोहित जी इस बार स्वयं ही रुक गएँ, और वहाँ मौजूद परिवार के लोगों के प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगें. सबसे पहले देववर्मन की ओर से प्रश्न आया.
" यानि आप कह रहें हैं की हमारी बहन का विवाह नहीं हो सकता ? ".
" बिलकुल सटीक राजकुमार... ". पुरोहित जी ने कहा.
" और इसका उपाय... मेरा तात्पर्य है की कोई पूजा पाठ ? ". चित्रांगदा ने पूछा.
" नहीं बहुरानी... ".
अवंतिका और विजयवर्मन चुप रहें.
" परन्तु हम ये कैसे मान लें की आप जो कुछ भी कह रहें हैं वो सत्य है ? ". देववर्मन ने क्षोभ भरे स्वर में कहते हुए विजयवर्मन की ओर देखा.
" मैं झूठ नहीं बोलता राजकुमार... ". पुरोहित जी मुस्कुराये.
देववर्मन की गलती समझते ही महारानी वैदेही ने तुरंत कहा.
" नहीं नहीं पुरोहित जी, देववर्मन का ये मतलब कदापि नहीं था. वो शायद ये पूछना चाह रहें हैं की कुंडली देखने में अगर कोई गलती हुई हो या फिर इस दोष का तात्पर्य वैसा ना हो जैसा आपने बताया... ".
" आपको मेरे कथन पर विश्वास करने की कोई आवश्यकता नहीं राजकुमार...परन्तु मैंने जो देखा है वो कोई भी झुठला नहीं सकता ! ". पुरोहित जी ने कहा.
चित्रांगदा उठ खड़ी हुई और अवंतिका के समीप जाकर उसके कंधे पर सांत्वनापूर्वक अपने दोनों हाथ रखते हुए बोली.
" कृपया अब आप ही इस दोष का निवारण निकालिये पुरोहित जी... ".
" इसका कोई हल नहीं है बहुरानी... ". पुरोहित जी ने कहा, फिर थोड़ा रूककर सोचते हुए बोलें. " सिवाय एक उपाय के ! "
" तो फिर जल्दी बताइये ना पुरोहित जी... ". देववर्मन की ख़ुशी वापस लौट आई.
अवंतिका और विजयवर्मन भली भांति जानते थें की इस वक़्त देववर्मन के मन में क्या चल रहा है.
पुरोहित जी ने महाराजा और महारानी की ओर देखा, मानो की अपनी अगली बात कहने की आज्ञा मांग रहें हों. महाराजा नंदवर्मन ने धीरे से अपना सिर हिलाकर स्वीकृति दे दी. ऐसा लग रहा था की पुरोहित जी जो बात बताने वाले थें, वो बात महाराजा और महारानी को पहले से ही ज्ञात था, और उसी बात पर विचार विमर्श करने के लिए परिवारजनों की ये सभा बुलाई गई थी !
पुरोहित जी ने अपने एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए कहा.
" अगर कन्या का प्रथम विवाह उसके अपने ही भाई से हो जाये तो ये दोष अमान्य होकर टल सकता है !!! ".
देववर्मन और चित्रांगदा को जैसे सांप सूंघ गया हो. पहली बार विजयवर्मन और अवंतिका ने अपनी नज़रें उठाकर पुरोहित जी को देखा. महाराजा और महारानी चुप रहें.
" ये आप क्या कह रहें हैं पुरोहित जी ??? ". चित्रांगदा के मुँह से धीरे से निकला, जैसे की वो पुरोहित जी से नहीं, खुद अपने आप से ही ये प्रश्न पूछ रही हो.
" यही वो अदभुत और विचित्र बात है जिसके बारे में आप सबों की राय जानने हेतु आपलोगों को यहाँ बुलाया गया है, ना की अवंतिका के दोष वाली बात के लिए ! ". महाराजा नंदवर्मन ने स्पष्ट किया.
" तनिक ठहरिये पुरोहित जी... ". देववर्मन ने कहा. " तो अगर कन्या अपने ही भाई से विवाह कर ले तो फिर इस दोष का मतलब क्या रहा ??? ".
" मैंने कहा प्रथम विवाह !!! ". पुरोहित जी समझाते हुए बोलें. " यानि की दोष काटने के लिए किये जाने वाला विवाह, ना की संसार बसाने के लिए किये जाने वाला ! भाई बहन इस विवाह के बंधन में केवल मात्र सत्ताईस दिनों के लिए बंधे रहेंगे. अट्ठाईसवे दिन एक छोटी सी पूजा होगी, जिसके उपरांत उन दोनों का सम्बन्ध विच्छेद हो जायेगा, और फिर कन्या को पहले की भांति कुंवारी होने की मान्यता मिल जाएगी. उसका दोष सत प्रतिशत नष्ट हो जायेगा. फिर कन्या अपने मन चाहे वर या अपने माता पिता द्वारा तय किये गये पुरुष से विवाह कर सकती है !!! ".
पुरोहित जी की बात पूरी होते ही सभाकक्ष में चुप्पी छा गई. फिर कुछ देर बाद चित्रांगदा ने पूछा.
" और जिस कन्या का कोई भाई ही ना हो ??? ".
" अच्छा प्रश्न है बहुरानी... ". पुरोहित जी ने मुस्कुरा कर कहा. " फिर तो वो अभागन कन्या आजीवन कुंवारी ही रह जाएगी. कम से कम उसके दोष के बारे में जान कर तो कोई उससे विवाह करने को प्रस्तुत नहीं होगा. ".
" लेकिन अपना भाई ही क्यूँ पुरोहित जी ??? ". इस बार महाराजा नंदवर्मन ने पूछा.
" भाई बहन का रिश्ता पवित्र होता है महाराज. अगर उनमें किसी कारणवश विवाह हो भी जाये तो सामजिक तौर पर वो कभी भी मान्य नहीं हो सकता. कन्या का भाई भला उसका पति कैसे हो सकता है ? इस दोष वाली कन्या के प्रथम पति की मृत्यु तय है. परन्तु जब प्रथम पति उसका अपना भाई ही हो, तो वो सम्बन्ध तो वैसे भी अमान्य ही है, फिर किसकी और कैसी मृत्यु ??? "
" मैं आपका क्षमाप्रार्थी हूँ पुरोहित जी, मैंने आपके ज्ञान पर संदेह किया ! ". देववर्मन ने हाथ जोड़ कर मुस्कुराते हुए कहा, फिर विजयवर्मन की ओर देखा, और फिर अवंतिका की ओर, और ऊँचे स्वर में कहा. " अवंतिका की भलाई हेतु मैं उनसे विवाह करने को तैयार हूँ !!! ".
चित्रांगदा ने चौंकते हुए अपने पति को देखा, राजकुमार देववर्मन का चेहरा वासना और हवस से चमक रहा था.
" यानि आप सबों को ये प्रस्ताव मंजूर है ? ". पुरोहित जी ने पूछा.
" जी पुरोहित जी... ". महाराजा नंदवर्मन बोलें.
" हमने तो पहले ही इसकी स्वीकृति दे दी थी, बस बाकि सबों का मत जानना था ! ". महारानी वैदेही ने कहा.
" क्षमा कीजिये माते... परन्तु मुझे लगता है की ये जिसके भविष्य की बात है, उसकी इस बारे में राय सबसे ज़्यादा महत्वपूर्ण है ! ". पहली बार विजयवर्मन ने अपना मुँह खोला, तो अवंतिका उनको देखने लगी.
" अवश्य ही राजकुमार... ". महाराजा नंदवर्मन ने कहा, फिर अवंतिका से पूछा. " बेटी अवंतिका, आप निःसंकोच होकर अपने मन की बात कह सकती हैं ! "
" दोष तो मेरा ही है ना पिताश्री... ". अवंतिका ने बिना नज़रें उठाये ही कहा. " मुझे आप बड़े जनों का कहा मानने में कोई आपत्ति नहीं ! ".
देववर्मन की ख़ुशी का ठिकाना ना रहा, उन्होंने हँसते हुए चित्रांगदा की ओर देखा, तो उसने अपना मुँह फेर लिया.
" और हाँ राजकुमार देववर्मन... ". पुरोहित जी ने देववर्मन से कहा. " आप अवंतिका से विवाह नहीं कर सकतें !!! ".
अचानक से देववर्मन के चेहरे का रंग उड़ गया, उन्होंने मूर्ख की तरह सभाकक्ष में बैठे सभी लोगों को देखा, और फिर धीरे से पूछा.
" मतलब पुरोहित जी ??? ".
" आप पहले से ही विवाहित हैं राजकुमार... ".
" हाँ तो ??? अवंतिका के होने वाले पति मरूराज्य नरेश हर्षपाल की भी तो 23 पत्नियां हैं... फिर भी वो हमारी बहन से विवाह कर रहें हैं ! ". देववर्मन ने कहा. " और वैसे भी मैं ज्येष्ठ पुत्र हूँ... इस नाते हमारी बहन की सहायता करने का अधिकार केवल मात्र मेरा ही तो हुआ ना पुरोहित जी ? ".
" ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते आपका अनेक चीज़ो पर अधिकार हो सकता है राजकुमार...परन्तु इस सन्दर्भ में नहीं !!! विधि अनुसार कन्या का विवाह उसके कुंवारे भाई से होना होगा. " पुरोहित जी ने कहा, फिर विजयवर्मन की ओर दिखाकर बोलें. " राजकुमारी अवंतिका का प्रथम विवाह राजकुमार विजयवर्मन से होगा !!! ".
चित्रांगदा के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान दौड़ गई. देववर्मन का चेहरा क्रोध से तमतमा उठा, गुस्से में उनके मुँह से शब्द नहीं निकले, फिर वो एकाएक खड़े हो गएँ, और अत्यंत ऊँचे स्वर में कहा.
" आप सबों की मति भ्रष्ट हो गई है ! अपने सगे भाई से विवाह ??? ये क्या मूर्खता है ? मैं इस घृणित प्रस्ताव का विरोध करता हूँ !!! ".
किसी ने भी देववर्मन की बात का कोई जवाब नहीं दिया.
" आप सभी इस पाप के भागी बनेंगे ! ". देववर्मन ने जब देखा की उनकी बात का किसी पर कोई असर नहीं पड़ा है, तो वो चिल्लाकर बोलें, और गुस्से से कांपते हुए सभाकक्ष से बाहर चले गएँ.
अपने पति के बाहर जाते ही चित्रांगदा ने राहत की एक ठंडी साँस ली और अवंतिका के कंधे को दबा कर उसे आस्वस्त किया.
कक्ष में कुछ देर की शांति के बाद महाराजा नंदवर्मन ने कहा.
" कल रात ही हमने ये समाचार मरूराज्य नरेश हर्षपाल को भिजवा दिया था. उन्होंने जवाब देने में काफ़ी शीघ्रता दिखाई. आज सुबह ही हमारा दूत वापस सन्देश लेकर आया है की उन्हें इस विधि से कोई आपत्ति नहीं. विधि के पूरा होते ही वो अवंतिका से विवाह करके उसे अपनी पत्नि के रूप में स्वीकार कर लेंगे !!! ".
" ये तो बहुत अच्छी बात है... ". चित्रांगदा ने नीचे झुककर अवंतिका की आँखों में आँखे डालकर कहा. मगर अवंतिका कुछ ना बोली.
" अवंतिका और विजयवर्मन के विवाह की तैयारी कीजिये महाराज. मैं स्वयं सारी प्रक्रिया पूरी करुंगा... चिंता ना करें ! ". पुरोहित जी ने महाराजा और महारानी की ओर देखते हुए कहा.
" धन्यवाद पुरोहित जी... ". महाराजा नंदवर्मन और महारानी वैदेही ने एक साथ हाथ जोड़कर कहा.
" अब तो खुश हो ना राजकुमारी अवंतिका ??? ". चित्रांगदा ने बहुत ही धीमे स्वर में अवंतिका की पीठ पर चिकोटी काटते हुए उसके कान में फुसफुसा कर कहा. अवंतिका मन ही मन मुस्कुरा उठी, पर अपनी भाभी को कोई जवाब नहीं दिया.
पुरोहित जी ने अब विजयवर्मन और अवंतिका को सम्बोधित करते हुए कहा.
" याद रखियेगा राजकुमार विजयवर्मन और राजकुमारी अवंतिका... ये विवाह केवल अवंतिका के मरणमान्यवर दोष को काटने का हथियार मात्र है. आप दोनों विवाह के उपरांत सत्ताईस दिनों तक पति पत्नि के रूप में एक साथ एक ही कक्ष में रहेंगे, परन्तु वैवाहिक सुख का उपभोग नहीं करेंगे. अगर आपने ऐसी कोई भी गलती की तो राजकुमार विजयवर्मन के प्राण भी जा सकते हैं, अगर आप सत्ताईस दिन से एक दिन भी ज़्यादा एक दूसरे के साथ पति पत्नि की तरह रहें, तो भी राजकुमार विजयवर्मन के प्राण जा सकतें हैं !!! इस बात का ध्यान रहे... ".
विजयवर्मन और अवंतिका ने विनम्रता से सिर हिला कर पुरोहित जी की बात को मानने और समझने की हामी भरी, और फिर एक साथ पुरोहित जी और महाराजा तथा महारानी के चरण स्पर्श करके उनका आशीर्वाद लिया.
सभा भंग हुई.
जाते जाते विजयवर्मन और अवंतिका की नज़रें एक दूसरे से मिली, विजयवर्मन के चेहरे पर तो एक मुस्कान थी, परन्तु अवंतिका के सुंदर मुखड़े पर किसी कारणवश चिंता की काली छाया मंडरा रही थी !!!
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राजकुमार विजयवर्मन और राजकुमारी अवंतिका के विवाह की तिथि बारह दिन बाद तय हुई. इस दौरान पुरोहित जी के बताये नियमानुसार इन बारह दिनों तक दोनों भाई बहन को एक दूसरे से मिलने या उनके निकट तक जाने की अनुमति नहीं थी, ऐसा अगर किसी कारणवश हो जाये तो वो बहुत बड़ा अपशकुन होगा, और सारी विधि वृथा हो जाएगी. यही नहीं, अगर दोनों ने एक दूसरे को देख भी लिया, तो फिर ये विवाह नहीं होगा, फलस्वरुप, अवंतिका का दोष निवारण नहीं हो पायेगा और उसे आजीवन कुंवारी ही रहना पड़ेगा. विवाह का दिन आने तक अवंतिका को प्रत्येक दिन हल्दी लगाई जाती थी और उसे दूध से नहलाया जाता था.
विजयवर्मन ने पहले की भांति हर रात अपनी भाभी चित्रांगदा को चोदने के लिए अपने बड़े भाई देववर्मन के शयनकक्ष में जाना छोड़ दिया. देववर्मन ने उन्हें आने के लिए बुलावा भी भेजा, मगर विजयवर्मन ने साफ इंकार कर दिया. ऐसा आज तक नहीं हुआ था की देववर्मन कुछ बोले और विजयवर्मन उनकी आज्ञा का पालन ना करें - परन्तु अब देववर्मन को अपने भाई में आ रहा परिवर्तन स्पष्ट दिख रहा था. ईर्ष्या और द्वेष की अग्नि में जल रहे देववर्मन ने अपने कक्ष से बाहर निकलना बंद कर दिया, यहाँ तक की महाराजा और महारानी तक से भी बात करना छोड़ दिया. बस हर वक़्त अपने कक्ष में बैठे मदिरा में डूबे रहने लगें.
दूसरी ओर चित्रांगदा अब अधिकतर समय अवंतिका के साथ उसकी सहेली की तरह रहने लगी, उसे हल्दी लगाने, मेहंदी लगाने और स्नान कराने में वो बाकि दासीयों के साथ ही रहा करती थी.
विजयवर्मन तो अपनी बहन के साथ विवाह होने की प्रतीक्षा में दिन गिन रहें थें , परन्तु अवंतिका का हाल इसके बिल्कुल ही विपरीत था, उन्हें समझ नहीं आ रहा था की उन्हें खुश होना चाहिए या दुखी - पुरोहित जी के वैवाहिक सुख से परहेज करने के विचित्र शर्त ने उन्हें असमंजस में डाल दिया था !
आखिर विवाह की घड़ी निकट आ ही गई.
अवंतिका और विजयवर्मन का विवाह राजमहल में ही अवस्थित कुलदेवता के मंदिर में बिना किसी धूम धाम के मात्र परिवारजनों की उपस्थिति में और स्वयं पुरोहित जी की देख रेख में पूरे विधि विधान से संपन्न हुआ. ये विवाह कम, और किसी पूजा पाठ का आयोजन ज़्यादा लग रहा रहा था. देववर्मन विवाह में उपस्थित नहीं थें.
सुहागरात के लिए एक बड़े से भव्य शयनकक्ष को मुख्य रूप से सजाया गया था.
विवाह के उपरांत अवंतिका की कुछ खास दासीयां और चित्रांगदा उन्हें और विजयवर्मन को सुहागकक्ष तक ले आई. द्वार पर पहुँच कर दासीयां वर वधु से हँसी ठिठोली करने लगीं. राजमहल में सभी को विजयवर्मन और अवंतिका के प्रेम प्रसंगों के बारे में पता था, सिवाय महाराजा और महारानी के. यही कारण था की इस विवाह से अवंतिका की सभी दासीयां अत्यंत प्रसन्न थीं, परन्तु विवाह के कठोर नियम और शर्त वहाँ उस वक़्त मौजूद लोगों में से केवल मात्र विजयवर्मन, अवंतिका, और चित्रांगदा को ही मालूम थें !
" हमारी राजकुमारी बहुत कोमल हैं... अपने कठोर हाथ उनसे दूर ही रखियेगा राजकुमार ! ". एक दासी ने कहा.
" और नहीं तो क्या, नहाने के पानी में अगर गुलाब के फूलों की मात्रा तनिक अधिक हो जाये, तो राजकुमारी के अंग छिल जाते हैं ! ". तो दूसरी दासी बोली.
" मुझे नहीं लगता की राजकुमार पूरी रात सिर्फ मीठी मीठी बातें करके ही कटायेंगे ! ". और एक दासी बोली.
" अब तो सुबह राजकुमारी के स्नान के समय ही पता चलेगा की उनके किस किस अंग में क्या क्या और कितनी क्षति हुई है ! ". चौथी दासी ने कहा.
सभी दासीयां खिलखिला कर हँसने लगीं.
" निर्लज्ज लड़कियों... अब भागो यहाँ से. राजकुमार और राजकुमारी के विश्राम का समय हो चला है ! ". चित्रांगदा ने दासीयों को डांट डपट लगाई.
" हमें तो नहीं लगता की राजकुमार और राजकुमारी जी पूरी रात सिर्फ विश्राम करेंगे ! ". फिर से किसी दासी ने कहा तो सभी दासीयां हँस पड़ी.
" देवर जी... इन ढीठ लड़कियों को कुछ उपहार दे दीजिये, वर्ना ये लोग यहाँ से जायेंगी नहीं और आपको ऐसे ही तंग करती रहेंगी ! ". चित्रांगदा ने विजयवर्मन से कहा.
विजयवर्मन ने अपने शरीर से कुछ आभूषण और मोतीयों की मालायें उतार कर दासीयों को भेंट दी, तो वो सभी हँसती खिलखिलाती वहाँ से चली गई.
विजयवर्मन और अवंतिका अब जब अंदर प्रवेश करने को आगे बढे तो चित्रांगदा ने उन्हें रोका.
" अरे अरे... ये क्या ? नववधु का सुहागकक्ष में अपने पैरों पर चल कर जाना अशुभ माना जाता है. चलिए देवर जी, अवंतिका को अपनी गोद में उठाइये ! "
विजयवर्मन ने अवंतिका को देखा तो वो लजा गई.
" जैसी भाभी जी की आज्ञा... ". विजयवर्मन ने मुस्कुराते हुए कहा, और अपनी बहन को अपने मजबूत बाहों में उठाकर कक्ष की दहलीज पार करके अंदर दाखिल हो गएँ.
सुहागसेज को गुलाब और अन्य कई सारे फूलों से इस कदर सजाया गया था की बिस्तर की चादर तनिक भी नज़र नहीं आ रही थी और ऐसा प्रतीत हो रहा था की मानो पूरा बिछावन फूलों से ही निर्मित हो. पूरा कक्ष इत्र की खुशबु से सुगंधित हो पड़ा था.
" और भी कोई सेवा हो तो बता दीजिये भाभी जी... ". विजयवर्मन ने अवंतिका को बिस्तर पर उतारते हुए मज़ाक में कहा.
" नहीं... बस... आभारी हैं हम दोनों आपके. ". चित्रांगदा ने हँसते हुए कहा, फिर बिस्तर पर बैठी अवंतिका के कान में अपने होंठ सटाकर एकदम धीमे स्वर में बुदबुदाते हुए बोली. " मुझे पता है की आप दोनों इस घड़ी का शायद स्वप्न में बरसों से प्रतीक्षा कर रहें होंगे, परन्तु बहक मत जाइएगा... पुरोहित जी के वचन याद हैं ना ??? ".
अवंतिका ने घूँघट में धीरे से सिर हिला दिया. चित्रांगदा अब उसे छोड़ चल कर विजयवर्मन के पास आई और उनसे कहा.
" वैसे आप चाहें तो आज की रात मैं यहीं रुक जाती हूँ देवर जी... अवंतिका की ना सही, आपकी सुहागरात तो मन जाएगी !!! ".
" आपका ह्रदय बहुत विशाल है भाभी जी... परन्तु मुझे लगता है की आज की रात भैया देववर्मन को आपकी अधिक आवश्यकता पड़ेगी ! ". विजयवर्मन ने हँसते हुए कहा और चित्रांगदा को उनके कंधो से पकड़ कर दरवाज़े तक ले गएँ, और बोलें. " भैया को हम दोनों का प्रणाम कहियेगा भाभी जी ! ".
" प्रेम में अपने प्राण ना गवां बैठियेगा राजकुमार !!! ". चित्रांगदा ने अपना हाथ विजयवर्मन की छाती पर रख कर उन्हें हल्का सा धक्का दिया और मुस्कुराते हुए कक्ष से बाहर जाते हुए दरवाज़ा बंद कर गई.
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अंदर से दरवाज़े की कुंडी लगाकर विजयवर्मन वापस कक्ष में आ गएँ और जाकर सुहागसेज पर अवंतिका के बगल में बैठ गएँ.
" ना जाने कितने दिन हो गएँ आपका मुखड़ा देखे हुए अवंतिका... आज्ञा हो तो घूँघट उठा कर एक बार देख लूं ? ".
" भाभी जी का प्रस्ताव ठुकराते हुए तो अत्यंत कष्ट हुआ होगा ना राजकुमार ? ". अवंतिका ने झूठी नाराज़गी दिखाते हुए कहा.
अवंतिका की बात पर विजयवर्मन हँस पड़े.
" ईर्ष्या हो रही है ? हो भी क्यूँ ना ... स्वाभाविक है. अब आप केवल मेरी बहन ही नहीं, पत्नि भी हैं ! ". कहते हुए विजयवर्मन ने अवंतिका का घूँघट ऊपर उठा दिया.
घूँघट के ऊपर उठते ही अवंतिका की आँखे चौंधिया गईं, उसने झट से अपनी आँखे बंद कर ली, और फिर कुछ क्षण रुक कर एकदम धीरे धीरे वापस से अपनी आँखे खोली, तो देखा की उसके भैया - पति उसके सामने हीरे की एक बड़ी सी चमकदार अंगूठी थामे बैठे हुए हैं.
" इतना निर्लज्ज नहीं हूँ मैं कि आपको बिना कोई उपहार भेंट किये आपका चेहरा देखता ! ". विजयवर्मन बोलें, तो अवंतिका ने मुस्कुरा कर अपना हाथ आगे बढ़ा दिया.
" वैसे चिंता ना कीजिये अवंतिका... आपका चुम्बन लेने के लिए मेरे पास और एक दूसरा उपहार भी है ! ". अवंतिका कि उंगली में अंगूठी पहनाते हुए विजयवर्मन ने कहा, और अपना चेहरा आगे बढ़ा दिया.
परन्तु अवंतिका ने अपनी हथेली विजयवर्मन के होंठों पर रखकर उन्हें रोका, और बोली.
" नहीं भैया... हमें ये सब नहीं करना चाहिए ! "
" क्यूँ अवंतिका ? ".
" मुझे आपके प्राणो का भय है... ".
विजयवर्मन मुस्कुरा दियें, और अपनी उंगली से अवंतिका कि ठुड्डी ऊपर करके उनका चेहरा उठाया, और उनकी आँखों में देखते हुए बोलें.
" अट्ठाईसवे दिन तो वैसे भी मेरे प्राण निकल ही जायेंगे, जब आप मुझसे अलग हो जाएंगी राजकुमार... फिर आज मृत्यु का आलिंगन क्यूँ करूँ ??? मृत्यु को मेरी प्रतीक्षा करने दीजिये... ".
" आप ये सब कैसे कर लेते हैं भैया... भय नहीं लगता आपको ??? ". अवंतिका ने कहा, उनकी बात पूरी होते होते विजयवर्मन ने आगे बढ़कर अपने होंठ उनके होंठों से सटा दियें. कुछ पल के बाद जब दोनों के होंठ अलग हुए तो अवंतिका कि आँखों में आंसू आ चुके थें. उन्होंने विजयवर्मन का चेहरा अपने हाथ से सहलाते हुए कहा. " मैं आपसे दूर चली जाउंगी तो क्या, आप सकुशल रहेंगे, यही मेरे लिए बहुत बड़ी बात होगी ! "
" एक बार सोच कर देखिये अवंतिका.... ". विजयवर्मन ने कहा. " हम दोनों तो प्रायः अलग हो ही चुके थें कि नियति ने ये अदभुत खेल खेला. क्या आपको नहीं लगता कि ये अपने आपमें कोई साधारण बात नहीं. हमें एक मौका मिला है संग रहने का और अपने प्रेम को पवित्र साबित करने का. और फिर पुरोहित जी ईश्वर तो नहीं जो उनका हरेक वचन सत्य हो !!! ".
अवंतिका कि आँखों में इतनी देर से रुके आंसू अनायास ही छलक पड़े और उनके गालों पर बह चलें. वो बिस्तर पर से अचानक उठी और नीचे उतरकर खड़ी हो गई. विजयवर्मन मुड़ कर उन्हें अचंभित नज़रों से देखकर ये समझने का प्रयास करने लगें कि उनके मन में क्या चल रहा है और वो क्या करना चाहती हैं !
अवंतिका एकटक विजयवर्मन को देखती रही और फिर उनके ऊपर से अपनी नज़रें हटाए बिना अपने कान कि बालीयों को खोलने लगीं. कान कि बालीयों के बाद नाक के नथ कि बारी आई, फिर मांगटीका, और फिर मंगलसूत्र और गले का बेशकीमती हार - एक एक करके अवंतिका ने अपने सारे गहने और आभूषण अपने शरीर से अलग कर दियें !
अपनी बहन - पत्नि कि मंशा समझते ही विजयवर्मन अब आराम से बिस्तर पर बैठ गएँ और उनकी हर एक हरकत को बारीकी से निहारने लगें.
इस दौरान अवंतिका ने एक क्षण के लिए भी विजयवर्मन कि आँखों में देखना बंद नहीं किया था. अब वो अपने शादी का लाल जोड़ा उतारने लगी - उन्होंने पहले अपना ब्लाउज़ खोला और फिर अंदर पहनी महीन कपड़े से बनी अंगिया खोल कर अपनी चूचियों को रिहाई दिलाई, फिर अपने घाघरे के नाड़े को हल्का सा ढीला किया तो उनका घाघरा सरसरा कर उनकी पतली कमर का साथ छोड़ कर नीचे सरकते हुए उनके पैरों पर गिर पड़ा. घाघरा खुलते ही विजयवर्मन कि नज़र सीधे अवंतिका कि नाभी के नीचे उनकी दोनों जाँघों के बीच गई, परन्तु उन्हें निराशा ही हाथ लगी - अवंतिका ने अपनी कमर में सोने कि एक मोटी सी करधनी पहन रखी थी, जिससे झूलते हुए सफ़ेद चमकीले झालरदार मोतीयों ने उनकी चूत को इस कदर ढंक रखा था मानो उसकी पहरेदारी कर रहें हो. कुछ भी देख पाना संभव नहीं था और विजयवर्मन को अफ़सोस हो रहा था काश सुहागकक्ष में कुछेक ज़्यादा दीये और मोमबत्तीयां जली हुई होतीं !
ना चाहते हुए भी विजयवर्मन को उस रात अपनी भाभी द्वारा दिए गये अवंतिका के शारीरिक वर्णन कि बात याद आ गई -
(( उनकी सुराहीदार गर्दन नीचे छोटे कंधो से होती हुई उनकी छाती तक पहुँचती है, जहाँ उनके कसे हुए वक्ष सदैव ऊपर कि ओर ही उठे हुए रहते हैं. ऊँचे वक्षस्थल नीचे की ओर पतली लचकदार कमर में परिवर्तित हो गई है. उनकी नाभी गोल नहीं, बल्कि एक लम्बी संकरी छोटी सी लकीर मात्र है. उनकी नाभी से होते हुए उनका पेट नीचे ढलान से मुड़ कर उनकी योनि में जाकर विलीन हो जाता है, और पीछे की ओर विशालकाय, मगर गोल और सुडॉल नितंब में बदल कर बाहर की ओर पुनः निकल पड़ता है. उनकी कोमल मांसल जांघे आपस में हमेशा सटी हुई रहती हैं और इसी कारणवश अगर वो आपके सामने आकर पूर्णतः नंगी भी खड़ी हो जायें, तो उनकी योनि उनकी जंघा के बीच इस भांति छुप जाती है की उसके दर्शन हो पाना दुर्लभ है ))
नग्नावस्था में अवंतिका बिल्कुल वैसी ही दिख रही थी, जैसा कि चित्रांगदा ने वर्नित किया था !!!
अवंतिका जो अब तक विजयवर्मन से नज़रें मिलाये खड़ी थी, अपने वस्त्रहीन शरीर पर उनकी नज़रों कि कटाक्ष से विचलित होने लगी, और लज्जा से अपनी नज़रें झुका ली. कलाईयों में कांच कि चूड़ियों, कमर में करधनी, और पैरों में सोने कि पायल के सिवाय वो अब पूर्णत: नग्न अवस्था में थी ! उन्होंने अपने घाघरे से अपने पैर निकाल कर उसे वहीँ ज़मीन पर छोड़ दिया, और धीरे धीरे कदम बढ़ाते हुए वापस बिस्तर पर आ चढ़ी. सुहागसेज पर चढ़ते समय और अपने भैया - पति के समीप बैठते समय अवंतिका ने इस बात का पूरा ध्यान रखा था कि उसकी नंगी चूत ना दिख जाये !
विजयवर्मन समझ गएँ कि उनकी नवविवाहिता बहन - पत्नि उन्हें तंग करने के उद्धेश्य से ऐसा कर रही है. अपनी बहन कि शरारत पर उन्हें हँसी तो बहुत आ रही थी, परन्तु उन्होंने अपनी हँसी पर काबू रखा, और अवंतिका का हाथ अपने हाथों में लेकर धीरे से बोलें.
" मुझे अपनी योनि के दर्शन नहीं कराईयेगा अवंतिका ??? ".
अपने भाई के मुँह से " योनि " शब्द सुनकर अवंतिका लजा गई, उसके गोरे गालों पर लाली छा गई, और उसकी झुकी हुई पलकें डबडबाने लगीं.
पर विजयवर्मन अपनी बहन को मनाने से कहाँ रुकने वालें थें, उन्होंने अवंतिका का हाथ चूम लिया और फिर से कहा.
" मेरे संयम कि और परीक्षा ना लीजिये राजकुमारी... विनती है मेरी ! ".
" अच्छा भैया... अब समझी मैं. आपकी अधीरता बता रही है कि मेरे साथ सहवास करने हेतु ये सारा कुछ था ! ". अवंतिका ने मुँह बनाते हुए कहा. " अभी अभी तो पवित्र प्रेम कि बातें कर रहें थें ना !!! ".
जवाब में विजयवर्मन कुछ नहीं बोलें.
उन्होंने चुपचाप अवंतिका के दोनों पाँव अपने हाथ में लेकर थोड़ा सा ऊपर उठाया, और नीचे झुक कर उन्हें चूम लिया. अवंतिका अभी ये समझने कि चेष्टा कर ही रही थी कि वो क्या करने वालें हैं, कि उन्होंने ऐसा कुछ किया कि जिसकी उसने कल्पना भी नहीं कि थी - अवंतिका के पाँव अपने एक हाथ में थामे अपने दूसरे हाथ से विजयवर्मन ने अपनी रेशमी धोती से हठात अपना लण्ड बाहर निकाल लिया !!!
" हाय भैया !!! ये क्या ??? ".
अपने भैया - पति का लण्ड इस तरह से अनायास ही एकदम सामने देखकर अवंतिका चिंहुक उठी, शर्म के मारे उसने झट से अपने दोनों हाथों से अपनी आँखे और अपना चेहरा छुपा लिया. तब से वो अपने भाई को इतना परेशान कर रही थी - अब उसकी खैर नहीं. उसे पता था कि अब क्या होने वाला है !!!
परन्तु विजयवर्मन के मन में तो कुछ और ही चल रहा था !
लज्जा से अपने हाथों में अपना मुँह छुपाये अवंतिका अपने भाई के अगले कदम कि प्रतीक्षा करने लगी. उसकी साँसे अनियमित होकर तेज़ चलने लगीं तो उसकी गोल चूचियाँ उसकी छाती पर ऊपर - नीचे ऊपर - नीचे होने लगीं. खुद को अपने भाई के हाथों समर्पण कर देने के सिवाय अब अवंतिका के पास और कोई चारा नहीं बचा था.
अवंतिका कि गहरी चल रही साँसे अचानक से अब रुक गई और उसके दिल कि धड़कन बढ़ गई. आँखे बंद होने के कारण उन्हें कुछ दिखाई तो नहीं दे रहा था, परन्तु वो कल्पना कर सकती थीं कि उनके भाई अभी क्या कर रहें होंगे. अब तक तो शायद उन्होंने अपनी धोती उतार दी होगी, और अब उसकी ओर बढ़ रहें होंगे !!!
ठीक तभी अवंतिका ने अपने पैरों पर कोई गरम गरम सा लस्सेदार गाढ़ा तरल पदार्थ गिरता हुआ महसूस किया ! अचंभित होकर डरते डरते उसने अपने हाथ अपने चेहरे से हटाए, और नीचे देखा तो दंग रह गई !
उनके दोनों पाँव अभी भी विजयवर्मन के हाथ में थें, समीप ही बैठे विजयवर्मन कि धोती से बाहर निकला उनका लण्ड अवंतिका के पाँव पर लुढ़का पड़ा बुरी तरह से फड़क रहा था, और पाँव और पाँव के पायल पूरी तरह से उनके लण्ड से अभी अभी निकले वीर्य से सराबोर भींगे सने पड़े थें !!!
" लीजिये... मैंने आपके चरणों में अपना वीर्यपात कर दिया राजकुमारी. अब मेरा लिंग सहवास के लायक नहीं रहा ! अब आपको मुझसे घबराने कि कोई आवश्यकता नहीं !!! ". विजयवर्मन ने बड़ी ही सावधानी से अपना झड़ा हुआ लण्ड अपने हाथ में पकड़ कर अवंतिका के पाँव से नीचे उतारा, उसके लाल मोटे सुपाड़े से वीर्य कि एक पतली सी धार चू कर नीचे चादर पर गिर पड़ी . " अब तो आपको मेरे प्रेम पर संदेह नहीं ना अवंतिका ??? ".
" ये आपने क्या कर डाला राजकुमार ??? ". अवंतिका ने विजयवर्मन का ढीला पड़ चुका लण्ड आगे बढ़कर अपने हाथ में लेते हुए अफ़सोस जताते हुए कहा. " मैं तो बस आपसे यूँ ही हठ कर रही थी !!! ".
अपने भैया के इस बलिदान से अवंतिका गदगद हो उठी. उसने उनके होंठ चूम लियें, उनका हाथ पकड़ कर अपने जाँघ पर रखा, और फिर उनकी आँखों में आँखे डाल कर सख़्त स्वर में बोली.
" मुझे अब किसी भी बात का भय नहीं रहा भैया. परन्तु एक बात स्मरण रखियेगा...अगर मेरे दोष कि वजह से आपको कुछ भी हुआ, तो मैं भी अपने प्राण त्याग दूंगी !!! "
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24-07-2021, 06:27 PM
(This post was last modified: 24-07-2021, 06:28 PM by usaiha2. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
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सुबह औरतों के स्नानागार में जब दासीयां अवंतिका को नहलाने के लिए उनके वस्त्र उतारने लगीं तो उनकी नज़रें सबसे पहले राजकुमारी कि चूत पर गई. चूत को सही सलामत पाकर उन सभी का मुँह उतर गया.
" ये क्या राजकुमारी जी... हम तो आपसे यूँ ही ठिठोली कर रहीं थीं, आपने क्या कल रात राजकुमार को सचमुच में अपने स्पर्श से वंचित रखा ??? ". एक दासी ने पूछा.
" तुम्हें क्यूँ बताऊँ ? ". अवंतिका ने झूठा अहंकार दिखाते हुए मुस्कुरा कर कहा, और नंगी होकर पानी में उतरने लगी.
" और नहीं तो क्या... ". दूसरी दासी ने सबको बताते हुए कहा. " प्रातःकाल ज़ब मैं राजकुमारी के सुहागकक्ष में बिछावन बदलने गई तो देखा कि सुहागसेज के सारे फूल ज्यों के त्यों पड़े हुए हैं और चादर भी मैली नहीं हुई !!! ".
" तुमलोग कुछ ज़्यादा ही वाचाल होती जा रही हो, प्राणो का भय नहीं रहा क्या ? ". चित्रांगदा, जो कि पहले से ही पानी में डूबी नहा रही थी, ने ऊँचे स्वर में गुस्से से कहा तो सारी दासीयां एक दूसरे को देखते हुए एकदम से चुप हो गईं.
चित्रांगदा पानी में तैरते हुए अवंतिका के समीप आई और धीरे से कहा, ताकि सिर्फ वही सुन सके.
" आपने सही निर्णय लिया राजकुमारी... ".
अवंतिका ने आँखे उठा कर चित्रांगदा को एक नज़र देखा, हल्की सी मुस्कुराई, परन्तु कुछ बोली नहीं...
.................................
उस दिन के पश्चात् प्रतिदिन रात्रि को सोने से पहले विजयवर्मन मूठ मार कर अपना वीर्य अपनी बहन - पत्नि अवंतिका के कदमो में अर्पित कर देतें, ताकि उनकी चोदने कि लालसा समाप्त हो जाये. फिर दोनों पति पत्नि नग्न अवस्था में एक दूसरे कि बाहों में लिपट कर सो जातें. पूर्णत: नंगी होने के बावजूद भी अवंतिका कभी भी अपनी करधनी नहीं उतारती, विजयवर्मन ने अभी तक उनकी चूत कि एक हल्की सी झलक मात्र भी नहीं देखी थी, अवंतिका को भय था कि उसकी चूत देखने के बाद राजकुमार शायद अपना धैर्य खो बैठें. विजयवर्मन भी इस बात को भली भांति समझते थें, और इसलिए उन्होंने भी कभी किसी प्रकार कि ज़िद नहीं कि. उनका ये व्यवहार और रवैया देखकर अवंतिका के ह्रदय में उनके लिए प्रेम और सम्मान कि भावना और भी बढ़ गई थी !
इसी प्रकार धीरे धीरे सात दिन कैसे ब्यतीत हो गएँ, पता ही ना चला.
आठवी रात्रि को जब विजयवर्मन अपने वस्त्र खोल कर बिस्तर पर आएं और अपना लण्ड हाथ में थामे वीर्यस्खलन कि तैयारी करने लगें, तो अवंतिका ने अचानक से उनका हाथ पकड़ कर उन्हें रोका, और बोली.
" राजकुमार... मुझे और पाप कि भागी ना बनाइये ! ".
" ये आप क्या कह रहीं हैं राजकुमारी ? ". विजयवर्मन ने उन्हें आश्चर्य से घूरते हुए पूछा.
" ठीक ही तो कह रही हूँ राजकुमार. आप मेरे भाई और प्रेमी बाद में हैं, परन्तु अब सबसे पहले आप मेरे पति, मेरे प्राणनाथ हैं. फिर आप जैसे तेजस्वी पुरुष का वीर्य प्रतिदिन इस प्रकार नष्ट करवाना मुझ जैसी एक साधारण स्त्री को शोभा नहीं देता !!! ".
" मेरा कामरस व्यर्थ कहाँ हो रहा हैं अवंतिका... मैं तो उन्हें आपके चरणों में समर्पित करता हूँ, जैसे कोई पुजारी किसी देवी को श्रद्धांजलि देता है, ताकि उससे कभी कोई भूल ना हो जाये ! "
" मैं एक सामान्य स्त्री हूँ भैया... देवीतुल्य नहीं ! आपने मेरे पैरों पर स्खलित होकर मुझे जो सम्मान प्रदान किया है, उसका ऋण मैं आजीवन चुका नहीं पाऊँगी ! ".
विजयवर्मन ने एक नज़र नीचे अपने हाथ में थामे हुए लण्ड को देखा, जो कि तन कर खड़ा हो चुका था, और फिर अवंतिका को देखा, उनके चेहरे पर झलकता कौतुहल देखकर अवंतिका उनके मन के सवाल को समझ गई, और आदरपूर्वक बोली.
" पुरुष के वीर्य का स्थान स्त्री कि योनि में होता है भैया. मैं आपको अपनी योनि तो प्रदान नहीं कर सकती परन्तु ऐसा कुछ ज़रूर कर सकती हूँ कि आपके पुरुषार्थ का भी अनुचित अपमान ना हो ! "
विजयवर्मन के चेहरे का प्रश्नचिन्ह और भी गहरा हो गया, अवंतिका ने अपने दोनों हाथ उनके सामने ऐसे रखा जैसे कोई प्रशाद ग्रहण करता हो, और उनकी आँखों में देखकर कहा.
" आप मेरे हाथों में वीर्यस्खलन कीजिये भैया... ".
" जैसी मेरी धर्मपत्नि कि इच्छा ! ". कहते हुए विजयवर्मन ने आगे बढ़कर अवंतिका को चूम लिया, और फिर अपने घुटनों के बल खड़े होकर उनकी हथेलीयों के ऊपर अपना लण्ड हिलाने लगें.
अवंतिका ने सीधे बैठते हुए अपनी चूचियाँ ऊपर उठा ली, ताकि उनके स्तन देखकर राजकुमार को अपना वीर्य गिराने में सुविधा हो. जल्दी ही विजयवर्मन के लण्ड का सुपाड़ा फूल कर लाल हो गया, उन्होंने अपने दूसरे हाथ से अवंतिका के कंधे को पकड़ कर सहारा लिया, ताकि चरमोत्कर्ष कि इस घड़ी में वो गिर ना जायें, और उनके लण्ड ने ढेर सारा गाढ़ा लस्सेदार वीर्य उगल दिया. अवंतिका ने पूरी कोशिश कि की उनकी छोटी छोटी हथेलीयों में सारा का सारा वीर्य इकठ्ठा हो जाये, और बड़ी ही मुश्किल से उन्होंने वीर्य की एक बूंद मात्र को भी अपनी नन्ही हथेलीयों से बाहर छलकने से रोका. जब विजयवर्मन ने लण्ड का सारा का सारा रस झटक झटक कर झाड़ दिया, तो अवंतिका ने ऊपर नज़रें उठाकर उन्हें देखा, मुस्कुराई, अपनी हथेलीयों में जमा वीर्य को अपने माथे चढ़ाया, फिर अपने होंठों से लगाया, और एक ही घूंट में पूरा वीर्य पी गई !!!
" ये क्या किया आपने अवंतिका ??? ". अचंभित होकर विजयवर्मन ने पूछा.
" आपकी पत्नि होने का केवल मात्र एक छोटा सा कर्तव्य निभाया, भैया !!! ". अवंतिका ने अपनी हथेलीयों में लगे हुए बचे खुचे वीर्य को अपने माथे पर सिर के बालों में पोतते हुए कहा.
प्रेमभावना से सराबोर हो चुके विजयवर्मन के मुँह से एक शब्द भी ना निकल पाया, उन्होंने अवंतिका के कंधे पकड़ कर उन्हें बिस्तर पर लिटा दिया और खुद भी उनके बगल में लेट गएँ. अवंतिका ने राजकुमार का झड़ा हुआ ढीला पड़ चुका लण्ड अपने हाथ में पकड़ कर अपनी नाभी पर रख लिया और उन्हें अपने बाहों में भरकर सो गई !!!
उस दिन के बाद से अवंतिका ने फिर कभी विजयवर्मन को उनका कामरस अपने पैरों पर नष्ट नहीं करने दिया, अब हर रात विजयवर्मन उन्हें अपना वीर्य पिलाते...
....................
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24-07-2021, 06:31 PM
बिछड़ने की घड़ी जैसे जैसे निकट आ रही थी, अवंतिका और विजयवर्मन की चिंता और प्रेम दोनों बढ़ते ही जा रहें थें.
आखिरकार भाई बहन के इस अजीबोगरीब, परन्तु पवित्र विवाह - बंधन की अंतिम रात्रि आ ही गई.
आज अवंतिका और विजयवर्मन का विवाह हुए पूरे सत्ताईस दिन पूरे हुए.
भोर होते ही अट्ठाईसवां दिन चढ़ जायेगा और उन दोनों का वैवाहिक सम्बन्ध विच्छेद हो जायेगा !!!
रात को सोने के समय रोज़ की भांति अवंतिका और विजयवर्मन नंगे होकर बिस्तर पर बैठे हुए थें.
" आज आप इतनी उदास क्यूँ हैं प्रिये अवंतिका... भोर होने में अभी समय है ! ". अवंतिका को चिंतित देख विजयवर्मन बोलें.
" भैया... क्या हमारे प्रेम को कोई भी नहीं समझेगा ? हमारी कहानी का अंत क्या इतना दुखद होगा ? ". अवंतिका ने पूछा.
" नहीं राजकुमारी... आपको तो ईश्वर का आभार व्यक्त करना चाहिए की उन्होंने हमेशा हमेशा के लिए बिछड़ने से पहले हमें ये सत्ताईस दिन दियें ताकि इन दिनों में बिताये हर एक क्षण की स्मृति हमारे साथ आजीवन बनी रहे ! ".
" इन सत्ताईस दिनों में मैंने आपको स्मरण रखने लायक दिया ही क्या है राजकुमार ? ".
" ऐसा तो ना कहिये राजकुमारी... ".
" मैं सत्य वचन कह रह हूँ भैया ! पुरुष और स्त्री की चाहत में बहुत भेद होता है ! ".
" भेद उनकी लालसा में नहीं बहन, उस लालसा की अभिव्यक्ति में होता है ! ".
" आपका कथन सत्य है भैया. अगर इच्छा की बात करें, तो मैं भी आपसे मिलन के लिए उतनी ही आतुर हूँ जितनी की आप, या फिर कहीं उससे अधिक ! ". कहते हुए अवंतिका ने विजयवर्मन का ढीला लण्ड अपने हाथ में पकड़ लिया. " विवाह के उपरांत इतने दिनों मैं आपके साथ इतनी कठोर रही क्यूंकि मुझे आपके प्राणो का भय सता रहा था. पर अब जब हमारे एक दूसरे से हमेशा हमेशा के लिए दूर होने की घड़ी निकट है तो मेरा संयम कमज़ोर पड़ते जा रहा है !!! "
विजयवर्मन अभी अवंतिका के मन की मंशा भांपने की चेष्टा कर ही रहें थें, की अवंतिका ने अपने एक हाथ से विजयवर्मन के सिर के लंबे केश प्यार से सहलाये, अपनी नंगी टांगें खोल कर फैला ली, और दूसरे हाथ में पकड़ा उनका लण्ड छोड़कर अपनी कमर से बंधी सोने की करधनी से झूलते हुए सफ़ेद चमकीले झालरदार मोतीयों को अपनी चूत पर से हटा दिया !!!
विजयवर्मन की आँखे बड़ी हो गईं, मानो बाहर ही निकल आने को हो , और उनके दोनों होंठों का साथ छूटते ही उनका मुँह अपने आप ही खुल गया - हो भी क्यूँ ना, सामने का दृश्य ही कुछ ऐसा था !
सामने बैठी राजकुमारी अवंतिका की चौड़ी खुली जाँघों के मध्य अवस्थित उनकी चूत को काले घने रेशमी घुँघराले झांटों ने इस भांति ढंक रखा था की ना तो चूत के होंठ दिखाई पड़ रहें थें और ना ही उसका छेद ! अपनी नवविवाहिता बहन के अनमोल चूत के दर्शन करने का सौभाग्य आज राजकुमार विजयवर्मन को जीवन में पहली बार मिल रहा था !
विजयवर्मन के ढीले लण्ड में आहिस्ते आहिस्ते आ रहा तनाव अवंतिका की चपल आँखों से छुप ना पाया. देखते ही देखते उनकी आँखों के सामने विजयवर्मन का लण्ड बिना किसी छुवन के अपने आप ही ठनक कर खड़ा हो गया. लण्ड के पूरी तरह से खड़ा होते ही उसके मुँह कि चमड़ी खुद ब खुद मुड़ कर पीछे खिसक गई और बड़ा सा गुलाबी सुपाड़ा एकदम से बाहर निकल आया. अपने भाई के लण्ड के मोटे सुपाड़े को यूँ एकदम नज़दीक से देखकर अवंतिका के गाल शर्म से सुर्ख लाल हो गएँ और लजा कर उसने अपनी पलकें एक क्षण के लिए नीचे झुका ली, फिर मुस्कुराते हुए नज़रें वापस से उठाई, और ठीक उसी समय विजयवर्मन के अतिउत्तेजित हो चुके लण्ड ने वीर्य कि पिचकारी छोड़ दी !!!
" हाय... तनिक धैर्य रखिये भैया !!! ". अवंतिका के मुँह से अकस्मात ही निकल पड़ा, फिर वो हँस पड़ी, और आगे बढ़कर विजयवर्मन को गले से लगा लिया.
एक दूसरे से लिपटे रहने के करीब दो तीन मिनट बाद जब दोनों अलग हुए तो अवंतिका ने देखा कि विजयवर्मन का लण्ड अभी भी पहले जैसा ही खड़ा है और ज़ोर ज़ोर से फड़क रहा है. उसके ठीक नीचे चादर पर ढेर सारा वीर्य छिटका पड़ा है. यूँ तो रोज़ाना बस एक बार स्खलित होने के पश्चात् उनका लण्ड शांत और ढीला पड़ जाता था, परन्तु आज अपने भैया - पति के झड़ने के बाद भी लण्ड में रह गये तनाव को देखकर अवंतिका समझ गई कि उन दोनों के पावन मिलन कि बेला आ चुकी है और उसे अब कोई भी नहीं टाल सकता !!!
" इतनी अधीरता क्यूँ भैया ??? आज रात्रि तक तो मैं आपकी अर्धांगिनी हूँ ही !!! ". अवंतिका ने विजयवर्मन कि चौड़ी छाती को सहलाते हुए मुस्कुरा कर कहा.
" आज आपको पता चलेगा राजकुमारी, कि अपने पति को इतनी निष्ठुरता से सताने का परिणाम क्या होता है !!! ". विजयवर्मन ने शरारती तरीके से मुस्कुराते हुए कहा, और अपना मुँह अवंतिका कि खुली टांगों के बीच झुका कर ऊपर देखते हुए पूछा. " आज्ञा है देवी ??? ".
अवंतिका हँस पड़ी.
उन्हें पता था कि विजयवर्मन किस बात कि आज्ञा मांग रहें हैं. उन्होंने लजाते हुए धीरे से हाँ में सिर हिला दिया.
अपनी बहन - पत्नि कि स्वीकृति मिलते ही विजयवर्मन ने अपने दोनों हाथों से उनकी रुई से भी मुलायम झांटों को दोनों तरफ हटाया, ताकि घुँघराले केश में छुपे चूत कि झलक मिल सके. घने झांटों के परे हटते ही दूध जैसी गोरी चूत के नरम होंठ और उनके बीच का पतला नन्हा सा लकीरनुमा छिद्र उदघाटित हो उठा.
अवंतिका ने अपने भाई को मन भर कर अपनी चूत के दर्शन करने दिए.
विजयवर्मन बिना अपनी पलक एक बार भी झपकाये अपनी बहन कि चूत एकटक निहारते नहीं थक रहें थें. उन्होंने जी भर कर अपनी उंगलीयों से उनकी रेशमी झांटों के साथ खेला. फिर ऊपर उठ कर अवंतिका के होंठों से अपने होंठ सटा दियें, मानो इतनी मनमोहक चूत भेंट करने हेतु उनके प्रति अपनी कृतज्ञता ज़ाहिर कर रहें हों. अपने शरीर पर विजयवर्मन के शरीर का भार महसूस करते ही अवंतिका चुम्बन में लिप्त धीरे धीरे पीछे गिरते हुए अपने पीठ के बल लेट गई, तो विजयवर्मन उसके शरीर के ऊपर आ गएँ. उन्होंने अपने होंठ अवंतिका के होठों से अलग कियें, और उनकी जाँघों के मध्य अपनी कमर घुसा कर धीरे धीरे हिलाते हुए अपने लण्ड के नुकिले सुपाड़े से उनकी चूत का छेद ढूंढ़ने लगें ! परन्तु अवंतिका के झांट इतने घने थें कि उनका सुपाड़ा बस झांट के ऊपर ऊपर ही रगड़ खाता रह गया !!!
अवंतिका हँसने लगी, और बोली.
" चित्रांगदा भाभी ने आपको स्त्री का योनिद्वार खोजना नहीं सिखाया क्या... भैया ??? ".
" ऐसी बात नहीं है राजकुमारी... बस आपके योनि के ये पहरेदार, ये केश बड़े ढीट हैं ! ". विजयवर्मन ने अवंतिका कि नाक चूमते हुए मुस्कुरा कर कहा.
" तनिक ठहरिये फिर... ". कहते हुए अवंतिका ने अपनी नंगी टांगें पूरी तरह से खोलकर हवा में फैला लियें, अपना हाथ नीचे अपने और विजयवर्मन के चिपके हुए पेट के बीच से डाल कर अपनी चूत के छेद पर से अपने झांटों को परे हटाया, और विजयवर्मन के लण्ड का सुपाड़ा अपनी उंगलीयों से टटोल कर पकड़ लिया और अपनी चूत के छेद पर टिका लिया.
नरम छेद का सुपाड़े पर स्पर्श पाते ही विजयवर्मन ने तनिक देर भी और प्रतीक्षा किये बिना ही एक धीमा, परन्तु सख़्त झटका लगाया, और पूरे के पूरे सुपाड़े को राजकुमारी कि चूत में प्रवेश करा दिया !
" हाय राजकुमार... मेरी योनि !!! ". दर्द से बिलबिला उठी अवंतिका ने अपने ऊपर चढ़े विजयवर्मन के पीठ पर अपने लंबे नुकीले नाख़ून गड़ा दियें.
विजयवर्मन ने घबरा कर अपना सुपाड़ा अवंतिका कि चूत से बाहर खींच निकाला.
" मेरी पीड़ा कि चिंता ना कीजिये भैया... ". अनियमित रूप से साँस लेते हुए अवंतिका बोली.
विजयवर्मन ने अपनी कमर हिला कर वापस से अवंतिका कि चूत का छेद खोज निकाला, और इस बार थोड़ी ज़्यादा सख़्ती के साथ आगे कमर उचका कर धक्का लगाया, तो लण्ड का सुपाड़ा अवंतिका कि चूत कि नरम पतली झिल्ली को फाड़ कर सट से अंदर दाखिल हो गया. झिल्ली के फटते ही अवंतिका कि चूत से रक्त निकल पड़ा. असहनीय दर्द के मारे बेचारी चिंहुक उठी, परन्तु अपने दांतो से अपने होंठ दबाकर अपनी चीख रोके रखी, और आवेग में आकर विजयवर्मन के पीठ को अपने नाख़ूनों से खरोच डाला. अपने लण्ड, अंडकोष और जाँघों पर कुछ गरम गरम और गीला गीला सा महसूस करते ही विजयवर्मन समझ गएँ कि उनकी बहन कि क्षतिग्रस्त चूत से खून गिरना शुरू हो चुका है, परन्तु वो रुके नहीं, उन्होंने अवंतिका के दोनों कंधे कस कर पकड़ रखें थें ताकि वो छटपटाये नहीं, और उनके ऊपर चढ़े हुए, धीरे धीरे ठूंस ठूंस कर अपना लण्ड उनकी चूत में भरने लगें. राजकुमारी अवंतिका कि चूत इतनी संकुचित और चुस्त थी, कि पूरे बीस मिनट लगें विजयवर्मन को अपना पूरा का पूरा लण्ड उनकी चूत कि गहराईयों में उतारने में !!!
आखिरकार जब लण्ड का सुपाड़ा अवंतिका कि बच्चेदानी से ठोकर खाकर रुक गया तो विजयवर्मन ने चैन कि साँस ली. परन्तु चूत कि गहराईयों तक दाखिल होने में उन्होंने इतना अधिक समय लगा दिया था कि लण्ड कि उत्तेजना चरमसीमा तक पहुँच चुकी थी, और लण्ड चूत के अंदर वीर्य कि उल्टीयां करने लगा. इतने कम समय में दो दो बार शीघ्रपतन हो जाने कि वजह से विजयवर्मन का शरीर सिथिल पड़ गया, और वो अवंतिका के नंगे बदन पर गिर कर पसर गएँ !
अवंतिका ने अपने भाई के शरीर के भार को धीरे से धकेल कर अपने ऊपर से हटाया, तो विजयवर्मन का लण्ड उनकी चूत से फिसल कर बाहर निकल आया. इसके साथ ही अवंतिका कि चूत से ढेर सारा वीर्य और थोड़ा सा रक्त फलफला कर बाहर निकल कर बिस्तर पर बहने लगा ! विजयवर्मन का आधा खड़ा लण्ड अवंतिका कि चूत के रक्त में सना लाल चमक रहा था. अवंतिका ने ओढने के लिए पास में पड़ी हुई एक सफ़ेद चादर से विजयवर्मन के फड़कते हुए लण्ड को ढंक दिया, और अपनी एक चूची हाथ में थाम कर उनके मुँह से लगाते हुए हँस कर बोली.
" तनिक स्तनपान कर लीजिये भैया, सहवास के लिए शक्ति मिलेगी !!! ".
विजयवर्मन ने लपक कर अवंतिका के लाल चूचुक को अपने मुँह में भर लिया, और ज़ोर ज़ोर से चप चप कि आवाज़ करते हुए चूसने लगें. चूचुक को दो तीन बार ही उन्होंने मुँह के अंदर चूस कर टाना होगा, कि अवंतिका कि चूची से गरम ताज़ा दूध निकल आया. विजयवर्मन को अत्यंत आश्चर्य हुआ कि उनकी बहन माँ बने बिना ही ना जाने कैसे इतनी दुधारू हो गई. अब उन्हें यकीन हो गया कि अवंतिका कोई साधारण राजकुमारी नहीं, वरन साक्षात् कामदेवी ही है !!!
जब एक चूची का दूध समाप्त हो गया तो अवंतिका ने अपनी दूसरी चूची अपने भैया - पति के मुँह में दे दी, और इस तरह से बारी बारी से अपनी बहन - पत्नि कि दोनों चूचियों का मीठा दूध पीने के बाद विजयवर्मन के शरीर में पुनः जान आई. लण्ड कि नसों में वापस से रक्त संचार होते ही लण्ड पहले से भी ज़्यादा अकड़ कर खड़ा हो गया. अवंतिका कि चूची से निकले दूध के अंतिम धार को गटकने के पश्चात् विजयवर्मन फिर से पलट कर उसके ऊपर चढ़ गएँ. उनके कमर से लिपटी चादर खिसक गई तो ठनका हुआ लण्ड छिटक कर बाहर निकल आया. अवंतिका अभी ठीक से अपनी टांगें खोल भी नहीं पाई थी, कि विजयवर्मन उनकी जाँघों के बीच घुस आएं, और बिना किसी चेतावनी के सरसरा कर धड़ल्ले से अपना लण्ड उनकी पहले से ही लहूलुहान हो रखी चूत में घुसेड़ दिया !!!
दर्द से तिलमिलाई अवंतिका ने अपनी आँखे भींच कर बंद कर ली, तो आँखों के कोनों से आंसूओ कि बूंदे टपक पड़ी. जैसे तैसे उन्होंने अपने चूतड़ इधर उधर खिसका कर विजयवर्मन के लण्ड के लिए अपनी कोरी चूत में जगह बनाई, और अपनी मांसल टांगें उनके कमर से लपेटकर उन्हें अपनी बाहों में भर लिया.
विजयवर्मन ने आव देखा ना ताव, लगे अवंतिका को ताबड़तोड़ पेलने !!!
" अअअअअहहहहहह... मममम... मेरे भैया, मेरे प्राणनाथ... तनिक धीरे... आअह्ह्ह... सम्भोग के लिए इतनी आतुरता उचित नहीं... हाय... आआहहहहहहह... माना कि मैंने आपके साथ सात फेरे लिए हैं और अब आपकी अर्धांगिनी हूँ, परन्तु हूँ तो आपकी छोटी बहन ही ना !!! कुछ तो तरस खाइये... कुछ तो दया कीजिये... मेरी योनि को यूँ तो क्षतविक्षत ना कीजिए भैया... दुहाई है आपको... हाय !!! ".
अवंतिका रोती बिलखती, सिसकती गिड़गिड़ाती रही, परन्तु विजयवर्मन ने उनकी हरेक प्रार्थना, हरेक विनती अनसुनी कर दी !
" इतनी सुंदर योनि कि मालकिन हैं आप राजकुमारी... इतने दिनों मुझे इससे क्यूँ वंचित रखा ??? बोलिये... आअह्ह्हघघघघ... बोलिये ना अवंतिका !!! ".
विजयवर्मन अवंतिका को किसी तरह अपनी बातों से बहला फुसला कर चोदते रहें, उनके कमर से लिपटे अवंतिका के पैरों ने इतने झटके खाएं कि उनके पैरों के दोनों पायल खुल कर गिर गएँ.
जल्द ही विजयवर्मन का लण्ड फिर से अवंतिका कि चूत में उबल पड़ा. परन्तु इस बार विजयवर्मन एक क्षण को भी नहीं रुकें और ना ही उन्होंने अपना लण्ड बाहर निकाला. उन्होंने अपना लण्ड अवंतिका कि चूत में अंदर बाहर अंदर बाहर करना तब तक जारी रखा जब तक कि लण्ड में पुनः तनाव नहीं आ गया !
विजयवर्मन ने अवंतिका को चूमते चाटते हुए अब नये सिरे से फिर से चोदना प्रारम्भ कर दिया. चूत में लण्ड के लगातार घर्षण से अवंतिका का योनिद्वार अब पूर्णत: खुल गया तो लण्ड बिना किसी प्रयास के भीतर बाहर होने लगा. अवंतिका ने अपनी बच्चेदानी में इतने ठोकर सहें, कि उसका पानी निकल आया. अपने जीवन के प्रथम कामरस के प्रवाहित होते ही अवंतिका सहवास के चरम आनंद में गोते लगाने लगी, उसकी हर दर्द, हर पीड़ा अब जाती रही.
" अअअअअहहहहहह भैया... कितने मूर्ख हैं हम जो हमने ये सत्ताईस दिन यूँ ही नष्ट कर दियें... हाय... ये कैसा सुख है भैया !!! ".
अनवरत चुदाई से आनंदविभोर हुई अवंतिका अब अपने नितंब उछाल उछाल कर विजयवर्मन का लण्ड अपनी चूत में गीलने लगी. विजयवर्मन का अंडकोष फिर से वीर्य के गरम बुलबुलों से भर गया. चरमोत्कर्ष के अंतिम क्षणो में उन्होंने अवंतिका को इतनी शक्ति से चोदा कि अवंतिका कि कमर कि सोने कि मोटी करधनी टूट गई, और करधनी के झालर और मोती टूट टूट कर पूरे बिस्तर पर बिखर गएँ.
पसीने से तर बतर हुए विजयवर्मन ने एक बार फिर अवंतिका कि चूत को अपने वीर्य से सींच दिया और उनके शरीर पर निढाल होकर गिर पड़े.
" पुष्पनगरी के छोटे राजकुमार कि केवल इतनी ही क्षमता है क्या ??? ". अवंतिका ने अपने भाई के लंबे केश सहलाते हुए उन्हें चिढ़ाने के उदेश्य से पूछा.
अवंतिका कि चूचियों के मध्य से अपना मुँह बाहर निकालकर विजयवर्मन ने उनकी आँखों में देखा और हँस पड़े, फिर लम्बी लम्बी साँसे लेते हुए करीब करीब हाँफ़ते हुए बोलें.
" प्रश्न ये है कि पुष्पनगरी कि छोटी राजकुमारी मेरा कितना प्रेम ग्रहण कर सकती है !!! ".
" हाय... राजकुमार...नहीं !!! ".
विजयवर्मन कि शरारत समझते ही अवंतिका उन्हें धक्के देते हुए उनके शरीर के नीचे से निकलने कि चेष्टा करने लगी, परन्तु विजयवर्मन ने उन्हें अच्छी तरह से अपनी मज़बूत बाहों में जकड़ रखा था, सो बेचारी हिल भी नहीं पाई !
विजयवर्मन ने हँसते हुए फिर से अपनी कमर हिलानी शुरू कर दी !!!
ये सुखद रात्रि कहीं व्यतीत ना हो जाये, इसी भय से अवंतिका और विजयवर्मन पूरी रात नहीं सोएं. भोर होने तक विजयवर्मन ने अवंतिका को अनगिनत बार चोद दिया था.
प्रातः के सूर्य कि पहली किरण के साथ ही दोनों फिर थके मांदे एक दूसरे कि बाहों में योनि - रक्त से लथपथ बिस्तर पर सो गएँ !!!
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" खुद ही देख लीजिये पिताश्री... मैंने क्यूँ उस दिन इसका विरोध किया था !!! ".
अपने ज्येष्ठ भ्राता देववर्मन कि आवाज सुनकर विजयवर्मन कि नींद उचट गई. आँखे खुलते ही उन्होंने सामने जो कुछ भी देखा उसपर यकीन कर पाना मुश्किल था.
शयनकक्ष के अंदर सामने दरवाजे पर, महाराजा नंदवर्मन, महारानी वैदेही और राजकुमार देववर्मन खड़े थें. महाराजा नंदवर्मन का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ लाल हो रखा था और महारानी ने अपनी नज़रें नीचे झुका रखी थी.
और तब विजयवर्मन को स्मरण हो आया कि वो अभी भी शैया पर अपनी बहन राजकुमारी अवंतिका के साथ पूरी तरह नग्न अवस्था में लिपटे पड़े सोये हुए हैं !!!
विजयवर्मन अवंतिका से अपनी बांहें छुड़ाकर झट से उठ बैठें, तो उनके शरीर से लगे ठोकर से अवंतिका कि भी नींद खुल गई, और आँखे खुलते ही अपने परिवारजनों को इस प्रकार कक्ष में देख कर वो घबराकर उठ बैठी.
अवंतिका के उठते ही रानी वैदेही ने अपनी आँखे उठाकर उन दोनों को देखा - उनकी पुत्री कि नंगी जाँघों पर रक्त लीपा पुता हुआ था, जो कि अब तक सूख चुका था, और उनके पुत्र का लण्ड सूखे रक्त से सना हुआ तन कर खड़ा हो रखा था. शैया पर बिछी चादर पर जगह जगह रक्त के निशान थें. समझने समझाने कि आवश्यकता ना थी कि वहाँ उन दोनों भाई बहन के बीच रात भर क्या हुआ था !!! रानी वैदेही ने तुरंत अपनी आँखे लज्जावश फिर से नीचे कर ली.
अवंतिका ने एक हाथ से किसी प्रकार अपनी नंगी चूचियों को ढंका तो दूसरे हाथ से अपनी खुली हुई चूत कि गरिमा बचाने कि कोशिश करने लगी. दोनों अभी ठीक से समझ भी नहीं पाएं थें कि क्या हो रहा है और उन्हें क्या करना चाहिए, कि तभी महाराजा, महारानी और देववर्मन के पीछे से दौड़ती हुई चित्रांगदा ने कक्ष में प्रवेश किया. उनके हाथों में एक ओढने के लिए उपयोग कि जाने वाली बड़ी सी चादर थी. चित्रांगदा दौड़ कर बिस्तर तक पहुँची, और अपने हाथों में लिए चादर को नंगी अवंतिका और विजयवर्मन के ऊपर फेंक दिया. अवंतिका और विजयवर्मन ने तुरंत वो चादर अपने शरीर पर खींच कर समेट लिया और खुद को पूरी तरह से ढंकते हुए अपना सिर नीचे झुका लिया.
" क्षमा चाहती हूँ पिताश्री !!! ". चित्रांगदा ने अपने ससुर महाराजा नंदवर्मन कि ओर देखकर आदरपूर्वक सिर झुकाते हुए कहा, और फिर गुस्से से अपने पति देववर्मन को घूरते हुए बोली. " आपका साहस कैसे हुआ राजकुमारी के कक्ष में इस प्रकार घुसपैठ करने कि ??? ".
" ना करता तो ज्ञात कैसे होता कि दोषनिवारण के लिए सबकी सहमति से किये गये इस पवित्र विवाह कि आड़ में कैसे घृणित कर्म हो रहें हैं !!! ". देववर्मन ने कुटिल मुस्कान के साथ कहा, फिर महाराजा और महारानी कि तरफ इशारा करके बोलें. " और फिर पूज्य पिताश्री और माताश्री को भी तो ये सब बताना आवश्यक था ना प्रिये ! ".
चित्रांगदा अपने पति के कपटी आचरण को भली भांति समझती थी. वो समझ गई कि जिस दिन से अवंतिका और विजयवर्मन का विवाह हुआ था, उसी दिन से ईर्ष्या और द्वेष कि अग्नि में तिल तिल जल रहे देववर्मन ने अवश्य ही उनके पीछे अपने खास गुप्तचर लगा दिए होंगे, ताकि उन दोनों कि एक छोटी सी गलती पर भी कोई बड़ा सा बखेड़ा खड़ा किया जा सके, और अपने अपमान का प्रतिशोध लिया जा सके.
" इस राजमहल में और भी कई घृणित कर्म होतें आ रहें हैं... मैं अगर बताने पर तुल जाऊं तो कइयों का पुरुषार्थ आहत हो सकता है ! ". चित्रांगदा ने देववर्मन कि आँखों में आँखे डालकर ऊँचे स्वर में कहा.
अपनी पत्नि के कथन का अर्थ समझकर देववर्मन एकदम से चुप हो गएँ, फिर शांत परन्तु सख़्त स्वर में कहा.
" इस स्त्री ने खुद अपना सम्मान खोया है... इसका पक्ष लेने वाला भी समान रूप से पाप का भागीदार होगा. ".
" पुरोहित जी को बुलाओ पुत्र... ". राजा नंदवर्मन ने देववर्मन को बीच में ही टोकते हुए हिदायत दी, फिर चित्रांगदा कि ओर देखते हुए बोलें. " बहु... इन दोनों का शुद्धिकरण करवा कर जल्द से जल्द हमारे सामने उपस्थित किया जाये ! ".
चित्रांगदा ने धीरे से अपना सिर झुकाकर आज्ञापालन कि स्वीकृति दी.
महाराजा नंदवर्मन मुड़कर तेज़ कदमो से बाहर निकल गएँ, और उनके पीछे पीछे महारानी वैदेही.
देववर्मन ने जाने से पहले अवंतिका और विजयवर्मन को मुस्कुराते हुए घूरा, और फिर कक्ष से बाहर चले गएँ.
सबके चले जाते ही चित्रांगदा, अवंतिका और विजयवर्मन से चिंतित स्वर में बोली .
" ये आप दोनों ने क्या अनर्थ कर डाला ??? इसका परिणाम किसी के लिए भी अच्छा नहीं होगा... ".
अवंतिका और विजयवर्मन के पास कोई भी उत्तर ना था, दोनों दोषियों कि भांति सिर झुकाये बैठे रहें.
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चित्रांगदा अवंतिका को स्नानागार में स्नान कराने के लिए ले गई, सारी दासीयों को बाहर जाने कि आज्ञा दी ताकि किसी को कुछ पता ना चले, और स्वयं राजकुमारी को स्नान करवाने लगी.
अवंतिका अत्यंत डरी, सहमी और घबराई हुई थी. ऊपर से रात कि अनवरत चुदाई कि वजह से उसकी चूत बुरी तरह से फट कर करीबन एक मुट्ठी भर खुल कर फ़ैल गई थी. खून से भींग कर चूत कि झांटे आपस में उलझ गई थीं. राजकुमारी का रक्तस्राव थमने का नाम ही ना ले रहा था. चलना तो दूर, बेचारी ठीक से खड़ी भी नहीं हो पा रही थी.
" आपकी करधनी कहाँ गई राजकुमारी ??? ". नंगी अवंतिका के पानी में उतरते ही उसकी सूनी पड़ी कमर पर चित्रांगदा कि नज़र पड़ी तो वो पूछ बैठी.
" रात उन्होंने तोड़ दी !!! ". लाज से मरी जा रही अवंतिका ने मुँह नीचे झुका लिया.
" हाय... यही लाज रात को राजकुमार के सामने आई होती तो शायद वो आपको छोड़ देते ! ". चित्रांगदा ने अपने हाथ के अंगूठे को अवंतिका कि ठुड्डी से टिकाकर उसका शर्माता हुआ लाल चेहरा ऊपर उठाते हुये कहा, और हँस पड़ी.
" धत्त भाभी... ".
" और देखो तो... इतनी निर्दयता से कोई किसी स्त्री को भोगता है क्या ??? ". चित्रांगदा ने अवंतिका कि कमर के नीचे नज़र दौड़ाते हुये कहा तो अवंतिका ने लज्जावश अपनी टांगों को एक दूसरे से चिपका कर अपनी फटी हुई चूत को उनके मध्य दबा लिया. चित्रांगदा आगे बोली. " ये पुरुष भी ना !!! संसर्ग कि ऐसी भी क्या अधीरता कि इतनी सुंदर योनि को क्षतविक्षत ही कर डाले ??? ".
अवंतिका समझ गई कि उसकी भाभी उसे सहज़ करने के लिए ये सब बोल रही है, सो उसने उनकी बात अनसुनी करते हुए पूछा.
" भाभी... अब क्या होगा ??? ".
" राजद्रोह... ". चित्रांगदा ने कहा.
" राजद्रोह ??? लेकिन हमने तो ऐसा कुछ भी नहीं किया ? ".
" मुझे पता है राजकुमारी... परन्तु आप तो अपने बड़े भैया देववर्मन को जानती ही हैं, वो पूरा प्रयास करेंगे कि आप दोनों पर राजद्रोह का आरोप लगाया जाये. और आपको तो पता ही है कि राजद्रोह का दंड क्या है ! ".
" मृत्युदंड !!! ". अवंतिका ने धीरे से कहा, मानो खुद को ही बता रही हो.
चित्रांगदा ने जब देखा कि अवंतिका अत्यंत विचलित हो रही है तो उसने जानबूझकर फिर से बात बदलने के उद्धेश्य से पूछा.
" वैसे कितने दिनों से चल रहा था ये सब ? ".
" बस कल रात्रि ही हमारा प्रथम समागम हुआ भाभी... ".
" एक ही रात्रि में योनि कि ऐसी अवस्था ??? यकीन करना कठिन हो रहा है ननद जी !!! "
" सच कहती हूँ भाभी ... ".
" अच्छा ??? फिर तो ज़रूर आप ही ने अपने मनमोहक रूप से देवर जी को हद से ज़्यादा उत्तेजित कर दिया होगा... ".
" नहीं भाभी... मैंने तो उन्हें बहुत रोका पर उन्होंने मेरी एक ना सुनी ! ". अवंतिका ने कहा, फिर अपने झूठ पर खुद ही हँस पड़ी.
" मैं नहीं मानती आपकी बात... राजकुमारी ! देवर जी इतने निर्दयी तो नहीं... ". चित्रांगदा ने कहा, फिर पानी में ही अपना घाघरा उठाकर अवंतिका को अपनी नंगी चूत दिखाते हुए बोली. " खुद देख लीजिये राजकुमारी... मैं तो दो दो पुरुषो का लिंग एक साथ संभालती हूँ... मेरा योनिद्वार तो अभी तक कुंवारी लड़कीयों कि योनि से भी ज़्यादा संकुचित है !!! ".
अपनी भाभी कि बात सुनकर अवंतिका सब कुछ भूलकर खिलखिला कर हँस पड़ी, तो चित्रांगदा भी हँसने लगी.
चित्रांगदा ने अवंतिका कि लहूलुहान चूत को अच्छे से साफ किया, उसकी जाँघों और नितंब पर से रक्त को पोछा, गरम पानी से भींगे कपड़े से चूत को सेंक लगाई, और फिर स्नान के उपरांत चूत पर एक लेप लगाते हुए बोली.
" इस औषधि से आपकी घायल योनि को थोड़ा आराम मिलेगा, रक्तस्राव रुक जायेगा और पीड़ा कि टीस भी कम हो जाएगी. और उन सब बातों कि चिंता ना कीजिये राजकुमारी... सबकुछ ठीक ही होगा. ईश्वर है ना... ".
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राजा नंदवर्मन ने जो आपातकालीन गुप्त सभा बुलाई थी उसमें सभी परिवारगण के अलावा पुरोहित जी भी मौजूद थें. अवंतिका और विजयवर्मन को बैठने कि अनुमति नहीं थी, तो दोनों दोषियों कि भांति सिर झुकाये खड़े रहें.
राजा नंदवर्मन ने धीमे स्वर में, मानो उन्होंने खुद ही कोई अपराध किया हो, पुरोहित जी से कहना शुरू किया.
" अनर्थ हो गया पुरोहित जी, अत्यंत लज्जाजनक घटना है !इन दोनों मूर्ख भाई बहन ने आपकी बात का अनादर करते हुये आपस में... ". राजा नंदवर्मन एक क्षण को रुके, फिर कहा. "... आपस में सम्भोग कर लिया !!! ".
इतना सुनना ही था कि पुरोहित जी खड़े हो गएँ और क्रोध से तिलमिलाते हुए बोलें.
" राजन... जिस जगह ईश्वर के प्रतिनिधि कि बात का सम्मान ना हो, वहाँ उसका कोई स्थान नहीं ! ".
" सभा छोड़ कर ना जाइये पुरोहित जी... कृपया बैठ जाइये, और कोई उपाय बताइये ! ". रानी वैदेही ने आदरपूर्वक कहा.
" एक दोषनिवारण का उपाय मैंने बताया था, जिसका आपलोगों ने अनादर किया है. अब मेरे पास और कोई उपाय नहीं... मैं ईश्वर नहीं हूँ !!! ". पुरोहित जी ने बिना अपना स्थान ग्रहण किये ही कहा.
" इन दोनों के साथ अब क्या किया जाये पुरोहित जी ? ". राजा नंदवर्मन ने शांत स्वर में पूछा.
" आप राजा हैं... जो आप उचित समझें. इसमें अब पंडित पुरोहित का कोई हस्तक्षेप नहीं ! "
" और इनका विवाह विच्छेद ??? ". रानी वैदेही ने पूछा.
" कैसा विवाह महारानी ? भला भाई बहन में भी कोई विवाह होता है क्या ? ये तो बस एक पूजा मात्र, एक पवित्र यज्ञ ही था, ताकि आपकी पुत्री दोषमुक्त हो सके. इन दोनों कि कामवासना से सब अपवित्र हो चुका है अब ! ". पुरोहित जी ने ब्यंगात्मक हँसी हँसते हुये कहा.
" आपने सत्य कहा पुरोहित जी... आप ईश्वर नहीं हैं ! ". इतनी देर से चुपचाप खड़े विजयवर्मन हठात से बोल पड़ें. " देखिये, मैं ये पाप करने के पश्चात् भी आप सबों के सामने जीवित खड़ा हूँ, आपके कथन अनुसार तो अब तक मेरी मृत्यु हो जानी चाहिए थी ना ? ".
" राजकुमार !!! ". राजा नंदवर्मन ने ऊँचे स्वर में विजयवर्मन को चुप रहने का इशारा किया.
विजयवर्मन ने अपने पिता कि बात जैसे सुनी ही ना हो, उन्होंने कहना जारी रखा.
" अवंतिका अब मेरी पत्नि है... कोई साधारण पुरोहित तो क्या, स्वयं ईश्वर भी अब हमारा सम्बन्ध विच्छेद नहीं कर सकतें ! ".
" और पुत्री तुम ? ". वैदेही ने अवंतिका को देखते हुए पूछा.
" हम दोनों सर्वदा ही एक दूसरे से प्रेम करतें थें माताश्री. ". अवंतिका ने नज़रें उठाकर धीरे से कहा. " भैया से उचित वर मेरे लिए और कोई हो ही नहीं सकता था ! ".
अवंतिका कि बात सुनकर पुरोहित जी क्रोध और घृणा से हँस पड़े, और बोलें.
" ये दोनों महापापी हैं... इनकी मृत्यु तय है अब !!! जब तक ये दोनों इस राजमहल में हैं, मुझे दुबारा यहाँ ना बुलाईयेगा ! ".
फिर पुरोहित जी एक क्षण भी वहाँ रुके बिना कक्ष से बाहर चलें गएँ.
" राजद्रोह... ". पुरोहित जी के जाते ही देववर्मन ने महाराजा और महारानी से कहा. " इनपर राजद्रोह का आरोप सिद्ध होता है पिताश्री, इन दोनों को मृत्युदंड दिया जाये ! ".
" राजद्रोह कैसे नाथ ??? ". चित्रांगदा ने देववर्मन को देखते हुए कहा. " ये दोनों नियमानुसार पति पत्नि हैं. भाई बहन के मध्य संसर्ग अनुचित होगा, परन्तु पति पत्नि के बीच तो ये एक अत्यंत स्वाभाविक सी बात है ! ".
" आपने अवश्य ही अपनी बुद्धि खो दी है प्रिये, वर्ना चरित्रहीनता कि पराकाष्ठा पार करने वाली इस स्त्री के पक्ष में आप ना बोलती ! ". देववर्मन ने मुस्कुराते हुए ब्यंग कसा.
" चरित्रहीन व्यक्तियों कि पहचान करना मुझे भली भांति आता है नाथ ! रही बात ननद जी और देवर जी कि, तो ये दोनों अग्नि को साक्षी मान कर विवाह के बंधन में बंधे हैं. यहाँ उपस्थित लोगों के लिए और पुरोहित जी, जो कि अभी अभी गएँ हैं, के लिए शायद ये सब एक क्रीड़ा, एक यज्ञ, या फिर एक पूजा पाठ से ज़्यादा कुछ ना रहा हो, परन्तु था तो ये एक विवाह ही ना !!! ".
चित्रांगदा के इस कथन के उपरांत कक्ष में पूरी तरह से सन्नाटा छा गया. कुछ देर कि चुप्पी के बाद राजा नंदवर्मन बोलें.
" मुझे ज्ञात नहीं बहु कि आप कुलवधु होकर भी इन दोनों अपराधीयों का साथ क्यूँ दे रहीं हैं, परन्तु इतना तो अवश्य ही स्पष्ट है कि ना ही इनके विवाह को कोई मान्यता दी जा सकती है और ना ही इनके मध्य स्थापित हुए किसी भी प्रकार के अप्राकृतिक यौन सम्बन्ध को ! साथ ही ये भी सत्य है कि ये राजद्रोह नहीं !!! ".
" राजद्रोह नहीं ??? ये आप क्या कह रहें हैं पिताश्री ? ". देववर्मन ने भड़कते हुए कहा.
" राजद्रोह का अपराध मुझे ज्ञात है पुत्र... मैं राजा हूँ ! ". राजा नंदवर्मन धीरे से बोलें.
" अवश्य पिताश्री... ". देववर्मन ने सिर झुकाकर कहा. " राजद्रोह ना सही, परन्तु ये दोनों मृत्युदंड के तो भागी निसंदेह ही हैं ! "
" ये मुझे तय करने दीजिये राजकुमार ... ". कहते हुए राजा नंदवर्मन अपनी पत्नि वैदेही से अत्यंत धीमे स्वर में विचार विमर्श करने लगें.
देववर्मन ने गुस्से से पहले चित्रांगदा को देखा, फिर अवंतिका और विजयवर्मन को.
सभी चुपचाप खड़े महाराजा के फैसले कि प्रतीक्षा करने लगें.
कुछ समय उपरांत, विचार विमर्श समाप्त करके राजा नंदवर्मन ने सीधे अवंतिका और विजयवर्मन को सम्बोधित करते हुए पूछा.
" राजकुमार विजयवर्मन और राजकुमारी अवंतिका... क्या आप दोनों को अपने ऊपर लगाया गया आरोप समझ में आया और अगर हाँ, तो क्या आप दोनों अपना अपराध स्वीकार करतें हैं ??? ".
" पूज्य पिताश्री और माताश्री... हमें... ". विजयवर्मन ने कहना शुरू ही किया था कि रानी वैदेही ने उन्हें रोकते हुए कहा.
" हमारे निजी रिश्तों का अब कोई मोल नहीं रहा राजकुमार विजयवर्मन. उचित होगा कि आप दोनों हमें महाराजा और महारानी कि तरह सम्बोधित करें... ".
" जो आज्ञा ! ". विजयवर्मन ने सिर झुकाकर कहा, फिर बोलें. " आदरणीय महाराज और महारानी, हमें अपना अपराध ज्ञात है जो आप सबों के अनुसार एक अपराध है, परन्तु मैं अपना अपराधी स्वीकार करने कि स्थिति में नहीं हूँ ! ".
राजा नंदवर्मन और रानी वैदेही ने अवंतिका कि ओर देखा, तो उसने नज़रें उठाई, और बोली.
" मैं अपने पति से सहमत हूँ... मैं भी अपना अपराध स्वीकार नहीं करती ! ".
" जैसा कि हमने पहले ही अनुमान लगा लिया था ! ". राजा नंदवर्मन ने ठंडी आह भरते हुए इस प्रकार कहा जैसे कि मानो उन्हें इसी उत्तर कि आशा थी. फिर सिर उठाकर ऊँचे सशक्त आवाज में कहना शुरू किया. " राजकुमार विजयवर्मन और राजकुमारी अवंतिका... समाज द्वारा स्वीकृत भाई बहन के रिश्ते के अलावा अगर उनमें और कोई भी रिश्ता स्थापित होता है, तो वो गलत है. राजकुमारी अवंतिका ने कहा कि आप दोनों सर्वदा ही एक दूसरे से प्रेम करतें थें, जो कि अनुचित है. कामोन्नमाद और वासना कि आड़ में भाई बहन के अप्राकृतिक सम्बन्ध को प्रेम कि झूठी परिभाषा देना स्वयं में एक घृणित अपराध है, फिर आप दोनों ने तो उससे बढ़ कर ही सारी सीमाओ को लाँघ कर कुछ ऐसा करने का दुस्साहस कर डाला कि जो भाई बहन के पवित्र सम्बन्ध को दूषित करता है. साथ ही सामाजिक तौर पर यह एक अक्षम्य पाप भी है. परन्तु फिर भी मुझे ना ही आपसी रिश्तों का मोह है और ना ही समाज कि चिंता... मुझे केवल मात्र अपने राज्य से मतलब है. राज्य से ऊपर कुछ भी नहीं... मैं भी नहीं ! "
अवंतिका और विजयवर्मन सिर उठाये महाराजा नंदवर्मन का कथन सुनते रहें.
" ये राजद्रोह तो नहीं, परन्तु राजद्रोह से कम भी नहीं, यह हमारे राज्य का अपमान है ! इसलिए आप दोनों को देशनिकाला कि सजा सुनाई जाती है ! ".
अवंतिका और विजयवर्मन ने एक दूसरे को देखा.
" और अगर राजकुमार विजयवर्मन और राजकुमारी अवंतिका ने दुबारा कभी भी इस राज्य कि सीमा में कदम रखने कि कोशिश कि, तो उन्हें बिना किसी चेतावनी के मौत के घाट उतार दिया जायेगा !!! ".
" परन्तु ये अन्याय है... ". राजा नंदवर्मन का कथन पूर्ण होते ही चित्रांगदा लगभग चिल्ला उठी.
" हाँ पिताश्री... ये सरासर अन्याय है ! ". क्रोधित देववर्मन उठ खड़े हुये. " देशनिकाला ??? ऐसे पाप कि सजा केवल देशनिकाला ??? इन्हे अभी के अभी मृत्युदंड दिया जाये ! ".
" राजा का कथन ही अंतिम न्याय है पुत्र ... ". रानी वैदेही बोली.
" मैं नहीं मानता ! अगर आपमें अपने पुत्र और पुत्री के प्रति अभी भी मोह माया बची है तो मुझे आज्ञा दीजिये !!! ". कहते हुये देववर्मन ने अपने म्यान को हाथ लगाया ही था कि राजा नंदवर्मन उच्च स्वर में बोलें.
" राजा कि आज्ञा ना मानना अवश्य ही राजद्रोह है राजकुमार देववर्मन !!! ".
देववर्मन ने बड़ी मुश्किल से अपने गुस्से पर काबू पाया, उनका पूरा शरीर क्रोध से थर्रा रहा था, उन्होंने अपनी तलवार को म्यान में छोड़ कर आँखे बड़ी बड़ी करते हुये एक नज़र सभा मैं मौजूद हर व्यक्ति पर डाली, और फिर धमकी भरे स्वर में बोलें.
" याद रहे, इसका परिणाम अत्यंत बुरा होगा, फिर ना कहियेगा कि मैंने चेतावनी नहीं दी थी ! ".
इतना कहकर देववर्मन अपने कंधे पर लिपटे दुशाले को झटकते हुये सभा से बाहर चले गएँ.
राजा नंदवर्मन ने दो बार ताली बजाई तो तुरंत दो सिपाही कक्ष में दाखिल हो गएँ, और महाराज का इशारा समझते ही उन्होंने अवंतिका और विजयवर्मन को उनके बाहों से पकड़ लिया.
" इसकी आवश्यकता नहीं महाराज... हम स्वयं चले जायेंगे. ". विजयवर्मन ने राजा नंदवर्मन कि ओर देखकर मुस्कुराते हुये कहा, फिर जिस सिपाही ने अवंतिका कि बांह पकड़ रखी थी, उससे कठोर स्वर में बोलें. " अब अवंतिका को अगर किसी ने स्पर्श भी किया तो वो अपने प्राणो कि आहुति देने को तैयार रहे !!! ".
सिपाही ने अवंतिका कि बांह छोड़ दी और भय से कांपते हुये राजा नंदवर्मन को देखने लगा. महाराज ने धीरे से सिर हिला कर इशारा किया तो दोनों सिपाही अवंतिका और विजयवर्मन को छोड़ कर एक तरफ हाथ बांधे खड़े हो गएँ. अवंतिका और विजयवर्मन ने सिर झुकाकर महाराजा और महारानी से आज्ञा ली, और कक्ष से बाहर निकल गएँ. दोनों सिपाही उनके पीछे पीछे हो लियें.
अवंतिका, विजयवर्मन, और दोनों सिपाहीयों के प्रस्थान करते ही चित्रांगदा ने हारे हुये कमज़ोर स्वर में कहा.
" पिताश्री... माताश्री... इतने कठोर ना बनिए... तनिक करुणा से कार्य लीजिये. वे आपके अपने पुत्र और पुत्री हैं !!! ".
राजा नंदवर्मन अपने सिंहासन से उठ खड़े हुये, और चलते हुये चित्रांगदा के पास पहुँचे, उसके दोनों कंधो को अपने हाथों से पकड़ा, और उसकी आंसूओ से झिलमिलाती आँखों में आँखे डालकर नरमी से बोलें.
" घर कि कुलवधु को वासना में लिप्त ऐसे घोर पापी भाई बहन के पक्ष में बोलना शोभा नहीं देता !!! ".
चित्रांगदा ने चुपचाप अपनी आँखों में आये आंसूओ को अपने गालों पर बह जाने दिया - वो समझ चुकी थी इस राजपरिवार में अवंतिका और विजयवर्मन के प्रेम सम्बन्ध को स्वीकारने वाला कोई ना था !
राजा नंदवर्मन के पीछे सिंहासन से उठ आई रानी वैदेही ने उनके कंधे पर हाथ रखकर चिंता जताते हुये कहा.
" मुझे तो ये चिंता सताए जा रही है कि जब मरूराज्य नरेश हर्षपाल को इन सबके बारे में पता चलेगा, तो ना जाने क्या होगा !!! ".
राजा नंदवर्मन उत्तर देने कि स्थिति में नहीं थें, सो चुप रहें.
अपने गालों पर बह चले आंसूओ को पोछे बिना ही चित्रांगदा ने महाराजा और महारानी से प्रस्थान कि आज्ञा ली, और वहाँ से बाहर निकल आई. अपने कक्ष कि ओर जाते हुये वो कुछ सोचने लगी - उन्हें मरूराज्य नरेश हर्षपाल कि कोई चिंता नहीं थी, उन्हें तो केवल अपने पति के चेतावनी भरे शब्द खटक रहें थें ( " याद रहे, इसका परिणाम अत्यंत बुरा होगा, फिर ना कहियेगा कि मैंने चेतावनी नहीं दी थी ! " )
क्यूंकि उन्हें पता था कि देववर्मन कोरी धमकी देने वालों में से नहीं थें !!!
....................
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" क्षमा कीजिये महाराज, पुष्पनगरी के राजा नंदवर्मन के ज्येष्ठ पुत्र राजकुमार देववर्मन आपके दर्शनाभिलाशी हैं... ". मरूराज्य नरेश हर्षपाल के शयनकक्ष में प्रवेश करते ही एक सैनिक ने कहा. " उन्होंने कहा है ये बहुत... ".
हर्षपाल अपने सैनिक कि बात बीच में ही काटकर ज़ोर से चिल्लायें.
" मूर्ख... बातें मत कर, उन्हें तत्काल आदरपूर्वक अंदर ले आ !!! ".
सैनिक डरते डरते सिर झुकाकर बाहर चला गया. एक पल के बाद ही कक्ष में देववर्मन ने प्रवेश किया, परन्तु अंदर सामने का दृश्य देखते ही वो ठिठक कर रुक गएँ, और सिर नीचे करके कहा.
" क्षमाप्रार्थी हूँ राजा हर्षपाल... मुझे ज्ञात ना था कि आप अपनी पत्नियों के संग हैं, वर्ना मैं किसी और समय पधारता ! ".
सामने एक विशालकाय सैया पर हर्षपाल पूरी तरह से निर्वस्त्र लेटे हुये थें, एक नग्न स्त्री उनकी फैली हुई टांगों के मध्य अपना मुँह घुसाये अपना चेहरा ऊपर नीचे कर रही थी. उसका चेहरा उसके काले लंबे केश से पूर्णत: ढंका हुआ था, सो कुछ भी नज़र नहीं आ रहा था, परन्तु उसकी हरकते देखकर कोई भी अनुमान लगा ही लेता कि वो मुखमैथून में लिप्त है. एक दूसरी स्त्री हर्षपाल के समीप नंगी लेटी उनका बालों से भरा सीना सहला रही थी !
" पत्नि ??? ". हर्षपाल ठहाका मारकर हँस पड़े, और बोलें. " अरे नहीं नहीं... ये तो हमारी नर्तकी हैं. जब हमें ज्ञात हुआ की ये दोनों सुंदर नर्तकीयां नृत्य के अलावा और भी कई सारी कलाओ में निपुण हैं, तो हमने तुरंत ही इन्हे नृत्यालय से निकालकर अपने शयनकक्ष की सेविका बना लिया ! ".
देववर्मन अंदर ही अंदर क्रोधित होते हुये चुपचाप खड़े हर्षपाल की बकवास सुनते रहें.
" चार दिनों से हम अपने कक्ष से बाहर नहीं निकले हैं राजकुमार देववर्मन, अपनी पत्नियों से भी नहीं मिलें. अब तो लगता है की आपकी बहन राजकुमारी अवंतिका से विवाहोपरांत ही हमारा इन सुंदरीयों से साथ छूटेगा ! ".
देववर्मन कुछ ना बोलें.
" परन्तु आप चिंता ना करें राजकुमार... आपकी बहन के हमारे राजभवन में वधु बनकर आते ही हमारी ये सारी आदतें अपने आप छूट जाएंगी ! ".
" अवश्य राजा हर्षपाल... आप राजा हैं, आपको हर कुछ शोभा देता हैं ! ". देववर्मन ने हर्षपाल को चुप कराने के उदेश्य से खींझ कर कहा. फिर बोलें. " मुझे आपसे कुछ ज़रूरी बात करनी थी ! ".
" अवश्य... अवश्य ! तभी तो आप इतनी दूर की यात्रा करके हमारे राज्य में पधारें हैं, आपका स्वागत है ! ".
" मेरा मतलब था, मुझे आपसे एकांत में बात करनी है... ".
" एकांत में ??? ". हर्षपाल ने वापस से प्रश्न किया, फिर कुछ सोचा, और फिर जो नर्तकी उनका लण्ड चूस रही थी, उससे कहा. " जल्दी करो रोहिणी... मेहमान को प्रतीक्षा कराना घोर पाप है ! ".
हर्षपाल की बात समझकर दूसरी नर्तकी उनके पास से उठी, और पहली नर्तकी के मुँह में घुसे उनके लण्ड के अंडकोष को अपनी मुट्ठी में पकड़ कर दबाने लगी. हर्षपाल के चरमोत्कर्ष की अवधी को कम करने की उसकी ये तरकीब काम आई, जल्द ही वो छटपटाने लगें, उनके पैर अकड़ गएँ, और वो पहली नर्तकी के मुँह में अपना वीर्य भरने लगें.
देववर्मन चुपचाप खड़े इस नाटक को ना चाहते हुये भी देखते रहें.
पहली नर्तकी ने हर्षपाल के जाँघों के बीच से अपना चेहरा उठाया तो उनका झड़ा हुआ लण्ड उसके मुँह से फिसल कर बाहर निकल आया और ज़ोर ज़ोर से फड़कने लगा. स्पष्ट था की पहली नर्तकी उनका सारा का सारा वीर्य निगल चुकी थी ! दूसरी नर्तकी खिलखिलाकर हँसने लगी, फिर दोनों ने एक साथ हर्षपाल के लण्ड को चूमा. फूलते हुये साँस के साथ हर्षपाल उठें और दोनों नर्तकीयों के चूतड़ों पर एक साथ हल्के से थप्पड़ मारा, तो इशारा समझकर दोनों नर्तकीयां बिस्तर से उतरकर दौड़ते हुये कक्ष से बाहर भाग गईं.
हर्षपाल के चेहरे पर चरमसुख का संतोष साफ झलक रहा था. उन्होंने पास पड़े चादर से अपना ढीला पड़ रहा लण्ड ढंक लिया, परन्तु बिस्तर पर से उठें नहीं, और बोलें.
" आसन ग्रहण कीजिये राजकुमार... ".
देववर्मन बिस्तर के समीप रखे एक सिंहासन पर विराजमान हो गएँ.
" पहले जल ग्रहण कीजिये, भोजन कीजिये, थोड़ी मदिरा लीजिये... ".
" इन सबका समय नहीं है राजन !!! ".
" समय नहीं है ??? किसके पास समय नहीं है, आपके या हमारे ??? ". हर्षपाल ने आश्चर्य से पूछा.
" मैं आपको सारी बात बता देता हूँ राजन, फिर आप ही तय करें की इस परिस्थिति में समय का अधिक मूल्य किसके लिए है...आपके या मेरे ! ".
" ऐसी क्या बात हो गई ??? महाराज ठीक तो हैं ना... और अवंतिका ? ".
" अगर पिताश्री को पता चल गया की मैं आपसे मिलने आया हूँ तो उनके गुप्तचर मेरे प्राण हर लेंगे ! ".
" आपको यहाँ किसी का भय नहीं राजकुमार. परन्तु महाराजा नंदवर्मन आपके प्राण क्यूँ लेना चाहेंगे ??? पहेलियाँ ना बुझाईये... बताईये ! ".
" आपके साथ धोखा हुआ है राजा हर्षपाल !!! ".
" धोखा ??? कैसा धोखा ? ".
देववर्मन ने ऐसा नाटक किया मानो भय से उनकी साँस अटक रही हो, फिर बताने लगें.
" ध्यान से सुनिए राजन ! आपको तो ज्ञात ही है की मेरी बहन अवंतिका का आपके साथ विवाह होने से पहले उसके दोषनिवारण हेतु उसका विवाह सत्ताईस दिनों के लिए मेरे छोटे भाई विजयवर्मन से कर दिया गया था... ".
" हाँ राजकुमार... और मुझे इस पवित्र दोषनिवारण पूजा पाठ विधि से कोई आपत्ति नहीं थी... ".
" वही तो राजन, अवंतिका का दोष, उसका विवाह, ये सारा कुछ एक षड़यंत्र था ! सब मिथ्या था ! ये सारा का सारा नाट्य विजयवर्मन का रचा हुआ था. असल में मेरे छोटे भाई का... ". कहते कहते देववर्मन जानबूझकर रुकें, ये दर्शाने के लिए की वो आगे की बात बताने में हिचक रहें हैं, फिर बोलें. " मेरे छोटे भाई का हमारी बहन अवंतिका से अवैध सम्बन्ध था. ये बात हमारे परिवार में किसी को भी ज्ञात ना था. दोनों भाई बहन ने अपनी कामाग्नि जीवन भर के लिए मिटाने हेतु पुरोहित जी के साथ मिलकर ये स्वांग रचा. पुरोहित जी ने झूठमूठ अवंतिका का कोई अदभुत दोष बताकर दोनों भाई बहन के सत्ताईस दिन के लिए विवाह बंधन में बंधने का उपाय बताया. विजयवर्मन को पता था की अगर एक बार उसका अपनी बहन से विवाह हो जाये तो फिर दोनों को कोई भी अलग नहीं कर सकता. ".
हर्षपाल जड़ होकर देववर्मन की बात सुनते रहें.
" ये सत्ताईस दिन पूरे होने के बाद स्वयं विजयवर्मन ने ये बात हम सबों को बताई. परन्तु सबसे दुख और लज्जा की बात ये है की अब सारी बात जानने के बाद पिताश्री और माताश्री ने भी इस घृणित सम्बन्ध को स्वीकृती दे दी है, ये कहकर की अब जब दोनों का विवाह हो ही गया है तो फिर और किया भी क्या जा सकता है. जब मैंने इस बात का विरोध किया और कहा की हमें महाराज हर्षपाल को इस भांति अंधकार में रखकर उनके साथ छल नहीं करना चाहिए, तो पिताश्री ने ये कहकर मुझे सदैव के लिए चुप रहने का आदेश दिया, की राजपरिवार के मान सम्मान और गौरव की रक्षा के लिए हमें ये बात राजा हर्षपाल से किसी भी हालत में छुपानी पड़ेगी. वे लोग एक दो दिन में अवंतिका और विजयवर्मन को राज्य से बाहर दक्षिण में हमारे मामाश्री के साम्राज्य में भेंज देंगे. उनकी योजनानुसार कहें तो उसके कुछ दिन बाद आपको ये सन्देश दे दिया जायेगा की पुरोहित जी ने कहा है की अवंतिका का दोषनिवारण असफल रहा, और अब वो कभी भी किसी से विवाह नहीं कर सकती, क्यूंकि विवाहोपरांत उसके पति की मृत्यु तय है. इस बात को सुनकर आप खुद ही भय से पीछे हट जायेंगे और... ".
" तनिक रुकिए राजकुमार... ". बड़ी बड़ी आँखे किये हुये हर्षपाल ने चादर अपने कमर से बांधा और नंगे बदन ही सैया से उठकर नीचे उतर आएं, देववर्मन के विपरीत दिशा में थोड़ी दूर तक टहल कर गएँ, फिर रुकें, और पीछे मुड़कर बोलें. " तो आप ये कह रहें हैं राजकुमार, की आपकी छोटी बहन और छोटे भाई में अनैतिक सम्बन्ध है, वही छोटी बहन जिससे हमारा विवाह तय हुआ था, और अब दोनों पति पत्नि हैं, और इस घिनौने बंधन को स्वीकार कर राजा नंदवर्मन अब हमें ही मूर्ख बना कर मुझे अपमानित कर रहें हैं, वो भी हमें पूरी सच्चाई से अवगत कराये बिना ??? ".
नाटकिय तरीके से देववर्मन ने अपना सिर झुका लिया, मानो हर्षपाल की बात का उत्तर देने का साहस उनमें ना हो !
" अगर आपका कथन सत्य है तो फिर आप ही हमें एक कारण बताईये राजकुमार, की क्यूँ ना हम अभी यहीं आपका वध करके अपने अपमान का प्रतिशोध ले लें ??? ".
" अगर ऐसा करने से आपका प्रतिशोध पूर्ण होता है राजन, तो आप अवश्य ही ऐसा करें ! ".
" चिंता ना करें राजकुमार, सिर्फ आपके प्राण लेकर हमारी प्रतिशोध की अग्नि शांत ना होगी. आपके बाद आपके पिताश्री, आपकी छोटी बहन और आपके छोटे भाई कि भी यही स्थिति होगी ! ".
" मैं यहाँ निहत्था ही आया हूँ राजन... हमारे परिवार ने आपके साथ जो कुछ भी किया है उसके बाद आपका विरोध करने का साहस मुझमें तो नहीं रहा ! ".
हर्षपाल ने धीरे से अपना सिर हिलाया, मानो सब कुछ समझने कि चेष्टा कर रहें हों, और पूछ बैठे.
" आपको हमसे क्या चाहिए राजकुमार, अपने परिवार के विरुद्ध जाकर आपने हमें ये सब क्यूँ बताया ? ".
" इसके तीन प्रमुख कारण हैं राजन... ". देववर्मन समझ चुके थें कि उनका तीर निशाने पर लग गया है, तो अब वो हर्षपाल को समझाते हुये बोलें. " प्रथमत: मेरी छोटी बहन और छोटे भाई ने भाई बहन के पवित्र रिश्ते का अपमान किया है, द्वितीय, आपने हमारा कुछ नहीं बिगाड़ा है, सो आपको धोखा देना मुझे स्वीकार नहीं, और तृतीय कारण ये है राजन, कि मैं स्वयं भी पूर्ण रूप से स्वार्थ से परे नहीं हूँ !!! ".
" तो फिर आपका स्वार्थ क्या है राजकुमार ? ". हर्षपाल ने देववर्मन के समीप आकर धीरे से पूछा.
" मुझे राजसिंहासन चाहिए, मैं चाहता हूँ कि आप इसमें मेरी सहायता करें ! ".
" भला वो कैसे ? ".
" हमारे राज्य पर आक्रमण करके... ".
" वो तो हम यूँ भी कर ही सकते हैं... परन्तु आपकी सहायता करके हमें क्या लाभ होगा ? ".
" आपके अपमान का प्रतिशोध पूर्ण होगा ! ".
" फिर आपको हम राजा घोषित क्यूँ करें राजकुमार, आपका राज्य स्वयं ना हड़प लें ? ". हर्षपाल ने ब्यंग से मुस्कुराते हुये पूछा.
" मेरी सहायता के बिना आप कभी भी हमारे राज्य को पराजित नहीं कर पाएंगे राजन ! ". देववर्मन ने दृढ़ स्वर में कहा.
" और इसका कारण ? ".
" हमारे राजमहल कि बनावट ही ऐसी है कि लाख कोशिशों के बावजूद भी आप प्रवेशद्वार के फाटक तक भी नहीं पहुँच पाएंगे, फिर या तो आपके सारे सैनिक मार गिराए जायेंगे, या फिर आपको पराजय स्वीकार करके वापस लौट जाना पड़ेगा... ".
हर्षपाल ध्यानपूर्वक देववर्मन कि बात सुनते रहें.
" सिर्फ मुझे राजमहल का एक गुप्त द्वार ज्ञात है, जो कि मैं आपके लिए खोल सकता हूँ, ताकि आप और आपकी सेना अंदर प्रवेश कर सके. जो युद्ध आप तीन दिन तक लगातार लड़ कर भी हार जायेंगे, वही युद्ध आप मेरी सहायता से कुछेक क्षणो में ही जीत सकतें हैं राजन ! ".
हर्षपाल के चेहरे पर अभी भी शंका के बादल मंडराते देख देववर्मन समझ गएँ कि शायद उन्हें हमले के लिए मनाना इतना आसान नहीं होगा, तो वो उठ खड़े हुये, और अपना अंतिम दाँव फेंका.
" ठीक है राजन, मुझे कुछ नहीं चाहिए. आप मुझे सिंहासन सौंप दें, फिर मैं अपने राज्य को आपके अधीन घोषित कर दूंगा, यानि हमारा राज्य आपके राज्य का ही हिस्सा हुआ समझिये, केवल नाममात्र का राजा बने रहने में मुझे कोई आपत्ति नहीं !!! "
हर्षपाल कुछ नहीं बोलें, पीछे मुड़कर टहलते हुये कुछ सोचने लगें, कुछ देर बाद वापस देववर्मन के पास आएं, और अपना चेहरा देववर्मन के चेहरे के एकदम समीप लेजाकर उनकी आँखों में आँखे डालकर अपनी आँखे बड़ी बड़ी करते हुये बोलें.
" आपका परिवार हमें पहले ही अत्यंत अपमानित कर चुका है, धोखा किया है हमारे साथ, ऐसी परिस्थिति में आपके परिवार के किसी भी व्यक्ति पर भरोसा करना अब मेरे प्रति संभव नहीं रहा. फिर भी हमें आपकी बात पर भरोसा करने का मन कर रहा है . परन्तु एक बात स्मरण रखिये राजकुमार, अगर आपने हमारे साथ किसी प्रकार का छल कपट करने का दुस्साहस किया, तो आपका राज्य भले ही हम ना जीत पाएं, आपके प्राण लेने से हमें स्वयं यमराज भी नहीं रोक पाएंगे !!! ".
हर्षपाल कि कठोर धमकी से एक क्षण के लिए देववर्मन भी सहम से गएँ, फिर हल्का सा मुस्कुरायें, और बोलें.
" मेरा वध करने का विकल्प आपके पास हमेशा रहेगा राजन ! ".
" हम्म्म्म... मेरी भी एक शर्त है राजकुमार देववर्मन... ".
" अवश्य राजन... ".
" अवंतिका और विजयवर्मन का वध मैं स्वयं अपने हाथों से करूँगा !!! ".
" अगर वो दोनों मेरे हाथों मृत्यु को प्राप्त होने से बच गएँ, तो अवश्य ही राजन !!! ". देववर्मन ने दाँत पीसते हुये कहा.
" और मैंने सुना है कि आपकी पत्नि चित्रांगदा भी रूप सौंदर्य में कुछ कम नहीं !!! ". हर्षपाल ने घृणित तरीके से मुस्कुराते हुये कहा.
देववर्मन ने अपनी आँखे नीचे कर ली, एक क्षण को रुकें, कुछ सोचा, और फिर आँखे ऊपर करके मुस्कुराते हुये उत्तर दिया.
" मेरी बहन अवंतिका जैसी सुंदर तो नहीं, जिसमें आपकी पत्नि बनने के गुण हों, परन्तु युद्ध के उपरांत अगर आप उसे अपनी दासी भी बना लें तो अवश्य ही ये उसका सौभाग्य होगा, जिसके लिए वो आजीवन आपकी ऋणी रहेगी ! ".
हर्षपाल ने मुस्कुराकर देववर्मन को दोनों कंधो से पकड़ कर मित्रता का अस्वासन दिया.
" परन्तु आपको एक दो दिन के अंदर ही आक्रमण करना होगा, अवंतिका और विजयवर्मन राज्य छोड़कर भागने कि तैयारी में हैं ! ". देववर्मन ने कहा.
" हमारी सेना सर्वदा तैयार रहती है राजकुमार... बस आप अपनी सहायता वाली बात पर अडिग रहें ! ".
" जी राजन... ". देववर्मन ने कहा, फिर थोड़ा मुस्कुराकर विषय बदलते हुये बोलें. " अब तनिक मदिरा मंगवाईये राजन, आपके भय से मेरा गला सूख गया है ! ".
इतना सुनते ही हर्षपाल ज़ोर से अट्टहास करते हुये हँस पड़ें, और द्वार की ओर देखकर ताली बजाई, तो एक दासी तुरंत कक्ष के अंदर आई, और सिर झुकाकर खड़ी हो गई.
" मूर्ख स्त्री... देख क्या रही हो, मदिरा लाओ... मदिरा !!! ". हर्षपाल ज़ोर से चिल्लायें.
दासी के बाहर जाते ही देववर्मन ने हर्षपाल से कहा.
" वैसे आपके राजमहल में और भी सुंदर नर्तकीयां हैं क्या ??? ".
हर्षपाल एक बार पुनः ठहाका मारकर हँस पड़ें, और बोलें.
" अवश्य राजकुमार...अवश्य, अभी उपस्थित करता हूँ !!! ".
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" आप दोनों को इतने दिन यहाँ नहीं रुकना चाहिए. जल्द से जल्द ये नगरी छोड़कर चले जाना ही उचित रहेगा ! ". चित्रांगदा ने अवंतिका से कहा.
वो अवंतिका के कक्ष में बैठी उन्हें उनकी और विजयवर्मन की यात्रा के लिए सारे साजो सामान एकजुट करने में मदद कर रही थी. और अब दोनों थक हारकर सैया पर सहेलियों की भांति एक साथ बैठी विश्राम कर रहीं थीं.
" परन्तु भाभी... देशनिकाला के आदेश के पश्चात् तो अपराधी को एक सप्ताह भर का समय दिया जाता है ना ??? फिर आज तो अभी तीसरा दिन ही है... ". अवंतिका ने पूछा.
" आप समझ नहीं रहीं हैं राजकुमारी... इस राजमहल से आपलोग जितनी जल्दी पलायन कर जायें, उतना ही अच्छा है. यहाँ अब आपके लिए कुछ भी नहीं बचा है... ".
" आप सत्य कह रही हैं भाभी... अब यहाँ हमारे लिए रहा ही क्या ? जब पिताश्री और माताश्री ने ही हमें तिरस्कृत कर दिया तो अब किसी और से क्या आशा रखी जाये ! ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में कहा, फिर चित्रांगदा के दोनों हाथ अपने हाथों में थामकर पूछ बैठी. " अच्छा भाभी... सच सच बताइये... क्या हमने सचमुच में कोई पाप या अपराध किया है जो हमें इतना कठोर दंड दिया जा रहा है ??? ".
" इस प्रश्न का उत्तर इतना आसान नहीं अवंतिका ! ".
" हाँ... ये कथन भी सत्य ही है ! मुझे पता है भाभी की हमने जो किया है वो इस राज्य में पहले कभी भी नहीं हुआ, इस राज्य की छोड़िये, दूर दूर तक ऐसा कभी कहीं सुनने में नहीं आया. परन्तु मैं करती भी क्या भाभी, जो मुझे अपने ही भाई से प्रेम हो गया ! ".
" आप दोनों की स्थित अब इस तर्क वितर्क से कहीं आगे निकल चुकी है राजकुमारी, पीछे मुड़कर ना देखिये और ना ही सोचिये, इससे बस मन विचलित ही होगा, और कुछ नहीं ! समाज के रचे इस चक्रव्युह में गोल गोल घूम कर अब कोई लाभ नहीं, द्वार खुला है... निकल जाइये !!! ".
अवंतिका चुप हो गई, फिर चित्रांगदा के हाथ अपने हथेलीयों में दबाते हुये कहा.
" मैंने आपको सारा जीवन गलत समझा भाभी... मुझे क्षमा कर दीजिये ! ".
" अरे अरे... ऐसा भी क्या अवंतिका ! ".
" मुझे आपकी बहुत याद आएगी भाभी... ". अवंतिका रुआंसा होकर बोली, फिर मुस्कुराते हुये कहा. " और मेरे पति को भी ! "
विजयवर्मन की बात उठते ही चित्रांगदा ऐसे हँस पड़ी कि उनकी आँखों से आंसू टपक पड़ें .
" एक बात पूछूँ भाभी ? ".
चित्रांगदा ने अपने आंसू पोछते हुये स्वीकृती में सिर हिला दिया.
" आप विजयवर्मन से प्रेम करतीं हैं ना ??? ".
" अब इन बातों का क्या अर्थ रहा... ". कहते हुये चित्रांगदा सैया पर से उठने को हुई, तो अवंतिका ने ज़बरदस्ती उन्हें खींचकर वापस से बैठा लिया.
" बताइये ना भाभी... अब तो हम वैसे भी बिछड़ने वालें हैं... फिर शायद ही कभी मिल पाएं और ये सारी बातें हो सकें ! ".
चित्रांगदा ने एक ठंडी आह भरी, और फिर अवंतिका से नज़रें चुराते हुये बोली.
" प्रारम्भ में तो बस अपने पति के कहने पर मैं देवर जी के साथ सोती रही, परन्तु... परन्तु बाद में चलकर मुझे खुद भी ये सब अच्छा लगने लगा. और फिर एक समय आया जब उनसे मिला शारीरिक सुख मेरे लिए गौण हो गया, उसका कोई अर्थ ही ना रहा, मुझे उनके मन से और उनके सम्पूर्ण व्यक्तित्व से प्रेम होने लगा. परन्तु उन्होंने मुझे कभी भी प्रेम नहीं किया, शारीरिक रूप से मेरे साथ होते हुये भी वो तो बस आपके बारे में ही सोचा करतें थें. मेरे साथ सम्भोग करना तो जैसे उनके दिनचर्या का एक हिस्सा मात्र था, अपने ज्येष्ठ भ्राता कि आज्ञा का पालन जो करना था ! ". चित्रांगदा कुछ क्षण को रुकी, फिर अपनी नज़रें उठाकर अवंतिका कि आँखों में आँखे डालकर बोली. " और सच कहूँ तो प्रारम्भ में मुझे आपसे बड़ी ईर्ष्या होती थी, सोचती थी कि आपमें ऐसा क्या है जो मुझमें नहीं, रूप, सौंदर्य, काया... आखिर क्या ??? फिर कभी कभी प्रसन्न भी होती थी, ये सोचकर कि जिस पुरुष से आप प्रेम करतीं हैं, वो पुरुष हर रात्रि मेरी बाहों में सोता है... तो जीत तो मेरी ही हुई ना ??? परन्तु नहीं, जहाँ ईर्ष्या होगी वहाँ प्रेम कैसे रह सकता है, ये बात मुझे बहुत बाद में जाकर समझ में आई... अब उसी का प्रयश्चित करने कि चेष्टा कर रहीं हूँ !!! ".
" आपको किसी भी चीज़ के लिए प्रयश्चित करने कि कोई आवश्यकता नहीं भाभी... ". कहते हुये अवंतिका ने आगे बढ़कर चित्रांगदा को गले से लगा लिया. फिर ठिठोली करते हुये बोली. " वैसे मैं भी तो आपसे ईर्ष्या करती हूँ भाभी... आप मुझसे कहीं ज़्यादा गोरी जो हैं ! ".
अवंतिका कि बात सुनकर रोते रोते भी चित्रांगदा कि हँसी छूट गई. मन भर कर एक दूसरे से गले मिलने के पश्चात् चित्रांगदा अवंतिका से अलग हुई, और अपने आंसू पोछते हुये पूछा.
" अच्छा ये सब छोड़िये राजकुमारी... ये बताइये कि आपकी योनि कैसी है अब ??? ".
" रक्त निकलना तो बंद हो गया है भाभी, परन्तु अभी तक सूज कर फूली हुई है, पीड़ा तो अब भी है, पहले से थोड़ी राहत अवश्य है ! ". अवंतिका ने लजाते लजाते बताया.
" देवर जी ने फिर तो आपको तंग नहीं किया ना ? ".
उत्तर में अवंतिका ने शर्माते हुये धीरे से ना में सिर हिला दिया.
" मैंने जो औषधि दी है, उसका लेप प्रतिदिन अपनी योनि पर लगाते रहिएगा... जल्द ही आपकी योनि पहले जैसी स्वस्थ हो उठेगी ! ". चित्रांगदा ने समझाया, और फिर अवंतिका कि ओर अपनी उंगली उठाते हुये बोली. " और हाँ... याद रहे, अभी दो मास तक देवर जी को अपने आप को छूने भी ना दीजियेगा ! ".
" दो मास ??? भाभी... ". अवंतिका ने आँखे बड़ी बड़ी करते हुये बड़े ही भोलेपन से पूछा.
" अच्छा ठीक है... परन्तु एक मास से एक दिन भी कम नहीं ! ". चित्रांगदा ने हँसते हुये कहा.
" और अगर वो ... ".
अवंतिका ने अभी अपनी बात समाप्त भी नहीं की थी, की कक्ष में अचानक से दौड़ती हुई एक दासी आई और हाँफ़ते हुये बोली.
" राजकुमारी जी... राजकुमारी जी... ".
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" क्या हुआ सुमन ? तू इतनी घबराई हुई क्यूँ है ??? ". अवंतिका ने पूछा.
" बहुत बुरी खबर है राजकुमारी जी... ". कहकर दासी फिर रुक गई और हाँफने लगी.
" अरे बोल भी... ". चित्रांगदा ने झिड़क लगाई.
" राजकुमारी के मंगेतर राजा हर्षपाल ने हमारे राज्य पर आक्रमण कर दिया है !!! ".
ये खबर सुनते ही अवंतिका और चित्रांगदा एक क्षण के लिए जड़ हो गएँ.
" अब आप समझीं राजकुमारी, मैं क्यूँ कह रही थी कि आप दोनों का यहाँ रहना उचित नहीं ? ". चित्रांगदा धीरे से बोली.
" हर्षपाल ने आक्रमण कर दिया ??? परन्तु क्यूँ ? ". अवंतिका ने दासी को और फिर चित्रांगदा को देखते हुये कहा.
" प्रतिशोध... ". चित्रांगदा बोली.
" परन्तु उन्हें ये सब पता कैसे चला ? ". अवंतिका ने प्रश्न किया.
चित्रांगदा कुछ सोचकर चुप रही, परन्तु उनका चेहरा देखकर लग रहा था कि शायद वो सब कुछ समझ गईं हों.
" सावधान ! महाराजा नंदवर्मन पधार रहें हैं... ". तभी कक्ष के बाहर से आवाज़ आई.
अवंतिका और चित्रांगदा घबराकर सैया पर से उठ खड़े हुये और अपने शरीर के वस्त्र ठीक करने लगें.
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित राजा नंदवर्मन ने कक्ष में तेज़ी से प्रवेश किया तो अवंतिका और चित्रांगदा ने एक साथ उनका अभिवादन किया.
" महाराज कि जय हो... ".
राजा नंदवर्मन ने अवंतिका कि ओर देखा तक नहीं, और उन दोनों के अभिनन्दन का उत्तर दिए बिना ही चित्रांगदा को सम्बोधित करते हुये बोलें.
" कुलवधु चित्रांगदा... राज्य पर संकट आन पड़ी है... परन्तु चिंता कि कोई बात नहीं. आप दोनों यहाँ सुरक्षित है, बाहर आपकी सुरक्षा हेतु मैंने कुछ सैनिकों को खड़े रहने का आदेश दे दिया है. कक्ष से बाहर निकलने कि कोई आवश्यकता नहीं ! ".
इतना कहकर राजा नंदवर्मन जाने के लिए मुड़े ही थें कि कक्ष में विजयवर्मन ने लगभग दौड़ते हुये प्रवेश किया और महाराज से बोलें.
" महाराज कि जय हो ! क्या मुझे युद्ध में जाने कि आज्ञा है ? ".
" ये युद्ध किसकी वजह से हो रहा है राजकुमार ??? जो राजा हमारे यहाँ बारात लेकर आने वाले थें , आज वो राजमहल के बाहर अनगिनत सैनिक लिए धमक पड़ा है !!! ". राजा नंदवर्मन ने क्रोधित स्वर में कहा.
विजयवर्मन चुप हो गएँ .
" उचित होगा कि आप भी यहाँ इसी कक्ष में स्त्रीयों के साथ रहें... हमारे सैनिक बाहर हैं, आप भी सुरक्षित रहेंगे ! ". कहते हुये राजा नंदवर्मन मुड़कर जाने लगें, फिर कक्ष के द्वार को पार करने से पहले रुकें और कहा. " मेरा ज्येष्ठ पुत्र देववर्मन है हमारी सहायता करने के लिए !!! ".
राजा नंदवर्मन के कक्ष से बाहर जाते ही विजयवर्मन धीमे कदमो से चलते हुये अवंतिका और चित्रांगदा के समीप पहुँच खड़े हुये. अपने पिताश्री के कहे शब्दों से वो अत्यंत अपमानित महसूस कर रहें थें, परन्तु फिर उन्होंने खुद को संभाला, और हँसते हुये बोलें.
" चलो ये भी सटीक ही है... महाराज मुझे दो वीर तेजस्वीनी स्त्रीयों कि देख रेख में छोड़ गएँ हैं, अब भला मुझे क्या चिंता हो सकती है ! ".
" हमारी हँसी उड़ाने कि आवश्यकता नहीं देवर जी... ". चित्रांगदा ने मुँह बनाते हुये कहा.
" क्षमा कीजिये भाभी... मेरी ऐसी मंसा कतई ना थी ! मैं तो सिर्फ इतना जानना चाहता था कि आप दोनों ने कभी अपने हाथों में तलवार उठाई भी है या नहीं ??? ". मुँह दबाकर हँसते हुये विजयवर्मन बोलें.
" तलवार कि क्या आवश्यकता राजकुमार... ". चित्रांगदा ने अपनी कमर में खोंसी हुई एक चाकू बाहर निकालते हुये कहा. " ये है ना मेरे पास ! ".
चाकू के आकार को देखकर विजयवर्मन और अपनी हँसी दबा नहीं पाएं, तो उनके साथ अवंतिका भी ज़ोर से खिलखिला कर हँस पड़ी.
" राजकुमारी ??? आप भी ??? मैंने सोचा हम सहेलियां हैं ! ". चित्रांगदा ने झूठा गुस्सा दिखाते हुये अवंतिका से कहा.
अवंतिका ने तुरंत आगे बढ़कर अपनी भाभी को गले से लगा लिया.
" आप सदैव इसे अपने साथ रखती हैं भाभी ? ". विजयवर्मन ने अपनी हँसी रोकते हुये पूछा.
" और नहीं तो क्या... ना जाने कब दरकार पड़ जाये ! ".
" परन्तु इससे क्या होगा ??? ".
" बड़े बड़े राजाओ कि भांति, भले ही मैं हज़ारों लाखों सैनिको को ना मार गिरा पाउँ, परन्तु कम से कम उस प्रथम व्यक्ति कि जीवनलीला तो अवश्य ही इस चाकू से समाप्त कर सकती हूँ जो मुझे छूने का दुस्साहस करेगा !!! ".
विजयवर्मन मुस्कुराते हुये आगे बढ़ें और अवंतिका तथा चित्रांगदा को उनके कंधो से पकड़ कर सैया पर बैठाते हुये अस्वासन भरे स्वर में बोलें.
" आप दोनों चिंतित ना हों... हर्षपाल कि सेना कभी भी राजमहल के मुख्यद्वार तक नहीं पहुँच पायेगी. "
" ये तो होना ही था... हर्षपाल भला चुप कैसे बैठता ? ". चित्रांगदा ने मन ही मन कुछ सोचते हुये धीरे से कहा.
" हमारे साथ तनिक बैठिये ना भैया... ". अवंतिका ने विजयवर्मन का हाथ पकड़कर उन्हें सैया पर खींचते हुये कहा.
" अरे राजकुमारी... आप देवर जी को अभी भी भैया कहकर ही सम्बोधित करतीं हैं ??? अब तो वो आपके पति हैं ना ? ". चित्रांगदा अपने ख्यालों से बाहर आई और मुस्कुराते हुये बोली.
" हम हमेशा से भाई बहन थें, और रहेंगे भाभी. ये विवाह तो बस हमें समाज कि नज़रों में एक साथ प्रेमी प्रेमिका कि भांति रहने देने के लिए साधन मात्र है ! ". विजयवर्मन अपनी बहन और भाभी के मध्य सैया पर बैठते हुये बोलें.
" वैसे आप अवंतिका को लेकर जायेंगे कहाँ राजकुमार ? ". चित्रांगदा ने पूछा.
" पता नहीं भाभी... ".
" आने वाले दिन अत्यंत कठिन गुजरने वालें हैं राजकुमार... ".
" हाँ भाभी... मुझे ज्ञात है ! ".
बातचीत के दौरान विजयवर्मन ने गौर किया कि उनकी भाभी चित्रांगदा अंदर ही अंदर कुछ सोच रहीं हैं, ये हर्षपाल के आक्रमण कि बात को लेकर उत्पन्न हुई चिंता नहीं, बल्कि कुछ और ही था.
" बड़ी देर से देख रहा हूँ भाभी... कुछ तो है जिसने आपको विचलित कर रखा है... हमें ना बताइयेगा ? ". विजयवर्मन ने अंततः पूछ ही लिया .
" राजकुमार... मुझे एक बात समझ में नहीं आ रही, आखिर हर्षपाल ने हमपर आक्रमण क्यूँ किया ? ". चित्रांगदा ने अपना गहन चिंतन ज़ाहिर किया .
" अपने अपमान का प्रतिशोध लेने हेतु... स्पष्ट है भाभी ! ". विजयवर्मन बोलें.
" अपमान का प्रतिशोध तो मैं समझी राजकुमार... परन्तु उन्हें वो सब कैसे पता चला जो कि यहाँ हमारे राजमहल में हुआ ??? ".
" आपका क्या तात्पर्य है भाभी ? ".
" अर्थ ये है राजकुमार, कि महाराज ने तो आपकी और अवंतिका के प्रेम प्रसंग और हर्षपाल से अवंतिका का विवाह टूट जाने के बारे में उन्हें कोई सन्देश नहीं भेजा ! फिर उन्हें ये सब ज्ञात कैसे हुआ, जो उन्होंने इतनी जल्दी हमपर आक्रमण कि योजना भी बना डाली ??? ".
" गुप्तचर... भाभी ! हर राज्य में उस राज्य के खास व्यक्तियों के अपने गुप्तचर होतें हैं, फिर हर्षपाल तो स्वयं ही राजा हैं, उनके गुप्तचरों कि निपुणता का आकलन आप कर भी नहीं सकतीं ! ".
" और ये गुप्तचर भी तो कोई व्यक्ति ही होगा ना ? ".
" अवश्य ही व्यक्ति होगा... ".
" वही तो राजकुमार... आखिर यह व्यक्ति फिर कौन हो सकता है ??? ".
" कोई भी हो सकता है भाभी... धोबी से लेकर दास दासी, पहरेदार और सैनिक, सिपाही, मंत्री तक कोई भी ! अनुमान लगा पाना कठिन ही क्यूँ, असंभव भी है ! ".
" परन्तु एक बात सोचिये देवर जी... जो कुछ भी हुआ वो किसी आम सभा में नहीं हुआ था, उस दिन सभा में केवल परिवार के लोग और पुरोहित जी ही तो थें !!! और फिर हर्षपाल हमसे इस बात पर विचार विमर्श भी तो कर सकतें थें ना, सीधे आक्रमण ही क्यूँ ??? ".
विजयवर्मन मुस्कुराये, फिर चित्रांगदा के हाथ को पकड़कर उनकी मुट्ठी में थमी उनके चाकू को वापस से उनकी कमर से लिपटे घाघरे में खोस दिया, और वार्तालाप को बदलने के उदेश्य से बोलें.
" राजनीती कि ये सारी बातें महाराज और सेनापति पर छोड़ दीजिये भाभी... आप तो बस इस बात कि चिंता कीजिये कि आप और अवंतिका मिलकर कैसे मेरी सुरक्षा करेंगी ! स्मरण रहे, कि महाराज मुझे यहाँ कक्ष में आप दोनों कि निगरानी में छोड़कर युद्ध के लिए गएँ हैं. "
इसपर अवंतिका भी ठिठोली करती हुई बीच में बोल पड़ी.
" पता है भैया... भाभी कह रहीं थीं कि हमारे जाने के उपरांत उन्हें आपकी बहुत याद आएगी... मुख्य रूप से रात्रि को सोने के समय !!! ".
" नहीं नहीं राजकुमार...मैंने ऐसा कुछ भी नहीं कहा... सच्ची ! ". चित्रांगदा घबराकर बोली, फिर अवंतिका कि बाँह पर चिकोटी काटते हुये कहा. " विवाह के उपरांत आप कुछ अधिक ही लज्जाहीन हो गईं हैं राजकुमारी !!! ".
" अच्छा... मैं लज्जाहीन हो गई हूँ ??? ". अवंतिका ने हँसते हुये कहा.
" और नहीं तो क्या राजकुमारी ? और याद रखिये, अभी आपके अंग का घाव भरा नहीं है, आगे भी मेरी आवश्यकता पड़ेगी आपको ! ". शैतानी मुस्कान के साथ चित्रांगदा ने कहा.
चित्रांगदा का स्पष्ट इशारा उसकी घायल योनि कि ओर है, ये बात समझ में आते ही अवंतिका बुरी तरह से झेंप गई, और शर्म से उनके गालों में खून चढ़ गया.
" किस अंग का घाव अवंतिका ??? आप आहात हैं क्या... कहाँ चोट लगी है... दिखाइए ! ". विजयवर्मन ने घबराकर अवंतिका से पूछा.
लज्जा से मुरझाई हुई अवंतिका ने चित्रांगदा को आँखों ही आँखों में इशारा करके निवेदन किया कि वो विजयवर्मन को उनकी फटी हुई चूत के बारे में कुछ ना बतायें, और फिर विजयवर्मन से बहाना करते हुये बोली.
" कुछ नहीं भैया... वो बस मेरे पैर में हल्की सी मोच आ गई थी !!! ".
विजयवर्मन ने राहत कि एक ठंडी साँस ली, और फिर चित्रांगदा कि ओर मुड़कर उनके चेहरे को अपने हाथों में लिया, और उनके ललाट पर एक चुम्बन जड़ते हुये प्यार से बोलें.
" अवंतिका सत्य कह रही थी भाभी... मुझे आपकी बहुत याद आएगी. आपका स्थान मेरे जीवन में सदैव महत्वपूर्ण रहेगा, परन्तु इस जन्म में मैं अवंतिका के अलावा और किसी से प्रेम नहीं कर पाउँगा !!! "..............................
अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा इसी प्रकार काफ़ी देर तक आपस में बातचीत और हँसी ठिठोली करतें रहें. वे तीनों युद्ध कि ओर से निश्चिन्त थें, क्यूंकि उन्हें पता था कि इस युद्ध का परिणाम क्या होने वाला है. वे तो बस अब हर्षपाल के पराजय और राजा नंदवर्मन कि जीत का समाचार सुनने भर कि प्रतीक्षा कर रहें थें !.............................................
करीब दो घंटे के पश्चात् अचानक से कक्ष में एक सैनिक घुस आया और अवंतिका, विजयवर्मन तथा चित्रांगदा को वार्तालाप में मग्न पाकर क्षमा मांगते हुये घबराकर बोला.
" क्षमा कीजिये... एक अत्यंत अशुभ समाचार है !!! ".
" क्या हुआ सैनिक ??? ". विजयवर्मन ने पूछा.
" हर्षपाल और उसके सैनिक हमारे राजमहल में घुस आएं हैं ! ".
" राजमहल के अंदर ??? ". विजयवर्मन उठ खड़े हुये. " और महाराज ??? ".
" महाराज तो रणभूमि में हैं, उन्हें ज्ञात नहीं ! ".
" और भैया देववर्मन ??? ".
" उन्हें किसी से नहीं देखा राजकुमार... ".
" माताश्री ??? ".
" उनके कक्ष में... उनके कक्ष में हर्षपाल के सैनिक घुस चुके हैं ! ".
" ये तुम क्या बोल रहे हो सैनिक ? ". विजयवर्मन को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि अनायास ही ये क्या हुआ.
" हमारी अधिकतर सेना तो अभी भी युद्धभूमि में है. महल के अंदर हुये इस विश्वासघाती हमले के लिए यहाँ अवस्थित सेना तैयार नहीं थी राजकुमार. शत्रु ने पीछे से आक्रमण किया. शत्रु कि सेना हमारे सैनिकों को मौत के घाट उतारती हुई पूरे महल में फ़ैल रही है !!! ". सैनिक ने एक ही साँस में पूरी बात बताई.
तभी चित्रांगदा उठ खड़ी हुई और सैनिक से पूछा.
" शत्रु कि सेना राजमहल के अंदर कैसे पहुँची सैनिक ??? ".
" किसी ने... ". भय से काँपते हुये सैनिक ने कहा. " किसी ने अंदर से राजमहल का गुप्तद्वार खोल दिया है देवी !!! ".
चित्रांगदा के होंठ विस्मय से खुले के खुले ही रह गएँ, और उनसे दूसरा कोई शब्द ना निकला !
अवंतिका भी घबराकर उठ खड़ी हुई.
किसी अनिष्ट कि आशंका से विजयवर्मन सोच में पड़ गएँ.
" इस कक्ष के बाहर द्वार पर हम कुछेक सैनिक अभी भी हैं राजकुमार. महाराज कि आज्ञा थी कि हम यहाँ से किसी भी मूल्य पर ना हटें. जब तक हममें से एक सैनिक भी जीवित रहेगा, ना ही हर्षपाल और ना ही उसका कोई सैनिक इस कक्ष में प्रवेश करने का दुस्साहस कर पायेगा !!! ". सैनिक ने कहा, और सिर झुका कर आज्ञा लेते हुये कक्ष से बाहर चला गया.
" ये क्या अमंगल हो गया भैया ??? ". अवंतिका ने काँपती आवाज़ में कहा और चित्रांगदा से लिपट कर खड़ी हो गई.
" सोचिये मत राजकुमार...आपलोग यहाँ से चले जाइये... अभी समय है ! ". चित्रांगदा ने कहा.
" और भाभी आप ??? ". विजयवर्मन ने पूछा.
चित्रांगदा कि आँखों से आंसुओ कि धारा बह निकली, उन्होंने अपनी कमर में खोसा हुआ अपना छोटा सा चाकू बाहर निकाला, और लड़खड़ाते हुये स्वर में जबरन हल्के से मुस्कुराते हुये बोली.
" ये है ना मेरे पास राजकुमार !!! ".
" विपत्ति कि इस घड़ी में मैं आपको छोड़कर कहीं नहीं जाऊंगा भाभी ! ". क्रोध से काँपती आवाज़ में विजयवर्मन ने कहा.
" हठ ना कीजिये राजकुमार... अवंतिका को लेकर चले जाइये. हर्षपाल आप दोनों के लिए ही आया है !!! ". चित्रांगदा लगभग रोते रोते बोली.
" भैया ठीक कह रहें हैं भाभी... हम आपको एकांत छोड़कर नहीं जायेंगे ! ". अवंतिका ने कहा.
" मैं आप दोनों से बड़ी हूँ ... इस राज्य कि कुलवधु ! ये मेरी आज्ञा है !!! मेरी आज्ञा का उल्लंघन करके आप दोनों को मेरा इस भांति अपमान करने का कोई अधिकार नहीं !!! ". चित्रांगदा ने अपने आंसू पोछते हुये सख़्त स्वर में कहा.
" आपकी आज्ञा का पालन हम अवश्य ही करेंगे भाभी... ". विजयवर्मन बोलें. " परन्तु आज नहीं !!! ".
चित्रांगदा हार चुकी थी, उन्होंने अवंतिका को गले से लगा लिया, तो दोनों एक दूसरे से लिपट कर रोने लगीं.
बाहर सैनिकों के कोलाहाल और तलवारों के आपस में टकराने से उत्पन्न झनझनाहट कि ध्वनि से विजयवर्मन समझ गएँ कि हर्षपाल के सैनिक द्वार तक पहुँच चुके हैं. बाहर से आने वाली चीख पुकार उनके अपने ही सैनिकों कि थी, ये पहचानते उन्हें देर ना लगी. वो समझ गएँ कि कक्ष के द्वार का रास्ता रोके खड़े उनके निष्ठावान सैनिक एक एक करके वीरगति को प्राप्त हो रहें हैं !!!
कक्ष के द्वार पर टंगे ज़रीदार परदे ने बाहर चल रही निर्मम निर्दयता को अब तक ढँक रखा था, परन्तु ऐसा अब ज़्यादा देर तक रहने वाला नहीं था !
विजयवर्मन को पता था कि एक पूरी सेना के विरुद्ध वो अकेले ना ही स्वयं कि रक्षा कर पाएंगे, और ना ही कक्ष में उपस्थित दोनों स्त्रीयों कि !!!
मृत्यु तो तय है !!!
परन्तु वो हैं तो पुष्पनगरी के राजनिष्ट छोटे राजकुमार ही ना !!! यूँ ही भयभीत कैसे हो जायें, यूँ ही पराजय कैसे स्वीकार कर लें !!!
निर्णय हो चुका था !!!
विजयवर्मन ने अपनी म्यान से अपनी तलवार बाहर निकाली और अवंतिका तथा चित्रांगदा को अपने पीछे हो लेने का इशारा किया.
अत्यंत धारदार चमकती हुई तलवार को अपनी सख़्त मुट्ठी में थामे, अपनी चौड़े छाती से लेकर अपने उन्नत सिर के ऊपर तक उठाये, अवंतिका और चित्रांगदा को अपने बलशाली शरीर के पीछे लगभग पूर्णत: छुपाये, विजयवर्मन कक्ष के द्वार कि ओर नज़र गड़ाये क्रूर हर्षपाल और उसके सैनिकों के अंदर प्रवेश करने कि प्रतीक्षा करने लगें !!!
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प्रथमत: कक्ष के द्वार पर टंगे परदे में एक साथ दो तीन तलवारें घुसी, फिर पूरा पर्दा ही फट कर चीथड़े चीथड़े होकर नीचे ज़मीन पर गिर पड़ा, इसके साथ ही परदे के चीथड़ों को अपने धूल धूसरित पैरों तले रौदते हुये एक साथ अनगिनत सैनिकों का एक पूरा जत्था ही कक्ष में वायु से भी तेज़ गति के साथ प्रवेश कर गया !!!
हर्षपाल के सैनिको के शरीर और तलवारों पर लगे खून के छींटे और धब्बे बता रहें थें कि बाहर उन्होंने मृत्यु का कैसा तांडव मचाया हुआ होगा !
इतने सारे सैनिकों को एक साथ कक्ष में प्रवेश करते देखकर अवंतिका और चित्रांगदा को भय से भी पहले साक्षात् मृत्यु के दर्शन हो गएँ. फेफड़ों में जितनी क्षमता थी, उतनी ताकत लगाकर दोनों एक साथ ज़ोर से चीख उठी, आँखे बंद कर ली, और एक दूसरे से लिपट पड़ी !!!
परन्तु अवंतिका के कक्ष में घुसपैठ करने वाले हर्षपाल के सैनिकों को ये ज्ञात नहीं था कि अंदर कोई साधारण सा सिपाही, कोई सैनिक, मंत्री, सेनापति, या राजा नहीं, वरन स्वयं विजयवर्मन उपस्थित हैं - वो विजयवर्मन जो वैसे तो मधुरभाषी हैं और कभी भी अनायास ही अपना स्वर ऊँचा करके बात भी नहीं करतें, परन्तु समय कि मांग हो तो अपने परिजनों कि रक्षा हेतु यमराज से भी भिड़ने से पीछे ना हटें, और इस समय स्पष्ट मायनों में अवंतिका और चित्रांगदा ही उनके परिजन थें !!!
अवंतिका और चित्रांगदा को जब अनुभूति हुई कि उनकी ओर आती हुई शत्रु सेना कि लहर अचानक से थम गई है, तो दोनों ने साहस करके अपनी आँखे धीरे धीरे खोली !
उनके सामने विजयवर्मन का भारी शरीर अभी भी अडिग खड़ा था. वो अपने स्थान से एक इंच तक नहीं हिले थें. रक्त से सनी उनकी तलवार हवा में उन्नत उठी हुई थी. उनके सामने ज़मीन पर तीस सैनिकों कि कटी फटी निर्जीव लाशें पड़ी हुई थीं. ये हर्षपाल के वो तीस सैनिक थें जिन्होंने कक्ष में प्रवेश करने के उपरांत उन तीनों कि ओर सबसे पहले बढ़ने का असीम साहस दिखाया था !!!
एक ही स्थान पर खड़े खड़े जब विजयवर्मन ने इतने सारे सैनिकों को पलक झपकते ही मौत के घाट उतार दिया, तो उन सैनिकों के पीछे घुसने वाले सैनिक खुद ब खुद ठिठक कर रुक गएँ ! भय से थर्राते हुये सैनिकों के तलवारों पर उनकी हाथों कि पकड़ ढीली पड़ने लगी. विस्मय से बाहर निकल आई उनकी आँखे कभी नीचे पड़े हुये उनके मरे हुये साथी सैनिकों को देखते, तो कभी सामने खड़े पुरुष को, जिसका नाम विजयवर्मन था !!!
हर्षपाल के ये सैनिक निडर थें या नहीं, ये तो समझ पाना कठिन था, परन्तु इतना तो स्पष्ट था कि वो वफ़ादार और स्वामीभक्त अवश्य ही थें, क्यूंकि अगर ऐसा ना होता तो फिर अपनी नियति ज्ञात होते हुये भी वो अपने सामने खड़ी मृत्यु के आलंगन को आगे कदम ना बढ़ाते ! उनकी मुट्ठीयों में थमी तलवार पर उनकी पकड़ फिर से जम गई, और सारे सैनिक एक साथ विजयवर्मन के ऊपर टूट पड़ें !!!
अवंतिका और चित्रांगदा ने पुनः अपनी आँखे बंद कर ली.
अगले कुछेक क्षणों तक अपने पैर ज़मीन पर एक ही जगह अडिग टिकाये हुये मात्र अपने हाथ और उसमें थमी तलवार को हवा में लहराते हुये विजयवर्मन अपनी ओर आ रहे हर्षपाल के सैनिकों को काटते रहें. उन्हें उनकी जगह से हटाना तो दूर, उन्हें अब तक कोई सैनिक स्पर्श भी ना कर पाया था. पूरे कक्ष कि ज़मीन सैनिकों कि लाशों और लाल रक्त कि छोटी सी नदी से भर गया !!!
एक के बाद एक सैनिकों का झुंड अंदर आता गया, परन्तु केवल अपनी मृत्यु से भेंट करने !
ना हिंसा, ना द्वेष, ना भय, ना घृणा, चेहरे पर कोई भी भाव लिए बिना विजयवर्मन शत्रु सेना का वध करतें गएँ !
बिजली से भी तेज़ गति से हवा में लहराती उनकी तलवार से और भी ना जाने कितने शत्रु धराशायी होतें, परन्तु तभी अचानक से विजयवर्मन कि कलाई एक मजबूत मुट्ठी कि जकड़ में आ गई, तो उनकी तलवार का वार रुक गया. इतने ताकतवर हाथ कि पकड़ आज तक विजयवर्मन ने महसूस नहीं कि थी. उनकी ओर बढ़ रहे सारे सैनिक भी रुक गएँ, तो विजयवर्मन ने सामने अपनी नज़रें उठाकर अपने इस सशक्त शत्रु को देखा.
क्रूर हर्षपाल से विजयवर्मन कि ये पहली मुलाक़ात थी !!!
सिर से लेकर पांव तक लोहे के कवच से सुसज्जित चौड़े शरीर वाले हर्षपाल ने विजयवर्मन कि आँखों में आँखे डालकर कहा.
" आप चाहें तो पूरा दिन हमारे सैनिकों का वध कर सकतें हैं राजकुमार, और हमें पूरा विश्वास है कि वो आपको हाथ तक ना लगा पाएंगे. परन्तु जब आपकी मृत्यु तय है तो फिर हम अपने वीर सैनिकों कि संख्या मात्र यूँ ही कम क्यूँ होने दें ??? ".
विजयवर्मन जब कुछ ना बोलें तो हर्षपाल ने धीरे से उनका हाथ और हाथ में थमी हुई तलवार को नीचे करते हुये कहा.
" अपना भाग्य स्वीकार करो राजकुमार ! हम वचन देते हैं कि इन स्त्रीयों को ना ही हम और ना ही कोई और स्पर्श करेगा !!! ".
स्त्रीयों को ना छूने वाली हर्षपाल कि बात मानकर विजयवर्मन थोड़े शांत हुये और उन्होंने अपनी तलवार नीचे कर ली.
" धन्यवाद राजकुमार... ". हर्षपाल ने मुस्कुराते हुये सिर झुकाकर कहा, और पीछे मुड़कर अपने सैनिकों को इशारा किया.
कपटी हर्षपाल कि चाल जब तक विजयवर्मन समझ पाते, तब तक देर हो चुकी थी !
हर्षपाल के पीछे से चार सैनिक निकल कर आगे बढ़ें, और दौड़ते हुये विजयवर्मन को पार करके अवंतिका और चित्रांगदा कि ओर लपकें !!!
अवंतिका और चित्रांगदा चीख पड़ी.
स्थिति का आकलन करते ही विजयवर्मन अत्यंत तीव्र गति से अपने पैरों पर पीछे मुड़े, और एक ही वार में झटके से अपनी तलवार चलाई !
अवंतिका और चित्रांगदा कि ओर बढ़ रहे चारों सैनिकों का एक एक हाथ उन दोनों को स्पर्श करने से पहले ही सूखी लकड़ी कि भांति कटकर ज़मीन पर गिर पड़ा, और चारों घायल लहूलुहान सैनिक वहीँ ज़मीन पर गिरकर छटपटाने लगें.
" अरे मूर्ख, पहले इसे पकड़ो ! ". हर्षपाल ने ज़ोर से चिल्लाते हुये विजयवर्मन कि ओर इशारा किया.
ध्यान भटक जाने कि वजह से विजयवर्मन इसके लिए तैयार ना थें. सैनिकों के एक पूरे झुंड ने उन्हें धर दबोचा तो उनके हाथ से उनकी तलवार छूटकर नीचे ज़मीन पर गिर गई. विजयवर्मन के काबू में आते ही कुछ सैनिकों ने अब अवंतिका और चित्रांगदा को भी पकड़ लिया, और तीनों को एक साथ हर्षपाल के सामने ला खड़ा किया !
" हमारे पिताश्री कहाँ हैं हर्षपाल ??? ". सैनिकों के हाथों बंधे खड़े विजयवर्मन ने शांत होकर पूछा.
" महाराज हर्षपाल कहो राजकुमार !!! अब हम ही आपके राजा हैं. मेरा तात्पर्य है कि जितनी देर भी आप जीवित हैं, उतनी देर तक तो अपने राज्य के इस नये राजा का सम्मान करें . और नंदवर्मन के बारे में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं ! हमें तो युद्धभूमि में जाने कि आवश्यकता ही नहीं पड़ी ! हाँ... आपकी माताश्री को अवश्य ही बंदी बना लिया गया है ! ". हर्षपाल ने हँसते हुये कहा.
" क्या चाहिए तुम्हें ??? ".
" आपको नहीं लगता कि हमसे ये प्रश्न करने का समय अब निकल चुका है राजकुमार ? ". हर्षपाल ने अवंतिका कि ओर देखते हुये ब्यंग किया.
तभी कक्ष में देववर्मन ने प्रवेश किया !
" भैया ??? कहाँ थें आप ??? ". अपने बड़े भाई को इस प्रकार सकुशल और जीवित देख ख़ुशी से विजयवर्मन चिल्ला उठें.
" लीजिये राजकुमार... आपके ज्येष्ठ भ्राता भी आ गएँ, अब उन्ही से सारा समाचार पूछ लीजिये ! " हर्षपाल ने कहा, फिर देववर्मन से बोलें " राजा नंदवर्मन जीवित हैं या... ".
" युद्धभूमि में उन्हें बंदी बना लिया गया है मित्र ! ". देववर्मन ने सिर झुकाकर हर्षपाल से कहा.
" भैया ??? आप... आप इस अधम के साथ ??? ". विजयवर्मन के तो मानो पैरों तले ज़मीन ही खिसक गई हो.
अवंतिका और चित्रांगदा ने एक दूसरे को देखा तो चित्रांगदा ने अपनी नज़रें नीचे कर ली.
" और हाँ राजकुमार विजयवर्मन... हमने आपसे मिथ्या कहा था. " . हर्षपाल ने देववर्मन को अपने पास बुलाकर उनके कंधे पर हाथ रखते हुये विजयवर्मन से कहा. " इस राज्य के नये सम्राट हम नहीं, देववर्मन हैं !!! ".
देववर्मन ने सिर झुकाकर अपनी कृतज्ञता ज़ाहिर की.
" केवल मात्र एक राजसिंहासन के लिए ??? ". क्षोभ और घृणा से भरे विचलित स्वर में विजयवर्मन ने कहा.
" अपने ज्येष्ठ भ्राता को गलत ना समझिये राजकुमार... ". हर्षपाल ने अवंतिका की ओर इशारा करते हुये कहा. " ये सब राजसिंहासन की लालसा के फलस्वरुप नहीं, बल्कि इस निर्लज्ज स्त्री की वजह से हुआ है !!! ".
विजयवर्मन ने एक बार अवंतिका को देखा और फिर देववर्मन को.
हर्षपाल धीमे कदमो से चलते हुये अवंतिका के समीप जा खड़े हुये, और गर्दन घुमाकर पीछे खड़े देववर्मन से कहा.
" अत्यंत साधारण दिखने वाली इस स्त्री में ऐसा क्या है जो इसका अपना ही भाई इसका प्रेमी बन गया ??? ये जानने को हमारा ह्रदय व्याकुल हो रहा है मित्र देववर्मन. तनिक अपनी छोटी बहन के वस्त्र तो उतारिये !!! हमने राजकुमार विजयवर्मन को वचन दिया है की हम इन्हे स्पर्श नहीं करेंगे ! ".
" जैसी आपकी आज्ञा मित्र हर्षपाल ! ". कहते हुये देववर्मन आगे बढ़ें, फिर रुक गएँ, और बोलें. " वैसे क्षमा करें महाराज, परन्तु ये स्त्री अब अशुद्ध हो चुकी है. ये अब आपके किस काम की ??? ".
" सत्य वचन मित्र ! ". हर्षपाल ने सहमति जताई, फिर कुछ सोचकर बोलें. " परन्तु आप चाहें तो अपनी बहन को पाने की लालसा आज पूरी कर सकतें हैं... आपको भी इससे प्रेम था ना ??? ".
" प्रेम नहीं मित्र... एक समय था जब इस स्त्री के लिए मेरे मन में कामवासना की अग्नि सदैव ही मुझे उद्विग्न किया करती थी... दिन रात ! परन्तु अब इस स्त्री के लिए मेरे मन में केवल घृणा और द्वेष है ! ".
हर्षपाल ने बिना कुछ कहे अपना सिर हिलाकर देववर्मन की भावनाओं को समझने का संकेत दिया. अब वो धीरे धीरे चलते हुये चित्रांगदा के समीप पहुंचे और देववर्मन की ओर देखकर पूछा.
" और इस स्त्री के बारे में आपके क्या विचार हैं मित्र ? ".
" जैसा की मैंने कहा था महाराज, इसे अपनी दासी बनाकर इसका उद्धार करें !!! ". देववर्मन बोलें.
आंसुओं से भरी क्रोधित नज़रों से चित्रांगदा ने अपने पति देववर्मन को देखा, परन्तु कुछ बोली नहीं !
हर्षपाल अपना चेहरा चित्रांगदा के मुँह के एकदम समीप लेजाकर उसे ध्यान से देखते हुये बोलें.
" आपने मिथ्या कहा था मित्र देववर्मन... ".
" ये आप क्या कह रहें हैं मित्र ??? ". देववर्मन ने घबराकर पूछा.
" और नहीं तो क्या ? आपकी पत्नि अत्यंत सुंदर है, हमारी दासी बनने लायक तो बिल्कुल भी नहीं... ये तो इनका अपमान होगा ! ". हर्षपाल ने थोड़ा रुककर धीमे स्वर में कहा. " इन्हे तो हमारे राज्य की महानगरी के सबसे प्रसिद्ध वेश्यालय में स्थान मिलना चाहिए, ताकि हमारी नगरी के सारे नागरिक इनके रूप यौवन का समान रूप से भोग कर सकें !!! ".
" जैसा आप उचित समझें महाराज... आपका इसे जीवनदान देना ही काफ़ी है ! ". देववर्मन ने कहा.
देववर्मन की बात सुनकर हर्षपाल एकदम से ठहाका मारकर हँस पड़ें. वो स्वयं और उनके सैनिक भी इस बात से इतने प्रसन्न हुये की उन्हें चित्रांगदा कि अगली हरकत दिखाई ही नहीं दी.
चित्रांगदा ने पूरी शक्ति के साथ अपना दायां हाथ सैनिकों कि गिरफ्त से झटक कर छुड़ा लिया, और अपनी कमर में खोसा हुआ अपना छोटा सा चाकू बाहर निकाला, और हर्षपाल के चेहरे पर एक भरपूर वार किया !!!
अचानक से हुये इस हमले से तिलमिलाकर हर्षपाल ने तुरंत अपना चेहरा अपने हाथों से ढंक लिया और दर्द से चिल्लाते हुये लड़खड़ाकर पीछे हट गएँ.
सैनिकों ने वापस से चित्रांगदा को धर दबोचा और उनका खून से सना हुआ चाकू नीचे ज़मीन पर गिर पड़ा.
" आप ठीक तो हैं ना मित्र !!! ". घबराये हुये देववर्मन ने दौड़कर हर्षपाल को थाम लिया, और उनके हाथ उनके चेहरे पर से हटाते हुये उनका घाव देखा.
हर्षपाल के दाएं जबड़े और गाल से होते हुये चाकू का एक लम्बा, सीधा, गहरा चीरा उनकी नाक को पार करके ऊपर बाएँ तरफ उनके माथे तक गया था. पूरा चेहरा खून से लथपथ हो चुका था. बस उनकी बायीं आँख किसी प्रकार से बच गई थी.
" चलो ये भी अच्छा है मित्र... शरीर पर कोई घाव तो लगा. "
अपने आप को संभालते हुये हर्षपाल ने क्रूरता भरी हँसी हँसते हुये अपने रक्तरंजीत दोनों हाथों को वहाँ मौजूद सभी लोगों को दिखाते हुये कहा. " वर्ना लोग समझते कि हमने ये राज्य बिना किसी परिश्रम के छल कपट से जीता है !!! ".
" बहुत हुआ मित्र... ये खेल अब समाप्त हो ! ". देववर्मन ने अपनी तलवार म्यान से निकालते हुये अवंतिका और विजयवर्मन कि ओर संकेत करके कहा. " आज्ञा हो तो इन दोनों प्रेमीयों को ईश्वर के पास भेंज दूँ !!! ".
" अपने भाई बहन का वध करने के लिए आपको हमारे आदेश कि प्रतीक्षा करने कि कोई आवश्यकता नहीं मित्र देववर्मन... वैसे भी अब तो आप ही यहाँ के सम्राट हैं !!! ". हर्षपाल ने पास खड़े अपने एक सैनिक के वस्त्र पर अपने लहूलुहान हाथ पोछते हुये कहा.
देववर्मन अपनी तलवार लेकर आगे बढ़ें तो चित्रांगदा ने रोते हुये विनती कि.
" सबकुछ तो अब आपका ही है देववर्मन. बस इनके प्राण ना लीजिये ... इतनी घृणा क्यूँ ??? "
अपनी पत्नि कि बात अनसुनी कर देववर्मन आगे बढ़ें तो हर्षपाल ने उन्हें रोकते हुये कहा.
" मित्र... कम से कम इन्हे अपने चेहरे पर कौतुहल लेकर तो मृत्यु का आलिंगन ना करने दीजिये, आखिर ये आपके परिजन हैं. मरने से पूर्व इन्हे पूरा अधिकार है सच्चाई जानने का... ".
फिर अवंतिका और विजयवर्मन को देखते हुये बोलें.
" आपके राज्य कि सेना अत्यंत समर्थ है. हम तो क्या, कोई भी उन्हें सीधे युद्ध में पराजित नहीं कर सकता. आपके ज्येष्ठ भ्राता देववर्मन ने ना सिर्फ हमारी ओर मित्रता का हाथ बढ़ाया, बल्कि हमारी मित्रता के पुरस्कार स्वरुप हमारे लिए राजमहल का गुप्त द्वार भी खोल दिया, ताकि हम और हमारी सेना अंदर प्रवेश कर सकें ! और देखिये... परिणाम आपके सामने है !!! "
अवंतिका और विजयवर्मन ने अविश्वास और घृणा से अपने भाई देववर्मन को एक नज़र देखा.
चित्रांगदा का चेहरा लज्जा और क्रोध से लाल हो गया, परन्तु उनके चेहरे के भाव बता रहें थें कि उन्हें ये बात जानकार कोई खास आश्चर्य नहीं हुआ था.
देववर्मन ने हर्षपाल कि ओर देखकर एक बार सिर झुकाया.
" हम आपके ऋणी हैं मित्र देववर्मन ! ". कहते हुये हर्षपाल देववर्मन कि ओर बढ़ें. " हमें अपना आभार व्यक्त करने का मौका दीजिये ! ".
हर्षपाल कि बात सुनकर देववर्मन ने घमंड से अपनी गर्दन ऊपर कर ली, मानो उन्होंने कोई अत्यंत विशाल कार्य किया हो.
कक्ष में उपस्थित किसी भी व्यक्ति के कुछ समझ पाने से पहले ही हर्षपाल ने म्यान से अपनी तलवार निकाली और बाघ कि सी तेज़ गति से देववर्मन कि गर्दन पर वार कर दिया !!!
अपने ऊपर हुये इस आकस्मिक हमले से देववर्मन संभल ना पाएं और अपने पीठ और सिर के बल ज़मीन पर गिर पड़ें. उनकी गर्दन में गहरा घाव हुआ था, परन्तु सिर धड़ से अलग नहीं हुआ था. देववर्मन अपने दोनों हाथों से अपनी गर्दन का घाव दबाकर रक्त रोकने का असफल प्रयास करने लगें. उनके हाथों कि पकड़ से होते हुये खून का फव्वारा ऊपर कि ओर छूटने लगा, और उनके शरीर को भींगोते हुये पूरे ज़मीन पर फ़ैलने लगा !
" भैया !!! ". विजयवर्मन के मुँह से निकला.
अवंतिका और चित्रांगदा एक साथ चीख पड़ी और अपनी आँखे बंद कर ली !
अपनी खून से सनी तलवार ज़मीन पर घिसटते हुये हर्षपाल धीमे कदमो से चलते हुये घायल देववर्मन के करीब पहुँचे, और उनके पास बैठ गएँ.
" हर्ष... हर्षपाल !!! आखिर क्यूँ ??? ". अटकती हुई साँसों को किसी प्रकार काबू में करके देववर्मन ने फटी आँखों से हर्षपाल को देखते हुये पूछा.
" मन में कोई बैर ना रखियेगा मित्र देववर्मन... हो सके तो हमें क्षमा कर दीजियेगा ! ". हर्षपाल ने दुखी सा मुँह बनाते हुये कहा. " परन्तु हम आप पर भरोसा नहीं कर सकतें. जो व्यक्ति अपने परिवार, अपने राज्य का ना हुआ, वो भला हमारा क्या होता !!! ".
देववर्मन को वहीँ ज़मीन पर मरता हुआ छोड़कर हर्षपाल उठें, और विजयवर्मन के पास जाकर कहा.
" यानि हमने सत्य ही कहा था राजकुमार. अब लगता है इस राज्य का कारोभार हमें ही संभालना पड़ेगा !!! ". फिर ज़मीन पर घायल पड़े देववर्मन कि ओर उंगली दिखाकर बोलें. " और देखिये, राजा होने का प्रथम कर्तव्य भी हमने पूरा कर दिया, इस राजद्रोही को सजा देकर ! ".
" महाराज... महाराज... क्षमा महाराज... ". दर्द से छटपटाते देववर्मन के समीप खड़े एक सैनिक ने कहा. " ये तो अभी भी जीवित है ! ".
" पता है राजकुमार... लोग हमें दयालु राजा कहकर क्यूँ बुलाते हैं ??? ". हर्षपाल ने अपने उस सैनिक कि ओर देखा, और फिर विजयवर्मन कि आँखों में देखते हुये कहा. " क्यूंकि हम अपने शत्रु को सदैव एक ही बार में समाप्त कर देतें हैं, उसे तड़पाते नहीं ! ".
हर्षपाल चलकर ज़मीन पर गिरे पड़े असहाय देववर्मन के समीप गएँ, और उन्हें एक नज़र देखा. देववर्मन ने अभी तक अपने हाथ अपनी गर्दन से नहीं हटाए थें, खून का बहना ज़ारी था. मृत्यु के भय से उनकी आँखे बाहर निकल आई थीं और उनके मुँह से ऐसी आवाज़े निकल रहीं थीं, मानो उनके गले में कुछ फंसा हुआ हो.
हर्षपाल ने मुड़कर एक एक नज़र चित्रांगदा, विजयवर्मन, और अवंतिका को देखा, और फिर दोनों हाथों से अपनी तलवार हवा में अपने सिर के ऊपर तक उठाकर तलवार का नुकिला मुँह देववर्मन कि दाई आँख में घोप कर उनकी जीवनलीला एक ही बार में समाप्त कर दी !!!
अवंतिका और विजयवर्मन ने अपना अपना चेहरा तुरंत दूसरी ओर घुमा लिया, परन्तु चित्रांगदा चेहरे पर बिना कोई भाव लिए ये निर्मम दृश्य देखती रही !!!
मृत देववर्मन के रक्त के छीटों से सने हर्षपाल ने देववर्मन के आँख से अपनी तलवार खींचकर बाहर निकाली, और वापस से आकर अवंतिका और विजयवर्मन के सामने खड़े हो गएँ, और कहा.
" इच्छा तो हमारी बहुत हो रही है कि या तो हम पहले बहन का वध करें और भाई को देखने दें, या फिर भाई को मौत के घाट उतारें तो बहन देखे ! परन्तु अगर हमने ऐसा किया तो हमारी दयावान सम्राट कि छवि धूमिल हो जाएगी. और फिर हम इतने कठोर भी तो नहीं... ".
हर्षपाल कि बात बीच में ही काटकर चित्रांगदा ज़ोर से रोते गिड़गिड़ाते हुये चिल्ला पड़ी.
" ऐसा अनर्थ ना करो... इन्हे जीवनदान दे दो हर्षपाल ! मैं आजीवन अपनी इच्छा से आपकी दासी, आपकी नगरवेश्या बनकर रहूंगी... परन्तु इन्हे छोड़ दो... ये दोनों अभी के अभी ये राज्य छोड़कर चले जायेंगे... ऐसा ना करो हर्षपाल !!! ".
" अपने ऊपर आने वाले संकट के बारे में सोचो चित्रांगदा... ". हर्षपाल ने मुस्कुराते हुये चित्रांगदा कि ओर देखकर कहा. " दो दिनों बाद तुम खुद पछताओगी कि हमने तुम्हें जीवित क्यूँ रखा !!! ".
फिर हर्षपाल ने वापस से अवंतिका और विजयवर्मन कि ओर मुड़कर कहा.
" तो हमने ये तय किया है कि आप दोनों को हम एक साथ मृत्यु प्रदान करेंगे, ताकि ना भाई को बहन का और ना ही बहन को भाई का कष्ट देखना पड़े ! इतना तो हम कर ही सकतें हैं !!! ".
अवंतिका और विजयवर्मन को पकड़ रखे सैनिकों को हर्षपाल ने संकेत दिया, तो सैनिकों ने तुरंत दोनों को धकेल कर ज़मीन पर उनके घुटनों के बल गिराकर बैठा दिया !
" हर्षपाल... मेरी विनती है तुमसे... इन्हे मत मारो... इन्हे मारकर तुम्हें क्या मिलेगा ??? क्या तुम्हारे अपमान का प्रतिशोध अभी भी पूरा नहीं हुआ ??? ". चित्रांगदा ने रोते बिलखते हुये अवंतिका और विजयवर्मन को बचाने का अंतिम प्रयास किया.
परन्तु अवंतिका और विजयवर्मन को पता था कि चित्रांगदा कि गुहार सुनने वाला अब वहाँ कोई ना था, वो बेचारी तो बस खुद को दिलासा दे रही थी कि उसने अपनी असहाय ननद और देवर के प्राण बचाने का हर संभव प्रयास किया !
" मुझे क्षमा कर दीजिये भाभी... ". विजयवर्मन ने गर्दन घुमाकर चित्रांगदा को देखते हुये कहा. " मैं आपकी रक्षा नहीं कर सका !!! ".
कोई और उपाय ना देखकर हार चुकी चित्रांगदा फफक फफक कर रो पड़ी !
" हमारा साथ बस यहीं तक का था भाभी... ". आँसुओ से डबडबाती आँखों से मुश्किल से अपनी भाभी को अंतिम बार निहारते हुये अवंतिका ने कहा. " मैं ईश्वर से प्राथना करुँगी कि अगले जनम में हम दोनों सगी बहनों के रूप में जन्म लें !!! "
चित्रांगदा ने सुबकते सुबकते अपने आंसुओं को किसी प्रकार रोककर सिर हिलाकर अवंतिका कि बात पर स्वीकृती ज़ाहिर कि.
हर्षपाल ने कुछ सोचकर चित्रांगदा को पकड़ रखे सैनिकों को इशारा किया, तो उनमें से एक सैनिक ने नीचे ज़मीन पर चित्रांगदा का गिरा हुआ चाकू अपने पैर से ठोकर मारकर वहाँ से दूर सरका दिया. हर्षपाल ने ऐसा इसलिए करवाया था कि कहीं चित्रांगदा आवेश में आकर आत्महत्या कि चेष्टा ना करे !!!
हर्षपाल का अगला संकेत अवंतिका और विजयवर्मन को पकड़ रखे सैनिकों के लिए था. आदेश मानकर उन सैनिकों ने अवंतिका और विजयवर्मन के दोनों हाथ उनके पीठ पर मोड़ कर उन्हें सख़्ती से जकड़ लिया और उन्हें उनकी गर्दन झुकाने पर विवश कर दिया !
" अगर कोई अंतिम इच्छा हो तो बताने का यही उचित समय है !!! ". हर्षपाल ने अपनी उंगलियों से अपनी तलवार कि धार कि जाँच करते हुये कहा.
" तुमसे क्या मांगना हर्षपाल... ". विजयवर्मन ने अपनी नज़रें ऊपर उठाकर हर्षपाल को देखते हुये व्यंग्य से मुस्कुराकर कहा. " अब तो हम साक्षात् ईश्वर से मिलने वाले हैं !!! ".
चाकू से कटे हुये रक्तरंजीत घाव वाले हर्षपाल के चेहरे पर एक तीरछी मुस्कुराहट खेल गई. अवंतिका और विजयवर्मन के बगल में आकर उसने अपनी तलवार ऊपर उठा ली और इस भांति तैयार होकर खड़ा हो गया कि एक ही वार में दोनों भाई बहन के सिर उनके धड़ से अलग हो जायें !
चित्रांगदा ने अपना चेहरा दूसरी ओर घुमाकर अपने कंधे में छुपा लिया.
पास पास घुटनों के बल बैठे अवंतिका और विजयवर्मन ने अंतिम बार अपनी गर्दन घुमाकर एक दूसरे को देखा !
अवंतिका के चेहरे पर एक संतोष का भाव था, क्यूंकि उसे पता था कि मृत्यु के उस पार वो फिर से विजयवर्मन से मिलने वाली है - उन्हें कभी कोई अलग नहीं कर सकता !!!
परन्तु विजयवर्मन का चेहरा निडर लेकिन चिंताग्रस्त लग रहा था, क्यूंकि वो जानते थें कि मृत्यु के परे वाली दुनिया एक मिथ्या है , बस खुद को सांत्वना देने का एक जरिया मात्र - और वो दोनों इस एकमात्र जीवन में अब हमेशा हमेशा के लिए एक दूसरे से बिछड़ने वाले हैं !!!
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" सावधान हर्षपाल !!! तुम्हारी मृत्यु में अभी समय है ! ".
अवंतिका और विजयवर्मन कि गर्दन पर अपनी तलवार से वार करने ही वाले थें हर्षपाल, कि एक अत्यंत आक्रामक आधिकारिक आदेश ने उन्हें ठिठक कर रुकने पर विवश कर दिया. इतने सशक्त स्वर में चेतावनी देने वाले का चेहरा देखने के लिए हर्षपाल ने अपनी गर्दन कक्ष के द्वार कि ओर घुमाई ही थी, कि उन्हें रोकने हेतु किये गये अगले प्रयास के तहत एक तीर तेज़ गति से आकर उनके हाथों में लगा, फलस्वरुप उनके हाथ से उनकी तलवार छिटक कर उनसे दूर नीचे ज़मीन पर जा गिरी.
वाण चलाने वाले ने इतनी निपुणता से वार किया था कि तीर हर्षपाल के दोनों हथेलीयों को भेद कर बीच में ही अटक कर थम गया था, मानो तीरंदाज़ का उद्देश्य ही क्रूर हर्षपाल के दोनों हाथ बांधना हो !
अपने प्राणो कि आहुति देने के लिए बैठे अवंतिका और विजयवर्मन ने अचंभित होकर सिर उठाया और द्वार कि ओर देखने लगें. सामने से किसी अज्ञात स्रोत से छूटते हुये हवा में एक साथ अनगिनत वाण उनकी ओर बढ़ें तो उन्होंने तुरंत अपने सिर नीचे झुका लियें. अपने पीछे खड़े सैनिकों, जिनकी गिरफ्त में वो दोनों अब तक थें, के तलवारों कि खनक और फिर तलवारों के नीचे ज़मीन पर गिरने का स्वर अपने कानों से सुनते ही दोनों समझ गएँ कि वो सारे सैनिक उन तीरों से धराशायी होकर गिर मर चुके हैं !
ऐसा ही कुछ चित्रांगदा को पकड़ रखे सैनिकों के साथ भी हुआ, ज़हरीले तीरों ने पलक झपकते ही उन्हें नर्कलोक में धकेल दिया था. चित्रांगदा अब मुक्त थी !
बंधनमुक्त होते ही चित्रांगदा कक्ष में हो रहे तीरों के बौछार के बीच से भागते हुये अवंतिका और विजयवर्मन के पास पहुँची और उन्हें अपने हाथों का सहारा देकर उठाकर खड़ा किया. तीनों अब तक इतना तो समझ ही चुके थें कि तीरों कि ये बारिश उन्हें नुकसान पहुँचाने के लिए नहीं थी !
बेबस हर्षपाल इधर उधर मुड़कर चारों तरफ अपने आतंकित सैनिकों को उस कक्ष के अंदर ही अपने प्राण बचाने हेतु भागते और फिर विवश होकर मरते हुये देखते रहें !
" कौन है ये दुस्साहसी ??? सामने क्यूँ नहीं आता ??? ". भय मिश्रीत क्रोध से तिलमिलाये हर्षपाल ज़ोर से चिल्लाते हुये बोलें.
कक्ष में ना जाने कहाँ से अज्ञात सैनिकों का एक पूरा गिरोह घुस आया था, किसी के हाथ में तलवार था, तो किसी के हाथ में भाला, और तीर धनुष. हर्षपाल के मरे पड़े सैनिकों के अलावा जितने भी बचे खुचे सैनिक वहाँ मौजूद थें, उस हरेक सैनिक के पीछे करीब दो से तीन ये अज्ञात सैनिक आ धमकें. कक्ष में अभी अभी जो कुछ भी हुआ था, उसके भय और आतंक से ग्रसित हर्षपाल के इन सैनिकों ने मरने से बेहतर अपने हथियार डालने का निर्णय उचित समझा !
" भाग क्यूँ रहे हो मूर्खो ??? शत्रु का सामना करो... ". हर्षपाल फिर से चिल्लाये, और अपने आस पास दौड़ते भागते सैनिकों को जबरन पकड़ पकड़ कर सामने द्वार कि ओर धकेलने लगें जिस ओर से ये अज्ञात मुसीबत आ धमकी थी . परन्तु फिर वो अपने ही ऊपर मानो लज्जित होकर रुक गएँ , क्यूंकि चारों ओर नज़र दौड़ाकर देखने पर उन्हें पता चला कि वहाँ अब उनके ऐसे सैनिक बचे ही नहीं थें जो कि लड़ सकें. उनके सैनिक या तो ज़मीन पर गिरे मरे पड़े थें, या फिर भय से कांपते खड़े हथियार डाले अपने प्राणो कि रक्षा हेतु प्राथना कर रहें थें !
सैनिकों का कोलाहल और वाणों कि वर्षा जब थोड़ी शांत हुई तो अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने देखा कि कक्ष में वो अज्ञात सैनिक अब पूरी तरह से भर चुके थें.
क्रोध से आगबबूला हुये हर्षपाल ने अपने दोनों हाथों को इतने ज़ोर से झटका कि हथेलीयों में चुभा हुआ तीर दो टुकड़े होकर नीचे ज़मीन पर छिटककर गिर पड़ा, और उसके दोनों हाथ आज़ाद हो गएँ. वो ज़ोर से गुर्राते हुए उस अज्ञात सैनिकों कि टुकड़ी कि ओर निहत्था ही अकेले लड़ने के लिए दौड़ पड़ा, परन्तु तभी ना जाने कहाँ से सैनिकों कि भीड़ में से एक वाण तीव्र गति से लहराते हुये आकर उसके दाएं जंघा पर लगा, और वो आधे रास्ते ही लड़खड़ाकर अपने घुटनों के बल ज़मीन पर गिरकर पीड़ा से चिल्लाने लगा !!!
अज्ञात सैनिकों का झुंड तुरंत किनारे किनारे होकर सिर झुकाकर खड़ा हो गया और बीच से किसी के आगमन के लिए रास्ता बना दिया !
अस्त्र शस्त्र से सुसज्जित, हाथ में धनुष थामे, पीठ पर वाणों से लदा तूनीर लटकाये, छाती पर लोहे का कवच और सिर पर राजसी सोने का मुकुट पहने एक वृद्ध, परन्तु ह्रष्ट पुष्ट तथा बलशाली दिखने वाला शख्स सैनिकों के बनाये बीच के मार्ग से अंदर कक्ष में दाखिल हुआ, और अंदर आते ही रुककर सबसे पहले अपनी पैनी नज़र वहाँ मौजूद हरेक व्यक्तिविशेष पर दौड़ाई !!!
उस शख्स को सामने खड़ा देख, अवंतिका, विजयवर्मन और चित्रांगदा ने अविश्वास, मगर प्रसन्न आँखों से एक दूसरे को देखा !
" कौन है तू मूर्ख ??? ". अपनी जंघा में धसे हुये वाण को अपने दोनों घायल हाथों से निकालने का असफल प्रयास करते हुये हर्षपाल ने अपनी गर्दन ऊपर उठाकर उस व्यक्ति को देखते हुये चिल्लाकर पूछा. " क्या तू इस बात से अवगत नहीं कि हमने अभी अभी ये राज्य जीता है ??? हम यहाँ के सम्राट हैं !!! ".
" अशिष्ट हर्षपाल... तनिक संभल कर ! तुम्हारी अभद्रता ही कहीं तुम्हारी मृत्यु का कारण ना बन जाये ! ". एक अन्य व्यक्ति ने कक्ष में प्रवेश करते हुये कहा. " तुम कुम्भिक राज्य के महाराजाधिराज ऋषभनंदन के सामने हो !!! ".
" रहने दो सेनापति कीर्तिमान... जो व्यक्ति आजीवन शिष्टाचार ना सिख पाया हो, उसे उसकी मृत्यु के समय शिक्षित करना मूर्खता है ! ". उस वृद्ध व्यक्ति, राजा ऋषभनंदन ने अपना हाथ उठाकर अपने सेनापति कीर्तिमान को रोकते हुये कहा.
" क्षमा महाराज, मैं तो केवल ये चाहता था कि इस अधम को ज्ञात हो जाये कि इसकी मृत्यु किसके हाथों होने वाली है ! ". सेनापति कीर्तिमान ने सिर झुकाकर कहा.
राजा ऋषभनंदन अपने सेनापति को देखकर मुस्कुरायें, और फिर हर्षपाल कि ओर देखकर बोलें.
" युद्ध में जीत तब तक ही बनी रहती है हर्षपाल, जब तक कि तुम्हें मारने वाला कोई जीवित ना बचा हो !!! ".
सेनापति कीर्तिमान ने अपने सैनिकों को संकेत दिया, तो चार सैनिक भीड़ से निकल आएं, और जाकर हर्षपाल को पकड़कर वहीँ ज़मीन पर उसके घुटनों के बल बैठा दिया. कुछ भी समझ पाने में असमर्थ हर्षपाल ने पहले उन सैनिकों को देखा, और फिर राजा ऋषभनंदन और सेनापति कीर्तिमान को, तो सेनापति कीर्तिमान ने उसे बताया.
" हम यहाँ महाराज नंदवर्मन कि सहायता हेतु आएं हैं. हमारी सेना ने तुम्हारी सेना को रणभूमि में पराजित कर दिया है हर्षपाल, और इस राजमहल के अंदर भी अब तुम्हारे सैनिक नहीं बचें रहें. अब तुम हमारे बंदी हो... "
" पिताश्री !!! ". चित्रांगदा दौड़कर आई, और अपने पिता, राजा ऋषभनंदन से लिपट पड़ी और रोने लगी.
" मुझे क्षमा करना पुत्री... हमें आने में विलम्ब हुआ ! ". राजा ऋषभनंदन ने अपनी पुत्री चित्रांगदा को अपने सीने से लगा लिया.
अवंतिका और विजयवर्मन ने आकर राजा ऋषभनंदन के पैर छूकर आशीर्वाद लिया तो उन्होंने चित्रांगदा को छोड़ उन दोनों को अपने दोनों हाथों से पकड़कर उठाया और गले लगा कर बोलें.
" आयुष्मानभव: !!! आप दोनों ने बहुत कष्ट सहें हैं... अब और नहीं ! ".
" परन्तु आप हमारी सहायता हेतु यहाँ पहुँचे कैसे महाराज ??? ". अवंतिका पूछ बैठी.
" गुप्तचर... ". राजा ऋषभनंदन ने एक शब्द में उत्तर दिया.
" हम आपके आभारी हैं राजन. इसमें कोई संदेह नहीं कि आपकी गुप्तचर प्रणाली अत्यंत प्रवीण है, जो इतने कम समय में उन्होंने आप तक ये समाचार पहुँचाया, और आप हमारी सहायता को प्रस्तुत हुये ! ". विजयवर्मन ने विनम्रता से सिर झुकाकर कहा.
" नहीं नहीं राजकुमार... ". राजा ऋषभनंदन ने कहा, और फिर चित्रांगदा कि ओर संकेत करके मुस्कुराते हुये बोलें. " वो तो हमारी पुत्री का कोई घुड़सवार गुप्तचर था जो हमारे पास ये अशुभ समाचार लेकर आया था !!! ".
ये कथन सुनकर अवंतिका और विजयवर्मन कि आँखे बड़ी हो गईं, और उन्होंने घूमकर चित्रांगदा को देखा, तो चित्रांगदा हल्के से मुस्कुराकर बोली.
" मुझे राजनीती कि समझ नहीं... पर इस राजमहल में रहकर कुटिलता अवश्य ही सिख गई हूँ !!! ".
" आपका गुप्तचर ??? ". विजयवर्मन ने आश्चर्यचकित हो कहा. " और कहाँ मैं आपको गुप्तचर प्रणाली के विषय में शिक्षा दे रहा था भाभी !!!
अवंतिका और चित्रांगदा दोनों एक साथ हँस पड़ी.
तभी राजा ऋषभनंदन कि नज़र पास ही पड़े देववर्मन के शव पर गई, तो उनके कुछ पूछने से पहले ही चित्रांगदा उत्तर में बोली.
" घरेलु क्लेश कि वजह से देववर्मन राजद्रोही निकलेंगे ऐसा हममें से किसी ने भी नहीं सोचा था पिताश्री. उन्हें उनके किये कि फलप्राप्ति हो गई... ".
" आपलोग अब इस रक्तरंजीत स्थान से जाइये... ". राजा ऋषभनंदन ने चित्रांगदा के सिर पर हाथ फेरते हुये अवंतिका और विजयवर्मन को देखते हुये कहा.
" पिताश्री और माताश्री तो ठीक हैं ना ? ". अवंतिका ने चिंतित स्वर में पूछा.
" उन्हें हमारी सेना ने सकुशल बंदीगृह से निकाल लिया है राजकुमारी... ". राजा ऋषभनंदन ने आस्वस्त किया.
" फिर तो केवल एक ही कार्य पूर्ण करना बाकि रह गया है... ". चित्रांगदा ने अपने आप में कुछ सोचते हुये धीरे से कहा, और पीछे मुड़ी.
राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन उन्हें प्रश्नवाचक नज़रों से देखते रहें.
पीछे जाकर चित्रांगदा ने ज़मीन पर गिरा हुआ अपना चाकू उठाया, और धीमे कदमो से चलकर हर्षपाल के समीप पहुँची, जिसे अभी भी सैनिकों ने धर दबोच रखा था. अपने पास चित्रांगदा को खड़ा पाकर हर्षपाल ने गर्दन उठाकर उन्हें देखा, और भद्दी हँसी हँसते हुये बोला.
" हम अपनी योजना पर अभी भी अडिग हैं चित्रांगदा ! परन्तु आप जैसी तेजस्वीनी स्त्री का स्थान हमारे नगरवेश्यालय में नहीं, ये बात हम समझ चुके हैं. आप चाहें तो स्वेक्षा से हमारी दासी बनकर रह सकतीं हैं... हमारी पत्नियों को भी इससे प्रसन्नता ही होगी !!! ".
बिना एक शब्द भी कहे चित्रांगदा ने अपने चाकू कि नोक हर्षपाल कि ठुड्डी पर गड़ा कर उसे उठने का संकेत दिया, तो सैनिकों ने उसे खींचकर खड़ा कर दिया.
" स्त्रीयों के लिए तो कई सारे विकल्प हैं ... परन्तु पुरुषों का क्या ??? ". चित्रांगदा अपना चेहरा हर्षपाल के चेहरे के एकदम समीप लेजाकर बोली. " आप पुरुष हैं, अन्यथा हम आपको अपने नगर के वेश्यालय में अवश्य ही स्थान देतें. तुम्हारे पास विकल्प कम हैं हर्षपाल !!! ".
अपनी अटल नियति समीप देख हर्षपाल के कटे हुये चेहरे पर एक तीरछी मुस्कुराहट खेल गई. उसने एक बार भी चित्रांगदा कि आँखों में देखना बंद नहीं किया. हर्षपाल क्रूर और दुराचारी सही, परन्तु इतना तो तय था कि वो डरपोक नहीं था, उसे मृत्यु का भय भी नहीं था !
" और वैसे भी तुम्हारा चेहरा अर्ध विकृत हो चुका है... ". चित्रांगदा ने कहा. " आओ... इसकी विकृति पूर्ण कर देती हूँ !!! ".
चित्रांगदा ने हर्षपाल कि ठुड्डी के नीचले हिस्से में गर्दन में चाकू का नुकीला मुँह अंदर घोप दिया. भयहीन हर्षपाल चित्रांगदा कि आँखों में तब तक देखकर मुस्कुराता रहा, जब तक कि चाकू उसके चेहरे के भीतर भीतर चीरा लगाते हुये उसके सिर को चीरकर सिर से बाहर ना निकल गया. हर्षपाल कि आँखे बंद हो गई, तो चित्रांगदा ने अपना दूसरा हाथ उसकी छाती पर टिकाकर, अपनी पूरी शक्ति लगाकर चाकू को हर्षपाल के चेहरे के अगले हिस्से से खींचकर बाहर निकाल लिया, हर्षपाल का चेहरा बीच से अगल बगल में दो हिस्सों में कट कर लटक गया, और उसकी जीवनलीला वहीँ समाप्त हो गई !!!
सैनिकों ने हर्षपाल के भारी हो चुके शरीर को वहीँ ज़मीन पर नीचे गिर जाने दिया !
वापस राजा ऋषभनंदन, अवंतिका, और विजयवर्मन के पास आकर चित्रांगदा ने रक्त से सना अपना चाकू अपनी कमर से लिपटे घाघरे में खोस लिया और बोली.
" अब हम चलने के लिए प्रस्तुत हैं ... ".
विजयवर्मन ने एक नज़र अपनी भाभी चित्रांगदा कि कमर में खोसी हुई चाकू पर डाली, फिर उनके चेहरे को देखा, मन ही मन कुछ याद करके मुस्कुरायें, और उन्हें और अवंतिका को लेकर राजा ऋषभनंदन कि आज्ञा लेने के उपरांत कक्ष से बाहर निकल गएँ !
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" मुझे आज्ञा दीजिये राजा ऋषभनंदन... ". महाराज नंदवर्मन ने कहा. " हम आपका आभार कैसे व्यक्त करें ? ".
दूसरे दिन महाराज नंदवर्मन ने अपने कक्ष में एक सभा बुलाई, जिसमें उनके अलावा, महारानी वैदेही, राजकुमारी अवंतिका, राजकुमार विजयवर्मन, चित्रांगदा, और स्वयं राजा ऋषभनंदन तथा उनके सेनापति कीर्तिमान शामिल थें.
" आपको मेरा आभार प्रकट करने कि कोई आवश्यकता नहीं राजन... ". राजा ऋषभनंदन नम्र स्वर में बोलें. " परन्तु अगर आप चाहते ही हैं, तो मैं आपको आज्ञा तो कदापि नहीं दे सकता, हाँ, अवश्य ही एक विनती करने कि इच्छा रखता हूँ ! ".
" निसंकोच कहें राजा ऋषभनंदन... ".
" राजन... आपके राजपुरोहित के कथनानुसार तो अब तक राजकुमार विजयवर्मन कि मृत्यु हो जानी चाहिए थी. परन्तु आपने स्वयं ही देख लिया है कि उनका कथन मिथ्या प्रमाणित हो चुका है... ". राजा ऋषभनंदन ने कहना शुरू किया. " राजकुमार विजयवर्मन अभी भी सकुशल हैं... इससे ईश्वर कि इच्छा सिद्ध नहीं होती तो क्या होता है, आप ही उत्तर दीजिये ! मैं नहीं कहता कि इन दोनों का कोई दोष नहीं... अवश्य ही हमारे समाज में भाई बहन का ऐसा सम्बन्ध अमान्य है. परन्तु इनका प्रेम सम्बन्ध अनूठा और पवित्र है, क्यूंकि स्वयं ईश्वर ने इन्हे जीवनदान देकर इनके प्रेम को सहमति प्रदान कि है राजन ! ऐसे में हम तुच्छ मनुष्य होते ही कौन हैं इनके जीवन का निर्णय लेने वाले ??? ".
" आप कहना क्या चाहते हैं राजा ऋषभनंदन... ". महाराज नंदवर्मन ने अवंतिका और विजयवर्मन कि ओर देखा, और फिर राजा ऋषभनंदन से बोलें. " स्पष्ट कहिये ! ".
" अवश्य ही राजन... ". राजा ऋषभनंदन ने सिर झुकाकर कहा. " मेरी केवल इतनी ही विनती है कि इन्हे इतनी बड़ी सजा ना दीजिये. इनका देशनिकाला स्थगित कर इन्हे पुनः अपने पुत्र तथा पुत्री के रूप में स्वीकार कर इनके विवाह को मान्यता प्रदान कीजिये, और इन्हे राजमहल में रहने कि अनुमति दीजिये !!! ".
" मुझे ये देख अत्यंत प्रसन्नता हुई राजा ऋषभनंदन, कि आप मेरे पुत्र और पुत्री कि कुशलता चाहतें हैं... ". महाराज नंदवर्मन ने गंभीर स्वर में कहा. " परन्तु आप जो मांग रहें हैं, वो संभव नहीं ! मेरा न्यायिक निर्णय अटल है !!! ".
" तनिक सोचिये राजन... ". राजा ऋषभनंदन नरम स्वर में बोलें. " आपके ज्येष्ठ पुत्र ने क्या किया !!! तुलनात्मक स्वरुप उसके सामने तो आपके इस छोटे पुत्र का दोष कुछ भी नहीं. आपने इन्हे युद्धभूमि में भी जाने कि आज्ञा नहीं दी. वरन इन्होने आपकी आज्ञा ना होते हुये भी हर्षपाल के सैनिकों से राजमहल के अंदर रहकर अकेले युद्ध करके अपने प्राणो कि चिंता ना करते हुये राज्य को बचाने का हर संभव प्रयास भी किया ! तनिक तो विवेक से काम लीजिये राजन... ".
" मुझे अपने निर्णय का कोई दुख नहीं राजा ऋषभनंदन... ". महाराज नंदवर्मन ने कहा. " परन्तु फिर भी मैं आपसे क्षमाप्रार्थी हूँ ! ".
" तो क्या यही आपका अंतिम निर्णय है राजन ??? ". राजा ऋषभनंदन ने पूछा.
महाराज नंदवर्मन ने महारानी वैदेही को देखा, और फिर बोलें.
" हमने इन्हें अपनी संतान कहलाने के अधिकार से मुक्त कर दिया है राजन... ".
" महारानी... आप तो एक माँ हैं... ". राजा ऋषभनंदन ने महारानी वैदेही से कहा. " आप तो इतनी कठोर ना बनिए. राजन को समझाइये... ".
महारानी वैदेही ने अवंतिका और विजयवर्मन को एक नज़र देखा, फिर बिना कोई उत्तर दिए अपना सिर नीचे झुका लिया.
राजा ऋषभनंदन समझ गएँ कि उनकी गुहार का यहाँ कोई मूल्य नहीं. उन्होंने अपनी पुत्री चित्रांगदा को, और फिर अवंतिका और विजयवर्मन को देखा, और महाराज नंदवर्मन से बोलें.
" जैसी आपकी इच्छा. फिर मैं अपनी पुत्री सहित राजकुमारी अवंतिका और राजकुमार विजयवर्मन को अपने राज्य ले जाने कि आज्ञा चाहूंगा !!! ".
" आप ऐसा नहीं कर सकतें राजा ऋषभनंदन... ". महाराज नंदवर्मन ने कहा. " आप अपनी पुत्री को अवश्य ले जाइये... परन्तु अवंतिका और विजयवर्मन को ले जाने कि आज्ञा देने में मैं असमर्थ हूँ ! "
" क्या मैं इसका पर्याय जान सकता हूँ राजन ??? ". राजा ऋषभनंदन ने पूछा.
" इन्हे देशनिकाला मिला है... ".
" सत्य है... यानि इन्हे इस राज्य से निष्कासित किया जा रहा है. परन्तु ये कहाँ जायेंगे, इसका निर्णय आपके हाथों में नहीं है राजन ! और फिर आपने इन्हे देशनिकाला कि सजा सुनाई है, अज्ञातवास कि नहीं !!! ".
" ये नियम के विरुद्ध है राजा ऋषभनंदन... ". महाराज नंदवर्मन का स्वर अनायास ही कठोर हो गया.
" नियम ??? ". राजा ऋषभनंदन मुस्कुरायें, अपने सेनापति कीर्तिमान कि ओर देखा, और फिर महाराज नंदवर्मन से कहा. " क्षमा कीजिये राजन, परन्तु नियम कि सुनें तो आपको तो हर्षपाल ने बंदी बना लिया था, आपकी सेना परास्त हो चुकी थी, आपके ज्येष्ठ पुत्र का वध करके हर्षपाल खुद को यहाँ का सम्राट घोषित कर चुका था. ऐसी परिस्थिति में हमने आपके राज्य को बचाया. आपके राज्य में हमारी सेना अभी भी भरी पड़ी है. ये राज्य अब आपका नहीं रहा राजन ! मैं चाहूँ तो आपको अपने अधीन कर स्वयं को एकाधिकारी सम्राट घोषित कर सकता हूँ !!! ".
" अपनी सीम ना लाँघीये राजा ऋषभनंदन ! ". कहते हुये महाराज नंदवर्मन अपने सिंहासन से उठ खड़े हुये.
ये देख सेनापति कीर्तिमान तुरंत अपनी म्यान से अपनी तलवार निकालते हुये आगे बढ़ें, तो राजा ऋषभनंदन ने उन्हें रोक लिया, और महाराज नंदवर्मन को देखते हुये मुस्कुराकर सख़्त स्वर में बोलें.
" ये बात सर्वदा स्मरण रखियेगा राजन, कि आपका राजसिंहासन छिन चुका था ! ".
महाराज नंदवर्मन चुपचाप से अपने सिंहासन पर पुनः बैठ गएँ.
" मै, कुम्भिकनरेश ऋषभनंदन, आपको आपका राज्य वापस सौंपता हूँ !!! ".
कहते हुये राजा ऋषभनंदन ने एक नज़र महाराज नंदवर्मन और महारानी वैदेही को देखा, और फिर अवंतिका, विजयवर्मन, और चित्रांगदा पर हल्की सी तीव्र दृष्टि दौड़ाकर तेज़ कदमो के साथ कक्ष से बाहर चलें गएँ. सेनापति कीर्तिमान ने अपनी तलवार पुनः अपने म्यान में रख ली, महाराज नंदवर्मन को एक बार देखा, और फिर वो भी अपने राजा के पीछे पीछे बाहर निकल गएँ...
..........................
कुम्भिक राज्य में अवंतिका, विजयवर्मन, और चित्रांगदा का भव्य स्वागत किया गया, जब वो विजयी राजा ऋषभनंदन और उनकी सम्पूर्ण सेना के साथ वापस लौटें.
अवंतिका, विजयवर्मन, तथा चित्रांगदा अब यहीं राजमहल में रहने लगें.
कुछ दिनों के उपरांत एक उचित समय देख राजा ऋषभनंदन ने तीनों को किसी विशिष्ट विषय पर विचार विमर्श करने हेतु अपने कक्ष में आमंत्रित किया, और विजयवर्मन को सम्बोधित करते हुये बोलें.
" राजकुमार विजयवर्मन... मेरी आपसे एक प्रार्थना थी ! ".
" आप मुझे आज्ञा देंगे तो अधिक उचित होगा महाराज... ". विजयवर्मन ने विनम्रता से सिर झुकाकर कहा.
" राजकुमार... मैं अपनी पुत्री को इस प्रकार आजीवन विधवा नहीं देख सकता. ". राजा ऋषभनंदन ने चित्रांगदा कि ओर देखकर कहा. " मुझे अत्यधिक प्रसन्नता होगी अगर आप मेरी पुत्री चित्रांगदा को अपनी पत्नि के रूप में स्वीकार करें ! ".
" पिताश्री !!! ". अपने पिता के इस आकस्मिक प्रस्ताव पर चित्रांगदा ने चौंकते हुये अवंतिका कि ओर एक बार देख कर कहा. " ये आप क्या कह रहें हैं ??? ".
" पुत्री... तुम्हें इस अवस्था में देखते रहने कि मेरी विवशता कि पराकाष्ठा का आकलन मेरे सिवाय किसी और कि क्षमता के परे है !!! ".
" महाराज... ये मेरा सौभाग्य होगा कि मैं भाभी चित्रांगदा से विवाह करूँ ! ". विजयवर्मन ने अवंतिका और चित्रांगदा को देखा, फिर बोलें. " परन्तु मैं केवल अवंतिका से प्रेम करता हूँ. इस जीवन में उनके सिवाय मैं किसी और को अपने ह्रदय में स्थान नहीं दे सकता ! मैं सादर क्षमाप्रार्थी हूँ... ".
राजा ऋषभनंदन अपने हाथ बांधे कुछ सोचते हुये धीरे धीरे टहलने लगें.
" भैया... ये ना भूलिए कि आज आप, मैं, और हमारा प्रेम केवल मात्र भाभी और उनके पिताश्री कि वजह से जीवित है ! ". राजा ऋषभनंदन का मनोभाव आँकते हुये अवंतिका ने कहा. " ऐसे में हमारा क्या कर्त्तव्य है ये आपसे सटीक भला कौन जनता है ? हमें भी उनकी भावनाओ कि उपेक्षा नहीं करनी चाहिए ! ".
" नहीं अवंतिका... ". चित्रांगदा ने अवंतिका के कंधे पर हाथ रखकर उन्हें रोका. " राजकुमार और आप हमारे ऋणी नहीं !!! ".
" चित्रांगदा सही कह रही है... ". राजा ऋषभनंदन ने रुकते हुये विजयवर्मन से कहा. " आपका निर्णय किसी भी प्रकार के उपकार से प्रभावित नहीं होना चाहिए राजकुमार . ".
विजयवर्मन चुपचाप खड़े कुछ सोचने लगें.
राजा ऋषभनंदन टहलते हुये चित्रांगदा के समीप जा खड़े हुये, और पीछे मुड़कर विजयवर्मन को देखते हुये बोलें.
" वैसे ये सत्य है कि मेरी विनती स्वार्थमुक्त नहीं ! पर्याय ये है राजकुमार, कि चित्रांगदा के सिवाय मेरी और कोई संतान नहीं. जब तक वो आपके राजपरिवार कि कुलवधु थी, तो मुझे इस विषय में सोचने कि आवश्यकता नहीं पड़ी . परन्तु अब जब वो पुनः मेरी पुत्री के रूप में वापस मेरे परिवार का एक अंग बन गई है, तो मैं चाहता हूँ कि... ". राजा ऋषभनंदन थोड़ा रुकें, फिर कहा. " मैं चाहता हूँ कि वो हमें हमारे राज्य का उत्तराधिकारी दे !!! ".
" और फिर प्रेम तो विवाह के पूर्व भी हो सकता है ना भैया ??? ". अवंतिका ने चित्रांगदा को उनके कंधो से प्यार से पकड़ते हुये विजयवर्मन से कहा.
" ठीक है महाराज... ". विजयवर्मन ने चिंतित स्वर में कहा. " मुझे थोड़ा सोचने का अवकाश दीजिये ! ".
" अवश्य... अवश्य राजकुमार !!! ". आशा कि हल्की सी किरण मात्र से प्रसन्नचित होते हुये राजा ऋषभनंदन बोलें...
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24-07-2021, 06:51 PM
(This post was last modified: 23-10-2021, 02:33 PM by usaiha2. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
प्रारम्भ में तो विजयवर्मन अपनी बात पर अडिग रहें, परन्तु फिर अवंतिका के समझाने मनाने के भरसक प्रयासों के पश्चात् उन्हें समझ आया कि, राजा ऋषभनंदन तो असल में उनसे कुछ मांग ही नहीं रहें थें, उल्टे अपनी पुत्री को उन्हें सौंप रहें थें. और फिर एक पुरुष का अपने भाई के मरणोपरांत उसकी विधवा हुई पत्नि से विवाह करना उस समय के अनुसार कोई नवीन प्रचलन तो था नहीं. विजयवर्मन का अपनी भाभी के साथ शारीरिक सम्बन्ध तो हमेशा से ही था, वो तो बस अब मन का मिलन होने जा रहा था !!!
राजा ऋषभनंदन को ना तो विजयवर्मन और चित्रांगदा के सम्बन्धों के बारे में ज्ञात था, ना ही चित्रांगदा के पूर्व पति देववर्मन कि विकृत मानसिकता के बारे में. एक प्रकार से देखा जाये तो विजयवर्मन को एक अवसर मिल रहा था इस पाप में अपनी भागीदारी का शुद्धिकरण करने के लिए !
राजा ऋषभनंदन के प्रस्ताव के दो दिनों उपरांत विजयवर्मन ने काफ़ी सोच विचार करने के बाद और अवंतिका के समझाने स्वरुप उन्हें ख़ुशी ख़ुशी अपनी स्वीकृती दी !!!
विवाह के एक ही मंडप में विजयवर्मन का विवाह अवंतिका और चित्रांगदा से संपन्न हुआ. राजा ऋषभनंदन ने अपनी पुत्री के साथ साथ अवंतिका का भी विवाह इसलिए संपन्न करवाया, क्यूंकि विजयवर्मन और अवंतिका का विवाह इसके पूर्व केवल दोषनिवारण हेतु करवाया गया था. विधिपूर्वक विवाह होने से अब उन दोनों के प्रेम सम्बन्ध को सामाजिक मान्यता मिल गई !
......................................
अनोखे मिलनरात्रि कि बेला आन पड़ी थी, अनोखा इसलिए क्यूंकि आज एक साथ तीन आत्माओ और शरीरों का संगम होने वाला था !
" चित्रांगदा भाभी के पास आपके लिए एक उपहार है भैया ! ". सुहागशयनकक्ष में अवंतिका ने अपनी अंगिया खोलते हुये कहा.
" अच्छा ??? वो क्या भला ? ". अपने सामने खड़ी अवंतिका और चित्रांगदा को मुस्कुराकर देखते हुये विजयवर्मन ने पूछा.
अपनी अंगिया खोल चुकी अवंतिका ने मुस्कुराते हुये चित्रांगदा को संकेत दिया, तो चित्रांगदा शर्माते हुये अपने घाघरे कि डोरी ढीली करने लगी.
कुछ ही क्षणों पश्चात् दोनों स्त्रीयां विजयवर्मन के सामने पूर्णतः नग्न अवस्था में खड़ी थीं !
परन्तु चित्रांगदा ने अपने दोनों हाथों से अपनी चूत छुपा रखी थी.
" भैया को उपहार दिखाइए ना भाभी... ". अवंतिका ने हँसकर कहा.
चित्रांगदा ने एक बार अवंतिका को देखा, फिर विजयवर्मन को, और लजाते लजाते अपनी जाँघों के बीच से अपनी हथेलीयां हटा ली.
चित्रांगदा कि नाभी से नीचे और टांगों के मध्य अवस्थित उसकी योनि देखते ही अचरज से विजयवर्मन कि आँखें बड़ी हो गईं ! उन्हें समझ आ गया कि वो उपहार क्या है...
चित्रांगदा कि योनि पर एक भी बाल ना था !!!
गदराई जाँघों के मध्य दबी पड़ी चिकनी गोरी तिकोनी बूर पर झांट ना होने कि वजह से वो और भी ज़्यादा फूली हुई लग रही थी और बाहर कि ओर निकल आई थी, और बूर का छेद मध्य में एक पतली गुलाबी लकीर कि भांति दिखता हुआ अत्यंत लुभावन प्रतीत हो रहा था !
(( उस समयकाल में स्त्रीयों के लिए चूत कि झांट काटने का प्रचलन नहीं था, प्रचलन तो क्या, ऐसा विचार कभी किसी के स्वप्न में भी ना आया था, ये एक अत्यंत अप्राकृतिक और अस्वाभाविक बात थी ! शायद योनिकेशमुंडन का प्रचलन इतिहास के इसी पृष्ठ से प्रारम्भ हुआ हो... किसे ज्ञात है !!! ))
" उपहार कैसा लगा भैया ??? ". अवंतिका ने हँसते हुये चित्रांगदा कि कमर में चिकोटी काटते हुये पूछा.
" अतिसुंदर... ". मंत्रमुग्ध से विजयवर्मन चित्रांगदा कि नग्न योनिका को निहारते हुये वहीँ ज़मीन पर अपने घुटनों के बल बैठ गएँ और उनके मुँह से अनायास ही निकला. " अतिसुंदर !!! ".
विजयवर्मन ने पहले हाथ जोड़कर दोनों स्त्रीयों कि चूत को सिर झुकाकर प्रणाम किया, तो अवंतिका और चित्रांगदा अपने पतिदेव का ये योनिपूजन देख खिलखिलाकर हँस पड़ी.
विजयवर्मन ने दोनों कि टांगों को छूकर कुछ इशारा किया, तो अवंतिका और चित्रांगदा ने एक दूसरे को देखा, और फिर अवंतिका ने अपनी बाई टांग और चित्रांगदा ने अपनी दाई टांग उठाकर ज़मीन पर बैठे विजयवर्मन के एक एक कंधे पर रख दिया. विजयवर्मन ने अपने हाथों में छुपा रखी सोने कि पायल बारी बारी से अपनी दोनों पत्नियों के दोनों पैरों में पहना दी.
ये अवंतिका और चित्रांगदा के लिए विजयवर्मन कि ओर से प्रथमसुहागरात्रि का मुँहदिखाई उपहार था !!!
" अब एक अत्यंत कठिन प्रश्न आपके लिए भैया... ". अवंतिका ने शरारत भरे लहजे में कहा. " हम दोनों में से किसकी योनि अधिक मनभवान है ??? ".
विजयवर्मन ने बोलने के लिए अपना मुँह खोला ही था कि चित्रांगदा तपाक से बोल पड़ी.
" और स्मरण रहे देवर जी... अगर आपने अपनी बहन कि योनि को चुना तो आज रात्रि आपको मेरी योनि नहीं मिलेगी, और अगर मेरी योनि आपको पसंद आई तो आपको अपनी बहन कि योनि से वंचित रहना पड़ेगा !!! "
विजयवर्मन ने मुस्कुराकर अवंतिका और चित्रांगदा के पुष्ट नितंबों पर हाथ फेरते हुये उन्हें अपनी ओर खींच लिया और दोनों स्त्रीयों कि चूत को बारी बारी से सूंघने के उपरांत चूमा, और फिर ऊपर गर्दन उठाकर दोनों को देखते हुये सोचने का स्वांग करने लगें.
" अब क्या कहूं ??? ". विजयवर्मन ने पहले अवंतिका को देखते हुये कहा. " आपकी योनि कि सुगंध कस्तूरी जैसी है... ". और फिर चित्रांगदा को देखकर बोलें. " और आपकी योनि केसर जैसी महक रही है !!! ".
अपने पति के चतुरता भरे उत्तर से प्रसन्न हो अवंतिका और चित्रांगदा हँस पड़ी, और उन्हें उठाकर स्वयं उनके पैरों में झुककर उनके पांव छूकर आशीर्वाद लिया.
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24-07-2021, 06:53 PM
(This post was last modified: 06-05-2023, 09:59 AM by usaiha2. Edited 3 times in total. Edited 3 times in total.)
" आइये... ". विजयवर्मन ने दोनों को प्रेमपूर्वक उठाया, और शय्या पर उनके साथ चढ़ गएँ.
अवंतिका और चित्रांगदा ने एक साथ मिलकर विजयवर्मन के ऊपरी वस्त्र और उनकी राजसी धोती खोल दी. विजयवर्मन के टांगों के बीच झूलते उनके लण्ड को दोनों स्त्रीयों ने हाथ से सहलाया, तो उसमें धीरे धीरे अकड़न आने लगी. अवंतिका ने चित्रांगदा के कंधे पर हाथ रखकर उसे लेटने का संकेत दिया, तो चित्रांगदा समझ गई कि इस शुभरात्रि का प्रथमचोदन उसे ही मिलने वाला था !!!
अपनी साँसे थामे चित्रांगदा बिछावन पर लेट गई, तो अवंतिका ने मुस्कुराकर विजयवर्मन को उनके ऊपर चढ़ने का संकेत दिया. एक आज्ञाकारी प्रेमी तथा पति कि भांति बिना कुछ कहे विजयवर्मन अपनी भाभी - पत्नि के ऊपर आ गएँ. जब वो चित्रांगदा के बदन पर चढ़ रहें थें तो अवंतिका और चित्रांगदा ने देखा कि उनका लण्ड अब तन कर पूरी तरह से ठनक गया था और उनके अंडकोष फूल कर कठोर हो गएँ थें. ये इस बात का संकेत था कि वीर्य से लबालब भरा उनका लण्ड किसी भी समय उबल पड़ने ही वाला था !
विजयवर्मन ने अपने लण्ड का सुपाड़ा खोलने के लिए अपना लण्ड चित्रांगदा कि नरम जाँघों पर घिसना प्रारम्भ किया, तो दो तीन बार के घर्षण के उपरांत ही उनके लण्ड के मुँह कि चमड़ी उलट कर पीछे खिसक गई, फलस्वरुप मोटा चिकना लाल सुपाड़ा बाहर को निकल आया. नरम लिंग - मुंड के स्पर्श का एहसास अपनी मांसल जंघा पर होते ही चित्रांगदा ने तकिये पर से अपना सिर उठाकर नीचे अपनी जाँघों के मध्य झाँका, तो उनका मुँह खुला का खुला ही रह गया - उन्होंने पहले ना जाने कितनी दफा अपने देवर के लण्ड का ना सिर्फ दर्शन किया था, बल्कि अपनी चूत कि अनंत गहराईयों में उसे आश्रय भी दिया था, परन्तु आज उनका लण्ड एकदम नवीन और अद्वितीय लग रहा था, और मुसीबत कि बात तो ये थी कि, पहले से कहीं अधिक तगड़ा और विशालकाय प्रतीत हो रहा था !
विजयवर्मन ने नीचे झुककर चित्रांगदा के होंठों पर अपने होंठ रख दियें, और अपने लण्ड को बिना हाथ लगाये अपनी कमर धीरे धीरे हिलाते हुये उसकी चूत का छेद खोजने लगें. अपने देवर - पति कि मदद करने के लिए चित्रांगदा ने अपनी कमर ऊपर कि ओर हल्की सी उचकाई, तो उसकी चूत का छेद एकदम से लण्ड के नुकिले चिकने मुँह से जा सटा. योनिछिद्र के मिलते ही विजयवर्मन ने एक तेज़ और सख़्त झटका लगाकर अपने लण्ड का सुपाड़ा चूत के अंदर घुसेड़ दिया. दर्द से बिलबिलाई चित्रांगदा चिल्ला भी ना पाई, क्यूंकि विजयवर्मन ने पहले ही उनके होंठों को अपने मुँह से कैद कर रखा था, बेचारी बस थोड़ी सी छटपटाकर रह गई. परन्तु विजयवर्मन इतने पर ही नहीं रुकेंगे, इससे पहले कि चित्रांगदा अपनी चूत में उनके लण्ड के सुपाड़े के लिए ठीक से जगह बना पाती, विजयवर्मन ने अपनी कमर का दूसरा मजबूत झटका मारा, और पूरे का पूरा मोटा लण्ड अपनी भाभी - पत्नि कि संकरी चूत में जबरन ठूस दिया !
चित्रांगदा ने एक हाथ से विजयवर्मन कि पीठ पर अपनी गोरी उंगलियों का लम्बा नाख़ून गोद दिया, तो दूसरे हाथ से पास ही अधलेटी अवंतिका के कंधे को ज़ोर से पकड़ लिया. अवंतिका ने मुस्कुराते हुये चित्रांगदा के हाथ को अपने दोनों हाथों में ले लिया, और उसे दबाते हुये चुदाई कि पीड़ा सहने के लिए उन्हें सांत्वना देने लगी !
वर्षों से जिसे इतना चाहा और मन ही मन प्रेम किया, आज उसके साथ मिलन पूर्ण हुआ, क्यूंकि ये मिलन मन का था, तन का मिलन तो कई बार हो ही चुका था, परन्तु मन के प्रथम मिलन का जादू कुछ ऐसा था कि तन का ये हज़ारवा मिलन भी अब प्रथम मिलन कि तरह लुभावन लगने लगा !
भावनाओ के अतिउद्वेग के कारण चित्रांगदा कि आँखों से जहाँ आंसू छलक पड़ें, वहीँ ठीक उसी समय उसकी चूत ने पानी छोड़ दिया ! अपनी भाभी - पत्नि कि बच्चेदानी से निकले पानी के छीटों को अपने लण्ड पर महसूस करते ही विजयवर्मन भी अपना नियंत्रण खो बैठें, और कस कर दो धक्के लगाकर चित्रांगदा कि चूत को अपने वीर्य से भर दिया !
विजयवर्मन के होंठ चित्रांगदा के होंठों से अलग हो गएँ, और उनका सिर लुढ़ककर तकिये पर चित्रांगदा के चेहरे के समीप गिर पड़ा, जिस ओर अवंतिका लेटी हुई थी. अचानक से हुये इस वीर्यपात कि वजह से उनका पूरा शरीर बुरी तरह से काँपने लगा. उनकी बहन और भाभी एक साथ उनकी पीठ और कमर को सहलाते हुये उन्हें शांत करने कि चेष्टा करने लगीं. कुछ क्षणो उपरांत जब उनकी साँसे थोड़ी नियमित हुई, तो वो चित्रांगदा के शरीर पर से उठने लगें, परन्तु अवंतिका ने अपने हाथ से उनकी कमर पकड़ ली, और मुस्कुराते हुये चित्रांगदा कि ओर देखकर बोली.
" अभी नहीं भैया... चित्रांगदा भाभी ने अभी आपको आज्ञा नहीं दी है !!! ".
एक स्त्री होने के नाते अवंतिका को पता था कि चित्रांगदा का योनिरस भले ही एक बार निकल गया हो, परन्तु उन्हें अभी तक चरमसुख प्राप्त नहीं हुआ था ! चित्रांगदा ने आंसुओं से भींगी अपनी पलकें उठाकर अवंतिका कि आँखों में देखा, तो उन्हें समझ आ गया कि अवंतिका ये बात जानती है, और यही सोचकर मारे शर्म के उनका गोरा चेहरा लाल पड़ गया, और वो लजाते लजाते बोलीं.
" नहीं नहीं देवर जी... ऐसी तो कोई बात नहीं !!! ".
अवंतिका ने मुस्कुराते हुये अपनी उंगलियां चित्रांगदा के होंठों पर रखकर उसे चुप रहने का संकेत दिया, और अपने दूसरे हाथ से अपनी एक चूची पकड़कर विजयवर्मन के गाल से सटा दी. अवंतिका कि इस हरकत से विजयवर्मन को अनायास ही स्मरण हो आया कि उनकी बहन के स्तन से तो किसी माँ बनी स्त्री कि भांति दूध निकलता है, और पिछली बार कैसे अपनी बहन का शक्तिवर्धक दूध पीने के पश्चात् उन्होंने उसे पूरी रात बिना थके चोदा था !
विजयवर्मन ने अपनी गर्दन ऊपर उठाकर एक बार अवंतिका को देखा, धीमे से मुस्कुराये, उसकी गुलाबी चूचुक को पहले एक बार चूमा, फिर अपने झड़े हुये लण्ड को चित्रांगदा कि चूत से बाहर निकाले बिना ही उसके ऊपर चढ़े चढ़े, अपनी बहन - पत्नि कि गोल लाल चूचुक को अपने मुँह में भरकर चूसते हुये मुँह के अंदर टानने लगें.
" सससससससससस... आअह्ह्ह भैया !!! ".
अवंतिका सिसक उठी, उसकी आँखें खुद ब खुद बंद हो गईं, और उसकी नरम चूची से गाढ़ा गरम दूध निकल पड़ा !!!
एक ओर तो अपने दुधारू स्तन से विजयवर्मन को दूध पिलाते हुये अवंतिका अपनी एक नंगी टांग को उनके ऊपर चढ़ाकर उनकी कमर, गांड़, और जाँघों को घिसते रगड़ते हुये उन्हें उत्तेजित करने का प्रयास करने लगी, तो दूसरी ओर अपने हाथ से चित्रांगदा के गालों पर से उसके आंसू पोछते हुये उसे बहलाने संभालने और ढांढस बंधाने लगीं. कभी कुंवारी, नादान, तथा अपरिपक्व रह चुकी अवंतिका आज पूर्णरूपेण पूर्ण विकसित स्त्री बनी अपने पति और उनकी दूसरी पत्नि, दोनों, कि कामेच्छा को नियंत्रित करने में लगी पड़ी थी !!!
अवंतिका कि एक चूची का अभी आधा दूध तक भी समाप्त ना हुआ था कि विजयवर्मन के लण्ड कि नसों में वापस से रक्त संचार होने लगा. अपनी चूत में अपने देवर - पति के लण्ड को फूलता हुआ महसूस करते ही चित्रांगदा ने अवंतिका कि ओर देखा, तो अपनी भाभी के प्रसन्नचित चेहरे का भाव समझ चुकी अवंतिका ने मुस्कुराकर धीरे से अपना सिर हिलाया, और फिर विजयवर्मन के सिर के लंबे केश अपने हाथ कि मुट्ठी में पकड़कर उन्हें ज़ोर से पीछे धकेलते हुये अपनी चूची उनके मुँह से खींच कर बाहर निकाल ली !
होंठों पर ताज़ा सफ़ेद दूध लगे, आश्चर्यचकित आँखों से अपनी बहन - पत्नि को देखते हुये विजयवर्मन समझ नहीं पाएं कि अवंतिका ने उनके स्तनपान के आनंद में ऐसे भला विघ्न क्यूँ डाला, और बिना कुछ कहे या पूछे वापस से वो अवंतिका कि चूची कि ओर लपक पड़े, तो अवंतिका ने खिलखिलाकर शरारती हँसी हँसते हुये अपने दोनों हाथों कि हथेलीयों से अपनी दोनों चूचियों को ढंक लिया !!!
" बस भैया... और नहीं !!! ".
ब्याकुल विजयवर्मन भला कहाँ सुनने मानने वालें थें, उन्हें तो अपनी बहन का मीठा दूध मुँह लग चुका था, सो वो अवंतिका कि चूचियों को छिपाये उनके हाथों को ही चूमते चाटते हुये उनकी चूचियों को वापस से स्वतंत्र करने कि मूक मांग करने लगें !
बड़ी ही सहूलियत से अपने स्तन अपने हाथों में छुपाये अवंतिका ने अपना दायां पांव चित्रांगदा और विजयवर्मन के आपस में चिपके हुये पेट के बीच में डालकर नीचे चित्रांगदा कि चूत में घुसे विजयवर्मन के लण्ड को अपने पैर कि उंगलियों से टटोल कर देखा - लण्ड बिल्कुल सख़्त खड़ा हो चुका था !!!
" और दूध पीने नहीं मिलेगा भैया... इतना दूध पर्याप्त था आपके लिंग को पुनः निद्रा से जगाने के लिए !!! ". अपने भैया - पति के लण्ड के कड़ेपन कि भली भांति जाँच परख करने के उपरांत अवंतिका ने अपना पांव वापस से बाहर निकालते हुये कहा. " चलिए... भाभी कि योनि को और प्रतीक्षा मत करवाईये ! ".
अपनी बहन का रवैया देखकर विजयवर्मन समझ गएँ कि अगर उन्होंने चित्रांगदा को खुश नहीं किया, तो आज अवंतिका भी उन्हें अपनी योनि छूने तक नहीं देगी ! वैसे इसमें विजयवर्मन को कोई आपत्ति तो थी नहीं, मसलन चित्रांगदा को चोदे उन्हें ना जाने कितने दिन हो भी गएँ थें. और फिर अपनी सगी भाभी को उनके पतिदेव के सामने अनिच्छा से चोदने और उसी भाभी को अपनी अर्धांगिनी बनाकर प्रेम से चोदने में तो काफ़ी अंतर भी था ना !!!
विजयवर्मन ने आगे बढ़कर पहले अवंतिका के गाल पर एक चुम्बन जड़ दिया, फिर चित्रांगदा के ललाट को चूमा, और फिर धीरे धीरे उसकी जाँघों के बीच अपनी कमर हिलाने लगें. चित्रांगदा ने बिस्तर पर लेटे लेटे अपनी नंगी टांगें फ़ैला कर खोल ली, ताकि लिंगदेव योनिदेवी कि गुहा में आसानी से अपने मन मुताबिक अंदर बाहर खुलकर विचरण कर सकें.
विजयवर्मन ने मैथुनक्रिया कि गति तनिक बढ़ाई, तो लिंग और योनि के घर्षण से आनंदविभोर हुई चित्रांगदा ने अपनी आँखें मूंद ली और उन्हें अपनी बांहों में भरकर अपने हाथों से उनकी पीठ को सहलाने खरोचने लगी.
अंततः आज विजयवर्मन अपनी भाभी - पत्नि के साथ प्रेम भरा सहवास कर रहें थें, ये देखकर उल्लासित अवंतिका उनके कंधे और सिर को प्यार से सहला सहलाकर उन्हें चोदने के लिए उत्साहित करने लगी !
विजयवर्मन अब पूरी तरह से चित्रांगदा से लिपटकर उनकी चूचियों को अपने चौड़े छाती से दबाते मसलते रगड़ते हुये उन्हें पेलने लगें. अपनी भाभी कि धीमी सिसकियों, भैया कि तेज़ चलती साँसों , और लण्ड चूत के मिलन कि फच फच, गच गच कि मादक ध्वनि से अवंतिका मदमस्त होने लगी. उसका एक हाथ अपने आप उसकी नाभी और पेट से होता हुआ उसकी गदराई जाँघों के बीच सरक गया. उसने अपनी आँखें बंद कर ली और अपनी चूत को मसलने, रगड़ने लगी, फिर अपनी घनी झांटो को परे कर एक उंगली भीतर डाल कर अंदर बाहर अंदर बाहर करने लगी. कुछ क्षण पश्चात् जब अवंतिका ने अपनी आँखें खोली तो उन्होंने चित्रांगदा को चोद रहे विजयवर्मन को खुद को ताड़ते हुये पाया !
अवंतिका एकदम से लजा गई - उसके भैया - पति ने उसे रंगे हाथों हस्तमैथुन करते हुये जो पकड़ लिया था ! शर्माते हुये अवंतिका ने अपनी उंगली अपनी चूत से बाहर निकाल ली, तो विजयवर्मन उसकी योनिरस से गीली हो चुकी उंगली कि ओर ललचाई नज़रों से देखने लगें. विजयवर्मन कि मन:स्थिति समझते हुये अवंतिका अपनी वो उंगली उनके नाक के समीप ले गई, तो विजयवर्मन ने एक लंबी गहरी साँस लेकर चूत - मलाई कि गंध को सूंघा. मुस्कुराते हुये अवंतिका अपनी उंगली उनके होंठों पर फेरने लगी, तो विजयवर्मन ने अपने होंठ खोल दियें. अवंतिका ने अपनी उंगली उनके मुँह में डाल दी, विजयवर्मन आँखें बंद करके अवंतिका कि उंगली में लगा नमकीन योनिरस का स्वाद चखने लगें !!!
अवंतिका ने विजयवर्मन के कंधे को चूमा और फिर अपनी दाई टांग उनके ऊपर चढ़ा दी. अब चित्रांगदा के ऊपर चढ़े विजयवर्मन जहाँ उसे चोद रहें थें तो वहीँ अवंतिका अपनी एक टांग विजयवर्मन के कमर से लपेटे अपनी नंगी चूत उनके शरीर से घिस रही थी.
दो दो स्त्रीयों के मध्य फंसे विजयवर्मन के लिए अब ये सब असहनीय हो रहा था. जल्द ही उनकी सारी शालीनता जाती रही ! उन्होंने एक हाथ से चित्रांगदा कि बायीं चूची को पकड़ा और दूसरे हाथ से उसके सिर के लंबे केश, और अपनी पूरी शक्ति लगाकर उसकी चूत रौंदने लगें !
विजयवर्मन के भारी और बलिष्ठ शरीर के नीचे दबी पड़ी असहाय चित्रांगदा के लिए बिना हिले डूले बस टांगें पसारे उनके चोदन - थपेड़ों को सहते रहने के सिवाय और कोई चारा ना था !!!
जल्द ही चित्रांगदा और अवंतिका, दोनों का पानी गिरना शुरू हो गया. दोनों स्त्रीयां एक साथ अपने प्रेमी विजयवर्मन को बेतहाशा चूमने चाटने लगीं. चूत घिसते घिसते अपने ऊपर नियंत्रण खोकर अवंतिका ने विजयवर्मन के कमर पर ही पानी छोड़ दिया था और उनके शरीर से लिपट कर उनकी पीठ पर अपने दाँत गड़ा दियें. चित्रांगदा पुनः अपना बदन ऐंठते हुये कराहने लगी, उसका फिर से पानी निकलने वाला था ! विजयवर्मन ने अपना मुँह चित्रांगदा की गर्दन में छुपा लिया, और तेज़ी से उसे चोदने लगें ! विजयवर्मन के तीव्र चोदनक्रिया से अवंतिका समझ गई कि उनका वीर्य अब निकल जायेगा ! विजयवर्मन के झड़ने से पहले अवंतिका उनका लण्ड एक बार अपनी चूत में लेना चाहती थी, क्यूंकि ये विजयवर्मन का द्वितीय बार वीर्यस्खलन होने जा रहा था, और इसके बाद चोदने के लिए शायद उनका लण्ड खड़ा ही ना हो !!!
स्त्री व्यवहार जनित स्वार्थ के वशीभूत हो अवंतिका ने बिना किसी चेतावनी के अचानक से विजयवर्मन को चित्रांगदा के शरीर पर से धकेल दिया. विजयवर्मन इसके लिए बिल्कुल भी तैयार ना थें, उनका लण्ड छिटककर चित्रांगदा कि चूत से बाहर निकल आया और वो चित्रांगदा के बगल में ही सैया पर अपने पीठ के बल पलटकर जा गिरें. गनीमत ये थी कि चित्रांगदा का पानी विजयवर्मन से अलग होने के पहले ही निकल चुका था, सो वो वहीँ अपनी जाँघों के बीच अपनी चूत दबाये पेट के बल लेटकर तकिये में मुँह छुपाये झड़ने कि वजह से बदन में आये कंपन से उबरने कि चेष्टा करने लगी !
चित्रांगदा के शरीर को लाँघ कर अवंतिका अत्यंत चपलता से विजयवर्मन के खड़े लण्ड कि ओर लपकी, और अपनी टांगें चढ़ाकर उनके ऊपर बैठ गई. परन्तु तब तक देर हो चुकी थी !!!
दरअसल, अवंतिका ने विजयवर्मन को ठीक ऐसे समय पर चित्रांगदा के बदन से अलग किया था जब वो झड़ने के एकदम निकट थें. और अब अवंतिका जैसे ही उनके ऊपर चढ़ी, उनका खड़ा लण्ड उनके अपने पेट पर ही ज़ोर ज़ोर से फड़कते हुये वीर्य कि पिचकारी छोड़ने लगा. अवंतिका कामोत्तेजना के ऐसे मोड़ पर थी कि अब उसे अपने भैया - पति का माल गिर जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता था - उसे तो बस अब हर हाल में पूरज़ोर चुदना था !
विजयवर्मन के लण्ड से अभी वीर्य उबल ही रहा था कि अवंतिका ने उनका लण्ड अपनी मुट्ठी में पकड़कर अपनी जाँघों के मध्य घुसा लिया, अपनी गांड़ थोड़ी सी ऊपर उठाई, और फिर वापस से उनकी गोद में बैठ गई. सख़्त खड़ा झड़ता हुआ लण्ड अवंतिका के शरीर के भार के नीचे दबकर एकबारगी उसकी चूत के छेद को फ़ैलाता हुआ जड़ तक अंदर प्रवेश कर गया !!!
" अवंतिका... आअह्ह्हहहहहहह... मेरा लिंग !!! ". विजयवर्मन बिस्तर कि चादर को अपनी दोनों मुट्ठीयों में कसकर भींचते हुये अटकती हुई आवाज़ में गुर्रायें.
अवंतिका कि पनियाई हुई चूत कि कसी हुई छेद के अंदर घुसते ही विजयवर्मन के लण्ड को वो आराम मिला कि उनका बाकि का बचा खुचा वीर्य भी अंदर ही निकल पड़ा !
परन्तु अवंतिका कहाँ रुकने वाली थी !!!
विजयवर्मन के आहिस्ते आहिस्ते ढीले पड़ रहे लण्ड को अपनी चूत कि गहराईयों में ठूंसे हुये अवंतिका उनकी गोद में बैठे बैठे अपनी गांड़ ऊपर नीचे ऊपर नीचे करते हुये उन्हें चोदने लगी !
दो दो बार वीर्यपात हो जाने के कारणवश विजयवर्मन का लण्ड अब सिकुड़कर छोटा होने लगा था, उनके अंडकोष दुखने लगें थें. इससे पहले कि उनका लण्ड पूरी तरह से ढीला पड़कर अवंतिका कि चूत से फिसलकर बाहर निकल जाये, अवंतिका वापस से उनके लण्ड में पहले जैसा ना सही, परन्तु चोदने लायक तनाव लाना चाहती थी. अतः वो विजयवर्मन कि चौड़ी छाती पर लोटकर उनके चुचूक को अपने दाँत से काटने लगी !!!
पीड़ा से कराहते विजयवर्मन अभी छटपटा ही रहें थें कि चित्रांगदा ने उनके समीप आकर उनके मुँह में अपना स्तन दे दिया. चित्रांगदा अपने चरमोत्कर्ष से उबरकर अब शांत हो चुकी थी.
" राजकुमार के प्राण ही ना ले लीजियेगा अवंतिका... ". चित्रांगदा ने विजयवर्मन को अपनी चूची चूसाते हुये हँसकर कहा. " इन्हे अभी तो आजीवन हमारा इसी भांति साथ देना है !!! ".
विजयवर्मन के सीने पर अपने दाँत गड़ाना छोड़ अवंतिका भी हँस पड़ी और बोली.
" यौनक्रीड़ा के समय किसी पुरुष के प्राण जाते मैंने तो नहीं सुना है भाभी !!! ".
कुछ देर पहले जब विजयवर्मन चित्रांगदा को चोद रहें थें तो अवंतिका ने उसकी काफ़ी सहायता कि थी, सो अब चित्रांगदा कि बारी थी अवंतिका का ये एहसान चुकाने कि !
विजयवर्मन के मुँह में अपना स्तन दिए हुये चित्रांगदा उनकी बालों से भरी छाती को सहलाने लगी. इससे विजयवर्मन को कुछ हद तक आराम मिला, और वो किसी प्रकार अपने ऊपर बैठी अवंतिका कि चूत में अपना झड़ा हुआ लण्ड डाले यौन - मैदान में डटे रहें !
चित्रांगदा कि चूचियों से अवंतिका के स्तनों जैसा दूध भले ही ना निकल रहा हो, परन्तु चित्रांगदा कि चूची भी अवंतिका के वक्ष से कम मीठी और स्वादिष्ट ना थी. बारी बारी से विजयवर्मन चित्रांगदा कि दोनों चूचियों को लपक लपक कर मुँह में भरकर पीते चूसते रहें. जल्द ही उनका खाली हो चुका अंडकोष फिर से कसने लगा, और लण्ड का सुपाड़ा फूल गया !!!
विजयवर्मन के लण्ड में हल्का सा तनाव महसूस करते ही अवंतिका का चेहरा प्रसन्नता से खिल गया और वो ख़ुशी से चहकते हुये उनकी गोद में और भी ज़ोर ज़ोर से अपने चूतड़ पटकने लगी.
कामोत्तेजना फिर से वापस आ गई तो विजयवर्मन अब बड़े ही चाव से चित्रांगदा का दूध पीने लगें. गोद में बैठी अवंतिका के चूतड़ों कि हर एक थपेड़ से विजयवर्मन का लण्ड थोड़ा थोड़ा करके तनता गया, और फिर एक समय ऐसा आया जब उनका लण्ड पूर्ण रूप से ठनक कर खड़ा हुआ अवंतिका कि नाजुक बूर को भेदने लगा !!!
इधर चित्रांगदा अपनी नंगी जाँघों को आपस में धीरे धीरे घिसते हुये उनके बीच अवस्थित अपनी बूर को मलने लगी. चित्रांगदा को इस प्रकार उत्तेजित होता देख अवंतिका ने विजयवर्मन का एक हाथ पकड़कर चित्रांगदा कि टांगों के बीच घुसा दिया, और हँसकर बोली.
" ये हाथ केवल धनुष वाण और तलवार के उपयोग के लिए ही तो नहीं है ना भैया ??? ".
संकेत समझते ही विजयवर्मन ने अपने कठोर हाथ से चित्रांगदा कि चूत को दबाना सहलाना शुरू कर दिया, और फिर मुँह में भरे चित्रांगदा कि चूची के चुचूक को जैसे ही उन्होंने अपने दाँत से काटा, चित्रांगदा चिंहुक उठी.
" अअअअअ...मममम.... ससससस... हाय देवर जी !!! ".
चित्रांगदा का बदन अकड़ गया और उसकी बूर ने विजयवर्मन के हाथ में ही ढेर सारा पानी छोड़ दिया !
विजयवर्मन ने चित्रांगदा कि चूची को अपने मुँह से बाहर निकाल दिया और अपने ऊपर बैठी अवंतिका के घुटनों को सहलाने लगें. अवंतिका समझ गई कि उसके भैया - पति अब फिर से झड़ने वाले हैं !
विजयवर्मन कि गोद में जल्दी जल्दी चार पाँच बार उछल उछल कर अवंतिका ने झट से अपनी गांड़ थोड़ी सी ऊपर उठाई, तो उनका खड़ा लण्ड फिसल कर बाहर निकल आया. अपनी लंबी नरम उंगलियों को विजयवर्मन के लण्ड के गुलाबी सुपाड़े के चारों ओर लपेटकर अवंतिका ज़ोर ज़ोर से उनका हस्तमैथुन करने लगी !
विजयवर्मन कि आँखों कि पलकें उलट गईं और उनके पूरे शरीर में एक अजीब सी सनसनी दौड़ गई, उनका शरीर कड़ा पड़ गया, और उनके लण्ड से गाढ़े वीर्य का फव्वारा फूट पड़ा.
" हाय !!! ". विजयवर्मन का इतना उत्तेजना भरा चरमसुख देखकर चित्रांगदा हँस पड़ी.
अवंतिका कि जाँघे, पेट, नाभी, चूचियाँ, सभी, विजयवर्मन के वीर्य से भींग गएँ, वीर्य के कुछ छींटे तो उसके गर्दन और गालों तक भी जा छिटके थें ! विजयवर्मन के लण्ड को अपने हाथों से मसल मसल कर अपने बदन पर मन भर के झड़वाने के उपरांत अवंतिका हँसते हुये अपनी मुट्ठी में पकड़ा लण्ड चित्रांगदा कि ओर मोड़ कर बाकि का वीर्य चित्रांगदा के पूरे बदन पर छिड़कने लगी !
दोनों स्त्रीयां हँसती खिलखिलाती अपने पतिदेव के खड़े लण्ड के साथ खेलती उनके वीर्य से स्नान करतीं रहीं, और विजयवर्मन शय्या पर लेटे लेटे स्खलन का आनंद भोगते हुये छटपटाते रहें !!!
ये क्रीड़ा करीबन दस मिनट तक चली, जब तक कि अवंतिका और चित्रांगदा ने एक साथ विजयवर्मन का लण्ड अपनी मुट्ठीयों में पकड़ उसे निचोड़ निचोड़ कर वीर्य कि अंतिम बूंद तक भी बाहर ना निकाल ली !
अंततः विजयवर्मन अतिउत्तेजना के कारण बेहोश हो गएँ !!!
ना जाने कितने देर तक वो होश में नहीं थें, ये विजयवर्मन को याद नहीं, परन्तु जब पुनः उनकी आँख खुली तो उन्होंने अभी भी खुद को बिछावन पर नंगा लेटा हुआ पाया. हैरानी कि बात ये थी कि उनका लण्ड अभी भी पहले कि भांति ही खड़ा था, उसके तनाव में रत्ती भर भी कमी ना आई थी. उनके लाल सुपाड़े से वीर्य कि एक आखरी धार निकलकर बहते हुये उनके पेट पर गिर रही थी. पास ही बिस्तर पर पूर्ण नग्न अवस्था में अवंतिका और चित्रांगदा एक दूसरे के सामने अपनी टांगें खोले बैठी एक दूसरे को अपनी चूत दिखाते हुये धीमे स्वर में कुछ बातें करते हुये हँस रहीं थीं. विजयवर्मन ने तकिये पर से अपनी गर्दन उठाकर देखा - अवंतिका और चित्रांगदा कि फ़ैली हुई जाँघों के मध्य उन दोनों कि बूर पूरी तरह से फट चुकी थी. शायद दोनों स्त्रीयां इसी सम्बन्ध में बातचीत कर रही होंगी !!!
" अरे देवर जी... आप उठ गएँ ??? ". विजयवर्मन को होश में आया देख चित्रांगदा अपनी फटी हुई बूर को अपने हाथ से ढंकते हुये बोली.
" हम दोनों भी अब सोने ही जा रहें थें... बहुत रात्रि हो चुकी है भैया !!! ". अवंतिका ने भी अपनी टांगें आपस में सटाकर अपनी फटी हुई चूत छुपा ली.
" क्यूँ ??? और क्रीड़ा नहीं करनी ??? ". शरारती मुस्कान के साथ विजयवर्मन ने उठकर बैठते हुये कहा. " बहुत सताया आज आप दोनों ने मुझे !!! ".
विजयवर्मन कि ये बात सुनते ही अवंतिका और चित्रांगदा कि नज़र उनके खड़े लण्ड पर गई तो दोनों को उनकी शरारती मंसा समझते देर ना लगी !
" भैया नहीं !!! ". हँसते हुये अवंतिका बिस्तर पर उनसे दूर भागी.
परन्तु विजयवर्मन अत्यंत फुर्ती के साथ झपटकर चित्रांगदा को दबोचने में कामयाब हो गएँ. चित्रांगदा हँसते खिलखिलाते हुये उनके चंगुल से स्वयं को स्वतंत्र करने कि विफल चेष्टा करने लगी. बड़ी ही मजबूती से अपना एक हाथ चित्रांगदा कि पतली छरहरी कमर से लपेटे विजयवर्मन उसे शय्या पर से लगभग घसीटकर उठाते हुये नीचे ज़मीन पर ले गएँ.
" देवर जी बस... और मत करिये... ". चित्रांगदा हँसते हुये गिड़गिड़ाने लगी. " मेरी योनि कि दशा तो देखिये एक बार !!! ".
ज़मीन पर खड़े विजयवर्मन ने मुस्कुराते हुये अपने दोनों हाथों से चित्रांगदा के कूल्हे पकड़कर उसे ऊपर उठाया और अपनी गोद में बैठा लिया. अपनी कमर थोड़ी सी आगे ऊपर कि ओर करके उन्होंने चित्रांगदा कि कमर को ढीला छोड़ दिया तो चित्रांगदा कि गांड़ सरककर नीचे आ गिरी, और विजयवर्मन का खड़ा लण्ड उसकी फटी हुई बूर में सरसराकर घुस गया !
" हाय देवर जी.... आअह्ह्ह सससससससससस !!! ".
अपनी भाभी - पत्नि को अपनी गोद में उठाये, उसे चूमते हुये विजयवर्मन ज़मीन पर खड़े खड़े उसे चोदने लगें. शुरू में तो चित्रांगदा ने उनकी गोद से उतर भागने कि बहुत कोशिश कि, परन्तु विजयवर्मन के बलशाली बाहों कि पकड़ ही कुछ ऐसी थी कि वो पूर्णतः असफल रही. थक हारकर, आखिरकार विजयवर्मन के कंधों पर अपनी बाहों से सहारा लिए, अपनी टांगें उनके कमर से लपेटे, वो उनकी गोद में ऊपर नीचे उछलते हुये चुदवाने लगी !!!
प्रारम्भ में अवंतिका शय्या पर बैठी दूर से ही दोनों कि यौनक्रीड़ा देखती रही, और इस भय से उनके समीप नहीं गई कि कहीं चित्रांगदा कि तरह विजयवर्मन उसे भी जबरदस्ती पकड़कर चोद ना दें ! परन्तु कुछ समय पश्चात् किसी तरह साहस जुटाकर वो बिस्तर से उठी, और दोनों के पास जाकर खड़ी हो गई !
अवंतिका को पास खड़ा देखकर विजयवर्मन ने आगे बढ़कर उसे चूम लिया, और फिर से चित्रांगदा को चोदने में व्यस्त हो गएँ . अवंतिका विजयवर्मन कि पीठ, कन्धा, और कमर सहलाते हुये उन्हें चित्रांगदा भाभी को पेलते हुये देखती रही !
चित्रांगदा कि कांख में अपना मुँह घुसाए, उसकी सुगंध लेते, चूमते चाटते हुये, विजयवर्मन उसे बिना रुके गोद में उठाये चोदते रहें. करीब चालीस मिनट बाद उनके अंडकोष में वीर्य के बुलबुले बनने शुरू हो गएँ. इस दौरान चित्रांगदा अनगिनत असंख्य बार झड़ चुकी थी. उसकी चूत से निकला पानी उसकी खुद कि जाँघों को भींगाता हुआ विजयवर्मन के नंगे पैरों से बहते हुये नीचे ज़मीन पर फ़ैल रहा था.
इधर विजयवर्मन के अंडकोष में दबाव बढ़ते ही वीर्य उनके लण्ड से फफककर चित्रांगदा कि बच्चेदानी में भरने लगा !
चित्रांगदा अपना सिर पीछे कि ओर झटकते हुये अपने चूतड़ उचकाने लगी - उसका फिर से पानी गिर रहा था !
कुछ देर तक विजयवर्मन के शरीर से चिपके पड़े पड़े झड़ते रहने के बाद चित्रांगदा उनकी गोद से उतर गई, और किसी तरह लड़खड़ाते हुये चलकर शय्या तक पहुँची, परन्तु ऊपर चढने से पहले ही वहीँ ज़मीन पर बिस्तर के पास मूर्छीत होकर गिर पड़ी !!!
अवंतिका ने पीछे मुड़कर एक नज़र बेहोश पड़ी चित्रांगदा को देखा, फिर चुपचाप विजयवर्मन से लिपट पड़ी. कुछ देर तक एक दूसरे के आलिंगन में रहकर चुम्मा चाटी करने के पश्चात् विजयवर्मन अवंतिका कि जाँघों के बीच हाथ घुसाकर उसकी झांटदार बूर को कुरेदने लगें. इशारा समझकर अवंतिका ने ख़ुशी ख़ुशी अपनी मर्ज़ी से अपनी टांगें खोल दी. विजयवर्मन ने अपनी कमर थोड़ी नीचे झुकाकर अपना आधा खड़ा झड़ा हुआ लण्ड उसकी चूत में डाल दिया, और उसे धीरे धीरे चोदने लगें.
काफ़ी देर तक एक दूसरे से लिपटे खड़े खड़े सम्भोग करते रहने के बाद अवंतिका का पानी गिर गया. विजयवर्मन के लण्ड में तनाव तो आ गया था, परन्तु वो इतनी बार झड़ चुके थें कि इस बार उनका माल नहीं निकला. दूसरी ओर चूत से कुछ अधिक ही कामरस निकल जाने कि वजह से अवंतिका कि हालत भी अब ख़राब होने लगी थी.
" अब बस भी करिये भैया... ". अवंतिका ने हाँफते हुये अपनी गांड़ पीछे करके विजयवर्मन के लण्ड को अपनी चूत से बाहर निकाल फेंका.
विजयवर्मन को डर था कि कहीं चित्रांगदा कि तरह ही अवंतिका भी अत्यधिक चुदाई के कारण बेहोश ना हो जाये, तो उन्होंने भी उसे और चोदने कि ज़िद नहीं कि.
चित्रांगदा अब भी बेसुध पड़ी हुई थी. अवंतिका ने उनके मुँह पर पानी के छींटे मार कर उन्हें होश में लाया, और फिर विजयवर्मन के साथ मिलकर उन्हें उठाकर शय्या पर लिटा दिया.
अपनी दोनों पत्नियों को अगल बगल सुलाए, लेटे लेटे विजयवर्मन कुछ घड़ी उनसे इधर उधर कि बातें करतें रहें. अवंतिका और चित्रांगदा उनका बेचैन लण्ड सहला सहला कर उन्हें शांत करने लगीं. परन्तु जब लण्ड शांत होने कि बजाय और भी सख्त होकर फड़कने लगा, तो विजयवर्मन ने दोनों को फिर से एक बार चोदने कि इच्छा ज़ाहिर कि. परन्तु अवंतिका और चित्रांगदा ने मना कर दिया. दोनों बेचारीयों का बूर सूज कर लाल हो गया था, मानो शरीर का सारा रक्त उनके जननांगों में ही आ जमा हो ! चोदने के लिए व्याकुल हुये पड़े विजयवर्मन को जब कुछ ना सुझा, तो वो दोनों स्त्रीयों को गुदामैथुन करने के लिए बहलाने मनाने लगें. गांड़ के उस छोटे से छिद्र में इतना बड़ा मोटा लिंग प्रवेश कराने के विचार मात्र से ही अवंतिका और चित्रांगदा के बदन में सिहरन दौड़ गई, तो बहरहाल दोनों ने विजयवर्मन का ये प्रस्ताव हँसकर टाल दिया !!!
विजयवर्मन समझ गएँ कि अब उन्हें अशांत खड़ा लण्ड लिए ही सोना पड़ेगा !
भोर होने ही वाली थी, आखिरकार जब कोई तिकड़म काम ना आया तो विजयवर्मन ने अपनी ज़िद छोड़ ही दी, और तीनों उसी भांति नंगे एक दूसरे कि बाहों में लिपटे चिपके पड़े गहरी निद्रा में थककर सो गएँ.
उस दिन के बाद से प्रत्येक रात्रि अवंतिका और चित्रांगदा कि जुगलबंदी विजयवर्मन का लण्ड पूरी पूरी रात खड़ा रखती !!!
दोनों स्त्रीयां बिना किसी द्वेष या ईर्ष्या भाव के एक साथ मिल जुल कर अपने एकमात्र पतिदेव से सारी सारी रात चुदवाती. तीनों एक ही साथ एक ही शय्या पर एक ही कक्ष में सोते. केवल जब अवंतिका रजस्वला होती तो पाँच दिनों के लिए अलग कक्ष में सोती, तो सिर्फ चित्रांगदा और विजयवर्मन एक साथ होतें.
और ठीक उसी प्रकार जब चित्रांगदा का रज निकल रहा होता तो वो भी अलग कक्ष में अकेले सोया करती, और तब अवंतिका और विजयवर्मन एक साथ रात बिताते. इस तरह एक प्रकार से हर महीने विजयवर्मन को अपनी बहन और भाभी के साथ कम से कम पाँच दिन एकांत में बिताने का मौका भी मिल जाया करता था !!!...
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दो वर्षो के अंतराल में अवंतिका ने एक पुत्र को जन्म दिया, और चित्रांगदा ने एक साथ एक पुत्र तथा पुत्री को !
औपचारिकता के नाते ये समाचार महाराज नंदवर्मन तथा महारानी वैदेही को भी पहुँचाया गया, परन्तु उनकी ओर से कोई उत्तर ना आने पर ये बात स्पष्ट हो गई थी कि उन्होंने पूर्ण रूपेण अपने संतानो, अवंतिका और विजयवर्मन का परित्याग कर दिया था. जैसे जैसे समय पलायन करता गया, मानसिक भावनात्मक कष्ट के साथ ही सही, अवंतिका और विजयवर्मन ने ये तथ्य स्वीकार कर लिया !!!
इस दौरान वीर विजयवर्मन ने राजा ऋषभनंदन को उनके अनेकों अभियानों में प्रत्यक्ष रूप से सेना का नेतृत्व करते हुये राज्यविस्तार में उनकी सहायता कि. आगे चलकर उन्ही के प्रयासों से जीते हुये राजा ऋषभनंदन के अधीन राज्यों में से एक विशाल राज्य के राजसिंहासन पर राजकुमार विजयवर्मन सम्राट के रूप में विराजमान हुये, और अपनी दोनों पत्नियों, अवंतिका तथा चित्रांगदा, और दोनों पुत्रों और एक पुत्री के साथ रहने लगें !
अवंतिका ने विजयवर्मन को " भैया " बोलना नहीं छोड़ा, तो विजयवर्मन भी चित्रांगदा को " भाभी " कहकर ही सम्बोधित करते रहें. जीवन के इतने सारे उतार चढ़ाव से गुजरने के पश्चात् भी अपने मूल पारिवारिक संबंधों को स्मरण रखने का इससे उचित तरीका तथा सटीक उदाहरण और क्या हो सकता है !
ऐसे प्रेम प्रसंगों का वर्णन इतिहास में कम ही मिलता है... अनूठे और सफल प्रेम प्रसंगों का !!!
******* इति *******
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