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अम्मा घंटों तक हम सभी से क्रोधित बैठी रही थीं, लेकिन जब उनके क्रोध का ज्वार थम गया तब पिता जी ने उनको समझाना शुरू किया। जाहिर सी बात है कि वो अम्मा के सामने लालच की भाषा नहीं बोल सकते थे; धन की भाषा नहीं बोल सकते थे.. इसलिए उन्होंने अपनी पत्नी को प्रेम की पट्टी पढ़ानी शुरू कर दी कि कैसे अल्का और मैं, हम दोनों एक दूसरे से अत्यंत प्रेम करते हैं, और हमारा सम्बन्ध केवल इस बात से न बने कि अल्का मेरी अम्माई है। अल्का अभी भी उम्र में छोटी है, और हमको कई संताने भी हो जाएँगी। और तो और हम अल्का को, उसके व्यवहार को हम भली भाँति जानते समझते भी है, इसलिए विवाह के बाद किसी प्रकार का पारिवारिक घर्षण भी नहीं होगा इत्यादि इत्यादि! पिताजी की इस विषय में अप्रत्याशित स्वीकृति ने अम्मा को निहत्था कर दिया। जब उनका पति ही उनके एक तरफ़ा युद्ध का भागीदार नहीं था, वो वो अकेली कितनी ही देर तक युद्ध कर सकती थीं? अंततः वो शांत हो गईं.. शांत क्या, बस उनका हमको गाली देना और कठोर भाषा में डाँटना बंद हो गया।
अम्मा के क्रोध का ज्वार भले ही उतर गया हो, लेकिन वो अभी भी भीतर ही भीतर सुलग रहीं थीं। क्रोध की धीमी धीमी आँच उनके मन को साल रही थी। इतना तो अवश्य था कि अम्मा को मनाने के लिए, अच्चन ने अपना पुरजोर प्रयास कर डाला रहेगा। लेकिन हमारे विवाह के लिए अम्मा की स्वीकृति होनी आवश्यक थी... उसी के चलते अम्मा अच्चन ने उस रात एक लम्बे अन्तराल के बाद सम्भोग किया। हमको कैसे मालूम चला, आप पूछेंगे? दरअसल जब अच्चन कमरे में गए, तो वो कमरे का दरवाज़ा पूरी तरह से बंद करना शायद भूल गए थे। ऋतु परिवर्तन का प्रभाव पृथ्वी के प्रत्येक जीव जन्तुओं पर अवश्यम्भावी है, और मनुष्य इससे अछूता नहीं है। वर्षा ऋतु में घने मेघ, मनोरम हवा, और कम तापमान कुछ ऐसा रम्य वातावरण बना देते हैं कि स्त्री और पुरुष, दोनों में ही एक-दूसरे में लीन हो जाने की बड़ी तीव्र इच्छा उत्पन्न हो जाती है। अम्मा और पिताजी को ‘हमारा’ कमरा दे दिया गया था, और हम बाकी के तीन जने एक कमरे में थे।
अल्का ने आज बड़े चाव से एक नई साड़ी पहनी हुई थी कि अपनी चेची और होने वाली अम्माईल अम्मा का स्वागत करेगी। लेकिन मन की इच्छाएँ अम्मा की गालियों के बोझ से दब कर रह गईं। आज की रात बेचारी बड़े ही गहरे अवसाद में लेटी। आज किसी ने खाना नहीं खाया था; सभी बस वैसे ही चुप चाप लेट गए थे। मुझे न जाने कैसे नींद आ गई थी, लेकिन अल्का के सुबकने की आवाज़ ने मुझे नींद से उठा दिया।
“क्या हुआ, मोलू?”
“ओह मेरे कुट्टन! तुम सोए नहीं?”
“क्यों रो रही हो मोलू!”
“चेची हम दोनों को एक नहीं होने देगी..” उसने सुबकते हुए कहा।
“इधर आओ..” कह कर मैंने उसको अपने आगोश में भींच लिया, और उसके माथे को चूम लिया, “कैसे हम दोनों एक नहीं हो सकते? कौन कर सकता है यह मेरी मोलू के साथ? हम्म?”
वो मुस्कुराई! एक थकी हुई सी मुस्कान। लेकिन अपने भाव में शुद्ध! प्रेम के ऐसे छोटे छोटे अभिव्यक्ति पर भी वो खुश हो जाती है, “अब बोलो कि हम दोनों एक नहीं हैं?”
“एक हैं..।”
“हैं न?”
“हाँ कुट्टन!”
“फ़िर?”
“ठीक है!”
“भूख लगी है?”
“नहीं!”
“मैं खिला दूँ, तो खाओगी?”
उसने ‘न’ में सर हिलाया। मैं उठ कर रसोई से एक कटोरी भर अडा प्रधामन ले आया।
“ऐसी सुन्दर, मनोरम, चाँदनी रात में अपनी पत्नी को अडा खिलाना बड़े पुण्य का काम होता है!”
“चाँदनी रात? कहाँ है चाँदनी?”
“इसको उतार दो, चाँदनी ही चाँदनी हो जाएगी!” मैंने उसकी ब्लाउज की ओर इशारा किया।
अल्का मुस्कुराई।
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“तुम उतार दो। मैं तुम्हारी हूँ। तुमको मेरे साथ कुछ भी करने के लिए मुझसे पूछने, कहने की आवश्यकता नहीं।”
मैंने जल्दी से अल्का को पूरी तरह निर्वस्त्र कर दिया। बात केवल ब्लाउज की हुई थी, लेकिन अगर चाँदनी की चमक थोड़ी और बढ़ जाएगी, तो कोई हर्ज़ नहीं! हा हा!
फिर मैंने अल्का को स्वादिष्ट खीर खिलानी शुरू की। एक चम्मच भर खीर उसको खिलता, और दूसरा चम्मच मैं ख़ुद खाता। अल्का वास्तव में अपार दुःख से ग्रसित थी - एक तो अम्मा ने बेचारी को बेतहाशा डाँट और गालियों की बौछार से पस्त कर दिया था, और ऊपर से भूख के कारण रही सही कसर निकल गई थी। मेरे थोड़े से प्यार और दुलार से उसको बहुत स्वान्त्वना मिली। कुछ ही देर में उसका मन कुछ हल्का सा हो गया, और वो भी दबी दबी हंसी में हंसने लगी.. दबी दबी इसलिए कि कि कहीं अम्मम्मा जाग न जाएँ।
“तुमको मुझे ऐसे नंगी देखना अच्छा लगता है, कुट्टन?”
यह कैसा सवाल.. ?
“बिलकुल अच्छा लगता है, मोलू! तुमसे सुन्दर लड़की कोई और है ही नहीं!”
“तुमको केवल मेरा शरीर अच्छा लगता है, कुट्टन?”
अरे यह क्या कह दिया मेरी मोलू ने!
“नहीं मेरी जान - मुझे तुम्हारा सब कुछ अच्छा लगता है। मुझे यह अच्छा लगता है कि तुम मुझसे प्रेम करती हो। मुझे यह अच्छा लगता है कि तुमने मेरे कारण बिना अपनी परवाह किए अपने पूरे परिवार से बैर ले लिया। मेरे कारण तुमने अम्मा की इतनी खरी खोटी सुनी। मुझे तुम्हारा मन अच्छा लगता है.. तुम्हारा व्यवहार अच्छा लगता है। जिस तरह से तुम मुस्कुराती हो, मुझे वो अच्छा लगता है। जिस तरह से अपने बालों की लट पीछे करती हो, मुझे वो अच्छा लगता है.. जिस तरह से तुम मुझे देखती हो, मुझे वो अच्छा लगता है। मुझे तुम्हारी हर बात अच्छी लगती है.. तुम्हारा सब कुछ अच्छा लगता है... और मुझे यकीन है कि मेरा भाग्य इतना प्रबल है कि तुम मुझे मिलोगी! कोई बड़े पुण्य कर डाले होंगे मैंने पिछले जनम में कि इस जनम में मुझे तुम्हारा साथ मिला है! मुझे यह बात भी सोच कर अच्छा लगता है!”
यह सब कह कर मैंने अल्का को चूमा... उसकी आँखों से आँसू आ गए..
“कुट्टन.. मेरे अंदर आ जाओ..”
“अभी?”
“हाँ कुट्टन! अभी..” कह कर अल्का ने अपने पाँव खोल कर, चित्त लेट गई।
मेरा लिंग तुरंत ही उत्तेजित हो कर खड़ा हो गया। मैंने अपना लिंग पकड़ कर अल्का की योनि में उतार दिया - अल्का के मुँह से एक कामुक सिसकारी निकल गई और आँखों से और आँसू निकल पड़े। एक तो ऐसी कामुक रात, ऊपर से अम्मम्मा बगल में ही सो रहीं थीं; और तो और बगल के कमरे में अम्मा और अच्चन थे! यह सब जानते हुए भी अल्का के साथ यूँ संसर्ग करना…! इस तरह की प्रदर्शनवृत्ति से मैं और भी अधिक उत्तेजित हो गया और हलके हलके, लेकिन दमदार धक्के लगाते हुए अल्का को भोगने लगा। पिछले कुछ दिनों से सम्भोग करने के बावज़ूद अल्का को अभी भी संभोग करते हुए तकलीफ तो हो रही थी, लेकिन उसको आनंद भी बहुत आ रहा था। मुझे यह तो मालूम था कि बहुत देर तक यह चलने वाला नहीं है, इसलिए मैं अल्का को प्रेमपूर्वक अपने बाहुपाश में लिए उसको भोग रहा था। कमरे में हमारे घर्षण से उत्पन्न हमारे रस के मिश्रण की महक फैल गई थी, और हमारी कामुक आहें और उनके बीच में उठने वाली ‘पिच’ ‘पिच’ की आवाज़ भी गूँजने लगी थीं।
अल्का जैसे एक प्रकार के स्वर्ग में थी - अपने पति से सम्भोग करना एक अत्यंत स्वाभाविक क्रिया है, लेकिन अपने परिवारजनों के बगल में, ऐसी अवस्था में उन्मुक्त हो कर सम्भोग करने में जो रोमांच था, वह कहाँ मिलता? थोड़ी देर बाद मैंने धक्के लगाने की गति तेज कर दी। बहुत सम्हालने का प्रयत्न किया, लेकिन सम्भोग के आनंद की आहें भरना रोक नहीं सके। जल्दी ही मैंने एक जोर का धक्का लगाया और अल्का के भीतर ही स्खलित हो गया। अल्का को जब अपने भीतर मेरे स्खलन का अनुभव हुआ, तो वह भी अपने चरम सुख तक पहुँच गई। मैं उसके ऊपर ही लेट कर खुद को संयत करने लगा।
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कोई एक मिनट के बाद दरवाज़े के उस तरफ से से अम्मा की दबी हुई आवाज़ आई,
“तुम दोनों का हो गया हो तो बाहर आ जाओ... कुछ बात करनी है।”
अल्का और मैं दोनों ही चौंक गए। इसका तो साफ़ मतलब है कि अम्मा ने हमको सम्भोग करते देख या सुन लिया था। अब इस बात का उन पर कोई और प्रभाव हुआ हो या नहीं, कम से कम उनको इतना तो मालूम हो गया होगा कि हम दोनों अपने प्रेम सम्बन्ध में बहुत आगे बढ़ गए थे, और बहुत गंभीर भी थे। हम अपने कपड़े पहनने लगे तो अम्मा ने कहा,
“अगर मन करे तो ऐसे ही आ जाओ.. अपनी अनियत्ति की चाँदनी मैं भी तो देखूँ...” उन्होंने अर्थपूर्ण तरीके से कहा।
हमको तुरंत समझ में आ गया कि अम्मा हमको बहुत देर से देख / सुन रही थीं, और उन्होंने हमको सब कुछ करते और कहते देखा और सुना है। अब उनके सामने किसी भी प्रकार का स्वांग करने से कोई लाभ नहीं था। तो हम दोनों अनिच्छा से वैसे ही उठ कर, दबे पाँव कमरे से बाहर चले आए। बाहर आ कर जब हम अम्मा के समीप आए तो हमने देखा कि अम्मा भी केवल पेटीकोट और ब्रा ही पहनी हुई है। उनको ऐसे तो मैने कभी भी नहीं देखा था - मतलब आसार ठीक ठाक ही हैं!
“चेची मैं..” अल्का कुछ कहने को हुई लेकिन अम्मा ने उसकी बात बीच में ही काट दी।
“तुमको कोई सफाई देने की ज़रुरत नहीं है, मोलूटी! अगर तुम अपने ही चेट्टन से प्रेम नहीं करोगी तो किसके साथ करोगी?”
“चेची ?”
“हाँ मेरी प्यारी बहना.. तुमको कुछ कहने की आवश्यकता नहीं... ! इधर आ... तू भी इधर आ अर्चित! हम लोगों की
बाते सुन कर कहीं अम्मा जग न जायें!”
हम तीनों दबे चुपके, कम आवाज़ करते हुए कमरे से बाहर निकल कर अहाते में आ गए। बारिश अभी भी हो रही थी और ठंडी हवा चल रही थी। अभी भी अँधेरा था, लेकिन हम एक दूसरे की आकृतियाँ ठीक से देख पा रहे थे। माँ ने प्यार से अल्का के गाल को छुआ और कहा,
“तुम बहुत अच्छी हो मोलूट्टी... बहुत प्यारी.. और बहुत सुन्दर भी ! अर्चित बड़े भाग्य वाला है!”
“चेची!?”
“हाँ मेरी बच्ची! जब तुम दोनों साथ में प्रसन्न हो, तो मैं क्यों तुम दोनों की प्रसन्नता के बीच में बाधा डालूँ? मैंने तुमको - तुम दोनों को बहुत बुरा भला कहा.. तुम दोनों के प्रेम को गालियाँ दीं.. उस अपराध के लिए मुझे माफ़ कर दो!”
“ओह चेची..” कह कर अल्का माँ के आलिंगन में बंध गई।
“नहीं! अब से चेची नहीं, अब से.. अम्माईअम्मा कहो मुझे!”
यह सुन कर अल्का शरमा गई ; तो माँ ने कहा, “ऐसे तो मेरे सामने नंगी खड़ी है तो शरम नहीं आ रही है, लेकिन मुझे अम्मा कहने में लज्जा आ रही है तुझे?”
“अम्मा..” अल्का ने कोमल, प्रेममय आवाज़ में अपनी बड़ी दीदी को पुकारा!
“हाँ मेरी बच्ची! तू मुझे अम्मा ही बुलाया कर.. तेरे अम्माईअप्पन ने तेरा और अर्चित का सम्बन्ध स्वीकार कर लिया है..”
“ओह अम्मा!” कह कर अल्का पुनः सुबकने लगी।
“ओहो ! मुझसे रहा नहीं गया, इसीलिए मैंने तुम दोनों को यथाशीघ्र यह खुशखबरी देनी चाही... और ऐसे ख़ुशी के मौके पर तू रो रही है? लगता है तुझे ख़ुशी नहीं हुई! अर्चित बेटा, जैसे तू थोड़ी देर पहले कर रहा था, वैसे ही अपनी भार्या के मूलाकल के मधु का आस्वादन कर ले.. संभव है कि पुनः खुश हो जाए!”
“जो आज्ञा माते!” कह कर मैं आगे बढ़ा!
“हट्ट!” अल्का ने सुबकने के बीच में कहा।
“अरे !” माँ ने हँसते हुए कहा, “मेरी मरुमघल, मेरे ही मोने को मना कर रही है !”
“मना नहीं चेची.. पी पी कर आपके मोने ने इनका बुरा हाल कर दिया है!” अल्का ने भोलेपन से जवाब दिया।
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“ओहो! मेरी पावम! अच्छा! आओ.. आज, मैं तुम दोनों को अपना मूलापाल पिलाती हूँ..”
“क्या!!” अल्का और मैं, हम दोनों ही चकित रह गए !
“और क्या! जब तुम्हारे अचा पी सकते हैं, तो तुम दोनों भी.. आओ ! दूध नहीं है तो क्या हुआ?”
कह कर माँ अपनी ब्रा का हुक खोलने लगीं। हम दोनों आश्चर्यजनक रूचि लेकर माँ को ऐसा अभूतपूर्व काम करते हुए देख रहे थे। मुझे तो याद भी नहीं पड़ता कि आखिरी बार कब मैंने माँ के स्तनों से दूध पिया था। आज सचमुच बहुत कुछ बदला हुआ है। माँ ऐसा कर ही नहीं सकती थीं! लेकिन लगता है कि एक तो स्वयं के सम्भोग का अनुभव और अभी अभी हमारे सम्भोग का अवलोकन कर के उनका भी मन बदल गया था।
माँ के स्तन पोमेलो फल के आकर के थे। मेरी अल्का से उनका कोई मुकाबला ही नहीं था। मुकाबले वाली बात नहीं है, फिर भी! वैसे कमाल की बात है न? सगी बहनें, लेकिन फिर भी दोनों के शरीर में इतना अंतर!
“आओ ! इसके पहले कि मुझे ही लज्जा आ जाए, तुम दोनों अपनी माँ के स्तन पी लो!”
जाहिर सी बात है, माँ के स्तनों में दूध नहीं था। लेकिन वस्तुतः बात यह बिलकुल भी नहीं थी। बात थी माँ का हम दोनों के लिए अपना प्रेम दिखाने की शैली! वैसे पिछले कुछ दिनों में जो कुछ भी हुआ था, उसको समझना, उसकी व्याख्या करना बहुत ही कठिन काम था। वो सब करने की आवश्यकता भी क्या? जब अमृत-वर्षा हो रही हो, तब शांति से, अपने भाग्य को सराहते हुए अमृत-रस का पान कर लेना चाहिए। हम दोनों ने माँ के स्तनों को कोई तीन चार मिनट तक ‘पिया’। उस दौरान हमने उनके चूचकों की कोमलता, उनके प्रेममय स्पर्श और बातों को सुना और महसूस किया।
जब हम दोनों उनसे अलग हुए तो माँ ने कहा,
“मैंने कभी एक बार सोचा था कि जब अर्चित विवाह होगा, तब मैं उसको और उसकी भार्या को अपना दूध पिलाऊँगी। बस, और कुछ नहीं!”
“ओह माँ !” कह कर अल्का माँ से लिपट गई।
हम दोनों अभी भी नंगे बैठे हुए थे, लेकिन माँ ने वापस अपनी ब्रा पहन ली।
“कितना सुन्दर मौसम है! वहाँ तो वर्षा आने में दो महीना लगेगा!”
माँ ने रिम-झिम होती वर्षा की आवाज़ का आनंद उठाते हुए कहा। यह एक साधारण सी अभिव्यक्ति थी.. लेकिन माँ ने जिस तरह से कहा, हम सभी को बहुत अच्छा लगा। बड़ी बड़ी ख़ुशियों के पीछे भागते-भागते हम लोग छोटी छोटी ख़ुशियों को पूरी तरह से नज़रअंदाज़ कर देते हैं। लेकिन यदि व्यक्ति संतुष्ट हो, तो वो ऐसे छोटी छोटी घटनाओं, छोटी छोटी बातों का आनंद उठा सकता है!
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“तो फिर यहीं पर रह जाइए न, चेची?” अल्का प्रेम से मनुहार करी।
“अभी नहीं मोलूट्टी! लगी लगाई नौकरी ऐसे कैसे छोड़ दूँ?”
“अरे चेची! कृषि में बहुत लाभ हो रहा है! कु... मेरा मतलब है चिन्नू...”
“हा हा.. हाँ, कुट्टन सही शब्द है तुम्हारे लिए..” माँ ने अल्का को छेड़ा। अल्का लज्जा से मुस्कुराई।
“कुट्टन की मेहनत से पिछले कुछ वर्षों से, और इस वर्ष भी काफी लाभ हुआ है.. और भी होने का अनुमान है।”
“हम्म.. बहुत ख़ुशी हुई यह सुन कर!”
“चेची, तुम्हारे रिटायरमेंट में और कितना समय बचा है?”
“अरे अभी तो बहुत समय है.. कोई चौबीस पच्चीस साल!”
“अरे इतना! तो चेची.. आप लोग यहीं रह जाइए न!”
“रहेंगे बच्चे, रहेंगे!” अम्मा ने गहरी सांस ले कर कहा। फिर कुछ रुक कर उन्होंने आगे कहा, “तुम दोनों खुश तो हो न मेरे बच्चों?”
“हाँ अम्मा, बहुत!” अल्का ने कहा.. मैंने केवल सर हिला कर सहमति जताई। जब दो ‘बड़े’ लोग बात कर रहे हों, तो छोटे लोग अधिक नहीं बोलते! मुझे बचपन में ही यह सिखा दिया गया था।
“अच्छी बात है! लेकिन तुम दोनों ही एक बात याद रखना - जिस रास्ते पर तुम दोनों निकल पड़े हो, वह बस आगे की ओर ही जाता है.. इस रास्ते पर अब पीछे नहीं जाया जा सकता।”
जब हम दोनों ने कुछ नहीं कहा तो अम्मा ने आगे कहा,
“हमने तो तुम्हारे विवाह की अनुमति दे दी है, लेकिन गाँव के अग्रणी लोगों, मुखियाओं, और बड़े बुज़ुर्गों से भी इस बात के लिए आशीर्वाद लेना पड़ेगा। ... लेकिन, तुम दोनों उस बात की चिंता न करो.. मैं, अम्मा और तुम्हारे पिता जी सभी को मनाने का पूरा प्रयत्न करेंगे। लेकिन तुम दोनों ही मन में इस बात की सम्भावना रखना कि यह भी हो सकता है कि वो लोग न मानें। उस बात के लिए तैयार हो तुम दोनों?”
“अम्मा, अल्का के लिए मुझे कुछ भी करना पड़ेगा, मैं करूँगा! लेकिन इसका साथ कभी नहीं छोडूंगा... कभी भी नहीं!”
मैंने अल्का का हाथ अपने हाथ में थाम कर दृढ़ता से कहा। अम्मा ने एक गहरी दृष्टि मुझ पर, और फिर अल्का पर डाली और फिर अंत में मुस्कुराते हुए कहा, “बहुत अच्छी बात है!”
फिर थोड़ा ठहर कर उन्होंने कहा, “एक घंटे में भोर हो जाएगी... तुम दोनों को उसके पहले एक और बार सहवास करना हो तो कर लो.. मैं अंदर चली जाती हूँ...”
“अम्मा!” मैंने बुरा मान जाने का नाटक किया।
“अच्छा अच्छा! ठीक है.. मत करो सहवास! लेकिन मैं तो जा रही हूँ... तुम्हारे पिताजी जागने वाले होंगे। क्या पता... शायद एक और बार हो जाए!”
कह कर अम्मा हँसती हुई कमरे के अंदर चली गईं।
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आज एक बहुत बड़ा दिन था हमारे लिए।
गाँव के बड़े बुज़ुर्गों के सामने हमारे सम्बन्ध की चर्चा होनी थी। उनका निर्णय ही अंतिम होता और हमारे प्रतिकूल भी हो सकता था। यह सोच सोच कर ही हमारा ह्रदय बैठा जा रहा था। स्थिति का सामना करने के लिए जितनी भी ख़ुशियाँ मिल सकतीं, हम बटोर लेना चाहते थे। इसलिए यह कहने की आवश्यकता नहीं कि हमने माँ की आज्ञा का पालन करना उनके जाते ही शुरू दिया। मैंने अल्का का हाथ पकड़ कर उसको अहाते में खड़ा कर दिया। बारिश पड़ रही थी... अल्का के नग्न शरीर पर बारिश की बूँदें पड़ीं तो जैसे तपते तवे पर पानी की बूँदें पड़ीं हों। उसके शरीर पर बूँद पड़ी, और मानो कामाग्नि की तपिश से वो बूँद वाष्प बन कर उड़ गई। अल्का के स्तन उत्तेजना से कठोर हो गए थे; उसके दोनों चूचक, जो पहले से ही पिए जाने से दुःख रहे थे, अब बेचारे उत्तेजना से तने रह कर उनमें और दर्द हो रहा होगा। ऐसे में भी अल्का ने एक मादक अंगड़ाई ली और उसी लय में उसने अपने बाल भी खोल दिए। अल्का उस समय साक्षात् तिलोत्तमा का अवतार लग रही थी - उसको देख कर क्या स्त्री, क्या पुरुष - सभी पागल हो जाते! मैं भी हो गया - मेरा लिंग तुरंत ही अल्का को भोगनेके लिए तत्पर हो गया।
मैं एक डग भर कर उसके सम्मुख आ गया, और घुटने के बल बैठ कर मैंने उसके नग्न नितम्बों को दबोच लिया। ऐसे दबोचने से अल्का की श्रोणि थोड़ा आगे की तरफ निकल आई, और उसके साथ ही उसके योनि के दोनों होंठ भी। मैंने तुरंत ही उसके उन होंठों को अपने होंठों की गिरफ़्त में ले लिया और अपनी जीभ को उसकी योनि में अंदर बाहर करने लगा।
“मेरी मोल्लू... मैं तुमको हमेशा ही जी भर के प्यार करुँगा... तुमको हमेशा खुश रखूँगा... और तुम्हारा साथ कभी
नहीं छोडूंगा!”
अल्का की योनि का आस्वादन करते करते बीच बीच में मैं उससे यह जीवन पर्यन्त का वचन दे रहा था। कुछ देर में अल्का वहीं फ़र्श पर लेट गई, और अपनी जाँघें खोल कर लेट गई। शरीर का स्नान तो हो गया था, अब प्रेम स्नान की बारी थी। मैंने धीरे से अल्का की एक टाँग को उठा कर अपने कंधे पर रख दिया और दूसरी को थोड़ा पीछे।
यह एक बढ़िया आसन था... मैंने दोनो हाथों से अपनी होने वाली पत्नी के नितम्बों को थामा और एक ही धक्के में अपना लिंग उसकी योनि में उतार दिया। जैसे अल्का का शरीर वर्षा की बूँदों से तर था, वैसे ही उसकी योनि भी अंदर से तर थी - कुछ उसके काम रसायन, और कुछ मेरे वीर्य के कारण! अल्का ने अपने दोनों हाथों को मेरे पीछे ले जाकर मुझे भी पुट्ठों पर पकड़ा, और मुझे अपने करीब खींचा। इतने समय में हम दोनों को एक दूसरे के संकेत, एक दूसरे की मंशा - सब समझ में आने लग गई थी। मैंने भी अल्का का संकेत समझा, और वही पुरातन शारीरिक गति पकड़ने लगा। कुछ देर के सम्भोग के बाद मैंने पुनः अल्का की योनि में वीर्यपात कर दिया। उसके बाद अल्का को दो तीन बार चूम कर मैंने उसको और स्वयं को पोंछा, और वापस अपने बिस्तर पर ले आया।
अपर्याप्त भोजन, बारिश में भीगने, और इतनी जल्दी जल्दी सम्भोग करने के कारण हम दोनों बहुत ही अधिक थक गए थे। लेटते ही गहन निद्रा आ गई और हम दोनो सवेरे बहुत देर तक सोते रहे।
हम दोनों को ही आज होने वाली गतिविधियों में भाग न लेने का आदेश हुआ था। यह एक सामाजिक बहस-बाज़ी थी, जिसमें हमारी भागीदारी महत्वपूर्ण नहीं थी। वो अलग बात थी कि इस बहस के केंद्र में अल्का और मैं ही थे। इस बहस में गाँव के बड़े बुज़ुर्गों, पंचों, अम्मा - अच्चन और अम्मम्मा की ही भागीदारी तय हुई थी। लेकिन हमसे रहा न गया और हम दोनों भी सभा में भाग लेने पहुँच गए। गाँव में अल्का का स्वयं का एक सामाजिक स्थान था, और कुछ ही दिनों में मैंने भी अपनी एक पहचान बना ली थी। और यहाँ प्रश्न हमारे पूरे जीवन का, हमारी संतति का था। इसलिए हमको वहाँ होना ही था।
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बहस का आरम्भ अच्चन ने किया। उन्होंने बड़े व्यवहारिक और नपे-तुले तरीके से अपनी बात रख दी। लेकिन गाँव के लोगों को व्यवहारिक बातें समझ में नहीं आतीं। उनको भावनात्मक बातें अधिक समझ आती हैं। उनके लिए परम्पराएँ, रूढ़ियाँ और रीति रिवाज़ अधिक मायने रखती हैं। जैसे जैसे बहस आगे बढ़ने लगी, वैसे वैसे मैंने देखा कि अच्चन अपनी बातों में कमज़ोर पड़ते जा रहे थे। ऐसे धुर गँवारों से बहस करने का उनका पहला अवसर रहा होगा। ऐसे में एक तो उनका पुरुष होने का दंभ, बड़े साहब होने का सामाजिक दंभ, और ऊपर से पारंपरिक वर्जनाओं को निभाने की ज़िम्मेदारी! थोड़ी देर में अच्चन ने जैसे हथियार ही डाल दिए...! यह मेरे लिए एक सीख थी - अच्चन को मैं अपनी वकालत करने के लिए कभी नहीं कहूँगा।
अम्मा बहुत देर से चुप बैठी हुई थीं, लेकिन मुझे लग रहा था कि यह बाढ़ के आने के ठीक पहले की तैयारी है!
“बड़ी मुश्किल है, मारुमकन! ऐसे कैसे हो सकता है? आधुनिकता अपनी जगह है… परन्तु संस्कृति भी कोई वस्तु होती है...” किसी ने कहा।
“हाँ! और नहीं तो क्या! अगर सभी लोग ऐसे ही करने लगे तो हमारी संस्कृति तो संकट में पड़ जाएगी न!”
“हाँ.. फिर तो भाई और बहन में भी सम्बन्ध होने लगें? यही चाहते हैं आप?”
“पूरे गाँव, पूरे समाज का तो चरित्र ही नष्ट हो जाएगा!”
“चित्तप्पा, यह क्या आवश्यक है कि आप यदि पुरुष हैं, तो अपनी भांजी से तो विवाह कर सकते हैं.. लेकिन यदि आप स्त्री हैं, तो अपने भांजे से नहीं?” अम्मा ने बड़े ठन्डे, बड़े संयत तरीके से कहा।
सारे मुखिया, सारे बुज़ुर्ग हतप्रभ से हो कर एक दूसरे को देखने लगे।
“अरे बेटी, वो तो रीति है..” एक मुखिया ने अम्मा के वितर्क का सामना किया, “हमने तो नहीं बनाई है न यह रीतियाँ! यह सब तो हमारे पुरखों ने बना दिया है.. हम तो बस उसका पालन कर रहे हैं।”
“हाँ अच्छी बात है.. और आपने तो पालन भी कर लिया! आपने भी तो अपनी ही भांजी से विवाह किया है न? और वो - चित्तम्मा - तो आपसे कोई सोलह साल छोटी हैं! आपको वो विवाह तो बेमेल नहीं लगा? आपको वो विवाह विधर्मी नहीं लगा.. आपको वो विवाह तो अवैध नहीं लगा!”
“अरे तू यह क्या बकवास कर रही है?”
“बकवास मैं नहीं, आप कर रहे हैं!” अम्मा ने दहाड़ते हुए कहा, “ये दोनों आपस में प्रेम करते हैं! प्रेम की न तो कोई जाति होती है, न कोई धर्म, न कोई उम्र, और न ही कोई विधान! उसको बाँधा नहीं जा सकता..”
अम्मा बिफ़र गईं थीं; क्रोध में उनकी साँसें धौंकनी के जैसे चलने लगीं,
“आप कर लो, तो आपका तो सब कुछ पवित्र है। सब कुछ उचित है... सब कुछ धर्म है... लेकिन, कोई और आपसे इतर हो कर जाए तो उसका सब कुछ अवैध? यह कहाँ का न्याय है? अगर आपको लगता है कि मेरी बात आपके लिए गाली है, तो आपकी बात भी इन दोनों के प्रेम के लिए उतनी ही बड़ी गाली है... आपकी पत्नी ने अपने जीवन पर्यन्त किसी दूसरे पुरुष को नहीं देखा। उनके लिए आप ही उनके प्रथम प्रेमी, प्रथम पुरुष हैं! अगर हमारी अल्का के लिए हमारा अर्चित ही वो पुरुष, वो प्रेमी है, तो इसमें क्या गलत है? जब दोनों परस्पर प्रेम करते हैं तो क्यों हम अपनी सामाजिक वर्जनाएँ इन दोनों पर थोपें? क्यों किसी और को इन दोनों के पति पत्नी बना दे?”
अम्मा ने क्रोध में अपने चारों तरफ देखा.. फिर खुद को संयत किया,
“आज हमारे पास यह अवसर है कि दूसरों की कलंक-चर्चा से बचें और भविष्य के लिए एक सुन्दर, एक अच्छा उदाहरण प्रस्तुत करें। कैसा बुरा जमाना आ गया.. क्या होगा - यह सब कहने सुनने से कुछ नहीं होना! अल्का और अर्चित का विवाह, हमारे समाज का कोई सामूहिक नैतिक पतन नहीं है.. बल्कि यह अवसर है कि हम रीति के ऊपर प्रेम को वरीयता दें!”
अम्मा की बात ने जैसे सब पर मोहिनी डाल दी।
“परम्पराएँ प्रेम से ऊपर नहीं होतीं! प्रेम के कारण ही हमारे देश में सबसे अच्छे विवाह हुए हैं - भगवान् कृष्ण का रुक्मिणी से, अर्जुन का सुभद्रा से ..”
कोई एक जन तिलमिला कर बोला, “भगवान कृष्ण की बात अलग है।”
अम्मा ने कहा, “हाँ, अलग बात तो है। भगवान अगर स्त्री भगाए, उससे विवाह करे, तो वही स्त्री हमारे भजन, हमारीप्रार्थनाओं में आ जाती है.. साधारण आदमी वही काम करे तो वह काम अनैतिक हो जाता है। असामाजिक हो जाता है..”
टोकने वाले का सर झुक गया।
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“यदि हमारे बच्चे अपनी मर्ज़ी से शादी विवाह कर लें, तो इसमें क्या दोष हो गया?”
कोई एक और जन कहने लगे, “अरे! फिर वही बात... रीति रिवाज़, नीति शास्त्र, परंपरा, विश्वास, नैतिकता.. क्या यह सब कुछ नहीं है? बस प्रेम ही सब कुछ है?”
अम्मा ने पूछा, “क्या? प्रेम होना कुछ कम है? प्रेम होना क्या छोटी बात है? दोनों मनुष्य हैं.. दोनों प्राणी हैं.. दोनों में प्रेम होना क्या गलत है?”
वे बोले, “अरे हाँ भई, इन दोनों के मनुष्य होने में क्या संदेह है? और दोनों के प्रेम में भी कोई संदेह नहीं है!”
अम्मा नेकहा, “तो कम-से-कम इन दोनों की मनुष्य जाती में तो शादी होगी! कैसा अंधविश्वास है कि किसी अनिष्ट की आशंका से लोग अपने बच्चों का विवाह पशुओं से, और वनस्पतियों से कर देते हैं! हम कम से कम यह पाप तो नहीं कर रहे! और आपको भीमसेन याद हैं? उन्होंने तो अपनी जाति से बाहर जा कर विवाह किया था... हिडिम्बा राक्षसी से! याद है न?”
“अरे आप तो बात का बतंगड़ बनाने लगी!”
“बतंगड़ कैसा? दोनों एक दूसरे से प्रेम करते हैं.. अगर इनका विवाह किसी और से कर दें, तो एक साथ चार मनुष्यों का जीवन नष्ट नहीं हो जाएगा? क्या आप ऐसी पत्नी चाहेंगे जो मन ही मन किसी अन्य पुरुष का ध्यान करती हो? किसी अन्य पुरुष के लिए आसक्ति रखती हो?”
यह बात वहाँ उपस्थित लोगों के ह्रदय में चुभ गई,
“आपकी भावनाओं को मैं जानती हूँ.. समझती हूँ। हमारे विश्वास, हमारी परम्पराओं के टूटने में बड़ा कष्ट होना स्वाभाविक ही है। अब यह विश्वास चाहे झूठा ही हो, फिर भी बल देता है। उस झूठे विश्वास के टूटने पर भी केवल दुःख ही होता है.. कष्ट ही होता है।”
अम्मा ने कहना जारी रखा,
“आज हमारे पास यह अवसर है कि अपने भविष्य के लिए एक उचित आदर्श प्रस्तुत करें... एक उचित परंपरा की नींव डालें.. भगवान् राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं... लेकिन उन्होंने भी जब सीता माता को पहली बार पुष्प वाटिका में देखा, जब उनके पायल की मधुर ध्वनि सुनी, तो उन्होंने उसी समय उनको अपनी पत्नी स्वीकार कर लिया था.. उनको शिव-धनुष तोड़ने की कोई आवश्यकता ही नहीं थी.. धनुष पर प्रत्यञ्चा चढ़ाना बस एक रस्म मात्र बन कर रह गई थी उनके लिए.. उस रस्म के पहले आया प्रेम। उनके मन में एकल भाव का धनुष तो वहीं पुष्प वाटिका में ही टूट गया था.. और उनको सीता माता से प्रेम हो गया... अच्छी बात यह कि उन दोनों का विवाह भी हो गया।”
कहते कहते अम्मा की आँखों से आँसू गिरने लग गए... मुझे उनकी ऐसी दशा देखी न गई.. लेकिन वहाँ उपस्थित लोगों से झगड़ना उचित नहीं लग रहा था.. मुझे लग रहा था कि अम्मा जीत रही हैं। अल्का से उनकी हालत न देखी गई। वो अम्मा के पास जा कर उनके आँसू पोंछने लगी।
“प्रेम न तो सामाजिक मूल्य को देखता है, और न ही उसकी वर्जनाओं को! प्रेम जाति नहीं देखता.. प्रेम कुछ नहीं देखता.. बस प्रेम को ही देखता है।”
“अरे तो फिर माता और पुत्र का भी मिलन करवा दीजिए!” किसी ने कुतर्क किया।
“छी छी!” एक ने यह बात सुन कर अपने गालो को थप्पड़ लगाया और कान पकड़े।
अम्मा इस ओछी बात पर तिलमिला उठीं, “पिता और पुत्री जैसे सम्बन्ध के लिए तो आपने ऐसी टिप्पणी नहीं करी, छी छी नहीं कहा! मामा और भांजी - इनका क्या नाता है?”
“अरे.. मामा के वीर्य से थोड़े न जनी है भाँजी?”
“तो क्या मौसी की कोख से जना है भाँजा?” अम्मा ने चीखते हुए कहा,
“यह नाता भी उतना ही निकट, और उतना ही दूर है जितना की मामा और भाँजी का! परम्पराओं की दुहाई न दीजिए.. यह सब स्थाई नहीं होता.. आज जो परंपरा है, वो कल न रहेगी.. मानव जाति ने ऐसे ही तरक्की करी है.. हर व्यवस्था में बदलाव होना ही है। हाँ, अगर कुछ स्थाई है तो केवल मानव की मूर्खता। वो अमर है। केवल वो ही स्थाई है।”
“अरे अम्मा, आप तो बेकार ही नाराज़ हो रही हैं। हम सभी यह बात मानते हैं कि अल्का और अर्चित को एक दूसरे से बहुत प्रेम है। लेकिन आप ही सोचिए - अम्माई तो अम्मा समान ही होती है न। कह दीजिए कि अल्का ने माँ समान ही अर्चित का लालन पालन नहीं किया? और अब युवा होने पर ... मतलब सोच कर कुछ अजीब सा नहीं लगता?”
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“आपको अजीब क्यों लग रहा है, जब इन दोनों को अजीब नहीं लग रहा है? और इस बात में कैसा संदेह है कि मेरी अल्का, मेरे अर्चित से उम्र में बड़ी है। ऐसे में उसमें ममता होना स्वाभाविक ही है। प्रत्येक नारी में ममता होती ही है। सत्य है कि उसने समय समय पर माँ समान ही अर्चित का लालन पालन किया। लेकिन ऐसा करने से वो उसकी माँ नहीं हो गई। भगवान् श्री कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न का लालन पालन तो मायावती ने माँ समान बन कर ही किया था। लेकिन फिर प्रद्युम्न ने बड़े हो कर मायावती से ही विवाह किया। जब भावनाएँ परिवर्तित हो गईं, जब एक दूसरे से प्रणयशील प्रेम हो गया हो तो फिर संबंधों के क्या मायने रह जाते हैं?”
“मेरी अल्का ने, मेरे अर्चित को अपना पति मान लिया है। और मेरे अर्चित ने, मेरी अल्का को अपनी पत्नी। ईश्वर को साक्षी मान कर इन दोनों ने एक दूसरे के प्रति समर्पण कर दिया है। इस प्रकार से इनका विवाह संपन्न हो गया है। अब हम अभिभावक इन दोनों के संयोग को नकार नहीं सकते। और न ही इस विवाह को भंग कर सकते हैं। यदि अब हम कुछ कर सकते हैं तो बस इन दोनों का विधि के अनुसार विवाह करवा कर इन्हे आशीर्वाद दे सकते हैं। बस!”
अब तक लगभग सभी के सभी परास्त हो चुके थे.. लेकिन एक वृद्ध ने जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर एक आखिरी - लेकिन कमज़ोर दाँव फेंका,
“अरे अम्मा.. आपकी बात सही है.. आप ही इन दोनों के लिए एक लड़की और एक लड़का चुन लीजिए न! आपकी बात का विरोध कौन करेगा?”
“पर यह क्या आवश्यक है कि इनके लिए संबंध का चुनाव हम करें?”
“अरे फिर कौन करेगा?”
“इन दोनों ने एक दूसरे को चुन तो लिया है न! बार बार क्यों चुनना? अब हमारा आपका बस एक ही काम है - इन दोनों को प्रेम से आशीर्वाद देना और इनके सुख भरे वैवाहिक जीवन की मंगल कामना करना...”
अम्मा की इस बात के बाद सभी चुप हो गए। अम्मा भी थक कर भूमि पर ऐसे बैठ गईं जैसे अभी अभी किसी से मल्ल्युद्ध कर के वापस आई हों। जब कुछ देर तक किसी ने कुछ भी नहीं कहा, तो सभा में बैठे सबसे वृद्ध पुरुष ने कहा,
“अम्मा... कर्कट्टकम माह बाईस दिवस बाद आरम्भ हो जाएगा। जब सब कुछ तय है, और जब हम सभी बड़े बुज़ुर्गों का आशीर्वाद वर वधू को मिल ही गया है, तो फिर इनके शुभ विवाह में देरी क्यों करी जाए? मैं तो कहता हूँ कि कल ही इन दोनों का विवाह कर देते हैं! इनकी प्रथम संतान भी मतममाह से पहले हो जाएगी... संभवतः मीनममाह में।”
हमारे सम्बन्ध में ऐसी अंतरंग बात किसी और को करते सुन कर मैं और अल्का असहज हो गए.. लेकिन हमने यह महसूस किया कि उनका उद्देश्य हमको लज्जित करना नहीं था। बल्कि वो हमारे शुभ-चिंतक थे।
“अरे पेरिअप्पा, इतनी जल्दी क्यों?”
“अम्माई, एक प्रेमी युगल को एक ही छत के नीचे, बिना विवाह के नहीं रहने देना चाहिए... आपने बताया ही है कि ये दोनों एक दूसरे के प्रति समर्पित हो गए हैं। इसलिए बिना सामाजिक विवाह के इनकी संतानें नहीं होनी चाहिए। क्यों पंचों? आप सभी की क्या राय है?”
“हाँ हाँ! आपकी बात बहुत उचित है! कल ही इन दोनों का विवाह कर देते हैं!” सरपंच ने उनकी बात का समर्थन किया।
उनकी बातों पर अम्मा मुस्कुराईं.. उनके साथ अच्चन, मैं और अल्का भी!
“तो फिर तय रहा.. और आप लोग चिंता न करें.. इनका विवाह पूरा गाँव करवाएगा!”
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17-07-2021, 07:09 PM
(This post was last modified: 19-07-2021, 02:28 PM by usaiha2. Edited 4 times in total. Edited 4 times in total.)
………………………………………………………………………….
बस अगले ही दिन मेरा और अल्का का विवाह था।
अल्का ने पारंपिरक कासवसत्तु साड़ी पहनी हुई थी, जो स्वयं मेरी अम्मा ने वर्षों पहले अपने विवाह में पहनी थी। चूँकि अम्मा के मुकाबले अल्का के स्तन अधिक परिपक्व हो गए थे, इसलिए अम्मा की मैचिंग ब्लाउज़ उसको नहीं आने वाली थी। इसलिए, अम्मा के ही कहने पर अल्का ने इस समय ब्लाउज़ नहीं, अपितु रेशम का लाल रंग का एक पट्टा अस्थाई ब्लाउज़ (कंचुकी) के रूप में पहना हुआ था, जिसको पीठ के पीछे गाँठ से बाँध दिया गया था। उसके बाल की चोटी कर के वेणी से सजाया गया था। स्वर्ण आभूषण जो भी उसको नानी ने दिया और अम्मा ने दिया, उसने वही पहना हुआ था।
अम्मा, अम्मम्मा और चिन्नम्मा आज पूरे मनोविनोद के भाव में थीं। ख़ास तौर पर अम्मा का बदला हुआ, विनोदपूर्ण भाव देख कर मैं बहुत चकित हुआ। विनोद के साथ साथ वो अल्का के साथ चुहल भी कर रहीं थीं।
“शंखपुष्पम… कन्नेलतुम्पळ… शकुन्तले… निन्ने …ओरर्म वरम…” अल्का श्रृंगार करते करते एक प्रसिद्ध गीत गुनगुना रही थी।
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शंखपुष्प (मलयालम) - अपराजिता, कोयाला (हिंदी) - योनिपुष्प, कोकिला (संस्कृत) - गोकर्णी (मराठी) .... यह पुष्प देखिए, और समझ जाइए
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“कौन सा शंखपुष्प खोलने वाली हो मेरी मोले? हा हा हा!”
“चेची!” अम्मा की द्विअर्थी बात को सुन कर अल्का शरमा कर अपनी हथेलियों से अपना चेहरा छुपा लेती है।
“अरे शरमा क्यों रही है! आज तो तेरे शंखपुष्प में से मधु टपक रहा होगा!” अम्मा ने उसको और छेड़ा!
“अम्मा! देखो न चेची को!” अल्का ने ठुनकते हुए अम्मम्मा से शिकायत करी।
“बड़े भाग्य वाला है अपना अर्चित,” चिन्नम्मा ने अल्का की खिंचाई जारी रखी, “मोलूट्टी के शंखपुष्प का सारा मधु उसको पीने को मिलेगा! हा हा!”
“हट्ट! अम्मा!” अल्का लज्जा से दोहरी हुई जा रही थी। लेकिन अम्मम्मा उसके बचाव में अभी तक नहीं आई थीं।
“सही कहा लक्ष्मी अम्मा। मेरा बेटा बड़े भाग्य वाला है। मेरी अनियत्ति ऐसे वैसे को थोड़े ही न मिलने वाली थी! साक्षात लक्ष्मी है मेरी अल्का! घर की लक्ष्मी घर में ही रह गई! अब देखना सभी - हमारी समृद्धि में दिन दूनी, रात चौगुनी वृद्धि होगी!”
“चेची!” अपनी बढ़ाई सुन कर अल्का मुस्कुरा दी।
“सच में, तेरे भाग्य से मेरे बेटे का भाग्य भी चमक गया है। नहीं तो वो किस लायक है? तूने राह में पड़े पत्थर को उठाया, उसके गुणों को पहचाना, उसको माथे से लगाया, उसको प्रेम दिया, उसको राह दिखाई। अब देखना - तेरे प्रेम से उस पत्थर का आकार कितना बड़ा होता है।”
“ऐसा कुछ नहीं है चेची! वो तो हमेशा से ही ऐसे ही हैं। मैंने तो बस उनको अपने मन का करने के लिए एक निर्गम दिया। बस, और कुछ नहीं।”
“वही तो मैं भी कह रही हूँ मेरी मोले। हम - उसके माँ बाप हो कर उसके गुणों को नहीं पहचान सके। लेकिन तूने सब देखा, पहचाना और प्रोत्साहन दिया। तुझको बहू के रूप में पा कर मैं धन्य हो गई।”
“चेची!” कह कर अल्का अम्मा के आलिंगन में बंध गई। अम्मा भी प्रेम में अपनी होने वाली बहू को चूमने लगीं। भावनाओं के कारण अम्मा और अल्का दोनों के ही आँखों से आँसू निकल गए।
“अरे! ऐसे नहीं रोते बच्चे! देखो न - काजल सब तेरे गाल पर फ़ैल गया। चिन्नम्मा, ज़रा एक गीला कपड़ा तो देना। मेरी बिटिया का मेकअप ठीक कर दूँ।”
कुछ देर में अल्का वापस पहले जैसी सुन्दर सी हो गई। अम्मा ने संतुष्ट हो कर अपनी होने वाली बहू को मन भर देखा।
“खूब सुन्दर!”
अलका मुस्कुराई और शरमाते हुए बोली, “चेची, ये बहुत कसा हुआ है।”
अम्मा अल्का की कंचुकी का पट्टा थोड़ा ढीला कर के व्यवस्थित करते हुए बोलीं, “मेरी मोले! तेरे मूलाक्कल पर कसा हुआ पट्टू कितना चमक रहा है! थोड़ा कसा हुआ ठीक है। इससे थोड़ा हिस्सा अधखुला हो जाता है। ऐसे अधखुले मूलाक्कल देख कर मेरे अर्चित का मन डोल जाएगा!”
“डोलना ही चाहिए अम्मा,” चिन्नम्मा ने छेड़ा, “अपनी मोलूट्टी है ही इतनी सुन्दर! देखो न - इसका हर अंग रत्नों के जैसा चमक रहा है। चेहरे पर सिन्दूरी आभा चमक रही है। एकदम अलग दिख रही है तुम्हारी मोले!”
“सच में चिन्नम्मा! सच में! मेरा अर्चित अपने मन पर नियन्त्रण नहीं रख पाएगा!”
“नियंत्रण रखना भी क्यों है! हा हा हा!”
अम्मा की बात का एक गूढ़ अर्थ था कल की बारिश में मेरे सारे कपड़े भीग गए थे, और अभी तक सूखे नहीं थे.. बड़ी कठिनाई से खोज कर एक रेशमी मुंडू मिला था, और वही मैंने पहना हुआ था, और साथ में एक कमीज़ भी। दिक़्क़त यह थी कि मुंडू के नीछे कुछ भी नहीं था। इस कारण से लज्जाजनक स्थिति कभी भी उत्पन्न हो सकती थी। अगर विवाह के उपरान्त मेरे मन से मेरा नियन्त्रण खो जाए, तो फिर वहाँ उपस्थित सभी लोगों के सामने मेरा मज़ाक बन जायेगा। खैर, केरल में विवाह अंत लघुअंतराल के होते हैं।
मतलब, जल्दी जल्दी हो जाते हैं तो स्थिति नियन्त्रण से हटने से पहले ही विवाह संपन्न हो सकता है।
वो पाठक जिनका विवाह अभी नहीं हुआ है, वो संज्ञान लें कि ऐसे भाग भाग कर विवाह करने के बहुत सारे नुकसान होते हैं।
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17-07-2021, 07:10 PM
(This post was last modified: 19-07-2021, 02:18 PM by usaiha2. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
सच में मैं स्वयं पर नियन्त्रण नहीं रख पा रहा था।
विवाह के दौरान मुझे जैसे ही अवसर मिलता, मैं अल्का के स्तन, पेट या नितम्ब - किसी न किसी बहाने से छू लेता। मेरी यह सब चेष्टाएँ वहाँ उपस्थित लोगों की दृष्टि से बच नहीं सकतीं थी। बचती भी तो कैसे? मेरी आंशिक उत्तेजना मेरे मुंडू से साफ़ परिलक्षित हो रही थी। वहाँ उपस्थित महिलाएँ यह देख कर खिलखिला रही थीं, और पुरुष मुस्कुराते हुए मुझे आँखे मार रहे थे। इसलिए जैसे ही विवाह कार्य संपन्न हुआ तो हम सभी ने राहत की साँस ली कि अब मैं और अल्का एक दूसरे को भोगने के लिए स्वतंत्र हैं।
हमारा विवाह शिव-पार्वती के मंदिर में संपन्न हुआ था। मंदिर से कोई आधा कोस (डेढ़ किलोमीटर) दूर हमारा एक उपगृह था। वह उपगृह बस एक कमरा था, और उससे लगा हुआ एक अहाता था। कमरे के चारों तरफ पेड़ पौधे लगे हुए थे, और काफी शान्ति थी। वह कमरा छोटा था, और कभी कभार किसी अतिथि के आने पर ही उपयोग में आता था। इसके अतिरिक्त उस कमरे का कोई और उपयोग नहीं था। उसकी साफ़ सफाई कर दी गई थी - एक पलंग लगा कर नव विवाहित जोड़े के लिए सुव्यवस्थित कर दिया गया था। कमरे में एक ओर एक बड़ी सी खिड़की थी। उस पर एक परदा लगा दिया गया था। कमरा बाहर से तो बंद किया जा सकता था, लेकिन अंदर से बंद करने का कोई साधन नहीं था। एक तरह से कहिए कि बाहर से यदि कोई चाहे, तो हम अंदर क्या कुछ कर रहे हैं, साफ़ देख सकता था। लेकिन उस बात की परवाह मुझे तो बिलकुल भी नहीं थी। हम जो करने वाले थे, वो सभी को मालूम था। जो कोई देखता है तो देखे! हमको कमरे के अंदर ले जा कर परिवारजनों ने बाहर से दरवाज़ा लगा दिया - बंद नहीं किया।
वैसे भी यहाँ एकाँत था; आज भी वर्षा रह रह कर पड़ रही थी, इसलिए कोई बिना वज़ह बाहर नहीं रहना चाहता था। वैसे भी, नवविवाहितों के बीच में किसी और का क्या काम? जाते जाते अम्मा ने कहा था कि कुछ देर बाद वो हमारे लिए भोजन ले कर आएँगी। ठीक है! कुछ देर मतलब एक पारी तो खेली जा सकती थी! जैसे ही एकाँत हुआ, अल्का ने मुस्कुराते कहा,
“चिन्नू मेरे, आपसे सब्र नहीं हो रहा था?” यह कोई प्रश्न नहीं था, बस एक कथन था।
मैंने ‘न’ में सर हिलाया, और मुस्कुराया।
“अब तो मैं रीति और विधिपूर्वक भी आपकी हूँ!” कह कर वो मेरे सामने ज़मीन पर बैठ गई, और उसने अपने सर को मेरे पाँव पर रख दिया। जैसा कि पहले भी हुआ था, उसके ऐसे आदर प्रदर्शन से मैं अचकचा गया - किसी व्यक्ति को ऐसे नहीं नहीं पूजना चाहिए। ऐसा आदर सम्मान केवल भगवानों के लिए आरक्षित रहना चाहिए।
“अल्का.. मेरी मोलू! मैं तुमसे एक बात कहना चाहता हूँ!”
“बोलिए न?”
“तुम मेरे पैर न छुआ करो! नहीं तो मैं भी तुम्हारे पैर छुऊँगा!”
“अरे! और मुझे पाप लगाओगे?” उसने मुझे छेड़ते हुए कहा।
“मैं तुमको पाप न लगाऊं? लेकिन तुम मुझे लगा सकती हो?”
“चिन्नू मेरे.. मैं आपके पैर इसलिए छूती हूँ, कि आपको मेरा पूर्ण समर्पण है! मैं आपका पूरा आदर करती हूँ.. पति होने के नाते, आप मेरे भगवान भी हैं.. और इसलिए भी आपके पैर छूती हूँ क्योंकि मुझे आपसे प्रेम है।”
अल्का की इस बात पर मैंने भी बिजली की तेजी से उसके पैर छू लिए, “मेरा भी आपको पूर्ण समर्पण है, और मुझे भी आपसे प्रेम है!”
अल्का मेरी इस हरकत से थोड़ा असहज हो गई।
“वो तो मुझे मालूम है, मेरे चेट्टन! आप एक बहुत अच्छे पुरुष हैं! आपका स्वभाव बहुत अच्छा है, और, मुझे मालूम है कि आप एक आदर्श भर्ताव (पति) बनेंगे! हर लड़की अपने लिए ऐसा वर माँगती है, जो उसे जीवन भर प्रसन्न रख सके, और उसका हर कठिनाई में साथ दे। प्रभु ने मुझे आपका साथ दिया है; जैसा मैं चाहती थी, आपमें वह सब कुछ है! मैं बहुत... लकी हूँ!”
“यह सब तो मेरे लिए भी उतना ही सच है, जितना आपके लिए! फिर यह पैर छूना मुझे पसंद नहीं! और तो और, आयु में तो आप ही मुझसे बड़ी है!”
“हाँ, लेकिन पद आपका बड़ा है!”
“पत्नी का पद कब से छोटा होने लगा?”
“ओह्हो! आपसे तर्क में कोई नहीं जीत सकता!”
“और पैर छूने के साथ साथ मुझे ‘आप’ ‘आप’ भी कहना बंद करो! लगता है कि तुम मुझे नहीं, किसी पड़ोसी को बुला रही हो!”
“अच्छा ठीक है! मैं आपके पैर नहीं छुऊँगी, लेकिन आपको ‘आप’ कह कर बुलाऊँगी!”
“ओह्हो!” मैंने अल्का की ही तर्ज़ पर कहा, “यह बेकार के मोल भाव में समय जाया हो रहा है! चलो, हम वो करें, जिसके लिए इस कमरे में आए हैं!”
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“हा हा! मेरा चिन्नू कितना व्याकुल हो रहा है!”
“कैसे न हूँ!? विवाह के समय इतने सारे लोग थे वहाँ, नहीं तो वहीं पर शुरू हो जाता!”
“हा हा..! आओ, आओ! बेचारे को इस बंधन से बाहर निकाल देती हूँ..” कह कर अल्का ने मेरी कमर पर से मुंडू की गाँठ खोली और मैं अपने नग्न रूप में आ गया। सम्भोग की प्रत्याशा में मेरा लिंग पूरी तरह से उत्तेजित था, और रक्त प्रवाह के कारण रह रह कर झटके खा रहा था,
“ओहो! मेरे चिन्नू का कुन्ना! कितना बड़ा..! कितना सुन्दर..! कितना पुष्ट.. कितना बलवान..!” कहते हुए उसने मेरे शिश्न के मुख पर एक छोटा सा चुम्बन दिया।
“न न.. चूमने से काम नहीं चलेगा.. इसे चूसो” मैंने प्रेम मनुहार करते हुए कहा।
“जब पहली बार तुम्हारे लिंग को इस रूप में देखा था न चिन्नू, तो मैंने सोचा कि इतना बड़ा अंग मेरी योनि में कैसे जाएगा!”
“पहली बार में ही तुम इसको अपनी योनि के अंदर लेना चाहती थी?”
“और क्या! बिना वो किए मैं तुम्हारी संतानो की माँ कैसे बनूँगी भला?”
“हम्म्म। लेकिन तुमको क्यों लगा कि यह बहुत बड़ा है?”
“अरे! कैसे न लगेगा?”
“मेरा मतलब है कि योनि में से बच्चा निकल आता है। तो फिर लिंग तो बहुत छोटा होता है न!”
“अरे बुद्धू! बच्चा तो एक बार ही निकलता है। वो तो गर्भधारण के कारण शरीर बदल जाता है। हमेशा वैसे थोड़े न रहता है। मेरी योनि ढीली ढाली रहती, तो तुमको आनंद आता क्या चिन्नू?”
मैं मुस्कुराया।
“चिन्नम्मा मुझे हमेशा कहती कि बहुत छोटी योनि है मेरी। मेरा अभ्यंगम करते समय वो इसकी भी मालिश करती थी। धीरे धीरे कर के उनकी एक उंगली मेरे अंदर जा पाई। इसलिए तुम भी पहली बार में मेरे अंदर नहीं आ पाए।”
“हम्म्म फिर तुमको मेरा लिंग अपने अंदर ले कर कैसा लगा?”
“शुरू शुरू में तकलीफ़ हुई, लेकिन फिर आनंद आने लगा।”
“अब समझी - सम्भोग केवल संताने पैदा करने के लिए नहीं होता। आनंद लेने के लिए भी होता है।”
“हाँ!”
कह कर अल्का मेरे लिंग को मुँह में लेकर चूसने लगी। मुझे तुरंत ही आनंद आने लगा। मैं आनंद में आ कर ‘हम्म हम्म’ की आवाज़ निकालने लगा। अल्का ने वेणी बाँध रखी थी, लेकिन उसके माथे के सामने के बाल बार बार चेहरे पर गिर जाते थे, और वो बार बार उन बालों को अपने कान के पीछे ले जाती! सुनने और कहने में एक सामान्य सी बात है, लेकिन सच में, यह करते हुए अल्का कितनी कामुक लग रही थी, उसका वर्णन करना यहाँ संभव नहीं है! मैं जल्दी ही स्खलन के करीब पहँचु ने लगा तो मैंने अल्का को रोका।
मैंने अल्का को कंधे से पकड़ कर उठाया और अपने सीने से लगा लिया। पत्नी जब पति के लिंग को अपने मुख में सहर्ष ग्रहण करे, तो उसके समान ‘रति’ कोई और स्त्री नहीं हो सकती! मैं प्रेमावेश में आ कर उसको उसके शरीर के हर हिस्से को चूमने लगा। अल्का के मस्तक, गाल, होंठ, ठोड़ी, ग्रीवा, हाथ, पैर, कमर, पेट, स्तन - सब जगह मैंने अपने चुम्बनों की वर्षा कर दी। साथ ही साथ साड़ी के ऊपर से ही अल्का के नितम्बों को अपने हाथ में लेकर सहला और मसल रहा था। अल्का को अवश्य ही आनंद आ रहा था - उसने इस प्रेमालाप के बीच में अपने बाल खोल दिए, जिससे उसका रूप और निखर आया, और वो और भी अधिक कामुक लगने लगी।
मैंने अल्का के स्तनों को पकड़ लिया और उनको दबाने, सहलाने लगा।
“अम्माई, दूध पिलाओ ना” मैंने अल्का को छेड़ा।
“आह.. अब मैं आपकी मौसी नहीं, पत्नी हूँ! आप मुझे मेरे नाम से पुकारा करें!” अल्का ने मेरी मनुहार की।
“नहीं मेरी प्यारी मौसी!! तुम तो मेरे लिए हमेशा ‘मेरी प्यारी मौसी’ ही रहोगी, क्योंकि ऐसी सेक्सी मौसी को उम्र भर चोदने का चांस किसको मिलता होगा?” मैंने हंसते हुए अल्का को छेड़ा।
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“अच्छा जी?!” अल्का ने कहा और वो भी मेरी बात पर हँसने लगी।
“दूध पिलाओ न!”
“दूध? किधर है?” अल्का जान बूझ कर अनजान बनी हुई थी।
“इधर है!” मैंने उंगली से उसके एक स्तन को छुआ।
“हा हा! मैंने आपको उन्हें पीने से कब रोका?”
“न! तुम पिलाओ!”
“अच्छा.. उसके लिए मुझे पलंग पर बैठना पड़ेगा!”
“हाँ.. ठीक है!”
अल्का बिस्तर पर बैठी, और अपने हाथ पीठ के पीछे ले जा कर अपने कंचुकी की गाँठ खोलने लगी। कुछ ही क्षणों में उसके भरे हुए, सुडौल और गोल स्तन उसके पति के सम्मुख अनावृत हो गए। मैं अल्का की गोद में पीठ के बल लेट गया और फिर फुर्सत से उसके स्तन को मुँह में लेकर पीने लगा। मैं अल्का की अवस्था से अनभिज्ञ था, लेकिन अल्का अपने स्तन इस प्रकार पिए जाने से अत्यंत हर्षित थी। मैंने कम से कम दस मिनट तक उन दोनों पृयूरों को मन भर कर चूसा और फिर अल्का के रूप की प्रशंसा करी,
“मेरी मोलू.. सच कहता हूँ.. भगवान् शिव ने बड़ी फुर्सत से बैठ कर तुम जैसी मस्त चोदने लायक लड़की बनाई है!”
देर तक पिए जाने से अल्का के चूचक उत्तेजनावश पूरी तरह से खड़े हो गए थे। लेकिन ऐसा लगा कि अपनी प्रशंसा सुन कर अल्का के स्तन गर्व से तन गए हों!
“मौसी, तुम इतनी ‘चोदनीय’ हो कि अगर कोई मर्द तुमको एक बार देख ले, तो उसका कुन्ना तुरंत खड़ा हो जाए और वो तुमको बिना चोदे नहीं मानेगा!”
मैंने अल्का को छेड़ा! बात तो बहुत गन्दी थी, लेकिन आज का दिन सभ्यता दिखाने का नहीं था। अल्का को भी मेरी बात अच्छी लगी। वो मुस्कुराई। मैं शरारत करते हुए एक एक कर के उसके नोकदार चूचकों को बारी बारी से अपने मुँह में भर कर फिर से पीने लगा। बीच बीच में मैं उनको दाँत से काट भी लेता।
“पातिय.. पातिय..” अल्का कराहते हुए, आनंद लेती हुई बोली, “आराम से चूसो!”
लेकिन मैं तो अभी अपनी ही धुन में था। मैं उसके स्तनों को जोर जोर से पी रहा था, और काट रहा था। बड़ी देर तक यही खेल चलता रहा। मेरी उत्तेजना की तो पराकाष्ठा पहुँच गई थी। अगर समय रहते अल्का मुझे रोक न लेती, तो मैं संभवतः अल्का की छातियाँ ही खा लेता। अब तक मेरा लिंग भीषण रक्त प्रवाह से फूल कर बहुत बड़ा हो गया था। समय आ गया था।
“चल रानी! अब तुझे नंगी कर के चोदने का समय आ गया।” मैंने निर्लज्जता से कहा। किसी और समय यह बात कही होती, तो थप्पड़ पड़ गया होता। लेकिन जैसा कि मैंने पहले भी कहा था, आज का दिन सभ्यता दिखाने का तो बिलकुल भी नहीं था। मैंने निर्दयता से उसकी साड़ी उतार दी और फिर उसकी चड्ढी भी। अल्का पूर्ण नग्न पलंग पर चित्त हो कर लेटी हुई थी। मैं उसकी टांगों के बीच आ कर बैठ गया और फिर उसकी सुन्दर टाँगें खोल दी। अल्का शरमा गयी।
“मौसी, मैंने तुमको पहले कभी बताया है क्या कि तुम्हारी चूत बहुत सुंदर है? मैंने बोला।
अल्का ने मुझ पर पलट वार किया, “कितनी लड़कियों की ‘चूत’ देखी है मेरे चिन्नू ने?”
“बताऊँगा.. फिर कभी बाद में!” कह कर मैं उसकी योनि को पीने लगा। अल्का कामुकता से सिसकने लगी। मेरी जीभ उसको सनसनीखेज़ आनंद दे रही थी। मैंने देखा कि रह रह कर अल्का स्वयं ही अपने स्तन दबाने लगती। सच में! वैवाहिक सम्भोग का आनंद अवर्णनीय है!
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कुछ देर बाद अल्का ‘आऊ… आऊ…’ करती हुई जोर जोर से चिल्लाने लगी। उसी लय ताल में वो अपनी कमर ऊपर उठाने लगी। ऐसे तो वो पहले कभी भी नहीं भोगी गई थी! अच्चन ने कल ही मुझे स्त्रियों के सबसे संवेदनशील अंग - उनके भगनासे के बारे में बताया था, और यह भी कि उसको छेड़ कर अपनी पत्नी को कैसे आनंद देना है। उनकी सीख तो मैं इस समय आज़मा रहा था - मेरी जीभ अल्का के भगनासे से खेल रही थी। कभी मैं उसको अपने दाँत से पकड़ लेता, कभी जीभ से चाट लेता, तो कभी होंठों से पकड़ कर ऊपर की तरफ खींच लेता। कामोत्तेजना से अल्का पागल हो रही थी।
“ब्ब्ब्बस बस... ऊऊऊ... बस ओह! चेट्टन अब बस! अब कु कुन्ना डाल दो... नही तो मैं मर जाउंगी!” उसने कहा।
मैं खुद भी अब अल्का को भोगने को पूरी तरह से तैयार था। मैंने लिंग को अल्का की योनि पर सटाया और जोर से धक्का मारा। बिना रोक टोक के मेरा लिंग उसकी योनि में प्रवेश कर गया। सुहागरात का सम्भोग बस आरम्भ हो गया था। अल्का ने अपने दोनों पैर उठा लिए थे, और आनंद लेकर सम्भोग का आनंद उठा रही थी। मैं इतनी जोर जोर से धक्के लगा रहा था कि पलंग भी आगे पीछे होने लगा था, और कमरे में से हमारी आहों, सिसकियों के साथ साथ लकड़ी के पाए के लयबद्ध घर्षण की ध्वनि भी आने लगी थी। हमारी सुहागरात के सम्भोग का यह मीठा कामुक शोर था। बाद में अल्का ने बताया कि उत्तेजना के कारण मेरे लिंग की मोटाई थोड़ी बढ़ गई थी, इसलिए अल्का को अपनी ही योनि में कसावट का अनुभव हो रहा था।
“उई उई उहह… ओह…” जैसी पागलपन वाली आवाजें निकालते हुए अल्का स्खलित हो गई। थोड़ी ही देर बाद मैं खुद भी अल्का के भीतर ही स्खलित हो गया। न तो मैंने ही साफ़ सफाई की परवाह करी, और न ही लिंग को उसकी योनि से बाहर निकालने की। बस अल्का को अपने आलिंगन में भर कर सुस्ताने लगा। कब नींद आ गई पता ही नहीं चला।
“चेची?” मैं अल्का की आवाज़ सुन कर जगा।
“चेची नहीं.. अम्माईयम!” अम्मा ने मुस्कुराते हुए कहा, “क्यूँ रे चिन्नू.. सब गर्मी निकल गई या कुछ बची हुई है? क्या क्या कर रहा था विवाह के समय नालायक?” अम्मा ने हँसते हुए कहा।
“क्या करता अम्मा! मुझसे रहा ही नहीं जा रहा था!”
“वो तो मैं समझ ही सकती हूँ! मेरी मरुमकल इतनी सुन्दर, इतनी अच्छी, इतनी प्यारी और इतनी कामुक जो है! तेरे बड़े भाग्य हैं लड़के कि तुझको ऐसी पत्नी मिली!”
“चेची!” अल्का अपनी बढ़ाई सुन कर शरमा गई।
“चेची नहीं! मुझे अब अम्माईयम कहने की आदत डाल लो!”
यह सुन कर अल्का फिर सेशरमा गई तो अम्मा ने पहले की ही भाँति कहा, “मेरे सामने नंगी रहती है, तो तुझको शरम नहीं आती! लेकिन मुझे अम्मा या अम्माईयम कहने में लजा जाती है! और सुन, अपने अलिएं (ससुर) के सामने ऐसी हालत में न जाना.. नहीं तो वो भूल जाएगा कि तू अब उसकी नातूं (साली) नहीं, मरुमकल (बहू) है! हा हा!”
“अम्मा..” अल्का और लजाते हुए अम्मा के आलिंगन में सिमट गई।
“और तुम दोनों अधिक शोर मत मचाओ.. पड़ोसी कह रहे हैं कि इतना ‘भीषण’ सम्भोग पूरे गॉंव में कभी किसी ने नहीं किया!” अम्मा लगभग हँसते हुए बोली।
“अरे! किसने देख लिया?” अल्का फिर से शरमा कर सिमट गई।
“इतना बड़ा सा जालगम है! कोई भी देख सकता है.. और वातिल भी तो बंद नहीं होता! इसलिए सम्हाल कर! हा हा!”
“अरे कोई देखे तो देखे! अपनी पत्नी को भी कोई न भोगे?” मैंने ढिठाई से कहा।
“बिलकुल ठीक! मैंने भी यही कहा.. हा हा.. चलो.. अब कुछ खा लो”
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अल्का और मेरे विवाह के अब पूरे पैंतालीस बरस बीत गए है! और यह पैंतालीस बरस पूरे सुख और समृद्धि से भरे हुए थे।
परिवार के तीनों बुजुर्ग अपने अपने समय पर वैकुण्ठ सिधार गए हैं।
अल्का और मेरी तीन संताने हुईं –
पहली संतान लड़की, जो हमारे विवाह के नौ माह के भीतर ही हो गई। जाहिर सी बात है कि विवाह से पहले हमने जो प्रेम संयोग किया था, वो उसी की निशानी है।
दूसरी संतान एक पुत्र, जो पुत्री के दो साल बाद हुआ, और तीसरी संतान एक पुत्री, जो हमारे विवाह के पाँचवे साल में हुई।
हमारी तीनों संताने विवाहित हैं, और तीनों की ही अपनी अपनी संतानें हैं। बड़ी पुत्री के पुत्र का तो विवाह अभी अभी संपन्न हुआ है।
धन धान्य की हमको कभी कोई कमी नहीं महसूस हुई - तीसरी संतान के आते आते, हमारा परिवार अत्यंत धनाढ्य हो गया। सलाद और अन्य नगदी फ़सलों का व्यवसाय शुरू करने के बाद, हमने एक डेरी भी स्थापित की, जिससे और भी लाभ हुआ। जान पहचान के सभी लोग हमारी मिसाल देते- और हमसे ईर्ष्या भी करते! कैसे घर की लक्ष्मी घर में ही रही और कैसे उसकी चक्रवृद्धि होती रही।
हमारे बच्चे हमारे रक्त सम्बन्ध के बारे में जानते हैं। उनको मालूम है कि हम पति पत्नी होने से पहले, मौसी और भतीजा थे।
लेकिन उससे कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं पड़ता!
समाप्त!
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17-07-2021, 07:13 PM
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17-07-2021, 08:39 PM
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17-07-2021, 08:40 PM
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