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Adultery नदी का रहस्य
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१७)


“ठास!!”

एक ज़ोर का आवाज़ गूँजा.. एक थप्पड़ की आवाज़.

और इसी के साथ एक और आवाज़ निकली,

“र..रुक जाइए.. म.. मैं.. ब.. ब...बताती...ह.. हूँ...”

और ये आवाज़ थी सीमा की.

सीमा, अर्थात् तुपी काका की बीवी.. सीमा पाल.

गाल पर रसीदे गए उस ज़ोरदार थप्पड़ ने अपनी छाप तो छोड़ी ही; साथ में सीमा की सारी हेकड़ी भी निकाल दी जो अब से कुछ मिनटों पहले रॉय, श्याम और तीसरे सिक्युरिटी वाले को दिखा रही थी.

हालाँकि जब सीमा को इंटेरोगेशन रूम में बुलाया गया तब वहाँ दो लेडी सिक्युरिटी वाली भी थी... पर सीमा ने मानो कुछ न बोलने की कसम खा रखी थी.. एक तो कुछ बोलना नहीं चाह रही थी; दूसरा, कुछ बोले भी तो इतना कम की समझ में ही न आए की बात का मतलब क्या हुआ..

थोड़ी देर बाद ही रॉय के दिमाग ने उसे एक उत्तम विचार दिया और उसने तुपी काका और बिल्टू; दोनों को अंदर बुलवा लिया. सीमा से फिर दो चार सवाल किए गए लेकिन जब उसने फिर कोई जवाब न दिया और अपने उसी रवैये पर अड़ी रही तब मजबूरन रॉय को अपने सिपाहियों को एक खास इशारा करना पड़ा उन लोगों ने भी तुरंत सांकेतिक आदेश का पालन करते हुए तुपी काका और बिल्टू को डंडों से अच्छे से कूटने लगे.

मुश्किल से दस से बारह डंडे ही पड़े होंगे कि सीमा प्रश्नों के उत्तर देने को तैयार हो गई.

शुरू के चार पाँच प्रश्नों के उत्तर उसने सही दिए भी पर फ़िर धीरे धीरे अपने उसी पुराने रवैये में लौटने लगी और अपने उत्तरों को सीमित करने लगी.

वार्निंग भी दी गई उसे...

कुल छह वार्निंग...

पर नहीं मानी..

तब फ़िर से मजबूरन रॉय को दोनों महिला सिक्युरिटी कर्मियों को वही विशेष संकेत देना पड़ा..

और इस बार निशाना सीमा थी.

शुरू के सात आठ थप्पड़ खाने के बाद भी उसने थोड़ी प्रतिरोध करने की और स्वयं को निर्दोष बताने की पूरी कोशिश की लेकिन उन दोनों हट्टे कट्टे महिला कर्मियों के ज़ोरदार बरसते थप्पड़ों के सामने शीघ्र ही हथियार डाल दी.

रॉय ने गौर से देखा सीमा को...

मार और भय से अब वो थरथर काँप रही थी.

अभी ही सही समय है; ऐसा जान कर रॉय ने दोबारा प्रश्नोत्तर का भार संभाला.

सीमा के बिल्कुल सामने बैठा.

बोतल दिया पानी पीने को.

सीमा ने कांपते हाथों से बोतल थामा और रॉय से किसी इशारे की प्रतीक्षा किए बगैर ही गटागट पानी पीने लगी.

पानी पी कर तीन मिनट सुस्ताने के बाद,

“तो सीमा जी.. अब आप सब कुछ सच सच कहने के लिए तैयार हैं?”

“ज..जी.. साब.”

“ठीक है.. तो शुरू करते हैं प्रश्नोत्तर काल. और ध्यान रहे, इस बार सब सीधे सीधे ही बताइयेगा.. होशियारी जहाँ की... ये दोनों छोड़ेंगी नहीं आपको.. और मैं भी इन्हें रुकने नहीं कहूँगा.”

सीमा की आँखों में देखते हुए रॉय ने बेहद गंभीर स्वर में कहा.

सीमा ने डरते हुए कनखियों से अपने अगल बगल खड़े दोनों महिला कर्मियों को देखी और फिर रॉय की ओर देखते हुए हाँ में सिर हिलाई. साथ ही धीरे से बोली,

“स..साब.. मैं इनके सामने नहीं ब...बो.. बोल पाऊँगी..”

कह कर उसने याचना भरी दृष्टि से रॉय को देखा.

रॉय खुश हुआ. उसने सिपाहियों को इशारा कर के तुपी काका और बिल्टू को वहाँ से ले जाने को कहा.

उनके वहाँ से जाते ही उसने बड़े प्यार से प्रश्न करना शुरू किया,

“सीमा जी, ये बताइए.. तुपी जी के साथ आपके संबंध कैसे थे?”

“अ..अच्छे ... थ.. थे...स..साब..”

“कितने अच्छे?”

“ब.. बहुत अच्छे..”

“बिल्टू के साथ आपके सम्बन्ध कैसे हैं?”

“अच्छे हैं.”

“क्या सम्बन्ध है?”

“हम हैं तो मामी और भांजा.. लेकिन माँ बेटे का भी सम्बन्ध मान कर चलते हैं.”

इस उत्तर पर रॉय थोड़ा ठिठक गया और दो सेकंड के लिए सीमा की ओर देखा.

फिर तुरंत ही यथावत प्रश्न करना शुरू किया,

“ओके सीमा जी; अगर आप दोनों के बीच माँ बेटे वाला सम्बन्ध है तो फिर कहने वाले ये क्यों कह रहे हैं कि आप दोनों के बीच कोई और सम्बन्ध भी है?”

“ज..जी?!!”

सीमा ऐसी प्रतिक्रिया दी मानो रॉय का प्रश्न सुन कर उसे आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा हो.

रॉय बिल्कुल शांत बैठा रहा... सीमा की ओर एकटक देखता हुआ.

बड़े आराम से बोला,

“जी, आपने सही सुना.. लोग ऐसा ही कहते हैं... और यदि ऐसा कहते हैं तो अवश्य ही कोई विशेष आधार होगा ऐसी बातों का...या... फ़िर कोई विशेष प्रयोजन!”

“अ.. आधार? ... प्रयोजन??”

“जी बिल्कुल.”

“नहीं.. ऐसा कुछ नह..”

सीमा की बात पूरी होने से पहले ही रॉय बोल पड़ा,

“हमारे सूत्रों से हमें ऐसी ही खबर मिली है.. और हमारे सूत्र ऐसी बातों में इस तरह की गलतियाँ नहीं करते. व्यर्थ लांछन लगने – लगाने वाले कार्य नहीं करते. चलिए.. अब सब सच सच बताइए... नहीं तो ....”

कहते हुए रॉय ने सीमा को दोनों महिला सिक्युरिटी कर्मियों की ओर संकेत कर के दिखाया.

सीमा अब और भी अधिक सहम गई.

पानी की तरह अब स्पष्ट था कि सीमा वाकई ऐसा कुछ जानती है जो वो चाह कर भी बता नहीं सकती; लेकिन रॉय के पास भी अब अधिक समय नहीं था. उसे शीघ्र से शीघ्र परिणाम तक पहुँचना था.

अतः वो चेयर से उठ खड़ा हुआ और पीछे हटते हुए बोला,

“ये अब भी नहीं बोलेंगी.. सुनो, कुछेक और लगाओ तो इसे.”

इतना सुनना था कि सीमा विद्युत् की तेज़ी को भी मात देती हुई हड़बड़ा कर बोल उठी,

“न.. नहीं.. नहीं... सुनिए..”

आगे बढ़ती दोनों महिला कर्मी रुक गयीं.

रॉय पलट कर सीमा की ओर देखा...

सीमा अत्यंत भयभीत होते हुए बोली,

“स..सुनिए... म.. मैं स..सब बताऊँगी...”

“यही तो आपने कुछ देर पहले भी कहा था... फ़िर भी कुछ नहीं बोल रही थीं... अब भी यही कह रही हैं.. क्या अब आप सच में सब सच सच बोलेंगी? यदि नहीं.. या कोई भी चालाकी हुई.. तो फिर इन दोनों को मैं नहीं रोकूंगा... ठीक??”

“ज.. जी.. ब... बिल्कुल ठीक..”

सीमा अपने चेहरे से पसीना पोंछते हुए बोली.

रॉय दोबारा सीमा के ठीक सामने रखे अपने चेयर पर जा कर बैठ गया.

“चलिए सीमा जी.. कहना शुरू कीजिए.”

सीमा ने बोतल उठा कर पानी पी, एक गहरी साँस ली और कहना शुरू की,

“आपके सूत्रों ने खबर तो सही दी पर थोड़ी गलत भी है. जिस तरह की सम्बन्ध की बात आप कर रहे हैं वो बिल्टू के साथ नहीं अपितु मिथुन के साथ था. मेरे स्वर्गीय ससुर ने जब मिथुन को अपने घर में स्थान दिया था तब वो बहुत छोटा था और मैं भी उस समय यहाँ नहीं थी... मतलब.. ब्याह नहीं हुआ था उस समय मेरा. मैं तो बहुत बाद में आई थी. तब तक मिथुन भी बड़ा हो गया था. काफ़ी घुल मिल कर रहने वालों में से एक था वो. हँसमुख था, युवा था, बहुत सम्मान करता था और हमेशा ही भाभी भाभी करता रहता था.

मेरे यहाँ आने के बाद शुरू के कुछ महीने ऐसे ही हँसी ख़ुशी बीते.

पर, धीरे धीरे मैंने गौर करना शुरू किया कि मिथुन सदैव ही एक अलग ही दृष्टि से मुझे देखता है. भाभी भाभी कर के तो वो तब भी बोलता रहता था और बड़े आदर से सन्मुख आता था. जितनी देर बात करनी होती; बड़े हँसमुख तरीके से करता था लेकिन जो मैंने गौर किया वो ये था कि अवसर मिलते ही वो मेरे शरीर के कटावों को बड़े लोलुप तरीके से देखने लगता था... और ऐसा कोई भी अवसर वो व्यर्थ नहीं जाने देता था जिसमें वो मेरे शरीर के अंगों को न देख पाए.

(तभी रॉय अपने चेयर से उठा और उन दोनों महिला कर्मियों को एक संकेत कर के अपने साथ श्याम और एक और सिपाही को ले कर उस सेल से बाहर चला गया. रॉय के बाहर जाते ही एक महिला कर्मी सीमा के सामने रॉय वाले कुर्सी पर बैठ गई और दूसरी ने भी पास ही रखे एक चेयर पर बैठ गई. सीमा ने अनवरत बोलना चालू रखा था.)

शुरू में तो मैंने यही सोचा की कदाचित मेरे स्त्री सुलभ प्रवृति के कारण ही ऐसा लग रहा है और मैं नाहक ही इस बेचारे पर संदेह कर रही हूँ; लेकिन शीघ्र ही मुझे आभास हुआ कि मेरी स्त्री प्रवृति ऐसी गलती नहीं कर सकती.

कोई तो कारण होगा जो मेरी इंद्रियाँ मुझे इस प्रकार के संकेत दे रही हैं.

पहले तो मैं ध्यान नहीं दी... सच कहूँ तो ध्यान नहीं देना चाही पर जल्द ही मैंने अपनी स्त्री प्रवृति और इन्द्रियों पर भरोसा कर के मिथुन के गतिविधियों पर नज़र रखने लगी.

और बहुत शीघ्र ही उसे भोला व मासूम समझने की मेरी भूल का मुझे पता चल गया.

वो वाकई अक्सर मुझसे नज़रें चुराकर मेरे जिस्म के कटावों को लालसा भरी नज़रों से देखता था. छोटा सा अवसर मिलते ही छूने की कोशिश करता था. कई बार किसी न किसी बहाने से मेरे कमर व स्तनों को छूने में वो सफल रहा.

कुछ दिन तो केवल मुझे देखने और मुझे कहीं कहीं से छूने तक सीमित रहा... और धीरे धीरे ही सही... उसका दुस्साहस बढ़ता गया...

कभी मेरे नहाने के समय आ आकर बाथरूम का दरवाज़ा खटखटाता और खोलने पर कुछ भी इधर उधर की छोटी मोटी बात पूछता.. और आँखें उसकी मेरे अर्धनग्न शरीर पर होती.

कभी मैं कपड़े बदल रही होती तो अचानक से कहीं से आ टपकता और वासना से मुझे घूरने लगता.

मैंने कई बार कोशिश की उससे दूर रहने की, अपने पति को उसके बारे में बताने की पर असफल रही. बिल्टू को कुछ इसलिए नहीं बोली कभी क्योंकि क्या भरोसा वो शायद कुछ कर बैठता और फिर गाँव भर में हमारे परिवार के चर्चे होते... जोकि अपने आप में ही बदनामी है.

एक ओर जहाँ मैं मिथुन के बढ़ते दुस्साहसों से परेशान और चिंतित होती जा रही थी वहीँ दूसरी ओर अपने पति की उपेक्षा से भी काफी निराश, हताश व उदास थी.

विवाह के छह साल होने को आ रहे थे... लेकिन न ही हमारी अपनी कोई संतान थी और न ही हम दोनों में पति-पत्नी वाला सम्बन्ध. कहते हैं कि विवाह के आठ दस सालों बाद वैसे भी अधिकतर पति पत्नी के बीच पति पत्नी वाला संबंध न हो कर भाई बहन वाला संबंध हो जाता है. और यहाँ हम दोनों में तो पहले से ही भाई बहन वाला रिश्ता होने को आ रहा था. केवल कहने के लिए ही हम दोनों पति-पत्नी थे.

हर रात को ये खाना खा कर सो जाते थे और मैं करवट बदलते रह जाती थी. कुछेक बार मैंने खुद से पहल भी किया, लेकिन इनकी आँखें ही नहीं खुलती.. इन्होंने भी कुछेक बार प्रयास किया लेकिन काम शुरू होते ही इनका काम ख़त्म हो जाता था.

कई दिन, महीने और साल मैंने ऐसे ही गुजार दिए... मान मर्यादाओं में रहते हुए.

लेकिन ये क्षुधा ऐसी है कि बस बढ़ती ही जाए... बढ़ती ही जाए.

और इधर मिथुन भी अपनी गतिविधियों में धीरे धीरे उन्मुक्त होता जा रहा था.

मिथुन रोज़ सुबह उठ कर घर के पीछे, जहाँ तबेला है और उसके बगल में ही वो कमरा जहाँ वो रहता है; वहीँ खुले में व्यायाम किया करता था. एक दिन अचानक ही मेरी नज़र उस पर गई. उसके युवा होते शरीर में गठित होते सुपुष्ट मांसपेशियों को देख कर मेरा मन मचलने – बहकने लगता. मैं चाहती तो नहीं थी.. बिल्कुल भी नहीं... पर न जाने क्यों रह रह कर उसकी ओर मेरा मन खींचता चला जाने लगा. चाहे मैं कोई काम कर रही हूँ या फिर आराम; रह रह कर उसका कसरती बदन मेरी आँखों के सामने छा जाता.

तब अचानक एक दिन मेरे मन में ये विचार आया कि मैं अपने अंदर ये बोझ क्यों ढोती फिरूँ.. मन तो पति से भरना चाहिए था.. लेकिन अगर पति से नहीं हो रहा.. तब क्यों न किसी और से करूँ.

और अगले ही दिन से मैंने भी मिथुन को इशारे देना शुरू कर दिया.

उसके युवा होते मन को मेरे इशारे समझते देर न लगी और....”

कहते हुए सीमा चुप हो गई.

दोनों महिला सिक्युरिटीकर्मियों ने अगले पाँच मिनट तक की प्रतीक्षा की कि सीमा अब कुछ बोलेगी.

लेकिन जब सीमा कुछ न बोली तब सामने बैठी महिला कर्मी ने अपनी नज़रें पैनी करते हुए उससे पूछी,

“और??”

एक पल रुक कर सीमा होंठ खोली,

“और फिर उसके बाद से हम दोनों के बीच एक संबंध बन गया.”

“कैसा संबंध... और ‘हम दोनों’ मतलब किन दोनों के बीच?”

“अ...अ..व.....”

“जल्दी बोलो!!”

महिला कर्मी ने ज़ोर से डांटा.

सीमा और अधिक डर से सहम गई.

फ़ौरन बोली,

“अ..अव..अ...अवैध संबंध..”

“किनके बीच??”

“म...म...मेरे..अ...और.. र....और... मिथुन के बीच..”

“ह्म्म्म... ठीक... अब ये बता कि उसे मारी क्यों...??”

“क..किसे?”

“मिथुन को!”

सुनते ही सीमा का चेहरा फक्क से सफ़ेद पड़ गया..

आँखों से अविश्वास व्यक्त करती हुई बोली,

“य..ये..अ..आप क्या कह रही हैं...? भला म.. मैं.. मिथुन की ह.. हत्या क्यों करुँगी??”

“तूने नहीं किया?”

“न.. नहीं.”

“नहीं किया?”

“नहीं.”

“सच में?”

“ज..जी.”

“सच कह रही है तू?”

“ज..जी.. सच कह रही हूँ.”

“सुन, तूने मिथुन को नहीं मारा.. ये बात बिल्कुल अच्छे से सोच समझ कर ही बोल रही है न?”

“जी, ब.. बिल्कुल..”

“पक्का??”

“जी.....”

सीमा आगे भी कुछ कहने जा रही थी कि तभी उसके कान के पास एक तेज़ धमाका सा हुआ और इसी के साथ अत्यधिक पीड़ा से सीमा दोहरी होती चली गई.

अपने बाएँ गाल पर हाथ रख कर वो सिर झुका ली.. आँखों के आगे अँधेरा छा गया.

अगले कुछ क्षणों तक कोई कुछ नहीं बोली.

कुछ और समय बीतने के बाद जब सीमा धीरे धीरे सामान्य हुई तब उसके सामने बैठी महिला सिक्युरिटी कर्मी ने चेहरे पर बिना कोई अतिरिक्त भाव लिए एक एक शब्द पर ज़ोर देते हुए बड़े शांत स्वर में पूछी,

“अब बोलो, तुमने मिथुन को क्यों मारा?”

पीड़ा की अधिकता के कारण सीमा की आँखों में आँसू आ गए थे..

तुरंत कुछ कहते नहीं बना उससे..

जब बगल में बैठी दूसरी महिला कर्मी ने सख्ती से दोबारा उससे प्रश्न किया तब फफक कर उत्तर दिया सीमा ने,

“ज..जी...म..म..मैं.. मैंने.... मारा है...था...उ..उसे..”

“हम्म.. हालाँकि मेरा प्रश्न ये नहीं था कि तुमने उसे मारा है या नहीं या फिर उसे किसने मारा है... लेकिन ठीक है.. तुमने इसका उत्तर स्वयं ही दे दिया.. तो अब ये बताओ मोहतरमा कि तुमने उसे मारा क्यों?? असल प्रश्न यही है और मैं अपने इसी प्रश्न को फिर से तुमसे पूछ रही हूँ.”

सीमा अब भी अपने गाल को सहला रही थी...

गाल उसका टमाटर से भी अधिक लाल हो गया था..

बोलने का प्रयास कर के भी उसके मुँह से बोल नहीं फूट रहे थे... आँसू झर झर गिर रहे थे..

उसकी स्थिति देख सामने बैठी महिला कर्मी ने पानी वाला बोतल उसकी ओर बढ़ाया,

“चल.. पी ले ये... उसके बाद फटाफट एकदम धरल्ले से कहना शुरू करना.”

सीमा बिना कोई ना नुकुर किए बोतल ले ली और पानी पीने लगी.

पानी पीने के बाद कुछ क्षण रुक कर बोलना शुरू की,

“पहले के कुछ महीने तो अच्छे से बीते लेकिन फिर मिथुन की सीमाएँ धीरे धीरे बढ़ने लगी थीं. वो खुद को मेरा मालिक समझने लगा था. अधिकार तो ऐसे जताने लगा था मानो अगर मुझे नहाने भी जाना पड़े तो उससे पूछ के जाऊं. जब भी मेरे साथ होता; मेरे पति और भांजे को गंदी गंदी गालियाँ देता. शुरू के कुछ महीने तो वो बिस्तर में भी मुझे किसी देवी की तरह पूजता था.. लेकिन उसके बाद धीरे धीरे ही सही.. उसके बातों और व्यवहार में बहुत परिवर्तन आने लगा. मुझसे; विशेष कर संसर्ग के समय किसी बाजारू औरत से भी कहीं अधिक तिरस्कृत करता हुआ पेश आता. पूछे जाने पर कहता कि ऐसा करके उसे एक विशेष.. एक अलग प्रकार का सुख व आनंद मिलता है. ऐसी बातें वो सिर्फ़ कहने के लिए कहता है.. उसे गलत न समझा जाए. उसका और कोई मतलब नहीं होता. बहुत समय तक ऐसा चलता रहा.. न चाहते हुए भी मैंने हालात के साथ समझौता कर लिया था. परन्तु जैसे सूरज अधिक समय तक बादलों के पीछे नहीं छुप सकता ठीक वैसे ही हमारे संबंध भी किसी से छुपे न रह सके. हम पकड़े ही गए. हम दोनों को आपत्तिजनक अवस्था में पहले मेरे पति और बाद में भांजे बिल्टू ने देख लिया था.

पति के साथ तो मेरी काफ़ी कहा – सुनी हुई ही थी.. बिल्टू ने भी कड़ी आपत्ति जताया था.

कुछ दिन शांत रहने के बाद हम दोनों में फिर से संबंध बनने लगा. पिछली बार तो मिथुन को कुछ नहीं कहा गया था सिवाय थोड़े से डांट के.. वो भी मेरे पति के द्वारा.. लेकिन इस बार हम फिर पकड़े गए और वो भी मेरे भांजे बिल्टू के हाथों.

उसने मुझे और मिथुन को काफ़ी कुछ सुनाया. मुझे सुनाया... मैं सुनती रही.. पर जब मिथुन को सुनाने लगा तब मिथुन को गुस्सा आ गया और वो भी बहुत उल्टा सीधा बोलने लगा.

और उस क्षण तो मैं डर ही गई जब मिथुन ने मेरे पति और बिल्टू को जान से मार देने की धमकी दी.

सिर्फ़ उसी एक दिन नहीं बल्कि अक्सर कई बार अकेले में या मेरे साथ होने पर भी वह मेरे पति और भांजे को मार देने की कसमें खाता था.

ब.. बस....इसी क.. कारण.......”

“इसी कारण क्या?”

“इसी कारण मैंने उसे... मार दिया.”

“कब?”

“रात में...”

“ठीक से बताओ.”

“उसे मारने के पहले पिछले दो महीने से मैं अक्सर उसे रात में कुछ अलग बना कर खिलाने लगी. कभी गाजर का हलवा, कभी खीर, कभी कुछ तो कभी कुछ. और इसी तरह एकदिन खीर के दूध में ही अच्छे से ज़हर मिला कर उसे दे दी. काफ़ी तेज़ और धीरे असर करने वाला ज़हर था. उसे खाने के कोई दो घंटे बाद ही मिथुन मर गया होगा.”

“उसके बाद वो घृणित काम क्यों किया?”

“क.. कौन सा घृणित क... काम?”

“तुझे अच्छे से पता है कि हम किस घृणित काम की बात कर रहे हैं... हमारे खोजी कुत्तों को मिथुन के कमरे से पंद्रह कदम दूर ज़मीन के चार हाथ नीचे वो मिली है... ऐसा तो वही कर सकता या सकती है जिसके दिल में हद से अधिक घृणा भरी हुई हो.”

सामने बैठी महिला कर्मी की बात सुन कर होंठों पर एक हल्की मुस्कान लाते हुए सीमा थोड़ा सा सिर झुका कर बोली,

“जैसा की अ.. अभी अभी आपने ब.. बताया... कि ‘ऐसा तो वही कर सकता या सकती है जिसके दिल में हद से अधिक घृणा भरी हुई हो’... मेरे दिल में भी उसके प्रति घृणा कूट कूट कर भरी हुई थी... अ.. और.. सच कहूँ ..त.. तो घृणा के साथ साथ उससे भी अधिक दिल में डर अपना डेरा डाले हुए था....”

सीमा की बात खत्म होने से पहले ही बगल में बैठी दूसरी महिला कर्मी अपना कौतुहल न छिपा पाने के कारण पूछ बैठी.

सीमा अबकी बिना झिझक बोली,

“घृणा इसलिए क्योंकि वो मुझे एक बाजारू औरत से भी कहीं अधिक अपमानित करता रहता था. सड़क की कुतिया से भी अधिक नीचे गिरा हुआ होने का अहसास दिलाते रहता था... दिनोंदिन इतने अपमान से मैं थक चुकी थी... (कहते हुए सीमा फिर रोने लगती है).... और डर इसलिए क्योंकि उसने मेरे पति और भांजे को मार डालने की धमकी दी थी.. एक बार नहीं.. कई कई बार.. जब भी वो मेरे साथ होता था... संबंध बनाते समय हमेशा ही कहता था कि वो मेरे पति और भांजे को इस दुनिया से अलविदा करवा कर पूरे घर के साथ साथ मुझ पर भी अधिकार कर लेगा और धन – ऐश्वर्य भोगते हुए मुझे अपनी रखैल बना कर मुझे भी जब चाहे तब भोगेगा... जिसके साथ बाँटना चाहे .. बाँटेगा...

जब मुझे लगा की अब बात हद से अधिक बढ़ने लगा है तो मुझे ही कोई उपाय करना सूझा. अपने पति और भांजे से तो सहायता माँग नहीं सकती थी.. जो कुछ करना था मुझे अकेले ही करना था. सो उसे ज़हर दे दी. दिल में कई सौ गुणा घृणा भरा हुआ था... इसलिए......”

सीमा ने अपनी बात खत्म की.

उसकी पूरी कहानी सुनने के बाद दोनों महिला कर्मी कुछ देर तक चुपचाप बैठे रहे.

दोनों की ही सूरत ये साफ़ साफ़ बता रही थी कि सीमा की आपबीती पर वो विश्वास करे या अंत में मिथुन के मरने के बाद जो दरिंदगी की उसने उस पर अविश्वास करे.

खैर, सीमा अब सब कुछ बोल चुकी थी इसलिए उससे कुछ और पूछने का कोई मतलब नहीं था; खास कर ऐसी कोई भी बात जो सिक्युरिटी वालों को पहले से ही पता हो.

और जो बातें पता नहीं थीं... वो भी अब पता चल चुकी थी.

सीमा को वहीँ छोड़ कर दोनों महिला कर्मी सेल से बाहर आईं और रॉय के कमरे में जा कर उसे रिपोर्ट किया. पूरी कहानी संक्षेप में सुनाई और एक पॉकेट साइज़ रिकॉर्डर उसे सौंप दिया. इसमें सीमा की पूर्ण स्वीकारोक्ति रिकॉर्ड हो गयी थी.

दोनों को आभार और शाबाशी दिया रॉय ने. वो भी दिल खोल कर. सीनियर से प्रशंसा पा कर वो दोनों भी बहुत खुश हुई.

थोड़ी देर बाद जब दोनों चली गई तब रॉय ने रिकॉर्डर ऑन कर के उसे पूरा सुना; पूरे ध्यान से. फिर श्याम को बुलाया;

दोनों ने साथ में रिकॉर्डिंग सुना.

सुनने के बाद,

“क्या लगता है श्याम?”

“सर?”

“सीमा की स्वीकारोक्ति के बारे में?”

“जैसी घटनाएँ उसने सुनाई उससे तो मुझे ये सही लगती है.”

“सही लगती है?!!”

“जी सर.”

“तुम्हारे कहने का मतलब ये हुआ कि उसने जो कुछ भी किया वो सब सही था? अंत में हुई दरिंदगी भी??”

“ओ.. न.. नहीं नहीं सर... मेरा मतलब था कि सीमा की स्वीकारोक्ति मुझे सही लगी.”

“पक्का...? यही मतलब था न तुम्हारा??”

“ज..जी सर.”

श्याम सकपका गया था बेचारा. बोलने में हुई एक छोटी सी गलती उसे ही गलत ठहराने लगी थी.

“तो अब आगे का क्या लगता है? क्या होना चाहिए?”

“स..सर.. मेरे हिसाब से तो... अब इसकी इस स्वीकारोक्ति को रजिस्टर में कलमबद्ध कर के इसे जेल में डाल देना चाहिए.”

सुन कर रॉय फुसफुसाते हुए बोला,

“जेल में तो समझो ये ऑलरेडी है.”

“स..सर.. आपने कुछ कहा?”

“अम.. नहीं.. कुछ नहीं..”

फिर थोड़ा रुक कर,

“जेल में डालने के बाद?”

“सर, जेल में डाल देने के बाद तो और कुछ रह नहीं जाता. केस तो क्लोज़ हो गया न?”

“हम्म.. राईट! तुम्हारे दृष्टिकोण से सीमा वाला मामला तो क्लोज़ हो गया.... पर गाँव वाले मामले का क्या?”

“स..सर... ग.. गाँव व..वाला मामला?”

“हाँ.. गाँव वाला मामला.”

“स.. सॉरी सर.. मैं स..समझा नहीं.”

“श्याम!!... ये भूलने की बीमारी तुम्हें कब से लगी? हाँ?!”

श्याम सहम कर सिर नीचे झुका लिया.

रॉय ने फिर समझाया,

“मिथुन को तो सीमा ने मारा है ये मामला सुलझ गया. पर गाँव में और भी जो हत्याएँ हो रही हैं? जो मर्डर्स हो रहे हैं? उनका क्या?”

“ओह. यस सर.. जी सर... वो सब तो अभी भी बाकी हैं.”

“इसलिए मैं कह रहा था कि सीमा वाले इस केस के बाद अपना सारा फोकस रुना, मीना और सुनीता की ओर कर दो. ध्यान रहे श्याम, गाँव में अब भी मौतें हो रही हैं और रुना अब भी संदिग्ध है. रुना के साथ साथ उसकी सहेली मीना पर भी नज़र रखना. दोनों काफ़ी अच्छी सहेली हैं. अगर गाँव में हो रही मौतों के साथ इनका किसी भी तरह का संबंध है तो एक पर नज़र रखने से दूसरे की भी कोई न कोई खबर निकल ही आएगी. और साथ में खबर रखना सुनीता का भी. वो भी मुख्य संदिग्ध है. कोई न कोई खबर ज़रूर मिलेगी उसके बारे में. मत भूलना कि उसे अक्सर ही वारदात वाले स्थानों के आस पास वारदात के पहले देखा गया है कई बार.”

“जी सर. समझ गया. आप निश्चिन्त रहें सर. मैं कड़ी से कड़ी निगरानी करवाऊंगा.”

“गुड. अब तुम जा सकते हो श्याम.”


श्याम कुर्सी से उठ कर रॉय को सलाम ठोका और कमरे से निकल गया.


उसके जाते ही रॉय ने एक सिगरेट सुलगाया और उस रिकॉर्डिंग को फिर से सुनने लगा.
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Good one
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great update keep posting
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मिथुन के कमरे से 15 हाथ दूर, जमीन में चार हाथ नीचे 'वो' मिली है। कहानी में सस्पेंस भी डाल दिया है। मिथुन का औजार काट कर डाला होगा क्या?अगर वो डाला है तो उसकी लाश के साथ गांव वालों ने नोटिस नहीं किया क्या?
मिथुन के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों का कम से कम एक एपिसोड तो बनता था। क्योंकि घृणा बाद में पनपी थी, पहले तो सीमा ही लेना चाहती थी।
राइटर को थोड़ा समय लेकर कहानी के साथ न्याय करना चाहिए।
अपडेट जल्दी देने की कृपा करें।
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(16-10-2020, 08:44 AM)bhavna Wrote: मिथुन के कमरे से 15 हाथ दूर, जमीन में चार हाथ नीचे 'वो' मिली है।  कहानी में सस्पेंस भी डाल दिया है। मिथुन का औजार काट कर डाला होगा क्या?अगर वो डाला है तो उसकी लाश  के साथ गांव वालों ने नोटिस नहीं किया क्या?
मिथुन के साथ बिताए गए अंतरंग क्षणों का कम से कम एक एपिसोड तो बनता था। क्योंकि घृणा बाद में पनपी थी, पहले तो सीमा ही लेना चाहती थी।
राइटर को थोड़ा समय लेकर कहानी के साथ न्याय करना चाहिए।
अपडेट जल्दी देने की कृपा करें।

यहाँ एक महिला सिक्युरिटी अफसरों के सामने अपनी आपबीती सुना रही है.  इसलिए उसका किसी के साथ हुए अंतरंग दृश्यों को चरणबद्ध तरीके से न दिखाने में ही समझदारी थी और कहानी की माँग भी.

अगला अपडेट कल.
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(17-10-2020, 10:15 PM)Dark Soul Wrote: यहाँ एक महिला सिक्युरिटी अफसरों के सामने अपनी आपबीती सुना रही है.  इसलिए उसका किसी के साथ हुए अंतरंग दृश्यों को चरणबद्ध तरीके से न दिखाने में ही समझदारी थी और कहानी की माँग भी.

अगला अपडेट कल.

आप सही कह रहेें है सर, पहले नही दे सकते थे वैसा एपिसोड ये कहानी की माँग थी। पर फ्लैशबैक में अभी भी कुुुछ तो ले सकते हो। 
खैर, अगला अंक जल्दी दीजिये।
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१८)

इधर,

बाबा की कुटिया में,

“घेतांक?!! ये घेतांक कौन है गुरूदेव?”

बाबा का ध्यान समाप्त होते ही उनके मुँह से यह नाम निकला जिसे सुनकर उनके पास अब तक उनके साथ ही ध्यानमुद्रा में बैठे गोपू और चांदू चौंक गए और तुरंत ही प्रश्न कर बैठे.

बाबा के चिंतित मुँह से स्वतः ही उत्तर निकला,

“एक तांत्रिक.. यहीं.. इसी गाँव का रहने वाला... आज से कुछ वर्ष पहले तक रहता था... अब इस गाँव को छोड़ चुका है.. कुछ दिन पहले ही छोड़ कर गया है.. कई तरह की तांत्रिक क्रियाओं में सिद्धहस्त एवं बुरी शक्तियों का स्वामी.”

“ग...गुरूदेव.. तो फिर... ये तांत्रिक......”

गोपू का प्रश्न पूरा होने से पहले ही बाबा बोल पड़े,

“ये सब... सब कुछ... उसी का किया धरा है.”

“अर्थात्.. गुरूदेव?”

“अर्थात् इस गाँव में जो कुछ भी हो रहा है; इन सब के मूल में यही दुष्ट तांत्रिक है.”

“ये दुष्ट तांत्रिक ही वास्तविक मूल है इन सब दुर्घटनाओं एवं हत्याओं के पीछे?”

“हाँ वत्स.”

“परन्तु... गुरूदेव.. आपने तो कहा था कि कोई चंडूलिका है इन सबके पीछे?”

“चंडूलिका इन सबके पीछे अवश्य है वत्स.. उसका हाथ भी है इन सब घटनाओं में.. परन्तु वास्तविक मूल तो यही घेतांक नामक तांत्रिक है. वो चंडूलिका सिद्ध तांत्रिक है. उसी ने चंडूलिका को इन सब में लगाया है.”

हरेक शब्द के साथ बाबा की चिंता की गहराईयाँ बढ़ती जा रही थीं.

इस बात को दोनों शिष्य भली भांति समझ रहे थे पर बाबा से अधिक प्रश्नोत्तर करना भी नहीं चाह रहे थे.. क्योंकि दोनों ही इस बात को बहुत अच्छे से समझ रहे थे की बाबा दिन-ब-दिन गाँव और गाँव वासियों के सुरक्षा को लेकर बहुत अधिक चिंतित होते जा रहे हैं.

“आपको क्या लगता है गुरूदेव; तांत्रिक के जाने के बाद भी ये चंडूलिका क्या स्वेच्छा से लोगों का शिकार कर रही है या तांत्रिक ने ही इसे इसी काम में लगा कर गाँव छोड़ कर चला गया है?”

“उस तांत्रिक घेतांक ने ही इसे इस घृणित कार्य में लगा छोड़ा है वत्स.. और ये मेरा अनुमान नहीं है.. मैं जानता हूँ की ऐसा ही हुआ है.”

“और ये शौमक और अवनी; गुरूदेव?”

“जीवन के अंतिम क्षणों में वे दोनों अत्यंत भयभीत, दुखी एवं आकांक्षी थे... जीवन जीने की इच्छा बहुत बलवती थी उस समय; पर जी न सके. इसलिए मरणोपरांत इनकी आत्माएँ प्रतिशोध की भावना से भरी हुई है.. और यही कारण है की ये दूसरी आम आत्माओं से अधिक बलवान भी हैं.. लेकिन फिर भी चंडूलिका जैसी एक बड़ी शक्ति के सामने दोनों ही नतमस्तक हैं. चूँकि ये दोनों ही गाँव वालों से प्रतिशोध लेना चाहते थे इसलिए चंडूलिका ने इन्हें अपने अधीन रख लिया और इन्हीं के माध्यम से गाँव वालों को लुभा कर या किसी और तरह से फँसा कर मार रही है.”

“इस सबसे चंडूलिका को क्या लाभ है, गुरूदेव?”

“मानव रक्त पी कर एवं स्तरीय स्तरीय आत्माओं को अपने अधीन कर वो और अधिक बलवती होना चाहती है. स्मरण रहे वत्स, चंडूलिका एक रानी चुड़ैल है. एक ऐसी शक्ति जिसे या तो भगवान या फिर कोई अत्यंत उच्च कोटि का सिद्ध पुरुष ही समाप्त या रोक सकता है.”

“आप भी तो एक अत्यंत ही उच्च कोटि के सिद्ध महात्मा हैं गुरूदेव; आप भी तो समाप्त कर सकते हैं इसे.”

“अवश्य ही कर सकता हूँ वत्स... (थोड़ा रुक कर)... लेकिन......”

“लेकिन क्या गुरूदेव?”

“गाँव में कुछेक और अनिष्ट होने की सम्भावना दिख रही है मुझे. ये मेरी कोरा आशंका नहीं अपितु विश्वास है क्योंकि गाँव के सभी लोग मेरा कहा, मेरा निर्देश नहीं मानेंगे... दुर्भाग्य है ऐसी जनता का, ऐसे लोगों का जो अपने हित की बातों को समय पर ना तो सुनते हैं और ना ही मानते हैं. जब भी थोड़ी पाबंदी लगाईं जाती है तो ये सोचते हैं की मानो उनका जीवन ही उनसे छीन लिया जा रहा है. इसी कारण छोटी सी लगने वाली संकट एक बड़ी भारी विपदा बन जाती है. और यही वो कारण है वत्स, जिससे की मैं आश्वस्त हूँ कि सभी मेरा निर्देश नहीं मानेंगे... और इसलिए कुछ अनिष्ट अवश्य होगा.”

कहते हुए बाबा का चेहरा इतनी दृढ़ता से सख्त हो गया था की गोपू और चांदू को आगे कुछ और कहने-पूछने का साहस नहीं हुआ. इस बात को लेकर दोनों ही दृढ़ निश्चित थे कि अगर गुरूदेव ने कुछ अनिष्ट होने की बात कही है तो वो अवश्य ही होगा.

उसी दिन....

रात नौ बजे के आस पास जब सारा गाँव हमेशा की तरह शांत हो गया था...

अँधेरे में कालू मस्ती में डूबा अपने घर की ओर जा रहा था.

रोज़ की तरह आज भी अपना दुकान बढ़ा कर (बंद कर) के वो आजकल अपने नए ठिकाने; केष्टो दादा के दुकान में जाने लगा था.. सिर्फ़ चाय-ब्रेड-बिस्कुट ही नहीं अपितु, दारू और अंडा भी उपलब्ध रहता था वहाँ. अब हाई ब्रांड या विदेशी किस्म के दारू तो मिलने से रहे... इसलिए या तो सस्ते वाला लोकल दारू ही मिलता था वहाँ या फिर ताड़ी (एक पेय पदार्थ जिसे नशे के लिए पिया जाता है).

दुकान से निकल कर काफ़ी दूर तक निकल आने के बाद एक जगह अचानक से कालू के साइकिल का ब्रेक अपनेआप लग गया.

नशे में धुत कालू को कुछ समझ नहीं आया.

वो तो साइकिल पर ही थोड़ी देर खड़ा रह कर झूमता रहा.. जब थोड़ा होश हुआ तब पेडल मारा.. साइकिल आगे चल पड़ी.

मुश्किल से दस कदम चला होगा कि फिर ब्रेक लगा.. अपने आप.

कालू को अब भी कोई होश नहीं था. नशे में उसे तो यही लग रहा था की वो साइकिल तो चला रहा है पर शायद स्पीड थोड़ी कम है.

जब करीब पन्द्रह मिनट के बाद भी सामने दिख रहा आम का पेड़ पीछे नहीं हुआ तब कालू को थोड़ा होश हुआ... जितना भी होश हुआ उसमें उसे इतना महसूस हो गया कि उसके साइकिल में कुछ गड़बड़ है.

वो बैठे बैठे ही थोड़ा नीचे झुक कर ब्रेक और चेन को चेक किया.

दोनों को ठीक पाने पर वो फिर पेडल पर दबाव डाला...

साइकिल आगे बढ़ी.

फिर रुकी...

इस बार कालू बुरी तरह से झुंझला उठा.

कई गंदी गालियाँ देता हुआ वह साइकिल से नीचे उतरा और ब्रेक व चेन चेक करने लगा. सब ठीक था.

नशे में उसे होश तो नहीं था.. पर घर समय पर पहुँचने के लिए उसे होश में आना और रहना बहुत ज़रूरी था. और अब जिस तरह की दिक्कतें हो रही हैं इससे तो वह ऐसे घर पहुँचने से रहा.

अभी वो अपने इस ताज़े समस्या के बारे में सोच ही रहा था कि तभी उसका एक और साथी वहाँ साइकिल चलाता हुआ आ पहुँचा. ये सुधीर था. वैसे तो बड़ा व्यवहार-कुशल था; पर चरित्र से एक नंबर का ठरकी लड़का था. पहले शहर में टिकट ब्लैक किया करता था.. अब किसी कारणवश शहर छोड़ कर गाँव में ही रहते हुए कोई न कोई काम किया करता था.

कुछ देर पहले इसने भी कालू के साथ ही दारू पिया था. अंडे अलग से.

कालू को बीच रास्ते; जोकि वास्तव में एक पतली पगडंडी है; में खड़ा देख कर उसने भी साइकिल कालू के पास आ कर रोक दिया. कालू की आँखें ठीक से खुल नहीं रही थी. खड़े खड़े ही झूम रहा था. उसकी ये हालत देख कर सुधीर हँस दिया... कारण, सुधीर ने कालू से ज्यादा पिया था लेकिन होश अभी भी दुरुस्त था.

बड़े बदतमीजी से हँसते हुए पूछा,

“क्या हुआ हीरो? ऐसे अँधेरे में बीच रास्ते में क्या कर रहा है?”

“क..कुछ न..नहीं.. चेन उ..उतर गई है.”

“किसकी?”

“किसकी म... मतलब... साला, साइकिल की उतरी ह.. है.”

“अच्छा.. तो चढ़ा नहीं पा रहा है क्या?”

“ह्म्म्म.. अ... अगर.. चढ़ा ल.. लेता तो अ...अभी तक... ग.. घ... घर नहीं चला जाता.”

कालू को सुधीर के बेतुके प्रश्नों पर बड़ा गुस्सा आ रहा था; और कोई समय होता और वो अगर नशे में नहीं होता तो शायद अच्छे से निपट लेता सुधीर से. पर करे भी क्या, उसे तो पता ही था कि सुधीर कैसा लड़का है. भले ही मज़े ले रहा है अभी... पर अगर सहायता की बात आई तो यही लड़का सबसे पहले आगे बढ़ कर आएगा.

सुधीर अगले दो मिनट तक कालू को देखता रहा.

समझ गया की अगर इसकी सहायता नहीं की गई अभी तो शायद रात भर यहीं रह जाएगा.

इसलिए वो अपने साइकिल से उतरा और कालू को एक ओर होने को बोल कर खुद उसके साइकिल की चेन चेक करने लगा. चेन देखते ही बोला,

“अबे बोकाचोदा, चेन तो बिल्कुल ठीक है. तुझे कहाँ से ये उतरा हुआ लग रहा है बे?”

कहते हुए वो उठ गया और साइकिल के दूसरे हिस्सों को देखने लगा किसी सम्भावित गड़बड़ी को देखने के लिए. कालू तब तक अपने बायीं ओर थोड़ी दूर पर स्थित एक पेड़ के पीछे मूतने चला गया था.

और इधर सुधीर कालू की साइकिल की जाँच परख कर रहा था.

पर ऐसा कुछ मिला नहीं.

अभी वो आगे कुछ सोचे या बोले; तभी उसे पायल की आवाज़ सुनाई दी. वो जल्दी पलट कर अपने पीछे देखा; जहाँ से वो और कालू आये थे.

पीछे देखते ही उसकी आँखें आश्चर्य से फ़ैल गयीं.

कुछ क्षणों के लिए उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि वो जो देख रहा है वो वास्तविक है या फिर उसे भी थोड़ी थोड़ी कर के चढ़नी शुरू हो गई है.

पीछे से एक बहुत ही सुन्दर महिला धीमे क़दमों से चलती हुई आ रही थी.

हालाँकि उसने घूंघट किया हुआ था परन्तु घूंघट पूरी तरह से चेहरे को ढक नहीं रही थी. बदन पर साड़ी बहुत ही अच्छे से फिट बैठ रही थी लेकिन सुधीर जैसे लड़के फिगर का अंदाज़ा किसी न किसी तरह से कर ही लेते हैं.

और सुधीर को वह वाकई भा गई.

बिना चेहरा देखे केवल शरीर पर कस कर फिट बैठते कपड़ों से फिगर का अनुमान लगा कर ही उसका दिमाग ख़राब होने लगा था और कमर के नीचे वाले हिस्से में हलचल होने लगी.

उस महिला ने एक बार बस एक क्षण के लिए नज़रें फेरा कर सुधीर की ओर देखी और फिर आगे चल पड़ी. जैसे ही वो सुधीर के बगल से गुजरी; सुधीर को एक बहुत ही मदमस्त कर देने वाला बहुत प्यारी सी सुगंध का आभास हुआ. आज से पहले कभी इतनी अच्छी सुगंध उसके नाक से कभी नहीं टकराई थी.

वो बरबस ही उसकी ओर आकर्षित होने लगा.

जब महिला थोड़ा ओर आगे बढ़ तब सुधीर को होश आया और तुरंत अपनी साइकिल लेकर उस महिला के पीछे चल दिया.

महिला के पास पहुँच कर अपनी साइकिल को धीरे करते हुए बोला,

“आप इसी गाँव की हैं?”

उसके इस प्रश्न पर महिला की ओर से कोई उत्तर न आया.

सुधीर ने फिर पूछा.

महिला फिर भी कुछ न बोली; केवल अपने सिर को थोड़ा नीचे कर ली.

तीसरी बार पूछे जाने पर धीमे और शरमाई स्वर में बोली,

“जी.”

उसकी आवाज़ शहद सी मीठी थी.

सुधीर को इतनी अच्छी लगी कि वो उससे और बातें करने की सोचने लगा.

इधर पेड़ के पीछे से कालू सुधीर की इन हरकतों को देख रहा था.. और नशे में ही मन ही मन हँसते हुए उसे गाली दे रहा था कि जहाँ नारी दिखी वहीँ जोगाड़ लगाना शुरू कर दिया कमीने ने.

कालू ने देखा की सुधीर और वो महिला कुछ कदम आपस में कुछ बातें करते हुए चले.. फिर रुक गए... कुछ और बातें हुईं... और अचानक से वो महिला सड़क की दूसरी ओर बेतरतीब उगी हुई झाड़ियों के पीछे चली गई.

सुधीर पीछे मुड़ कर देखा.. कालू अभी भी पेड़ के पीछे ही था. सुधीर को बस उसकी बीच पगडंडी पर खड़ी साइकिल दिखी. कुछ क्षण कालू की साइकिल को देख कर कुछ सोचता रहा.. फिर उन झाड़ियों की ओर देखा जिधर वो महिला अभी अभी गई.

कुछ पल और सोचने के बाद सुधीर भी अपनी साइकिल को उसी ओर ले कर बढ़ गया जिधर वो महिला गई थी.

करीब पाँच मिनट बीत गए.

सुधीर नहीं लौटा.

नशे में भी कालू को थोड़ी चिंता हुई.

जब पाँच मिनट और बीत गए और सुधीर फिर भी नहीं लौटा तब कालू ने जा कर देखने का सोचा की आखिर बात क्या है. अगर इन्हीं कुछ पलों में सुधीर ने उस महिला को पटा लिया है तो फिर ठीक है... नहीं तो मामला गड़बड़ है.

साइकिल बिना लिए ही कालू आगे बढ़ने लगा... धीमे चाल से.

झाड़ियों के पास जा कर उसने बहुत आहिस्ते से इधर उधर देखना शुरू किया. हालाँकि नशे में होने के कारण उसके द्वारा ये सब करना थोड़ा मुश्किल हो रहा था परन्तु इन सब में उसे एक अलग ही मज़ा आने लगा था अब तक.

जल्द ही उसे झाड़ियों की ही झुरमुठ में एक ओर कुछ हलचल होती दिखी. दूर के एक स्ट्रीट लाइट की धुंधली रौशनी में उस ओर देखने में थोड़ी आसानी हुई.

उन झाड़ियों से वो मुश्किल से ३ – ४ फीट की दूरी पर होगा की अचानक ही उसे एक मरदाना स्वर में ‘आर्र्ग्घघघघघर्घ’ सुनाई दिया.

ध्यान से ओर जब कालू ने देखा तो उसे वाकई बहुत ज़ोर की हैरानी हुई. इसलिए नहीं की उसने कुछ अलग देखा... बल्कि इसलिए की वो जो संदेह कर रहा था; वही सच हो गया.

उसने देखा कि सुधीर और वो महिला परस्पर आलिंगनबद्ध थे... दोनों कामातुर हो कर एक दूसरे का चुम्बन लिए जा रहे थे... इस बात से पूरी तरह बेखबर की अभी इस समय भी कोई आ कर शायद उन्हें देख सकता है.

सिर्फ़ यही नहीं... इतनी ही देर में सुधीर ने अपना जननांग उस महिला की योनि में प्रविष्ट करा चुका था तथा धीरे और लम्बे धक्के लगा रहा था. उस धुंधलके रौशनी में भी उस महिला के सुधीर के कमर के पास से ऊपर की ओर उठे उसके दोनों गोरे पैर बहुत अच्छे से दिख रहे थे.

महिला स्वयं भी पागलों की तरह सुधीर के चेहरे, गले और कंधे पे चुम्बन पर चुम्बन लिए जा रही थी और अपने हाथों को सुधीर के पूरे नंगे पीठ पर चला रही थी और रह रह के अपने लाल रंग के नेलपॉलिश से रंगे नाखूनों को उसके पीठ पर जहाँ तहां गड़ा देती.

सुधीर का भी इधर हालत ख़राब भी था और पागल भी. उस महिला का ब्लाउज तो उसने खोल दिया था पर शरीर से अलग नहीं किया. धक्के लगाते समय रह रह के वो भी कस कर उस महिला को अपने बाँहों में भर लेता था. उसने अपने हाथों को ब्लाउज के ऊपर से उसकी नंगी पीठ पर रगड़ना जारी रखा.

उसका मुँह उस महिला की क्लीवेज पर चला जाता और स्वतः ही उसके काँपते होंठ उसके क्लीवेज और स्तनों की मुलायम गोरी त्वचा से जा मिलते. उस मुलायम त्वचा से होंठों का स्पर्श होते ही दोनों ही लगभग एक साथ एक गहरी सिसकारी लेते और फिर सुधीर तुरंत ही उस पूरे अंश को चूमने – चाटने लग जाता.

काफ़ी देर तक ऐसा ही चलता रहा...

अचानक उस महिला ने एक ख़ास करवट ली और सुधीर के कानों में कुछ बोली.

जवाब में सुधीर मुस्कराते हुए धक्के लगाना छोड़ कर उठ बैठा और उसके ऐसा करते ही महिला उसके सामने उसके गोद में आ बैठी.

अब दोनों एक दूसरे की ओर सीधे देख सकते थे... महिला बिल्कुल सुधीर के कमर के ठीक नीचे बैठ गई थी... उसके जननांग के ठीक ऊपर.

कुछ क्षण एक दूसरे को काम दृष्टि से देखने के बाद झट से दोनों फिर से पागलों की तरह एक दूसरे को चूमने लगे. थोड़ी देर इसी तरह चूमते रहने के बाद वो महिला रुकी; पीछे की ओर झुक गई, लेकिन सुधीर ने उसे कमर से कस कर पकड़े रखा.

किसी हिंसक भूखे जानवर की मानिंद सुधीर आवाज़ निकालता हुआ फिर से झपट पड़ा सामने मुस्तैदी से खड़े – निमंत्रण देते दोनों गौर वर्ण चूचियों पर टूट पड़ा और एक एक को चूस चूस कर लाल करते हुए दूसरे चूची को बड़ी निर्दयता से मसलने लगता.

कालू ने जैसे ही उन गोरे स्तनद्वय पर गौर किया; उसका तो कंठ ही सूखने को आ गया. महिला की दोनों सफेद स्तनों को आज से पहले कभी उसने इतने उचित आकार के हल्के भूरे रंग के निपल्स के साथ नहीं देखा था.

इतने भरे, इतने पुष्ट इतने सुंदर आकार से बड़े बड़े.... उफ्फ्फ...!!

वो महिला बड़े आराम से, समय लेते हुए सुधीर के उस लौह अंग के ऊपर नीचे हो रही थी... और इधर सुधीर ने अपना मुंह उसके गोरे स्तनों पर रख करजीभ से ही उसे सहलाना शुरू कर दिया.

लेकिन जैसा की स्पष्ट था कि इतने सुंदर चूचियाँ मिलने पर कोई भी सिर्फ़ सहलाने तक ही सीमित नहीं रहने वाला... वही हुआ भी... सुधीर दोनों चूचियों के निप्पल को मुँह में भर कर ज़ोरों से आवाज़ करते हुए चूसने लगा और दोबारा उतनी ही निर्दयता से उन्हें मसलने लगा.

इसी तरह यह दृश्य अगले करीब आधे घंटे तक चलता रहा.

एक समय पर सुधीर अपने चरम पर पहुँच कर झड़ने ही वाला था कि उस औरत ने उसे रोक दिया..

सुधीर की गोद से उठ गई.

उसकी इस हरकत पर कालू और सुधीर दोनों ही बड़े आश्चर्यचकित हो गए.

क्या बात है? क्या करने वाली है ये?

अगले ही पल जो हुआ... उसके बारे में दोनों ने ही कोई कल्पना नहीं की थी.

औरत थोड़ा पीछे हट कर दोबारा बैठी... और बैठे बैठे ही पीछे होते हुए घोड़ी बन गई... और फिर कामातुर नेत्रों से सुधीर की ओर देखते हुए उसके जननांग को अपनी दायीं हाथ की हथेली में अच्छे से मुट्ठी बना कर पकड़ी और फिर एक भूखी शेरनी की तरह उस लौह अंग को लालसा भरी आँखों से देखने लगी. सुधीर की ओर क्षण भर देख कर; एक शैतानी मुस्कान होंठों पर लाते हुए वो उस अंग के मुंड पर हलके से अपनी जीभ फिराई.

उसकी वो लंबी जीभ देख कर कालू का दिमाग घूम गया.. कम से कम एक हथेली बराबर होगी वो जीभ!

वह जीभ बड़े प्यार से, धीरे धीरे सहलाते हुए बार बार उस जननांग के मुंड को छू रही थी और उसके प्रत्येक छूअन से सुधीर के पूरे शरीर में... अंग अंग में... एक कंपकंपी दौड़ जाती.

वो तो बेचारा समस्त तेज़... पूरा का पूरा वीर्य उस कोमल, गर्म योनि में उड़ेल देना चाहता था.. पर इस कमबख्त महिला ... ख़ूबसूरत महिला ने उसे ऐसा करने से मना करने के बाद अब उसके गुप्त अंग से इस प्रकार प्रेम जता रही थी मानो वर्षों से प्यासी रही हो.

उस औरत का प्रेम उस अंग पर धीरे धीरे बढ़ता ही जा रहा था. उसने सुधीर के जननांग की ऊपरी चमड़े से शुरू कर अंदरूनी त्वचा को चाटना शुरू कर दिया. उसके ऐसा करते ही सुधीर की एक तेज़ सिसकारी निकल गई. उसके इस कृत्य ने उसे असीम आनंद दिया.

सुधीर ज़मीन पर उगी बड़ी बड़ी घासों को कस कर पकड़ा और सिर ऊपर आसमान की ओर कर दिया.

जी भर के चाटने के बाद अब जी भर कर चूसने का दौर शुरू हुआ. पहले मुंड को १०-१२ मिनट तक कामाग्नि में जलती किसी नवयौवना की भांति चूसती रही.. और फिर उस पूरे के पूरे अंग को अपने मुँह में गायब करती चली गई.

जैसे जैसे जननांग उसके मुँह में घुसता जाता; सुधीर तो सुख के मारे तड़प उठता ही.. कालू को भी पता नहीं क्यों ऐसा सुख मिलता जैसे सुधीर को भी मिल रहा है.

हर बार महिला अपने जीभ के अग्र भाग से जननांग के नीचे से ऊपर तक अत्यधिक प्रेम में डूबे भावुक – कामुक कामसुख प्यासी प्रेयसी की भांति चाटती हुई आती और मुंड पर आते ही एक प्यारी सी चुम्बन दे कर पूरे अंग को मुँह में गायब कर लेती.

और फिर वो क्षण भी जल्दी ही आया जब सुधीर का मांसल अंग उस महिला की मुँह की गहराईयों में बहुत अंदर तक जाने लगा. उसके गले पर उभर आती नसें और आगे की ओर उबल पड़ती आँखें साफ बता देती कि ये महिला न सिर्फ़ सुधीर को डीप थ्रोट मुखमैथुन दे रही है; वरन इस क्रीड़ा में काफ़ी खेली – खिलाई खिलाड़ी है.

उस औरत की एक ओर कृत्य ने सुधीर के सुख की सीमाओं को सातवें आसमान पर पहुँचा दिया. वो औरत उसके अंग को पूरी तरह से अपने मुँह में तो भर ही रही थी... अब मुँह में घुसाने के साथ ही साथ जीभ से जननांग के निचले भाग को बड़े कामुक तरीके से सहला दे रही थी.

इस कृत्य ने चरम आनंद से सुधीर के शरीर के समस्त रोम रोम को खड़ा करने लगी. सुधीर के मुँह से आनंद की अधिकता के कारण ‘आह आह’ निकलने लगी.

इस रोमहर्षक आनंद ने सुधीर को अधिक देर तक मैदान ए जंग में टिकने न दिया...

वीर्यपात हुआ...

महिला के मुँह में ही...

दोनों ने ही सोचा की शायद वो गुस्सा करेगी, बिफर कर कुछ बोलेगी... पर नहीं...

ऐसा कुछ नहीं हुआ...

वरन, जो हुआ वो बिल्कुल उलट हुआ..

वो बड़े प्रेम से स्वाद ले ले कर समस्त वीर्य को पी गई... यहाँ तक की होंठों और जननांग से बह कर नीचे गिरते वीर्य को कुछ अंश और बूँदों तक को चाट गई.

उसके इस रूप को देख कर सुधीर और कालू; दोनों को ही आश्चर्य का ठिकाना न रहा. कोई औरत ऐसी भी हो सकती है... इस तरह से स्वाद ले कर कामसुख दे सकती है ये कभी नहीं सोचा था उन्होंने... सोचना क्या... इस तरह के विचार आधुनिक दुनियादारी से बेखबर दूर गाँव में बसने वाले इन युवकों के मन में कैसे व कहाँ से आयेंगे?

शरारती नज़रों से देखते हुए बड़े कामुक स्वर में सुधीर को बोली,

“कैसा लगा?”

सुधीर उसकी ओर मन्त्रमुग्ध सा देखता हुआ बोला,

“बहुत अच्छा...”

“बस, बहुत अच्छा?”

“सच कहूँ तो मुझे पता ही नहीं की इस अप्रतिम सुख का मैं किन सठीक शब्दों में विवरण दूँ.... तुम्हारी काम कुशलता का किन शब्दों में प्रशंसा करूँ?!”

सुधीर की इन बातों को सुन कर औरत खिलखिला कर हँस पड़ी. उसकी हँसी वातावरण में ऐसी गूंजी की मानो शरीर की कुल्फी ही जमा देगी.

हँसते हुए बोली,

“प्रशंसा के शब्दों के मोती आप अपने पास रखिए... मुझे तो बस वो दीजिए जिसका आपने कुछ देर पहले वादा किया था! याद है न आपको कि आपने क्या वादा किया था??”

“बिल्कुल.. मैंने जब आपसे ये सब के लिए कहा तब आप इस शर्त पर राज़ी हुई थी की ये सब करने के बाद आप मुझसे जो माँगेगी वो मुझे आपको देना होगा.”

ये सुनने के बाद वो औरत किसी भोली मासूम लड़की की तरह बोलने लगी,

“तो क्या आप तैयार हैं देने के लिए?”

“बिल्कुल!”

“पक्का?”

“हाँ.”

“सहमति दे रहे हैं न आप?”

“हाँ.. पर ये तो बताइए की आपको चाहिए क्या?”

“आपके प्राण!”

सुनते ही सुधीर सकबका गया.

“क.. क्या...??”

सुधीर को सकपका कर उसके चेहरे के रंग बदलते देख वो औरत एकबार फिर खिलखिला कर हँस पड़ी...

उसकी हँसी में एक खिंचाव तो था..पर खून जमा देने वाला भी था!

अचानक कालू ने जो देखा उससे तो उसका सारा नशा ही एक झटके में उड़ गया.

उसने देखा की उस धुंधले रौशनी में भी उस औरत की आँखें बहुत भयावह तरीके से चमकने लगी है. उसके आँखों की काली मोती धीरे धीरे सुर्ख लाल में बदलते हुए मानो जल रहे हैं... साथ ही आँखों का सफ़ेद अंश काला पड़ता जा रहा है.

सुधीर का तो डर के मारे गला ही सूख गया.. वो हड़बड़ा कर उठ कर भागने को मुश्किल से उठा ही था कि उस महिला ने सुधीर का एक पैर पकड़ कर एक ज़ोर का झटका देते हुए सुधीर को उसके उसी स्थान पर यथावत गिरा दिया.

उस महिला के हाथों के नाखून एकदम से बहुत बढ़ गए... और उतने ही तेज़ और नुकीले भी.

एक क्षण भी व्यर्थ न गंवाते हुए उसने दाएँ हाथ की तर्जनी ऊँगली की नाखून का एक ज़ोरदार वार करते हुए सुधीर के गले के बाएँ ओर से घुसा कर दाएँ ओर से निकाल दी.

सुधीर की आँखें गोल और बड़ी हो कर आगे की ओर उबल आने को हो पड़ी.

तर तर कर के रक्त बहने लगा.

पीड़ा से विह्वल सुधीर बेचारा कराह भी नहीं पा रहा था.

और वो औरत उसकी ये तड़प देख बहुत खुश हो गई.. होंठों पर एक बड़ी सी शैतानी मुस्कराहट आ गई. इस बड़ी मुस्कराहट के कारण उसके सामने के कुछ दांत दिखाई दिए जो बड़े भयावह रूप से बड़े और अद्भुत सफेदी लिए चमक रहे थे.

और तभी!!

एक तेज़ झटके से वो अपने नख सुधीर के गले से सामने की ओर निकाल ली और उसके इस कृत्य से सुधीर का गला सामने से बुरी तरह से फट गया. सुधीर अपने फटे गले को दोनों हाथों से पकड़ कर तड़पते हुए लेट गया और कुछ देर बिन पानी मछली की भांति तड़पते हुए ही मर गया.

वो औरत अब और भी भयानक रूप से हँसते हुए सुधीर के गले से बहते रक्त को अपने दोनों हथेलियों में भर कर रक्तपान करने लगी. बहुत देर तक रक्तपान करने के बाद वो बड़े आराम और कामुक ढंग से अंगड़ाई लेते हुए उठी और अपने कपड़ों को ठीक कर के झाड़ियों से निकल कर पगडंडी पर आगे की ओर बढ़ गई.

झाड़ियों से निकलते समय दूर स्ट्रीट लाइट और ऊपर चंद्रमा की धुंधली रौशनी उस औरत के चेहरे से टकरा कर जब उसके मुखरे को थोड़ा स्पष्ट किया तब उसे देख कर कालू को जो घोर आश्चर्य हुआ वो हज़ारों शब्दों में भी बता पाने योग्य नहीं था. चाहे जितने भी शब्द उठा कर कालू को दे दिए जाते; कालू फिर भी अपने जीवन के इस क्षण और इस आश्चर्य का वर्णन नहीं कर पाता.

बस एक ही शब्द ने ज़ोरों से धड़कते उसके ह्रदय के किसी कोने में किसी तरह से साँस लिया,

“रूना भाभी!!”
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मस्त अपडेट।
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बेहद शानदार कहानी है। लगे रहिये
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कोई ऐसी कहानियों में रुचि रखता है जिसमे किसी भोली भाली लड़की या आंटी की रुला रुला के जबर्दस्ती पेलाई होती है और लड़की/आंटी मजा नही लेती है बस रोती है और रहम की भीख मांगती है. पहले ऐसी कहानियां मिलती थी लेकिन अब एकदम बंद हो गयी है..एक टेलीग्राम ग्रुप बनाया है ऐसी कहानियों पे बात करने के लिए...जिन्हें पसंद है जॉइन जरूर करे (cuckolds जॉइन नही करे)

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१९)

[Image: 02-vampire-dion-mertzanidis.jpg]


“गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव... मैं जीना चाहता हूँ गुरूदेव.”

“शांत... शांत हो जाओ वत्स.. पहले शांत हो कर बैठो तो सही.”

बाबा जी ने डर से काँपते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए कहा. कालू बहुत डरा हुआ था. बुरी तरह काँप रहा था. होश उड़े हुए थे उसके. चेहरा सफ़ेद सा पड़ चुका था और पसीने से तर था.

सिर पर बाबा के हाथ का स्नेहमयी स्पर्श पा कर शांत होने का व्यर्थ प्रयास करने लगा कालू पर भय में रत्ती भर की भी कमी न आई.

पहले की अपेक्षा उसे अब थोड़ा शांत होता देख बाबा ने बहुत स्नेह से पूछा,

“वत्स.. अब बोलो.. क्या बात है?”

“ग..ग...ग...गुरु...गुरूदे... गुरूदेव... व..व..वो.. म..म..मार... मार देगी... मार डालेगी... म...मु..मुझे भी..”

“कौन मार देगी?”

बाबा ने स्नेहिल ढंग से ही पूछा परन्तु अब स्वयं को कालू की बातों में थोड़ा केन्द्रित भी कर लिया,

कालू पूर्ववत् काँपते हुए ही उत्तर दिया,

“न..नाम... न...नहीं बताऊंगा...”

“क्यों?”

“क...क्योंकि....क...क्यों...कि...”

“आगे बोलो वत्स... क्योंकि....??”

“क्योंकि... व.. वो... म..मुझे... म.. म.. मा... मार डा.. डालेगी... गुरूदेव.... म..मुझे बचा... ल...लीजिए... ग..गुरूदेव...”

अब की बार तो लगभग रो ही पड़ा कालू.

उसके सिर पर हाथ फेरते हुए बाबा ने बड़े अपनेपन से कहा,

“देखो वत्स.. अगर तुम नाम नहीं भी बताओगे... तो भी वो तुम्हें मार देगी... हैं न... क्योंकि उसका तो कदाचित लक्ष्य तो तुम अब बन ही गए हो... यदि नाम बता दोगे तो कदाचित मैं तुम्हारी कोई सहायता कर पाऊं. बोलो वत्स... कौन है वो जिसे तुम्हारे प्राण चाहिए?”

“भ.. भा... भाभी.”

“भाभी? कौन भाभी?”

“र..र.....”

“बोलो वत्स.. कौन भाभी?”

“र...रुना भाभी.”

“रुना भाभी??”

“ह... हा.. हाँ ग..ग.. गुरूदेव....”

“रुना भाभी.. अर्थात् गाँव की शिक्षिका?”

“ज.. जी.. गुरूदेव.. पहले ग... गाँव में पढ़ाती थ.. थी...”

“अब नहीं पढ़ाती?”

“पढ़ाती ह.. है.”

“अभी तो तुमने कहा कि वो पहले पढ़ाती थी?”

“अ.. अब.. शहर में... छ... छोटे ब...ब... बच्चों के कॉलेज में...”

“ओह.. अच्छा..!”

“ज.. जी.. ग.. गुरूदेव.”

एक क्षण रुक कर बाबा जी ने फिर पूछा,

“हम्म... अच्छा वत्स.. तुमने ये तो बता दिया की तुम्हें कौन मारना चाहती है.. अब ये तो बताओ की वो तुम्हें क्यों मारना चाहती है?”

“क....क.. क्यों... क्योंकि......”

“हाँ वत्स, बोलो... डरो नहीं.”

“क.. क्यों...कि... म.. मैंने उ...उसे मारते उ... उन्हें दे देख लिया थ.. था.”

“किसे मारते किसे देख लिया?”

“र.. रुना भाभी को दे.. देखा... स.. सुधीर को....मारते हुए.. अ... और.... ब.. बब्लू को भी.”

“बब्लू?”

“ज... जी.. स...सुधीर को मारने के अगले तीन र.. रात बाद बब्लू को भी मार दिया उन्होंने.”

“किसने? रुना भाभी ने?”

“जी गुरूदेव.”

“ओह्ह.”

कह कर बाबा जी चुप हो गए.

पूरा मामला तो उन्हें बहुत हद तक बहुत स्पष्ट तो था ही... बस ये नया काण्ड उन्हें थोड़ा परेशान कर दिया.

अगले कुछ मिनटों तक बाबा जी को कुछ न बोलते देख कर कालू ने रोते हुए उनके पैर पकड़ लिया,

“गुरूदेव.. गुरूदेव... मुझे बचा लीजिए गुरूदेव.. म.. मैं न... नहीं मरना... चाहता.. गुरूदेव.”

रोते बिलखते कालू के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा जी अत्यंत शांत व धीर-गम्भीर स्वर में बोले,

“अब जब हमारे पास आए हो तो हम तुम ऐसे ही कुछ नहीं होने देंगे. शांत हो जाओ.. रोना बंद करो.”

बाबा जी के कहने पर कालू ने धीरे धीरे रोना तो बंद किया पर सिसकियाँ अब भी चालू थीं.

इधर बाबा जी भी चुपचाप बैठे हुए थे...

उन्हें चिंतामग्न देख चांदू से न रहा गया. समीप आ कर पूछा,

“क्या बात है गुरूदेव? आपको किस चिंता ने इतना चिंतित कर दिया है?”

“अंह?!... ओह.. कुछ नहीं.” बाबा जी जैसे गहरी चिंता से बाहर आए.

कालू की ओर देखते हुए पूछा,

“तुम्हें रुना ने कब देखा था? सुधीर को मारते समय या बब्लू को?”

“सुधीर को म... मारते समय शायद... उन..उनको स.. संदेह... रहा ह... होगा की कोई उन्हें द.. दे.... देख र.. रहा है... पर बब्लू को म.. मारते समय... म.. मु... मुझे.... म.. मे... मेरी ओर देखते हुए ही उ.. उसे... मारी.”

“बब्लू को कैसे मारा उसने?”

“ग.. गर्दन... स... से रक्त... च..चूसते ह...हुए.”

“और?”

“और....??”

“मतलब फिर क्या किया उसने?”

“म.. मे...मेरी ओ.. ओर दे.. देख कर मुस्कराई अ... और चेहरा पोंछते हुए चली गई. उसकी वो मुस्कान और भयानक रूप... म.. मुझसे भ... भूले... नहीं भूलती... गुरूदेव.”

“क्या बब्लू को मारने से पहले... अ.. अच्छा छोड़ो... (गोपू की ओर देख कर बाबा ने एक विशेष संकेत किया जिसपे गोपू ने भी हाँ में सिर हिला कर स्वीकृति दिया)... ये बताओ कि क्या उसने तुम्हें कुछ कहा था जाने से पहले?”

“नहीं गुरूदेव.”

“अच्छे से याद है?”

“ज.. जी गुरूदेव.”

“ह्म्म्म.. कोई अनोखी बात... कोई भी ऐसी बात जो तुम्हें उसमें बिल्कुल ही अलग दिखा या लगा हो?”

“ग.. गुरु... देव.. रुना भाभी हत्याएँ कर रही हैं.... र.. रक्त पी रही हैं... इससे ब... बड़ा अलग और अ.. अविश्वसनीय बात और क्या होगा मेरे लिए.. या.. किसी के लिए भी.”

कालू का उत्तर सुन कर बाबा जी चुप हो गए.

सत्य भी है, जिसे समस्त ग्रामवासी हमेशा से एक सुसंस्कृत, शिक्षित व समाज को एक नूतन दिशा – पथ दिखाने वाली जानता – मानता आया हो; उनके लिए रुना का यह रूप वास्तव में ही बहुत ही अविश्वसनीय होगा.

कुछ सोच कर बाबा जी कालू को बोले,

“सुनो कालू, क्या तुमने इन घटनाओं की चर्चा किसी से की है अभी तक?”

“न.. नहीं गुरूदेव.”

“हम्म.. वाह! बहुत अच्छा. करना भी नहीं.”

“क.. क्यों गुरूदेव?”

“किसी से इस घटना की चर्चा जब तक तुम नहीं करोगे.. तब तक तुम सुरक्षित रहोगे.”

“सच में.. गुरूदेव?”

“बिल्कुल.”

“प.. पर.. वो मेरी... ओर....”

“अब और कोई प्रश्न नहीं वत्स, जाओ.. बहुत समय व्यतीत हो गया. अब लौट जाओ. और निश्चिन्त रहो.. जब तक तुम इन घटनाओं की चर्चा किसी से नहीं करोगे तब तक तुम पूरी तरह से सुरक्षित रहोगे. समझे?”

“ज.. जी.. गुरूदेव... आपकी जय हो...”

बोलते हुए कालू बाबा जी के चरणों में लोट गया. बाबा जी ने उसे अच्छे से सान्तवना और आशीष दिया.

उसके जाने से पहले बोले,

“पूजा-पाठ करते हो?”

“न... नहीं गुरूदेव.. कुछ विशेष नहीं करता.”

“ओह.. तब तो शरीर पर कोई कवच आदि भी धारण नहीं किए होगे?”

“क.. कवच.. गुरूदेव?”

“समझा. नहीं धारण किए हो.”

“न.. नहीं गुरूदेव... मैंने य... ये पहना है.”

“क्या.. दिखाओ.”

कालू ने गले में पहना एक छोटा सा ताबीज नुमा लॉकेट दिखाया बाबा जी को.

बाबा जी ने कुछ क्षण अच्छे से देखने के बाद बोले,

“कहाँ से मिला तुम्हें ये?”

“मिला??”

“हाँ.. मिला... ये तुम्हें मिला है कहीं से. तुम्हें किसी ने दिया नहीं है... है न?”

कालू लज्जा से सिर झुकाता हुआ बोला,

“जी गुरूदेव.”

“तो बताओ फिर.. कहाँ से मिला तुम्हें ये?”

“घर के पीछे.. हमारा जो पुआल घर है.. गायों का चारा जहाँ रखते हैं... वहीँ से.”

“वहाँ से?”

“जी गुरूदेव..”

“अच्छा... ठीक है.. इसे सदैव ही पहने रहना. अब तुम जाओ... तुम्हारा कल्याण हो.”

कालू ने एक बार फिर बाबा जी को प्रणाम किया और बाहर चला गया. उसके जाते ही बाबा जी ने गोपू को संकेत दिया. गोपू लपक कर कालू के पीछे पीछे गया.

कालू को पीछे से टोकते हुए गोपू बोला,

“कालू... सुनो..”

“कहिए.”

“एक और प्रश्न है जिसे गुरूदेव स्वयं नहीं पूछ सकते इसलिए मुझे कहा है तुमसे पूछने के लिए.”

“पूछिए... क्या पूछना चाहते हैं आप?”

“जिस दिन.. जिस समय बब्लू को रुना भाभी ने मारा था... तुम वहीँ थे?”

“जी.. था.”

“बहुत पहले से?”

“जी.”

“बब्लू को मारने से पहले रुना भाभी ने कुछ किया उसके साथ?”


इस प्रश्न पर कालू से तुरंत उत्तर देते नहीं बना. हिचक और संकोच से गोपू की ओर देखते हुए सिर हाँ में हिलाया.

“क्या किया था रुना भाभी ने?”

कालू चुप रहा. बेचारे को समझ में नहीं आ रहा था कि बोले तो आखिर कैसे बोले?

गोपू के द्वारा फिर से प्रश्न किए जाने और ज़ोर देने पर झिझकते हुए कहा,

“हाँ... उन दोनों में.....”

कालू की बात को काटते हुए गोपू बोला,

“सम्भोग हुआ था?”

“न.. न.. नहीं... स.. सम्भोग नहीं.. पर.. वैसा ही... कुछ... अ... अर्थात्... दो... दोनों अर्धनग्न अवश्य हो गए थे... परन्तु.... सम्भोग.... नहीं हुआ.... था.”

“ये सच बोल रहे हो न?”

कालू की ओर दृष्टि तीक्ष्ण करता हुआ गोपू बोला.

कालू थोड़ा सहम कर पर दृढ़ता से बोला,

“ज..जी.. बिल्कुल...”

“ह्म्म्म.. ठीक है... अब तुम जाओ.”

कालू अपनी साइकिल सम्भाला और जल्दी से वहाँ से विदा हो लिया.

कुटिया में घुसने के साथ ही गोपू बोल पड़ा,

“गुरूदेव... क्रीड़ा हुआ भी ... और नहीं भी.”

सुनकर बाबा जी गम्भीर स्वर में ‘ह्म्म्म’ कर के चुप रहे.

चांदू और गोपू; दोनों ने एक दूसरे की ओर देखा और फिर बाबा जी को देखते हुए उनके पास आ कर चरणों के समीप बैठ गए.

बाबा बोले,

“ये रुना नहीं है...”

“क्या?!!”

चांदू और गोपू अचम्भित से होते हुए बोल पड़े.


बाबा जी बोलते रहे,

“यदि ये रुना होती तो सदैव ही इस बात का बड़ी भली भांति ध्यान रखती की उसे कोई देख न ले. वो पकड़ी न जाए. पर यहाँ हो रहा है उल्टा. कोई उसे किसी को मारने से पहले प्रणय क्रीड़ा करते हुए देख रहा है इस बात से बहुत आनंदित होती है वो. कालू को मारने के बजाए उसकी ओर देख कर मुस्कराते हुए अपने आखेट का रक्त पीना... (थोड़ा रुक कर सिर हिलाते हुए)... नहीं... मैं निश्चित हूँ. ये रुना नहीं है.”

“तो क्या इसलिए आपने कालू को इस बात का चर्चा किसी से करने से मना किया गुरूदेव?”

“हाँ वत्स.. जब वो घटना का वर्णन कर रहा था.. तभी मुझे ये बात स्पष्ट हो गया था..”

“व.. वो कैसे गुरूदेव...?”

चांदू ने यह प्रश्न बड़े भोलेपन से किया.

बाबा जी दोनों शिष्यों की ओर देखते हुए मुस्कराए और फिर बोले,

“वो ऐसे की आज से करीब पाँच दिन पहले जब मैं ध्यानमग्न था तब मुझे अवनी की आत्मा से कुछ क्षणों के लिए साक्षात्कार होने का अवसर प्राप्त हुआ. मैंने उसे उसका मानव रूप दिखाने का निवेदन किया जिसे वो तुरंत ही मान गई और मुझे तभी की तभी अपना मानव रूप दिखाई. उसके जीवित रहते उसका जो मानव... नारी रूप था उसे देख कर मैं अचंभित रह गया. मुझे ये जान कर बड़ा आश्चर्य हुआ की इस चेहरे को मैंने पहले भी इसी गाँव में कहीं देखा है. अपना मानव नारी रूप दिखाने के तुरंत बाद ही अवनी चली गई. मैं उसे दोबारा बुला सकता था पर उसका यूँ ऐसे चले जाना इस बात का संकेत था कि उसे अभी कहीं और आवश्यक रूप से होना है.....”


चांदू बाबा जी के वाक्य का पूरा होने तक प्रतीक्षा नहीं कर सका और बड़ी अधीरता से पूछा बैठा,

“कहीं और..? कहाँ गुरूदेव..? क्या किसी और के पास होना चाहिए था उसे?”

चांदू के बालसुलभ व्यवहार को देख बाबा जी हँसते हुए बोले,

“हाँ वत्स.. उसके ऐसे व्यवहार से तो ऐसा ही लगा था.”

“तो क्या आप जानते हैं कि उसे कहाँ होना चाहिए था?”

“हाँ वत्स.”

“कहाँ गुरूदेव.. कृप्या बताईए.”

“चंडूलिका के पास!”

चंडूलिका का नाम सुन कर दोनों शिष्य एक क्षण के लिए सहम गए. सच कहा जाए तो दोनों को ही समझ में नहीं आया की इस बात पे क्या प्रतिक्रिया दी जाए.

कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद गोपू ने धीरे से कहा,

“गुरूदेव.. आप कह रहे थे की आपने अवनी के मानव नारी रूप को इसी गाँव में कहीं देखा है. क्या आपको इसका भी उत्तर मिल गया?”

“हाँ वत्स, मैंने इसी गाँव में देखा था उसे.”

गोपू ये पूछना चाह रहा कि ‘किसे देखा है आपने’.. पर गुरूदेव से एक के बाद एक इतने प्रश्न करना वो अपने सभ्य आचरण के प्रतिकूल मान कर न चाहते हुए भी चुप रहा. लेकिन उसकी ये उत्कंठा उसकी आँखों में जिज्ञासा लिए गुरूदेव की ओर बराबर बनी रही.

गुरु तो आखिर गुरु होते हैं. शिष्य के मनोभाव उन्होंने तुरंत ताड़ लिया.

बोले,

“इसी गाँव की शिक्षिका रह चुकी.... रुना!”

असीमित आश्चर्य का गुबार एकाएक दोनों के कंठों से विस्मित स्वरों के रूप में फूट पड़ा,

“क्या?!! रुना भाभी?!!”

“हाँ.. वही.”

“वही जिनके विषय में अभी कुछ देर पहले कालू बता रहा था??” गोपू पूछा.

बाबा जी ने उसे ऐसे देखा मानो उसी से कोई प्रश्न करने लगे हों.

गोपू को पलक झपकते ही अपनी भूल का आभास हुआ एवं सहमते हुए धीरे से कहा,

“नहीं... नहीं... कालू वाली रुना भाभी कोई और है.”

गोपू के चुप होते ही चांदू बोल पड़ा,

“परन्तु गुरूदेव.... ये अवनी और रुना भाभी...??”


“ह्म्म्म.. वत्स, इसे विधि का विधान कहो... या नियति का कोई चक्कर... आज से वर्षों पहले जो अवनी थी... ठीक वैसी ही रुना भी दिखने – सुनने में है. यहाँ तक की दोनों की कुंडली में कई तरह योग एवं गणना तक एक समान है. अपने योगबल से मैं जितना जान पाया.. उस अनुसार दोनों के न केवल चेहरे अपितु लंबाई और शरीर भी एक समान ही है... अंतर इतना है कि रुना का शरीर.... अं......”

गुरूदेव को वाक्य पूरा करने थोड़ी झिझक होते देख चांदू स्वयं ही बोल पड़ा,

“रुना जी का शरीर अवनी के शरीर के अपेक्षाकृत अधिक भरा हुआ है?”

“हाँ... यही बात. वैसे भी विवाह और संतानोत्पत्ति के इतने वर्ष बाद ऐसे परिवर्तन आना सामान्य बात है.”

“तो....??”

“तो अब यही वत्स की अब पूरा माजरा हमें या तो शौमक और अवनी दोनों बताएँगे या फिर चंडूलिका स्वयं!”

“चंडूलिका?”

“हाँ.. परन्तु लगता नहीं है की उसके साथ मेरा कोई सामना होगा... क्योंकि यदि ये सब कुछ... अर्थात् गाँव में जो कुछ भी हो रहा है... इन सबमें यदि चंडूलिका प्रत्यक्ष रूप से जुड़ी होती तो अभी तक ये गाँव आधा श्मशान बन चुका होता... अब रही बात तांत्रिक घेतांक की तो अब इस गाँव में नहीं है.. वो कहाँ है ये मैंने जानने का प्रयास नहीं किया... वो अब इस दुनिया में है भी या नहीं.. ये जानने में भी मेरी कोई रूचि नहीं है. रुचिकर एवं करने योग्य कार्य अभी के लिए यही है की इन ग्रामवासियों को कैसे बचाया जाए और शौमक और अवनी का कैसे उद्धार किया जाए.”

“अ... और गुरूदेव... आप कालू से कुछ कवच इत्यादि के बारे में पूछ रहे थे??” गोपू ने पूछा.

“हाँ वत्स.. तुमने कालू के गले में वो माला, बेहतर है उसे लॉकेट या ताबीज बोल दो; तो देखा ही होगा. वो उसका नहीं है. वो लॉकेट एक सिद्ध महात्मा का है जो कदाचित इस लॉकेट के वास्तविक धारक का गुरूदेव रहे होंगे. यदि ये लॉकेट कालू का ही होता तो रुना भाभी...या वो जो कोई भी है... उसके साथ कालू का यूँ आमना सामना नहीं होता. पर आमना सामना हुआ... इसका अर्थ ये हुआ की लॉकेट वास्तविक रूप से किसी ओर का है... जो कि अब कालू के पास है.. उसके गले में शोभायमान है... परन्तु शक्ति अभी भी वैसी की वैसी ही है. इसलिए वह नकारात्मक शक्ति कालू के आस पास नहीं फटक पा रही है.”

कहते हुए बाबा जी ने अपने दोनों शिष्यों की ओर देखा.

दोनों को ही तनिक उलझन में देख कर बोले,

“याद करो... कालू ने क्या क्या कहा था.. जब वो मूत्र त्यागने सुधीर से कुछ क़दमों से दूर हुआ, तभी वो रहस्यमयी महिला आई. फिर बब्लू के साथ भी वो था.. कुछ कदम चल कर उससे दूर हुआ नहीं की वो शक्ति बब्लू के पास आ पहुँची.”

“अर्थात्... गुरूदेव.. जब तक कालू उस लॉकेट को पहना हुआ है तब तक कोई भी नकारात्मक शक्ति न तो कालू के पास आ सकती है और न ही कालू जिनके साथ है; उनके पास.”

“बिल्कुल.”

“लेकिन... गुरूदेव... ये लॉकेट... कालू के घर के पीछे...?”

“जब शुभो की मृत्यु हुई तब मैंने तुम्हें उसके घर और आस पास जानकारी इकठ्ठा करने भेजा था... याद है?”

“ज..जी गुरूदेव.”

“उस दिन तुम लौट कर आए थे और कहा था कि मृत्यु वाले दिन ही सुबह सुबह शुभो कालू से मिलने उसके घर गया था... और उस समय कालू अपने घर के पीछे पुआल घर में था?”

“जी गुरूदेव.”

“तो बस... हो सकता है वहाँ उन दोनों में कोई कहा सुनी हुई हो... या हाथापाई... या किसी और तरीके से वह लॉकेट शुभो के गले से निकल गया और फलस्वरूप रात में वो मारा गया.”

“अर्थात्, उस शक्ति को पता चल चुका था की शुभो के गले में अब वो लॉकेट नहीं है?!” गोपू कुछ सोचता हुआ बोला.

“हाँ... यही संभव होता प्रतीत होता है... कदाचित वो उस पर दृष्टि जमाए हुए थी बहुत पहले से या... फिर... ये सब संयोग मात्र है.”

थोड़ी देर चुप रह कर बाबा जी फिर बोले,

“गोपू, अमावस्या कब है?”

दो क्षणों की गणना के तुरंत बाद ही गोपू बोला,

“आज से १२ दिन बाद गुरूदेव.”

बाबा जी ने हाथ बढ़ा कर पत्रिका माँगा. चांदू के द्वारा पत्रिका देते ही बाबा जी उसमें किसी चीज़ का बहुत ध्यानपूर्वक आंकलन एवं विश्लेषण करने लगे. फिर पत्रिका को एक ओर रखते हुए एक दीर्घ, गहरी साँस छोड़ते हुए बोले,

“ये अमावस्या ही उपयुक्त रहेगा.”

“वो क्या गुरूदेव?”


“वैसे तो अमावस्या वाले रात ऐसे कुछ योग बनते हैं की कुछ विशेष प्रकार के नकारात्मक शक्तियों को विशेष ऊर्जा प्राप्त होती है. परन्तु ये अमावस्या कुछ ऐसी है जिस दिन... पूरे २४ घंटे के लिए कुछ योग ऐसे बन रहे हैं जिसके कारण ऐसी ही विशेष प्रकार की शक्तियाँ अपेक्षाकृत थोड़ी सरलता से वश में आ सकती हैं. यद्यपि शक्तिशाली तो ये तब भी होंगी एवं कड़ा प्रतिरोध भी होगा इनकी ओर से... पर अब करना तो पड़ेगा ही... इसी विशेष दिन की प्रतीक्षा कर रहा था मैं इतने दिनों से.”

“किस बात की प्रतीक्षा गुरूदेव?” चांदू ने पूछा.

बाबा जी जप के लिए आसन बिछाते हुए दृढ़ गंभीर स्वर में बोले,

“एक निर्णायक लड़ाई की..! तुम दोनों तैयारियाँ शुरू कर दो.”
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(19-10-2020, 01:47 AM)bhavna Wrote: मस्त अपडेट।

धन्यवाद
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(20-10-2020, 02:09 PM)dark5670 Wrote: बेहद शानदार कहानी है। लगे रहिये

धन्यवाद.
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Behtareen story h, pehli story h kisi bhi forum ki jisko padhne me alag hi romanch mehsoos ho raha h
[+] 2 users Like Momhunter's post
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अत्यधिक रोचक मोड़ पर आ चुकी जा कहानी।
कृपया जल्दी ही अपडेट देंवे।
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२०)

अंतिम भाग

अ)

घोर अँधेरी रात....

हाथ को हाथ न सूझे...

घोर निस्तब्धता...

साथ चलते सह यात्री का आहट तो सुनाई दे पर स्वयं वो सह-यात्री ही दिखाई न दे...

तारे भी कुछ इस तरह टिमटिमा रहे थे मानो एक हल्के से संकेत की प्रतीक्षा कर रहे हों; संकेत का ‘स’ हुआ नहीं की तुरंत कहीं छुप जाए सारे के सारे.

रात्रि के इस भयावहता को बढ़ाने में सहायता के लिए रह रह कर पेड़ों से उल्लूओं के बोल और विभिन्न कीड़ों के बजबजाते स्वर चारों ओर से सुनाई दे रहे थे.

कुछ रात्रि अपने साथ ऐसे स्याहपन ले कर आते हैं जिसे साधारण जन सोचना तक पसंद नहीं करते हैं.

ऐसी ही एक रात्रि होती है अमावस्या की.

एक ऐसी रात्रि जिसके विषय में लोग व समाज न तो बातें करना पसंद करते हैं और न ही इसके बारे में ज्यादा कुछ जानते हैं. निःसंदेह ऐसे विषयों पर स्वयं की जानकारी से कहीं अधिक वर्षों से चली आ रही सुनी सुनाई बातों पर साधारण जन को अधिक विश्वास होता है.. और यदि सुनी सुनाई बातें केवल सुनने में ही हद से अधिक भयावह हो तो फ़िर आम लोगों का क्या दृष्टिकोण हो सकता है ये तो अपने आप में ही जगजाहिर हैं.

ऐसी ही रात्रियों में कुछ विरले रात्रि ऐसी भी होती है जोकि शुरू होते ही अपने साथ कई प्रकार की विशेषताएँ ले आती हैं.

विशेषताएँ इसलिए क्योंकि ये स्वयं ही होती हैं इस रात्रि की और इस रात्रि से संबंध रखने वालों की... इस तरह की रात्रियों की प्रतीक्षा करने वालों की... उन प्रतीक्षारत लोगों की भी जो

गाँव की यदि बात की जाए तो यहाँ के लोग तो बहुत समय पहले से ही शीघ्र सो जाने के आदि थे पर अब जो पिछले कुछ समय से गाँव में जिस प्रकार की घटनाएँ हो रही हैं; उस कारण संध्या काल में ही दुकान बढ़ा कर (बंद कर) सब के सब सात से साढ़े सात बजे तक अपने अपने घरों में घुस जाते हैं.

और जिस दिन अमावस्या हो.. उसपे भी ऐसी विशेष तिथि, ग्रह – नक्षत्र वाली अमावस्या... उस दिन तो सुबह से ही लोगों के मन मस्तिष्क में एक अलग ही आतंक होना तो बहुत सामान्य सी बात है.

आज ऐसी ही एक रात्रि है.

आठ बजते बजते ही सब खा पी कर सो गए.

पूरे गाँव में सन्नाटा पसर गया.

रात्रि के इसी भयावह वाले पलों में गाँव से निकल कर उससे सटे वन की ओर पाँच जोड़ी पैर तेज़ी और सावधानी से बढ़े जा रहे थे.

तीन तो अपने ही बाबा जी और उनके दो शिष्य चांदू और गोपू हैं.. और बाकी दो बाबा जी के वरिष्ठ सहयोगी हैं जो आज ही के दिन बाहर से आए थे. ये दोनों भी कई प्रकार की सिद्धियाँ रखते हैं जोकि आज की रात काफ़ी काम देने वाली है.

आज की रात एक ऐसे काम के लिए... एक ऐसी प्रक्रिया के लिए... जिसकी भयावहता का न तो कोई सीमा है और न ही कोई अनुमान.

सभी के कदम तेज़ी से बढ़ते जा रहे हैं.

एक निर्दिष्ट स्थान के लिए.

सभी के चेहरे दृढ़ संकल्पता का साक्ष्य लिए थे.

सबसे आगे गोपू और चांदू हाथों में मशाल लिए चल रहे थे.

बीच में बाबा जी मंत्रजाप करते हुए चल रहे थे और पीछे पूरी सतर्कता के साथ मंत्रजाप करते हुए हाथ में मशाल थामे कदम बढ़ाए जा रहे थे बाबा जी के दोनों नए सहयोगी.

ये एक संकरा सा रास्ता था! दोनों तरफ नागफनी ने विकराल रूप धारण कर रखा था, लेकिन उसके खिलते हुए लाल और पीले फूलों ने उसकी कर्कशता को भी हर लिया था! बहुत सुन्दर फूल थे, बड़े बड़े! अमरबेल आदि ने पेड़ों पर अपनी सत्ता कायम कर रखी थी! मकड़ियों ने भी अपने स्वर्ग को क्या खूब सजाया था अपने जालों से! ऊंचाई पर लगे बड़े बड़े जाले!


शीघ्र ही वे पाँचों एक संकरा सा पथ से होते हुए उस निर्दिष्ट स्थान पर पहुँच गए. हालाँकि उस पथ को पार करने में भी बहुत कठिनाई आई. दोनों ओर से नागफनियों ने विकराल रूप धारण कर रखा था.. आवागमन के मार्ग पर झुक आए दोनों ओर से कई पेड़ों के टहनियों से बचते बचाते, जंगली बड़ी बड़ी मकड़ियों के सुंदर व विशाल जालों से स्वयं को दूर रखते हुए सब आगे बढ़ते गए.

आगे... ठीक उसी स्थान पर पहुँचे सब के सब जहाँ उन्हें पहुँचना था.

एक विशाल पेड़.. डाल, टहनियाँ उसकी दूर दूर तक फैली हुईं हैं. पत्तों के आकार भी एक सामान्य मनुष्य के हथेली से भी बड़े.




[Image: Banyan.jpg]


पेड़ के जात को जान पाना रात के इस अँधेरे में, भले ही हाथों में जलते मशालें हों; दुष्कर कार्य प्रतीत हो रहा था. वैसे भी अभी इस पेड़ के सामने पहुँचे ये पाँच आगंतुक इस पेड़ के जात - प्रजाति, प्रकार, इत्यादि जानने के इच्छुक तो बिल्कुल नहीं थे.

कुछ सफ़ेद फूल भी निकले थे वहाँ, जो निश्चय ही दिन के उजाले में एक अलग ही खूबसूरती दिखा रहे होते!

सभी ने बहुत अच्छे से उस वातावरण को देखते समझते हुए मन ही मन उसका एक बढ़िया अवलोकन व आंकलन किया. आसपास कुछ दूरी पर कई तरह के वृक्षों के जमावड़े थे. जैसे की, आम, पपीते, अमरुद, बेल, बेर, आंवले, बरगद इत्यादि सभी थे वहाँ. मशालों से उठती लपटों में नज़र आती बरगद और बेलों ने क्या खूब यौवन धारण किया था!

अद्भुत!

बाबा जी ने मन ही मन वहाँ के वातावरण की प्रशंसा करते हुए अपने सामने सर उठा कर तन कर खड़े उस पेड़ को देखते हुए सोचा,

‘यदि इस पेड़ के साथ वो दुर्भाग्यपूर्ण दुर्घटना न जुड़ी होती तो कदाचित प्रायः दिन के उजाले में गाँव के बच्चे, बूढ़े और महिलाएँ अवश्य ही इस स्थान पर आ कर हर्षित – आनंदित होते.

इस घोर अन्धकार रात्रि में, मशालों से होती रौशनी में यदि ये पूरा परिदृश्य इतना सुंदर लग सकता है तो फिर सूर्यदेवता की रेश्मी किरणों की उपस्थिति में कैसा दिखता होगा.’

“गुरूदेव... अब??”

साथ आए नए सहयोगी में से एक ने दबे स्वर में पूछा.

परिदृश्य में खोए बाबा जी की तंद्रा टूटी..

आगे बढ़ कर अच्छे से एकबार फिर पूरे स्थान को देखा.

ऊँगलियों पर कुछ गणना की...

उसी निर्दिष्ट पेड़ के सामने पहुँचे.

फिर चारों दिशाओं की ओर मुँह करके कुछ क्षणों तक हाथ जोड़ कर मंत्रपाठ करते हुए प्रार्थना करते रहे.

उसके बाद चांदू की ओर देख कर एक संकेत दिया...

चांदू शीघ्रता दिखाते हुए अपने कंधे पर लटकते झोले में से एक मुड़ा हुआ कपड़ा निकाला और उस कपड़े के अंदर रखे एक आसन को निकाल कर बाबा जी की ओर बढ़ा.

बाबा जी ने गोपू को भी एक संकेत किया.

गोपू उनके पास पहुँचा.

बाबा जी ने शांत ढंग से पूछा,

“सुबह यहीं इसी स्थान को साफ़ किया था ना?”

गोपू ने हाँ में सिर हिलाया.

बाबा जी ने उसे एकबार और उस स्थान को झाड़ देने का आदेश दिया.

गोपू ने तुरंत उन मशालों की रौशनी में बाबा जी के दिखाए उस स्थान को ऊपर – ऊपर से हल्के से साफ़ किया.

तत्पश्चात बाबा ने उस स्थान पर चांदू से आसन ले कर बिछा दिया और एक कमंडल में से हथेली में जल ले कर उस आसन से तीन फीट की दूरी माप कर आसन के चारों ओर एक गोल घेरा बनाते हुए मंत्रजाप करते हुए जल डाला.

कुछ क्षण हाथ जोड़ कर प्रार्थना किया और फिर बैठ गए आसन पर.

कुछ क्षण और उन्होंने मंत्रजाप किया.

इतना कर के उन्होंने अपने शिष्यों की ओर देखा.

दोनों शिष्य जल्दी जल्दी बाबा जी के पूर्व निर्देशानुसार अपने साथ लाए झोलों में से भिन्न भिन्न प्रकार के तंत्र – मंत्र – यंत्र के सभी सामान निकाल निकाल कर रखने व सजाने लगे.

एक सीधी, आमने सामने की तेज़ टक्कर के लिए ये बहुत आवश्यक होता है कि आप अपनी पूरी तैयारी के साथ हों. इसलिए बाबा जी भी पूरी सजगता के साथ अपने शिष्यों द्वारा की जा रही तैयारी पर एक तीक्ष्ण दृष्टि जमाए हुए थे.

ये तैयारी थी एक गूढ़ अनुष्ठान के लिए... जो दैवीय भी होगा और घातक भी.

अनुष्ठान का शुभ मुहूर्त अब से कुछ देर बाद शुरू होने वाला था.

दोनों नए सहयोगियों ने बाबा जी की ही तरह जल से गोल घेरा बना कर अपने अपने लिए आसन बिछाए और उसपे बैठते ही मंत्रजाप प्रारंभ कर दिया.

दोनों शिष्यों ने भी प्राण रक्षा कवच का स्तोत्र पाठ करते हुए बाबा जी के स्थान से थोड़ा पीछे अपने लिए आसन बिछा कर उसपे बैठ गए. मशालों को पहले ही साथ लाए चार बांस के साथ बाँध कर उन्हें चार कोनों पर गड्ढे खोद कर गाड़ दिए गए थे.

दो लालटेनों को भी हल्के आंच पर जलता रख दिया था गोपू ने.

कुछ ही देर में वहाँ उस स्थान पर, उस वातावरण में केवल उन पाँचों के मुख से एक लय में निकलते मंत्रोच्चारण ही गूँज रहे थे... धीमे आवाज़ में.

कुछ समय ऐसे ही बीता.

मंत्रोच्चारण के स्वर धीरे धीरे अपनी गति पकड़ते हुए अब तक थोड़ी तेज़ हो चुकी बहती हवा के कारण उस निर्जन वातावरण में गूँजते हुए दूर दूर तक फैलने लगे.

कुछ समय बीतने के पश्चात गोपू और चांदू ने मंत्रोच्चारण के साथ साथ अपने साथ लाए एक विशेष कटोरे नुमा पीतल मिश्रित किसी अन्य धातु से बने उस बर्तन को वाद्ययंत्र की भांति बजाने लगे.

समय बीतने के साथ साथ मंत्रोच्चारण और वाद्ययंत्रों से निकलने वाली ध्वनियाँ तेज़ होती हवा के साथ दूर का सफ़र तय करते हुए नदी के तट तक पहुँच गए.

ध्वनियों का नदी के लहरों से टकराते ही एक भिन्न हलचल होने लगी उनमें; विशेष कर नदी के दक्षिणी दिशा में. कुछ ऐसा मानो कोई सोया हुआ अपने आसपास होती गतिविधियों के कारण धीरे धीरे नींद से जाग रहा हो.

बाबा जी, उनके शिष्यों और सहयोगियों के मंत्रपाठ में भी शनैः शनैः तीक्ष्णता बढ़ती जा रही थी. हर मंत्र का हरेक शब्द... यहाँ तक की उन शब्दों में प्रयुक्त होने वाले मात्रा तक थोड़ा थोड़ा करके एक भीषण अलौकिक व दैवीय ऊर्जा को जन्म दे रही थी.

नदी के लहरों में हलचल बढ़ने के साथ साथ बाबा जी के सामने स्थित पेड़ में भी; विशेष कर उसके पत्तियों में हलचल होने लगी. सूखी पत्तियाँ एक एक कर के नीचे गिरने लगीं.



मानो रात्रि के इस पहर में गहरी निद्रा में अब तक सोया हुआ वह पेड़ भी अंगड़ाईयाँ लेते हुए जाग रहा हो... और सूखी पत्तियाँ अंदर होते इसी करवट के परिणामस्वरूप डालियों से अलग हो कर नीचे गिर रही हैं.

बीच बीच में एक अजीब सी हल्की... दबी सी आवाज़ आ रही थी दूर कहीं से... हवाओं के साथ बहते हुए...

आवाज़ केवल बाबा जी की ही कानों से टकराई...

प्रश्न स्वयमेव ही कौंधा उनके मन में,

‘अरे... एक आवाज़ आ रही है न?! ये आवाज़.... किसकी....’

प्रश्न उनका पूरा होने से पहले ही दोबारा सुनाई दी वही आवाज़...

‘अरे... ये तो.... नहीं.. नहीं.... ये एक नहीं... वरन दो आवाजें हैं..!!’

बाबा जी ने अपना पूरा ध्यान केन्द्रित किया उस आवाज़ पर...

ऐसा करते ही अगले ही क्षण चौंक उठे;

क्योंकि आवाज़ एक नहीं.... वाकई दो आवाजें थीं... एक मर्दाना.. दूसरा जनाना..

मर्द दुःख, तड़प और पीड़ा की मार से मानो रो रहा हो... और.. जनाना; असीम आनंद की हँसी हँस रही हो... परन्तु इस जनाना की आवाज़ बहुत ही भिन्न है... अलग हट कर... बात क्या है...

‘कौन हो सकते हैं इन दो आवाजों के स्वामी?’

मन मस्तिष्क में चिंता लिए बाबा जी ने अपना कार्य जारी रखा...


और इधर,

लगभग एक साथ ही, अपने अपने घरों में, अपने अपने कमरों में गहरी नींद सोए देबू और रुना की आँखें एक साथ खुल गयीं.....

यदि कोई उस समय इनके पास खड़ा इन्हें देख रहा होता तो शायद इनके आँखें खुलते ही डर से मर गया होता.

क्योंकि दोनों की ही आँखों की पुतलियों के रंग एकदम से बदले हुए थे!

देबू की पुतलियाँ हल्की पीली – लाल मिश्रित रंग की जबकि रुना की हल्की नीली मिश्रित हरी...!

एक झटके से रुना अपने बिस्तर पर उठ बैठी...

आँखें घोर आश्चर्य से बड़ी बड़ी और गोल हो गयी थी... उसने पलट कर बगल में सोए अपने पति की ओर देखी...

नबीन बाबू घोड़े बेच कर सोने में व्यस्त थे..


रुना अपनी उन्हीं जलती आँखों से नबीन बाबू को देखती हुई उन्हें बिना छूए उनके सिर के ऊपर एक बार हाथ फिराई और फ़िर बिस्तर से उठ कर अपने कमरे से बाहर निकल गयी.....
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(20-10-2020, 11:41 PM)bhavna Wrote: अत्यधिक रोचक मोड़ पर आ चुकी जा कहानी।
कृपया जल्दी ही अपडेट देंवे।

धन्यवाद.
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(20-10-2020, 11:35 PM)Momhunter Wrote: Behtareen story h, pehli story h kisi bhi forum ki jisko padhne me alag hi romanch mehsoos ho raha h

इतनी अच्छी प्रशंसा के लिए आपका बहुत बहुत धन्यवाद.     Smile     banana
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Bahut shandaar.....badi hi rochak kahaani hai ye...
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