22-08-2020, 11:43 PM
कहानी को आगे बढाईये जनाब। ऐसे विलंब करेंगे तो तारतम्य टूट जाने से कहानी का मज़ा चला जाता है।
Adultery नदी का रहस्य
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22-08-2020, 11:43 PM
कहानी को आगे बढाईये जनाब। ऐसे विलंब करेंगे तो तारतम्य टूट जाने से कहानी का मज़ा चला जाता है।
23-08-2020, 08:35 AM
Dark soul भाई एक बात कहनी है
कहानी को यूं समेटने की जल्दी मत करो बाबा को मंत्र पढवाक२ बाकी आप जेसा उचित समझे रूना भाभी के थोडे और सेशन लगवा दो तो मजा आए
23-08-2020, 12:42 PM
24-08-2020, 06:17 AM
रूना भाभी ने नई फोटो भेजी है देखकर मुठ मार लो
19-09-2020, 10:19 PM
१३)
बिस्वास जी अपने कदम जल्दी चला रहे थे. उनको जल्दी अपने घर पहुँचना था क्योंकि दोपहर को अगर एकाध घंटे की नींद न ले तो उनको बदहजमी होने लगती है... तबियत खराब होने लगता है. अभी कुछ दूर, यही कोई आधा किलोमीटर चले होंगे कि उन्हें अचानक से एक अंजाना भय सताने लगा. लोग बाग़ तो फ़िलहाल अभी भी सड़कों पर हैं पर संख्या बहुत कम है. और जितने भी हैं; सब के सब कहीं न कहीं जल्द से जल्द जाने की होड़ में हैं. बात भी सही है. भला कौन इस सूरज चढ़े दोपहरी में बाहर सड़कों पर खुला घूमे. मन ही मन खुद को इतना विलम्ब होने का कारण मानते व कोसते हुए बिस्वास जी तेज़ कदमों में और तेज़ी लाते हुए आगे बढ़ते रहे. चलते चलते वो एक ऐसे स्थान पर पहुँचे जो सुनसान या वीरान तो नहीं है पर दिन और देर शाम को अक्सर वो स्थान मनुष्य अथवा जीव जंतुओं से रहित हो जाया करता है. बिस्वास जी डरते हुए आगे बढ़ने लगे. डरने का कोई विशेष कारण नहीं था और न ही इससे पहले कभी उनको डर लगा था पर न जाने क्यों आज डर के मारे उनका पूरा शरीर ऐसे काँप रहा था जैसे घनघोर आँधी में कोई सूखा पत्ता. उनके तेज़ कदम अब धीरे हो गए. धीरे क्या हुए... अचानक से उठाना ही बंद हो गए. बहुत कठिनाई से उनको एक एक पग आगे रखना पड़ रहा था. चार पग ही आगे बढ़ पाए थे बिस्वास जी कि तभी उन्हें आस पास के झाड़ियों में और पेड़ों के नीचे गिरे सूखे पत्तों की चरमराहट सुनाई दी. पलट कर आवाज़ वाली दिशा की ओर देखा. जहाँ तक दृष्टि जा सकती थी... वहाँ तक देखा... पर संदेहास्पद कुछ भी दिखाई नहीं दिया. निश्चित हुए ज़रूर पर धड़कनें तेज़ हो गयीं. कुछ अनिष्ट होने का भय एक बार फिर से उनके मन मस्तिष्क में छाने लगा. फिर आगे बढ़ना शुरू किया उन्होंने... एक एक पग सावधानी और आहिस्ते से रखते हुए. बिल्कुल ऐसे जैसे की वो धरती माता को कोई कष्ट नहीं देना चाहते हैं. ऐसे ही चलते हुए उन्होंने यही कोई १० – १२ कदम चल लिया. धड़कनें अब भी तेज़ थी. सिर के दोनों ओर से पसीना बहते हुए दोनों कान के साइड से नीचे चला गया. पहले भी कई बार उन्होंने इस तरह का वातावरण झेला है... पर इस तरह से छक्के छुड़ा देने वाली स्थिति पहले कभी नहीं आई थी उनके सामने. दो पग और आगे बढ़ते ही उन्हें फिर वैसी ही एक सरसराने की आवाज़ सुनाई दी. बिस्वास जी तुरंत सिर उठा कर ऊपर पेड़ों की ओर देखा. पेड़ थे तो सही... पर बहुत अधिक संख्या में नहीं... लेकिन जितने भी थे; ऐसे वातावरण में भय में कई गुणा वृद्धि कर देने वाले थे. कुछेक पेड़ तो ऐसे भी थे जिनकी टहनियाँ पत्तों सहित इस तरह से फैले हुए थे मानो वो सूरज की रौशनी को नीचे धरती पर आने ही नहीं देना चाहती हो. अन्य समय में ये पथिकों के लिए; यहाँ तक की कई बार बिस्वास जी के लिए भी गर्मी के दिनों में घनघोर छाया प्रदान कर वरदान साबित हुई है लेकिन आज यही ऐसे पेड़ बिस्वास जी को भयावह और प्राणघातक लग रहे हैं. पेड़ों के झुरमुठों का निरीक्षण करते हुए आगे बढ़ते बिस्वास जी को किसी के पदचाप सुनाई दिए. और केवल पदचाप ही नहीं; कुछ और भी सुनाई दिया उनको पर वो पूरी तरह से निश्चित नहीं थे. अपने आसपास और ऊपर की ओर ध्यान रखते हुए बिस्वास जी आगे बढ़ने के लिए जैसे ही फिर एक पग आगे रखा तभी उन्हें फिर वही आवाज़ सुनाई दी. अब बिस्वास जी निश्चित थे... पदचाप तो है ही... साथ ही घुँघरूओं की भी आवाज़ है! कोई और समय होता तो शायद यही ध्वनि उन्हें अत्यंत कर्णप्रिय लगी होती... या आयु के जिस पड़ाव पर वो हैं कदाचित ऐसे ध्वनियों पर ध्यान ही नहीं देते... परन्तु आज का ये वातावरण, निर्जन पथ, अकेले वो और उस पर भी आस पास से ऐसे आवाजों का आना; निश्चित ही किसी के भी मन को भयाक्रांत करने के लिए पर्याप्त हैं. ऐसा तीन से चार बार हुआ. बिस्वास जी चार पग आगे बढ़ते... वही पदचाप सुनाई देती... वही घुँघरूओं की आवाज़ सुनाई देती... और साथ ही पत्तियों की चरमराहट और हवाओं में सरसराहट. डरते हुए ही सही पर अंततः बिस्वास जी ने धीमे स्वर में बोलना प्रारंभ किया, “मैं नहीं डरता... मेरा भगवान मेरे साथ है..... मैं नहीं डरता... मेरे गुरु मेरे साथ है.... मैं नहीं डरता... मुझे नहीं डरना....” दो ही बार उन्होंने ऐसा कहा था कि अचानक से एक तेज़ हवा चली और साथ में धूल का एक आँधी से चला. दो मिनट में ही आँधी शांत भी हो गई. अपनी आँखों को मलते हुए बिस्वास जी आगे अपना रास्ता देखने की कोशिश कर ही रहे कि तभी उनके कानों से एक आवाज़ आ टकराई, “बिsssस्वाsssसssssss..!!” बेहद ठंड अंदाज़ में ये स्वर बिस्वास के कानों से टकराई. बिस्वास जी हड़बड़ा गए. अपना नाम ऐसे अंदाज़ में सुनना उनको वाकई हजम नहीं हुआ और अब उनका डर अपने सभी सीमा को पार कर चुका था. अपने गुरु अर्थात् बाबा जी का नाम लिया उन्होंने और बहुत मुश्किल से अपना एक पैर आगे बढ़ाया. ऐसा करते ही एक बार फिर वही धूल भरी आँधी उड़ी और बिस्वास जी को कुछ भी देखना असंभव हो गया. आँधी जब थमी तब बिस्वास जी ने बहुत धीरे से आँखें खोला. सामने दूर दूर तक धूल ही धूल उड़ रही थी. जब धूल थोड़ी कम हुई तब बिस्वास जी ने सामने जो देखा उसे देख कर उन्हें बिल्कुल भी विश्वास नहीं हुआ. उन्होंने तुरंत अपना चश्मा उतार कर उसे अच्छे से पोंछा और फिर आँखों पर चढ़ा कर सामने की ओर बहुत ध्यान से देखा. उनसे थोड़ी दूर पर, एक बड़े से छायादार पेड़ के नीचे एक अतिसुन्दर रमणी खड़ी थी. अपने समय के बड़े रसिक श्रेणी के व्यक्ति रह चुके बिस्वास जी ने इतनी दूरी से भी उस नवयौवना के शारीरिक ढांचे को बखूबी देख लिया. गौर व बादामी वर्ण मिश्रित शरीर, हिरणी जैसी बड़ी बड़ी आँखें... पके पपीते समान तने हुए और पुष्ट स्तन द्वय, लम्बे अधखुले बाल जो कदाचित कमर तक आ रही थी, कोमल कंधे, हाथ और पैर. सच में बहुत सांचे में ढला बदन था उसका... उन्नत वक्षस्थल, पतली कमर और इन दोनों से अपेक्षाकृत थोड़ा अधिक फैला हुआ नितम्ब.... रह रह कर बिस्वास जी के मन मस्तिष्क में यौन प्रेम जगाने लगी. बिस्वास जी का गला सूखने लगा. आयु के बहत्तरवें पड़ाव पर ऐसे एक दिन में, ऐसे समय में ऐसा कुछ देखने को मिलेगा; यह तो उन्होंने भूल से भी कभी नहीं सोचा था. हाँ, अपने जवानी के दिनों में कई गुलछर्रे उड़ाए थे उन्होंने, बहुत मस्ती की थी. हर तरह की मस्ती. लेकिन जैसे जैसे आयु बढ़ती गई, वैसे वैसे वो स्वतः इन चीज़ों से दूर होते गए. मन में बीच बीच में कभी कोई आशा उठी भी होगी तो अपनी समझदारी, समाज और घर परिवार का दायित्व निर्वहन के चक्कर में अपनी ऐसी उत्तेजक इच्छाओं का गला घोंट देना पड़ा था उनको जिसे उन्होंने सहर्ष किया भी क्योंकि जितनी इच्छा उनको अपनी इन यौन इच्छाओं को पूरी करने की होती उससे कहीं अधिक अपने घर परिवार और समाज में अपनी बढ़ती सम्मान, प्रतिष्ठा और दायित्वों के प्रति जागरूकता का बोध रहता. और साठ के बसंत पर पहुँचने के साथ ही ऐसी इच्छाओं के पूर्ण होने की आशा को भी त्यागना पड़ा. लेकिन... लेकिन... जिन इच्छाओं और अल्हड़पन को बहुत पहले ही वो छोड़ और भूल चुके थे... वो इस तरह आज उनके सामने किसी भोज पात्र के भांति सामने खड़ा है. दृष्टि हट नहीं रही, मन कहीं और जाने का नाम नहीं ले रहा, सोया, मुरझाया जननांग जो अब केवल मूत्र त्यागने का एक साधन मात्र रह गया था उसमें भी न जाने कहाँ से प्राण का संचार होने लगा. अनुमति लिए बिना ही दिमाग किसी रणनीतिज्ञ की भांति सोचने लगा. ‘उस ओर जाना चाहिए? ... नहीं.. नहीं... नहीं जाना ही श्रेयकर होगा... परन्तु... क्या अतिशय सुन्दरता की ऐसी अनुपम मूर्ति को अनदेखा करना उचित होगा? जल से लबालब भरा और सुगन्धित फूलों से युक्त एक ऐसा नयनाभिराम सरोवर जो स्वयं आज मेरे सामने आ खड़ा हुआ है... इसमें डूबकी न सही... क्या हाथ की एक अंजुलि मात्र जल से अपने कंठ को तर कर लेने में भी पाप लगेगा? दोष है इसमें?’ स्वयं से ही ऐसे तार्किक प्रश्न करते हुए किसी अनिष्ठ की आशंका को ह्रदय के एक कोने में दबा कर मन में रह रह कर हिलोरें मारता, जन्म लेता वर्षों की लालसा को सम्भालने का अथक प्रयास करते हुए बिस्वास जी छोटे पर एक एक पग बड़ी सावधानी से रखते हुए आगे बढ़ते रहे. अपनी ओर बढ़े आ रहे इस पुरुष को अपने मन में उठ रहे संशयों, संदेहों व नाना प्रकार के प्रश्नों से जूझता समझ कर वो सुन्दरी लाज से भरे अपने मुख पर एक मीठी सी मुस्कान बिखेर दी. पूरी तरह आश्वस्त. इस बात से कि चाहे लाख रोकना चाहे खुद को कोई पर उसके इस लावण्यमयी मृदु मुस्कान के आघात से बचना किसी के लिए भी असंभव है. बिस्वास जी उस युवती के सौन्दर्यमन्त्र में वशीभूत हो कर उसकी ओर बढ़ते ही रहे और तभी रुके जब उस युवती के पास, बहुत पास आ गए थे. अपलक उसके संगमरमर से पूरे बदन को देखते हुए बस किसी तरह इतना ही पूछ पाए, “कौन हो तुम?” “लड़की.” कहते हुए हल्के से हँस दी वो. उसकी वो क्षण भर की हँसी मानो कई सौ मन (वजन) शहद घोल दिया बिस्वास जी के कानों में. “वो...त... तो देख ही रहा... हूँ...न.. ना..नाम क्या है?” “लाडली.” इस बार फिर शरमाई वो. गालों पर पलक झपकते ही लाज की लालिमा छा गई. तभी बिस्वास जी को ऐसा कुछ दिखा जिसे स्पष्ट देख कर भी बिस्वास जी के लिए विश्वास कर पाना बहुत बहुत ही कठिन था. युवती से दो बातें करने के बाद पहली बार बिस्वास जी की आँखें युवती के शरीर के उस स्थान पर गई जो हरेक पुरुष और यहाँ तक की अन्य स्त्रियों के आकर्षण का प्राकृतिक केंद्रबिंदु होता है... वक्ष ! उसके वक्षस्थलों की ओर दृष्टि जाते ही बिस्वास जी को दुनिया का सबसे बड़े आश्चर्य का एक जबरदस्त झटका लगा. वो युवती अपने शरीर के ऊपरी भाग को केवल एक पतली साड़ी से ही ढक कर रखी थी. उसके पुष्ट, बड़े और भरे हुए स्तन पतली साड़ी के अंदर से सामने की ओर किसी भाले की तरह तने हुए थे और निप्पल तो जैसे उस भाले की नोक हों. “आहा... सुंदर नाम है... लाडली...” कहते हुए बिस्वास जी उस युवती के और निकट आ गए. उसके जिस्म से आती सुंदर सुगंध मानो तन मन को भिगो दे रही थी और बिस्वास जी जितना सम्भव हो सके उस सुगंध में खुद को सराबोर कर लेना चाह रहे थे. युवती अब आँखें थोड़ा तिरछी रखते हुए बिस्वास जी की ओर देखी. बिस्वास जी की दृष्टि उस समय उसके बड़े वक्षों की ओर ही थी.... और रह रह कर उसके पतले कमर पर फिसल जाती. इसके साथ उनके मन में यौन क्रियाओं की भावना जाग जाती, ‘आहा! नाभि भी दिख रही है... कितना सुंदर और गोल है! जी चाह रहा है कि अभी इसे दबोच कर इसके कमर को सहलाऊं और फिर जी भर कर इसके इस सुंदर नाभि को चूमूँ और जीभ घुसा घुसा कर खूब अच्छे से चाटूं!’ पता नहीं अचानक से ऐसा क्या हुआ जो बिस्वास जी स्वयं को रोक नहीं सके और एकदम से हाथ बढ़ा कर उसके कमर को हल्के से सहलाते हुए अपनी मध्यमा ऊँगली उसकी नाभि में डाल दिया. युवती एकदम से एक हल्की पर तेज़ सीत्कार ले उठी... चेहरे के भावों से साफ़ कर दिया की उसे बिस्वास जी की इस हरकत का मज़ा ही मिला है. मतलब, बिस्वास जी इतना में ही नहीं रुक कर अगर इससे भी आगे बढ़ना चाहें तो उसे कोई शिकायत नहीं होगी. प्रफुल्लित मन से युवती की नाभि में ऊँगली को गोल गोल घूमा कर हल्का दबाव दे कर उसकी काम प्रतिक्रिया देखने में बिस्वास जी को बहुत आनंद आने लगा था. रह रह कर उसके पूरे कमर को सहलाते और फिर नाभि के पास आ कर उसके चारों ओर अँगुली के पोर से सहलाते हुए नाभि में अँगुली डालते और फिर वहाँ भी गोल गोल घूमाने लगते. लाडली, अर्थात वो युवती काँपने – थरथराने लगी. खुद को खड़े रखने के लिए उसने नीचे झुकी हुई पेड़ की एक डाली को थाम लिया. धड़कने तेज़ हो गई उसकी और इसी के साथ उसके स्तन द्वय का ऊपर नीचे होने की गति भी बढ़ गई जोकि निःसंदेह सभी पुरुषों की भांति बिस्वास जी के भी दृष्टि आकर्षण का केंद्र बन गई फिर से. लाडली के देह से निकलने वाली सुगंध ने धीरे धीरे अपने और बिस्वास जी के चारों ओर एक अदृश्य घेरा सा बना लिया था अब तक और बिस्वास जी उसी में सुध बुध खो कर इस अनुपम सुन्दरी नवयौवना के सुंदर शरीर रूपी सरोवर में अब डूबकी लगाने के लिए छटपटाने लगे थे. हिम्मत कर के अपने बूढ़े, शुष्क होंठों को लाडली के होंठों से सटा बैठे....लाडली रोकी नहीं.. पीछे नहीं हटी... वरन, अपना बायाँ हाथ बढ़ा कर बिस्वास जी के दाएँ हाथ को थाम ली और दूसरे हाथ को उनके पेट पर बहुत हल्के से रखी. उसके होंठों के नर्म छुअन ने बिस्वास जी के अंदर के कामाग्नि के लिए घी का काम किया. बिस्वास अब इतने निकट आ गए कि अब लाडली के स्तनों के निप्पल उनके सीने पे गड़ते हुए से प्रतीत होने लगे. ‘आह! अब और नहीं.’ ऐसा सोच कर बिस्वास जी लाडली को पकड़ कर बगल में ही एक झाड़ी के पीछे ले गए और कस कर उसका आलिंगन करके उसे बेतरतीब चूमने लगे. क्या गला, गाल, होंठ, नाक... कुछ भी बाकी नहीं छोड़ना चाहते थे बिस्वास जी. लाडली अभी भी पहले की ही तरह बिस्वास जी का दायाँ हाथ पकड़े थी और दूसरा हाथ जो कि अभी तक उनके पेट पर था; अब धीरे धीरे ऊपर उठ कर सीने पर आ गया था. कुछ ही क्षणों बाद बिस्वास जी को अचानक से एक हुक सी लगी अपने सीने के अंदर. ऐसा लगा मानो किसी ने एक छोटी पिन चुभो दिया हो उनके दिल में. थोड़ा तड़पे ज़रूर, पर इस अवसर को हाथ से नहीं जाने देना चाहते थे इसलिए इसे अनदेखा करते हुए पुनः काम क्रीड़ा में रत होने का प्रयास करने लगे. झाड़ी के पास ही एक ठूंठ से सटा कर लाडली को खड़ी कर के उसके आंचल को गिरा कर ऊपर के पूरे बदन को बेतहाशा चूमने लगे बिस्वास जी. मन ही मन एक दृढ़ संकल्प ले लिया था उन्होंने कि आज या तो वो इस कमलनयना के साथ सम्भोग करेंगे ही करेंगे या फिर घर बार छोड़ हमेशा के लिए सन्यास ले लेंगे. यूँ तो लाडली के गदराए देह का हरेक इंच प्रेम पाने के योग्य था परन्तु दृष्टि व लालसा का केंद्र अब भी उसके उन्नत स्तन ही बने हुए थे. उसके स्तनों के साथ जिस प्रकार से भी सम्भव हो; बिस्वास जी पूरा मन लगा कर खेलने लगे. चूमना, चाटना, दबाना, चूसना, दोनों स्तनों के मध्य अपना मुँह घुसा कर रगड़ते हुए स्तनों की रेशमी छूअन को अपने चेहरे के दोनों साइड से महसूस करना... निप्पलों को दो ऊँगलियों से निर्ममतापूर्वक दबाना, नाखूनों को हल्के से गड़ाना इत्यादि... कुछ भी बाकी न छोड़ा उन्होंने. कमर के नीचे धोती में तम्बू तो बहुत पहले ही बन चुका था.... पर इतने देर तक कपड़ों के अंदर रह कर खड़े रहने से उनका जननांग अब दर्द करने लगा था. वो भी चाहने लगे कि कई साल बाद आज पहली बार इस तरह मूसल की भांति अकड़ कर खड़े अपने इस अंग को शीघ्र से शीघ्र आराम पहुँचाया जाए और आराम पहुँचाने का फिलहाल जो एकमात्र उपाय किया जा सकता है वो उनके सामने स्वयं को बिना किसी मान मनुहार के समर्पित कर चुकी इस लाडली नाम की लड़की के पास है. अपने छाती पर रखे लाडली के हाथ को उन्होंने पकड़ कर अपने जननांग पर ले जाना चाहा पर लाडली नहीं मानी. वो अपने इस हाथ को उनके ह्रदय के पास से हटाना नहीं चाही. बिस्वास जी को थोड़ा आश्चर्य हुआ कि इतनी देर से न जाने उन्होंने इस युवती के जिस्म के साथ क्या कुछ नहीं किया... केवल सम्भोग छोड़ कर के; पर ये पहली बार किसी चीज़ को मना की. ‘लगता है इसे शर्म आ रही है.. पगली... ही ही ही.. एकबार तेरे अंदर प्रवेश कर जाऊं... फिर देखता हूँ कैसे और क्या क्या रोकेगी.... ही ही ही... फिर तो खुद ही उछल उछल कर लेगी तू. हाहाहा....’ ऐसा सोच कर प्रसन्न होते हुए बिस्वास जी ने लाडली के बाएँ स्तन का निप्पल सहित करीब दो चौथाई हिस्सा अपने मुँह में भर लिया और फिर ‘चुक चुक’ की आवाज़ कर के चूसते हुए उसकी साड़ी को पैरों पर से उठाते हुए घुटनों के ऊपर तक ले आए. इस दौरान पूरी तल्लीनता के साथ एक ओर स्तन को चूसते रहे तो दूसरी ओर साड़ी को उठाते हुए पैरों और घुटनों के ठीक ऊपर के थोड़े से हिस्से को बड़े प्यार से सहलाते रहे. इधर उस लाडली की आँखें बंद हो आई थीं. अपने बाएँ हाथ को बिस्वास जी गर्दन के पीछे से ले जा कर उनको कस कर पकड़ी और दाएँ हाथ की हथेली को उनके सीने पर अच्छे से जमा दी. उत्तेजना के मारे बिस्वास जी का हालत खराब होने लगा. सांसें फूलने लगीं उनकी. सीने पर दिल वाले जगह पर फिर से हल्का हल्का दर्द होने लगा. बिस्वास जी ने देर न करते हुए उसके स्तनों पर मुँह लगा दिया. और सिसकारी लेते हुए चूसने लगे. पर उनको इस बात का तनिक भी भान नहीं हुआ कि जिस युवती के साथ वो काम क्रीड़ा में लिप्त हो रहे हैं; उसी में धीरे धीरे एक परिवर्तन आने लगा है. जिस हाथ को वो बिस्वास जी के सीने पर रखी थी उसके नाखून अचानक से बढ़ने लगे. बढ़ते बढ़ते एक बड़े आकार के सुई की लम्बाई जितनी लंबी हो गए नाखून अब बहुत आहिस्ते से बिस्वास जी के सीने में गड़ने लगे. पीड़ा कुछ अधिक होती पा कर बिस्वास जी मुलायम स्तन पर से मुँह हटा कर के सीने की ओर देखना चाहा पर लाडली ने तुरंत ही उनका सिर पकड़ कर दोबारा अपने स्तन पर रख दी. बिस्वास जी इसे लाडली का उनके लिए प्यार और तड़प समझ कर मन ही मन गदगद होते हुए पूरे मनोयोग से उसके तड़प को शांत करना अपना कर्तव्य समझ कर बड़े प्यार से स्तनपान करने लगे. लेकिन कुछ ही देर बाद उनके हृदय में एक ऐसा भयानक दर्द शुरू हुआ कि उन्हें अपने सीने पर दोनों हाथों से दबाव बनाते हुए वहीँ गिर जाना पड़ा. इस भयानक पीड़ा से तड़पते हुए ही उनका ध्यान गया लाडली की बढ़े हुए नाखूनों पर जिनके सिरों पर खून लगे हुए थे. होंठों पर एक ऐसी मुस्कान लिए जिससे ये लगे कि उसे अपनी सफ़लता पर गर्व और बिस्वास जी के बेवकूफी पर बड़ा तरस और हँसी आ रही है; वह अपनी जीभ निकाल कर नाखूनों पर लगे खून को चाटने लगी. बिस्वास जी ने गौर किया कि वो पसीने से ऊपर से नीचे तक भीग चुके थे.... पीड़ा बढ़ते ही जा रही थी. और तभी बिस्वास जी की दृष्टि एकबार फिर लाडली की ओर गई जो खून चाटने में व्यस्त थी... और जो देखा उससे उनके आँखों के आगे अत्यधिक डर के मारे अँधेरा छाने लगा. लाडली बड़े आराम से सभी नाखूनों को अच्छे से चाटने के बाद धीरे धीरे बड़े प्यार से मटकते हुए बेहोश प्राय हो चुके बिस्वास जी की ओर बढ़ने लगी. परन्तु ज्यादा आगे न बढ़ पाई. एक छोटी सी गेंद जैसी कोई चीज़ कहीं से उछल कर आई और सीधे उसके और बिस्वास जी के बीच आ कर रुक गई. अपने स्थान पर खड़ी लाडली हतप्रभ हो उस चीज़ को देख कर समझने का प्रयत्न करने लगी कि ये आखिर है क्या? लाडली आगे की ओर झुक कर जैसे ही उस चीज़ को हाथ में लेना चाही तभी वह गोल सी चीज़ ‘भप्प’ की एक धीमी ध्वनि से फट पड़ी. इसी के साथ उसमें से एक हरा रंग का धुआँ निकल कर चारों ओर बड़ी तेज़ी से फैलने लगा और लाडली के कुछ समझ पाने के पहले ही बेहोश बिस्वास जी को ऐसे घेर लिया मानो उनकी रक्षा कर रही हो! उस धुएँ को देख कर कुछ पल के लिए लाडली डर गई. पर जल्द ही खुद को सम्भालते हुए उठ खड़ी हुई और अपने चारों ओर देखने लगी. दो पल बाद ही उसे सामने से एक तेजस्वी युवक आता दिखाई दिया. लाडली गुस्से से पूछी, “कौन हो तुम?” “एक महान गुरु का शिष्य और इस समय इनका (बिस्वास जी की ओर ऊँगली से संकेत करते हुए) रक्षक... नाम, गोपू.” “क्यों आए हो यहाँ?” “अभी अभी तो कहा, इनकी रक्षा करने हेतु.” “भाग जा.... नहीं तो बेमौत मारा जाएगा.” लाडली की आँखें गुस्से से लाल हो चुकी थीं. लग रहा था मानो अभी ही गोपू को चीर फाड़ देगी. गोपू हँस पड़ा, बोला, “नहीं... भागने के लिए नहीं आया हूँ. पर तुझ महा पापिन को एक अवसर अवश्य दूँगा... भाग जाने के लिए.” यह सुनकर तो लाडली के क्रोध का कोई पार ही नहीं रहा. पूर्णतः लाल हो आई आँखों से गोपू को कुछ क्षण देखती रही. गोपू राह का रोड़ा था, ये तो स्पष्ट था! और उसके दिलेरी से लाडली को ये स्पष्ट हो गया था कि उसके रहते बिस्वास जी को मारना तो क्या; एक मामूली खरोंच तक दे पाना सम्भव नहीं है. इतनी ही देर में गोपू ने भी लाडली के भाव भंगिमाओं का अवलोकन – विश्लेषण कर लिया था. कम से कम इतना तो समझ ही गया था कि यह कोई साधारण युवती नहीं है. "चला जा! जा यहाँ से" लाडली ने फिर हुंकार भरी. “नहीं.” गोपू ने कहा. "नहीं समझा मेरी बात?" "समझ गया, तभी तो बोला, नहीं जाऊँगा." " बहुत सुन ली मैंने, व्यर्थ के तर्क न कर और इस आदमी को मेरे लिए छोड़ कर चला जा." वो बोली "और मैंने भी तेरा बहुत सम्मान करते हुए चेतावनी दे चुका.” गोपू ने पलट कर जवाब दिया. "प्राण से जाएगा" वो बोली. "देखा जाएगा." "देख युवक, मान जा मेरी बात, ये आदमी तुझसे सम्बंधित नहीं है." "इसका कोई अहित न हो; मेरे गुरु का ऐसा आदेश है और उनका आदेश ही मेरे लिए सर्वोपरि है." “यानि गुरु के लिए मरना स्वीकार है तुझे?” “हाँ.” गोपू को टस से मस न होते देख लाडली ने उसपर एक के बाद एक कई ख़तरनाक तंत्र वाले हमला किया. गोपू ने जल्दी से पहले अपने गुरुमंत्र से स्वयं को और बिस्वास जी को पोषित किया और प्राण रक्षा मन्त्र से दोनों की ही प्राणों की रक्षा करते हुए लाडली के सभी हमलों का मुँह तोड़ जवाब दिया. कोई और समय होता या गोपू यदि अकेला होता तो लाडली से और भी अच्छे से लड़ता पर इस समय उसके लिए सबसे महत्वपूर्ण था बिस्वास जी की रक्षा करना. अतः गोपू ने और विलम्ब न करते हुए व्योम-विनाशिनी का आह्वान किया. आह्वान मंत्र सुनते ही लाडली का चेहरा तो जैसे एकदम सफ़ेद हो गया और क्षण भर में ही वहाँ से लोप हो गई! गोपू ने जल्दी से बिस्वास जी को सहारा दे कर उठाया और वैसे ही कुछ दूर तक ले गया. फिर एक रिक्शा पकड़ कर बिस्वास जी को उनके घर तक छोड़ आया. कुटिया में पहुँच कर थोड़ी देर के विश्राम के पश्चात बाबा जी के सामने उपस्थित हो कर सब बातें कह सुनाया. सब कुछ धैर्यपूर्वक सुनने के बाद बाबा गंभीर रूप से ही मुस्कराते हुए कहा, “जो और जितना सोचा था पूरा मामला उससे भी कहीं अधिक खतरनाक है. अच्छा हुआ जो तुमने काफ़ी बुद्धिमानी से उसके हरेक प्रहार का उत्तर दिया और सबसे बढ़िया ये हुआ कि वह तुम्हारे व्योम – विनाशिनी के आह्वान मात्र से ही भाग गई.” “यही तो आश्चर्य की बात है गुरूदेव... अगर वो कोई साधिका या तांत्रिका थी तो और मुकाबला क्यों नहीं की?” बाबा जी प्रश्न सुनकर हँस पड़े. बोले, “वो कोई साधिका – तांत्रिका नहीं थी और सबसे बड़ी बात तो यह कि वो तो मनुष्य तक नहीं थी!” “क्या?!!” दोनों ही शिष्य बहुत बुरी तरह चौंक उठे. अपने कानों पर उन्हें ज़रा भी विश्वास नहीं हुआ. बाबा बोले, “कल किसी को भेज कर बिस्वास को बुलवा भेजना. कल उसी के सामने कई और रहस्योद्घाटन करूँगा.... और अब की बार सब कुछ ठीक कर दूँगा.” “जी गुरु जी.” दोनों शिष्य हामी भर कर बेसब्री से आने वाले कल की प्रतीक्षा करने लगे. प्रतीक्षा तो अब बाबा जी तो भी थी.
19-09-2020, 10:20 PM
१४)
“सब सच सच बताओ बिस्वास...” “म..मम.. मैं...क्या बताऊँ गुरूदेव?” “वही जो मैं जानना चाहता हूँ. बिस्वास चुप.. कोई आवाज़ नहीं.. कोई शब्द नहीं. नज़रें झुका कर इधर उधर देखने लगते हैं. परन्तु बाबा जी के चेहरे के भावों पर कोई अंतर नहीं दिखा. अपनी तीक्ष्ण दृष्टि से वो बिस्वास के चेहरे रुपी दुर्ग पर कड़ा प्रहार कर रहे थे. उनका तेज़ सह पाना उच्च स्तरीय ज्ञानी और सिद्ध पुरुष के लिए भी सरल नहीं था तो बिस्वास तो मात्र एक साधारण मनुष्य है. थूक निगलते हुए उन्होंने अपने गुरूजी की ओर देखा. समझने में अब कोई परेशानी नहीं रही कि गुरूजी बिना सत्य जाने नहीं मानने वाले. गुरूजी एक बहुत ही उच्च स्तर के सिद्ध पुरुष हैं ये तो बिस्वास जी जानते ही थें परन्तु वो भूतकाल का भी आंकलन कर सकते हैं ये कभी नहीं सोचा था. फिर भी बात को टालने के लिए एक और प्रयास ... अंतिम प्रयास करने का सोचा उन्होंने. नासमझ व भोला बनने का प्रयत्न करते हुए एक बार फिर बाबा के सामने हाथ जोड़ते हुए कहा, “गुरूदेव... मैं कुछ भी समझ नहीं पा रहा हूँ. किस सत्य को बताने को कह रहे हैं आप? कब की बात है? कौन सी बात है? म.. मैं....” बिस्वास जी और कुछ कहे उसके पहले ही बाबा ने हाथ उठा कर उसे चुप हो जाने का संकेत किया. विचार और कथन में पूरी स्थिरता और चेहरे पर गम्भीरता लिए बाबा ने कहा, “देखो बिस्वास... मैं और तुम... दोनों ही जानते हैं कि जो सत्य अब तक सबसे छुपा हुआ है उसे अब सामने आना चाहिए और मुझसे कोई भी सत्य छिप नहीं सकता. जानते हो न इस बात को?” बिस्वास जी आँखें नीची करते हुए सहमति में सिर हिलाया. बाबा बोले, “तो जब तुम जानते ही हो इस बात को तो फिर क्यों कुछ छुपाने का प्रयास कर रहे हो? जो भी सत्य है; चाहे वो कितना भी कड़वा क्यों न हो... आखिर सत्य ही है. देर सवेर हमें सत्य को अपनाना ही पड़ता है. सत्य की यही एक सबसे बड़ी गुण होती है कि वो सदैव स्वयं को सामने प्रकट करने के लिए तत्पर रहता है. जैसे कितना भी घनघोर वर्षा क्यों न हो... कितनी भी काली घटा क्यों न छाई रहे.. सूर्य निकलता ही निकलता है... ठीक वैसे ही, सत्य चाहे कैसा भी क्यों न हो; सत्य आखिर में सत्य ही होता है.” अपनी बात को कहते कहते बाबा बिस्वास जी के हाव भाव पर गौर कर रहे थे. बाबा द्वारा कही गई बातों से बिस्वास के मन में जमी कोई बर्फ पिघल रही है... उसे कुछ अपराधबोध हो रहा है... ये बात बाबा के अनुभवी आँखों ने तुरंत ही ताड़ लिया. “कहो बिस्वास. डरो नहीं... यदि उस सत्य में तुम्हारी किसी तरह की भूमिका हो भी तो यदि तुम स्वीकार कर लो तो तुम पर से बोझ उतर जाएगा. यदि कोई अपराधबोध हो...तो वो भी पल भर में समाप्त हो जाएगा.” बिस्वास जी के मन में अब तक जो संदेह था... वो अब विश्वास में बदल गया. वो भली भांति समझ गए कि बाबा जी यूँ ही उनसे पूछ रहे हैं; सत्य क्या है ये उनको पहले ही ज्ञात हो गया है. कुछ देर की चुप्पी के बाद बिस्वास जी अचानक बाबा के पैरों पर गिर पड़े. रोने लगे... क्षमा याचना करने लगे. “गुरूदेव... मुझे क्षमा कीजिए गुरूदेव... मेरी रक्षा कीजिए...!” बिस्वास जी की अचानक ऐसी अप्रत्याशित प्रतिक्रिया देख कर कुछ क्षणों के लिए तो बाबा भी चकित से हो गए. उन्होंने गौर किया.. बिस्वास जी वाकई रो रहे थे... बिलख रहे थे. बिलख बिलख कर क्षमा याचना कर रहे थे और स्वयं की रक्षार्थ हेतु प्रार्थना – निवेदन भी कर रहे थे. बाबा तो पहले से जान रहे थे कि सत्य क्या है... अतः उन्हें बिस्वास जी के ऐसे व्यवहार पर अधिक आश्चर्य न हुआ. अपितु प्रसन्न ही हुए कि वो सत्य को कहने का साहस करते हुए गुरु चरणों में क्षमा की भी याचना कर रहे हैं. मुस्कराते हुए अपने पैरों पर रखे बिस्वास जी के सिर पर हाथ रखते हुए बाबा इतना ही बोले, “शांत वत्स... शांत.” बाबा के हाथ का स्पर्श अपने सिर पर पा कर बिस्वास जी फूले न समाए और अत्यधिक उद्गार से उनकी और भी अधिक रुलाई फूट पड़ी. बाबा के स्नेह वचन और आशीर्वाद स्वरूप हाथ को सिर पर पा कर बिस्वास जी न केवल प्रसन्न हुए अपितु उनके अंदर एक नए साहस और विश्वास का संचार भी होने लगा. बाबा के पैरों पर से सिर तो उठा लिया अपना पर अभी भी बाबा से नज़रें मिलाने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे. बाबा अभी भी गम्भीर रूप में ही थे.. फिर भी होंठों पर एक हल्की मुस्कान थी.. चांदू की ओर देखा... और आँखों के संकेत से बिस्वास जी को पानी पिलाने के लिए कहा. चांदू ने शीघ्र ही एक बड़े से तांबे के ग्लास में शीतल जल भर कर बिस्वास जी को दिया. बिस्वास जी ने ग्लास तो ले लिया पर पीना तभी शुरू किए जब बाबा ने उन्हें दोबारा आदेश दिया. पानी पी कर कुछ देर में रोने के कारण अपनी उखड़ती सांसों पर नियंत्रण पा कर बिस्वास जी शांत हुए पर अब भी कुछ बोले नहीं. थोड़ी देर तक प्रतीक्षा करने के बाद जब बाबा ने देखा कि बिस्वास जी के कंठ से बोल नहीं फूटे तब उन्होंने ही एक धमाका करने का सोचा और एक हल्की सी मुस्कान लिए, परन्तु पूरी गम्भीरता से; पैरों के पास नीचे बैठे बिस्वास जी की ओर तनिक झुकते हुए कहा, “वत्स, उस दिन तुम भी उन लोगों के साथ थे न?” कहीं खोए हुए बिस्वास जी ने अनमने भाव से बाबा की ओर बिना देखे ही उत्तर दिया, “कहाँ... कब ... किसके साथ?” “उस दिन... जब उन दोनों युवक युवती को पूरा गाँव ढूँढ रहा था... उन लोगों में से एक तुम भी थे न?” बाबा के इस प्रश्न ने वाकई एक धमाका किया बिस्वास जी के कानों में. पूरे बदन में बिजली सी दौड़ गई. अपने स्थान पर बैठे बैठे ही लगभग उछलते हुए बाबा को शंकित नज़रों से देखा... मानो ये निश्चित करना चाहते हों कि अभी अभी उन्होंने जो सुना वो बाबा के ही श्रीमुख से निकली है. बाबा एकटक बिस्वास जी की ओर देखते रहे... चश्मे के पीछे से झाँकती बिस्वास जी के विस्फारित नेत्रों पर टिकी थी बाबा की आँखें. बिस्वास जी को अब भी कुछ बोलता न देख कर बाबा फिर बोले, “उनमें से एक की मृत्यु का कारण स्वयं को मानते हो न?” ये वाला प्रश्न पर्याप्त था बिस्वास जी को ये विश्वास दिलाने के लिए कि अब तो वो लाख चाह कर भी सच्चाई को अपने भले के लिए अपने हिसाब से तोड़ मरोड़ कर पेश भी नहीं कर सकता क्योंकि निश्चित ही ये भी बाबा के हाथों पकड़ी ही जाएगी. झूठ बोलने का अब तो कोई मतलब ही नहीं रह गया था. बिस्वास जी ने गले में जम गए थूक को निगला और निगलते हुए ही सिर हिला कर सहमति जताया. बाबा के हाव भाव में कोई परिवर्तन नहीं आया. जिससे ये स्पष्ट हो गया कि वे ऐसे ही किसी उत्तर की अपेक्षा कर रहे थे. “किसकी?” धीर गम्भीर स्वर में उन्होंने अगला प्रश्न किया. बड़ी कठिनाई से उत्तर निकला परन्तु बहुत ही धीमा, “शौमक” “ज़ोर से बोलो, बिस्वास.” “श...शौमक.!” हकलाते हुए अब भी कठिनाई से ही बोले बिस्वास जी. “ह्म्म्म.” बाबा इतना ही बोले. कदाचित अब दृष्टि फेरने की बारी बाबा की थी. बिस्वास जी के मुँह से नाम सुनने के बाद बाबा तुरंत कुछ न बोलकर कमरे की खिड़की से बाहर देखने लगे. बाबा की चुप्पी ने तीनों; चांदू, गोपू और बिस्वास जी को सस्पेंस में डाल दिया. थोड़ी देर बाद बाबा बिस्वास जी की ओर देखते हुए फिर पूछे, “बिस्वास... अब जो पूछूँगा उसका उत्तर एकदम स्पष्ट शब्दों में देना... ठीक?” मुखमंडल पर चिंता की आभा लिए बिस्वास जी सहमति जताते हुए ‘ठीक है गुरूदेव’ कहा. “बिस्वास.... शौमक की मृत्यु हत्या थी या दुर्घटना?... स्मरण रहे... मैंने तुम्हें सब सच बताने के लिए कहा है.” “ज...जी...!” बाबा के इस प्रश्न ने तो निःसंदेह बिस्वास जी को अब भारी दबाव में ला दिया. हाथ में थामा हुआ ग्लास अब काँपने लगा. साँसें उखड़ने लगी. ललाट पर पसीने की कई बूँदें एक साथ छलक आईं. स्वयं को संयत करने के लिए दोबारा होंठों को ग्लास से लगाया. दो लंबे घूँट लगाए. फिर बाबा की ओर देखा. बाबा उत्तर की प्रतीक्षा में उन्हीं की ओर देख रहे थे. “बाबा.. थी तो वो... दुर्घटना ही..” “पर वास्तविकता में वो एक हत्या थी... यही न?” बाबा ने बिस्वास जी के वाक्य को पूरा किया. जैसे ही बाबा ने इस वाक्य को कहा; वैसे ही तुरंत गोपू और चांदू की आँखें अविश्वास से बड़ी बड़ी हो गई. बिस्वास जी ने सिर हिला कर धीमे स्वर में ‘जी’ कहा. “कौन कौन सम्मिलित थे इस पाप कार्य में ?” “लगभग सभी.” “क्यों मारना चाहते थे सब उसे?” “अ..अम.... व.. वो... काला जादू.... करता था... हानि करता था गाँव वालों का.... गुरूदेव.” इस वाक्य को बिस्वास जी ने ऐसे कहा मानो वो अपने साथ साथ पूरे गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हों. बाबा धीरे से हँस दिए... बोले, “तुम्हें कैसे पता वो काला जादू करता था?” “ग..गाँव वालों.....” “झूठ!” बिस्वास जी के वाक्य को पूरा करने के पहले ही बाबा गरज उठे.. डांटते हुए उन्हें चुप कर दिया. बाबा के क्रोध से बिस्वास जी सकपका गए. कोई बहाना दे कर अपनी बात को सही ठहराने का साहस न किया. “बिस्वास.. मैं बार बार कह रहा हूँ... सच बोलो. यदि तुम अपने साथ साथ समस्त गाँव वालों की रक्षा करना चाहते हो तो सत्य कहो. कल गोपू ने तुम्हें बचा लिया था.. परन्तु हर बार... हमेशा तुम्हें बचाने के लिए नहीं रहने वाला. यदि पूर्ण सत्य नहीं बताओगे तो मैं भी तुम्हारी यथोचित रक्षा नहीं कर पाऊंगा और वो युवती जो कल तुम्हें लगभग मार ही चुकी थी; वो ज्यादा दिनों तक चुप नहीं बैठेगी. वो फिर हमला करेगी और कदाचित अगले हमले में वो वाकई में तुम्हें एक हौलनाक मृत्यु दे दे!” बाबा के इस चेतावनी में भय का ऐसा पुट था कि बिस्वास जी के सिट्टी पिट्टी गुम हो गए. हाथ जोड़ लिया... फिर से क्षमा माँगी.. कहा, “गुरूदेव... ग...गुरूदेव.... म..मैं....” कहते हुए रो ही पड़े. बाबा ने उनके सिर पर हाथ रख कर उन्हें सांत्वना दिया और चुप कराते हुए उनसे बगैर लाग लपेट के पूरी बात सच सच कह सुनाने को कहा. “गुरूदेव... व.. वो... एक प्रकार से हत्या ही थी गुरूदेव... वह युवक बच सकता था... पर... पर... किसी ने सहायता नहीं की. उसका उस नदी तक पीछा करना... खास कर दक्षिण दिशा की ओर... वहाँ तक उसे दौड़ाते ... उसका पीछा करते हुए जाना .... सब.. कुछ... कुल मिलाकर एक प्रकार से उसकी हत्या ही है गुरूदेव.” कहते हुए अब तो और भी बुरी तरह से बिलखने लगे थे बिस्वास जी. नदी की बात क्या करना; स्वयं उनकी आँखों से ही अश्रुओं की नदी बहने लगी. स्पष्ट था कि इस बात को... जोकि स्वयं एक प्रकार से रहस्य ही था आज तक; कहने में उन्हें बहुत कष्ट हुई है. सहज नहीं था इस रहस्य को स्वीकार कर पाना. बिस्वास जी के इस प्रकार बिलखने से बाबा को बुरा तो लगा पर वो जानते हैं कि बिस्वास जी का ये पूर्ण स्वीकारोक्ति नहीं है! सत्य तो ये है कि बाबा को उनके योगबल से ही संपूर्ण सत्य का पता चल गया था परंतु वे बिस्वास जी के मुँह से सत्य जानना चाहते थे. इसलिए धीरे से व बड़े प्यार से पूछे, “और?” बिस्वास जी तुरंत न बोले पर इस बार बाबा को भी अधिक प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ी. कुछ क्षण बाद बिस्वास जी स्वयं ही बोले, “अ... व... व... उ.. उस हत्या... में मैं स्वयं भी भागीदार था.” “वो कैसे?” “म... मैंने...नहीं... म... .मैं चाहता था... वो... मरे..” “क्यों?” “क... क्योंकि.. मैं अवनी... अवनी... स...” “हाँ... वत्स... आगे बोलो...” “क्योंकि मैं अवनी से .... प्यार करता ... था... उस...उससे स... श.. शादी कर.. करना चाहता था.” “और... ये अवनी कौन है वत्स?” “अ.. अवनी है नहीं गुरूदेव... थी..” “थी??” “ज..जी गुरूदेव... व.. वो उस रात.. के दो दिन बाद मर गई.” “कहाँ मरी थी वो?” “जंगल.. जंगल में... फाँसी लगा कर.” “ओह!” “ज..जी गुरूदेव.” अब धीरे धीरे पूरी विषयवस्तु बाबा के सामने स्पष्ट होती जा रही थी. थोड़ा रुक कर बाबा फिर पूछे, “फाँसी लगाने के लिए फंदा कहाँ से मिला होगा उसे...?” “उसे फंदे के लिए अलग से किसी रस्सी वगैरह की क्या आवश्यकता थी गुरूदेव. व.. वो तो... स.. साड़ी को ही फंदा बना कर झूल गई.” “ओह्ह... बहुत बुरा हुआ! ... अच्छा, तुम तो अवनी से प्रेम करते थे... है न?” “जी.” “उसे बताया नहीं कभी?” “बताया था.. पर उसका कहना था कि वो पहले से ही किसी ओर से प्रेम करती है और जिससे प्रेम करती है; उसके प्रेम के सिवा अब किसी और का प्रेम नहीं चाहिए उसे.” “तो तुमने क्या किया?” “क..कई बार उसे मनाने का प्रयास किया.. पर सफल नहीं रहा.. वो उस शौमक के प्रेम में पूरी तरह अंधी थी... उस.. उस आवारा के पास था ही क्या...? एक टूटी फूटी झोंपड़ी... एक बूढ़ी माँ.. वही किसी तरह अपना और अपने उस निकम्मे बेटे का पेट पाल रही थी. क्या मिलता अवनी को ऐसे लड़के से शादी करके... उल्टे उस लड़के के ही वारे न्यारे होते अगर उसकी शादी अवनी से होती.. अगर अवनी उसकी पत्नी हो जाती... क्योंकि अवनी का परिवार काफ़ी धनी जो था.” “लेकिन जब तुम देख ही रहे थे कि वह लड़की शौमक के अलावा किसी और के साथ शादी नहीं करना चाहती तो तुम्हें उसे छोड़ देना चाहिए था. उसके निर्णय का सम्मान करना चाहिए था.” “व..वही तो नहीं हो पा रहा था मुझसे.. गुरूदेव.. मेरे तो जैसे मन में ही बैठ गया था कि मुझे अगर शादी करनी है तो इसी से करनी है.. नहीं तो.. नहीं तो..” “नहीं तो क्या वत्स?” अब तक ग्लास ज़मीन पर एक ओर रख चुके बिस्वास जी बाबा के इस प्रश्न पर उत्तर देने के स्थान पर अपना सिर दोनों हाथों से पकड़ कर बैठ गए और बहुत धीमे स्वर में कहा, “पता नहीं.. गुरूदेव... उस समय मुझे जो सूझता... मैं तब वही करता.” “तो क्या इसलिए शौमक की सहायता नहीं की तुमने?” “जी गुरूदेव. वो निकम्मा कामचोर... कोई माने या न माने गुरूदेव.. पर मैं और गाँव के और भी कई लोग ये जानते थे कि शौमक जादू टोना सीखता – करता था... और... आखिर में अवनी से शादी कर ही ली उसने. शादी की पहली रात भी मनाने वाला था. अवनी की शादी किसी ओर से होता देख मैं सहन तो नहीं कर पाता लेकिन फिर भी खुद को मना लेता. पर... पर... शौमक की उससे शादी की खबर सुन कर मैं तो बुरी तरह से गुस्से से पागल हो गया था. स्वयं पर इतना सा भी नियंत्रण न रख पाया. उसे मारना मेरा उद्देश्य नहीं था.. केवल प्रताड़ित करना चाहता था.. डराना चाहता था.. दंड देना चाहता था. जब देखा की वह नदी के उस दक्षिण दिशा के उस खास जगह में डूब रहा था तो यही सोच कर उसकी सहायता नहीं किया की चलो अब कम से कम अवनी को पाने का मार्ग कुछ तो सरल हुआ. पर... ” बिस्वास जी के वाक्य को अब बाबा ने पूरा किया, “पर कौन जानता था की नियति को कुछ और ही स्वीकार था... यही न!” बिस्वास जी केवल सिर हिला कर सहमति जता पाए. उनकी आँखों से फिर अश्रुधारा बहने लगी. बाबा ने कुछ कहा नहीं. बिस्वास जी को थोड़ी देर रो लेने का समय दिया ताकि उनका मन कुछ हल्का हो जाए. बिस्वास जी जब शांत हुए तब, “बिस्वास... बस एक अंतिम प्रश्न रह गया है पूछने को. आशा है की उसका भी तुम बिल्कुल सही उत्तर दोगे.” “जी गुरूदेव.. अवश्य.. वैसे भी अब छुपाने को रह ही क्या गया है. आप पूछिए.” “क्या हरिपद भी इन सब में बराबर का भागीदार था?” एक क्षण के लिए बिस्वास जी चौंक पड़े.. लेकिन तुरंत ही सामान्य हो गए. ये प्रश्न ऐसा अवश्य था जिसकी अभी बिस्वास जी ने कल्पना नहीं की थी पर अब जब बाबा ने पूछ ही लिया है तो बिस्वास जी को भली भांति पता है कि क्या उत्तर देना है. “जी गुरूदेव. वो इन सब में भागीदार भी था और मेरा साझीदार भी था. उसे मेरी मंशा का पूरा पूरा भान था.” दृढ़ स्वर में उत्तर दिया उन्होंने. उनके उत्तर देने के दौरान बाबा उनके मुखमंडल को ऐसे देख रहे थे मानो कुछ पढ़ने – ताड़ने का प्रयास कर रहे हों. कुछ और इधर उधर के प्रश्न करने के बाद बाबा ने बिस्वास जी को विदा किया. विदा करने से पहले एक मन्त्र सिद्ध माला भी दिया ताकि कोई बुरी शक्ति उनका हानि लाख चाह कर भी न कर पाए. बिस्वास जी के जाने के बाद गोपू बड़े असमंजस भाव से बोल उठा, “गुरु देव.. मैं जिसे अब तक सबसे अच्छा समझ रहा था; अंततः वही बुरा निकला?!” बाबा मुस्कराए और बोले, “तुम्हारी स्थिति समझ सकता हूँ. तुम्हारा प्रश्न सर्वथा उचित ही है. इस संसार में अक्सर ही ऐसा होता है वत्स.. किसी को कुछ समझो तो वो कुछ और ही समझा जाता है.” अब चांदू बोला, “तो इसका ये मतलब हुआ क्या गुरूदेव कि ये पूरा गाँव... सभी गाँव वाले दोषी हैं?” “नहीं वत्स.. गाँव वाले तो अवनी के घर वालों के साथ मिल कर बस उन दोनों को पकड़ना चाहते थे.. पकड़ कर उचित दंड भी देते.. लेकिन हत्या जैसा जघन्य अपराध नहीं करते.. पर ये जो कुछ भी हुआ है.. इसका दोषी तो बिस्वास, हरिपद और उनके कुछ साथी हैं जो इस पूरे घटनाक्रम को अपने लाभ हेतु दुरूपयोग करते हुए इसे दूसरा ही रूप दे दिया.” “परन्तु गुरूदेव... लोग जो इस तरह मर रहे हैं... इसका कारण?” “वत्स, कारण या तो बिस्वास की कही गई घटना से जुड़ी हो सकती है या फ़िर इस कारण के पीछे कोई और कारण हो सकता है.” “आप ऐसा क्यों कह रहे हैं गुरूदेव?” चांदू ने ऐसे प्रश्न किया मानो उसे अब भी बाबा के बातों में कुछ अजीब होने की आशंका हो रही है. “ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि ऐसा ही कुछ होने का आभास हो रहा है मुझे. दक्षिण दिशा में नदी में डूब कर प्राण गँवाने वाले शौमक का क्रोध, उसकी प्रतिशोध की भावना तो समझ में आ रही है.. पर.. जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण मुझे फ़िलहाल समझ में नहीं आ रहा है.” “आपका अर्थ समझ में नहीं आया गुरूदेव.. क्या नदी में जितनी भी मृत्यु हुई है.. सब शौमक की आत्मा ने किया है?” “हाँ वत्स, नदी के उस भाग में आज तक जितनी भी मृत्यु हुई है; उन सब के पीछे शौमक की आत्मा का ही हाथ है. सभी मरने वाले या तो विवाहिता या फिर नवयौवनाएँ थीं. इसका यही अर्थ हो सकता है कि विवाह के तुरंत बाद वाली क्रिया पूर्ण न हो पाने के कारण ही वो औरतों और युवतियों को दक्षिण भाग के भंवर में फँसा कर पहले अपनी तुष्टि करता है; फ़िर निर्दयता के साथ मार देता है.. किन्तु... जंगल में होने वाले मृत्यु के कारण समझ में नहीं आ रहे हैं. शौमक मरता नहीं यदि पूरे परिदृश्य की संरचना वैसी नहीं होती जैसा की बिस्वास ने कुछ देर पहले हमें बताया था. लेकिन अवनी ने तो जंगल में आत्महत्या की थी. उसके घर वाले तो उसे ले जाने गए थे.. सकुशल.. तो फिर... आत्महत्या क्यों की? क्या वो भी विवाह की पहली रात न मना पाने के कारण दुखी थी? क्या ये दुःख इतना बड़ा था कि आत्महत्या कर ली जाए?” बाबा के इस प्रश्न का उत्तर दोनों शिष्यों में से किसी के पास भी नहीं था और स्वयं बाबा के पास भी नहीं. सभी कुछ देर तक चुप रहते हुए कुछ न कुछ; अंदर ही अंदर सोच रहे थे कि बाबा फिर बोल पड़े, “सच कहूँ तो शौमक और अवनी से संबंधित प्रश्न मुझे उतना दुविधा में नहीं डाल रहे जितना की उस युवती का उद्देश्य जो उस दिन बिस्वास को प्रायः मार ही चुकी थी...” सुनते ही गोपू तपाक से बोल उठा, “कौन? वो... अ... क्या नाम... हाँ... लाडली??” “हाँ.. लाडली. वो वहाँ क्यों थी... वो भला बिस्वास को क्यों मारना चाहेगी.. और तो और... उसे भेजने.. उससे कार्य करवाने की क्षमता भला किस में है?” “क्यों गुरूदेव.. आप ऐसा क्यों कह रहे हैं?” “क्योंकि वो कोई साधारण मनुष्य नहीं थी.. अरे साधारण तो क्या.. वो तो कोई मनुष्य ही नहीं थी. ये बात तो मैं पहले भी बता चुका हूँ तुम लोगों को.” “जी गुरूदेव. परन्तु कृप्या ये बताइए कि आप उस लाडली को लेकर बारम्बार चिंतित क्यों हुए जा रहे हैं? क्या वो ही अवनी नहीं थी? क्या आप उसे जानते हैं?” “नहीं. वो अवनी नहीं थी. गोपू के माध्यम से गोपू के साथ साथ मैंने भी उसके शरीर की ऊर्जा अनुभव किया है.. और अनुभव करते ही मैं जान गया था कि वो कौन है. इसलिए मैं चिंतित हूँ कि उससे अपना कार्यसिद्ध करवाने की क्षमता रखने वाला कौन है.. कौन है वो जिसने इस लाडली को भेजा था क्योंकि जिसने भी लाडली को भेजा था वह निःसंदेह काफ़ी क्षमतावान सिद्धहस्त है... क्योंकि ये लाडली तो स्वयं अपने आप में बहुत.. बहुत ही शक्तिशाली चीज़ है.” गोपू और चांदू ने एक दूसरे को देखा.. फिर एक साथ ही पूछा, “व.. वो.. कौन थी, गुरूदेव?” बाबा का चेहरा बहुत ही गम्भीर हो गया. शरीर एक ऐसे भाव में आ गया मानो तुरंत ही किसी अदृश्य सुरक्षा कवच से स्वयं के साथ साथ अपने शिष्यों को भी घेर लिया हो. चेहरे के भाव उनके हृदय की अवस्था की स्पष्ट चुगली करने लगे की बाबा चिंतित तो हैं लेकिन दृढ़ संकल्पित भी हैं. बाबा को चुप देख गोपू और चांदू ने फिर एक दूसरे को देखा. फिर बाबा को देखा. अपने स्थान से थोड़ा आगे बढ़ कर बाबा के थोड़ा निकट आए दोनों. और दोबारा अपना प्रश्न किया, “वो कौन थी गुरूदेव?” प्रश्न के समाप्त होते ही बाबा बोल पड़े; एकदम सर्द... भाव रहित अंदाज़ में, “चंडूलिका !!”
21-09-2020, 01:14 AM
देर आये दुरुस्त आये।
कहानी को ऐसे बीच मझधार में नहीं छोड़नी चाहिए थी।
21-09-2020, 10:21 PM
24-09-2020, 01:43 PM
maza aa gaya......
27-09-2020, 12:17 AM
Interesting great update more
01-10-2020, 08:49 PM
कहानी अभी शेष हो तो कृपया जल्दी से पोस्ट कीजिये।
01-10-2020, 10:18 PM
१५)
चंडूलिका
दो दिन बाद एक शुभ मुहूर्त देख कर बाबा ने एक विशेष अनुष्ठान का शुभारंभ किया. करना तो वो एक विशेष प्रकार का यज्ञ चाहते थे लेकिन कुछ सोच कर उन्होंने अपने इस अनुष्ठान को एक भिन्न रूप से करने का निश्चय किया. जप करने के लिए चांदू को साथ बिठाया और स्वयं भी कुछ जपते हुए ध्यान में लीन हो गए. किसी भी प्रकार की विघ्न – बाधा; विशेषतः यदि वो आसुरिक, तांत्रिक, मांत्रिक या अज्ञात अदृश्य कोई आक्रमण हो तो उनसे लड़ने और उनके उद्देश्यों पर पानी फेरने के लिए बाबा ने गोपू को पहरे पर बिठा दिया. बाबा और गोपू ने मिलकर कुटिया को चारों ओर से मंत्रों से पोषित कर दिया था और कुटिया के बाहर बिस्वास जी समेत दस और लोगों को पहरे पर लगा रखा था ताकि कोई आदमी, औरत या जानवर इत्यादि कुटिया के आस पास या बाबा से मिलने की बात कह कर अनुष्ठान में विघ्न न डाले. और कहीं बिस्वास जी और अन्य साथियों पर कोई ऊपरी शक्ति हावी हो कर किसी प्रकार का हानि न पहुँचाए इसके लिए भी बाबा ने पर्याप्त व्यवस्था कर रखा था. अनुष्ठान आरम्भ हुआ. मंत्र जाप भी आरम्भ हुआ. कुटिया के अंदर बाबा और चांदू से थोड़ी दूरी पर बैठा गोपू चौकन्ना हो गया. कुटिया के बाहर उपस्थित बिस्वास जी और अन्य लोग भी सतर्क और सावधान हो गए. किसी ऊपरी बला के आ कर उन लोगों को नुकसान पहुँचाए; इस बात का डर तो था उन लोगों में परन्तु बाबा की शक्तियों पर भी उन्हें अगाध विश्वास और श्रद्धा थी. गोपू भी बहुत सतर्क था लेकिन बाहर उपस्थित लोगों के जैसे भयभीत नहीं था. कई प्रकार की ऊपरी बाधा और शक्तियों से वो पहले भी निपट चुका था. स्वभाव से तो वीर था ही; बाबा के मार्गदर्शन में वह तंत्र - मंत्र विद्या में महारत प्राप्त कर चुका था. बाबा के सामने पाँच फल रखे हुए थे. पाँचों ही बिल्कुल ताज़े. कुछ देर पहले ही पानी से अच्छे से धोया गया थे इन्हें. जप करते करते बाबा ने ‘हुम’ कर के एक गम्भीर नाद किया. चांदू के लिए ये एक संकेत था. उसने अपना मंत्रजाप वहीँ रोका और आँखें खोल कर पहले बाबा की ओर देखा जो अब भी आँखें बंद किए जाप किए जा रहे थे. उसने तुरंत सामने रखे फलों में से एक फल उठा लिया और तुरंत उसे चाक़ू से काटा. फल अंदर से भी ताज़ा ही निकला. चांदू तनिक निराश हुआ. गोपू की ओर देखा. वो भी निराश हुआ सा लगा. चांदू को सफ़लता मिलने का पूरा भरोसा था.. पर ऐसा हुआ नहीं. लेकिन वो भी एकदम निराश नहीं हुआ था. बाबा पर पूरा भरोसा था उसे. इसलिए तुरंत ही अपने आसन पर पूर्ववत् बैठ गया और मंत्रजाप शुरू कर दिया. इधर गोपू ने भी अपने नेत्रों को मन्त्र से सिंचित कर खिड़की से बाहर की ओर देखा. कहीं कुछ पारलौकिक नज़र नहीं आया. बिस्वास जी और अन्य लोग किसी भी प्रकार के दुर्घटना या चुनौती के लिए पूरी तरह तत्पर दिख रहे थे. उस खिड़की से गोपू को जितने भी लोग नज़र आए; उन सबको बारी बारी से बहुत अच्छे से देखा. किसी में भी कुछ भी संदिग्ध नज़र नहीं आया. किसी बात का संदेह तो बारम्बार हो रहा था गोपू को किन्तु जब कहीं कोई ऐसी बात न दिखी जो उसके संदेह को बल देती तब वो स्वयं ही निश्चिन्त हो गया. इधर बाबा का अनुष्ठान चलता रहा. तीन से चार घंटे बीत गए. बाबा और चांदू मंत्रों का जाप करते रहे. बीच बीच में बाबा के ‘हुम’ करके संकेत करने पर चांदू एक एक कर के फल काटता रहा; लेकिन हरेक फल अंदर से ताज़ा ही निकला. अंततः बाबा को भी एक निश्चित समय बाद अपना मन्त्र जाप बंद करना पड़ा. मन्त्र जाप और अनुष्ठान तो पूरा हुआ पर जिस उद्देश्य के लिए किया गया था वो पूरा नहीं हुआ. सभी कटे फलों को बिस्वास जी और उनके अन्य साथियों के बीच बाँट दिया गया. बिस्वास जी ने बहुत पूछा लेकिन उनको केवल इतना ही बताया गया कि अनुष्ठान पूरा हुआ और कम से कम दो - तीन दिनों के लिए कोई संकट नहीं है इस गाँव पर. सभी को विदा करने से पहले बाबा ने कुछ आवश्यक दिशा निर्देश दिया और उन दिशा निर्देशों को पूरी सजगता के साथ पालन करने को कहा. बाबा के दिशा निर्देशों को अपना आदेश मान कर सबने बाबा को प्रणाम किया और अपने अपने घरों की ओर प्रस्थान कर गए. इधर बाबा अपने स्थान पर विश्राम हेतु बैठे लेकिन बहुत चिंतित दिखाई दे रहे थे. गोपू ने आगे बढ़ कर हाथ जोड़ते हुए बाबा से कहा, “गुरूदेव?” “हम्म..” “कुछ पूछने को जी चाह रहा है.. आपकी आज्ञा हो तो पूछूँ?” “वैसे तो हमें अनुमान है कि तुम क्या पूछना चाह रहे हो वत्स.. फिर भी हम तुम्ही से सुनना चाहेंगे. पूछो.. क्या पूछना है?” एक बार फिर बाबा को प्रणाम कर किया गोपू ने और फिर पूछा, “गुरूदेव, क्या आज का अनुष्ठान सच में पूरा हुआ?” “हाँ.. हुआ. और.. नहीं भी.” “अर्थात् गुरूदेव?” “आज के इस अनुष्ठान के दो उद्देश्य थे. एक, अपनी सिद्धियों को पोषित करना. दो, किसी को यहाँ बुलाना.” “किसे बुलाना चाहते थे आप गुरूदेव?” “शौमक और अवनी को.” एक क्षण रुक कर कुछ सोचते हुए पूछा गोपू ने, “तो.. वो.....” उसका प्रश्न पूरा होने से पहले ही गुरूदेव ने उत्तर दे दिया, “नहीं आए, वत्स.” कहते हुए बाबा थोड़ा निराश दिखे. कदाचित उन्होंने इसमें सफ़लता मिलने की ही आशा की थी. बाबा के चेहरे पर उभर आए निराशा को देख गोपू से रहा नहीं गया, पूछा, “तो क्या इसका और कोई उपाय नहीं है गुरूदेव?” “हम्म.. है... अवश्य है. परन्तु अभी हम वो उपाय करेंगे नहीं.” “क्यों गुरूदेव?” “क्योंकि इन दोनों या इनमें से किसी एक को भी बुलाना इतना सरल सहज नहीं होगा. आज के अनुष्ठान के दो उद्देश्यों में से एक उद्देश्य शौमक और अवनी या इन में से कोई एक को अपने पास बुला कर उनसे वार्तालाप करना, प्रश्नोत्तर करना था. पर ऐसा हुआ नहीं... और ऐसा न होने का केवल एक ही कारण है.” “वो क्या गुरूदेव?” तनिक रुक कर बाबा बोले, “कारण ये कि कोई इनको यहाँ मेरे पास आने से रोक रहा है !” “क्या?!” “हाँ वत्स, कोई है ऐसा जिनके सामने इनकी एक नहीं चल रही है. वो जो कोई भी है इनसे कई गुणा अधिक शक्तिशाली है और बड़ी सरलता से मेरा इनके साथ किसी भी प्रकार का कोई भी सम्पर्क होने से रोक रहा है.” “वो कौन है गुरूदेव?” “अभी इसका पता नहीं चला है वत्स. पता कर सकता था यदि मैं इस बात के लिए भी तैयार रहता. परन्तु ऐसा कुछ होगा इसका तो मुझे रत्ती भर का आभास नहीं था.” ये सुनकर गोपू को बहुत निराशा हुई. चांदू को भी. बाबा ने और कुछ नहीं कहा क्योंकि उनके मन में भी कई विचार एक साथ उमड़ घुमड़ कर रहे थे. कुछ समय और बीता. अचानक चांदू को कुछ याद आया और तुरंत बाबा के पास आकर पूछा, “गुरूदेव.. मुझे भी कुछ पूछना है.” “पूछो वत्स.” “गुरूदेव.. ये चंडूलिका कौन है?” प्रश्न सुनते ही गोपू भी बाबा के सामने चांदू के पास आ कर बैठ गया. दोनों का कौतुक देख बाबा मुस्कराए. बोले, “बहुत शक्तिशाली होती है ये चंडूलिका.. इनसे पार पाना हर किसी के बस की बात नहीं. इनसे या तो बहुत ही उच्च कोटि का सिद्ध पुरुष या सिद्ध साधक ही जीत सकता है या फिर ईश्वर का कोई विशेष कृपा प्राप्त व्यक्ति.” “ओह.. ऐसा?! ये तो इसी से पता चलता है कि ये कितनी खतरनाक है.” “ह्म्म्म.” “पर गुरूदेव... ये आखिर है कौन?” बाबा मुस्कराए.. पर स्वेच्छा से नहीं... ये इस बात का संकेत था कि अब बाबा जो बोलने जा रहे हैं वो अप्रत्याशित होगा. क्षणमात्र में उनका चेहरा पहले से भी अधिक गम्भीर हो गया. गम्भीर आवाज़ में ही बोले, “रानी चुड़ैल!” सुनते ही दोनों शिष्य अपने स्थान पर बैठे बैठे ही उछल पड़े. बाबा का ये उत्तर वाकई काफ़ी अप्रत्याशित था. दोनों को ही अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ कि उन्होंने अभी अभी जो सुना.. वो क्या सच में सुना या फिर अत्यधिक उत्तेजना व उत्सुकता में उन्हें कोई भ्रम हुआ? लगभग एक साथ ही दोनों का मुँह खुला, “क्या?? कौन??!!” इधर सिक्युरिटी स्टेशन में, “जी सर.. श्योर सर. बिल्कुल होगा. सर, मैं उसी काम में लगा हुआ हूँ.” इसी तरह कुछ और बातें करने के बाद इंस्पेक्टर रॉय ने फ़ोन क्रेडल पर रखा. एक लंबी साँस छोड़ते हुए कुर्सी पर बैठ गया. पास रखी ग्लास से पानी पिया. दो कागजों पर साईन किया. थोड़ा ठहर कर बेल बजाया. बेल के बजते ही हवलदार श्याम तुरंत कमरे में आया, “यस सर.” “काम कैसा चल रहा है श्याम?” “अ.. सब ठीक है सर.” “हम्म.. अच्छा, मैं पूछ रहा था कि गाँव के केस का क्या हुआ?” “गाँव...?” “अरे वही मिथुन, तुपी काका इत्यादि वाला मामला... क्या हुआ उसका?” “अम..स..सर... जाँच तो अभी चल ही रही है.” “क्या... अभी भी...? श्याम... करीब डेढ़ महीना खत्म होने को आया और तुम कह रहे हो जाँच अभी भी चल रही है?” श्याम ने सिर झुका लिया. वाकई लज्जित था वो. सीरियस होते हुए रॉय ने पूछा, “बात क्या है श्याम... जाँच अगर अभी भी चल रही है तो फिर उसका कोई प्रोग्रेस रिपोर्ट ही दे दो.” “ज..जी सर... प्रोग्रेस तो है. व..” “हम्म.. क्या प्रोग्रेस है बोलो?” “सर, अभी तक के जाँच में इतना स्पष्ट हो गया है कि मिथुन की हत्या में किसी मर्द का हाथ नहीं है; मतलब, हमने जिन लोगों पर संदेह किया था, उनमें जितने भी पुरुष थे सब के सब निर्दोष प्रतीत हो रहे हैं.” “हम्म.. तो क्या ये फाइनल है?” “सर, फाइनल के बारे में अभी कहना थोड़ा जल्दबाजी होगा. परन्तु प्रथम दृष्ट्या तो ऐसा ही लगता है.” “ओके.. तो इसका मतलब हुआ की महिलाओं; रुना और सीमा, ये दोनों संदेह के घेरे में अब भी हैं?” “यस सर.” “ओके.. तो फिर देर किस बात की. दोनों को फिर बुलाओ थाने. कड़ाई से पूछताछ करो. खुद ही सब उगल देंगी.” “सर..” “क्या?” “यहीं पर एक छोटा सा प्रॉब्लम आ गया है.” “प्रॉब्लम?!! कैसी प्रॉब्लम?” “सर.. हमारे खबरी के अनुसार, हरिपद की बीवी सुनीता के भी लाल बाल हैं.. थोड़ा शेड लिए हुए.” “मेहँदी?” “जी सर.” “तो? बालों को तो रंगा ही जा सकता है. गैर कानूनी नहीं है.” “जी सर. गैर कानूनी नहीं है.” “तो फिर?” “सर, खबरी के अनुसार, वारदातों वाले स्थानों के आस पास उसे भी देखा गया है.” “व्हाट?!!” “जी सर.” “त... तो क्या वो भी.....” “सर, यहीं एक और पेंच है. सुनीता को उन स्थानों पर देखा तो गया है पर उसकी उपस्थिति के समय से वारदात के समय से ठीक मेल नहीं खा रहे हैं.” अब इस बात ने रॉय का दिमाग और भी घूमा दिया. श्याम की ओर एकटक देखते हुए पूछा, “आर यू श्योर?” श्याम ने भी उतनी ही तत्परता से उत्तर दिया, “यस सर.” “ओह.. खबरी ने ठीक से पता किया है सब?” “जी सर. खबरी अभी भी इसी काम में लगा हुआ है.” “ओके. ओके... और कोई नयी बात?” “हाँ सर. गाँव में कोई बाबा आया है. गाँव वालों ने ही बुलाया है. उन लोगों का मानना है कि गाँव में ये सब जो कुछ हो रहा है; किसी ऊपरी बला का काम है और इन सब से कोई अत्यंत सिद्ध साधक ही उन लोगों का व इस गाँव का उद्धार कर सकता है.” रॉय धीरे से हल्का हँसा.. बोला, “गाँव वालों की तो बात ही अलग है. क्या लगता है तुम्हें, कैसा है ये बाबा? ढोंगी? या सच में कोई चमत्कार दिखा सकता है??” “सर, मैंने पूछा था खबरी से इस बारे में, उसके अनुसार बाबा वाकई बड़ा सिद्धहस्त ज्ञात होता है. स्वभाव भी काफी अच्छा है. सबसे बड़ी आत्मीयता से बात करते हैं. गाँव आए उनको यही कुछ पंद्रह दिन के आस पास हो गए और इतने ही दिनों में कईयों के दुःख दर्द को दूर किया है उन्होंने.” “हम्म.. तुम्हारी बातों से लगता है तुम भी उन पर विश्वास करते हो.” रॉय ने हँसते हुए व्यंग्य किया. उत्तर में श्याम चुप रहा. मुस्करा कर सिर नीचे कर लिया. रॉय को और भी कई काम करने थे इसलिए श्याम को जाने को कहा ये निर्देश देते हुए कि जाँच के काम में तेज़ी लाए और जल्द से जल्द प्रोग्रेस की हर खबर उन तक पहुँचाए. श्याम के जाते ही रॉय दोबारा सामने पड़ी फाइल को उठा कर देखने लगा. दूसरी ओर, बाबा अपने दोनों शिष्यों को समझा रहे थे.. “हाँ वत्स.. ये जो शक्ति है ये बहुत ही शक्तिशाली होती है. साफ़ शब्दों में कहा जाए तो महाशक्तिशाली होती है ये. इनसे टक्कर ले पाना या लेना आत्मघात के समान होता है. दुष्ट व काली शक्तियों की प्रधान देवियों में से एक होती है ये चंडूलिका. हर कोई इनकी साधना नहीं करता है... क्योंकि हर कोई इनकी साधना कर ही नहीं सकता. इन्हें प्रसन्न करने का मार्ग व उपाय बड़ा विषम और दुष्कर है... और यदि इन्हें प्रसन्न कर लिया गया तो समझो आधी से अधिक काली शक्तियाँ तुम्हारे इशारों पर नाचने के लिए तत्पर रहेंगी सदा. उन शक्तियों से कोई भी साधक – साधिका दुनिया की कोई भी कार्य कर और करवा सकती है. चंडूलिका सिद्ध साधक – साधिका अजेय तो नहीं पर कम से कम इतना दम ज़रूर रखते हैं की कोई भी उन्हें सरलता से नहीं हरा पाए.” बाबा के मुँह से ऐसी बातें सुन कर गोपू और चांदू का तो जैसे मन ही मर गया. अभी कुछ देर पहले तक दोनों यही सोच रहे थे कि अपराधी को शीघ्र से शीघ्र पकड़ कर गाँव को आंतक व विपदा से मुक्त कर लेंगे परन्तु यहाँ तो मामला ही कुछ टेढ़ी खीर वाला निकला. दोनों शिष्यों के मनोभावों को समझने में बाबा को देर न लगी. मुस्करा कर बोले, “चिंता न करो वत्स.. मन छोटा न करो....” चांदू अधीरता के कारण बीच में ही बोल पड़ा, “चिंता कैसे न करें गुरूदेव. आपने बात ही ऐसी कह दी. एक तो ऐसे साधक और शक्ति अजेय होती हैं और ऊपर से यदि इनसे टकराते समय आपको कुछ हो गया तो?” “हा हा हा. तुम्हारी ये चिंता अच्छी लगी चांदू और ये उचित भी है. पर लगता है अत्यधिक चिंता में तुमने मेरे अंतिम वाक्य पे गौर नहीं किया.” चांदू असमंजस वाली दृष्टि से बाबा को देखने लगा. बाबा ने कहा, “वत्स, मैंने कहा की ‘चंडूलिका सिद्ध साधक – साधिका अजेय तो नहीं पर कम से कम इतना दम ज़रूर रखते हैं की कोई भी उन्हें सरलता से नहीं हरा पाए’ इसका अर्थ ये हुआ कि इन्हें हराया जा सकता है. इन्हें हराने के लिए विशेष मंत्र तंत्र की आवश्यकता होती है जो हर कोई नहीं जानता है और न ही अधिकांश लोग जानने का ही प्रयास करते हैं.” “अर्थात् आप इन्हें हरा सकते हैं?” “बिल्कुल.” “अर्थात् आप इन्हें हराने का उपाय जानते हैं?” चांदू की इस बात पर बाबा ज़ोर से हँस पड़े, “हा हा हा हा हा हा... वत्स.. अगर नहीं जानता तो ये कहता ही क्यों की मैं इन्हें हरा सकता हूँ. हा हा हा.” चांदू अपने इस बेवकूफी वाले प्रश्न पर स्वयं बड़ा लज्जित हुआ. गोपू भी चांदू के इस तरह के व्यवहार पर हँसने से स्वयं को रोक न सका. कुटिया में वातावरण इसी बहाने थोड़ा हल्का हो गया. बाबा भी हँस-मुस्करा रहे थे... पर अंदर ही अंदर इस बात से भी चिंतित थे कि चंडूलिका शांत नहीं बैठी होगी. शौमक और अवनी के आत्माओं के संग अपने अगले शिकार की तलाश में होगी!
03-10-2020, 07:53 PM
Story bahut interesting hai. Please continue
14-10-2020, 12:37 AM
Sir.. please update...ya ek ebook hi publish kr dijiye puri story likh kr
14-10-2020, 07:54 AM
१६)
चार दिन बाद, एक दिन श्याम सुबह सुबह... रॉय के थाने आते ही उसके सामने जा कर उपस्थित हो गया. चेयर पर आराम से बैठते हुए रॉय ने बड़े इत्मीनान से पूछा, “क्या बात है श्याम? कुछ विशेष है??” “जी सर... ए..एक टिप मिली है.” “टिप.. कैसी टिप?” “मिथुन मर्डर केस में, सर.” “खबरी से??” “जी सर.” “पक्की है न?” रॉय ने सीरियस होते हुए पूछा. श्याम ने भी उतनी ही तत्परता से उत्तर दिया, “जी सर... और अगर खबर पूरी तरह से गलत न भी हुआ तो भी हमें इससे बहुत इम्पोर्टेन्ट लीड मिल सकती है.” “हम्म.. दैट्स वैरी गुड.” “थैंक्यू सर.” “तो.. क्या कहते हो.. चलना है अभी?” “सर, अगर आप अभी फ्री हों तो...” “हम्म... मैं भी वही सोच रहा था. अच्छा, एक बात बताओ.. जा कर जाँच पड़ताल करनी है या उठा कर लाना है.” “सर, मैं तो सोच रहा था की सीधे उठा कर ही ले आएँ. लेकिन ऐसा होना....” “क्यों नहीं हो सकता... एक काम करो, तुम जाओ... साथ में ५-६ साथियों को ले जाओ. और जिसको लाना है, ले आओ... पूछताछ के नाम पर. वैसे कोई कुछ कहेगा नहीं पर अगर कोई पूछे तो कहना ऊपर से आर्डर आया है... समझे?” “यस सर.” “गुड.. अब जाओ. गुड लक.” “थैंक्यू सर.” सैल्यूट मार कर श्याम ख़ुशी ख़ुशी कमरे से निकल गया. करीब दो घंटे बाद श्याम लौटा... अपने पाँच अन्य साथियों के साथ. और साथ में थे तुपी काका, उनकी पत्नी सीमा और भांजा बिल्टू. थाने में लौटने के साथ ही श्याम, रॉय के पास गया और खबर सुनाई. रॉय खुश हुआ पर जैसे ही कमरे से निकला; उन तीनों को देख कर हटप्रभ हो गया. उसकी तो बुद्धि ही चकरा गई. प्रश्नसूचक दृष्टि लिए श्याम की ओर देखा. श्याम ने पास आ कर कहा, “सर, खबर मिली है की मिथुन मर्डर केस में सीमा किसी तरह संलिप्त है और इस केस में और अधिक प्रकाश डालने के लिए इसके पति और भांजे को भी साथ ले आएँ हैं.” “वैरी गुड. गुड जॉब.” श्याम की चतुराई देख कर रॉय खुश होता हुआ उसे शाबाशी दिया. अपने सीनियर से शाबाशी मिलने से श्याम भी काफ़ी गदगद हो उठा. परन्तु क्षण भर बाद ही चेहरे पर चिंता लिए बोला, “लेकिन सर... एक छोटी सी दुविधा है..” “वो क्या?” “इन तीनों को ले तो आया.. पर अब इनसे असल बात कैसे उगलवाया जाए ये एक समस्या है.” “समस्या की क्या बात है श्याम. एक काम करते हैं, पहले एक एक कर तीनों को अलग अलग बैठा कर सवाल जवाब करेंगे... अगर इस प्रक्रिया से हमारा काम हो जाता है तो ठीक है.. नहीं तो ज़रुरत पड़ने पर तीनों को साथ बैठा कर क्रॉस क्वेश्चन करेंगे.” रॉय के इस आईडिया से श्याम बहुत खुश हो गया, “ओके सर.” कह कर आगे की कार्रवाई को ले कर व्यस्त हो गया. इधर, बाबा की कुटिया में, गोपू और चांदू बाबा के विशेष दिशा निर्देश के अंतर्गत कुछ विशेष तैयारियों में लगे हुए थे. दोनों के ही हाथ काफ़ी तेज़ी से चल रहे थे और कई सामानों को इकठ्ठा करने में व्यस्त थे. कई पवित्र और दैव सम्बन्धी वस्तुओं को अच्छी तरह से देखा परखा जा रहा था. काफ़ी देर तक यही चलता रहा. जब सभी तैयारी पूरी हुई तब तीनों ही आराम करने लगे. सुस्ताते हुए चांदू पूछा, “गुरूदेव, इतने से हो जाएगा न?” “हाँ वत्स.” “और कार्य?” “हाहाहा... क्यों.. गुरु पर विश्वास नहीं?” “क्षमा करें गुरूदेव.. मेरा ये अभिप्राय नहीं था. दरअसल, जब से चंडूलिका के बारे में सुना है.. मन हमेशा ही भयग्रस्त व संदेहग्रस्त रहता है.” “अपनी क्षमताओं को लेकर इतना संशययुक्त रहना क्या शोभा देता है वत्स?” “नहीं गुरूदेव... म..” उसे बीच में ही रोकते हुए बाबा बोले, “वत्स.. सदैव स्मरण रखना.. चाहे कुछ भी हो.. अपने क्षमताओं पर कभी भी संदेह नहीं करना चाहिए. इस व्यक्ति विशेष की योग्यता का ही ह्रास होता है. स्वयं पर विश्वास नहीं रहता इससे कार्य विशेष को लेकर मन में भय रहता है और अरुचि भी जाग जाती है.” चांदू सिर झुका लिया, बोला, “जी गुरूदेव.” बाबा ने मुस्करा कर चांदू के सिर पर हाथ फेरा और दोनों को ही सम्बोधित करते हुए बोले, “मेरी चिंता अपनी योग्यता, क्षमता या कार्य के पूरा होने या न होने को लेकर नहीं है.. मेरी चिंता है गाँव वासियों को लेकर.” दोनों ने प्रश्नसूचक दृष्टि से बाबा की ओर देखा... बाबा कहते गए, “पता नहीं.. न जाने क्यों मेरा मन कह रहा है कि आने वाले सात दिनों के अंदर अंदर कुछेक गाँव वासियों पर इसी चंडूलिका का या फिर शौमक और अवनी का कोप होने वाला है.” “तो क्या हुआ.. आप उन्हें बचा तो सकते ही हैं गुरूदेव.” “नहीं वत्स, आखिर मैं भी एक मनुष्य हूँ.. मेरी अपनी भी कुछ सीमाएँ हैं. मैं बहुत कुछ तो कर सकता हूँ.. पर सब कुछ नहीं.” “तो फिर उन लोगों को बचाने का और कोई मार्ग शेष नहीं है?” “है वत्स.. है... मैंने इन लोगों को जो दिशा निर्देश दिया है अगर उसका पालन पूरी निष्ठा से किया जाए तो अवश्य ही सबके प्राण सुरक्षित रहेंगे.. अन्यथा दुर्घटना होने की पूरी सम्भावना है.” “अर्थात् गुरूदेव.. आपको ये संदेह है कि कदाचित सभी आपके निर्देशों का पालन नहीं करेंगे?” “संदेह नहीं वत्स... विश्वास!... विश्वास है इस बात का.” “क..क्यों... गुरूदेव...?” बाबा ने उत्तर में कुछ नहीं कहा. वो चुप रहे और खिड़की से बाहर आसमान की ओर देखने लगे. गोपू और चांदू इस संकेत को समझ गए. बाबा ने कुछ देर पहले खुद ही कहा था कि वे बहुत कुछ कर सकते हैं... लेकिन सब कुछ नहीं. सब कुछ उनके हाथ में नहीं है. पता नहीं आने वाले सात दिनों में गाँव में क्या क्या होगा... दोनों अत्यंत चिंतित हो उठे. उधर, थाने में इंटेरोगेशन शुरू हो चुका था. शुरुआत तुपी काका से ही हुआ... पर तब इंस्पेक्टर रॉय और हवलदार श्याम का आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब इंटेरोगेशन को शुरू हुए दस मिनट ही मुश्किल से हुए थे कि तुपी काका बिलख बिलख कर रोने लगे और हाथ जोड़ कर सिक्युरिटी वालों से एक ही बात बार बार दोहराने लगे कि, “दया कीजिए साब, मुझसे मेरी बीवी के बारे में मत पूछो; मैं नहीं बोल पाऊंगा... साब... मत पूछो साब... कृपा करो साब.” “क्यों.. क्यों कुछ नहीं बोल पाओगे?” रॉय ने थोड़ा सख्ती से पूछा. तुपी काका रोते हुए ही बोले, “साब, जीवन में आज तक अपने आचार, विचार, व्यवहार और व्यापर से बहुत नाम कमाया. बहुत सम्मान मिला पूरे गाँव में... पूरे समाज से. मेरी तो विवाह की भी इच्छा नहीं थी.. माँ के गुजर जाने के बाद बाबूजी की जिद्द कहिये या उनकी इच्छा; देर से ही सही... मैंने शादी कर ली. संतान नहीं हुआ.. इसे भी भाग्य समझ कर समझौता कर लिया. ल...ले.. लेकिन य.. ये थाना.. प... सिक्युरिटी... सवाल... ज...जवाब... मुझसे न.. नहीं होगा साब... नहीं होगा.” बच्चों की तरह रोते बिलखते तुपी काका झुक कर लगभग रॉय के पांव ही पड़ गए... रॉय तुरंत पीछे हट गया. तुपी काका का रोना धोना देख कर श्याम तो बिल्कुल किंकर्तव्यविमूढ़ सा हो गया. उससे कुछ बोलते नहीं बना. वैसे भी, जब उसके सीनियर वहाँ पर उपस्थित हैं तो फिर वो क्यों बोले. कुछ पलों के लिए रॉय का दिमाग भी एकदम से ब्लैंक हो गया था पर था वो एक बहुत ही स्मार्ट ऑफिसर. खुद को सम्भालने में कम समय लगा उसे. तुरंत ही समझ गया कि तुपी काका ऐसा कुछ अवश्य ही जानते हैं जो इस केस में बहुत सहायक हो सकता है पर साथ ही कदाचित तुपी काका और उनके परिवार के सम्मान को चोट पहुँचा सकता है. इसलिए उस समय तो तुपी काका को वहाँ से उठ कर बाहर जा कर बैठने बोल दिया पर ये दृढ़ निश्चय भी कर लिया की थोड़ी देर बाद तुपी काका के अंतर्मन को फिर से खोदेगा. रॉय ने बिल्टू को बुलवाया. बिल्टू अंदर आया ... घबराया.. बैठा.. उसे पहले पानी दिया गया... रॉय ने उसे पाँच मिनट का टाइम दिया. बिल्टू का घबराहट धीरे धीरे कुछ कम हुआ. रॉय अब उसके ठीक सामने चेयर पर बैठा... उसकी ओर देखते हुए.. पूछा, “बिल्टू... अब कैसा लग रहा है..?” “ज..जी.. ठ.. ठीक हूँ ...स... साब..” “और पानी चाहिए?” “न..नहीं साब..” “हम्म.. तो अब हम जो कुछ पूछेंगे उसका तुम सही सही जवाब देना... ठीक है?” “ज..ज..जी...साहब... ब.. बिल्कुल..” “ह्म्म्म.. तो बिल्टू.. ये बताओ... तुम्हारा अच्छा नाम क्या है...तुम यहाँ कब से रहते हो.. क्यों रहते हो... तुम्हारे माता पिता कहाँ हैं.. इत्यादि..” “ज.. जी साब.. बचपन में माता पिता के देहांत के बाद से ही मामा के पास यहाँ रहने लगा था. मामा मामी से बहुत प्यार मिला है. बिल्कुल उनके अपने बेटे जैसा. उनकी अपनी कोई संतान नहीं है न... इसलिए देखा जाए तो एक तरह से... उन लोगों ने मुझे अपना लिया... था... म.. मेरा न.. नाम भी मामा जी ने ही र..रखा था ... गोबिन्दो दास... पर चूँकि सिर पर असल माँ बाप का ही छाँव नहीं था इसलिए अपना ही बेटा मानते हुए... म.. मामा न..ने मेरा नाम गोबिन्दो पाल रखना ही अ..अच्छा समझा.” “ओके.. मामा और मामी के साथ तुम्हारे संबंध कैसे हैं?” “बहुत अ.. अच्छे ह..हैं साब.” “मामा और मामी के बीच के संबंध कैसे हैं?” “ब.. बा.. बहुत बढ़िया है साब.” “उनका अपना कोई सन्तान नहीं है.. इस बात को लेकर दोनों के बीच कभी कोई खटपट नहीं हुई?” “स.. साब.. म.. मैं तो बचपन से ही इनके साथ रहता हूँ.. न..नहीं साब, कभी कोई खटपट नहीं हुई है.” “सच कह रहे हो?” “ज.. जी.. साब...” “दोनों की आयु में बहुत अंतर है.. कम से कम पंद्रह साल का. विवाह करने में इतनी देर क्यों की तुपी काका ने?” “नहीं पता साब... भ.. भला मुझे कैसे पता होगा?” “इस आयु अंतर के कारण भी कभी कोई खिटपिट हुई है दोनों में?” “अम... ज..जहाँ तक मुझे मालूम है साब... ऐसा तो कभी क..कुछ हुआ नहीं दोनों में.” “पक्का?” “जी साब.” “हम्म.. और मिथुन...?’ “म.. मिथुन का क्या साब..?” “ये मिथुन का क्या किस्सा है? उसके बारे में कुछ बताओ.” “मिथुन भी बहुत कम आयु से ही हमारे यहाँ रहते आया है साब.. दरअसल, उसके माँ बाप बहुत गरीब थे.. बच्चे कुल सात थे.. समुचित पालन पोषण में बहुत ही असमर्थ थे दोनों इसलिए तुपी मामा के यहाँ मिथुन को छोड़ गए थे. काम भी करेगा.. रहना खाना होगा.. और बड़ा भी हो जाएगा..” “क्यों.. तुम्हारे तुपी मामा के यहाँ ही क्यों छोड़ा मिथुन को?” “जी.. व.. वो क्या है कि... मिथुन के पिताजी को भी उनके पिताजी ने तुपी मामा के पिताजी स्वर्गीय सुनील पाल जी के यहाँ छोड़ गए थे. वो भी हमारे यहाँ ही बड़े हुए थे.. परिवार के सदस्य की भांति रहते खाते पीते और .. बदले में घर से सम्बन्धित काम कर देते.... चाहे घर में हो या बाहर का काम हो.” “बाहर का काम...?” “जी.. जैसे पुआल ले आना, सब्जी ले आना.. कहीं कुछ पहुँचा कर आना.. इत्यादि.. सब.” “ओह्ह.. ओके..ओके..” “ज.जी साब.” “बिल्टू... तुम्हें याद होगा शायद.. जिस दिन हम तुम्हारे घर गए थे.. मिथुन की बॉडी देखने... उस दिन तुमने हमें बताया था कि तुम्हारे मामा मामी; विशेषतः तुम्हारी मामी मिथुन को सगे बेटे से भी अधिक मानती थी... ऐसा क्यों? तुम तो थे ही बेटे के रूप में.. फिर कोई और क्यों?” “न.. नहीं साब.. वो मुझे ही अधिक मानती हैं.” “क्या मानती हैं?” इस प्रश्न पर बिल्टू एकदम सुन्न सा हो गया. उसने कल्पना ही नहीं किया था कि इस तरह से भी प्रश्न कर सकते हैं सिक्युरिटी वाले. थूक निगलते हुए तनिक मुश्किल से बोला, “ब.. बेटा मानती है.. साब.” “पक्का..??” “जी साब.” “तो फिर मिथुन को सगा बेटा जैसा मानने का कारण??” “पता नहीं सर.” कह कर बिल्टू ने नज़रें फेर लिया. घबराहट के लक्षण फिर से दिखाई देने लगे थे. रॉय ने कुछ सोचा और बिल्टू को जाने दिया. अब बारी सीमा की थी. |
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