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Adultery नबीला और रंजीत
#1
काउंटर पर मलमल के कपड़े के नीचे गुंधा हुआ आटा टिका था, उसकी सतह ऐसी चिकनी और स्थिर थी जैसे सो रही हो, जबकि चूल्हे की आग की आख़िरी लपट बुझने से पहले एक अंतिम आह भर कर थम गई। रसोई की गरमाहट अब भी हवा में ठहरी हुई थी-इलायची, प्याज़ और ताज़ा गुंधे आटे की मिली‑जुली महक। मैंने अभी-अभी नॉब बंद किया था और तौलिये की तरफ़ हाथ बढ़ा ही रही थी कि उसकी आवाज़ ख़ामोशी को चीरती हुई आ गई।
"नबीला!"
वो पुकार चौंका देने वाली थी-तीखी और गरजदार। ऐसा लहजा जो सिर्फ़ दीवारों से गुज़रता नहीं, बल्कि रीढ़ में धँस कर बैठ जाता है।
मेरी साँस अटक गई। रसोई का सुकून ताश के महल की तरह ढह गया। मैं एक लम्हे को जड़ हो गई, मेरी शाम की रवानी टूट गई। फिर आहिस्ता‑आहिस्ता, बड़े सलीके से, मैंने सिंक के पास टंगे तौलिये के किनारे पर अपने नमीले हाथ पोंछे।
कपड़ा आज आम दिनों से कुछ ज़्यादा खुरदुरा लगा-या शायद मेरी ही त्वचा तन गई थी, अचानक तनाव से नाज़ुक। मैंने कड़ी निगल ली, कंधे कस गए, जिस्म पहले ही आने वाले तूफ़ान को भाँप रहा था। मैंने जवाब नहीं दिया। अभी नहीं। मुझे एक और साँस चाहिए थी।
आग में क़दम रखने से पहले बस एक और ख़ामोश लम्हा।
जवाब देने से पहले मैंने पल भर को आँखें मूँद लीं, सीने में उठती दहशत की तेज़ लहर को थामने की कोशिश की।
“क्या हुआ?” मैंने पलट कर पुकारा, आवाज़ को सम रखा।
लेकिन वो लफ़्ज़ों से जवाब नहीं आया-वो तूफ़ान की तरह रसोई में आ घुसा, हाथ में मोबाइल मुठ्ठी में जकड़ा हुआ, चेहरा पहले ही तना हुआ।
“मम्मी ने बताया-तुमने अपनी माँ को पार्टी में बुला लिया?” वह झल्लाया।
मैं धीरे-धीरे उसकी तरफ़ मुखातिब हुई। मेरे हाथ जो कुछ देर पहले सूख चुके थे, अब घबराहट में सामने आपस में जकड़े हुए थे। मेरी आवाज़ मगर मुतमइन रही।
“हाँ। अदनान उन्हें मिस करता है। रोज़ उनका नाम लेता है। बर्थडे पर उनका होना ज़रूरी था।”
वह हँसा और क़रीब आ गया। “मिस करता है? तो मैं क्या हूँ? मैं उसका बाप हूँ, नबीला! और मैं कह रहा हूँ कि वो इस घर में नहीं आएँगी।”
मैंने सीधे उसकी आँखों में देखा। “तुम ये सिर्फ़ इसलिए कह रहे हो क्योंकि तुम्हारी माँ उनसे बात नहीं करतीं। वो मेरी माँ हैं। और जब पापा गुज़रे थे, उन्हीं ने मुझे सँभाला था। मेरे लिए वो सिर्फ़ माँ नहीं, मेरा सहारा हैं, आसिफ़। मैं दुनिया के लिए किसी भी रिश्ते से समझौता कर सकती हूँ-लेकिन अपनी माँ से नहीं।”
उसका जबड़ा सख़्त हो गया। “मुझे ज़रा-सा भी फ़र्क़ नहीं पड़ता। मुझे ये ड्रामा नहीं चाहिए। अभी फ़ोन उठाओ। उन्हें कॉल करके मना करो।”
मैंने यक़ीन न आने वाली नज़र से उसे देखा। “आज? अदनान के बर्थडे वाले दिन? बिना किसी वजह के? सिर्फ़ क्योंकि तुम्हारी माँ को प्रॉब्लम है?”
वह और क़रीब आ गया, इतना कि उसकी कड़वी कोलोन की तीखी गंध महसूस होने लगी।
“तू हर बात में मेरी माँ के सामने जाने लगी है। तुझ में इतनी हिम्मत कैसे आई?”
मेरे हाथ मुट्ठियों में बँध गए। “मैं किसी के सामने नहीं जा रही। मैं सिर्फ़ इतना कह रही हूँ कि मेरी माँ मेरे लिए अहम हैं। मैं उनका अपमान नहीं कर सकती।”
उसने हथेली काउंटर पर पटकी; आवाज़ रसोई में गूँजी और एक चम्मच खनक कर फ़र्श पर गिर पड़ा।
“फ़ोन उठाओ, नबीला। अभी। वरना मैं पार्टी में क़दम भी नहीं रखूँगा।”
मेरे गले में गाँठ-सी पड़ गई। “तुम्हें ज़रा-सी भी शर्म नहीं आती, आसिफ़? आज तुम्हारे बेटे का बर्थडे है। एक दिन भी… एक दिन भी तुम नॉर्मल बिहेव नहीं कर सकते?”
उसकी नथुने फूल गए। “मैं किसी नाटक का हिस्सा नहीं बनूँगा।”
“आसिफ़, प्लीज़,” मैंने नरमी से कहा। “छोटी-सी बात है। मैं मैनेज कर लूँगी। तुम बस-”
वह फ़्रिज से चाबियाँ उठा चुका था।
“मैं कह रहा हूँ, अगर वो आईं तो मैं नहीं आऊँगा। समझ गई न?”
मैं दरवाज़े तक उसके पीछे गई, उसका बाँह पकड़ने को हाथ बढ़ाया। “आसिफ़, रुक जाओ। अदनान पूरा दिन तुम्हारा इंतज़ार करेगा। वो पूछेगा तुम कहाँ हो।”
उसने मेरा हाथ ऐसे झटक दिया जैसे मैं कोई अजनबी हूँ। उसका चेहरा बर्फ़-सा ठंडा था।
“तुम्हारी माँ से मसला तुम्हारा है। तुम सुलझाओ। मैं नहीं आ रहा।”
और फिर, बिना किसी जज़्बे वाली आख़िरी नज़र डाल कर, उसने दरवाज़ा खोला और ज़ोर से बंद कर दिया।
आवाज़ गूँजती रही। उसके जाने के बहुत बाद तक।
मैं जड़ होकर खड़ी रही, हाथ आधा उठा हुआ, उस खाली जगह को देखती जहाँ से वह अभी निकला था।
मेरे हाथ साफ़ थे। मगर अंदर… मैं ख़ाक में लिपटी महसूस कर रही थी।
रसोई अब एक ख़ला-सी लग रही थी-मसालों की ख़ुश्बू से गरम नहीं, बल्कि ख़ामोशी से सूनी। मैं काउंटर से टिक गई, बाज़ुओं को सीने पर मज़बूती से बाँध लिया, जैसे ख़ुद को समेट कर रख रही हूँ।
मुझे अम्मी याद आईं-उनकी मुलायम आवाज़, उनका ठहरा हुआ साथ, बदतर वक़्त में भी उनका लहजा ऊँचा न होना। वो हमेशा मेरी चट्टान रहीं। अब्बा की बीमारी से लेकर आज तक, वो मेरे साथ अडिग खड़ी रहीं, जब दुनिया हाथ से फिसलती जाती थी।
मगर आसिफ़ की माँ के लिए वो नेकदिली कभी काफ़ी नहीं रही। शुरू से ही एक खामोश-सी चौकन्नी नापसंद-एक अनकही बेआरामी-जो वक़्त के साथ बढ़ती गई। वो तंग-नज़र, सख़्त मिज़ाज और ऐसे रिवायती उसूलों पर नाज़ करती थीं जिनमें मेरे जैसी औरत के लिए जगह नहीं थी। उन्हें मेरा अपनी माँ से क़रीब होना पसंद नहीं था, मेरे उनके मशवरे पर भरोसा करना नागवार था, और ये बात तो हरगिज़ नहीं भाती थी कि मैंने नौकरी चुनी।
वो अक्सर हल्की-फुल्की बातों के लिबास में काट देने वाली टिप्पणियाँ करतीं-“हमारे यहाँ बहू घर संभालती है, नौकरी नहीं करती,” या “तेरी माँ ने तुझे कुछ ज़्यादा ही आज़ादी दे रखी है।” उनके लिए मेरी तालीम, मेरी ख़ुदमुख्तारी, मेरी राय-सब ख़तरा थी। अम्मी का ठहराव, उनका मुतमइन दिमाग़, किसी के आगे न झुकने की उनकी खामोश जुरअत-यह सब उन्हें बेचैन करता। उन्हें ख़ामोशी, इताअत, क़ाबू पसंद था। और मैं-एक ऐसी औरत जिसे अपनी माँ ने अपने लिए खड़ा होना सिखाया-उस साँचे में फिट नहीं होती थी।
असल में, वो अपने जैसी ही एक और शक्ल चाहती थीं-ख़ामोश, मोम-सी, साया। लेकिन मेरे पास एक आवाज़ थी। और बदतर ये कि मैं उसे इस्तेमाल करती थी।

आसिफ़ और मेरी भयानक लड़ाई हुई-वो किस्म की जो लफ़्ज़ रुक जाने के बाद भी देर तक आँसू बन कर बहती रहती है। मैं ख़ुद को रोक न सकी और अम्मी को फ़ोन कर दिया। उन्होंने कोई सवाल नहीं किया। सीधे मुझे लेने आ गईं। जब आसिफ़ की माँ घर लौटीं और पता चला कि मैं उनकी इजाज़त के बिना चली गई हूँ, तो उन्होंने फ़ोन पर अम्मी को नाम रखे-इल्ज़ाम लगाया कि वो उनके बेटे की शादी में दखल दे रही हैं।
अम्मी-जो पहले मेरी ख़ातिर कितनी ही तल्ख़ियाँ निगल चुकी थीं-उस दिन नहीं झुकीं। उन्होंने बस इतना कहा, “अपनी बेटी का साथ देना अगर ग़लत है, तो हाँ, मैं ग़लत हूँ।”
उसके बाद, दोनों औरतों ने एक-दूसरे से एक लफ़्ज़ भी नहीं कहा।
और आसिफ़? उसने कभी सवाल न किया। कभी साथ न दिया। बल्कि हर गुज़रते साल के साथ वो अपनी माँ की परछाईं बनता गया। मेरी सुनना छोड़ दिया, हर बात पर मुझे टोकना शुरू कर दिया, क्योंकि “मम्मी ने कहा है…” वो उनकी आवाज़, उनकी मरज़ी, उनका साया बन गया-नाम का शौहर, वफ़ादारी में मगर सिर्फ़ बेटा।
और पिछले कुछ महीनों में वो और भी ठंडा हो गया-दूर-दूर की नज़रें, छोटी-छोटी बातों पर झुंझलाहट, मानो मेरी मौजूदगी ही उसे खलती हो। न मोहब्बत, न नर्मी। बस मेरी नाकामीयों की चलती फिरती फ़ेहरिस्त, जो जाने कैसे मेरे खाते में लिखी जाती रही।
और अब ये-मेरी माँ को एक साधारण दावत देने पर इतना बड़ा धमाका।
मसला सिर्फ़ आज का नहीं था। ये उन सब वजहों का नतीजा था जो मुझे आज यहाँ ले आई थीं।
हमारी शादी को छः साल हो गए थे। जब मैं उसकी बीवी बनी, मैं मुश्किल से इक्कीस की थी-कमसिन, उम्मीदों से भरी, अभी समझ ही रही थी कि मोहब्बत कैसी महसूस होती है। वो बत्तीस का था-काग़ज़ पर परिपक्व, मगर एक ऐसी माँ की गिरहों में जकड़ा हुआ जिसके जहन में उसके लिए किसी दूसरी औरत की जगह न थी।
अब मैं सत्ताईस की थी-ख़ुद एक माँ। आसिफ़ और मेरे दरमियान उम्र का फ़ासला कभी मायने नहीं रखता था। अब वो एक खाई लगता-खामोशी, क़ाबू, और उन तमाम मौक़ों से भरी-जहाँ हमें बीच में मिलना था पर हम चूक गए।
और अब, बरसों की ये तना-तनी मेरे बच्चे के जन्मदिन पर यूँ उबल पड़ी थी।
मैंने काउंटर पर रखे आटे को देखा-वो अब भी सुकून से दम ले रहा था, सब्र से पड़ा था। बाकी सब कुछ ठंडा पड़ चुका था।
मैं वहीं खड़ी रही-अकेली। सिर्फ़ रसोई में नहीं, इस शादी में भी।
ड्रॉइंग रूम से एक नन्ही-सी चहचहाती आवाज़ सन्नाटे को चीरती हुई आई-
“मम्मा… मेरी कार कहाँ है?”
वो आवाज़ तूफ़ान के बाद पहली धूप जैसी लगी।
मैं रसोई से बाहर आई, होंठों पर मुस्कान ओढ़ते हुए-जो चेहरे पर ऐसे तनी थी जैसे ज़ख्म पर तंग पट्टी। “ड्रॉअर में देखो, बेटा। नीचे वाला,” मैंने नर्मी से कहा, इतनी धीमी कि आवाज़ काँपे नहीं।
अदनान ने मेरी तरफ़ देखा भी नहीं। बस सिर हिलाया और कमरे के आर-पार भागा, ड्रॉअर में यूँ टटोलने लगा जैसे छोटे बच्चे ही कर सकते हैं। वो खुद-ब-खुद गुनगुना रहा था, अपने ही सवाल से आगे निकल चुका था।
मैं चौखट पर ठिठक कर उसे देखने लगी।
वो कमरे के बीच पालथी मार कर बैठा था; खिलौने उसके चारों तरफ़ कंफ़ेटी की तरह बिखरे थे-प्लास्टिक फ़िगर, बिल्डिंग ब्लॉक्स वग़ैरह। वो फ़र्श पर एक नीली रेस कार दौड़ा रहा था।
उसकी हँसी-बेख़ौफ़, बेपरवाह, जैसे दुनिया में सिर्फ़ ख़ुशी ही बनी हो-मुझे एक साथ गरम भी कर रही थी और तोड़ भी रही थी।
उसे पता नहीं था।
उसे ये भी नहीं मालूम था कि उसके अब्बू अभी दरवाज़ा पटक कर गए हैं। उसे घर की दीवारों पर पड़ी दरारें, हमारी बातों की चोट, मेरी आँखों का बोझ या सीने का वज़्न-कुछ महसूस नहीं होता था।
और मेरा ख़ुदा का शुक्र है कि नहीं होता था।
उसकी मासूमियत नाज़ुक, रोशन चीज़ थी-अहं, कड़वाहट और वो सारे नीले निशान जिनका बोझ बड़े अनजाने में दे जाते हैं-इन सबसे पाक। मैं कुछ पल वहीं खड़ी रही, उसकी हँसी में भीगते हुए, उसे दिल पर ऐसे लपेट लिया जैसे गरम पट्टी।
शायद, आज के दिन उसे टूटी हुई चीज़ों का इल्म नहीं होना चाहिए। शायद, आज के लिए मैं इतना संभल जाऊँ कि उसे यक़ीन रहे-सब कुछ ठीक है।
बस एक दिन और दिखावा। बस एक दिन और मज़बूत रहना।
उसके लिए।
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