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04-03-2019, 09:25 AM
(This post was last modified: 25-03-2021, 02:16 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥
______________________________
ये कहानी ' नेह गाथा ' है , गाँव गंवई की एक किशोरी के मन की ,
रोमांटिक ज्यादा इरोटिक थोड़ी कम ,
फागु के भीर अभीरन तें गहि, गोविंदै लै गई भीतर गोरी ।
भाय करी मन की पदमाकर, ऊपर नाय अबीर की झोरी ॥
छीन पितंबर कंमर तें, सु बिदा दई मोड़ि कपोलन रोरी ।
नैन नचाई, कह्यौ मुसक्याइ, लला ! फिर खेलन आइयो होरी ॥
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04-03-2019, 09:42 AM
(This post was last modified: 25-03-2021, 02:29 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
लल्ला फिर अईयो खेलन होरी
प्यारे नंदोई जी,
सदा सुहागिन रहो, दूधो नहाओ, पूतो फलो.
अगर तुम चाहते हो कि मैं इस होली में तुम्हारे साथ आके तुम्हारे मायके में होली खेलूं तो तुम मुझे मेरे मायके से आके ले जाओ. हाँ और साथ में अपनी मेरी बहनों, भाभियों के साथ...
हाँ ये बात जरूर है कि वो होली के मौके पे ऐसा डालेंगी, ऐसा डालेंगी जैसा आज तक तुमने कभी डलवाया नहीं होगा. माना कि तुम्हें बचपन से डलवाने का शौक है, तेरे ऐसे चिकने लौंडे के सारे लौंडेबाज दीवाने हैं और तुम 'वो वो' हलब्बी हथियार हँस के ले लेते हो जिसे लेने में चार-चार बच्चों की माँ को भी पसीना छूटता है...लेकिन मैं गारंटी के साथ कह सकती हूँ कि तुम्हारी भी ऐसी की तैसी हो जायेगी.
हे कहीं सोच के हीं तो नहीं फट गई...अरे डरो नहीं, गुलाबी गालों वाली सालियाँ, मस्त मदमाती, गदराई गुदाज मेरी भाभियाँ सब बेताब हैं और...उर्मी भी...”
भाभी की चिट्ठी में दावतनामा भी था और चैलेंज भी, मैं कौन होता था रुकने वाला,
चल दिया. उनके गाँव. अबकी होली की छुट्टियाँ भी लंबी थी.
पिछले साल मैंने कितना प्लान बनाया था, भाभी की पहली होली पे...
पर मेरे सेमेस्टर के इम्तिहान और फिर उनके यहाँ की रसम भी कि भाभी की पहली होली, उनके मायके में हीं होगी. भैया गए थे पर मैं...अबकी मैं किसी हाल में उन्हें छोड़ने वाला नहीं था.
भाभी मेरी न सिर्फ एकलौती भाभी थीं बल्कि सबसे क्लोज दोस्त भी थीं, कॉन्फिडेंट भी. भैया तो मुझसे काफी बड़े थे, लेकिन भाभी एक दो साल हीं बड़ी रही होंगी. और मेरे अलावा उनका कोई सगा रिश्तेदार था भी नहीं. बस में बैठे-बैठे मुझे फिर भाभी की चिट्ठी की याद आ गई.
उन्होंने ये भी लिखा था कि,
“कपड़ों की तुम चिंता मत करना, चड्डी बनियान की हमारी तुम्हारी नाप तो एक हीं है और उससे ज्यादा ससुराल में, वो भी होली में तुम्हें कोई पहनने नहीं देगा.”
बात उनकी एकदम सही थी, ब्रा और पैंटी से लेके केयर फ्री तक खरीदने हम साथ जाते थे या मैं हीं ले आता था और एक से एक सेक्सी. एकाध बार तो वो चिढ़ा के कहतीं,
“लाला ले आये हो तो पहना भी दो अपने हाथ से.”
और मैं झेंप जाता.
सिर्फ वो हीं खुलीं हों ये बात नहीं, एक बार उन्होंने मेरे तकिये के नीचे से मस्तराम की किताबें पकड़ ली, और मैं डर गया लेकिन उन्होंने तो और कस के मुझे छेड़ा,
“लाला अब तुम लगता है जवान हो गए हो. लेकिन कब तक थ्योरी से काम चलाओगे, है कोई तुम्हारी नजर में. वैसे वो मेरी ननद भी एलवल वाली, मस्त माल है, (मेरी कजिन छोटी सिस्टर की ओर इशारा कर के) कहो तो दिलवा दूं, वैसे भी वो बेचारी कैंडल से काम चलाती है, बाजार में कैंडल और बैंगन के दाम बढ़ रहे हैं...बोलो.”
और उसके बाद तो हम लोग न सिर्फ साथ-साथ मस्तराम पढ़ते बल्कि उसकी फंडिंग भी वही करतीं.
ढेर सारी बातें याद आ रही थीं, अबकी होली के लिए मैंने उन्हें एक कार्ड भेजा था, जिसमें उनकी फोटो के ऊपर गुलाल तो लगा हीं था, एक मोटी पिचकारी शिश्न के शेप की. (यहाँ तक की उसके बेस पे मैंने बाल भी चिपका दिए) सीधे जाँघ के बीच में सेंटर, कार्ड तो मैंने चिट्ठी के साथ भेज दिया लेकिन मुझे बाद में लगा कि शायद अबकी मैं सीमा लांघ गया पर उनका जवाब आया तो वो उससे भी दो हाथ आगे.
उन्होंने लिखा था कि,
“माना कि तुम्हारे जादू के डंडे में बहुत रंग है, लेकिन तुम्हें मालूम है कि बिना रंग के ससुराल में साली सलहज को कैसे रंगा जाता है. अगर तुमने जवाब दे दिया तो मैं मान लूंगी कि तुम मेरे सच्चे देवर हो वरना समझूंगी कि अंधेरे में सासू जी से कुछ गड़बड़ हो गई थी.”
अब मेरी बारी थी. मैंने भी लिख भेजा,
“हाँ भाभी, गाल को चूम के, चूचि को मीज के और चूत को रगड़-रगड़ के चोद के.”
फागुनी बयार चल रही थी.
पलाश के फूल मन को दहका रहे थे,
आम के बौर लदे पड़ रहे थे.
फागुन बाहर भी पसरा था और बस के अंदर भी.
आधे से ज्यादा लोगों के कपड़े रंगे थे. एक छोटे से स्टॉप पे बस थोड़ी देर को रुकी और एक कोई अंदर घुसा. घुसते-घुसते भी घर की औरतों ने बाल्टी भर रंग उड़ेल दिया और जब तक वो कुछ बोलता, बस चल दी.
रास्ते में एक बस्ती में कुछ औरतों ने एक लड़की को पकड़ रखा था और कस के पटक-पटक के रंग लगा रही थी,
(बेचारी कोई ननद भाभियों के चंगुल में आ गई थी.)
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04-03-2019, 09:45 AM
(This post was last modified: 25-03-2021, 02:40 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
उर्मी
किसी ने पीठ पे टॉर्च चमकाई (फ्लैश बैक) और कैलेंडर के पन्ने फड़फड़ा के पीछे पलटे,
भैया की शादी...तीन दिन की बारात...गाँव में बगीचे में जनवासा.
द्वार पूजा के पहले भाभी की कजिंस, सहेलियाँ आईं लेकिन सब की सब भैया को घेर के, कोई अपने हाथ से कुछ खिला रहा है, कोई छेड़ रहा है.
मैं थोड़ी दूर अकेले, तब तक एक लड़की पीले शलवार कुर्ते में मेरे पास आई एक कटोरे में रसगुल्ले.
“मुझे नहीं खाना है...” मैं बेसाख्ता बोला.
“खिला कौन रहा है, बस जरा मुँह खोल के दिखाइये, देखूं मेरी दीदी के देवर के अभी दूध के दाँत टूटे हैं कि नहीं.”
झप्प में मैंने मुँह खोल दिया और सट्ट से उसकी उंगलियाँ मेरे मुँह में, एक खूब बड़े रसगुल्ले के साथ.
और तब मैंने उसे देखा, लंबी तन्वंगी, गोरी. मुझसे दो साल छोटी होगी. बड़ी बड़ी रतनारी आँखें.
रस से लिपटी सिपटी उंगलियाँ उसने मेरे गाल पे साफ कर दीं और बोली,
“जाके अपनी बहना से चाट-चाट के साफ करवा लीजियेगा.”
और जब तक मैं कुछ बोलूं वो हिरणी की तरह दौड़ के अपने झुंड में शामिल हो गई.
उस हिरणी की आँखें मेरी आँखों को चुरा ले गईं साथ में.
द्वार पूजा में भाभी का बीड़ा सीधे भैया को लगा और उसके बाद तो अक्षत की बौछार (कहते हैं कि जिस लड़की का अक्षत जिसको लगता है वो उसको मिल जाता है) और हमलोग भी लड़कियों को ताड़ रहे थे.
तब तक कस के एक बड़ा सा बीड़ा सीधे मेरे ऊपर...मैंने आँखें उठाईं तो वही सारंग नयनी.
“नजरों के तीर कम थे क्या...” मैं हल्के से बोला.
पर उसने सुना और मुस्कुरा के बस बड़ी-बड़ी पलकें एक बार झुका के मुस्कुरा दी.
मुस्कुराई तो गाल में हल्के गड्ढे पड़ गए. गुलाबी साड़ी में गोरा बदन और अब उसकी देह अच्छी खासी साड़ी में भी भरी-भरी लग रही थी.
पतली कमर...मैं कोशिश करता रहा उसका नाम जानने की पर किससे पूछता.
रात में शादी के समय मैं रुका था. और वहीं औरतों, लड़कियों के झुरमुट में फिर दिख गई वो. एक लड़की ने मेरी ओर दिखा के कुछ इशारा किया तो वो कुछ मुस्कुरा के बोली, लेकिन जब उसने मुझे अपनी ओर देखते देखा तो पल्लू का सिरा होंठों के बीच दबा के बस शरमा गई.
शादी के गानों में उसकी ठनक अलग से सुनाई दे रही थी. गाने तो थोड़ी हीं देर चले, उसके बाद गालियाँ, वो भी एकदम खुल के...दूल्हे का एकलौता छोटा भाई, सहबाला था मैं, तो गालियों में मैं क्यों छूट पाता.
लेकिन जब मेरा नाम आता तो खुसुर पुसुर के साथ बाकी की आवाज धीमी हो जाती और...ढोलक की थाप के साथ बस उसका सुर...
और वो भी साफ-साफ मेरा नाम ले के.
और अब जब एक दो बार मेरी निगाहें मिलीं तो उसने आँखें नीची नहीं की बस आँखों में हीं मुस्कुरा दी. लेकिन असली दीवाल टूटी अगले दिन.
अगले दिन शाम को कलेवा या खिचड़ी की रस्म होती है, जिसमें दूल्हे के साथ छोटे भाई आंगन में आते हैं और दुल्हन की ओर से उसकी सहेलियां, बहनें, भाभियाँ...इस रसम में घर के बड़े और कोई और मर्द नहीं होते इसलिए...माहौल ज्यादा खुला होता है. सारी लड़कियाँ भैया को घेरे थीं.
मैं अकेला बैठा था. गलती थोड़ी मेरी भी थी. कुछ तो मैं शर्मीला था और कुछ शायद...अकड़ू भी. उसी साल मेरा सी.पी.एम.टी. में सेलेक्शन हुआ था.
तभी मेरी मांग में...मैंने देखा कि सिंदूर सा...मुड़ के मैंने देखा तो वही. मुस्कुरा के बोली,
“चलिए आपका भी सिंदूर दान हो गया.”
उठ के मैंने उसकी कलाई थाम ली. पता नहीं कहाँ से मेरे मन में हिम्मत आ गई.
“ठीक है, लेकिन सिंदूर दान के बाद भी तो बहुत कुछ होता है, तैयार हो...”
अब उसके शर्माने की बारी थी. उसके गाल गुलाल हो गये. मैंने पतली कलाई पकड़ के हल्के से मरोड़ी तो मुट्ठी से रंग झरने लगा. मैंने उठा के उसके गुलाबी गालों पे हल्के से लगा दिया.
पकड़ा धकड़ी में उसका आँचल थोड़ा सा हटा तो ढेर सारा गुलाल मेरे हाथों से उसकी चोली के बीच, (आज चोली लहंगा पहन रखा था उसने).
कुछ वो मुस्कुराई कुछ गुस्से से उसने आँखें तरेरी और झुक के आँचल हटा के चोली में घुसा गुलाल झाड़ने लगी.
मेरी आँखें अब चिपक गईं, चोली से झांकते उसके गदराए, गुदाज, किशोर, गोरे-गोरे उभार,
पलाश सी मेरी देह दहक उठी. मेरी चोरी पकड़ी गई. मुझे देखते देख वो बोली,
“दुष्ट...” और आंचल ठीक कर लिया.
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05-03-2019, 09:56 AM
(This post was last modified: 26-03-2021, 09:42 AM by komaalrani. Edited 3 times in total. Edited 3 times in total.)
मंडप में होली
पकड़ा धकड़ी में उसका आँचल थोड़ा सा हटा तो ढेर सारा गुलाल मेरे हाथों से उसकी चोली के बीच, (आज चोली लहंगा पहन रखा था उसने).
कुछ वो मुस्कुराई कुछ गुस्से से उसने आँखें तरेरी और झुक के आँचल हटा के चोली में घुसा गुलाल झाड़ने लगी.
मेरी आँखें अब चिपक गईं, चोली से झांकते उसके गदराए, गुदाज, किशोर, गोरे-गोरे उभार,
पलाश सी मेरी देह दहक उठी. मेरी चोरी पकड़ी गई. मुझे देखते देख वो बोली,
“दुष्ट...” और आंचल ठीक कर लिया.
उसके हाथ में ना सिर्फ गुलाल था बल्कि सूखे रंग भी...बहाना बना के मैं उन्हें उठाने लगा.
लाल हरे रंग मैंने अपने हाथ में लगा लिए लेकिन जब तक मैं उठता, झुक के उसने अपने रंग समेट लिए और हाथ में लगा के सीधे मेरे चेहरे पे.
उधर भैया के साथ भी होली शुरू हो गई थी. उनकी एक सलहज ने पानी के बहाने गाढ़ा लाल रंग उनके ऊपर फेंक दिया था और वो भी उससे रंग छीन के गालों पे...
बाकी सालियाँ भी मैदान में आ गईं. उस धमा चौकड़ी में किसी को हमारा ध्यान देने की फुरसत नहीं थी.
उसके चेहरे की शरारत भरी मुस्कान से मेरी हिम्मत और बढ़ गई.
लाल हरी मेरी उंगलियाँ अब खुल के उसके गालों से बातें कर रही थीं, छू रही थीं, मसल रही थीं.
पहली बार मैंने इस तरह किसी लड़की को छुआ था. उन्चासो पवन एक साथ मेरी देह में चल रहे थे. और अब जब आँचल हटा तो मेरी ढीठ दीठ...चोली से छलकते जोबन पे गुलाल लगा रही थी.
लेकिन अब वो मुझसे भी ज्यादा ढीठ हो गई थी. कस-कस के रंग लगाते वो एकदम पास...
उसके रूप कलश...मुझे तो जैसे मूठ मार दी हो. मेरी बेकाबू...और गाल से सरक के वो चोली के... पहले तो ऊपर और फिर झाँकते गोरे गुदाज जोबन पे...
वो ठिठक के दूर हो गई.
मैं समझ गया ये ज्यादा हो गया. अब लगा कि वो गुस्सा हो गई है.
झुक के उसने बचा खुचा सारा रंग उठाया और एक साथ मेरे चेहरे पे हँस के पोत दिया.
और मेरे सवाल के जवाब में उसने कहा,
“मैं तैयार हूँ, तुम हो, बोलो.”
मेरे हाथ में सिर्फ बचा हुआ गुलाल था. वो मैंने, जैसे उसने डाला था, उसकी मांग में डाल दिया.
भैया बाहर निकलने वाले थे.
“डाल तो दिया है, निभाना पड़ेगा...वैसे मेरा नाम उर्मी है.”
हँस के वो बोली.
"और आपका नाम मैं जानती हूँ ये तो आपको गाना सुन के हीं पता चल गया होगा. "
वो अपनी सहेलियों के साथ मुड़ के घर के अंदर चल दी.
अगले दिन विदाई के पहले भी रंगों की बौछार हो गई.
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05-03-2019, 10:06 AM
(This post was last modified: 25-03-2021, 12:24 PM by komaalrani. Edited 2 times in total. Edited 2 times in total.)
एकै सँग हाल नँदलाल औ गुलाल दोऊ,
दृगन गये ते भरी आनँद मढै नहीँ ।
धोय धोय हारी पदमाकर तिहारी सौँह,
अब तो उपाय एकौ चित्त मे चढै नहीँ ।
कैसी करूँ कहाँ जाऊँ कासे कहौँ कौन सुनै,
कोऊ तो निकारो जासोँ दरद बढै नहीँ ।
एरी! मेरी बीर जैसे तैसे इन आँखिन सोँ,
कढिगो अबीर पै अहीर को कढै नहीँ ।
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डिअर कोमल रानी जी,
बहुत बहुत प्यार भरा सेक्सी नमस्कार,
कोमल जी, मैं आपका और आपकी कहानियों का बहुत बड़ा जबरदस्त वाला फैन हूँ / मुझे समझ नहीं आता की मैं कैसे आपसे वार्तालाप करूँ / मैंने Literotica पर कई कहानियां (seksyseema / seemawithravi / masterji1970 /raviram69 etc, due to some reasons, username changed) लिखी हैं / इतने बड़े प्लेटफार्म पर पहले मैंने कभी नहीं लिखा है /
इन्टरनेट पर आपके जैसे कुछ और लेखक भी हैं हो कहानी नहीं लिखे बल्कि ज़िन्दगी की सच्चाई, इतने मार्मिक तरीके से पेश करते हैं की जीवन में अपने संग होता प्रतीत होता है /
सच में कोमल जी आपकी लेखनी "कमाल" है
मुझे ज्यादा सेटिंग नहीं आती , अगर कुछ गलती हो गई हो तो माफ़ कीजियेगा !!!
लव यू
सुनील पण्डित
// सुनील पंडित //
मैं तो सिर्फ तेरी दिल की धड़कन महसूस करना चाहता था
बस यही वजह थी तेरे ब्लाउस में मेरा हाथ डालने की…!!!
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(05-03-2019, 10:18 AM)suneeellpandit Wrote: डिअर कोमल रानी जी,
बहुत बहुत प्यार भरा सेक्सी नमस्कार,
कोमल जी, मैं आपका और आपकी कहानियों का बहुत बड़ा जबरदस्त वाला फैन हूँ / मुझे समझ नहीं आता की मैं कैसे आपसे वार्तालाप करूँ / मैंने Literotica पर कई कहानियां (seksyseema / seemawithravi / masterji1970 /raviram69 etc, due to some reasons, username changed) लिखी हैं / इतने बड़े प्लेटफार्म पर पहले मैंने कभी नहीं लिखा है /
इन्टरनेट पर आपके जैसे कुछ और लेखक भी हैं हो कहानी नहीं लिखे बल्कि ज़िन्दगी की सच्चाई, इतने मार्मिक तरीके से पेश करते हैं की जीवन में अपने संग होता प्रतीत होता है /
सच में कोमल जी आपकी लेखनी "कमाल" है
मुझे ज्यादा सेटिंग नहीं आती , अगर कुछ गलती हो गई हो तो माफ़ कीजियेगा !!!
लव यू
सुनील पण्डित
आप तो इतने बड़े लेखक है , आपकी तारीफ़ का एक शब्द भी मेरे लिए अमृत है , ... लिट् इरोटिका पर बड़ी मुश्किल से मैंने एक कहानी अंग्रेजी में पोस्ट की है , इट्स हार्ड हार्ड रेन ,... और यहाँ भी आपकी कहानियां धूम मचाये हुयी हैं ,..
मैं कोशिश करती हूँ की मेरी कहानियां जमींन से थोड़ी बहुत जुडी रहे , माटी की महक आती रहे , ... इस लिए लोकगीत , संस्कार ,..... मौसम और ऋतुएँ मेरी कहानियों में बराबर की हिस्सेदार होती हैं , बस कभी कभार टाइम निकाल कर एकाध नजर इधर भी मार लें , हिम्मत बढ़ती रहेगी मेरी ,
एक बार फिर से धन्यवाद
•
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09-03-2019, 10:50 AM
(This post was last modified: 26-03-2021, 10:00 AM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
लल्ला फिर अईयो खेलन होरी
देह का रंग नेह का रंग
अब तक आपने पढ़ा
मेरे हाथ में सिर्फ बचा हुआ गुलाल था. वो मैंने, जैसे उसने डाला था, उसकी मांग में डाल दिया.
भैया बाहर निकलने वाले थे.
“डाल तो दिया है, निभाना पड़ेगा...वैसे मेरा नाम उर्मी है.”
हँस के वो बोली. और आपका नाम मैं जानती हूँ ये तो आपको गाना सुन के हीं पता चल गया होगा. वो अपनी सहेलियों के साथ मुड़ के घर के अंदर चल दी.
अगले दिन विदाई के पहले भी रंगों की बौछार हो गई.
आगे
अगले दिन विदाई के पहले भी रंगों की बौछार हो गई.
फिर हम दोनों एक दूसरे को कैसे छोड़ते.
मैंने आज उसे धर दबोचा. ढलकते आँचल से...
भी भी मेरी उंगलियों के रंग उसके उरोजों पे और उसकी चौड़ी मांग में गुलाल...चलते-चलते उसने फिर जब मेरे गालों को लाल पीला किया तो मैं शरारत से बोला,
“तन का रंग तो छूट जायेगा लेकिन मन पे जो रंग चढ़ा है उसका...”
“क्यों वो रंग छुड़ाना चाहते हो क्या.”
आँख नचा के, अदा के साथ मुस्कुरा के वो बोली और कहा,
“लल्ला फिर अईयो खेलन होरी.”
एकदम, लेकिन फिर मैं डालूँगा तो...मेरी बात काट के वो बोली,
“एकदम जो चाहे, जहाँ चाहे, जितनी बार चाहे, जैसे चाहे...मेरा तुम्हारा फगुआ उधार रहा.”
मैं जो मुड़ा तो मेरे झक्काक सफेद रेशमी कुर्ते पे...लोटे भर गाढ़ा गुलाबी रंग मेरे ऊपर.
रास्ते भर वो गुलाबी मुस्कान. वो रतनारे कजरारे नैन मेरे साथ रहे.
अगले साल फागुन फिर आया, होली आई. मैं इन्द्रधनुषी सपनों के ताने बाने बुनता रहा,
उन गोरे-गोरे गालों की लुनाई, वो ताने, वो मीठी गालियाँ, वो बुलावा...
लेकिन जैसा मैंने पहले बोला था, सेमेस्टर इम्तिहान, बैक पेपर का डर...जिंदगी की आपाधापी...
मैं होली में भाभी के गाँव नहीं जा सका.
भाभी ने लौट के कहा भी कि वो मेरी राह देख रही थी.
यादों के सफर के साथ भाभी के गाँव का सफर भी खतम हुआ.
भाभी की भाभियाँ, सहेलियाँ, बहनें...घेर लिया गया मैं.
गालियाँ, ताने, मजाक...लेकिन मेरी निगाहें चारों ओर जिसे ढूंढ रही थी, वो कहीं नहीं दिखी.
तब तक अचानक एक हाथ में ग्लास लिए...जगमग दुती सी...
खूब भरी-भरी लग रही थी. मांग में सिंदूर...मैं धक से रह गया (भाभी ने बताया तो था कि अचानक उसकी शादी हो गई लेकिन मेरा मन तैयार नहीं था),
वही गोरा रंग लेकिन स्मित में हल्की सी शायद उदासी भी...
“क्यों क्या देख रहे हो, भूल गए क्या...?” हँस के वो बोली.
“नहीं, भूलूँगा कैसे...और वो फगुआ का उधार भी...”
धीमे से मैंने मुस्कुरा के बोला.
“एकदम याद है...और साल भर का सूद भी ज्यादा लग गया है. लेकिन लो पहले पानी तो लो.”
मैंने ग्लास पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक झटके में...झक से गाढ़ा गुलाबी रंग...मेरी सफेद शर्ट.”
“हे हे क्या करती है...नयी सफेद कमीज पे अरे जरा...” भाभी की माँ बोलीं.
“अरे नहीं, ससुराल में सफेद पहन के आएंगे तो रंग पड़ेगा हीं.” भाभी ने उर्मी का साथ दिया.
“इतना डर है तो कपड़े उतार दें...” भाभी की भाभी चंपा ने चिढ़ाया.
“और क्या, चाहें तो कपड़े उतार दें...हम फिर डाल देंगे.”
हँस के वो बोली. सौ पिचकारियाँ गुलाबी रंग की एक साथ चल पड़ीं.
“अच्छा ले जाओ कमरे में, जरा आराम वाराम कर ले बेचारा...” भाभी की माँ बोलीं.
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होली की मेरी और कहानियां -
१ होली , जीजा और साली -
https://xossipy.com/thread-5300.html
होली हो और साली न हो, बहुत ना इंसाफी है।
होली हो, साली हो और उसकी चोली न खुले, बहुत ना इंसाफी है।
चोली में हाथ घुसे, और साली की गाली न हो, बहुत ना इंसाफी है।
जीजा और साली की होली, नंदोई और सलहज की होली,
ननद और भाभी की होली।
ससुराल में मची पहली होली का धमाल, एक साली की जुबानी, कैसे खेली जीजा ने होली?
कैसे खोली जीजा ने चोली? और फिर क्या-क्या खुला?
२
मजा पहली होली का ससुराल में
https://xossipy.com/thread-2352-page-8.html
मुझे त्योहारों में बहुत मज़ा आता है, खास तौर से होली में.
पर कुछ चीजें त्योहारों में गड़बड़ है. जैसे, मेरे मायके में मेरी मम्मी और उनसे भी बढ़ के छोटी बहनें कह रही थीं
कि मैं अपनी पहली होली मायके में मनाऊँ. वैसे मेरी बहनों की असली दिलचस्पी तो अपने जीजा जी के साथ होली खेलने में थी.
परन्तु मेरे ससुराल के लोग कह रहे थे कि बहु की पहली होली ससुराल में हीं होनी चाहिये.....
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19-03-2019, 05:00 PM
(This post was last modified: 05-04-2021, 01:36 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
भाभी का मायका
“क्यों क्या देख रहे हो, भूल गए क्या?” हँसकर वो बोली।
“नहीं, भूलूँगा कैसे… और वो फगुआ का उधार भी…” धीमे से मैंने मुश्कुरा के बोला।
“एकदम याद है… और साल भर का सूद भी ज्यादा लग गया है। लेकिन लो पहले पानी तो लो…”
मैंने ग्लास पकड़ने के लिए हाथ बढ़ाया तो एक झटके में… झक से गाढ़ा गुलाबी रंग… मेरी सफेद शर्ट…”
“हे हे क्या करती है… नयी सफेद कमीज पे अरे जरा…” भाभी की माँ बोलीं।
“अरे नहीं, ससुराल में सफेद पहन के आएंगे तो रंग पड़ेगा ही…” भाभी ने उर्मी का साथ दिया।
“इतना डर है तो कपड़े उतार दें…” भाभी की भाभी चंपा ने चिढ़ाया।
“और क्या, चाहें तो कपड़े उतार दें… हम फिर डाल देंगे…” हँसकर वो बोली।
सौ पिचकारियां गुलाबी रंग की एक साथ चल पड़ीं।
“अच्छा ले जाओ कमरे में, जरा आराम वाराम कर ले बेचारा…”
भाभी की माँ बोलीं।
उसने मेरा सूटकेस थाम लिया और बोली-
“बेचारा… चलो…”
कमरे में पहुँच के मेरी शर्ट उसने खुद उतार के ले लिया और ये जा वो जा।
कपड़े बदलने के लिए जो मैंने सूटकेस ढूँढ़ा तो उसकी छोटी बहन रूपा बोली-
“वो तो जब्त हो गया…”
मैंने उर्मी की ओर देखा तो वो हँसकर बोली-
“देर से आने की सजा…”
बहुत मिन्नत करने के बाद एक लुंगी मिली उसे पहन के मैंने पैंट चेंज की तो वो भी रूपा ने हड़प कर ली।
मैंने सोचा था कि मुँह भर बात करूँगा पर भाभी… वो बोलीं कि हमलोग पड़ोस में जा रहे हैं, गाने का प्रोग्राम है।
आप अंदर से दरवाजा बंद कर लीजिएगा।
मैं सोच रहा था कि… उर्मी भी उन्हीं लोगों के साथ निकल गई।
दरवाजा बंद करके मैं कमरे में आ के लेट गया। सफर की थकान, थोड़ी ही देर में आँख लग गई।
सपने में मैंने देखा कि उर्मी के हाथ मेरे गाल पे हैं। वो मुझे रंग लगा रही है, पहले चेहरे पे, फिर सीने पे… और मैंने भी उसे बाँहों में भर लिया। बस मुझे लग रहा था कि ये सपना चलता रहे… डर के मैं आँख भी नहीं खोल रहा था कि कहीं सपना टूट ना जाये।
सहम के मैंने आँख खोली।
वो उर्मी ही थी।
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19-03-2019, 05:59 PM
(This post was last modified: 05-04-2021, 01:49 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
उर्मी
वो उर्मी ही थी।
ओप भरी कंचुकी उरोजन पर ताने कसी,
लागी भली भाई सी भुजान कखियंन में
त्योही पद्माकर जवाहर से अंग अंग,
इंगुर के रंग की तरंग नखियंन में
फाग की उमंग अनुराग की तरंग ऐसी,
वैसी छवि प्यारी की विलोकी सखियन में
केसर कपोलन पे, मुख में तमोल भरे,
भाल पे गुलाल, नंदलाल अँखियंन में
***** *****देह के रंग, नेह में पगे
मैंने उसे कस के जकड़ लिया और बोला- “हे तुम…”
“क्यों, अच्छा नहीं लगा क्या? चली जाऊँ…” वो हँसकर बोली।
उसके दोनों हाथों में रंग लगा था।
“उंह… उह्हं… जाने कौन देगा तुमको अब मेरी रानी…”
हँसकर मैं बोला और अपने रंग लगे गाल उसके गालों पे रगड़ने लगा।
‘चोर’ मैं बोला।
“चोर… चोरी तो तुमने की थी। भूल गए…”
“मंजूर, जो सजा देना हो, दो ना…”
“सजा तो मिलेगी ही… तुम कह रहे थे ना कि कपड़ों से होली क्यों खेलती हो, तो लो…”
और एक झटके में मेरी बनियान छटक के दूर… मेरे चौड़े चकले सीने पे वो लेट के रंग लगाने लगी।
कब होली के रंग तन के रंगों में बदल गए हमें पता नहीं चला।
पिछली बार जो उंगलियां चोली के पास जा के ठिठक गई थीं उन्होंने ही झट से ब्लाउज के सारे बटन खोल दिए…
फिर कब मेरे हाथों ने उसके रस कलश को थामा कब मेरे होंठ उसके उरोजों का स्पर्श लेने लगे, हमें पता ही नहीं चला। कस-कस के मेरे हाथ उसके किशोर जोबन मसल रहे थे, रंग रहे थे।
और वो भी सिसकियां भरती काले पीले बैंगनी रंग मेरी देह पे।
पहले उसने मेरी लुंगी सरकाई और मैंने उसके साये का नाड़ा खोला पता नहीं।
हाँ जब-जब भी मैं देह की इस होली में ठिठका, शरमाया, झिझका उसी ने मुझे आगे बढ़ाया।
यहाँ तक की मेरे उत्तेजित शिश्न को पकड़ के भी-
“इसे क्यों छिपा रहे हो, यहाँ भी तो रंग लगाना है या इसे दीदी की ननद के लिए छोड़ रखा है…”
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19-03-2019, 06:11 PM
(This post was last modified: 08-04-2021, 10:04 AM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
देह के रंग
मेरे उत्तेजित शिश्न को पकड़ के भी-
“इसे क्यों छिपा रहे हो, यहाँ भी तो रंग लगाना है या इसे दीदी की ननद के लिए छोड़ रखा है…”
आगे पीछे करके सुपाड़े का चमड़ा सरका के उसने फिर तो… लाल गुस्साया सुपाड़ा, खूब मोटा…
तेल भी लगाया उसने।
आले पर रखा कड़ुआ (सरसों) तेल भी उठा लाई वो।
अनाड़ी तो अभी भी था मैं, पर उतना शर्मीला नहीं।
कुछ भाभी की छेड़छाड़ और खुली खुली बातों ने, फिर मेडिकल की पहली साल की रैगिंग जो हुई
और अगले साल जो हम लोगों ने करवाई।
“पिचकारी तो अच्छी है पर रंग वंग है कि नहीं, और इस्तेमाल करना जानते हो…
तेरी बहनों ने कुछ सिखाया भी है कि नहीं…”
उसकी छेड़छाड़ भरे चैलेंज के बाद…
उसे नीचे लिटा के मैं सीधे उसकी गोरी-गोरी मांसल किशोर जाँघों के बीच… लेकिन था तो मैं अनाड़ी ही।
उसने अपने हाथ से पकड़ के छेद पे लगाया और अपनी टाँगें खुद फैलाकर मेरे कंधे पर।
मेडिकल का स्टूडेंट इतना अनाड़ी भी नहीं था, दोनों निचले होंठों को फैलाकर मैंने पूरी ताकत से कस के, हचक के पेला…
उसकी चीख निकलते-निकलते रह गई।
कस के उसने दाँतों से अपने गुलाबी होंठ काट लिए।
एक पल के लिए मैं रुका, लेकिन मुझे इतना अच्छा लग रहा था।
रंगों से लिपी पुती वो मेरे नीचे लेटी थी।
उसकी मस्त चूचियों पे मेरे हाथ के निशान…
मस्त होकर एक हाथ मैंने उसके रसीले जोबन पे रखा और दूसरा कमर पे
और एक खूब करारा धक्का मारा।
“उईईई माँ…” रोकते-रोकते भी उसकी चीख निकल गई।
लेकिन अब मेरे लिए रुकना मुश्किल था।
दोनों हाथों से उसकी पतली कलाईयों को पकड़ के हचाक… धक्का मारा। एक के बाद एक… वो तड़प रही थी, छटपटा रही थी।
उसके चेहरे पे दर्द साफ झलक रहा था।
“उईईई माँ ओह्ह… बस… बस्सस्स…” वह फिर चीखी।
अबकी मैं रुक गया। मेरी निगाह नीचे गई तो मेरा 7” इंच का लण्ड आधे से ज्यादा उसकी कसी कुँवारी चूत में…
और खून की बूँदें…
अभी भी पानी से बाहर निकली मछली की तरह उसकी कमर तड़प रही थी। मैं रुक गया।
उसे चूमते हुए, उसका चेहरा सहलाने लगा। थोड़ी देर तक रुका रहा मैं।
उसने अपनी बड़ी-बड़ी आँखें खोलीं। अभी भी उसमें दर्द तैर रहा था-
“हे रुक क्यों गए… करो ना, थक गए क्या?”
“नहीं, तुम्हें इतना दर्द हो रहा था और… वो खून…”
मैंने उसकी जाँघों की ओर इशारा किया।
“बुद्धू… तुम रहे अनाड़ी के अनाड़ी… अरे कुँवारी… अरे पहली बार किसी लड़की के साथ होगा तो दर्द तो होगा ही…
और खून भी निकलेगा ही…”
कुछ देर रुक के वो बोली-
“अरे इसी दर्द के लिए तो मैं तड़प रही थी, करो ना, रुको मत… चाहे खून खच्चर हो जाए,
चाहे मैं दर्द से बेहोश हो जाऊँ… मेरी सौगंध…”
और ये कह के उसने अपनी टाँगें मेरे चूतड़ों के पीछे कैंची की तरह बांध के कस लिया और जैसे कोई घोड़े को एंड़ दे…
मुझे कस के भींचती हुई बोली-
“पूरा डालो ना, रुको मत… ओह… ओह… हाँ बस… ओह्ह… डाल दो अपना लण्ड, चोद दो मुझे कस के…”
बस उसके मुँह से ये बात सुनते ही मेरा जोश दूना हो गया और उसकी मस्त चूचियां पकड़ के
कस-कस के मैं सब कुछ भूल के चोदने लगा।
साथ में अब मैं भी बोल रहा था-
“ले रानी ले, अपनी मस्त रसीली चूत में मेरा मोटा लण्ड ले ले… आ रहा है ना मजा होली में चुदाने का…”
“हाँ राजा, हाँ ओह्ह… ओह्ह… चोद… चोद मुझे… दे दे अपने लण्ड का मजा ओह…”
देर तक वो चुदती रही, मैं चोदता रहा। मुझसे कम जोश उसमें नहीं था।
पास से फाग और चौताल की मस्त आवाज गूंज रही थी।
अंदर रंग बरस रहा था, होली का, तन का, मन का… चुनर वाली भीग रही थी।
हम दोनों घंटे भर इसी तरह एक दूसरे में गुथे रहे और जब मेरी पिचकारी से रंग बरसा…
तो वह भीगती रही, भीगती रही। साथ में वह भी झड़ रही थी, बरस रही थी।
थक कर भी हम दोनों एक दूसरे को देखते रहे,
उसके गुलाबी रतनारे नैनों की पिचकारी का रंग बरस-बरस कर भी चुकने का नाम नहीं ले रहा था।
उसने मुश्कुरा के मुझे देखा, मेरे नदीदे प्यासे होंठ, कस के चूम लिया मैंने उसे… और फिर दुबारा।
मैं तो उसे छोड़ने वाला नहीं था लेकिन जब उसने रात में फिर मिलने का वादा किया,
अपनी सौगंध दी तो मैंने छोड़ा उसे। फिर कहाँ नींद लगने वाली थी।
नींद चैन सब चुरा के ले गई थी चुनर वाली।
कुछ देर में वो, भाभी और उनकी सहेलियों की हँसती खिलखिलाती टोली के साथ लौटी।
सब मेरे पीछे पड़ी थीं कि मैंने किससे डलवा लिया और सबसे आगे वो थी… चिढ़ाने में।
मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।
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20-03-2019, 07:24 PM
(This post was last modified: 21-04-2021, 11:36 AM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
रंग रसिया
मैं किससे चुगली करता कि किसने लूट लिया… भरी दुपहरी में मुझे।
रात में आंगन में देर तक छनन मनन होता रहा।
गुझिया, समोसे, पापड़… होली के तो कितने दिन पहले से हर रात कड़ाही चढ़ी रहती है। वो भी सबके साथ।
वहीं आंगन में मैंने खाना भी खाया फिर सूखा खाना कैसे होता जम के गालियां हुयीं
और उसमें भी सबसे आगे वो… हँस-हँसकर वो।
तेरी अम्मा छिनार तेरी बहना छिनार,
जो तेल लगाये वो भी छिनाल जो दूध पिलाये वो भी छिनाल,
अरे तेरी बहना को ले गया ठठेरा मैंने आज देखा।
एक खतम होते ही वो दूसरा छेड़ देती।
कोई हँसकर लेला कोई कस के लेला।
कोई धई धई जोबना बकईयें लेला
कोई आगे से लेला कोई पीछे से ले ला तेरी बहना छिनाल।
देर रात गये वो जब बाकी लड़कियों के साथ वो अपने घर को लौटी तो मैं एकदम निराश हो गया
की उसने रात का वादा किया था… लेकिन चलते-चलते भी उसकी आँखों ने मेरी आँखों से वायदा किया था की।
जब सब सो गये थे तब भी मैं पलंग पे करवट बदल रहा था।
तब तक पीछे के दरवाजे पे हल्की सी आहट हुई, फिर चूड़ियों की खनखनाहट… मैं तो कान फाड़े बैठा ही था। झट से दरवाजा खोल दिया।
पीली साड़ी में वो दूधिया चांदनी में नहायी मुश्कुराती…
उसने झट से दरवाजा बंद कर दिया। मैंने कुछ बोलने की कोशिश की तो उसने उंगली से मेरे होंठों पे को चुप करा दिया।
लेकिन मैंने उसे बाहों में भर लिया फिर होंठ तो चुप हो गये लेकिन बाकी सब कुछ बोल रहा था,
हमारी आँखें, देह सब कुछ मुँह भर बतिया रहे थे।
हम दोनों अपने बीच किसी और को कैसे देख सकते थे तो देखते-देखते कपड़े दूरियों की तरह दूर हो गये।
फागुन का महीना और होली ना हो…
मेरे होंठ उसके गुलाल से गाल से…
और उसकी रस भरी आँखें पिचकारी की धार…
मेरे होंठ सिर्फ गालों और होंठों से होली खेल के कहां मानने वाले थे,
सरक कर गदराये गुदाज रस छलकाते जोबन के रस कलशों का भी वो रस छलकाने लगे।
और जब मेरे हाथ रूप कलसों का रस चख रहे थे तो होंठ केले क खंभों सी चिकनी जांघों के बीच प्रेम गुफा में रस चख रहे थे।
वो भी कस के मेरी देह को अपनी बांहों में बांधे, मेरे उत्थित्त उद्दत्त चर्म दंड को
कभी अपने कोमल हाथों से कभी ढीठ दीठ से रंग रही थी।
दिन की होली के बाद हम उतने नौसिखिये तो नहीं रह गये थे।
जब मैं मेरी पिचकारी… सब सुध बुध खोकर हम जम के होली खेल रहे थे तन की होली मन की होली।
कभी वो ऊपर होती कभी मैं।
कभी रस की माती वो अपने मदमाते जोबन मेरी छाती से रगड़ती और कभी मैं उसे कचकचा के काट लेता।
जब रस झरना शुरू हुआ तो बस… न वो थी न मैं सिर्फ रस था रंग था, नेह था।
एक दूसरे की बांहों में हम ऐसे ही लेटे थे की उसने मुझे एकदम चुप रहने का इशारा किया।
बहुत हल्की सी आवाज बगल के कमरे से आ रही थी।
भाभी की और उनकी भाभी की। मैंने फिर उसको पकड़ना चाहा तो उसने मना कर दिया।
कुछ देर तक जब बगल के कमरे से हल्की आवाजें आती रहीं तो उसने अपने पैर से झुक के पायल निकाल ली और मुझसे एकदम दबे पांव बाहर निकलने के लिये कहा।
हम बाग में आ गये, घने आम के पेडों के झुरमुट में।
एक चौड़े पेड़ के सहारे मैंने उसे फिर दबोच लिया।
जो होली हम अंदर खेल रहे थे अब झुरमुट में शुरू हो गई।
चांदनी से नहायी उसकी देह को कभी मैं प्यार से देखता, कभी सहलाता, कभी जबरन दबोच लेता।
और वो भी कम ढीठ नहीं थी।
कभी वो ऊपर कभी मैं… रात भर उसके अंदर मैं झरता रहा, उसकी बांहों के बंध में बंधा और हम दोनों के ऊपर… आम के बौर झरते रहे, पास में महुआ चूता रहा और उसकी मदमाती महक में चांदनी में डूबे हम नहाते रहे।
रात गुजरने के पहले हम कमरे में वापस लौटे।
वो मेरे बगल में बैठी रही, मैंने लाख कहा लेकिन वो बोली- “तुम सो जाओगे तो जाऊँगी…”
कुछ उस नये अनुभव की थकान, कुछ उसके मुलायम हाथों का स्पर्श… थोड़ी ही देर में मैं सो गया।
जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।
अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने। मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
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21-03-2019, 09:10 AM
(This post was last modified: 22-04-2021, 08:26 AM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
जब आंख खुली तो देर हो चुकी थी। धूप दीवाल पे चढ़ आयी थी। बाहर आंगन में उसके हँसने खिलखिलाने की आवाज सुनाई दे रही थी।
अलसाया सा मैं उठा और बाहर आंगन में पहुंचा मुँह हाथ धोने।
मुझे देख के ही सब औरतें लड़कियां कस-कस के हँसने लगीं। मेरी कुछ समझ में नहीं आया। सबसे तेज खनखनाती आवाज उसी की सुनाई दे रही थी।
जब मैंने मुँह धोने के लिये शीशे में देखा तो माजरा साफ हुआ।
मेरे माथे पे बड़ी सी बिंदी, आँखों में काजल, होंठों पे गाढ़ी सी लिपस्टीक…
मैं समझ गया किसकी शरारत थी।
तब तक उसकी आवाज सुनायी पड़ी, वो भाभी से कह रही थी-
“देखिये दीदी… मैं आपसे कह रही थी ना की ये इतना शरमाते हैं जरूर कहीं कोई गड़बड़ है? ये देवर नहीं ननद लगते हैं मुझे तो। देखिये रात में असली शकल सामने आ गई…”
मैंने उसे तरेर कर देखा।
तिरछी कटीली आँखों से उस मृगनयनी ने मुझे मुश्कुरा के देखा और अपनी सहेलियों से बोली-
“लेकिन देखो ना सिंगार के बाद कितना अच्छा रूप निखर आया है…”
“अरे तुझे इतना शक है तो खोल के चेक क्यों नहीं कर लेती…”
चंपा भाभी ने उसे छेड़ा।
“अरे भाभी खोलूंगी भी चेक भी करुंगी…”
घंटियों की तरह उसकी हँसी गूंज गई।
रगड़-रगड़ के मुँह अच्छी तरह मैंने साफ किया। मैं अंदर जाने लगा की चंपा भाभी (भाभी की भाभी) ने टोका-
“अरे लाला रुक जाओ, नाश्ता करके जाओ ना तुम्हारी इज्जत पे कोई खतरा नहीं है…”
खाने के साथा गाना और फिर होली के गाने चालू हो गये। किसी ने भाभी से कहा- “
मैंने सुना है की बिन्नो तेरा देवर बड़ा अच्छा गाता है…”
कोई कुछ बोले की मेरे मुँह से निकल गया की पहले उर्मी सुनाये।
और फिर भाभी बोल पड़ीं की आज सुबह से बहुत सवाल जवाब हो रहा है? तुम दोनों के बीच क्या बात है?
फिर तो जो ठहाके गूंजे… हम दोनों के मुँह पे जैसे किसी ने एक साथ इंगुर पोत दिया हो।
किसी ने होरी की तान छेड़ी, फिर चौताल लेकिन मेरे कान तो बस उसकी आवाज के प्यासे थे।
आँखें बार-बार उसके पास जाके इसरार कर रही थीं, आखिर उसने भी ढोलक उठायी… और फिर तो वो रंग बरसे-
मत मारो लला पिचकारी, भीजे तन सारी।
पहली पिचकारी मोरे, मोरे मथवा पे मारी,
मोरे बिंदी के रंग बिगारी भीजे तन सारी।
दूसरी पिचकारी मोरी चूनरी पे मारी,
मोरी चूनरी के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।
तीजी पिचकारी मोरी अंगिया पे मारी,
मोरी चोली के रंग बिगारी, भीजै तन सारी।
जब वो अपनी बड़ी बड़ी आँखें उठा के बांकी चितवन से देखती तो लगता था उसने पिचकारी में रंग भर के कस के उसे खींच लिया है।
और जब गाने के लाइन पूरी करके वो हल्के से तिरछी मुश्कान भरती तो लगता था की बस
छरछरा के पिचकारी के रंग से तन बदन भीग गया है और मैं खड़ा खड़ा सिहर रहा हूं।
गाने से कैसे होली शुरू हो गई पता नहीं, भाभी, उनकी बहनों, सहेलियों, भाभियों सबने मुझे घेर लिया।
लेकिन मैं भी अकेले…
मैं एक के गाल पे रंग मलता तो तो दो मुझे पकड़ के रगड़ती…
लेकिन मैं जिससे होली खेलना चाहता था तो वो तो दूर सूखी बैठी थी, मंद-मंद मुश्कुराती।
सबने उसे उकसाया, सहेलियों ने उसकी भाभियों ने…
आखीर में भाभी ने मेरे कान में कहा और
होली खेलते खेलते उसके पास में जाके बाल्टी में भरा गाढ़ा लाल उठा के सीधे उसके ऊपर।
वो कुछ मुश्कुरा के कुछ गुस्से में कुछ बन के बोली- “ये ये… देखिये मैंने गाना सुनाया और आपने…”
“अरे ये बात हो तो मैं रंग लगाने के साथ गाना भी सुना देता हूँ लेकिन गाना कुछ ऐसा वैसा हो तो बुरा मत मानना…”
“मंजूर…”
“और मैं जैसा गाना गाऊँगा वैसे ही रंग भी लगाऊँगा…”
“मंजूर…” उसकी आवाज सबके शोर में दब गई थी।
मैं उसे खींच के आंगन में ले आया था।
लली आज होली चोली मलेंगे,
गाल पे गुलाल… छातीयां धर डालेंगे,
लली आज होली में जोबन।
गाने के साथ मेरे हाथ भी गाल से उसके चोली पे पहले ऊपर से फिर अंदर।
भाभी ने जो गुझिया खिलायीं उनमें लगता है जबर्दस्त भांग थी।
हम दोनों बेशरम हो गये थे सबके सामने।
अब वो कस-कस के रंग लगा रही थी, मुझे रगड़ रही थी। रंग तो कितने हाथ मेरे चेहरे पे लगा रहे थे
लेकिन महसूस मुझे सिर्फ उसी का हाथ हो रहा था। मैंने उसे दबोच लिया, आंचल उसका ढलक गया था।
पहले तो चोली के ऊपर से फिर चोली के अंदर, और वो भी ना ना करते खुल के हँस-हँसकर दबवा, मलवा रही थी।
लेकिन कुछ देर में उसने अपनी सहेलियों को ललकारा और भाभी की सहेलियां, बहनें, भाभियां…
फिर तो कुर्ता फाड़ होली चालू हो गई। एक ने कुर्ते की एक बांह पकड़ी और दूसरे ने दूसरी।
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(29-03-2019, 06:06 PM)usaiha2 Wrote: लला… फिर खेलन आइयो होरी
https://drive.google.com/file/d/14XONZGu...p=drivesdk
Thanks so much , it will be help all the readers who would like to save this romantic short story, even those who have read it. I also assume that this pdf file presents the story ornamnented by the pictures , which add both the beauty and flavor.
Thanks again...do read my other stories too.
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Nice story, fan of your writings please update bro soon
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(09-04-2019, 07:09 PM)Veer.rajvansh Wrote: Nice story, fan of your writings please update bro soon
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रसिया को नारि बनाऊँगी
“एकदम…” उसकी सारी सहेलियां बोलीं।
फिर क्या था कोई चूनरी लाई कोई चोली। उसने गाना शुरू किया-
रसिया को नारि बनाऊँगी रसिया को
सर पे उढ़ाई सबुज रंग चुनरी,
पांव महावर सर पे बिंदी अरे।
अरे जुबना पे चोली पहनाऊँगी।
साथ-साथ में उसकी सहेलियां, भाभियां मुझे चिढ़ा-चिढ़ा के गा रही थीं। कोई कलाइयों में चूड़ी पहना रही थी तो कोई अपने पैरों से पायल और बिछुये निकाल के। एक भाभी ने तो करधनी पहना दी तो दूसरी ने कंगन। भाभी भी… वो बोलीं- “ब्रा तो ये मेरी पहनता ही है…” और अपनी ब्रा दे दी।
चंपा भाभी की चोली… उर्मी की छोटी बहन रूपा अंदर से मेकप का सामान ले आयी और होंठों पे खूब गाढ़ी लाल लिपिस्टक और गालों पे रूज लगाने लगी तो उसकी एक सहेली नेल पालिश और महावर लगाने लगी। थोड़ी ही देर में सबने मिल के सोलह सिंगार कर दिया।
चंपा भाभी बोलीं- “अब लग रहा है ये मस्त माल। लेकिन सिंदूर दान कौन करेगा?”
कोई कुछ बोलता उसके पहले ही उर्मी ने चुटकी भर के… सीधे मेरी मांग में। कुछ छलक के मेरी नाक पे गिर पड़ा। वो हँसकर बोली- “अच्छा शगुन है… तेरा दूल्हा तुझे बहुत प्यार करेगा…”
हम दोनों की आंखों से हँसी छलक गई।
अरे इस नयी दुलहन को जरा गांव का दर्शन तो करा दें। फिर तो सब मिल के गांव की गली डगर… जगह जगह और औरतें, लड़कियां, रंग कीचड़, गालियां, गानें।
किसी ने कहा- “अरे जरा नयी बहुरिया से तो गाना सुनवाओ…”
मैं क्या गाता, लेकिन उर्मी बोली- “अच्छा चलो हम गातें है तुम भी साथ-साथ…” सबने मिल के एक फाग छेड़ा-
रसरंग में टूटल झुलनिया
रस लेते छैला बरजोरी, मोतिन लर तोरी।
मोसो बोलो ना प्यारे… मोतिन लर तोरी।
सबके साथ मैं भी… तो एक औरत बोली- “अरे सुहागरात तो मना लो…” और फिर मुझे झुका के… पहले चंपा भाभी फिर एक दो और औरतें।
कोई बुजुर्ग औरत आईं तो सबने मिल के मुझे जबरन झुका के पैर भी छुलवाया तो वो आशीष में बोलीं- “अरे नवें महीने सोहर हो… दूधो नहाओ पूतो फलो। बच्चे का बाप कौन होगा?”
तो एक भाभी बोलीं- “अरे ये हमारी ननद की ससुराल वाली सब छिनाल हैं, जगह-जगह…”
तो वो बोली- “अरे लेकिन सिंदूर दान किसने किया है नाम तो उसी का होगा, चाहे ये जिससे मरवाये…”
सबने मिल के उर्मी को आगे कर दिया। इतने में ही बचत नहीं हुई। बच्चे की बात आई तो उसकी भी पूरी ऐक्टिंग… दूध पिलाने तक।
फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो… बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते… कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ… लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।
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फागुन
फागुन दिन रात बरसता। और उर्मी तो…
बस मन करता था कि वो हरदम पास में रहे… हम मुँह भर बतियाते…
कुछ नहिं तो बस कभी बगीचे में बैठ के कभी तालाब के किनारे… और होली तो अब जब वह मुझे छेड़ती तो मैं कैसे चुप रहता… जिस सुख से उसने मेरा परिचय करा दिया था। तन की होली मन की होली… मेरा मन तो सिर्फ उसी के साथ…
लेकिन वह खुद मुझे उकसाती।
एक दिन उसकी छोटी बहन रूपा… हम दोनों साथ-साथ बैठे थे सर पे गुलाल छिड़क के भाग गई।
मैं कुछ नहीं बोला।
वो दोनों हाथों में लाल रंग लेकर मेरे गालों पे।
उर्मी ने मुझे लहकाया।
जब मैंने पकड़ के गालों पे हल्का सा रंग लगाया तो मुझे जैसे चुनौती देते हुए, रूपा ने अपने उभार उभारकर दावत दी।
मैंने जब कुछ नहीं किया तो उर्मी बोली-
“अरे मेरी छोटी बहन है, रुक क्यों गये मेरी तो कोई जगह नहीं छोड़ते…और खुद उसका दुप्पटा खींच के दूर फेंक दिया, कान में बोली तेरी साली लगेगी ”
फिर क्या था मेरे हाथ गाल से सरक कर।
रूपा भी बिना हिचके अपने छोटे छोटे।
पर उर्मी… उसे शायद लगा की मैं अभी भी हिचक रहा हूँ, बोली- “अरे कपड़े से होली खेल रहे हो या साली से। मैं तेरे भैया की साल्ली हूँ तो ये तुम्हारी…”
मैं बोला- “अभी बच्ची है इसलिये माफ कर दिया…”
वो दोनों एक साथ बोलीं- “चेक करके तो देखो…”
फिर क्या था… मेरे हाथ कुर्ते के अंदर कच्चे उभरते हुए उभारों का रस लेने लगे, रंग लगाने के बहाने।
उर्मी ने पास आके उसका कान पकड़ा और बोली- “क्यों बहुत चिढ़ाती थी ना मुझे, दीदी कैसे लगता है तो अब तू बोल कैसे लग रहा है?”
वो हँसकर बोली- “बहुत अच्छा दीदी… अब समझ में आया की क्यों तुम इनसे हरदम चिपकी रहती हो…” और छुड़ा के हँसती हुई ये जा… वो जा।
दिन सोने के तार की तरह खिंच रहे थे।
मैं दो दिन के लिये आया था चार दिन तक रुका रहा। भाभी कहती- “सब तेरी मुरली की दीवानी हैं…”
मैं कहता- “लेकिन भाभी अभी आपने तो हाथ नहीं लगाया, मैं तो इतने दिन से आपसे…”
तो वो हँसकर कहतीं-
“अरे तेरे भैया की मुरली से ही छुट्टी नहीं मिलती। और यहां तो हैं इतनी… लेकिन चल तू इतना कहता है तो होली के दिन हाथ क्या सब कुछ लगा दूंगी…”
और फिर जाने के दिन… उर्मी अपनी किसी सहेली से बात कर रही थी।
होली के अगले दिन ही उसका गौना था। मैं रुक गया और उन दोनों की बात सुनने लगा। उसकी सहेली उसके गौने की बात करके छेड़ रही थी। वो उसके गुलाबी गालों पे चिकोटी काट के बोली-
“अरे अबकी होली में तो तुझे बहुत मजा आयेगा। असली पिचकारी तो होली के बाद चलेगी… है ना?”
“अरे अपनी होली तो हो ली। होली आज जरे चाहे, काल जरे फागुन में पिया…”
उसकी आवाज में अजब सी उदासी थी। मेरी आहट सुन के दोनों चुप हो गई।
मैं अपना सूट्केस ढूँढ़ रहा था। भाभी से पूछा तो उन्होंने मुश्कुरा के कहा- “आने पे तुमने जिसको दिया था उसी से मांगों…”
मैंने बहुत चिरौरी मिनती की तो जाके सूटकेस मिला लेकिन सारे कपड़ों की हालत… रंग लगे हाथ के थापे, आलू के ठप्पों से गालियां और सब पे मेरी बहन का नाम ले लेकर एक से एक गालियां…
वो हँसकर बोली- “अब ये पहन के जाओ तो ये पता चलेगा की किसी से होली खेल के जा रहे हो…” मजबूरी मेरी… भाभी थोड़ी आगे निकल गई तो मैं थोड़ा ठहर गया उर्मी से चलते-चलते बात करने को।
“अबकी नहीं बुलाओगी…” मैंने पूछा।
“उहुं…” उसका चेहरा बुझा बुझा सा था- “तुमने आने में देर कर दी…” वो बोली और फिर कहा- “लेकिन चलो जिसकी जितनी किश्मत… कोई जैसे जाता है ना तो उसे रास्ते में खाने के लिये देते हैं तो ये तुम्हारे साथ बिताये चार दिन… साथ रहेंगें…”
मैं चुप खड़ा रहा।
अचानक उसने पीठ के पीछे से अपने हाथ निकाले और मेरे चेहरे पे गाढ़ा लाल पीला रंग… और पास में रखे लोटे में भरा गाढ़ा गुलाबी रंग… मेरी सफेद शर्ट पे और बोली-
“याद रखना ये होली…”
मैं बोला- “एकदम…”
तब तक किसी की आवाज आयी- “हे लाला जल्दी करो बस निकल जायेगी…”
रास्ते भर कच्ची पक्की झूमती गेंहूँ की बालियों, पीली-पीली सरसों के बीच उसकी मुश्कान।
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