18-02-2019, 04:13 PM
रुहानी प्रेम की दास्ताँ
प्यार को अंजाम तक पहुँचाया जाए,
हर प्यार भरा दिल बस यही चाहे...
पर बहुत कम ही प्रेमी युगल अपनी
प्रेमकहानी लिखवा पाए ।
सभी प्रेमकहानियाँ , मुकम्मल कहाँ होती हैं,
बहुत कम प्रेमियों के प्यार में वो शिद्दत होती है ।
कहीं भरोसा ना रहा तो कहीं टूट गए हौसले
प्रेमियों की अपनी कमजोरियाँ भी होती है।
और बहुत सी प्रेमकहानी शुरू ही नहीं हो
पाती हैं,कुछ भ्रमित भी हो जाती हैं ,
जो ब्रेकअप का अंजाम पाती हैं।
ये भी एक ऐसी ही प्रेमकहानी है,
जिसमें प्रेम है, विश्वास है,
समर्पण है, और निश्चित रूप से
प्यार में शिद्दत भी है ।
प्रेमकहानियों का दुःखान्तिका बनना
मुझे कभी रास नहीं आता है ।
प्रेम को संसार में किसी ने
गलत नहीं माना ,मगर प्रेम
कहानियाँ फिर भी दुखान्तिका
बनती रही हैं ।
प्रेम सात्विकता का प्रतीक है और
नफरत तामसिकता का प्रतीक,
फिर भी अकसर नफरत
जीतते हुए दिखाई देती है !
हर कहानी में एक नायक ,
एक नायिका और उनके
दरमियाँ बेइंतहा मोहब्बत होती है ।
और नायक व नायिका के प्रेम का
दुश्मन खलनायक भी होता है ,
जो अंततः प्रेमी ,प्रेमिका के प्यार को
मंजिल तक नहीं पहुँचने देता है ।
प्रेमी ,प्रेमिका के प्यार की दास्तान
उनकी जिंदगी के साथ खत्म हो जाती है ।
मैं जब भी ऐसी कोई दास्तान कभी सुनता था ,
तब कहानी के अंत में एक नई कहानी की
तलाश करने लगता था ,कई बार मैं कहानी के
नकारात्मक किरदार को पहले ही मारकर
कहानी के सुखद अंत की कल्पना करता ,
इस कल्पना ने मुझे हमेशा ही आनंदित किया है ।
मुझे प्रेमकहानियों में खलनायक की उपस्थिति
अवांछनीय लगती है ,इसीलिए मेरी इस कहानी
में कोई खलनायक नहीं है । पर उसकी आवश्य
-कता भी नहीं रही क्योंकि वक्त और हालात
उसकी कमी को पूरा कर देते है।
नायक और नायिका दोनों एक दूसरे से बेपनाह
प्यार करते है । प्यार का इजहार कर दोनों अपने
प्रेम की पुष्टि भी कर चुके हैं ।
नायक व नायिका दोनों जानते है कि अमीरी
गरीबी, ऊँच नीच ,जाति व समाज की कई
दीवारें हैं ,जो उन दोनों को मिलने नहीं देंगी ।
इसीलिए नायिका, नायक से कहीं दूर चलकर
अपनी दुनिया बसाने के लिए कहती है ,जहाँ
उन्हें कोई नहीं जानता ।
प्रथम अध्याय~दर्द का पहला हिस्सा ?
योजनानुसार , नायिका रेलवे प्लेटफार्म पर
नायक का इंतजार करती है । जब नायक
नियत समय पर नहीं पहुँचता , और उसकी
ट्रेन का अनाउंसमेंट हो जाता है,तब नायिका
के मन में नायक के प्रति अविश्वास के भाव
उठते हैं ,-
समर्पित प्रेयसी -?
हाँ माँगा तो था तुमसे ,मैंने साथ तुम्हारा ,
बहुत जरूरी भी था मेरे लिए ।
तब कहाँ पता था ,कि जिस फैसले को
जीवन मानने में मुझे लगे थे मात्र कुछ पल.....
तुम उसका निर्णय लेने में इतना वक्त ले लोगे।
दिल में ख्याल ही तो नहीं आया ,
की मेरे इस सवाल का जवाब
इनकार भी हो सकता है ।
आता भी कैसे ? मैं स्वयंसाक्षी
रही सदा तुम्हारी दीवानगी की !
कैसे मानती कि ,वो तुम्हारा
प्यार नहीं कोई छल है ,
इतनी शिद्दत से कोई
छल कैसे कर सकता है....?
मुझे अब भी यकीन है ,
की वो छल नहीं था...
पर ,फिर इतना वक्त क्यूँ लगा तुम्हें ,जवाब देने में ?
मेरा सवाल इतना मुश्किल तो नहीं था !!
मेरी एक झलक देखने के लिए ,
तुम्हारा वो मेरे कॉलेज खुलने से काफी पहले ,
मन्नु की थडी पर इंतजार में बैठे रहना ।
मेरे लिए अटूट चाहत का प्रमाण ही तो था
मैं कॉलेज की खिडकी से
झाँक कर जब भी देखती ,-
हर बार तुम वैसे ही ,
तपती धूप में घंटों बाइक पर बाहर बैठे
किसी तपस्वी से नजर आते थे मुझको !
मैं मन ही मन सोचा करती थी
कहीं इस विश्वामित्र की तपस्या
कोई मेनका भंग ना कर जाए ..!
सहेलियाँ मजाक करने लगी ,
तुम पर खीज भी आती
तो कभी बड़ा प्यारा सा
अहसास भी होता ,
अपने विशेष होने की बडी
सुखद अनुभूति होती थी ।
पर जब तुम दिखाई नहीं देते
तो एक डर घेर लेता था मुझे ।
सबसे कीमती और प्यारी
वस्तु के लुट जाने का डर!
उस दिन भी मैं ऐसे ही डर गई ,
मेरे क्लासरूम की खिड़की से कॉलेज के
बाहर का नजारा स्पष्ट नजर आ रहा था" ,
मैंने उस रोज देखा था कि कैसे
पागलों की तरह तुम
उस गुंडे से भिड़ गए थे ,
जिसने कॉलेज गेट पर
मेरे साथ बदतमीजी की थी ।
और उसके बाद वो गुंडा अपने
बदमाश साथियों को लेकर आ गया ,
बहुत चोट आई थी तुम्हें .....हाँ ,
उस दिन तुम्हारे शरीर पर लगती
चोटों का दर्द मैंने भी सहा था !
उसके बाद जब दो दिन तक
तुम नजर नहीं आए,तब मैं
अपने आप पर काबू कैसे रखती ....
तुम्हारे दोस्तों से तुम्हारा पता लेकर ,
लोकलाज को छोड तुम्हारे घर दौडी चली आई ....
और वहाँ जब तुम नहीं मिले तो,
मैं अपने आँसुओं पर काबू ही तो नहीं रख पाई
और पूरे रास्ते रोते हुए कॉलेज वापस आ रही थी मै ।
मुझे होश ही तो नहीं था ,
कि रास्ते भर लोगों की,
नजरें मुझे ही घूर रही थी ।
और जब तुमने मेरे कंधे पर हाथ रखा,
चौँक कर मुड़ी ,और तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा
आँखों के सामने जो नजर आया.....
मुझे तो अहसास ही नहीं हुआ,
कि अभी तक हम अजनबी हैं !
मैं बेतहाशा लिपट गई थी तुमसे ...
मानो सदियों से जानती हूँँ तुम्हें !
वो जब तुमने मेरी बाँहों को
पकडकर धीरे से मुझे अलग किया
तब कहीं जाकर मेरी चेतना वापस आई ,
और लोगों की घूरती निगाहों पर मेरा ध्यान गया।
मैं मानती हूँँ ,
मेरा यूँ तुमसे लिपट जाना
अनपेक्षित था तुम्हारे लिए ,पर
तुमने भी तो उसी वक्त मुझे
चौंका दिया था ,बीच सडक पर,
सैंकडों घूरती नजरों के सामने,
घुटनों पर बैठकर वो ,
लाल गुलाब दिया था मुझे !
मैंने एक पल भी नहीं लगाया
तुम्हारा वो लाल गुलाब और
प्रेम प्रस्ताव स्वीकार करने में !
और क्यूँ ना करती ,मैं तो पहले ही
तुम्हें अपना जीवन मान चुकी थी !
कितनी गहराई से जाना था ,
तुम्हारे इश्क काे ,जब तुम
कडी दोपहरी में खडे होते थे
ना जाने वो धूप की तपन
कैसे मेरे वातानुकूलित कक्ष
में महसूस होती थी !
मैं भगवान तो ना थी
जो और परीक्षा ले पाती
और वक्त सह पाती तुम्हारी
तपस्या से उत्पन्न उस तपन को !
हाँ, मैं भगवान नहीं थी ,
ना ही तुम्हारे समान
तप करने का संबल था।
कैसे ना करती स्वीकार तुमको,
इतनी निष्ठुर कहाँ थी मैं ?
सर्वस्व सौंपा तुमको
यह मान कर की
तुम्हीं मंजिल हो मेरे जीवन की
और तुम्हारा हासिल मैं।
पर नहीं समझ पाई अब तक
मैं,कैसे इतना बदले तुम,
मैंने क्षण में स्वीकारा था तुम्हें, पर
इतना मौन क्यों रहेे तुम !
तुम्हारा प्रस्ताव मानने में मैंने तो
एकपल भी कहाँ लगाया था ।
नहीं सोचा था कि,
तुम्हें इतना वक्त लग जाएगा !
इंतजार किया..घडियाँ गिन गिन.
प्रियतम ! मैंने तुम्हारे आने का।
प्रतीक्षारत ,दिल
चलता,रूक रूक कर
जवाब तुम्हारा पाने का ।
पर तुम ना आए, तब
डगमगा गया मेरा ऐतबार
हार मान ली मैंने ,आखिरकार,
बदल दिया फैसला अपना ,
खत्म किया अपने
जीवन का कारोबार।
फिर,अब जब टूटी,
आने की तेरी आस ,
अंतिम पल भी गया निकल
पाया ना तुम्हें आसपास
विश्वास मेरा हुआ क्षीण प्रिय,
हाँ, छूट चुकी हैं मेरी साँस ।
खंड खंड देह
अब शेष रहा क्या ,देह मेरी,
खंड खंड है ,बिखर गई है ।
'अखंड प्रेम है ',कहा था तुमने,
अब बात तुम्हारी कहाँ रही
क्या झूंठा था प्रेम हमारा
खंडित ये कैसे हो गया,
मिलन हमारा हो ना सका
किसके रोके से रह गया ?
अब ,क्या कहते हो
बोलो..हे मनमीत मेरे?
कौनसा, अंग देह का मेरी...
प्रेम जगाता है हृदयतल में तेरे?
बोलो प्रियतम ,प्राणाधार !
अब भी क्या आकर्षण
है शेष तुम्हारा ...क्या
अब भी प्रेम का है आधार
या देह के खंडों से बहते लहू में
बह गया है ,हमारा प्यार !
क्षतविक्षत हैं ,झील सी आँखें
तुम डूब जाना चाहते थे जिनमें
देख कर जिनमें अक्स तुम्हारा
सार्थक होता था प्यार हमारा...!
तीन टुकडों में बंटा पड़ा है,
जिन बाँहों को बनाया
था तुमने गलहार ...!
तुम ले जाकर तीनों टुकड़े
फिर से धागे में पिरो लोगे ना .
मिल सके शायद इनमें ही
तुम्हें अपना कुछ ,चैन औ करार........!
देखो ये जुल्फें जिनमें खोकर ,
तुम, गम दुनिया के भूला देते थे !
बाकि हैं अभी नीचे देखो वो ,
मेरे लहू में सनी ,चिपकी हैं
ट्रैक से ....!
समेट कर ले जाना इनको
गर समेट पाओ ,शायद
अब भी दुनिया के गमों से
राहत दिलाएँ ये तुम्हें ...।
बस ये थोड़ा रक्त लगा है ,
खुशबु बाकि है पर अब भी,
महका देगी ख्वाबों में तुम्हें !
बहोत देर संभाला था ,यूँ तो मैंने ,
ये सुकूनमंद जु़ल्फें ,
ये बाहों का गलहार,
वो दाँतों के मोती ,
और दिलकश मुस्कान
और ये झीलनुमा आँखों
के साथ चाँद सा चेहरा ,
था जो कभी....।
पर तुमने आने
में देर कर दी बड़ी,
कब तक संभाल पाती
मैं नश्वर इस देह को ...?
कहा तो था तुम्हे की
वक्त ना लगाना.....
कहीं रह ना जाए
शेष बस पछताना ...!
वक्त पर आ जाते तो क्या
यूँ देह मेरी टुकडों मे पाते ........!
काश तुम थोड़ा जल्दी आ जाते,
काश मैंने थोड़ा और
इंतजार कर लिया होता ,
काश ,तुमने मुझे पहले ही
जवाब दिया होता..
तुमने और मैंने अपना सपनों का
संसार बसा ही लिया होता ,
क्यूँ काल को मैंने साथी
स्वीकार किया होता ।।
दर्द का दूसरा पहलू?
टूटा हुआ प्रेमी--?
सच कहा तुमने, मेरी संगिनी,हे प्रिया
देर हुई मुझसे ,हालातों ने हरा दिया
की जिसके दोपल के साथ पर मैं ,
पूरा जीवन कर सकता था निसार...
जिसको पाने की ज़िद में मैंने
छोड़ा परिवार ,छोड़ा घरबार ।
एक ही लक्ष्य पाना तुम्हें पाने का
तूम ही जीवन का मेरे थी आधार
तेरी साध थी पर लगता था
इतनी कहाँ,मेरी औकात...!
दोस्त सभी बोला करते थे,
नामुमकिन,यह ख्वाब मेरा
असंभव पाने की खातिर ,क्यूँ
करता ये जीवन बर्बाद ...!
मैं कहाँ विश्वास कर पाया था,
जब तुमने कहा की चलो अपनी
एक अलग दुनिया बसाएँ हम ,
कैसे यकीं करता ,ऐसे
कहाँ होता है सच
अपने जीवन का स्वप्न ।
मैं तो उसी वक्त हाँ बोल देता
पर यकीन नहीं कर पाया
की ये सच है या तुम
कोई मजाक कर रही हो ।
मैं सच कहता हूँ तुमसे और
झूंठ कह भी कैसे सकता हूँ ?
जब से होश संभाला था
तबसे आजतक मेरी
साधना तुम ही तो थी ,
तुम्हें ही अपना भगवान
माना है मैंने....!
सच कहता हूँ !
बेवफाई नहीं की,
मैंने तुमसे !
बेवफा तो हालात हो गए ,
रूठे हैं जो मुझसे।
कैसे बताऊँ तुम्हें ,मैं खुशी से
पागल हुआ झूमता
तुमसे मिलने ही तो आ रहा था
तुम इंतजार कर रही थी
तो मैं भी बेकरार हुआ
आ रहा था ।
हाय ,दुर्भाग्य !
खुशी मेरी देखी ना गई
तेजी से चलती बाइक के सामने
कब वो छोटी सी बच्ची
अचानक आ गई ,
तेजी से डिस्क ब्रेक का
इस्तेमाल किया ,
पीछे आती कार
कब ऊपर आई
पता ही ना चला...!
वो हॉस्पीटल एमरजेंसी के ढाई घंटे...!
अचेतन अवस्था में भी
जहन में तुम्हारे शब्द
जो मुझे मौन देखकर
तुमने कहे थे मुझसे ,
गूँज रहे थे,
'मैं शाम पाँच बजे तक ,
प्रतीक्षा करूंगी
प्रियतम तुम्हारी....
ट्रेन के आने तक
तुम आए तो
साथ चलेंगे यदि
ना आ पाए तो.......?
मैंने उठना चाहा पर लगा
शरीर का कोई भी हिस्सा
मेरे दिल की बात
नही सुनना चाहता ।
कुछ आवाजें सुनाई पड़ रही थीं...
"सिर की चोट काफी गहरी है,
कह नहीं सकते कोमा से बाहर
आएगा या नहीं,"
शायद डॉक्टर था,
तभी माँ की चीख सुनाई पड़ी ,
फिर गिरने की आवाज,
शायद माँ बेसुध होकर
गिर पड़ी थी...!
मुझे कुछ नहीं सुनना था
बस यूँ लग रहा था
कि मैं तुम तक पहूँचने की
कोशिश कर रहा हूँ और मुझे
जकड़ दिया है जंजीरों से।
मैंने अपनी पूरी शक्ति
समेट कर जोर लगाया ,
लगा जैसे सारे बंधन तोड़कर
मुक्त हो गई मेरी काया ।
मैं पूरी ताकत से भागा
रेलवे स्टेशन की ओर ........!
अभी कुछ वक्त बाकि था..
"मैं बस तुम तक पहुँच जाऊँ
तो तुम्हे रोक लुंगा "
बस यही एक लक्ष्य लिए
मैं रेलवे प्लेटफॉर्म
पर आ पहूँचा था ...।
तुम मुझे दिखाई दीं
आँखों में आंसु भरे ,
कितनी मासूम लगी
मुझे तुम उस समय,
मैं तुम्हे सीने से
लगाना चाहता था...,
पर नहीं लगा पाया...
मैं चिल्लाता रहा ,कितनी देर
पर तुम मुझे सुनना तो दूर
देख भी नहीं रही थी...
तभी हमारे गंतव्य की
ट्रेन आती दिखाई पड़ी ,
मैं तुम्हे मनाना चाहता था ..!
देरी के लिए ,माफी माँग रहा था,
मैने कहा तुमसे ,
"हाँ थोड़ा लेट तो हुआ मैं
पर वक्त से पहले ही
आया हूँ ना,
अब गुस्सा थूको ,चलो चलते हैं
एक साथ अपनी अलग
दुनिया बसाते हैं ।
शायद, तुमने मेरी बात सुनी
तभी तो वो हल्की मुसकान
उभरी थी चेहरे पर,
एक पल में हमारी सारी
गलतफहमी, लगा कि
दूर हो गईं,
मेरे एकदम सामने तुम
मेरी तरफ बढी और
मुझे पार कर तुम कूद गईं.....
रेलवे ट्रेक पर ......उफ ,
ये क्या कर दिया, प्रिया ... ?
ऐसे भी कोई रूठता है क्या !
मैं तो आ ही गया ना, फिर क्यों.....?
तुम्हारी देह टुकडों में बँटी
चारों तरफ भीड़
चिल्ला रही थी ।
मैं अवाक खड़ा देखता रहा ...!
भीड़ छंट चुकी थी ,
रेलवे सिक्युरिटी अपना
काम कर रही थी।
मैं घुटनों पर बैठा
निहार रहा था तुम्हें
जो टुकडों में बँटी
पड़ी थी ,मेरे एकदम सामने।
अचानक ,किसी ने
कंधे पर हाथ रखा
तो अहसास हुआ
अपने अस्तित्व का ,
कि मैं हूँ...मैंने
दर्द भरी आँखों
से मुड़कर देखा
आँखों में सुकून
और चमक एक साथ
"....तो तुम यहाँ हो.......?"
तुमने पूछा बस मानों
सारा दर्द जाता रहा !
???????????????
प्रेम कहानी समापन-
(सुखान्तिका या दु:खान्तिका)?
प्रेमी व प्रेयसी एक स्वर में---????
हम समझ गए हैं आज यहाँ
कभी सच्चे मन की साधना
व्यर्थ नहीं जाने वाली ,
यही चाह थी यही कामना
जिंदगी रहे या रहे ना पर
हम और तुम रहेंगे सदा
सुनाएंगे ये प्यार की दास्ताँ
चलो प्रिय ,हम चलते है
अब कोई नहीं रोकने वाला
कब किसने सोचा था
अंजाम इश्क का
होगा इतना निराला ।
संगिनी --?????
मैंने सोचा था प्रिय तुम्हारा
दिल अब मुझपर रहा नहीं
मेरी देह समर्पित कर दी
तो शायद ,प्रेम में अब मेरे
रस तुमको कुछ रहा नहीं
क्षमा करना प्रियतम मेरे
समझा मैंने गलत तुम्हे
नहीं झाँक सकी दिल के अन्दर
बस बाहर बाहर सुना तुम्हें।
साथी ---???????
क्या कहती हो, प्राणप्रिया!
अब इन बातों में धरा ही क्या....
देह तुम्हारी माँगी तुमसे ,
थी ,भूल वो मेरी करो क्षमा ,
मिलन जरूरी था रूहों का
अब मिलन रूहानी पूर्ण हुआ
चलो मैं ,तुम और हमारा प्रेम
मिलकर, अपनी दुनिया बसाएँ।
दोनों --???????
अब, शब्दो की आवश्यकता ,
ना कसमों -वादों की रस्म कोई,
कल थी अलग कथा अपनी
आज हमारी कहानी बनीं।
देखो रूहों का मिलन है अपना,
यही देखा था हमने सपना,
कितनी सुखद है देखो ,प्रिय !
ये हमारी प्रेम कहानी,
हाँ ,रूहानी प्रेम कहानी....!
गलत कहा है प्रेम कथाएँ,
अक्सर ,दुखान्तिका बन जाती है़ !
प्रेम अगर सच्चा हो और
दोनों की सच्ची साध रहे ,
हो चाहें दुनिया दुश्मन पर,
मिलन उनका निर्बाध है ।
हम दोनों को तो लो अाज
मिल गई पूर्ण हमारी साध
प्रभो प्रार्थना तुमसे बस इतनी
प्यार की दुनिया रहे सदा आबाद।।
~~~इति~~~
???????????????
???????????????
प्यार को अंजाम तक पहुँचाया जाए,
हर प्यार भरा दिल बस यही चाहे...
पर बहुत कम ही प्रेमी युगल अपनी
प्रेमकहानी लिखवा पाए ।
सभी प्रेमकहानियाँ , मुकम्मल कहाँ होती हैं,
बहुत कम प्रेमियों के प्यार में वो शिद्दत होती है ।
कहीं भरोसा ना रहा तो कहीं टूट गए हौसले
प्रेमियों की अपनी कमजोरियाँ भी होती है।
और बहुत सी प्रेमकहानी शुरू ही नहीं हो
पाती हैं,कुछ भ्रमित भी हो जाती हैं ,
जो ब्रेकअप का अंजाम पाती हैं।
ये भी एक ऐसी ही प्रेमकहानी है,
जिसमें प्रेम है, विश्वास है,
समर्पण है, और निश्चित रूप से
प्यार में शिद्दत भी है ।
प्रेमकहानियों का दुःखान्तिका बनना
मुझे कभी रास नहीं आता है ।
प्रेम को संसार में किसी ने
गलत नहीं माना ,मगर प्रेम
कहानियाँ फिर भी दुखान्तिका
बनती रही हैं ।
प्रेम सात्विकता का प्रतीक है और
नफरत तामसिकता का प्रतीक,
फिर भी अकसर नफरत
जीतते हुए दिखाई देती है !
हर कहानी में एक नायक ,
एक नायिका और उनके
दरमियाँ बेइंतहा मोहब्बत होती है ।
और नायक व नायिका के प्रेम का
दुश्मन खलनायक भी होता है ,
जो अंततः प्रेमी ,प्रेमिका के प्यार को
मंजिल तक नहीं पहुँचने देता है ।
प्रेमी ,प्रेमिका के प्यार की दास्तान
उनकी जिंदगी के साथ खत्म हो जाती है ।
मैं जब भी ऐसी कोई दास्तान कभी सुनता था ,
तब कहानी के अंत में एक नई कहानी की
तलाश करने लगता था ,कई बार मैं कहानी के
नकारात्मक किरदार को पहले ही मारकर
कहानी के सुखद अंत की कल्पना करता ,
इस कल्पना ने मुझे हमेशा ही आनंदित किया है ।
मुझे प्रेमकहानियों में खलनायक की उपस्थिति
अवांछनीय लगती है ,इसीलिए मेरी इस कहानी
में कोई खलनायक नहीं है । पर उसकी आवश्य
-कता भी नहीं रही क्योंकि वक्त और हालात
उसकी कमी को पूरा कर देते है।
नायक और नायिका दोनों एक दूसरे से बेपनाह
प्यार करते है । प्यार का इजहार कर दोनों अपने
प्रेम की पुष्टि भी कर चुके हैं ।
नायक व नायिका दोनों जानते है कि अमीरी
गरीबी, ऊँच नीच ,जाति व समाज की कई
दीवारें हैं ,जो उन दोनों को मिलने नहीं देंगी ।
इसीलिए नायिका, नायक से कहीं दूर चलकर
अपनी दुनिया बसाने के लिए कहती है ,जहाँ
उन्हें कोई नहीं जानता ।
प्रथम अध्याय~दर्द का पहला हिस्सा ?
योजनानुसार , नायिका रेलवे प्लेटफार्म पर
नायक का इंतजार करती है । जब नायक
नियत समय पर नहीं पहुँचता , और उसकी
ट्रेन का अनाउंसमेंट हो जाता है,तब नायिका
के मन में नायक के प्रति अविश्वास के भाव
उठते हैं ,-
समर्पित प्रेयसी -?
हाँ माँगा तो था तुमसे ,मैंने साथ तुम्हारा ,
बहुत जरूरी भी था मेरे लिए ।
तब कहाँ पता था ,कि जिस फैसले को
जीवन मानने में मुझे लगे थे मात्र कुछ पल.....
तुम उसका निर्णय लेने में इतना वक्त ले लोगे।
दिल में ख्याल ही तो नहीं आया ,
की मेरे इस सवाल का जवाब
इनकार भी हो सकता है ।
आता भी कैसे ? मैं स्वयंसाक्षी
रही सदा तुम्हारी दीवानगी की !
कैसे मानती कि ,वो तुम्हारा
प्यार नहीं कोई छल है ,
इतनी शिद्दत से कोई
छल कैसे कर सकता है....?
मुझे अब भी यकीन है ,
की वो छल नहीं था...
पर ,फिर इतना वक्त क्यूँ लगा तुम्हें ,जवाब देने में ?
मेरा सवाल इतना मुश्किल तो नहीं था !!
मेरी एक झलक देखने के लिए ,
तुम्हारा वो मेरे कॉलेज खुलने से काफी पहले ,
मन्नु की थडी पर इंतजार में बैठे रहना ।
मेरे लिए अटूट चाहत का प्रमाण ही तो था
मैं कॉलेज की खिडकी से
झाँक कर जब भी देखती ,-
हर बार तुम वैसे ही ,
तपती धूप में घंटों बाइक पर बाहर बैठे
किसी तपस्वी से नजर आते थे मुझको !
मैं मन ही मन सोचा करती थी
कहीं इस विश्वामित्र की तपस्या
कोई मेनका भंग ना कर जाए ..!
सहेलियाँ मजाक करने लगी ,
तुम पर खीज भी आती
तो कभी बड़ा प्यारा सा
अहसास भी होता ,
अपने विशेष होने की बडी
सुखद अनुभूति होती थी ।
पर जब तुम दिखाई नहीं देते
तो एक डर घेर लेता था मुझे ।
सबसे कीमती और प्यारी
वस्तु के लुट जाने का डर!
उस दिन भी मैं ऐसे ही डर गई ,
मेरे क्लासरूम की खिड़की से कॉलेज के
बाहर का नजारा स्पष्ट नजर आ रहा था" ,
मैंने उस रोज देखा था कि कैसे
पागलों की तरह तुम
उस गुंडे से भिड़ गए थे ,
जिसने कॉलेज गेट पर
मेरे साथ बदतमीजी की थी ।
और उसके बाद वो गुंडा अपने
बदमाश साथियों को लेकर आ गया ,
बहुत चोट आई थी तुम्हें .....हाँ ,
उस दिन तुम्हारे शरीर पर लगती
चोटों का दर्द मैंने भी सहा था !
उसके बाद जब दो दिन तक
तुम नजर नहीं आए,तब मैं
अपने आप पर काबू कैसे रखती ....
तुम्हारे दोस्तों से तुम्हारा पता लेकर ,
लोकलाज को छोड तुम्हारे घर दौडी चली आई ....
और वहाँ जब तुम नहीं मिले तो,
मैं अपने आँसुओं पर काबू ही तो नहीं रख पाई
और पूरे रास्ते रोते हुए कॉलेज वापस आ रही थी मै ।
मुझे होश ही तो नहीं था ,
कि रास्ते भर लोगों की,
नजरें मुझे ही घूर रही थी ।
और जब तुमने मेरे कंधे पर हाथ रखा,
चौँक कर मुड़ी ,और तुम्हारा मुस्कुराता चेहरा
आँखों के सामने जो नजर आया.....
मुझे तो अहसास ही नहीं हुआ,
कि अभी तक हम अजनबी हैं !
मैं बेतहाशा लिपट गई थी तुमसे ...
मानो सदियों से जानती हूँँ तुम्हें !
वो जब तुमने मेरी बाँहों को
पकडकर धीरे से मुझे अलग किया
तब कहीं जाकर मेरी चेतना वापस आई ,
और लोगों की घूरती निगाहों पर मेरा ध्यान गया।
मैं मानती हूँँ ,
मेरा यूँ तुमसे लिपट जाना
अनपेक्षित था तुम्हारे लिए ,पर
तुमने भी तो उसी वक्त मुझे
चौंका दिया था ,बीच सडक पर,
सैंकडों घूरती नजरों के सामने,
घुटनों पर बैठकर वो ,
लाल गुलाब दिया था मुझे !
मैंने एक पल भी नहीं लगाया
तुम्हारा वो लाल गुलाब और
प्रेम प्रस्ताव स्वीकार करने में !
और क्यूँ ना करती ,मैं तो पहले ही
तुम्हें अपना जीवन मान चुकी थी !
कितनी गहराई से जाना था ,
तुम्हारे इश्क काे ,जब तुम
कडी दोपहरी में खडे होते थे
ना जाने वो धूप की तपन
कैसे मेरे वातानुकूलित कक्ष
में महसूस होती थी !
मैं भगवान तो ना थी
जो और परीक्षा ले पाती
और वक्त सह पाती तुम्हारी
तपस्या से उत्पन्न उस तपन को !
हाँ, मैं भगवान नहीं थी ,
ना ही तुम्हारे समान
तप करने का संबल था।
कैसे ना करती स्वीकार तुमको,
इतनी निष्ठुर कहाँ थी मैं ?
सर्वस्व सौंपा तुमको
यह मान कर की
तुम्हीं मंजिल हो मेरे जीवन की
और तुम्हारा हासिल मैं।
पर नहीं समझ पाई अब तक
मैं,कैसे इतना बदले तुम,
मैंने क्षण में स्वीकारा था तुम्हें, पर
इतना मौन क्यों रहेे तुम !
तुम्हारा प्रस्ताव मानने में मैंने तो
एकपल भी कहाँ लगाया था ।
नहीं सोचा था कि,
तुम्हें इतना वक्त लग जाएगा !
इंतजार किया..घडियाँ गिन गिन.
प्रियतम ! मैंने तुम्हारे आने का।
प्रतीक्षारत ,दिल
चलता,रूक रूक कर
जवाब तुम्हारा पाने का ।
पर तुम ना आए, तब
डगमगा गया मेरा ऐतबार
हार मान ली मैंने ,आखिरकार,
बदल दिया फैसला अपना ,
खत्म किया अपने
जीवन का कारोबार।
फिर,अब जब टूटी,
आने की तेरी आस ,
अंतिम पल भी गया निकल
पाया ना तुम्हें आसपास
विश्वास मेरा हुआ क्षीण प्रिय,
हाँ, छूट चुकी हैं मेरी साँस ।
खंड खंड देह
अब शेष रहा क्या ,देह मेरी,
खंड खंड है ,बिखर गई है ।
'अखंड प्रेम है ',कहा था तुमने,
अब बात तुम्हारी कहाँ रही
क्या झूंठा था प्रेम हमारा
खंडित ये कैसे हो गया,
मिलन हमारा हो ना सका
किसके रोके से रह गया ?
अब ,क्या कहते हो
बोलो..हे मनमीत मेरे?
कौनसा, अंग देह का मेरी...
प्रेम जगाता है हृदयतल में तेरे?
बोलो प्रियतम ,प्राणाधार !
अब भी क्या आकर्षण
है शेष तुम्हारा ...क्या
अब भी प्रेम का है आधार
या देह के खंडों से बहते लहू में
बह गया है ,हमारा प्यार !
क्षतविक्षत हैं ,झील सी आँखें
तुम डूब जाना चाहते थे जिनमें
देख कर जिनमें अक्स तुम्हारा
सार्थक होता था प्यार हमारा...!
तीन टुकडों में बंटा पड़ा है,
जिन बाँहों को बनाया
था तुमने गलहार ...!
तुम ले जाकर तीनों टुकड़े
फिर से धागे में पिरो लोगे ना .
मिल सके शायद इनमें ही
तुम्हें अपना कुछ ,चैन औ करार........!
देखो ये जुल्फें जिनमें खोकर ,
तुम, गम दुनिया के भूला देते थे !
बाकि हैं अभी नीचे देखो वो ,
मेरे लहू में सनी ,चिपकी हैं
ट्रैक से ....!
समेट कर ले जाना इनको
गर समेट पाओ ,शायद
अब भी दुनिया के गमों से
राहत दिलाएँ ये तुम्हें ...।
बस ये थोड़ा रक्त लगा है ,
खुशबु बाकि है पर अब भी,
महका देगी ख्वाबों में तुम्हें !
बहोत देर संभाला था ,यूँ तो मैंने ,
ये सुकूनमंद जु़ल्फें ,
ये बाहों का गलहार,
वो दाँतों के मोती ,
और दिलकश मुस्कान
और ये झीलनुमा आँखों
के साथ चाँद सा चेहरा ,
था जो कभी....।
पर तुमने आने
में देर कर दी बड़ी,
कब तक संभाल पाती
मैं नश्वर इस देह को ...?
कहा तो था तुम्हे की
वक्त ना लगाना.....
कहीं रह ना जाए
शेष बस पछताना ...!
वक्त पर आ जाते तो क्या
यूँ देह मेरी टुकडों मे पाते ........!
काश तुम थोड़ा जल्दी आ जाते,
काश मैंने थोड़ा और
इंतजार कर लिया होता ,
काश ,तुमने मुझे पहले ही
जवाब दिया होता..
तुमने और मैंने अपना सपनों का
संसार बसा ही लिया होता ,
क्यूँ काल को मैंने साथी
स्वीकार किया होता ।।
दर्द का दूसरा पहलू?
टूटा हुआ प्रेमी--?
सच कहा तुमने, मेरी संगिनी,हे प्रिया
देर हुई मुझसे ,हालातों ने हरा दिया
की जिसके दोपल के साथ पर मैं ,
पूरा जीवन कर सकता था निसार...
जिसको पाने की ज़िद में मैंने
छोड़ा परिवार ,छोड़ा घरबार ।
एक ही लक्ष्य पाना तुम्हें पाने का
तूम ही जीवन का मेरे थी आधार
तेरी साध थी पर लगता था
इतनी कहाँ,मेरी औकात...!
दोस्त सभी बोला करते थे,
नामुमकिन,यह ख्वाब मेरा
असंभव पाने की खातिर ,क्यूँ
करता ये जीवन बर्बाद ...!
मैं कहाँ विश्वास कर पाया था,
जब तुमने कहा की चलो अपनी
एक अलग दुनिया बसाएँ हम ,
कैसे यकीं करता ,ऐसे
कहाँ होता है सच
अपने जीवन का स्वप्न ।
मैं तो उसी वक्त हाँ बोल देता
पर यकीन नहीं कर पाया
की ये सच है या तुम
कोई मजाक कर रही हो ।
मैं सच कहता हूँ तुमसे और
झूंठ कह भी कैसे सकता हूँ ?
जब से होश संभाला था
तबसे आजतक मेरी
साधना तुम ही तो थी ,
तुम्हें ही अपना भगवान
माना है मैंने....!
सच कहता हूँ !
बेवफाई नहीं की,
मैंने तुमसे !
बेवफा तो हालात हो गए ,
रूठे हैं जो मुझसे।
कैसे बताऊँ तुम्हें ,मैं खुशी से
पागल हुआ झूमता
तुमसे मिलने ही तो आ रहा था
तुम इंतजार कर रही थी
तो मैं भी बेकरार हुआ
आ रहा था ।
हाय ,दुर्भाग्य !
खुशी मेरी देखी ना गई
तेजी से चलती बाइक के सामने
कब वो छोटी सी बच्ची
अचानक आ गई ,
तेजी से डिस्क ब्रेक का
इस्तेमाल किया ,
पीछे आती कार
कब ऊपर आई
पता ही ना चला...!
वो हॉस्पीटल एमरजेंसी के ढाई घंटे...!
अचेतन अवस्था में भी
जहन में तुम्हारे शब्द
जो मुझे मौन देखकर
तुमने कहे थे मुझसे ,
गूँज रहे थे,
'मैं शाम पाँच बजे तक ,
प्रतीक्षा करूंगी
प्रियतम तुम्हारी....
ट्रेन के आने तक
तुम आए तो
साथ चलेंगे यदि
ना आ पाए तो.......?
मैंने उठना चाहा पर लगा
शरीर का कोई भी हिस्सा
मेरे दिल की बात
नही सुनना चाहता ।
कुछ आवाजें सुनाई पड़ रही थीं...
"सिर की चोट काफी गहरी है,
कह नहीं सकते कोमा से बाहर
आएगा या नहीं,"
शायद डॉक्टर था,
तभी माँ की चीख सुनाई पड़ी ,
फिर गिरने की आवाज,
शायद माँ बेसुध होकर
गिर पड़ी थी...!
मुझे कुछ नहीं सुनना था
बस यूँ लग रहा था
कि मैं तुम तक पहूँचने की
कोशिश कर रहा हूँ और मुझे
जकड़ दिया है जंजीरों से।
मैंने अपनी पूरी शक्ति
समेट कर जोर लगाया ,
लगा जैसे सारे बंधन तोड़कर
मुक्त हो गई मेरी काया ।
मैं पूरी ताकत से भागा
रेलवे स्टेशन की ओर ........!
अभी कुछ वक्त बाकि था..
"मैं बस तुम तक पहुँच जाऊँ
तो तुम्हे रोक लुंगा "
बस यही एक लक्ष्य लिए
मैं रेलवे प्लेटफॉर्म
पर आ पहूँचा था ...।
तुम मुझे दिखाई दीं
आँखों में आंसु भरे ,
कितनी मासूम लगी
मुझे तुम उस समय,
मैं तुम्हे सीने से
लगाना चाहता था...,
पर नहीं लगा पाया...
मैं चिल्लाता रहा ,कितनी देर
पर तुम मुझे सुनना तो दूर
देख भी नहीं रही थी...
तभी हमारे गंतव्य की
ट्रेन आती दिखाई पड़ी ,
मैं तुम्हे मनाना चाहता था ..!
देरी के लिए ,माफी माँग रहा था,
मैने कहा तुमसे ,
"हाँ थोड़ा लेट तो हुआ मैं
पर वक्त से पहले ही
आया हूँ ना,
अब गुस्सा थूको ,चलो चलते हैं
एक साथ अपनी अलग
दुनिया बसाते हैं ।
शायद, तुमने मेरी बात सुनी
तभी तो वो हल्की मुसकान
उभरी थी चेहरे पर,
एक पल में हमारी सारी
गलतफहमी, लगा कि
दूर हो गईं,
मेरे एकदम सामने तुम
मेरी तरफ बढी और
मुझे पार कर तुम कूद गईं.....
रेलवे ट्रेक पर ......उफ ,
ये क्या कर दिया, प्रिया ... ?
ऐसे भी कोई रूठता है क्या !
मैं तो आ ही गया ना, फिर क्यों.....?
तुम्हारी देह टुकडों में बँटी
चारों तरफ भीड़
चिल्ला रही थी ।
मैं अवाक खड़ा देखता रहा ...!
भीड़ छंट चुकी थी ,
रेलवे सिक्युरिटी अपना
काम कर रही थी।
मैं घुटनों पर बैठा
निहार रहा था तुम्हें
जो टुकडों में बँटी
पड़ी थी ,मेरे एकदम सामने।
अचानक ,किसी ने
कंधे पर हाथ रखा
तो अहसास हुआ
अपने अस्तित्व का ,
कि मैं हूँ...मैंने
दर्द भरी आँखों
से मुड़कर देखा
आँखों में सुकून
और चमक एक साथ
"....तो तुम यहाँ हो.......?"
तुमने पूछा बस मानों
सारा दर्द जाता रहा !
???????????????
प्रेम कहानी समापन-
(सुखान्तिका या दु:खान्तिका)?
प्रेमी व प्रेयसी एक स्वर में---????
हम समझ गए हैं आज यहाँ
कभी सच्चे मन की साधना
व्यर्थ नहीं जाने वाली ,
यही चाह थी यही कामना
जिंदगी रहे या रहे ना पर
हम और तुम रहेंगे सदा
सुनाएंगे ये प्यार की दास्ताँ
चलो प्रिय ,हम चलते है
अब कोई नहीं रोकने वाला
कब किसने सोचा था
अंजाम इश्क का
होगा इतना निराला ।
संगिनी --?????
मैंने सोचा था प्रिय तुम्हारा
दिल अब मुझपर रहा नहीं
मेरी देह समर्पित कर दी
तो शायद ,प्रेम में अब मेरे
रस तुमको कुछ रहा नहीं
क्षमा करना प्रियतम मेरे
समझा मैंने गलत तुम्हे
नहीं झाँक सकी दिल के अन्दर
बस बाहर बाहर सुना तुम्हें।
साथी ---???????
क्या कहती हो, प्राणप्रिया!
अब इन बातों में धरा ही क्या....
देह तुम्हारी माँगी तुमसे ,
थी ,भूल वो मेरी करो क्षमा ,
मिलन जरूरी था रूहों का
अब मिलन रूहानी पूर्ण हुआ
चलो मैं ,तुम और हमारा प्रेम
मिलकर, अपनी दुनिया बसाएँ।
दोनों --???????
अब, शब्दो की आवश्यकता ,
ना कसमों -वादों की रस्म कोई,
कल थी अलग कथा अपनी
आज हमारी कहानी बनीं।
देखो रूहों का मिलन है अपना,
यही देखा था हमने सपना,
कितनी सुखद है देखो ,प्रिय !
ये हमारी प्रेम कहानी,
हाँ ,रूहानी प्रेम कहानी....!
गलत कहा है प्रेम कथाएँ,
अक्सर ,दुखान्तिका बन जाती है़ !
प्रेम अगर सच्चा हो और
दोनों की सच्ची साध रहे ,
हो चाहें दुनिया दुश्मन पर,
मिलन उनका निर्बाध है ।
हम दोनों को तो लो अाज
मिल गई पूर्ण हमारी साध
प्रभो प्रार्थना तुमसे बस इतनी
प्यार की दुनिया रहे सदा आबाद।।
~~~इति~~~
???????????????
???????????????
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