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Incest हरिया
#1
हरिया



fight
fight Namaskar fight
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
(17-01-2022, 11:40 AM)neerathemall Wrote:
हरिया



fight

fight Namaskar fight

Big Grin
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
Angel
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#4
s Shy[Image: 14213930_003_7cfe.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#5
cool2

banghead Big Grin
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#6
[Image: 14213930_045_b61b.jpg]:idea:
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#7
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#8
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जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#9
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#10
(17-01-2022, 01:38 PM)Class123 Wrote: Copy Paste of this story from another site...atleast acknowledge the original writer...
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#11

[Image: 14213930_003_7cfe.jpg]





[Image: 14213930_010_6af3.jpg]

[Image: 14213930_039_c235.jpg]
[Image: 14213930_010_6af3.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#12
x

[Image: 14213930_045_b61b.jpg][Image: 14213930_047_feba.jpg]

[Image: 14213930_041_3f94.jpg]
[Image: 14213930_039_c235.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#13
[Image: 77412347_083_88d8.jpg]

जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#14

[Image: 52532900_012_17f4.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#15

[Image: 52532900_016_4bcf.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#16
हरिया में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#17
हरिया हरक्यूलीज की हैरानी

मनोहर श्याम जोशी

(17-01-2022, 05:50 PM)neerathemall Wrote: हरिया में भारत के बिहार राज्य के अन्तर्गत पुर्णिया मण्डल के अररिया जिले का एक गाँव है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#18
लेखक परिचय

जीवन परिचय – मनोहर श्याम जोशी का जन्म सन 1935 में कुमाऊँ में हुआ था। ये लखनऊ विश्वविद्यालय से विज्ञान स्नातक थे। इन्होंने दिनमान पत्रिका में सहायक संपादक और साप्ताहिक हिंदुस्तान में संपादक के रूप में काम किया। सन 1984 में भारतीय दूरदर्शन के प्रथम धारावाहिक ‘हम लोग’ के लिए कथा-पटकथा लेखन शुरू किया। ये हिंदी के प्रसिद्ध पत्रकार और टेलीविजन के धारावाहिक लेखक थे। लेखन के लिए इन्हें सन 2005 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया। सन 2006 में इनका दिल्ली में देहांत हो गया।
रचनाएँ – मनोहर श्याम जोशी की प्रमुख रचनाएँ निम्नलिखित हैं –
कहानी – संग्रह-कुरु कुरु स्वाहा, कसप, हरिया हरक्यूलीज की हैरानी, हमजाद, क्याप।
व्यंग्य – संग्रह-एक दुर्लभ व्यक्तित्व, कैसे किस्सागो, मंदिर घाट की पौड़ियाँ, टा-टा प्रोफ़ेसर षष्ठी वल्लभ पंत, नेता जी कहिन, इस देश का प्यारों क्या कहना।
साक्षात्कार लेख-संग्रह – बातों-बातों में, इक्कीसवीं सदी।
संस्मरण-संग्रह – लखनऊ मेरा लखनऊ, पश्चिमी जर्मनी पर एक उड़ती नजर।
दूरदर्शन धारावाहिक – हम लोग, बुनियाद, मुंगेरी लाल के हसीन सपने।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#19


















पाठ का सारांश
यह लंबी कहानी लेखक की अन्य रचनाओं से कुछ अलग दिखाई देती है। आधुनिकता की ओर बढ़ता हमारा समाज एक ओर कई नई उपलब्धियों को समेटे हुए है तो दूसरी ओर मनुष्य को मनुष्य बनाए रखने वाले मूल्य कहीं घिसते चले गए हैं।
जो हुआ होगा और समहाउ इंप्रापर के दो जुमले इस कहानी के बीज वाक्य हैं। जो हुआ होगा में यथास्थितिवाद यानी ज्यों-का-त्यों स्वीकार लेने का भाव है तो समहाउ इंप्रापर में एक अनिर्णय की स्थिति भी है। ये दोनों ही भाव इस कहानी के मुख्य चरित्र यशोधर बाबू के भीतर के द्वंद्व हैं। वे इन स्थितियों का जिम्मेदार भी किसी व्यक्ति को नहीं ठहराते। वे अनिर्णय की स्थिति में हैं।
दफ़्तर में सेक्शन अफ़सर यशोधर पंत ने जब आखिरी फ़ाइल का काम पूरा किया तो दफ़्तर की घड़ी में पाँच बजकर पच्चीस मिनट हुए थे। वे अपनी घड़ी सुबह-शाम रेडियो समाचारों से मिलाते हैं, इसलिए वे दफ़्तर की घड़ी को सुस्त बताते हैं। इनके कारण अधीनस्थ को भी पाँच बजे के बाद भी रुकना पड़ता है। वापसी के समय वे किशन दा की उस परंपरा का निर्वाह करते हैं जिसमें जूनियरों से हल्का मजाक किया जाता है।

दफ़्तर में नए असिस्टेंट चड्ढा की चौड़ी मोहरी वाली पतलून और ऊँची एड़ी वाले जूते पंत जी को ‘समहाउ इंप्रापर’ मालूम होते हैं। उसने थोड़ी बदतमीजीपूर्ण व्यवहार करते हुए पंत जी की चूनेदानी का हाल पूछा। पंत जी ने उसे जवाब दिया। फिर चड्ढा ने पंत जी की कलाई थाम ली और कहा कि यह पुरानी है। अब तो डिजिटल जापानी घड़ी ले लो। सस्ती मिल जाती है। पंत जी उसे बताते हैं कि यह घड़ी उन्हें शादी में मिली है। यह घड़ी भी उनकी तरह ही पुरानी हो गई है। अभी तक यह सही समय बता रही है।
इस तरह जवाब देने के बाद एक हाथ बढ़ाने की परंपरा पंत जी ने अल्मोड़ा के रेम्जे स्कूल में सीखी थी। ऐसी परंपरा किशन दा के क्वार्टर में भी थी जहाँ यशोधर को शरण मिली थी। किशन दा कुंआरे थे और पहाड़ी लड़कों को आश्रय देते थे। पंत जी जब दिल्ली आए थे तो उनकी उम्र सरकारी नौकरी के लिए कम थी। तब किशन दा ने उन्हें मैस का रसोइया बनाकर रख लिया। उन्होंने यशोधर को कपड़े बनवाने व घर पैसा भेजने के लिए पचास रुपये दिए। इस तरह वे स्मृतियों में खो गए। तभी चड्ढा की आवाज से वे जाग्रत हुए और मेनन द्वारा शादी के संबंध में पूछे गए सवाल का जवाब देते हुए कहने लगे’नाव लेट मी सी, आई वॉज़ मैरिड ऑन सिक्स्थ फरवरी नाइंटीन फ़ोर्टी सेवन।’

मेनन ने उन्हें ‘सिल्वर वैडिंग की बधाई दी। यशोधर खुश होते हुए झेपे और झंपते हुए खुश हुए। फिर भी वे इन सब बातों को अंग्रेजों के चोंचले बताते हैं, किंतु चड्ढा उनसे चाय-मट्ठी व लड्डू की माँग करता है। यशोधर जी दस रुपये का नोट चाय के लिए देते हैं, परंतु उन्हें यह ‘समहाउ इंप्रॉपर फाइंड’ लगता है। अत: सारे सेक्शन के आग्रह पर भी वे चाय पार्टी में शरीक नहीं होते है। चडढ़ा के जोर देने पर वे बीस रुपये और दे देते हैं, किंतु आयोजन में सम्मिलित नहीं होते। उनके साथ बैठकर चाय-पानी और गप्प-गप्पाष्टक में वक्त बरबाद करना उनकी परंपरा के विरुद्ध है।
यशोधर बाबू ने इधर रोज बिड़ला मंदिर जाने और उसके उद्यान में बैठकर प्रवचन सुनने या स्वयं ही प्रभु का ध्यान लगाने की नयी रीति अपनाई है। यह बात उनकी पत्नी व बच्चों को अखरती थी। क्योंकि वे बुजुर्ग नहीं थे। बिड़ला मंदिर से उठकर वे पहाड़गंज जाते और घर के लिए साग-सब्जी लाते। इसी समय वे मिलने वालों से मिलते थे। घर पर वे आठ बजे से पहले नहीं पहुँचते थे।
आज यशोधर जब बिड़ला मंदिर जा रहे थे तो उनकी नजर किशन दा के तीन बेडरूम वाले क्वार्टर पर पड़ी। अब वहाँ छह-मंजिला मकान बन रहा है। उन्हें बहुमंजिली इमारतें अच्छी नहीं लग रही थीं। यही कारण है कि उन्हें उनके पद के अनुकूल एंड्रयूजगंज, लक्ष्मीबाई नगर पर डी-2 टाइप अच्छे क्वार्टर मिलने का ऑफ़र भी स्वीकार्य नहीं है और वे यहीं बसे रहना चाहते हैं। जब उनका क्वार्टर टूटने लगा तब उन्होंने शेष क्वार्टर में से एक अपने नाम अलाट करवा लिया। वे किशन दा की स्मृति के लिए यहीं रहना चाहते थे।

पिछले कई वर्षों से यशोधर बाबू का अपनी पत्नी व बच्चों से हर छोटी-बड़ी बात पर मतभेद होने लगा है। इसी वजह से उन्हें घर जल्दी लौटना अच्छा नहीं लगता था। उनका बड़ा लड़का एक प्रमुख विज्ञापन संस्था में नौकरी पर लग गया था। यशोधर बाबू को यह भी ‘समहाउ’ लगता था क्योंकि यह कंपनी शुरू में ही डेढ़ हजार रुपये प्रतिमाह वेतन देती थी। उन्हें कुछ गड़बड़ लगती थी। उनका दूसरा बेटा आई०ए०एस० की तैयारी कर रहा था। उसका एलाइड सर्विसेज में न जाना भी उनको अच्छा नहीं लगता। उनका तीसरा बेटा स्कॉलरशिप लेकर अमेरिका चला गया। उनकी एकमात्र बेटी शादी से इनकार करती है। साथ ही वह डॉक्टरी की उच्चतम शिक्षा के लिए अमेरिका जाने की धमकी भी देती है। वे अपने बच्चों की तरक्की से खुश हैं, परंतु उनके साथ सामंजस्य नहीं बैठा पाते।
यशोधर की पत्नी संस्कारों से आधुनिक नहीं है, परंतु बच्चों के दबाव से वह मॉडर्न बन गई है। शादी के समय भी उसे संयुक्त परिवार का दबाव झेलना पड़ा था। यशोधर ने उसे आचार-व्यवहार के बंधनों में रखा। अब वह बच्चों का पक्ष लेती है तथा खुद भी अपनी सहूलियत के हिसाब से यशोधर की बातें मानने की बात कहती है। यशोधर उसे ‘शालयल बुढ़िया’, ‘चटाई का लहँगा’ या ‘बूढ़ी मुँह मुँहासे, लोग करें तमासे’ कहकर उसके विद्रोह का मजाक उड़ाते हैं, परंतु वे खुद ही तमाशा बनकर रह गए। किशन दा के क्वार्टर के सामने खड़े होकर वे सोचते हैं कि वे शादी न करके पूरा जीवन समाज को समर्पित कर देते तो अच्छा होता।
यशोधर ने सोचा कि किशन दा का बुढ़ापा कभी सुखी नहीं रहा। उनके तमाम साथियों ने मकान ले लिए। रिटायरमेंट के बाद किसी ने भी उन्हें अपने पास रहने की पेशकश नहीं की। स्वयं यशोधर भी यह पेशकश नहीं कर पाए क्योंकि वे शादीशुदा थे। किशन दा कुछ समय किराये के मकान में रहे और फिर अपने गाँव लौट गए। सालभर बाद उनकी मृत्यु हो गई। उन्हें कोई बीमारी भी नहीं हुई थी। यशोधर को इसका कारण भी पता नहीं। वे किशन दा की यह बात याद रखते थे कि जिम्मेदारी पड़ने पर हर व्यक्ति समझदार हो जाता है।

वे मन-ही-मन यह स्वीकार करते थे कि दुनियादारी में उनके बीवी-बच्चे अधिक सुलझे हुए हैं, परंतु वे अपने सिद्धांत नहीं छोड़ सकते। वे मकान भी नहीं लेंगे। किशन दा कहते थे कि मूरख लोग मकान बनाते हैं, सयाने उनमें रहते हैं। रिटायरमेंट होने पर गाँव के पुश्तैनी घर चले जाओ। वे इस बात को आज भी सही मानते हैं। उन्हें पता है कि गाँव का पुश्तैनी घर टूट-फूट चुका है तथा उस पर अनेक लोगों का हक है। उन्हें लगता है कि रिटायरमेंट से पहले कोई लड़का सरकारी नौकरी में आ जाएगा और क्वार्टर उनके पास रहेगा। ऐसा न होने पर क्या होगा, इसका जवाब उनके पास नहीं होता।
बिड़ला मंदिर के प्रवचनों में उनका मन नहीं लगा। उम्र ढलने के साथ किशन दा की तरह रोज मंदिर जाने, संध्या-पूजा करने और गीता-प्रेस गोरखपुर की किताबें पढ़ने का यत्न करने लगे। मन के विरोध को भी वे अपने तकों से खत्म कर देते हैं। गीता के पाठ में ‘जनार्दन’ शब्द सुनने से उन्हें अपने जीजा जनार्दन जोशी की याद आई। उनकी चिट्ठी से पता चला कि वे बीमार है। यशोधर बाबू अहमदाबाद जाना चाहते हैं, परंतु पत्नी व बच्चे उनका विरोध करते हैं। यशोधर खुशी-गम के हर मौके पर रिश्तेदारों के यहाँ जाना जरूरी समझते हैं तथा बच्चों को भी वैसा बनाने की इच्छा रखते हैं। किंतु उस दिन हद हो गई जिस दिन कमाऊ बेटे ने यह कह दिया कि “आपको बुआ को भेजने के लिए पैसे मैं तो नहीं दूँगा।”
यशोधर की पत्नी का कहना है कि उन्होंने बचपन में कुछ नहीं देखा। माँ के मरने के बाद विधवा बुआ ने यशोधर का पालन-पोषण किया। मैट्रिक पास करके दिल्ली में किशन दा के पास रहे। वे भी कुंवारे थे तथा उन्हें भी कुछ नहीं पता था। अत: वे नए परिवर्तनों से वाकिफ़ नहीं थे। उन्हें धार्मिक प्रवचन सुनते हुए भी पारिवारिक चिंतन में डूबा रहना अच्छा नहीं लगा। ध्यान लगाने का कार्य रिटायरमेंट के बाद ठीक रहता है। इस तरह की तमाम बातें यशोधर बाबू पैदाइशी बुजुर्गवार है, क्यों में औरउ के हीलबे में कहा कते हैं तथा कहाक्रउ की ही तह ही सी लगनतीस हँसी हँस देते हैं।

जब तक किशन दा दिल्ली में रहे, तब तक यशोधर बाबू ने उनके पट्टशिष्य और उत्साही कार्यकर्ता की भूमिका पूरी निष्ठा से निभाई। उनके जाने के बाद घर में होली गवाना, रामलीला के लिए क्वार्टर का एक कमरा देना, ‘जन्यो पुन्यू’ के दिन सब कुमाऊँनियों को जनेऊ बदलने के लिए घर बुलाना आदि कार्य वे पत्नी व बच्चों के विरोध के बावजूद करते हैं। वे यह भी चाहते हैं कि बच्चे उनसे सलाह लें, परंतु बच्चे उन्हें सदैव उपेक्षित करते हैं। प्रवचन सुनने के बाद यशोधर बाबू सब्जी मंडी गए। वे चाहते थे कि उनके लड़के घर का सामान खुद लाएँ, परंतु उनकी आपस की लड़ाई से उन्होंने इस विषय को उठाना ही बंद कर दिया। बच्चे चाहते थे कि वे इन कामों के लिए नौकर रख लें। यशोधर को यही ‘समहाउ इंप्रॉपर’ मालूम होता है कि उनका बेटा अपना वेतन उन्हें दे। क्या वह ज्वाइंट एकाउंट नहीं खोल सकता था? उनके ऊपर, वह हर काम अपने पैसे से करने की धौंस देता है। घर में वह तमाम परिवर्तन अपने पैसों से कर रहा है। वह हर चीज पर अपना हक समझता है।
सब्जी लेकर वे अपने क्वार्टर पहुँचे। वहाँ एक तख्ती पर लिखा था-वाई०डी० पंत। उन्हें पहले गलत जगह आने का धोखा हुआ। घर के बाहर एक कार थी। कुछ स्कूटर, मोटर-साइकिलें थीं तथा लोग विदा ले-दे रहे थे। बाहर बरामदे में रंगीन कागजों की झालरें व गुब्बारे लटक रहे थे। उन्होंने अपने बेटे को कार में बैठे किसी साहब से हाथ मिलाते देखा। उनकी समझ में कुछ नहीं आ रहा था। उन्होंने अपनी पत्नी व बेटी को बरामदे में खड़ा देखा जो कुछ मेमसाबों को विदा कर रही थीं। लड़की जींस व बगैर बाँह का टॉप पहने हुए थी। पत्नी ने होंठों पर लाली व बालों में खिजाब लगाया हुआ था। यशोधर को यह सब ‘समहाउ इंप्रापर’ लगता था।
यशोधर चुपचाप घर पहुँचे तो बड़े बेटे ने देर से आने का उलाहना दिया। यशोधर ने शर्मीली-सी हँसी हँसते हुए पूछा कि हम लोगों के यहाँ सिल्वर वैडिंग कब से होने लगी है? यशोधर के दूर के भांजे ने कहा, “जबसे तुम्हारा बेटा डेढ़ हजार महीने कमाने लगा है, तब से।” यशोधर को अपनी सिल्वर बैडिंग की यह पार्टी भी अच्छी नहीं लगी। उन्हें यह मलाल था कि सुबह ऑफ़िस जाते समय तक किसी ने उनसे इस आयोजन की चर्चा नहीं की थी। उनके पुत्र भूषण ने जब अपने मित्रों-सहयोगियों से यशोधर बाबू का परिचय करवाया तो उस समय उन्होंने प्रयास किया कि भले ही वे संस्कारी कुमाऊँनी हैं तथापि विलायती रीति-रिवाज भी अच्छी तरह परिचित होने का एहसास कराएँ।
बच्चों के आग्रह पर यशोधर बाबू अपनी शादी की सालगिरह पर केक काटने के स्थान पर जाकर खड़े हो गए। फिर बेटी के कहने पर उन्होंने केक भी काटा, जबकि उन्होंने कहा-‘समहाउ आई डोंट लाइक आल दिस।” परंतु उन्होंने केक नहीं खाया क्योंकि इसमें अंडा होता है। अधिक आग्रह पर उन्होंने संध्या न करने का बहाना किया तथा पूजा में चले गए। आज उन्होंने पूजा में देर लगाई ताकि अधिकतर मेहमान चले जाएँ। यहाँ भी उन्हें किशन दा दिखाई दिए। उन्होंने पूछा कि ‘जो हुआ होगा’ से आप कैसे मर गए? किशन दा कह रहे थे कि भाऊ सभी जन इसी ‘जो हुआ होगा’ से मरते हैं चाहे वह गृहस्थ हो या ब्रहमचारी, अमीर हो या गरीब। शुरू और आखिर में सब अकेले ही होते हैं।
यशोधर बाबू को लगता है कि किशन दा आज भी उनका मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं और यह बताने में भी कि मेरे बीवी-बच्चे जो कुछ भी कर रहे हैं, उनके विषय में मेरा रवैया क्या होना चाहिए? किशन दा अकेलेपन का राग अलाप रहे थे। उनका मानना था कि यह सब माया है। जो भूषण आज इतना उछल रहा है, वह भी किसी दिन इतना ही अकेला और असहाय अनुभव करेगा, जितना कि आज तू कर रहा है।
इस बीच यशोधर की पत्नी ने वहाँ आकर झिड़कते हुए पूछा कि आज पूजा में ही बैठे रहोगे। मेहमानों के जाने की बात सुनकर वे लाल गमछे में ही बैठक में चले गए। बच्चे इस परंपरा के सख्त खिलाफ़ थे। उनकी बेटी इस बात पर बहुत झल्लाई। टेबल पर रखे प्रेजेंट खोलने की बात कही। भूषण उनको खोलता है कि यह ऊनी ड्रेसिंग गाउन है। सुबह दूध लाने के समय आप फटा हुआ पुलोवर पहनकर चले जाते हैं, वह बुरा लगता है। बेटी पिता का पाजामा-कुर्ता उठा लाई कि इसे पहनकर गाउन पहनें। बच्चों के आग्रह पर वे गाउन पहन लेते हैं। उनकी आँखों की कोर में जरा-सी नमी चमक गई। यह कहना कठिन है कि उनको भूषण की यह बात चुभ गई कि आप इसे पहनकर दूध लेने जाया करें। वह स्वयं दूध लाने की बात नहीं कर रहा।
शब्दार्थ
सिल्वर वैडिंग – शादी की रजत जयंती जो विवाह के पच्चीस वर्ष बाद मनाई जाती है। मातहत – अधीन। जूनियर – कनिष्ठ, अधीनस्थ। निराकरण – समाधान। परपरा – प्रथा। बदतमीजी – अशिष्ट व्यवहार। चूनेदानी – पान खाने वालों का चूना रखने का बरतन। धृष्टता – अशिष्टता। बाबा आदम का जमाना – पुराना समय। नहले पर दहला – जैसे को तैसा। दाद-प्रशंसा। ठठाकर – जोर से हँसकर। ठीक-ठिकाना – उचित व्यवस्था। चोंचले – आडंबरपूर्ण व्यवहार। माया-धन – दौलत, सांसारिक मोह। इनसिष्ट – आग्रह। चुग्गे भर – पेट भरने लायक। जुगाड़ – व्यवस्था। नगण्य – जो गिनने लायक न हो। सेक्रेट्रिएट – सचिवालय। नागवार – अनुचित। निहायत-एकदम। अफोड – सहन करना, क्रय –शक्ति के अंदर। इसरार – आग्रह। गय-गयाष्टक – इधर-उधर की बेकार की बातचीत। विरुदध – विपरीत। प्रवचन – धार्मिक व्याख्यान। निहायत – अत्यंत। फिकरा – वाक्यांश। पेंच – कारण। स्कालरशिप – छात्रवृत्ति। उपेक्षा – तिरस्कार का भाव। तरफ़दारी – पक्ष लेना। मातृसुलभ – माताओं की स्वाभाविक मनोदशा। मॉड – आधुनिक। जिठानी – पति के बड़े भाई की पत्नी।
तार्द्ध – पिता के बड़े भाई की पत्नी। ढोंग – ढकोसला, आडंबरपूर्ण आचरण। आचरण – व्यवहार। अनदेखा करना – ध्यान न देना। नि:श्वास – लंबी साँस। डेडीकेट – समर्पित। रिटायर – सेवा-निवृत्त। उपकृत – जिन पर उपकार किया गया है। येशकश – प्रस्तुत। बिरादर – जाति-भाई। खुराफात – शरारती कार्य। विरासत – उत्तराधिकार। मौज –आनंद। पुश्तैनी – पैतृक, खानदानी। लोक – संसार। बाध्य – मजबूर। मयदिा पुरुष – परंपराओं एवं आस्थाओं को मानने वाला। बाट – पगडंडी। जनादन – ईश्वर। सर्वथा – पूरी तरह से। बुजुर्गियत – बड़प्पन। बुढ़याकाल – वृद्धावस्था। एनीवे – किसी भी तरह। प्रवचन – भाषण। लहजा – ढंग। भाऊ – बच्चा। पट्टशिष्य – प्रिय छात्र। निष्ठा – आस्था। जन्यो पुन्यू – जनेऊ बदलने वाली पूर्णिमा। कुमाऊँनियों – कुमाऊँ क्षेत्र के निवासी। दुराग्रह – अनुचित हठ। एक्सपीरिएस – अनुभव। सबस्टीट्यूट – विकल्प। कुहराम – शोर-शराबा। वक्तव्य – कथन। नुक्तचीनी – छोटी-छोटी कमी निकालना। कारपेट – फ़र्श का कालीन। मर्तबा-बार। हुप्रॉपर – अनुचित। तरफदारी करना – पक्ष लेना। खिजाब – बालों को काला करने का पदार्थ। माहवार – महीना। मिसाल – उदाहरण। भव्य – सुंदर। सपन्न – मालदार। हरचद – बहुत अधिक। अनमनी – उदासी-भरी। मासाहारी – मांस खाने वाला। सध्या करना – सूर्यास्त के समय पूजा करना। रवैया – व्यवहार। आमादा – तत्पर होना। खिलाफ – विरुद्ध। लिमिट – सीमा। ग्रेजेंट – उपहार। ना-नुच करना – आनाकानी करना।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#20
गरीब का कर्ज़
इस धरती पर कहीं आसमान के नीचे बसे एक छोटे से गांव में हरिया नाम का एक गरीब किसान रहता था। वह इतना गरीब था कि उसके जीवन में उसके नाम के अलावा कहीं भी हरियाली का नाम-ओ-निशान नहीं था। उसके मां-बाप की जिंदगी गांव के लाला से लिए कर्ज़ को चुकाते चुकाते बीत गई थी और अब उसकी भी बीते जा रही थी।
रात में अपनी झोपड़ी के बाहर लगे नीम के पेड़ के नीचे लेटे हरिया आसमान के चांद को निहारते अपनी जीवनसंगिनी की कल्पना कर रहा था कि अचानक उसके मन में एक ख्याल आया कि यदि उसका विवाह हो जाए तो उसे कामकाज में हाथ बटाने वाला साथी मिल जाएगा और शायद लाला का कर्ज़ भी आसानी से चुका पाएगा। अगले दिन जैसे ही हरिया ने अपनी आंखें खोलीं तो उसने झोपड़ी के बाहर हुक्का पीते लाला और चौधरी को बैठा पाया जो अपनी कर्जा वसूली के लिए आए हुए थे। चौधरी दिमाग का धनी और मौकापरस्त इंसान था और लाला का अच्छा दोस्त भी। जब कर्ज न चुका पाने की असमर्थता को बताते हुए हरिया ने अपने मन की बात लाला और चौधरी के सामने रखी तो लाला और चौधरी दोनों ने उसकी हां में हां मिला दी और कुछ खुसुर फुसुर करते हुए हरिया को धुनिया नाम की एक लड़की के संग विवाह का प्रस्ताव दे डाला। धुनिया बगल के गांव के ही एक गरीब परिवार की रहने वाली थी। धुनिया स्वभाव से दायित्वनिष्ठ और साहसी लड़की थी जिसकी सुंदरता के चर्चे आसपास के कई गांवों के बड़े बड़े घरों की बेटियों से भी कहीं ज्यादा थे। हरिया अपनी बात याद करते हुए धुनिया से विवाह करने के लिए राजी हो गया परंतु उसने लाला और चौधरी से आग्रह किया कि एक बार उसे धुनिया से मिलने दिया जाए।अगले दिन पौ फटते ही तीनों दूसरे गांव के लिए रवाना हो गए, गांव पहुंचकर जब हरिया ने धुनिया को देखा तो वह तुरंत मोहित हो गया मानो जैसे कि हरिया के दिल और दिमाग में मधुर धुन बजने लगी हो और वह उन्हीं में कहीं खो गया हो। वह धुनिया पर इतना मोहित हो गया कि उसने धुनिया के पिता को तुरंत विवाह कराने का प्रस्ताव दे डाला और फिर एक आध हफ्ते बाद हरिया के जीवन में बरसों से बंजर पड़ी जमीन पर धुनिया नाम की हरियाली ने दस्तक दी। धुनिया हरिया के संग विवाह बंधन में बंध कर उसके घर आ गई और विवाह की पहली रात का बेसब्री से इंतज़ार करने लगी परंतु गेहूं की कटाई के चलते और मौसम के भी खराब होने की आशंका होने के कारण हरिया धुनिया को आलिंगन में लिए बिना ही खेत के लिए निकल गया और धुनिया का बदन यूं ही रात के आगोश में सो गया।अगले दिन खेत से वापस लौटने पर हरिया ने धुनिया को पलभर के लिए निहारा और हाल पूछ कर बाजार को सौदे के लिए निकल गया।बाजार में उसे फसल की इतनी भी कीमत नहीं मिल पाई कि वह अपनी नई नवेली दुल्हन के लिए कुछ ले जा सके उसने फसल से हुई कमाई का कुछ हिस्सा लाला को दे दिया और बाकी का दो वक्त की रोटी और नई फसल के लिए बचा लिया। शाम को घर वापसी पर हरिया ने बस धुनिया का हाल पूछा और खाना लेकर खेत के लिए निकल गया और वहीं दूसरी ओर आज भी धुनिया का बदन काली रात की आगोश में सो गया। लाला से लिए कर्ज के चलते जब यही सिलसिला कई महीनों तक चलता रहा तो एक दिन धुनिया ने हरिया के साथ खेत में चलने की ज़िद करी, यह सोचते हुए कि खेत में ही सही पर पति का साथ तो नसीब होगा और वैसे भी अकेले में काली रात काटने को दौड़ती है। हरिया के बहुत मना करने के बावजूद भी जब धुनिया नहीं मानी तो हरिया को उसे अपने साथ ले जाना पड़ा और अंत में हरिया ने हारकर इस बात से अपने आप को मनाया कि शायद आज के बाद वह ज़िद न करे परंतु औरत के आगे तो बड़े-बड़े हार जाते हैं वह तो सिर्फ एक किसान था और इस तरह अब दोनों एक साथ रात बिताने लगे पर कर्ज की चिंता साथ रात बिताने से थोड़े ही चली जाती। हरिया को कर्ज की चिंता अब पहले से और ज्यादा सताने लगी क्योंकि अब उसके पास धुनिया के रूप में एक जिम्मेदारी और भी आ चुकी थी और इसी चिंता के चलते वह धुनिया के लिए समय नहीं निकाल पा रहा था, न ही शारीरिक रूप से और न ही मानसिक। एक दिन धुनिया अपने पति की ऐसी स्थिति से परेशान होकर चौधरी के पास चली गई और अपनी सारी व्यथा बताने लगी, चौधरी कुछ कहने ही वाला था कि इतने में वहां पर लाला आ गया और चौधरी की बात बीच में रह गई। लाला ने धुनिया के उभरे सीने और चौड़े कूल्हे की तरफ इशारा करते हुए चौधरी के कान में कुछ कहा और चौधरी ने "सब कुछ लाला के ऊपर है" कहकर बात खत्म कर दी। लाला इस जोड़े की मजबूरी का फायदा उठाना चाहता था इसलिए धुनिया को लाला ने यह बतलाया कि कर्ज़ तय समय में न चुका पाने के कारण और बढ़ गया है। यह बात सुनते ही धुनिया ने लाला और चौधरी को दो तीन तीखे शब्द सुना डाले और उनकी बदनियती पर सवाल उठाते हुए वहां से वापस चली आई। घर वापस पहुंचकर उसने हरिया को गांव छोड़कर शहर भाग चलने की सलाह दी जहां पर हरिया मजदूरी करके भी परिवार का पेट पाल सकता है परंतु हरिया अपनी मिट्टी छोड़कर जाने के लिए राजी नहीं हुआ और यह कहकर टाल दिया कि लाला और चौधरी जैसे भी हों वह उन्हें बचपन से जानता है मगर अनजान शहर में वह किसी को नहीं जानता और फिर ऐसे में लोग उसका ज्यादा फायदा उठा लेंगे। शहर को लेकर चल रही बात ने इतना जोर पकड़ लिया की बात बहस में बदल गई और धुनिया तेज चाल से घर से बाहर कहीं खेतों में चली गई। बहस इतनी ज्यादा हो गई की हरिया ने भी धुनिया की खोज खबर करना ज़रूरी नहीं समझा। धुनिया गांव के किसी खेत में जमीन पर ही सो गई। जब वह भोर में उठी तो खेत में पानी छोड़े जाने के कारण उसका शरीर भीगा हुआ था और यौवन का एक अलग ही कामुक रूप नजर आ रहा था। धुनिया जैसे तैसे करके घर वापस आ रही थी कि उसे रास्ते में कुछ रुपए पड़े मिले उसने सहमी आंखों से इधर-उधर देखा और धीरे से रुपयों को अपनी चोली के अंदर डाल दिया। रुपयों को रख लेने के बाद उसने सोचा कि आज घर जाकर वह अपने यौवन से पहले हरिया को रिझाएगी और फिर उसे लाला का कर्ज उतारने के लिए रुपए दे देगी। धुनिया के घर पहुंचने पर हरिया ज्यों ही उसे ताना देने वाला था कि उसकी नजर धुनिया के सीनों पर पड़ी जो धुनिया के तेजी से सांस लेने के चलते एक गजब का उफान भर रहे थे और फिर हरिया कामुकता की दुनिया में कहीं खो गया। हरिया ने धुनिया को आलिंगन में लेते हुए पलंग पर लिटा दिया और धुनिया की गुलाब सी होठों का रसपान करते हुए उसकी छाती की तरफ बढ़ा जहां उसे वो रुपए मिल गए जो धुनिया लेकर आई थी। रुपए देखकर वह धुनिया से सवाल जवाब करने लग गया और जब उसे मालूम पड़ा कि वे रुपए धुनिया को रास्ते में पड़े मिले तो मानो जैसे कि उसकी कामोत्तेजना कहीं सोने चली गई और वह तुरंत लाला को पैसे देने निकल पड़ा। लाला को पैसे दे देने के बाद जब हरिया ने लाला से कर्ज खत्म हो जाने की बात पूछी तो लाला के कपाल पर सवार बदनियत ने साफ इंकार कर दिया और लाला उसे हिसाब समझाने लगा इस बात से हताश हरिया घर वापस लौट आया और धुनिया को सब बात बता डाली। धुनिया ने एक बार फिर हरिया को शहर जाने से मना करने वाली बात का ताना दिया और खाना बनाने लग गई, हरिया भी गुस्सा कर बाहर चला गया, घर से निकलने के बाद हरिया ने शांत दिमाग से धुनिया की बातों पर विचार किया और शहर जाने की तैयारियों में जुट गया उधर अंदर ही अंदर से अपने साथी के लिए परेशान हो रही धुनिया लाला के घर की ओर निकल पड़ी जहां चौधरी भी उसे बैठा मिल गया। लाला और चौधरी फिर उसे हवस और कपट की नजरों से घूरने लगे और धुनिया हल्का सा इशारा करते हुए लाला के भंडारगृह की तरफ बढ़ गई। इशारे को समझते हुए लाला और चौधरी दोनों भंडारगृह की तरफ बढ़े जहां धुनिया निर्वस्त्र हुए अपने बदन के सौदे के लिए उन्हें खड़ी मिली। लाला कदम आगे बढ़ाता उससे पहले धुनिया ने लाला से कर्ज के कागज़ मांग लिये और इसके बाद उसने अपने बदन की आहुति दे डाली। उधर जब हरिया इस घटना से अनजान खुशी से घर आया तो उसे धुनिया कहीं नहीं मिली और वह परेशान होकर उसकी खोज में निकल गया। खोजते खोजते जब वह अपने खेत पहुंचा तो उसे वहां धुनिया की लाश मिली जिसकी इज्जत जमीन के उन्हीं कागज़ों ने ढक रखी थी जिनकी वजह से धुनिया को अपने बदन की आहुति देनी पड़ी थी। यह देखकर हरिया को सब कुछ समझ आ गया था और वह आंखों में आग भरे, हाथ में फावड़ा लिए लाला के घर जा पहुंचा जहां पहले तो उसने लाला जैसे तुच्छ इंसान को मौत के घाट उतारा और वहीं दूसरी तरफ बीच बचाव कर रहे चौधरी को भी हमेशा हमेशा के लिए शांत कर दिया। लाला और चौधरी को उनके कुकर्मों का परिणाम देने के बाद हरिया अपने खेत को लौटा जहां उसने धुनिया को अंतिम विदाई दी और जब रात थोड़ा और ढली तो वह अपनी झोपड़ी में वापस लौट आया।अगले दिन सुबह होते ही गांव में हड़कंप सा मच गया और सारा गांव हरिया की झोपड़ी के बाहर इकट्ठा हो गया। जहां हरिया तो नहीं मिला मगर मिली तो हरिया की लाश जो हाथ में कर्ज के कागज लिए उसी नीम के पेड़ से लटक कर हमेशा हमेशा के लिए ठंडी छांव तले सो गई जहां कभी हरिया ने एक सुनहरा ख्वाब संजोया था, जो हरिया और धुनिया के विवाह का साक्षी बना था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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