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Adultery नयना
#1
नयना

















............
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#2
हवाई जहाज में बैठी नयना किसी परिंदे की तरह सहमी और निराश थी। जिसको उडान भरते हुए बीच में ही बहेलिये ने झपट लिया था। नियति का यह खेल उसकी समझ में नहीं आया।
दिल्ली पहुँच कर वह हवाई जहाज क़ी सीट पर बेहिस सी बैठी रही। भीड छंटने पर एयरहोस्टेस ने उसकी हालत देखी और पास आकर बोली, '' मैम, आपकी मदद कर सकती हूँ? ''
'' नहीं मैं ठीक हूँ।''
बडी देर तक वह कुर्सी पर बैठी खाली नजरों से मुसाफिरों को बाहर निकलते देखती रही। उसके दिमाग से सब कुछ पुछ सा गया था। कौनसा घर, कौनसा शहर और कौनसा पता जहाँ उसको जाना था?
एयरहोस्टेस ने उसकी अटैची निकाली। वह उठी, सीढियां उतरी और इमारत में दाखिल हुई। प्रिपेड टैक्सी काउंटर पर वह बडी देर तक चुप रही। फिर बडी मुश्किल से उसने सडक़ का नाम बताया। टैक्सी पर बैठी तो लगा सर के अन्दर झनझनाहट सी है। घर का नम्बर याद ही नहीं आया। टैक्सी बडी देर तक उस सडक़ पर दांये बांये घूमती रही फिर ड्राईवर ने झुंझला कर कहा कि मेम साहब, मुझे घर भी लौटना है। नयना की चेतना लौटी। बहुत देर तक ढूंढने के बाद उसने पर्स से अपना विजिटिंग कार्ड निकाला और बडी क़ठिनता से पता पढा। घर पहुंच कर उसको अजीब घुटन का अहसास हो रहा था। सर में शदीद दर्द उठ रहा था। उसकी हालत देख कर नौकर परेशान थे। वह सर दोनों हाथों से पकडे बेडरूम में जा बिस्तर पर लुढक़ गयी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#3
सारी रात नयना के दिमाग में फोन की घंटी घनघनाती रही। उसी के साथ रोजी क़े शब्द तपकन बन उसके दिल को मसलते रहे, '' मुझे कभी कभी लगता है कि सर अपने सारे दु:खों को नशे की हालत में तरतीब दे लेते हैंबडे बडे प्राेजेक्ट तक, जो उनकी अभिलाषा रही है, मगर पूरे नहीं हो पायेअनजाने में ही सही मुझे उनका यह अन्दाज बडा निर्मम लगाआपको देख कर मैं समझ सकती हूँ कि आपका विश्वास कहाँ पर टूटा है। प्लीज मैम हो सके तो सर को भूल जाईये।।'' एयरपोर्ट पर विदा देते हुये रोजी ने बहुत धीमे सुर में कहा था।
नयना को अच्छी तरह याद है कि वह जून का तपता महीना था, जब उसकी मुलाकात रविभूषण से हुई थी, शादी की उस पार्टी में ढेरों मर्द - औरतों का जमघट था। कुछ चेहरे जाने पहचाने थे कुछ कुछ अजनबी थे। उन्हीं में से एक चेहरा रविभूषण का था। कुमकुमों की रंगीन झालरों से सजे पेड क़े पास खडा वह बेतहाशा सिगरेट फूंक रहा था। धुंए से डूबा उसका चेहरा उसे और भी रहस्यमय बना रहा था। जब किसी के परिचय कराने पर उसने होंठों में सिगरेट दबा कर परंपरागत अंदाज से दोनों हाथ जोडक़र नमस्ते की तो, नयना को हल्का सा झटका महसूस हुआ। वह हलो या हाय की आशा कर रही थी मगरउसने गौर से रविभूषण को देखा, चेहरे पर खोयापन, माहौल से लापरवाह उसकी बडी बडी आँखें अपने ही सिगरेट के धुंए से अधमुंदी हो रही थीं। उसने संवाद शुरु करना चाहा, मगर जाने क्यों रुक गयी। वह भी खामोश खडा सम्पूर्ण वातावरण का जायज़ा लेता रहा। नयना को वह आदमी कुछ अलग सा लगा, बल्कि यूं कहा जाये कि उस आदमी के व्यक्तित्व से कोई और शख्स अन्दर बाहर होता नजर आ रहा था, भीड क़े बावजूद नयना की नजरें कई बार रविभूषण पर पडीं ।
रविभूषण से नयना की यह पहली मुलाकात बडी सरसरी सी थी सो धुंधला गयी। मगर चंद माह बाद जब लंच पर उससे दूसरी मुलाकात हुई तो वह गुमनाम चेहरा गर्द झाड क़र साफ नजर आया। सिगरेट, धुंआ, खोयापन और लापरवाह अन्दाज। चूंकि यह बिजनेस लंच था सो बाकायदा परिचय हुआ और कार्ड का आदान प्रदान भी। नयना ने तब जाना कि एक साथ दो व्यक्तित्व की झलकियां दिखाने वाला यह इंसान बंबई शहर ही नहीं बल्कि देश का जाना माना वास्तुविद् रविभूषण है तो उसने रवि से अपनी पहली मुलाकात का कोई जिक़्र नहीं किया। रवि को वैसे भी कुछ याद नहीं था, वरना वह कह सकता था कि हम पहले मिल चुके हैं। इंटीरियर डेकोरेशन को लेकर यह मीटींग बम्बई के मशहूर उद्योगपति द्वारा बुलवाई गयी थी। उसके पोते का ऑफिस जिसको रवि ने डिजाईन किया था, वह ईंट गारे की मदद से बन कर अब साकार रूप ले चुका था। उसकी सजावट को लेकर सलाह मशविरा चल रहा था। लंच के बाद कॉफी पीते हुए नयना को रविभूषण बहुत हँसमुख व मिलनसार आदमी लगा। खासकर काम को लेकर उसका नजरिया और राय जानकर महसूस हुआ कि इतनी शोहरत पाने के बावजूद आदमी काफी सुलझे स्वभाव का है, दंभ या ओछापन उसमें नहीं है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#4
नयना को दूसरे दिन दिल्ली लौटना था। वह लौट आई। सप्ताह भर बाद उसको रविभूषण का फोन मिला। बस यूं ही हालचाल पूछने की नीयत से और नयना को उसका बात करना बुरा नहीं लगा। पांच मिनट की यह बात अगले सप्ताह दस मिनट में बदली तो नयना को कुछ अटपटा सा लगा, बात में वही दोहराव था। औपचारिकता के अतिरिक्त कोई और स्वर की गुंजाईश नहीं थी, क्योंकि वह एक इंटीरियर डेकारेटर जरूर थी, मगर रविभूषण जैसे आर्किटैक्ट से वह क्या बात कर सकती थी? जब तीसरा, चौथा फोन आया, तो नयना सोच में पड ग़ई कि आखिर बिना किसी योजना पर बात किये यह बार बार क्यों फोन कर रहा है! फिर ख्याल गुजरा, शायद उसको कोई बडा प्रोजेक्ट दिल्ली में मिला हो और उस सिलसिले से वह सम्वाद की भूमिका बना रहा हो। आखिर बंबई शहर का मामला है, दो शहर के बीच दूरियां काफी हैं मगर एक प्रोफेशनल को तो साफ साफ बात करना ज्यादा पसन्द आता है, फिर? इस फिर का जवाब नयना के पास नहीं था। वह फोन करने के लिये मना भी नहीं कर सकती थी, आखिर वह देश का सम्मानित वास्तुविद् था और बेहद शालीन स्वर में बातचीत करता था। स्वयं नयना सारे दिन अपने ऑफिस में नए नए लोगों से प्रोजेक्ट को लेकर मिलती थी। आखिर उसका काम ही ऐसा था मगर बिना काम के फोन का मौसम तो कब का बीत चुका है, वह कॉलेज के दिन जब दोस्तों से बातें ही खत्म नहीं होती थीं, उन दिनों के मुकाबले में आज कम्प्यूटर का दौर है, जहां सम्वेदनाओं के लिये समय ही नहीं बचा है।
वह अगस्त का उमस भरा महीना था, जब रविभूषण किसी मीटिंग के सिलसिले में उसके शहर आया था। पता नहीं क्यों नयना ने महसूस किया कि रविभूषण काम का बहाना बना केवल उससे मिलने आया है। दिमाग के इस शक को यह कह कर उसने झटक दिया कि यह बेवकूफी का खयाल उसको टेलीफोन पर होती बातों के कारण आया है, वरना एक व्यस्त आदमी बिना कारण यात्राएं नहीं करता है। मगर वह आँखे उनकी भाषा क्या अलग सी इबारत की तरफ इशारा नहीं कर रही थी? शाम की चाय पीकर जब रविभूषण उसके बंगले से निकला तो पोर्टिको में आन खडी हुई। जाते जाते रविभूषण ने उसकी तरफ मुडक़र देखा और उसने हाथ उठा कर बाय कहा, फिर चौंक कर उसने अपने उठे हाथ के नर्म इशारे को ताका और नजर उठा कर जो रविभूषण की तरफ देखा, तो धक् सी रह गई। उन आँखों में सम्मोहन था। गहरा आकर्षण! उसने हाथ नीचे किया और स्वयं से पूछा, कहीं यह तेरा भ्रम तो नहीं है नयना?

एक रंग, जो मौसम बदलने से पहले हवा में फैलने लगता है, कुछ वैसी ही कैफियत से नयना दो चार हुई। एक खुशी जैसे उसको कुछ मिल गया हो, मगर क्या? इसी उधेडबुन में वह तैरती उतरती प्लाजा की तरफ चल पडी, ज़िसकी सारी सजावट उसी को करनी थी। रास्ते के सारे पेड उसको चमकीली पत्तियों से सजे लगे और शाम ज्यादा गुलाबी जिसमें धुंधलका सुरमई रंग की धारियां जहां तहां भर रहा था। घर लौटते हुए उसको सडक़ की बत्तियां चिराग क़ी तरह जलती लगीं, जैसे छतों पर दीवाली की सजावट घरों को दूर तक रोशनी की लकीरों में बांट देती थीं।
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#5
आज उसका मूड बरसों बाद हल्का हुआ था। कोई कुंठा, कोई शिकायत, कोई कडवापन या झुंझलाहट उसको आहत नहीं कर रही थी। वह हवा में तैरती हुई जब घर पहुंची, तो नौकर ने बताया कि साहब को कोई एमरजेंसी ऑपरेशन करना है, जिसके कारण वे देर से लौटेंगे। सूचना सुनकर वह हमेशा की तरह आक्रोश से नहीं भरी, बल्कि उसने लापरवाही से कंधे झटके और गुनगुनाती हुई कमरे में दाखिल हुई।
नहाने के बाद जब वह गाउन में लिपटी ड्रेसिंग टेबल के सामने बैठी, तो अपना ही चेहरा इस तरह देखने लगी जैसे पहली बार देख रही हो। आंखों के नीचे हल्का कालापन, भंवों के पास कई लकीरें, माथे पर सफेद बालों का झांकना, आंखों में एक जिज्ञासा कि मैं कैसी लगती हूँ? उसको अपनी त्चचा मुलायम और चमकीली लगी। होंठों पर जाने कहां से आई मुस्कान उसको अजनबी लग रही थी। थकान के बावजूद उसमें फुर्ती का अहसास था। खाना खाने के बाद जब वह पलंग पर लेटी तो उसे महसूस हुआ कि आज बरसों बाद उसके बदन को मुलायम बिस्तर मिला है। उसने आराम की सांस ली और आंखें बन्द की तो सामने रविभूषण का चेहरा तैर गया।
बंबई पहुंचते ही रवि ने नयना को फोन किया कि वह भली प्रकार पहुंच गया। रात को जब दोबारा उसने फोन किया, तो नयना को पहली बार लगा कि उसकी आवाज सुन कर उसके दिल में कुछ उथल पुथल सी हुई। फिर फोन का यह सिलसिला पांच मिनट से आधा घंटा हो गया और हफ्ते की जगह रोज बातें होने लगीं, जिसमें प्रोफेशनल बातें कम और आपसी बातें ज्यादा होतीं - खाना खाया या नहीं? दिन कैसा गुजरा? मौसम कैसा है? नयना को फोन का इंतजार आठ बजे से शुरु हो जाता, जबकि ठीक दस बजे फोन की घंटी बज उठती थी, इस बीच वह सारे काम निबटा लेती ताकि, आराम से बातें कर सके। उसको अकेले घर में एक साथी मिल गया था, जिससे वह दु:ख सुख की बात कर सकती थी।
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#6
पिछले पांच छ: वर्षों से नयना का अकेलापन बढता जा रहा था। दोनों नरेन्द्र जब से डायरेक्टर बना है, तब से इतना व्यस्त होता जा रहा है कि नयना को गुस्सा आने लगा था कि ऐसा भी क्या पागलपन, जो दिन रात अस्पताल में रहना, आखिर घर की भी कोई जिम्मेदारी होती है। सारे दिन की उडान के बाद परिंदे भी तो अपने घर घोंसले को लौटते हैं? पिछले तीन दिन से डॉ नरेन्द्र घर नहीं लौटे थे, कोई बेहद पेचीदा केस आ गया है। कई विदेशी प्रोफेसर मेडिकल क्षेत्र के भी रात दिन सर खपा रहे थे। नयना को स्थिति की गंभीरता का ज्ञान था, मगर हर दिन आपातकाल का वातावरण बना रहे तो, इंसान जिये कैसे अकेले घर में? कब तक टी वी देखे, मित्रों को फोन करे और पार्टियों में शामिल हो? हर तरफ से उसको ऊब लगने लगी थी। थोडी बहुत खुशी उसको मिलती, तो वह सिर्फ अपना ऑफिस था, जहां काम में उसका दिल बहल जाता था।
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#7
नरेन्द्र इतना थके लौटते कि खाना खा कर सो जाते और नयना जब फोन पर बातें करके लेटती तो उसके दिमाग में यह प्रश्न फूलों से भरी क्यारी की तरह खिल उठता कि रविभूषण उसका क्या लगता है दोस्त या भाई?
नयना अपनी सालगिरह के दिन बच्चों के बिना उदास थी। नरेन्द्र भी विदेश गये हुये थे। उस रात फोन पर रवि ने जब उसकी उदासी का कारण जानकर यह कह दिया कि वह नयना को खुश देखना चाहता है
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#8
इसके लिये वह अपने जीवन के बचे वर्ष उसको भेंट स्वरूप देता है, तो नयना भी भावुक होकर बोल उठी कि क्या वह रवि को भाई कह सकती है? इस पर रवि ने जल्दी से कहा,
'' नहीं, नहीं भाई हरगिज नहीं, हमारा रिश्ता तो सखा का है।'' और यह सुन नयना विश्वास से भर उठी, सारी दुनिया उसे सुगंध से भरी महसूस हुई। आखिर हर रिश्ते से बडा रिश्ता दोस्त का होता है जिसमें न कोई लालच न बंधन न जोर जबरदस्ती। जितनी लम्बी पेंग लेना चाहो, ले सकते हो। इस रात ने दोनों के वार्तालाप का अन्दाज ही बदल डाला। बातों का सिलसिला सुबह तीन बजे तक चलता रहा और अनजाने में नई दिशा की तरफ मुड ग़या।
नयना का छोटा भाई, जो दो वर्ष पहले ही कार दुर्घटना में जीवित नहीं रहा था, उसके बहुत करीब था। दोनों में बचपन से दोस्ती थी। जब वह बनारस से दिल्ली नौकरी के सिलसिले में आया तो नयना की खुशी का पूछना क्या था। कुछ दिन भाई बहन के साथ नरेन्द्र घूमने गये, फिर बोर होकर अपने अस्पताल में गुम हो गये। नयना को उनकी कमी खलती न थी। उसका बचपना उसको दोबारा मिल गया था। भाई की शादी की सारी खरीदारी उसने दिल्ली से की थी। मगर होनी को कौन टाल सकता था। शादी के सप्ताह भर पहले तालकटोरा के पास कार की टक्कर होने से उसकी मौत हो गयी। डॉ नरेन्द्र कुछ न कर पाये, आखिर वो ईसामसीह तो थे नहीं, जो मुर्दाबदन में भी जान फूंक देते। नयना गहरी उदासी में डूब गई थी, उसी दुर्घटना के बाद बेटों का अमेरिका जाना हो गया। नयना को लगता कि वह इस दुनिया में तन्हा रह गई है, किसी को उससे बात करने, उसके साथ समय गुजारने की फुर्सत नहीं है।
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#9
नरेन्द्र से उसकी शादी पसन्द की थी। दोनों ने शादी के पहले एक दूसरे को देखा परखा था, मगर जिन्दगी तो हमेशा से समय से आगे निकल जाने वाली चीज है, न कि ठहरी हुई जन्मपत्री, जिसके सारे शब्द अनेक संकेतों से भरे होते हैं! अपने काम को परखते, उसकी दौड में शामिल नरेन्द्र भी पहले वाले इंसान नहीं रह गये थे। उनके जीवन मूल्य जड न रह कर तरलता में अपना समाधान ढूंढने लगे थे। बहुत सी बातें नयना को परेशान करती थीं। कई सवाल थे जो वह नरेन्द्र से करना चाहती थी। मगर उनके पास हर बात का जवाब खामोशी थी। नयना भी नरेन्द्र से उखडक़र अपने ऑफिस से अधिक जुडने लगी मगर यह अहसास समय के साथ बढने लगा कि उसका पुराना घर कहीं खो गया है।
नयना के दिल में छुपा नरेन्द्र के खिलाफ भरा गुबार कभी कभी फोन पर निकल जाता। आखिर रवि ने एक दिन कह दिया कि, क्यों सहती हो यह सब? चली आओ सब कुछ छोड क़र मेरे पास। सुनकर नयना चौंक पडी। पूछने वाली थी, आखिर किस रिश्ते से? फिर कुछ सोच कर रुक गयी। पूरी रात रवि के इस बुलावे पर गौर करती रही, उसमें ध्वनित प्रेम के स्वरों को पकडने की कोशिश में स्वयं से सवाल करती, क्या रवि? और उसने अपने को टटोला, दिल की गहराई में कहीं रवि मौजूद था। उसने चौंक कर स्वयं से पूछा कि नयना इस रिश्ते का यदि आरंभ अनजाने में हो गया है, तो अंत क्या होगा? समझा बूझा या फिर समझा बूझा या फिर या फिर?
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#10
बहरहाल रवि से दोस्ती नयना के जीवन में एक नई उपलब्धि थी, जिसने जीवन से उसका मोह बढा दिया था। उसमें थकान की जगह खुशमिजाजी आ गयी थी। पहनने ओढने का दिल करता। सजने संवरने की इच्छा के चलते उसने क्रीम, सेन्ट का ढेर लगा लिया और हर रात रविभूषण के बुलावे पर उसका मन बम्बई जाने को मचलने लगा। उसको अपने इस घर में एक और घर नजर आने लगा। बातों की लय में दोस्ती का अनुराग मर्द - औरत की चाहत में बदल चुका था। एक दिलनशीन कैफियत थी। जिसमें नयना डूबती चली जा रही थी। उसके क्षेत्र की अन्य औरतें उसके चेहरे पर आयी ताजग़ी देखकर जब कॉम्प्लीमेन्ट्स देतीं तो स्वयं नयना को लगता कि उम्र के इस दौर में जब औरतें दुनियावी जिम्मेदारी से निबट धर्म की तरफ मुडने लगती हैं या फिर सूखी नदी में तब्दील होने लगती हैं उस समय उसको ऊपरवाले ने कैसा वरदान दिया, जो दिल दोबारा धडक़ा और जीवन में अनुराग ताजा कोंपल की तरह फूटा।
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#11
कभी नरेन्द्र और नयना का जीवन एक सुखी जीवन था, वे दोनों अपना समय अपने कार्यक्षेत्र में उनमुक्त भाव से देते थे, दिमाग पर कोई बोझ न होता, न घर की जिम्मेदारियों से दिल परेशान रहता। अपनी कामयाबी को देख कर दोनों ने फैसला लिया था कि वे ऊंची शिक्षा के लिये बच्चों को बाहर भेजेंगे। दोनों लडक़े गज़ब के जहीन थे। स्कॉलरशिप मिली और उमंग से भरे वे अमेरिका पहूँचे। उनके जाने के बाद डॉक्टर नरेन्द्र की रुचि अपने काम में और बढ ग़ई। तरक्की मिली तो व्यस्तता का बढना लाजमी था। नरेन्द्र का उलट नयना के साथ हुआ। उसका काम में दिल कम लगने लगा। मन भटका भटका सा लडक़ों के ख्याल में डूबा रहता। घर सूना लगता। खाना पीना अच्छा न लगता। कुछ माह बाद वह संभल गयी। शायद अस्पताल के नए प्रोजेक्ट ने उसका ध्यान बंटा दिया, मगर एक उदासी जरूर हरदम उसके मन पर छाई रहती थी। जिसको रविभूषण ने दूर कर दिया था।
वह बम्बई जाने की तैयारी करने लगी। नरेन्द्र को बम्बई जाना प्रोफेशनल टूर लगा। इसमें क्या खास बात थी। दोनों ही समय समय पर एक दूसरे से दूर घर से बाहर जाते थे, सो नरेन्द्र ने सुबह नयना को सेफ जर्नी कह बाय बाय किया और नयना ने हमेशा की तरह उसको कुछ हिदायतें दीं और फिर वह पैकिंग में लग गई।
नयना जब नए खरीदे कपडे पहन कर आईने के सामने खडी हुई, तो उसको लगा कि उम्र का साया अभी उसके चेहरे पर नहीं आया है। खुशी ने उसके चेहरे पर चमक ला दी है। इस खयाल से उसकी उत्तेजना बढी क़ि यदि रविभूषण ने उसको रोका और अपने साथ रहने का आग्रह किया तो वह क्या फैसला लेगी? रविभूषण तो साफ शब्दों में कह चुका है कि, तुम बेकार में समय नष्ट कर रही हो, वहां तुम्हारा कोई इंतजार नहीं कर रहा है। यहां मैं हूँ, आओ न - मैं फोन रखता हूँ। तब तक तुम फैसला लो। मैं दस मिनट बाद फोन करुंगा। उसकी इस तरह की बातें छोटी छोटी शिकायतों के जख्म ताजा कर देती और उसको महसूस होता कि उसने अपनी जिन्दगी जी ही कहाँ? कभी बच्चे, कभी पति कभी ससुरालवालेअब मैं अपनी जिन्दगी जी सकती हूँ। रविभूषण वास्तुविद् हैं, जो इमारत बनने से पहले उसका नक्शा खींच, मॉडल के रूप में पूरी इमारत सामने लाने की क्षमता रखता है। वह जिन्दगी का नक्शा भी बडा मजबूत बनायेगा। जिसमें वह अपनी महबूबा के लिये ताजमहल न सही, एक छोटा सा घर तो बना सकता है। जिसको वह अपनी मर्जी से सजा सकती है। नयना ने पूरे विश्वास से होंठों पर लिपस्टिक लगाई और गहरी नजरों से अपने सरापे को ताका। उडान का समय हो गया था।
दिल्ली से बम्बई उडान बहुत कम समय की थी। नयना का मन तेजी से धडक़ रहा था। दो मुलाकातों के बाद घटनायें सम्वेदना के स्तर पर जिस तरह घटीं थीं, सारी मौखिक थीं मगर उसमें जादू था, जो नयना के सर चढ क़र बोल रहा था। कल रात रविभूषण की खुशी का कोई ठिकाना न था, जब उसको पता चला कि नयना ने बम्बई आना तय कर लिया है। उसके स्वर में जो धडक़न थी, उसने नयना को विश्वास दिलाया कि जीवन का अंतिम पहर जैसे रविभूषण के साथ गुजरने वाला है, वही मेरा अंत होगा धीरे से नयना ने कहा और बैग उठा हवाई जहाज़ की सीढियां उतरने लगी। उसको डर था कि रवि को देख कर वह इतनी भावुक न हो उठे कि वहीं हवाई अड्डे पर उससे लिपट जाये। या फिर रवि वहीं सबके सामने उसका चुंबन न ले ले। नयना किसी किशोरी की तरह शर्माई शर्माई सी थी। प्यार किसी भी उम्र में हो उसका अपना तर्क होता है। जो उम्र, जात पात, धर्म, भाषा की सारी दीवारों को गिरा देने की शक्ति अपने में रखता है।

नयना की बेकरार आंखें भीड में रविभूषण को ढूंढ रही थीं। जब वह बाहर निकली तो रवि धुंये में घिरा अपनी तरफ उसको आता दिखा। वह व्याकुलता से आगे बढी, मगररविभूषण का ठहरा हुआ चेहरा देख कर ठिठक गई। वहां पर अहसास की कोई लकीर न थी, बस औपचारिकतापूर्ण मुस्कान। एक ठण्डा सहाज अन्दाज नयना को परेशान कर गया। सुस्त कदमों से चल वह कार में बैठ गई। जिसको स्वयं रविभूषण चला रहा था। नयना के दिल में कुछ टूटा। मन भटक कर कहीं दूर चला गया। दिमाग रवि के गंभीर चेहरे को देख कर बार बार प्रश्न करने लगा कि क्या यह वही आदमी है जो रात के आखिरी पहर और कभी भोर तक बडी ललक से बातें करता है और दिलो दिमाग़ को उमंगों से भर देता है?
'' आपकी तबियत ठीक है? ''
'' हाँ।''
'' बहुत चुपचुप हैं?''
'' दरअसल दिन को काम में उलझा रहता हूँ सो बात करने का मन नहीं होता ! ''
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#12
रवि की हल्की हँसी और जवाब ने नयना को संभाल लिया। उसके अन्दर बुझी खुशी फिर जिन्दा हो गय्ी और वह चहकने लगी। बातों में पता नहीं चला कि वह होटल पहुंच गये हैं। ऊपर समन्दर के सामने वाली कुर्सी पर बैठा रवि सिगरेट पीता रहा और वह बातें, फिर रवि ने लम्बी गहरी सांस लेकर खाली चाय की प्याली रखते हुए उसकी ओर देखा ! उसका दिल धक कर उठा 1
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#13
Beautifully written story.
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#14
(03-11-2021, 03:58 PM)neerathemall Wrote: रवि की हल्की हँसी और जवाब ने नयना को संभाल लिया। उसके अन्दर बुझी खुशी फिर जिन्दा हो गय्ी और वह चहकने लगी। बातों में पता नहीं चला कि वह होटल पहुंच गये हैं। ऊपर समन्दर के सामने वाली कुर्सी पर बैठा रवि सिगरेट पीता रहा और वह बातें, फिर रवि ने लम्बी गहरी सांस लेकर खाली चाय की प्याली रखते हुए उसकी ओर देखा ! उसका दिल धक कर उठा 1

आपकी सभी कहानिया अच्छी हैं

केवल इतनी इल्तजा है की अपडेट अपडेट  लगना चाहिए टिप्पणी नहीं . अपडेट थोड़ा बड़ा दिया कीजिये
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#15
धन्यवाद
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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#16
(13-11-2021, 10:31 AM)aamirhydkhan1 Wrote: आपकी सभी कहानिया अच्छी हैं

केवल इतनी इल्तजा है की अपडेट अपडेट  लगना चाहिए टिप्पणी नहीं . अपडेट थोड़ा बड़ा दिया कीजिये

Namaskar
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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