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Romance मोहब्बत का सफ़र
#1
मुझे यह नहीं पता कि आप लोगों में से कितने पाठकों को सत्तर और अस्सी के दशक के भारत - ख़ास तौर पर उत्तर भारत के राज्यों के भीतरी परिक्षेत्रों - उनके कस्बों और गाँवों - में रहने वालों के जीवन, और उनके रहन सहन के बारे में पता है। तब से अब तक - लगभग पचास सालों में - उन इलाकों में रहने वालों के रहन सहन में काफ़ी बदलाव आ चुके हैं, और अधिकतर बदलाव वहाँ रहने वाले लोगों की बेहतरी के लिए ही हुए हैं। मेरा जीवन भी तब से काफ़ी बदल गया है, और उन कस्बों और गाँवों से मेरा जुड़ाव बहुत पहले ही छूट गया है। लेकिन भावनात्मक स्तर पर, मैं अभी भी मज़बूती से अपनी भूमि से जुड़ा हुआ हूँ। मुझे उन पुराने दिनों की जीवंत यादें आती हैं। शायद उसकी सबसे बड़ी वजह यह है कि अगर किसी का बचपन सुखी, और सुहाना रहता है, तो उससे जुड़ी हुई सभी बातें सुहानी ही लगती हैं! आज मैं जो कुछ भी हूँ, उसकी बुनियाद ऐसी ही जगहों - कस्बों और गाँवों - में पड़ी। मैं आप सभी पाठकों को इस कहानी के ज़रिए एक सफ़र पर ले चलना चाहता हूँ। मैं हमारे इस सफ़र को मोहब्बत का सफ़र कहूँगा। मोहब्बत का इसलिए क्योंकि इस कहानी में सभी क़िरदारों में इतना प्यार भरा हुआ है कि उसके कारण उन्होंने न केवल अपने ही दुःख दर्द को पीछे छोड़ दिया, बल्कि दूसरों के जीवन में भी प्यार की बरसात कर दी। इस कहानी के ज्यादातर पात्र प्यार के ही भूखे दिखाई देते हैं, और उसी प्यार के कारण ही उनके जीवन के विभिन्न आयामों पर प्रभाव पड़ता दिखाई देता है। साथ ही साथ, सत्तर और अस्सी के दशक के कुछ पहलुओं को भी छूता चलूँगा, जो आपको संभवतः उन दिनों की याद दिलाएँगे। तो चलिए, शुरू करते हैं!

आपने महसूस किया होगा कि बच्चों के लिए, उनके अपने माँ और डैड अक्सर पिछड़े, दक़ियानूसी, और दखल देने वाले होते हैं। लेकिन सच कहूँ, मैंने अपने माँ और डैड के बारे में ऐसा कभी महसूस नहीं किया : उल्टा मुझे तो यह लगता है कि वो दोनों इस संसार के सबसे अच्छे, सबसे प्रगतिशील, और खुले विचारों वाले लोगों में से थे। आपने लोगों को अपने माता-पिता के लिए अक्सर कहते हुए सुना होगा कि वो ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं! मुझे लगता है कि अधिकतर लोगों के लिए वो एक सतही बात है - केवल कहने वाली - केवल अपने फेसबुक स्टेटस पर चिपकाने वाली। उस बात में कोई गंभीरता नहीं होती। मैंने कई लोगों को ‘मदर्स डे’ पर अपनी माँ के साथ वाली फ़ोटो अपने फेसबुक पर चिपकाए देखी है, और जब मैंने एकाध की माँओं से इस बारे में पूछा, तो उनको ढेले भर का आईडिया नहीं था कि मदर्स डे क्या बला है, और फेसबुक क्या बला है! ख़ैर, यहाँ कोई भाषण देने नहीं आया हूँ - अपनी बात करता हूँ।   

मेरे लिए मेरे माँ और डैड वाक़ई ‘वर्ल्ड्स बेस्ट पेरेंट्स’ हैं। अब मैं अपने जीवन के पाँचवे दशक में हूँ। लेकिन मुझे एक भी मौका, एक भी अवसर याद नहीं आ पाता जब मेरी माँ ने, या मेरे डैड ने मुझसे कभी ऊँची आवाज़ में बात भी की हो! डाँटना तो दूर की बात है। मारना - पीटना तो जैसे किसी और ग्रह पर हो रहा हो! माँ हमेशा से ही इतनी कोमल ह्रदय, और प्रसन्नचित्त रही हैं कि उनके अंदर से केवल प्रेम निकलता है। उनके ह्रदय की कोमलता तो इसी बात से साबित हो जाती है कि सब्ज़ी काटते समय उनको जब सब्जी में कोई पिल्लू (इल्ली) दिखता है, तो वो उसको उठा कर बाहर, बगीचे में रख देती हैं। जान बूझ कर किसी भी जीव की हत्या या उस पर कैसा भी अत्याचार उनसे नहीं होता। वो ऐसा कुछ सोच भी नहीं सकतीं। डैड भी जीवन भर ऐसे ही रहे! माँ के ह्रदय की कोमलता, उनके व्यक्तित्व का सबसे अहम् हिस्सा है। माँ को मैंने जब भी देखा, उनको हमेशा हँसते, मुस्कुराते हुए ही देखा। वो वैसे ही इतनी सुन्दर थीं, और उनकी ऐसी प्रवृत्ति के कारण वो और भी अधिक सुन्दर लगतीं। डैड भी माँ जैसे ही थे - सज्जन, दयालु, और अल्प, लेकिन मृदुभाषी। कर्मठ थी बड़े थे। माँ थोड़ी चंचल थीं; डैड उनके जैसे चंचल नहीं थे। दोनों की जोड़ी, वहाँ ऊपर, आसमान में बनाई गई थी, ऐसा लगता है।

मेरे डैड और माँ ने डैड की सरकारी नौकरी लगने के तुरंत बाद ही शादी कर ली थी। अगर आज कल के कानून के हिसाब से देखा जाए, तो जब माँ ने डैड से शादी करी तो वो अल्पवयस्क थीं। अगर हम देश के सत्तर के शुरुआती दशक का इतिहास उठा कर पढ़ेंगे, तो पाएँगे कि तब भारत में महिलाओं को पंद्रह की उम्र में ही कानूनन विवाह योग्य मान लिया जाता था [हिन्दू मैरिज एक्ट 1955]। माँ के माता-पिता - मतलब मेरे नाना-नानी - साधन संपन्न नहीं थे। वे सभी जानते थे कि वे माँ की शादी के लिए आवश्यक दहेज की व्यवस्था कभी भी नहीं कर पाएंगे। इसलिए, जैसे ही उन्हें अपनी एकलौती बेटी के लिए शादी का पहला ही प्रस्ताव मिला, वैसे ही वे तुरंत ही उस विवाह के लिए सहमत हो गए। माँ के कानूनन विवाह योग्य होते ही मेरे नाना-नानी ने उनका विवाह मेरे डैड से कराने में बिलकुल भी समय बर्बाद नहीं किया। डैड उस समय कोई तेईस साल के थे। उनको हाल ही में एक सरकारी महकमे में क्लर्क की नौकरी मिली थी। सरकारी नौकरी, मतलब स्थयित्व, पेंशन, और विभिन्न वस्तुओं पर सरकारी छूट इत्यादि! छोटे छोटे कस्बों में रहने वाले मध्यमवर्गीय माँ-बापों के लिए मेरे डैड एक बेशकीमती वर होते। मेरी माँ बहुत सुंदर थीं - अभी भी हैं - इसलिए, डैड और मेरे दादा-दादी को वो तुरंत ही पसंद आ गईं थीं। और हालाँकि मेरे नाना-नानी गरीब थे, लेकिन फिर भी वे अपने समुदाय में काफ़ी सम्मानित लोग थे। इसलिए, माँ और डैड की शादी बिना किसी दहेज़ के हुई थी। उनके विवाह के एक साल के भीतर ही भीतर, मैं इस दुनिया में आ गया।

माँ और डैड एक युवा जोड़ा थे, और उससे भी युवा माता - पिता! इस कारण से उनको अपने विवाहित जीवन के शुरुवाती वर्षों में काफ़ी संघर्ष करना पड़ा। लेकिन उनके साथ एक अच्छी बात भी हुई - मेरे डैड की नौकरी एक अलग, थोड़े बड़े क़स्बे में थी, और इस कारण, उन दोनों को ही अपने अपने परिवारों से अलग रहने के लिए मजबूर होना पड़ा। न तो मेरे दादा-दादी ही, और न ही मेरे नाना-नानी उन दोनों के साथ रह सके। यह ‘असुविधा’ कई मायनों में उनके विवाह के लिए एक वरदान साबित हुआ। उनके समकालीन, कई अन्य विवाहित जोड़ों के विपरीत, मेरे माँ और डैड एक दूसरे के सबसे अच्छे दोस्त थे, और उनका पारस्परिक प्रेम जीवन बहुत ही जीवंत था। अपने-अपने परिवारों के हस्तक्षेप से दूर, वो दोनों अपने खुद के जीने के तरीके को विकसित करने में सफ़ल हो सके। कुल मिलाकर मैं यह कह सकता हूँ कि हम खुशहाल थे - हमारा एक खुशहाल परिवार था।

हाँ - एक बात थी। हमें पैसे की बड़ी किल्लत थी। अकेले मेरे डैड की ही कमाई पर पूरे घर का ख़र्च चलता था, और उनकी तनख्वाह कोई अधिक नहीं थी। हालाँकि, यदि देखें, तो हमको वास्तव में बहुत अधिक पैसों की ज़रुरत भी नहीं थी। मेरे दादा और नाना दोनों ने ही कुछ पैसे जमा किए, और हमारे लिए उन्होंने एक दो-बेडरूम का घर खरीदा, जो बिक्री के समय निर्माणाधीन था। इस कारण से, और शहर (क़स्बे) के केंद्र से थोड़ा दूर होने के कारण, यह घर काफ़ी सस्ते में आ गया था। घर के अधिकांश हिस्से में अभी भी पलस्तर, पुताई और फ़र्श की कटाई आदि की जरूरत थी। अगर आप आज उस घर को देखेंगे, तो यह एक विला जैसा दिखेगा। लेकिन उस समय, उस घर की एक अलग ही दशा थी। कालांतर में, धीरे धीरे करते करते डैड ने उस घर को चार-बेडरूम वाले, एक आरामदायक घर में बढ़ा दिया, लेकिन उसमें समय लगा। जब हमारा गृह प्रवेश हुआ, तब भी यह एक आरामदायक घर था, और हम वहाँ बहुत खुश थे। 

आज कल हम ‘हेल्दी’ और ‘ऑर्गनिक’ जीवन जीने की बातें करते हैं। लेकिन मेरे माँ और डैड ने मेरे जन्म के समय से ही मुझे स्वस्थ आदतें सिखाईं। वो दोनों ही यथासंभव प्राकृतिक जीवन जीने में विश्वास करते थे। इसलिए हमारे घर में प्रोसेस्ड फूड का इस्तेमाल बहुत ही कम होता था। हम अपने पैतृक गाँव से जुड़े हुए थे, इसलिए हमें गाँव के खेतों की उपज सीधे ही मिलती थी। दही और घी मेरी माँ घर में ही बनाती थीं, और उसी दही से मक्खन और मठ्ठा भी! माँ ख़ुद भी जितना हो सकता था उतना घरेलू और प्राकृतिक चीजों का इस्तेमाल करती थीं। खाना हमेशा घर का बना होता था, और खाना पकाने के लिए कच्ची घानी के तेल या घी का ही इस्तेमाल होता था। इन सभी कारणों से मैंने कभी भी मैगी या रसना जैसी चीजों को आजमाने की जरूरत महसूस नहीं की। बाहर तो खाना बस यदा कदा ही होता था - वो एक बड़ी बात थी। ऐसा नहीं है कि उसमे अपार खर्च होता था, लेकिन धन संचयन से ही तो धन का अर्जन होता है - मेरी माँ इसी सिद्धांत पर काम करती थीं। हाँ, लेकिन हर इतवार को पास के हलवाई के यहाँ से जलेबियाँ अवश्य आती थीं। गरमा-गरम, लच्छेदार जलेबियाँ - आहा हा हा! तो जहाँ इस तरह की फ़िज़ूलख़र्ची से हम खुद को बचाते रहे, वहीं मेरे पालन पोषण में उन्होंने कोई कोताही नहीं करी। हमारे कस्बे में केवल एक ही अच्छा पब्लिक स्कूल था : कोई भी व्यक्ति जो थोड़ा भी साधन-संपन्न था, अपने बच्चों को उस स्कूल में ही भेजता था। मैं बस इतना ही कहना चाहता हूँ कि स्कूल के बच्चे ही नहीं, बल्कि उनके माँ और डैड भी एक-दूसरे के दोस्त थे।

उस समय उत्तर भारत के कस्बों की एक विशेषता थी - वहाँ रहने वाले अधिकतर लोग गॉंवों से आए हुए थे, और इसलिए वहाँ रहने वालों का अपने गॉंवों से घनिष्ठ संबंध था। यह वह समय था जब तथाकथित आधुनिक सुविधाएँ कस्बों को बस छू ही रही थीं। बिजली बस कुछ घंटे ही आती थी। कार का कोई नामोनिशान नहीं था। एक दो लोगों के पास ही स्कूटर होते थे। टीवी किसी के पास नहीं था। मेरे कस्बे के लोग त्योहारों को बड़े उत्साह से मनाते थे : सभी प्रकार के त्योहारों के प्रति उनका उत्साह साफ़ दिखता था। पास के मंदिर में सुबह चार बजे से ही लाउडस्पीकरों पर भजन के रिकॉर्ड बजने शुरू हो जाते थे। डैड सुबह की दौड़ के लिए लगभग इसी समय उठ जाते थे। माँ भी उनके साथ जाती थीं। वो दौड़ती नहीं थी, लेकिन वो सुबह सुबह लंबी सैर करती थीं। मैं सुबह सात बजे तक ख़ुशी ख़ुशी सोता था - जब तक कि जब तक मैं किशोर नहीं हो गया। मेरी दिनचर्या बड़ी सरल थी - सवेरे सात बजे तक उठो, नाश्ता खाओ, स्कूल जाओ, घर लौटो, खाना खाओ, खेलो, पढ़ो, डिनर खाओ और फिर सो जाओ। डैड खेलने कूदने के एक बड़े पैरोकार थे। उनको वो सभी खेल पसंद थे जो शरीर के सभी अंगों को सक्रिय कर देते थे - इसलिए उनका दौड़ना, फुटबॉल खेलना और कबड्डी खेलना बहुत पसंद था। हमारा जीवन बहुत सरल था, है ना?
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#2
हमारे नेचुरल रहन सहन ही आदतों और मेरे माँ और डैड के स्वभाव और व्यवहार का मुझ पर कुछ दिलचस्प प्रभाव पड़ा। काफ़ी सारे अन्य निम्न मध्यमवर्गीय परिवारों के जैसे ही, जब मैं छोटा था, तो मेरे माँ और डैड मुझे नहाने के बाद, जब तक बहुत ज़रूरी न हो तब तक, कपड़े नहीं पहनाते थे। इसलिए मैं बचपन में अक्सर बिना कपड़ों के रहता था, ख़ास तौर पर गर्मियों के मौसम में। जाड़ों में भी, डैड को जब भी मौका मिलता (खास तौर पर इतवार को) तो मुझे छत पर ले जा कर मेरी पूरी मालिश कर देते थे और धूप सेंकने को कहते थे। बारिश में ऐसे रहना और मज़ेदार हो जाता है - जब बारिश की ठंडी ठंडी बूँदें शरीर पर पड़ती हैं, और बहुत आनंद आता है। अब चूँकि मुझे ऐसे रहने में आनंद आता था, इसलिए माँ और डैड ने कभी मेरी इस आदत का विरोध भी नहीं किया। मैं उसी अवस्था में घर के चारों ओर - छत और यहाँ तक कि पीछे के आँगन में भी दौड़ता फिरता, जहाँ बाहर के लोग भी मुझे देख सकते थे। लेकिन जैसा मैंने पहले भी बताया है कि अगर निम्न मध्यमवर्गीय परिवार के बच्चे ऐसे रहें तो कोई उन पर ध्यान भी नहीं देता। खैर, जैसे जैसे मैं बड़ा होने लगा, वैसे वैसे मेरी यह आदत भी कम होते होते लुप्त हो गई। वो अलग बात है कि मेरे लिए नग्न रहना आज भी बहुत ही स्वाभाविक है। इसी तरह, मेरे माँ और डैड का स्तनपान के प्रति भी अत्यंत उदार रवैया था। मेरे समकालीन सभी बच्चों की तरह मुझे भी स्तनपान कराया गया था। सार्वजनिक स्तनपान को लेकर आज कल काफी हंगामा होता रहता है। सत्तर और अस्सी के दशक में ऐसी कोई वर्जना नहीं थी। घर पर मेहमान आए हों, या जब माँ घर के बाहर हों, अगर अधिक समय लग रहा होता तो माँ मुझे स्तनपान कराने में हिचकिचाती नहीं थीं। जब मैं उम्र के उस पड़ाव पर पहुँचा जब अधिकांश बच्चे अपनी माँ का दूध पीना कम कर रहे या छोड़ रहे होते, तब भी मेरी माँ ने मुझे स्तनपान कराते रहने में कोई बुराई नहीं महसूस की। डैड भी इसके ख़िलाफ़ कभी भी कुछ नहीं कहते थे। दिन का कम से कम एक स्तनपान उनके सामने ही होता था। मुझे बस इतना कहना होता था कि ‘माँ मुझे दूधु पिला दो’ और माँ मुझे अपनी गोदी में समेट, अपना ब्लाउज़ खोल देती। यह मेरे लिए बहुत ही सामान्य प्रक्रिया थी - ठीक वैसे ही जैसे माँ और डैड के लिए चाय पीना थी! मुझे याद है कि मैं हमेशा ही माँ के साथ मंदिरों में संध्या पूजन के लिए जाता था। वहाँ भी माँ मुझे दूध पिला देती थीं। अन्य स्त्रियाँ मुझे उनका दूध पीता देख कर मुस्करा देती थीं। मेरा यह सार्वजनिक स्तनपान बड़े होने पर भी जारी रहा। माँ उस समय दुबली पतली, छरहरी सी थीं, और खूब सुन्दर लगती थीं। उनको देख कर कोई कह नहीं सकता था कि उनको इतना बड़ा लड़का भी है। अगर वो सिंदूर और मंगलसूत्र न पहने हों, तो कोई उनको विवाहिता भी नहीं कह सकता था।


एक बार जब माँ मुझे दूध पिला रही थीं, तब कुछ महिलाओं ने उससे कहा कि अब मैं काफी बड़ा हो गया हूँ इसलिए वो मुझे दूध पिलाना बंद कर दें। नहीं तो उनके दोबारा गर्भवती होने में बाधा आ सकती है। उन्होंने इस बात पर अपना आश्चर्य भी दिखाया कि उनको इतने सालों बाद भी दूध बन रहा था। माँ ने कुछ कहा नहीं, लेकिन मैं मन ही मन कुढ़ गया कि दूध तो मेरी माँ पिला रही हैं, लेकिन तकलीफ़ इन औरतों को हो रही है। उस रात जब हम घर लौट रहे थे, तो माँ ने मुझसे कहा कि अब वो सार्वजनिक रूप से मुझको दूध नहीं पिला सकतीं, नहीं तो लोग तरह तरह की बातें बनाएंगे। चूँकि स्कूल के सभी माता-पिता एक दूसरे को जानते थे, इसलिए अगर किसी ने यह बात लीक कर दी, तो स्कूल में मेरे सहपाठी मेरा मज़ाक बना सकते हैं। लेकिन उन्होंने कहा कि घर पर, जब बस हम सभी ही हों, तो वो मुझे हमेशा अपना दूध पिलाती रहेंगीं। वो गाना याद है - ‘धरती पे रूप माँ-बाप का, उस विधाता की पहचान है’? मेरा मानना है कि अगर हमारे माता-पिता भगवान् का रूप हैं, तो माँ का दूध ईश्वरीय प्रसाद, या कहिए कि अमृत ही है। माँ का दूध इतना लाभकारी होता है कि उसके महिमा-मण्डन में तो पूरा ग्रन्थ लिखा जा सकता है। मैं तो स्वयं को बहुत भाग्यशाली मानता हूँ कि मुझे माँ का अमृत स्नेह इतने समय तक मिलता रहा। मेरा दैनिक स्तनपान तब तक जारी रहा जब तक कि मैं लगभग दस साल का नहीं हो गया। तब तक माँ को अधिक दूध बनना भी बंद हो गया था। अब अक्सर सिर्फ एक-दो चम्मच भर ही निकलता था। लेकिन फिर भी मैंने मोर्चा सम्हाले रखा और स्तनपान जारी रखा। मेरे लिए तो माँ की गोद में सर रखना और उनके कोमल चूचक अपने मुँह में लेना ही बड़ा सुकून दे देता था। उनका मीठा दूध तो समझिए की तरी थी। 

मुझे आज भी बरसात के वो दिन याद हैं जब कभी कभी स्कूल में ‘रेनी-डे’ हो जाता और मैं ख़ुशी ख़ुशी भीगता हुआ घर वापस आता। मेरी ख़ुशी देख कर माँ भी बिना खुश हुए न रह पातीं। मैं ऐसे दिनों में दिन भर घर के अंदर नंगा ही रहता था, और माँ से मुझे दूध पिलाने के लिए कहता था। पूरे दिन भर रेडियो पर नए पुराने गाने बजते। उस समय रेडियो में एक गाना खूब बजता था - ‘आई ऍम ए डिस्को डांसर’। जब भी वो गाना बजता, मैं खड़ा हो कर तुरंत ठुमके मारने लगता था। रेनी-डे में जब भी यह गाना बजता, मैं खुश हो कर और ज़ोर ज़ोर से ठुमके मारने लगता था। मेरा मुलायम छुन्नू भी मेरे हर ठुमके के साथ हिलता। माँ यह देख कर खूब हँसतीं और उनको ऐसे हँसते और खुश होते देख कर मुझे खूब मज़ा आता। माँ मुझे दूध भी पिलातीं, और मेरे स्कूल का काम भी देखती थीं। यह ठीक है कि उनकी पढ़ाई रुक गई थी, लेकिन उनका पढ़ना कभी नहीं रुका। डैड ने उनको आगे पढ़ते रहने के लिए हमेशा ही प्रोत्साहित किया, और जैसे कैसे भी कर के उन्होंने प्राइवेट परीक्षार्थी के रूप में ग्रेजुएट की पढ़ाई पूरी कर ली थी। कहने का मतलब यह है कि घर में बहुत ही सकारात्मक माहौल था और मेरे माँ और डैड अच्छे रोल-मॉडल थे। मुझे काफ़ी समय तक नहीं पता था कि माँ-डैड को मेरे बाद कभी दूसरा बच्चा क्यों नहीं हुआ। बहुत बाद में ही मुझे पता चला कि उन्होंने जान-बूझकर फैसला लिया था कि मेरे बाद अब वो और बच्चे नहीं करेंगे। उनका पूरा ध्यान बस मुझे ही ठीक से पाल पोस कर बड़ा करने पर था। जब संस्कारी और खूब प्रेम करने वाले माँ-बाप हों, तब बच्चे भी उनका अनुकरण करते हैं। मैं भी एक आज्ञाकारी बालक था। पढ़ने लिखने में अच्छा जा रहा था। खेल कूद में सक्रीय था। मुझमे एक भी खराब आदत नहीं थी। आज्ञाकारी था, अनुशासित था और स्वस्थ था। टीके लगवाने के अलावा मैंने डॉक्टर का दर्शन भी नहीं किया था। 

हाई-स्कूल में प्रवेश करते करते मेरे स्कूल के काम (मतलब पढ़ाई लिखाई) के साथ-साथ मेरे संगी साथियों की संख्या भी बढ़ी। इस कारण माँ के सन्निकट रहने का समय भी घटने लगा। सुन कर थोड़ा अजीब तो लगेगा, लेकिन अभी भी मेरा माँ के स्तन पीने का मन होता था। वैसे मुझे अजीब इस बात पर लगता है कि आज कल के बच्चे यौन क्रिया को ले कर अधिक उत्सुक रहते हैं। मैं तो उस मामले में निरा बुध्दू ही था। और तो और शरीर में भी ऐसा कोई परिवर्तन नहीं हुआ था। एक दिन मैं माँ की गोद में सर रख कर कोई पुस्तक पढ़ रहा था कि मुझे माँ का स्तन मुँह में लेने की इच्छा होने लगी। माँ ने मुझे याद दिलाया कि मेरी उम्र के बच्चे अब न तो अपनी माँ का दूध पीते हैं, और न ही घर पर नंगे रहते हैं। ब्लाउज के बटन खोलते हुए उन्होंने मुझसे कहा कि हाँलाकि उनको मुझे दूध पिलाने में कोई आपत्ति नहीं थी, और मैं घर पर जैसा मैं चाहता वैसा रह सकता था, लेकिन वो चाहती थीं कि मैं इसके बारे में सावधान रहूँ। बहुत से लोग मेरे व्यवहार को नहीं समझेंगे। मैं यह तो नहीं समझा कि माँ ऐसा क्यों कह रही हैं, लेकिन मुझे उनकी बात ठीक लगी। कुल मिला कर हमारी दिनचर्या नहीं बदली। जब मैं स्कूल से वापस आता था तब भी मैं माँ से पोषण लेता था। वास्तव में, स्कूल से घर आने, कपड़े उतारने, और माँ द्वारा अपने ब्लाउज के बटन खोलने का इंतज़ार करना मुझे अच्छा लगता था। माँ इस बात का पूरा ख़याल रखती थीं कि मेरी सेहत और पढ़ाई लिखाई सुचारु रूप से चलती रहे। कभी कभी, वो मुझे बिस्तर पर लिटाने आती थी, और जब तक मैं सो नहीं जाता तब तक मुझे स्तनपान कराती थीं। ख़ास तौर पर जब मेरी परीक्षाएँ होती थीं। स्तनपान की क्रिया मुझे इतना सुकून देती कि मेरा दिमाग पूरी तरह से शांत रहता था। उद्विग्नता बिलकुल भी नहीं होती थी। इस कारण से परीक्षाओं में मैं हमेशा अच्छा प्रदर्शन करता था। अब तक माँ को दूध आना पूरी तरह बंद हो गया था। लेकिन मैंने फिर भी माँ से स्तनपान करना और माँ ने मुझे स्तनपान कराना जारी रखा। मुझे अब लगता है कि मुझे अपने मुँह में अपनी माँ के चूचकों की अनुभूति अपार सुख देती थी, और इस सुख की मुझे लत लग गई थी। मुझे नहीं पता कि माँ को कैसा लगता होगा, लेकिन उन्होंने भी मुझे ऐसा करने से कभी नहीं रोका। हाँ, गनीमत यह है कि उस समय तक मेरा घर में नग्न रहना काफी कम हो चुका था।

***

आज कल देखता हूँ तो पाता हूँ कि बच्चों के लिए अपनी शुरुआती किशोरावस्था में ही किसी प्रकार का ‘रोमांटिक’ संबंध रखना काफी औसत बात है। मैं और मेरी पत्नी अभी हाल ही में इस बारे में मजाक कर रहे थे। हम एक शॉपिंग मॉल में थे, जब मैंने देखा कि एक बमुश्किल किशोर जोड़ा हाथ पकड़े हुए है, और एक दूसरे के साथ रोमांटिक अभिनय कर रहा है। मुझे यकीन है कि उन्हें शायद पता भी नहीं है कि यह सब क्या है, या यह कि वे एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हैं भी या नहीं। कम से कम मैंने तो उस उम्र में विपरीत लिंग के लिए आकर्षण या सेक्स की भावना कभी नहीं महसूस करी। मैंने इन दोनों ही मोर्चों पर शून्य था। कॉलेज से पहले, मैंने कभी भी विपरीत लिंग के साथ किसी भी तरह के संबंध बनाने के बारे में नहीं सोचा था। वो भावना ही नहीं आती थी। कॉलेज में आने के बाद पहली बार मुझे ऐसा आकर्षण महसूस हुआ। उस लड़की का नाम रचना था। रचना एक बुद्धिमान लड़की थी... और उसके स्तन! ओह! मेरे लिए यह आश्चर्य की बात थी कि उस उम्र में रचना के पास इतनी अच्छी तरह से विकसित स्तनों की जोड़ी थी! पहले मुझे लगता था कि स्तन का आकार, लड़की की उम्र पर निर्भर करता है। लेकिन अब मुझे मालूम है कि अच्छा भोजन और स्वस्थ जीवन शैली स्तनों के आकर पर अपना अपना प्रभाव डालते हैं। रचना ने मुझे बाद में बताया कि उसके स्तनों की जोड़ी अन्य लड़कियों से कोई अलग नहीं है। बात सिर्फ इतनी थी कि उसने उन्हें ब्रा में बाँध कर रखा नहीं हुआ है। 

रचना मेरे स्कूल में नई नई आई थी। उसके पिता और मेरे डैड एक ही विभाग में काम करते थे, और उसका परिवार हाल ही में इस कस्बे में स्थानांतरित हुआ था। जैसा कि मैंने पहले ही बताया है, उसे मेरे ही स्कूल में दाखिला लेना था। और कोई ढंग का विकल्प नहीं था वहाँ। जब मैंने पहली बार रचना को देखा, तो मैं उसके बारे में सोच रहा था कि वह कितनी सुंदर दिखती है। निःसंदेह, मैं उससे दोस्ती करना चाहता था। मेरे लिए यह करना एक दुस्साहसिक काम था, क्योंकि मुझे इस मामले में किसी भी तरह का अनुभव नहीं था। और तो और मुझे यह भी नहीं पता था कि लड़कियों से ठीक से बात कैसे की जाए! यह समस्या केवल मेरी नहीं, बल्कि स्कूल के लगभग सभी लड़कों की थी। स्कूल में लड़के ज्यादातर लड़कों के साथ ही बातचीत करते थे और लड़कियाँ, लड़कियों के साथ! माँ डैड को छोड़ कर मेरी अन्य वयस्कों के साथ बातचीत आमतौर पर केवल पढ़ाई के बारे में और मुझसे पाठ्यक्रम से प्रश्न पूछने तक ही सीमित थी। तो कुल मिला कर पास लड़कियों से बातचीत और संवाद करने में कोई भी कौशल नहीं था।
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#3
जब इस तरह की बाधा होती है, तो लड़कियों से दोस्ती करने वाले सपने पूरे नहीं होते। ऐसे सपने तब ही पूरे हो सकते हैं जब आपके जीवन में ईश्वरीय हस्तक्षेप हो। तो इस मामले में मुझे एक ईश्वरीय हस्तक्षेप मिला। मैं पढ़ाई लिखाई में अच्छा था - वास्तव में - बहुत अच्छा। एक दिन, हमारी क्लास टीचर, जो हमारी हिंदी (साहित्य, व्याकरण, कविता और संस्कृत) की शिक्षिका भी थीं, ने दो दो छात्रों के स्टडी ग्रुप्स बना दिए, ताकि हम एक दूसरे के साथ प्रश्न-उत्तर रीवाइस कर सकें। सौभाग्य से रचना मेरे साथ जोड़ी गई थी। क्या किस्मत! बिलारी के भाग से छींका टूटा! तो, हम आपस में प्रश्नोत्तर कर रहे थे, और बीच बीच में कभी-कभी बात भी कर रहे थे।

ऐसे ही एक बार मैंने कुढ़ते हुए कहा, “ये लङ्लकार नहीं, लण्ड लकार है..” [लकार संस्कृत भाषा में ‘काल’ को कहते हैं, और लङ्लकार भूत-काल है]

मैंने बस लिखे हुए एक शब्द के उच्चारण को भ्रष्ट किया था। लेकिन उतने में ही अर्थ का अनर्थ हो गया। मैंने सचमुच में यह नादानी में किया था, और मुझे इस नए शब्द का क्या नहीं मालूम था। यह कोई शब्द भी था, मुझे तो यह भी नहीं मालूम था। रचना मेरी बात सुन कर चौंक गई। सबसे पहले तो उसको मेरी बात पर विश्वास ही नहीं हुआ। वो मुझे एक ईमानदार और सभ्य व्यक्ति समझती थी। मैंने आज तक एक भी गाली-नुमा शब्द नहीं बोला था। बेशक, रचना हैरान थी कि मैंने ऐसा शब्द कैसे बोल दिया। खैर, अंततः उसने मुझसे कहा, 

“नहीं अमर, हम ऐसी बात नहीं करते।”

“क्यों क्या हुआ?”

“क्या तुम इसका मतलब नहीं जानते?”

“किसका मतलब?”

“इसी शब्द का... जो तुमने अभी अभी कहा।”

“शब्द? कौन सा? तुम्हारा मतलब लण्ड से है?”

“हाँ - वही। और इसे ज़ोर से मत बोलो। कोई सुन लेगा।”
 
“सुन लेगा? अरे, लेकिन मुझे पता ही नहीं है कि इसका क्या मतलब है! क्या इसका कोई मतलब भी होता है?” मैं वाकई उलझन में था।
 
बाद में, लंच ब्रेक के दौरान रचना ने मुझे ‘लण्ड’ शब्द का अर्थ बताया। मुझे आश्चर्य हुआ कि एक लिंग का ऐसा नाम भी हो सकता है। जब मैंने उसे बताया कि लिंग के लिए मुझे जो एकमात्र शब्द पता था वह था ‘छुन्नी’, तो वो ज़ोर ज़ोर से वह हँसने लगी। उसने मुझे समझाया छोटे लड़कों के लिंग को छुन्नी या छुन्नू कह कर बुलाते हैं। लड़कियों के पास छुन्नी नहीं होती है। उसने मुझे यह भी बताया कि बड़े लड़कों और आदमियों के लिंग को लण्ड कहा जाता है। यह कुछ और नहीं, बस छुन्नी है, जिसका आकार बढ़ सकता है, और सख़्त हो सकता है। एक दिलचस्प जानकारी! है ना? 

“अच्छा, एक बात बताओ। तुम्हारा छुन्नू ... क्या उसका आकार बढ़ता है?” रचना ने उत्सुकता से पूछा। 

मुझे थोड़ा हिचकिचाहट सी हुई कि मेरी सहपाठिन मुझसे ऐसा प्रश्न पूछ रही है, फिर भी मैंने उसके प्रश्न की पुष्टि करी, “हाँ! बढ़ता तो है, लेकिन कभी-कभी ही ऐसा होता है।” फिर कुछ सोच कर, “रचना यार, तुम किसी को बताना मत!”

“अरे ये तो अच्छी बात है। छुन्नू का आकार तो बढ़ना ही चाहिए। इसमें शर्मिंदा होने की कोई बात नहीं है। इसका मतलब है कि तुम अब एक आदमी में बदल रहे हो!” रचना से मुस्कुराते हुए मुझसे कहा, “वैसे मैं क्यों किसी को यह सब बताऊँगी?”

“नहीं! बस ऐसे ही कहा, तुमको आगाह करने के लिए। माँ और डैड को भी नहीं मालूम है न, इसलिए!”

“हम्म्म!”

“रचना?”

“हाँ?”

“एक बात कहूँ?”

“हाँ! बोलो।”

“तुम्हारे ... ये जो ... तुम्हारे दूध हैं न, वो मेरी माँ जैसे हैं।”

“सच में?”

मैंने ‘हाँ’ में सर हिलाया।

“हम्म इसका मतलब आंटी के दूध छोटे हैं।”

“हैं?”

“हाँ! मेरी मम्मी के मुझसे दो-गुनी साइज़ के होंगे। बाल-बच्चे वाली औरतों के दूध तो बड़े ही होते हैं न!”

“ओह!”

“मेरे उतने बड़े नहीं हैं। बाकी लड़कियों जितने ही हैं। लेकिन मैं शर्ट के नीचे केवल शमीज़ पहनती हूँ। बाकी लड़कियाँ ब्रा भी पहनती हैं!”

“ओह?”

रचना ने मेरा उलझन में पड़ी शकल देखी और हँसते हुए बोली, “तुमको नहीं मालूम कि ब्रा और शमीज़ क्या होती है?”

“नहीं!” मैं शरमा गया। 

“कोई बात नहीं। बाद में कभी बता दूँगी। लेकिन एक बात बताओ, तुमको हमारे ‘दूध’ में इतना इंटरेस्ट क्यों है?” रचना ने मेरी टाँग खींची। 

“उनमे से दूध निकलता है न, इसलिए!”

“बुद्धू हो तुम!” रचना ने हँसते हुए प्रतिकार किया, “मेरे ख़याल से ये शरीर के सबसे बेकार अंगों में से एक हैं। सड़क पर निकलो तो हर किसी की आँखें इनको ही घूरती रहती हैं। ब्रा पहनो तो दर्द होने लगता है। ठीक से दौड़ भी नहीं सकती, क्योंकि दौड़ने पर ये उछलते हैं, और दर्द करते हैं। तुम लोग तो अपनी छाती खोल कर बैठ सकते हो, लेकिन हमको तो इन्हे ढँक कर रखना पड़ता है!”

जाहिर सी बात है, रचना अपने स्तनों पर चर्चा नहीं करना चाहती थी, इसलिए मैंने इस मामले को आगे नहीं बढ़ाया। लेकिन उस दिन के बाद से मैं और रचना बहुत अच्छे दोस्त बन गए। जब एक दूसरे की अंतरंग बातें मालूम होती हैं, तब मित्रता में प्रगाढ़ता आ जाती है। 


उन दिनों लड़कियों का अपने सहपाठी लड़कों के घर आना जाना एक असामान्य सी बात थी। लेकिन एक अच्छी बात यह हुई कि हमारी माएँ एक दूसरे की बहुत अच्छी दोस्त बन गई थीं। क्योंकि जैसा कि मैंने आपको पहले भी बताया था कि हमारे पिता एक ही विभाग में थे। चूंकि, कक्षा में, रचना और मैं स्टडी पार्टनर थे, इसलिए हमारे माता-पिता के लिए हमें घर पर भी साथ पढ़ने की अनुमति देना तार्किक रूप से ठीक था। इसलिए, रचना और मैं दोनों ही एक-दूसरे के घर पढ़ाई के लिए जाते थे। वैसे रचना ही थी जो अक्सर मेरे घर आती थी, क्योंकि उसे मेरी माँ के हाथ का खाना बहुत पसंद था और वह उसका स्वाद लेने का कोई मौका नहीं छोड़ती थी। उसकी माँ भी इसके लिए उसको रोकती नहीं थीं। 

एक दिन वह मेरे घर आई, और हमने अपना अध्ययन सत्र शुरू किया। हमने अपना होमवर्क किया, और अगले दिन के लिए लेसन पढ़ लिया। आज यह सब बहुत जल्दी ही हो गया था, और अचानक ही, हमारे पास करने के लिए कुछ नहीं था। रचना अपने घर जाने के बजाय टालमटोल करने लगी। 
ऐसा नहीं है कि मुझे उसका साथ पसंद नहीं था। मैं भी चाहता था कि वो जितना संभव है, मेरे साथ रहे। 

“क्या तुम कुछ खेलना चाहती हो?” मैंने कुछ देर बाद पूछा।

“जैसे क्या?”

“लूडो?” मैंने सुझाव दिया।

उसने सर हिलाया, “ठीक है।”

हम कुछ देर तक लूडो खेले, लेकिन यह चार लोगों के साथ बैठ कर खेलने जैसा मजेदार नहीं था। बस एक काम चलाऊ खेल था। हम लगभग आधे घंटे तक खेले, और फिर जल्दी से ऊबने लगे। अगर उसको रोकना का कोई बहाना नहीं है, तो जाहिर सी बात है कि उसे अपने घर के लिए निकल जाना चाहिए। मैंने आह भरी।

“क्या हुआ?” उसने पूछा।

“ऊब गया यार! मेरा मतलब है, लूडो खेलना मजेदार है, लेकिन एक दो बार ही!”

“हाँ... और तुम्हारे पास टीवी भी नहीं है।” उसने कहा।

मेरे माँ और डैड ने टीवी नहीं खरीदने का फैसला किया - हमारे पास मनोरंजन के लिए केवल एक रेडियो और एक कैसेट प्लेयर था, और हम बस कभी कभार ही फिल्मों के लिए बाहर जाते थे, शायद साल में दो तीन बार।

“हाँ।” मैंने कुछ देर सोचा, “ठीक है, कुछ और है, जो तुम खेलना चाहती हो?”

“क्यों?” उसने इठलाते हुए पूछा। 

“तुम्हारे साथ मुझे अच्छा लगता है!” में पूरी संजीदगी से कहा। 

वो मुस्कुराई। उसने एक पल के लिए कुछ सोचा और फिर कहा, “अगर तुम चाहो तो हम कुछ नया खेल खेल सकते हैं।”

“क्या?” मुझे उत्सुकता हुई। 

“तुम्हें वो दिन याद है जब तुम क्लास में लण्ड लण्ड चिल्ला रहे थे?”

“मैं चिल्ला नहीं रहा था।” उस दिन को याद करके मुझे शर्म आ रही थी। मासूमियत एक अनमोल वस्तु है। जितना अधिक आप जानने लगते हैं, आप उतने ही अधिक जागरूक होते जाते हैं, और उतनी ही मासूमियत आप खोने लगते हैं।

“ठीक है ठीक है! अच्छा बाबा, तुम चिल्ला नहीं रहे थे।” उसने दाँत निपोरते हुए कहा। 

“लेकिन तुम खेलने के बारे में क्या कह रही थी?”

“सोच रही थी कि क्या तुम मुझे अपनी छुन्नी से खेलने दे सकते हो?”

“क्या! क्या तुम पागल हो गई हो? माँ देखेगी, तो मुझे और तुम्हें मार डालेगी।”

“अमर, तुम डरते क्यों हो? तुम्हारी माँ अपनी पड़ोसी से बात कर रही हैं, और उनके लौटने में कुछ समय लगेगा।”

रचना की इच्छा! ऐसे कैसे मैं उसके सामने नंगा हो जाऊँ? मैं अनिश्चय से घबराया हुआ था और सबसे बड़ी बात, शर्मिंदा था। माँ और डैड के सामने नंगा होना एक बात है, लेकिन अपनी सहपाठिन के सामने कैसे?

“अच्छा,” उसने अपना मास्टरस्ट्रोक मारा, “अगर मैं तुम्हें अपना दूध (स्तन) देखने दूँ तो? क्या कहते हो?”

‘क्या सच में?’ मैंने सोचा! यह एक बड़ी साहसी बात थी। ऐसी बात आज तक किसी भी लड़की ने मुझसे नहीं कही थी।

“क्या!” मुझे विश्वास ही नहीं हुआ कि वो मुझे अपने स्तन दिखाने की बात कह रही थी। 

रचना ने थोड़ा मुस्कुराते हुए कहा, “तुम मुझे नंगा देखना चाहती हो?”

“नहीं …” मैंने झूठ बोल दिया। 

रचना ने मुँह बनाते हुए कहा, “तू झूठ बोल रहा है अमर।”

“नहीं!” मैंने विरोध किया। लेकिन आवाज़ में दम नहीं था। 

“मैं साफ़ देख रही हूँ कि तुम झूठ बोल रहे हो ... तुम्हारी छुन्नी देखो - उसका आकार बढ़ रहा है!” उसने मेरी दशा का मज़ाक उड़ाते हुए कहा। 

“क्या …!” मैंने नीचे देखा; मेरे निक्कर के अंदर मेरा छुन्नू एक छोटा सा तम्बू बना रहा था। कोई भी देख कर समझ सकता था। 

“बोलो फिर? तुम मुझे नंगी देखना चाहते हो, या नहीं?”

बात तो उसकी सोलह आने सही थी, “ठीक है, हाँ, ठीक है!” मैं बुदबुदाया।

“क्या ठीक है?” रचना ने खिंचाई करने है मधुरता से पूछा।

“देखना चाहता हूँ,” मैंने कहा, “तुमको नंगा!”

“हा हा हा! उसके लिए, माई डीयर फ्रेंड, तुम्हे पहले मुझको अपनी छुन्नी दिखानी होगी।”

मैंने कुछ कहा नहीं। क्या कहता? रचना ने अपना हाथ बढ़ाया। मेरे दोनों टाँगों पर निक्कर का निचला सिरा पकड़ कर उसने नीचे की तरफ खींच लिया। निक्कर के नीचे मैं कुछ भी नहीं पहनता था। मुझे लगता है कि रचना भी यह बात जान गई थी। अचानक ही मेरी साँसें तेज़ तेज़ चले लगीं - जैसे कि मैं कोई लंबी दूरी की दौड़ दौड़ कर आया था। मेरी दिल की धड़कन बहुत बढ़ गई थी। मुझे पक्का यकीन है कि वह मेरे दिल की धड़कन सुन सकती थी। निक्कर का बैण्ड मेरे पुट्ठों से होते हुए नीचे सरक आया और उसी के साथ मेरा लिंग भी उसको ‘सल्यूट’ करते हुए बाहर निकल आया। उसका रंग भी मेरे शरीर के रंग के जैसा ही था - गेहुँआ, चिकना और बिना बालों वाला! मेरा लिंग उसके सामने हिल रहा था, और मेरे दिल की हर धड़कन के साथ साथ स्पंदन कर रहा था। उस समय यह लगभग तीन इंच लंबा था, और यथासंभव स्तंभित था। ऐसा लग रहा था कि यह अपनी ही चमड़ी पर जोर दे रहा हो। नीचे, मेरे अंडकोष ऊपर की तरफ खिंचे हुए लग रहे थे। रचना ने मेरे अंडकोषों को अपने हाथ में लिया।

मैंने साँस छोड़ी और एक पल के लिए अपनी सांस रोक ली। जो भी कुछ हो रहा था, वो मेरे लिए बिलकुल अनोखा अनुभव था। रचना ने मेरे चेहरे की तरफ देखा, और अपने दूसरे हाथ से मेरा निक्कर पूरी तरह उतार दिया। अब मैं केवल शर्ट पहने बैठा था।  मेरा लिंग मेरे पैरों के बीच खड़ा हुआ, लगभग काँप रहा था। मेरा लिंग ही क्या, मेरा पूरा शरीर ही काँप रहा था। और मेरी सांसें लगभग धौंकनी के जैसे चल रही थीं। उसने मुझे और मेरी नंगेपन को बड़ी दिलचस्पी से देखा। लगभग दो-तीन मिनट के मूल्यांकन के बाद, उसने अपना फैसला सुनाया,

“कितना सुंदर है।”

‘सुन्दर है!’ 
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#4
सुन्दर ऐसा शब्द है जो किसी भी पुरुष की मर्दानगी को चुनौती दे सकता है। और वैसे भी लिंग जैसे अंग के लिए ‘सुन्दर’ एक अनुचित शब्द लगता है। लेकिन जब यह शब्द कोई सुन्दर सी लड़की बोलती है, तो अच्छा लगता है। अपने लिंग की बधाई सुन कर जाहिर सी बात है, कि मुझे अच्छा लगा। 

“यह अभी तक यह एक लण्ड (परिपक्व लिंग) नहीं बना है, लेकिन है बहुत सुंदर!”

“तुमको कैसे मालूम कि ये लण्ड नहीं बना?” मैं रचना की बात से आहत हो गया था, इसलिए मैंने विरोध करना शुरू कर दिया।

लेकिन उसने बीच में मुझे टोकते हुए कहा, “अमर, मैंने अपने डैडी को... कई बार देखा है। जब वो रात में मेरी मम्मी को चोदते हैं - मेरा मतलब, मम्मी से प्यार करते है, तो कभी-कभी पानी पीने के लिए रसोई में नंगे ही आ जाते हैं। उनको नहीं मालूम, लेकिन मैंने उनको नंगा देखा है। मैंने उन्हें मम्मी की चुदाई करते देखा है। इसलिए मैं मुझे लगता है कि मैं दोनों को कम्पेयर कर सकती हूँ। तुम्हारा साइज़ डैडी के साइज़ का लगभग आधा है। लम्बाई में भी, और मोटाई में भी। डैडी का लण्ड बड़ा और ... बदसूरत भी! तुम्हारा छुन्नू छोटा और सुंदर है!”

रचना ने पूरी ईमानदारी से अपनी बात रखी। बात तो ठीक थी - मेरा शरीर अभी भी लड़कों जैसा ही था। पुरुषों का शरीर बढ़ जाता है और भर जाता है। तो ठीक है - मेरा भी वैसे ही हो जायेगा। 

“थैंक यू!” मैंने कहा। 

“मैं ... मैं इसको छू लूँ?”

“क्या?” मुझे समझा नहीं कि रचना क्या छूना चाहती है।

“तुम्हारी छुन्नी”

“ओके! लेकिन, यह साफ नहीं है।”

माँ ने मुझे अपनी छुन्नी की अच्छी देखभाल करना सिखाया था। उन्होंने मुझे पेशाब करने का ‘सही तरीका’ सिखाया था और मुझे यह भी समझाया था कि उसके बाद इसे साफ करना चाहिए। लेकिन जब मैं स्कूल में होता हूँ, तब इस सलाह पर अमल करना संभव नहीं है। और चूँकि लड़के तो लड़के होते हैं - वे हमेशा वह नहीं करते जो उनकी माँ उन्हें करने के लिए कहती हैं।

“कोई बात नहीं!”

रचना ने कहा और फिर उसने मेरे लिंग को पकड़ लिया। उसने इस बार पूरी तरह से उसकी जाँच की - उसने मेरे अंडकोष को भी पकड़ रखा था, और लिंग के साथ साथ उसकी भी नाप तौल कर रही थी। मैंने उसे सावधान रहने के लिए कहा, क्योंकि अधिक दबाने से वो मुझे चोट पहुँचा सकती थी। उसने बहुत सावधानी से, बड़ी कोमलता से मेरे नाज़ुक अंगों की पड़ताल करी। मुझे खुद भी उसकी उँगलियों की छुवन बहुत अच्छी लग रही थी! उसने मेरे लिंग की पुष्टता और दृढ़ता का परीक्षण करने के लिए हल्के से दबाया, और फिर जैसे संतुष्ट हो कर, उसने मेरे लिंग के सिरे को पकड़ कर हल्का सा हिलाया और कहा, 

“बहुत सुन्दर है! और मुझे पसंद भी है।”

“हम्म?”

“ये, लल्लूराम!” इस बार उसने मेरे लिंग के सिरे को को अपनी तर्जनी और अंगूठे के बीच लिया, और उसे थोड़ा सा हिलाया, और कहा, “मुझे तुम्हारी छुन्नी पसंद है।”

“मुझे तंग मत करो।” मैंने विरोध किया।

“अरे! कहाँ तंग कर रही हूँ! सच में अमर, तुम नंगे हो कर इतने सुंदर लगते हो, मुझे तो पता ही नहीं था।”

मैं इस पूरे घटनाक्रम के दौरान आश्चर्यजनक तरीके से उत्साहित हो रहा था। मुझे मालूम नहीं है कि वह यौन उत्तेजना थी या केवल रचना के सामने नग्न होने का रोमांच। लेकिन उस वक्त मेरे लिंग में काफी खून प्रवाहित हो रहा था। परिणामस्वरुप, मेरा लिंग झटके खाने लगा। रचना ने यह देखा,

“अरे देखो तो!” वह मुस्कुराई, “ये भी खुश है अपनी बढ़ाई सुन कर!”

रचना ने फिर से मेरे लिंग को फिर से अपने हाथ में पूरी तरह से पकड़ लिया और अपने हाथ को पीछे की तरफ थोड़ा सा खिसकाया। ऐसा करने से मेरा शिश्नमुण्ड थोड़ा दिखने लगा। मेरे लिंग का स्तम्भन बहुत मजबूत नहीं था; बच्चों में होने वाले स्तम्भनों से थोड़ा अधिक ही होगा - बस। उसको एक ‘क्यूट इरेक्शन’ कहा जा सकता है। उधर रचना पूरे उत्साह के साथ आज हाथ आए हुए लिंग का पूरा मुआयना कर लेना चाहती थी। उसने एक बार फिर से अपने हाथ को पीछे की तरफ धक्का दिया। इस बार लिंग मुण्ड पूरी तरह से उजागर हो गया। उसने हो सकता है कि पहली बार किसी लिंग को इतने करीब से देखा हो, लेकिन यहां तक कि मैंने ख़ुद भी पहली बार अपने इस अंग की बनावट पर इतने करीब से ध्यान दिया - उसका रंग वैसा था जैसे किसी गोरी चमड़ी पर बैंगनी-गुलाबी रंग मिला दिया गया हो! एक दिलचस्प रंग! और भी एक नई बात महसूस हुई - इस पूरे घटनाक्रम के दौरान मुझे पहली बार नितांत नग्नता महसूस हुई। यह पूरा अनुभव ही अलग था - बिलकुल अनूठा। लिंग मुण्ड के पीछे कुछ मैल जैसा जमा हुआ था। रचना ने मुझे वो दिखाया और कहा कि नहाते समय मैं स्किन को ऐसे ही पीछे कर के उसको साफ़ कर लिया करूँ। उसकी बात का कोई जवाब देते बन नहीं रहा था। रचना एक दोस्त थी, एक सहपाठी थी, और संभव है कि वो मुझे स्कूल में सभी की हँसी का पात्र भी बना सकती थी। लेकिन फिर भी, न जाने क्यों, मुझे उसके साथ सुरक्षित महसूस हो रहा था करती थी। 

“मम्म…” रचना प्यार से मुस्कुराई, “यह बहुत प्यारा है! समझे बुद्धूराम?”

मेरी तन्द्रा टूटी। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्या करूँ! रचना ने जितना मन चाहा, मेरे लिंग की अच्छी तरह से छानबीन करी और फिर अंत में उसको छोड़ दिया। वह यह देख कर थोड़ी निराश तो ज़रूर थी कि उसका आकार अभी उतना नहीं बढ़ पा रहा था, जितना कि उसके पिता का होता था, वो इस बात को ले कर बहुत खुश भी थी कि आज उसने वो काम किया है, जिसको समाज द्वारा निषिद्ध माना जाता था। मैं अभी तक कुछ भी करने, कुछ भी कहने की अवस्था में नहीं आ पाया था - माँ या डैड के सामने नंगा होना, और रचना के सामने नंगा होना मेरे लिए बिलकुल अलग बात थी। 

रचना ने मुझे मुस्कुराते हुए, अर्थपूर्ण दृष्टि से देखा। मेरे दिल की धमक और साँसों की धौंकनी अभी तक चल रही थी। उसको समझ आ गया कि मुझ बुद्धू से कुछ नहीं होने वाला है, और जो भी करना है उसको ही करना है। रचना ने आगे जो, किया वह मेरे लिए बिलकुल अविश्वसनीय था। अपने वादे के मुताबिक उसने अपनी फ्रॉक का हेम पकड़ा, और उसको उठाते हुए, अपने सर से हो कर अपने शरीर से उतार लिया। अगर माँ इस समय मेरे कमरे में आ जातीं, तो हमारे साथ न जाने क्या करतीं। खैर, मैंने देखा कि उसने अपने फ्रॉक के नीचे एक सफेद रंग की शमीज़ और एक होज़री वाली चड्ढी पहन रखी थी। उसने अपना फ्रॉक कुर्सी पर टांग दिया, और हंसती हुई उसने अपनी फ़्रॉक की ही तरह अपनी शमीज़ को भी उतार दिया। अब रचना मेरे सामने लगभग नंगी खड़ी थी। मेरे सामने जो नज़ारा था, उसका ठीक से बयान करना मुश्किल है। आज पहली बार मैंने माँ के अलावा किसी और के स्तन देखे थे! साहित्य में सुन्दर स्त्रियों के स्तनों को अक्सर ही ‘चक्रवाक पक्षियों’ के जोड़े की उपमा दी जाती है। माँ के स्तनों को  ‘चक्रवाक पक्षियों’ का जोड़ा कहा जा सकता है, लेकिन रचना के स्तन उनके जैसे नहीं थे। सबसे पहली बात, मेरे आंकलन के विपरीत, रचना के स्तन, माँ के स्तनों से छोटे थे। माँ के स्तन गोलाकार थे, लेकिन रचना के स्तन शंक्वाकार थे। उसकी त्वचा बिलकुल साफ़ थी, बिना किसी दाग़ के। उसके चूचक मटर के दाने जितने बड़े थे और उनके गिर्द एरिओला का आकार एक रुपये के नए सिक्के से अधिक नहीं था। रचना गोरी तो थी ही, लिहाज़ा, उसके चूचक और एरिओला की रंगत गहरे नारंगी रंग लिए हुए थी - लगभग ‘एम्बर’ रंग जैसी। रचना मेरे सामने नंगी खड़ी हुई थी और मुझे अपने स्तनों को बहुत करीब से देखने दे रही थी। मुझे यह सोच कर बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने सुंदर अंग उसके लिए इतने असुविधाजनक कैसे हो सकते हैं! यह लगभग अविश्वसनीय बात थी! सच कहूँ तो अपनी नग्नता में रचना बिलकुल परी जैसी लग रही थी... बेहद खूबसूरत!

उसकी दिव्य सुंदरता को देख कर मेरा मुँह खुला का खुला रह गया! मैंने नर्वस हो कर अपने होंठ चाट लिए। मैंने महसूस किया कि मैं अपने खुद के नंगेपन की वजह से नहीं, बल्कि रचना के नंगेपन के कारण घबराया हुआ था। आत्मविश्वास से लबरेज़ सुंदरता का किसी मेरे जैसे निरीह मनुष्य पर ऐसा प्रभाव पड़ सकता है। वह बहुत खूबसूरत लग रही थी! मैं उठा और उसके करीब आ गया : इतना करीब कि वह मेरी सांसों को अपने चूचक पर महसूस कर सकती थी। मेरे हाथ काँप रहे थे, और मेरी साँसें हांफती हुई सी आ रही थी। रचना अपना ‘अंग प्रदर्शन’ बंद कर दे, उसके पहले मैं उसके चूचक को मुँह में ले लेने के लिए ललचा गया था। मैंने अपना सिर थोड़ा नीचे किया और अपने होंठों को उसके चूचक पर धीरे से फिराया।

“पी लो,” उसने फुसफुसाते हुए मुझसे कहा। 

‘हम्म्म’ तो रचना को कहीं जाने की कोई जल्दी नहीं थी। अब मैं थोड़ा आश्वस्त हो गया। रचना भी चाहती थी कि मैं उसके चूचकों को चूसूँ और पी लूँ। मैंने अपना मुंह खोला और उस एक चूचक को अपने होंठों में ले कर अपनी जीभ को उसके एरिओला के चारों ओर घुमाया। रचना को यह नहीं मालूम था कि मुझे स्तनों को चूसना और पीना अच्छी तरह से आता है। मैंने रचना के चूचक को अपने मुँह में भर कर चूसा, और जितना ही मैं उसको चूसता, वह उतना ही कड़ा होता जाता। वैसे मुझे मालूम था कि उसका चूचक ठीक इसी तरह से व्यवहार करेगा। माँ के चूचक भी ठीक इसी तरह व्यवहार करते थे। मैंने उसका स्तन पीते हुए उसके चेहरे की ओर देखा और पाया कि उसने अपनी आँखें बंद कर ली हैं। रचना ने कहा था कि लड़कियों में छुन्नी नहीं होता। मुझे उत्सुकता हुई और मैंने अपना हाथ उसके पेट के नीचे उसकी जाँघों के बीच फिराया। जैसे ही मैंने अपनी उँगलियाँ उसके जाँघों के जोड़ पर फिराया, मुझे उसकी कही हुई बात पर यकीन हो गया। वाकई, रचना के पास पास लिंग नहीं था!

मेरे छूने का रचना पर एक नया प्रभाव पड़ा - वो मेरे कान में हलके से कराह उठी, तो मैंने अपना हाथ वहां से हटा लिया। वह मुस्कुराई और उसने जल्दी से अपनी चड्ढी भी नीचे सरका दी। मेरे सामने पूरी तरह से नंगी होने वाली पहली लड़की! उस क्षण से पहले मैं यही सोचता रहा था कि लड़के और लड़कियों में केवल स्तनों का ही फर्क होता है, लेकिन जो मैं देख रहा था, वो मेरे लिए बिलकुल नया था। हमारे शरीरों में इतनी समानता थी, लेकिन फिर भी बहुत सारी असमानता भी थी। हमारे बीच इतना अंतर देखकर मैं चकित रह गया था। उसकी कमर क्षेत्र की बनावट मेरे जैसी ही थी, लेकिन अलग भी थी।
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#5
“तुम इससे सूसू कैसे करती हो?” छुन्नी की जगह एक चीरे को देखते हुए मैंने अविश्वसनीय रूप से पूछा।

“बैठ कर... ऐसे।” उसने बैठ कर मुझे दिखाया।

मैंने दिलचस्पी से यह देखा। बात तो समझ में आ गई, लेकिन फिर भी, मुझे ऐसा लगा जैसे उसे एक महान अनुभव से वंचित कर दिया गया हो। मेरा मतलब, हम लड़कों को देखो - कहीं भी अपनी गन निकाल कर गोली चला देते हैं! उस सुख का मुकाबला इस चीरे से तो मिलने से रहा! और तो और, आप अपने छुन्नू से सूसू करते हुए दीवार पर चित्र भी बना सकते हैं। काश, लड़कियों को इस तरह का मजा मिल पाता - मैंने सोचा। लेकिन एक बात तो थी - रचना की योनि का दृश्य मंत्रमुग्ध कर देने वाला था। उसके स्तनों की ही भाँति उसकी योनि को देखने के लिए मैं उसके पास आ गया। रचना बैठी हुई थी, और मैं उसकी योनि के सामने आ कर लेट गया। उसकी योनि पर हल्के हल्के, कोमल, रोएँदार बाल थे। मैं उसके इतना करीब था कि मैं व्यावहारिक रूप से उसके बाल गिन सकता था। मुझे बड़ी नाइंसाफी लगी - रचना के बाल थे और मेरे नहीं! उसकी योनि की होंठनुमा संरचना इतनी आकर्षक लग रही थी कि मेरा मन हुआ कि उसको चूम लूँ। लेकिन सूसू करने वाली जगह को चूमा थोड़े ही जाता है! 

“इसको क्या कहते हैं?”

“उम्म्म, योनि?”

“हम्म! लण्ड जैसा कोई वर्ड नहीं है इसके लिए?”

“है। लेकिन सुन कर बहुत ख़राब लगता है।”

“क्या है? मुझे बताओ न, प्लीज!”

“चूत कहते हैं!”

“ओह!”

“लेकिन तुम अच्छे लड़के हो। तुम यह वर्ड मत यूज़ करना।”

“ठीक है!”

मैंने देखा कि रचना की योनि के ऊपर वाले हिस्से पर ही बाल थे, उसकी चूत के दोनों होंठों पर कोई बाल नहीं थे। मैं और करीब आ गया। एक गहरी साँस भरने पर मुझे उसके साबुन की महक आने लगी। मन तो बहुत था, लेकिन मैंने उसके गुप्तांगों को छुआ नहीं, क्योंकि मेरे पास ऐसा करने की हिम्मत नहीं हुई। खैर - यह एक बड़ा दिन था मेरे लिए। आज स्त्री और पुरुष के लिंगों के बीच के अंतर का मेरा पहला परिचय था!

“क्या तुमको मालूम है कि छुन्नी किस काम आती है?” उसने पूछा।

“सूसू करने के लिए! और क्या?” 

“नहीं, तुम बेवक़ूफ़ हो! केवल सूसू करना ही इसका काम नहीं है!” कह कर वो ठठाकर हँसने लगी। 

उसकी हँसी सुन कर अगर माँ आ जातीं, तो न जाने क्या क्या हो जाता! मैं उस उम्र में खुद को सर्वज्ञाता समझता था। इसलिए कोई मुझे ‘बेवक़ूफ़’ कहे, तो मुझे गुस्सा आना तो लाज़मी है!

“अच्छा! तो बुद्धिमान जी, आप ही मुझे बताएं कि इसका क्या काम है?”

“ज़रूर! तुम्हारी छुन्नी यहाँ जाती है…” उसने अपनी योनि के चीरे की तरफ़ इशारा किया।

“क्या? क्या सच में? क्यों?”

“हाँ। बिलकुल! जब ये यहाँ जाता है, तो बच्चे पैदा होते हैं।”

“क्या? बच्चे इस तरह से पैदा होते हैं?”

“हाँ! आदमी अपना बीज अपनी छुन्नी के रास्ते से औरत की योनि में बो देता है। औरत उस बीज को नौ महीने अपनी कोख में सम्हाल कर रखती है। और नौ महीने बाद बच्चा पैदा करती है। तुमको क्या लगा कि और किस तरह से पैदा होते हैं?”

मुझे क्या लगता? मुझको तो इस बारे में कोई भी ज्ञान नहीं था। लेकिन रचना से अपनी हार कैसे मान लूँ? 

“तुम को कैसे मालूम?”

“मैंने मम्मी डैडी को ऐसा करते हुए देखा है।”

“वे दोनों ऐसा करते हैं?”

“हाँ!”

“मतलब तुम्हारे डैडी तुम्हारी मम्मी की कोख में अपना बीज बोते हैं?”

“हाँ!”

“लेकिन फिर तुम उनकी इकलौती संतान कैसे हो? अभी तक उनको कोई और बच्चे क्यों नहीं हुए?”

बात तो मेरी सही थी। मेरे तार्किक बयान ने रचना को पूरी तरह से निहत्था कर दिया। यह सच था - रचना अपने घर में इकलौती संतान थी। और अगर उसने जो कहा वह सही था, तो उसके और भाई-बहन होने चाहिए। इसलिए, मेरे हिसाब से बच्चे रचना के बताए तरीके से तो नहीं पैदा होने वाले! मुझे यह असंभव लग रहा था। वैसे भी उसकी योनि के चीरे में कोई जगह ही नहीं दिख रही थी, और न ही कुछ अंदर जाने की जगह! मुझे कोई ऐसा रास्ता नहीं दिख रहा था कि जिसमें से उसकी छोटी उंगली भी अंदर जा सके। छुन्नी तो बहुत दूर की बात है। 

मुझ अनाड़ी को यह नहीं मालूम था कि योनि भेदन के लिए लिंग का स्तंभित होना आवश्यक है। बेशक, रचना को मुझसे कहीं अधिक ज्ञान था, लेकिन उसके खुद के ज्ञान और समझ की सीमा थी। इसलिए, जैसा कि अक्सर होता है, अच्छी तरह से जानने के बावजूद, रचना मेरे तर्कों का विरोध नहीं कर सकी। मैं मूर्ख था - मुझे चाहिए था कि मैं रचना से कहूँ कि मैं उसकी योनि में प्रवेश करना चाहता हूँ। लेकिन अपनी खुद की मूर्खता में मैंने इतना बढ़िया मौका गँवा दिया। फिर भी, रचना के यौवन की मासूमियत की अपनी ही खूबी और अपनी ही मस्ती थी, और उसके दर्शन कर के मुझे बहुत ख़ुशी मिली।

बहरहाल, हमारी छोटी सी बहस ने हम दोनों को फिर से होश के धरातल पर ला खड़ा किया, और हमने झट से अपने अपने कपड़े पहन लिए। फिर उसने अपनी किताबें उठाईं और अपने घर चली गई। रास्ते में उसकी मुलाकात मेरी माँ से हुई।

“आंटी, मैंने अमर को दूध पिला दिया है।” उसने जाते जाते माँ से कहा।

मैंने जब उसको यह कहते सुना, तो मुझे अपने कानों पर विश्वास ही नहीं हुआ! क्या उसने सच में ऐसा कहा! रचना की हिम्मत का कोई अंत नहीं था!

“ठीक है बेटा, बाय!” मेरी माँ ने कहा और उसे विदा किया।

***

to be contd.
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#6
अतिसुन्दर! अपडेट शीघ्र देवें!
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#7
Heart 
please update............... yourock
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