अध्याय - 03
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अब तक,,,,,
जब मुझे होश आया तो मैं उसी सड़क के किनारे पड़ा हुआ था जहां पर मैं पहली बार बेहोश हुआ था। मेरे बदन पर इस बार मेरे ही कपड़े थे। ये देख कर मैं एक बार फिर से चकित रह गया। मेरी नज़र कुछ ही दूरी पर खड़ी मेरी मोटर साइकिल पर पड़ी। मोटर साइकिल को किसी ने सड़क से हटा कर ऐसी जगह पर खड़ा कर दिया था जहां पर आसानी से किसी की नज़र नहीं पड़ सकती थी। कुछ पलों के लिए तो मुझे ऐसा लगा जैसे अभी तक मैं कोई ख़्वाब देख रहा था और जब आँख खुली तो मैं हक़ीक़त की दुनिया में आ गया हूं। आस पास पहले की ही भाँति कोहरे की हल्की धुंध थी और अब मुझे ठण्ड भी प्रतीत हो रही थी। कुछ देर मैं बेहोश होने से पूर्व की घटना के बारे में याद कर के सोचता रहा, उसके बाद उठा और अपनी मोटर साइकिल में बैठ कर घर की तरफ बढ़ गया।
अब आगे,,,,,
"साहब लंच का टाईम हो गया है।" डायरी पढ़ रहे जेलर शिवकांत वागले के कानों में जब ये वाक्य पड़ा तो उसका ध्यान टूटा और उसने चेहरा उठा कर सामने की तरफ देखा। जेल का ही एक सिपाही उसके सामने टेबल के उस पार खड़ा था। उसे देख कर वागले की आँखों में सवालिया भाव उभरे।
"वो साहब जी।" सिपाही ने झिझकते हुए कहा_____"लंच का टाईम हो गया है। मैं घर से आपके लिए खाने का टिफिन ले आया हूं।"
"ओह! हां हां।" सिपाही की बात सुन कर वागले को जैसे समय का आभास हुआ और उसने गहरी सांस लेते हुए कहा____"अच्छा किया तुमने जो मुझे बता दिया। वैसे खाने में आज क्या भिजवाया है तुम्हारी मैडम ने?"
"मैंने टिफिन खोल कर तो नहीं देखा साहब जी।" सिपाही ने चापलूसी वाले अंदाज़ से अपनी खीसें निपोरते हुए कहा____"लेकिन टिफिन के अंदर से बहुत ही बढ़िया खुशबू आ रही है। इसका यही मतलब हुआ कि मैडम ने आज बहुत ही लजीज़ खाना आपके लिए मेरे हाथों भिजवाया है।"
"अच्छा ऐसी बात है क्या।" शिवकांत वागले ने मुस्कुरा कर कहा____"चलो अच्छी बात है। तुम भी जा कर अपना लंच कर लो।"
"अच्छा साहब जी।" सिपाही ने कहा और सिर को नवा कर केबिन से बाहर चला गया।
सिपाही के जाने के बाद वागले ने ये सोच कर एक गहरी सांस ली कि विक्रम सिंह की डायरी पढ़ने में वो इतना खो गया था कि उसे वक़्त के गुज़र जाने का ज़रा भी पता नहीं चला था। ख़ैर उसने डायरी को बंद किया और उसे अपने ब्रीफ़केस में रख दिया।
लंच करने के बाद जेलर शिवकांत वागले ने कुछ देर कुर्सी में ही बैठ कर आराम किया और फिर जेल का चक्कर लगाने निकल पड़ा। उसके ज़हन में डायरी में लिखी हुई बातें ही चल रही थी। वो खुद भी गहराई से सोचता जा रहा था कि क्या सच में ऐसी कोई संस्था हो सकती है जिसके बारे में विक्रम सिंह ने अपनी डायरी में ज़िक्र किया है? वागले सोच रहा था कि इस दुनियां में कैसे कैसे लोग हैं और कैसी कैसी चीज़ें हैं जिनके बारे में सोच कर ही बड़ा अजीब सा लगता है। विक्रम सिंह की डायरी के अनुसार सी. एम. एस. यानी की चूत मार सर्विस एक ऐसे आर्गेनाइजेशन का नाम है जो गुप्त रूप से औरतों और मर्दों की सेक्स नीड को पूरा करती है। शिवकांत वागले को यकीन नहीं हो रहा था कि दुनियां में इस नाम की ऐसी कोई संस्था भी हो सकती है किन्तु वो ये भी सोच रहा था कि विक्रम सिंह जैसा शख़्स भला अपनी डायरी में ये सब झूठ मूठ का क्यों लिखेगा? अगर विक्रम सिंह का लिखा हुआ एक एक शब्द सच है तो ज़ाहिर है कि दुनियां में इस नाम की ऐसी कोई संस्था ज़रूर होगी जो औरतों और मर्दों की सेक्स नीड को पूरा करती होगी।
डायरी के अनुसार किसी रहस्यमयी नक़ाबपोश ने विक्रम सिंह को ऐसे नाम की संस्था से जुड़ने के लिए आमंत्रित किया था। अब सवाल ये है कि क्या विक्रम सिंह सच में ऐसी किसी संस्था से जुड़ा हुआ था और वो औरतों और मर्दों की सेक्स नीड को पूरा करता था? हालांकि शिवकांत वागले ने डायरी में इसके आगे का कुछ नहीं पढ़ा था किन्तु ज़हन में ऐसे ख़्यालों का उभरना स्वाभाविक ही था। वागले के मन में इसके आगे जानने की तीव्र उत्सुकता जाग उठी थी।
शाम तक शिवकांत वागले ब्यस्त ही रहा, उसके बाद वो अपने सरकारी आवास पर चला गया था। घर आया तो उसकी नज़र अपनी पचास वर्षीया पत्नी सावित्री पर पड़ी। सावित्री को देखते ही वागले के ज़हन में जाने क्यों ये ख़याल उभर आया कि क्या उसकी पत्नी के मन में अभी भी सेक्स करने की हसरत होगी या फिर दो बड़े बड़े बच्चे हो जाने के बाद उसके अंदर से सेक्स की चाहत ख़त्म हो गई होगी? सावित्री दिखने में अभी भी सुन्दर थी और उसका गोरा बदन अभी भी ऐसा था जो किसी भी नौजवान को उसकी तरफ आकर्षित होने पर मजबूर कर सकता था।
शिवकांत वागले खुद भी सेक्स का बहुत बड़ा भक्त नहीं था। बच्चों के बड़ा हो जाने पर अब वो सेक्स के बारे में ज़्यादा नहीं सोचता था और लगभग यही हाल सावित्री का भी था। हालांकि कभी कभी रात में दोनों ही एक दूसरे के अंगों से छेड़ छाड़ कर लेते थे और अगर बहुत ही मन हुआ तो सेक्स कर लेते थे। शिवकांत को कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ जैसे कि उसकी पत्नी सेक्स के लिए ज़रा भी पागल हो। सावित्री को अपलक देखते हुए शिवकांत वागले को बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं हुआ कि इस मामले में उसकी पत्नी को सेक्स की ज़रूरत है कि नहीं।
वागले जानता था कि भारत देश की नारी चाहे भले ही कितना खुली हुई हो लेकिन सेक्स के मामले में सबसे पहले पहल मर्द को ही करनी पड़ती है। आज से पहले शिवकांत वागले ने ये कभी नहीं सोचा था कि दो बच्चों का पिता हो जाने के बाद उसका अपनी पत्नी सावित्री के साथ सेक्स करना ज़रूरी है कि नहीं या फिर उसकी पत्नी को इसकी ज़रूरत पड़ती होगी या नहीं, किन्तु आज विक्रम सिंह की डायरी में ये सब पढ़ने के बाद वो थोड़ा सोच में पड़ गया था कि हर औरत मर्द अपनी सेक्स की नीड को पूरा करने के लिए या अपना टेस्ट बदलने के लिए कोई दूसरा साथी खोजती या खोजते हैं। हालांकि वो ये समझता था कि अपने देश की नारी अभी इस हद तक नहीं गई है जिससे कि वो अपने पति के अलावा किसी दूसरे मर्द के बारे में सोचे किन्तु वो ये भी समझ रहा था कि अक्सर मर्दों के सम्बन्ध किसी न किसी औरत से होते हैं तो ज़ाहिर है कि यही हाल औरतों का भी है। सीधी सी बात है कि जो मर्द किसी दूसरी औरत से सम्बन्ध रखता है तो वो उस औरत के लिए दूसरा मर्द ही तो कहलाया। शिवकांत को अचानक से ख़याल आया कि वो बेकार में ही इन सब बातों के बारे में इतना सोच रहा है, जबकि हमारे देश में अभी इस तरह का परिवेश नहीं बना है। हां ये ज़रूर है कि कुछ औरतों और मर्दों के सम्बन्ध अलग अलग औरतों और मर्दों से होते हैं लेकिन इसका ये मतलब नहीं कि वो लोग ऐसी किसी संस्था के द्वारा ये सब करते हैं। ज़ाहिर है कि विक्रम सिंह ने अपनी डायरी में जो कुछ भी इस बारे में लिखा है वो सब झूठ है, कोरी बकवास है।
शिवकांत वागले ने अपने ज़हन से इन सारी बातों को झटक दिया और रात में खाना पीना करने के बाद वो अपने कमरे में सोने के लिए आ गया था। बेड पर लेटने के बाद फिर से वो विक्रम सिंह और उसकी डायरी के बारे में सोचने लगा था। इससे पहले उसने आँख बंद कर के सोने की कोशिश की थी किन्तु उसकी आँखों से नींद कोशों दूर थी। ज़ाहिर है कि जब तक मन अशांत रहेगा तब तक किसी भी इंसान को चैन की नींद नहीं आ सकती। वागले ने बेचैनी से करवट बदली और अपना चेहरा अपनी बीवी सावित्री की तरफ कर लिया। उसकी बीवी सावित्री पहले से ही उसकी तरफ करवट लिए सो चुकी थी। सावित्री को चैन से सोते देख शिवकांत के ज़हन में कई तरह के ख़याल उभरने लगे।
सावित्री इस उम्र में भी बेहद सुन्दर थी और उसका बदन घर के सभी काम करने की वजह से सुगठित था। उसके बदन पर मोटापा जैसी कोई बात नहीं थी। शिवकांत ने देखा कि सावित्री की नाईटी का गला उसके करवट लेने की वजह से काफी खुला हुआ था जिससे उसकी बड़ी बड़ी छातियों की गोलाइयाँ साफ़ दिख रहीं थी। उसकी बाएं तरफ वाली छाती के हल्का नीचे की तरफ होने से उसकी दाएं तरफ वाली छाती बिल्कुल नीचे दब गई थी। ये मंज़र देख कर शिवकांत के जिस्म में एक अजीब सी झुरझुरी हुई और उसने एक गहरी सांस ली। उसे अचानक से ऐसा प्रतीत हुआ जैसे सावित्री के सुर्ख होंठ उसे चूम लेने का आमंत्रण दे रहे हों। शिवकांत अपने इस ख़याल से ये सोच कर थोड़ा हैरान हुआ कि ये कैसा एहसास है? आज से पहले तो किसी दिन उसे ऐसा प्रतीत नहीं होता था, जबकि वो अपनी पत्नी के साथ हर रोज़ ही बेड पर सोता है।
शिवकांत वागले ने एक बार फिर से अपने ज़हन में उभर आए इन बेकार के ख़यालों को झटका और एक गहरी सांस ले कर अपनी आँखें बंद कर ली। उसे महसूस हुआ कि इस वक़्त उसके दिल की धड़कनें सामान्य से थोड़ा बढ़ी हुई हैं और बंद पलकों में बार बार सावित्री की वो बड़ी बड़ी छातियां और उसके सुर्ख होंठ दिख रहे हैं। वागले एकदम से परेशान सा हो गया। उसने एक झटके से अपनी आँखें खोली और सावित्री की तरफ एक बार गौर से देखने के बाद बेड से नीचे उतरा। उसके बाद वो कमरे से बाहर निकल गया।
किचेन में जा कर वागले ने फ्रिज से पानी की एक बोतल निकाल कर पानी पिया और फिर बोतल का ढक्कन बंद कर के उसे फ्रिज में वापस रख दिया। सारा घर सन्नाटे में डूबा हुआ था। उसके दोनों बच्चे अपने अपने कमरे में सो रहे थे। वागले पानी पीने के बाद वापस अपने कमरे में आया और बेड पर सावित्री के बगल से लेट गया।
काफी देर चुपचाप लेटे रहने के बाद वागले के मन में जाने क्या आया कि उसने फिर से सावित्री की तरफ करवट ली और थोड़ा खिसक कर सावित्री के क़रीब पहुंच गया। उसने अपने बाएं हाथ की कुहनी को तकिए पर टिका कर अपनी कनपटी को बाएं हाथ की हथेली पर रखा जिससे उसका सिर तकिए से ऊपर उठ गया। इस पोजीशन में वो सावित्री को और भी बेहतर तरीके से देख सकता था। उसकी नज़र सावित्री के गोरे चेहरे पर पड़ी। सावित्री दुनियां जहान से बेख़बर सो रही थी। उसे ज़रा भी भान नहीं था कि उसका पति इस वक़्त किस तरह के ख़यालों का शिकार है जिसकी वजह से वो थोड़ा परेशान भी है और थोड़ा बेचैन भी।
सावित्री के चेहरे से नज़र हटा कर वागले ने फिर से सावित्री की बड़ी बड़ी चूचियों की तरफ देखा। इतने क़रीब से सावित्री की चूचियां देखने पर शिवकांत को ऐसा प्रतीत हुआ जैसे उसकी बीवी की चूचियां आज से पहले इतनी खूबसूरत नहीं थी। वो बड़ी बड़ी और गोरी गोरी चूचियों को अपलक देखने लगा था जैसे सावित्री की चूचियों ने उसे सम्मोहन में डाल दिया हो। वागले अभी अपलक सावित्री की चूचियों को देख ही रहा था कि तभी सावित्री के जिस्म में हलचल हुई जिससे शिवकांत वागले सम्मोहन से निकल कर धरातल में आ गया। उधर सावित्री थोड़ा सा कुनमुनाई और फिर से वो शान्ति से सोने लगी।
शिवकांत के ज़हन में ख़याल उभरा कि क्यों न सावित्री के साथ थोड़ा छेड़ छाड़ की जाए। हालांकि वो जानता था कि उसके ऐसा करने पर सावित्री नाराज़ होगी और उसे चुपचाप सो जाने को कहेगी लेकिन वागले ने इसके बावजूद सावित्री को छेड़ने का सोचा। वागले की धड़कनें थोड़ा और तेज़ हो गईं थी। आज पहली बार उसे अपनी ही पत्नी को छेड़ने के ख़याल से घबराहट होने लगी थी, जबकि इसके पहले भी वो अपनी पत्नी को इस तरह छेड़ता था किन्तु तब उसके अंदर इस तरह की घबराहट नहीं होती थी।
शिवकांत वागले ने गहरी नींद में सोई पड़ी अपनी पत्नी के चेहरे को एक बार गौर से देखा और फिर अपने दाहिने हाथ को उसकी नाईटी से झाँक रही बड़ी बड़ी चूचियों की तरफ बढ़ाया। उसका हाथ कांप रहा था और उसकी साँसें भी थोड़ा भारी हो गईं थी। वागले ने कुछ ही पलों में अपने दाहिने हाथ को सावित्री की दाहिनी छाती पर हल्के से रख दिया। उसे अपनी हथेली पर हल्का गर्म और बेहद मुलायम सा एहसास हुआ जिसके साथ ही उसके जिस्म का रोयां रोयां एक सुखद रोमांच से भरता चला गया। वागले ने एक बार फिर से अपनी पत्नी के चेहरे पर नज़र डाली और फिर हल्के से सावित्री की उस छाती को पकड़ कर दबाया। वागले ने महसूस किया कि ऐसा करने पर उसे थोड़ा मज़ा आया था, ये सोच कर उसके होठों पर मुस्कान उभर आई। उधर सावित्री को आभास ही नहीं हुआ कि उसकी चूची के साथ इस वक़्त क्या हुआ था।
वागले ने सावित्री की उस छाती को हल्के हल्के दबाना शुरू कर दिया जिसकी वजह से अचानक ही सावित्री के जिस्म में हलचल हुई जिसे देख कर शिवकांत वागले ने झट से अपना हाथ सावित्री की छाती से हटा लिया। उसकी धड़कनें तेज़ी से दौड़ने लगीं थी। एकाएक ही उसके ज़हन में ख़याल उभरा कि वो इतना डर क्यों रहा है? सावित्री उसकी बीवी ही तो है और बीवी के साथ ये सब करना ग़लत तो नहीं है? इस ख़याल के तहत वागले ने पहले तो एक गहरी सांस ली और इस बार पूरे आत्मविश्वास के साथ अपना हाथ बढ़ा कर सावित्री की छाती को पकड़ लिया। पहले तो वागले ने हल्के हाथों से ही सावित्री की चूची को दबाना शुरू किया था किन्तु जब उसने मज़े की तरंग में आ कर सावित्री की छाती को थोड़ा ज़ोर से दबा दिया तो सावित्री के जिस्म को झटका सा लगा। ऐसा लगा जैसे सावित्री को दर्द हुआ था जिसकी वजह से वो ज़ोर से हिली थी। इधर सावित्री के हिलने पर वागले रुका नहीं बल्कि उसकी छाती को दबाता ही रहा। जिसका परिणाम ये निकला कि कुछ ही पलों में सावित्री की नींद टूट गई और उसने आँखें खोल कर देखा।
सावित्री ये देख कर बुरी तरह चौंकी कि उसका पति इस वक़्त उसकी चूची को दबाए जा रहा है। कमरे में लाइट जल रही थी क्योंकि सावित्री को अँधेरे में सोने की आदत नहीं थी। अपने चेहरे पर हैरानी के भाव लिए सावित्री ने वागले की तरफ देखा और फिर अपने एक हाथ से वागले के उस हाथ को पकड़ कर हटा दिया जो हाथ उसकी चूची को दबा रहा था।
"ये क्या कर रहे हैं आप?" फिर सावित्री ने थोड़ा नाराज़ लहजे में कहा____"रात के इस वक़्त सोने की बजाय आप ये सब कर रहे हैं?"
"अरे! तो क्या हुआ भाग्यवान?" वागले ने मुस्कुराते हुए कहा_____"अपनी प्यारी सी बीवी को प्यार ही तो कर रहा हूं।"
"बातें मत बनाइए।" सावित्री ने उखड़े भाव से कहा_____"और चुपचाप सो जाइए। "
"अब भला ये क्या बात हुई मेरी जान?" वागले ने कहा____"अपनी प्यारी सी बीवी को प्यार करने का मन किया तो प्यार करने लगा। मैं तो कहता हूं कि तुम भी इस प्यार में मेरा साथ दो। हम जवानी के दिनों की तरह अंधाधुंध प्यार करेंगे, क्या कहती हो?"
"आपका दिमाग़ तो ठिकाने पर है ना?" सावित्री ने हैरानी भरे भाव से कहा____"घर में दो दो जवान बच्चे हैं और आपको जवानी के दिनों की तरह प्यार करने का भूत सवार हो गया है।"
"अरे! तो इसमें क्या समस्या है भाग्यवान?" वागले ने बेचैन भाव से कहा____"बच्चों के जवान हो जाने से क्या हम एक दूसरे से प्यार ही नहीं कर सकते? भला ये कहां का नियम है?"
"मैं कुछ नहीं सुनना चाहती।" सावित्री ने खीझते हुए कहा____"अब परेशान मत कीजिएगा मुझे। दिन भर घर के काम करते करते बुरी तरह थक जाती हूं मैं। कम से कम रात में तो चैन से सो लेने दीजिए।"
सावित्री ये कह कर दूसरी तरफ घूम गई, जबकि वागले मायूस और ठगा सा उसे देखता रह गया। सहसा उसके ज़हन में ख़याल उभरा कि सावित्री का ऐसा बर्ताव ये दर्शाता है कि उसके अंदर सेक्स के प्रति ऐसी कोई भी बात नहीं है जिसके लिए उसे अपने पति के अलावा किसी दूसरे मर्द के बारे में सोचना भी पड़े और वैसे भी कोई औरत दूसरे मर्द के बारे में तभी सोचती है जब वो अपने मर्द से खुश नहीं होती या फिर उसका पति उसकी सेक्स की भूख को शांत नहीं कर पाता। शिवकांत वागले ये सब सोच कर खुश हो गया और फिर उसने दूसरी तरफ करवट ले कर अपनी आँखें बंद कर ली।
दूसरे दिन शिवकांत वागले अपने निर्धारित समय पर जेल के अपने केबिन में पहुंचा। ज़रूरी कामों से फुर्सत होने के बाद उसने ब्रीफ़केस से विक्रम सिंह की डायरी निकाली और एक सिगरेट सुलगा कर डायरी के पन्ने पलटने लगा। वागले डायरी के पन्ने पलटते हुए उस पेज पर रुका जिस पेज़ पर वो कल पढ़ रहा था। सिगरेट के दो चार लम्बे लम्बे कश लेने के बाद उसने सिगरेट को ऐशट्रे में बुझाया और डायरी पर विक्रम सिंह द्वारा लिखी गई इबारत को आगे पढ़ना शुरू किया।
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उस वक़्त रात के क़रीब एक बज रहे थे जब मैं अपने घर के दरवाज़े पर खड़ा डोर बेल बजा रहा था। मेरी उम्मीद के विपरीत दरवाज़ा जल्दी ही खुला और दरवाज़े के उस पार मेरी माता श्री नज़र आईं। मुझ पर नज़र पड़ते ही उन्होंने ब्याकुल भाव से झपट कर मुझे अपने गले से लगा लिया।
"कहां चला गया था तू?" फिर उन्होंने दुखी भाव से मुझे अपने गले से लगाए हुए ही कहा_____"मैं और तेरे पापा तेरे लिए कितना परेशान थे। मन में तरह तरह के ख़याल उभर रहे थे कि जाने तेरे साथ क्या हुआ होगा जिसकी वजह से तू वापस घर नहीं लौटा।"
"मैं एकदम ठीक हूं मां।" मैंने उन्हें खुद से अलग करते हुए कहा____"और हां माफ़ कर दीजिए, मुझे आने में काफी देर हो गई। असल में मैं मोटर साइकिल से गिर गया था जिसकी वजह से मेरे पैर के घुटने में चोंट लग गई थी।"
"क्या कहा???" मेरी बात सुनते ही माँ ने ब्याकुल हो कर कहा_____"तू मोटर साइकिल से कैसे गिर गया था? कहीं तू मुझसे झूठ तो नहीं बोल रहा? सच सच बता कैसे लगी तुझे ये चोट?" कहने के साथ ही माँ ने झट से मेरे पैंट को ऊपर सरका कर चोंट पर लगी पट्टी को देखा और फिर मेरी तरफ देखते हुए कहा____"कहीं तेरा एक्सीडेंट वग़ैरा तो नहीं हो गया था और ये तेरे घुटने पर पट्टी कैसे लगी हुई है?"
"वो मैं हॉस्पिटल चला गया था न।" मैंने बहाना बनाते हुए कहा____"वहीं पर मैंने मरहम पट्टी करवाई है। इसी सब में इतनी देर हो गई। वैसे ये तो बताइए कि पापा मुझ पर गुस्सा तो नहीं हैं ना?"
"पहले तो वो गुस्सा ही हुए थे।" माँ दरवाज़े से एक तरफ हटते हुए बोलीं जिससे मैं दरवाज़े के अंदर दाखिल हुआ____"उसके बाद जब तू इतना समय गुज़र जाने पर भी घर नहीं आया तो उन्हें तेरी चिंता होने लगी थी। उसके बाद वो एक एक कर के तेरे दोस्तों के घर वालों को फ़ोन किया और तेरे बारे में पूछा लेकिन तेरे दोस्तों ने उन्हें यही बताया कि तू उन लोगों के साथ ही चौराहे तक आया था। उस वक़्त तक तू ठीक ही था। उसके बाद का उन्हें कुछ पता नहीं था।"
"हां वो चौराहे के बाद ही मैं मोटर साइकिल से गिरा था।" मैंने कहा____"कोहरे की धुंध में मुझे सड़क पर मौजूद स्पीड ब्रेकर दिखा ही नहीं था। जिसकी वजह से मोटर साइकिल के हैंडल से मेरे हाथों की पकड़ छूट गई थी और मैं उछल कर सड़क पर गिर गया था।"
"चल कोई बात नहीं।" माँ ने दरवाज़ा बंद कर के मुझे अंदर की तरफ ले जाते हुए कहा_____"शुकर है कि ईश्वर की दया से तुझे ज़्यादा कुछ नहीं हुआ। हम दोनों तो तेरे लिए बहुत ही ज़्यादा चिंतित और परेशान हो गए थे।"
मैं माँ के साथ अंदर आया तो देखा ड्राइंग रूम में रखे सोफे पर पापा बैठे थे। मुझे देखते ही वो उठे और झट से मुझे अपने गले से लगा लिया। उसके बाद उन्होंने भी मुझसे वही सब पूछा जो इसके पहले माँ मुझसे पूछ चुकीं थी और मैंने भी उन्हें वही सब बताया जो माँ को बताया था। ख़ैर माँ ने मुझे खाना खिलाया। खाने के बाद मैं अपने कमरे में चला गया।
जैसा कि मैंने शुरू में ही बताया था कि मैं अमीर फैमिली से ताल्लुक रखता था। मेरे पापा का बहुत बड़ा बिज़नेस था और मेरे माता पिता दोनों ही उस बिज़नेस को सम्हालते थे। पढ़ाई पूरी होने के बाद मैंने भी उनसे ज्वाइन करने के लिए कहा था लेकिन पापा ने मुझे ये कह कर मना कर दिया था कि अभी कुछ समय लाइफ़ को एन्जॉय करो। उसके बाद तो बिज़नेस ही सम्हालना है। मैंने भी सोचा कि चलो कुछ समय के लिए मुझे इस झंझट से दूर ही रहना चाहिए।
मेरा घर, घर क्या था बल्कि एक बड़ा सा बंगला था जिसमें हर तरह की सुख सुविधाएं थी। बंगले में कई सारे नौकर चाकर थे। मैं भले ही अपने माता पिता की इकलौती औलाद था लेकिन मुझ में अपने अमीर माता पिता का बेटा होने का कोई घमंड नहीं था और ना ही मेरा ऐसा स्वभाव था कि मैं उनके पैसों को फ़ालतू में इधर उधर उड़ाता फिरुं। मैं दिखने में और पढ़ने लिखने में बहुत ही अच्छा था। मेरी बॉडी पर्सनालिटी भी ठीक ठाक थी लेकिन मुझ में सिर्फ एक ही ख़राबी थी कि मेरा स्वभाव औरतों के मामले में कुछ ज़्यादा ही शर्मीला था।
अपने कमरे में आ कर मैं बेड पर लेट गया था और कुछ समय पहले जो कुछ भी मेरे साथ हुआ था उसके बारे में सोचने लगा था। मेरे ज़हन में उस रहस्यमयी शख़्स की एक एक बातें शुरू से ले कर आख़िर तक की गूंजने लगीं थी। उन सब बातों को याद कर के मैं सोचने लगा कि क्या सच में ऐसा हो सकता है? क्या सच में ऐसी कोई संस्था हो सकती है जिसमें इस तरह के एजेंट्स होंगे जो औरतों और मर्दों को सेक्स की सर्विस देते हैं? क्या सच में बाहर के मर्द और औरतें ऐसी किसी संस्था के एजेंट्स द्वारा अपनी सेक्स की भूंख को शांत करते होंगे? क्या ऐसा करने से किसी को भी इसका पता नहीं चलता होगा? मर्दों का तो चलो मान लेते हैं कि वो ये सब आसानी से कर ही लेते होंगे लेकिन औरतें कैसे किसी ऐसे आदमी के साथ सेक्स कर लेती होंगी जो उनके लिए निहायत ही अजनबी होता है? क्या इसके लिए पहले से कोई ऐसा प्रोसेस होता है जिसके बाद औरतों के लिए किसी दूसरे मर्द के साथ सेक्स करना आसान हो जाता होगा?
इस बारे में मैं जितना सोचता जा रहा था उतना ही मेरे ज़हन में और भी सवाल उभरते जा रहे थे। किसी किसी पल मैं ये भी सोचने लगता कि कहीं ये कोई ख़तरनाक जाल तो नहीं है जिसमें वो रहस्यमयी शख़्स मुझे फ़साना चाहता है? मेरे माता पिता दोनों ही बिज़नेस वाले थे और ज़ाहिर है कि इस क्षेत्र में उनका कोई न कोई दुश्मन भी होगा जो उन्हें इस तरह से भी नुक्सान पहुंचाने का सोच सकता है। ये ख़याल ऐसा था जिसके बारे में सोचते ही मेरे ज़हन में ये बात आ जाती थी कि मुझे इस तरह के किसी भी लफड़े में नहीं फंसना चाहिए। क्या हुआ अगर मुझे किसी लड़की को भोगने का सुख प्राप्त नहीं हो रहा? कम से कम इससे मेरे माता पिता पर किसी तरह की कोई आंच तो नहीं आ रही। अब ऐसा तो है नहीं कि मुझे अपनी लाइफ़ में कभी कोई लड़की मिलेगी ही नहीं। मैं उस लड़की के साथ भी तो सेक्स ही करुंगा जिससे मेरी शादी होगी?
बेड पर लेटा मैं बेचैनी से करवटें बदल रहा था। मेरा मन बिलकुल ही अशांत था। मैं समझ नहीं पा रहा था कि इस मामले में मुझे क्या फ़ैसला लेना चाहिए। एक तरफ मैं ये भी चाहता था कि मेरे किसी भी काम की वजह से मेरे माता पिता पर कोई बात न आए वहीं एक तरफ मैं ये भी चाहता था कि किसी सुन्दर सी लड़की के साथ मैं भी उसी तरह मज़े करूं जिस तरह मेरे जैसे जवान लड़के मज़े करते हैं। शादी तो यकीनन एक दिन होगी ही और जिस लड़की से मेरी शादी होगी उससे जीवन भर मज़ा करने का मुझे लाइसेंस भी मिल जाएगा लेकिन उससे क्या मुझे तसल्ली मिलेगी? शादी के बाद तो मैं बस एक का ही बन के रह जाऊंगा और संभव है कि फिर किसी दूसरी लड़की या औरत के साथ मज़ा करने का मुझे कभी मौका ही न मिले। शादी के बाद क्या मैं कभी ये देख पाऊंगा कि दूसरी लड़कियों या औरतों के जिस्म कैसे होते हैं? उनके जिस्म का कौन सा अंग किस तरह का होता है?
ये सब सोचते हुए मैं बुरी तरह से उलझ गया था। मेरी तृष्णा और बेचैनी शांत होने की बजाय और भी बढ़ती जा रही थी। मेरा मन अलग अलग लड़कियों को भोगने की लालसा ही बनाता जा रहा था। रह रह कर मेरे ज़हन में उस रहस्यमयी शख़्स की बातें गूँज उठती थीं और मैं सोचने लगता था कि अगर सच में ही वो रहस्यमयी शख़्स ऐसी किसी संस्था का आदमी है तो उसकी संस्था से जुड़ने में भला मुझे क्या परेशानी हो सकती है? उस संस्था से जुड़ने के बाद तो उल्टा मेरे मज़े ही हो जाने हैं। हर रोज़ एक नई औरत को भोगने का मौका मिलेगा मुझे और मैं जैसे चाहूंगा औरतों के जिस्मों के साथ खेलते हुए उनसे मज़े करुंगा। उस शख़्स के अनुसार ये सब काम गुप्त तरीके से होते हैं, इसका मतलब किसी को इस सबके बारे में पता भी नहीं चलेगा। कम से कम एक बार मुझे इस संस्था से जुड़ कर चेक तो करना ही चाहिए।
ये सब सोचते हुए मैंने एक गहरी सांस ली कि तभी मुझे उस शख़्स की एक बात याद आई कि संस्था से जुड़ने के बाद मैं उस संस्था को छोड़ कर कहीं नहीं जा सकता। इस बात के याद आते ही मैं एक बार फिर से गहरी सोच में डूब गया। तभी मुझे उसकी ये बात भी याद आई कि संस्था से जुड़ने के बाद मैं अपनी फैमिली के बीच रहते हुए भी आसानी से संस्था के काम कर सकता हूं। यानि फैमिली के बीच रह कर मैं अपने बाकी के काम भी कर सकता हूं। संस्था के नियम कानून तो ये हैं कि मैं उनकी मर्ज़ी के खिलाफ़ संस्था का कोई काम नहीं करुंगा और ना ही अपना भेद किसी पर ज़ाहिर करुंगा। ज़ाहिर है कि संस्था में जो भी एजेंट्स हैं वो सब संस्था के बॉस के आर्डर पर ही सर्विस देने जाते होंगे।
मेरे ज़हन में ये ख़याल उभरे तो मैंने सोच लिया कि इस बारे में मैं एक बार फिर उस रहस्यमयी आदमी से पूछूंगा। अगर उसकी बातों से या उसके नियम कानून में मुझे कहीं पर भी अपने लिए कोई परेशानी न नज़र आई तो मैं उसकी संस्था से जुड़ने के बारे में सोचूंगा।
रात पता नहीं कब मेरी पलकें झपक गईं और मुझे नींद ने अपनी आगोश में ले लिया। ख़ैर ऐसे ही दो दिन गुज़र गए। उस रहस्यमयी आदमी ने मुझे सोचने के लिए दो दिन का वक़्त दिया था और दो दिन गुज़र गए थे।
मैं शाम को क़रीब आठ बजे उसी जगह पर आ कर खड़ा हो गया था जिस जगह पर वो शख़्स मुझे पहली बार मिला था। मेरे पास उस शख़्स से मिलने का बस यही एक जरिया था। क्योंकि उस दिन उसने मुझे ये नहीं बताया था कि दो दिन बाद उससे मेरी मुलाक़ात कैसे होगी? ये मेरा अनुमान ही था कि शायद उस जगह पर जाने से मेरी मुलाक़ात उस रहस्यमयी शख़्स से हो जाए।
ठंड ज़ोरों की थी, इस लिए मैं स्वेटर के ऊपर से कोट भी पहने हुए था। चारों तरफ कोहरे की धुंध छाई हुई थी जिससे आस पास कोई नज़र नहीं आता था। हालांकि सड़क पर इक्का दुक्का वाहन आते जाते नज़र आ जाते थे। मैं सड़क के किनारे उस जगह पर था जहां पर उस दिन मुझे मेरी मोटर साइकिल खड़ी मिली थी।
उस रहस्यमयी आदमी का इंतज़ार करते हुए मुझे क़रीब एक घंटा गुज़र गया था और अब मुझे लगने लगा था कि मैं बेकार में ही उसके आने का इंतज़ार कर रहा हूं। मुमकिन है कि दो दिन पहले जो कुछ भी हुआ था वो सब किसी का सोचा समझा मज़ाक रहा हो। हालांकि सोचने वाली बात तो ये भी थी कि इस तरह का मज़ाक करने के बारे में भला कौन सोच सकता था?
दस मिनट और इंतज़ार करने के बाद भी जब वो रहस्यमयी आदमी नहीं आया तो मैं गुस्से में आ कर सड़क की तरफ चल पड़ा। अभी मैं सड़क पर आया ही था कि तभी मेरे कानों में एक अजीब सी आवाज़ पड़ी जिसे सुन कर मैं एकदम से रुक गया। उस अजीब सी आवाज़ को सुन कर मेरे ज़हन में बिजली की तरह ये ख़याल उभरा था कि ऐसी आवाज़ तो उस रहस्यमयी आदमी की थी, तो क्या वो यहाँ पर आ गया है??? इस ख़याल के उभरते ही मेरी धड़कनें तेज़ हो गईं और साथ ही मैं बड़ी तेज़ी से पीछे की तरफ पलटा। नज़र कोहरे की हल्की धुंध में कुछ ही दूर खड़े उस रहस्यमयी आदमी पर पड़ी जिसके इंतज़ार में मैं पिछले एक घंटे से भी ज़्यादा समय से यहाँ खड़ा था।
"देरी के लिए हमें माफ़ करना विक्रम।" फ़िज़ा में उस रहस्यमयी आदमी की रहस्यमयी ही आवाज़ गूंजी_____"वैसे कहां जा रहे थे?"
"पिछले एक घंटे से मैं यहाँ आपके आने का इंतज़ार कर रहा था।" मैंने आज उसे आप से सम्बोधित करते हुए कहा____"जब आप नहीं आए तो मुझे लगा दो दिन पहले जो कुछ भी हुआ था वो सब शायद किसी के द्वारा किया गया ऐसा मज़ाक था जिसके बारे में मैं तो क्या बल्कि कोई भी नहीं सोच सकता था।"
"सही कहा तुमने।" उस आदमी ने मेरी तरफ दो क़दम बढ़ कर कहा____"इस तरह के मज़ाक के बारे में कोई भी नहीं सोच सकता किन्तु सच यही है कि वो सब मज़ाक नहीं था। ख़ैर, तो इन दो दिनों में क्या सोचा तुमने?"
"सच कहूं तो मैं अभी भी उलझन में ही हूं।" मैंने कहा____"और साथ ही मैं इस बात से डर भी रहा हूं कि इस सबकी वजह से कहीं मैं किसी ऐसे झमेले में न पड़ जाऊं जिससे मेरे साथ साथ मेरी पूरी फैमिली ख़तरे में पड़ जाए। दूसरी बात ये भी है कि इस सब के बाद मैं अपनी फैमिली के साथ क्या वैसे ही रह पाऊंगा जैसे अभी रह रहा हूं? आपने कहा था कि संस्था से जुड़ने के बाद मैं अपनी मर्ज़ी से कुछ नहीं कर सकता। अगर ऐसा होगा तो मेरी अपनी लाइफ़ का क्या होगा और अपनी फैमिली के प्रति मेरे जो भी फ़र्ज़ हैं उनको मैं कैसे निभा पाऊंगा?"
"तुमने उस दिन शायद हमारी बातों को ग़ौर से सुना ही नहीं था।" उस रहस्यमयी आदमी ने अपनी अजीब सी आवाज़ में कहा____"अगर सुना होता तो समझ जाते कि संस्था से जुड़ने के बाद इस तरह की कोई पाबंदी नहीं होगी। संस्था के नियम कानून ये हैं कि एजेंट्स अपने बारे में किसी को ना तो खुद बताएं और ना ही किसी को अपने बारे में पता चलने दें। यानि कि संस्था का कोई भी एजेंट बाहरी दुनियां के किसी भी ब्यक्ति के सामने अपने इस राज़ को फास न होने दे कि वो किस संस्था से जुड़ा हुआ है और वो किस तरह का काम करता है? दूसरा कानून ये है कि संस्था से जुड़ने के बाद कोई भी एजेंट हमारे हुकुम के बिना एजेंट के रूप में किसी औरत या मर्द को सर्विस देने न जाए। बाकी संस्था का कोई भी एजेंट अपनी रियल लाइफ़ में कुछ भी करने के लिए आज़ाद है। संस्था ने ऐसा कोई कानून नहीं बनाया है कि वो अपने एजेंट्स को उनकी पर्सनल लाइफ से ही दूर कर दे।"
"अगर ऐसी बात है तो फिर ठीक है।" मैंने मन ही मन राहत की सांस लेते हुए कहा_____"मैं आपकी संस्था से जुड़ने के लिए तैयार हूं। वैसे क्या आपकी संस्था में लड़के और लड़कियां दोनों ही सर्विस देने का काम करते हैं?"
"ज़ाहिर सी बात है।" रहस्यमयी आदमी ने कहा____"हमारी संस्था औरत और मर्द दोनों को ही सर्विस देने का काम करती है। इसके लिए मेल और फीमेल दोनों तरह के एजेंट्स हमारी संस्था में हैं। ख़ैर संस्था से जुड़ने के बाद तुम्हें ख़ुद ही सारी बातों का पता चल जाएगा।" कहने के साथ ही उस रहस्यमयी आदमी ने आगे बढ़ कर अपना एक हाथ मेरी तरफ बढ़ाते हुए कहा____"लो इसी ख़ुशी में अपना मुँह मीठा करो।"
रहस्यमयी आदमी की बात सुन कर मैंने अपनी तरफ बढ़े उसके हाथ को देखा। उसके हाथ में काले रंग के दस्ताने थे और उसकी हथेली पर पारदर्शी पन्नी में लपेटा हुआ मिठाई का एक छोटा सा टुकड़ा था। उस मिठाई के टुकड़े को देख कर मैंने एक बार उस रहस्यमयी आदमी की तरफ देखा और फिर उसकी हथेली से मिठाई का वो टुकड़ा उठा कर अपने मुँह में डाल लिया। मिठाई के उस टुकड़े को मैंने खा कर निगला तो कुछ ही पलों में मुझे मेरा सिर घूमता हुआ सा प्रतीत हुआ और फिर अगले कुछ ही पलों में मुझे चक्कर से आने लगे। मैं बेहोश होने वाला था जिसकी वजह से मेरा शरीर ढीला पड़ गया था और मैं लहरा कर गिरने ही वाला था कि मुझे ऐसा लगा जैसे किसी मजबूत बाहों ने मुझे सम्हाल लिया हो। उसके बाद मुझे किसी भी चीज़ का होश नहीं रह गया था।
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