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हेल्लो दोस्तों मैं सभी पाठको को मेरा नमस्कार। उम्मीद करता हूँ आप सबको मेरी यह कहानी पसंद आएगी।
मैं इस फोरम पे बहुत दिनो से कई कहानी को फॉलो कर रहा था। बहुत से कहानी मुझे बहुत पसंद आयी है।
मैं कोई प्रोफेशनल राइटर तो नही हूँ। इसलिए मैं यह उम्मीद करता हूँ की आप सभी बडे लोग मुझे पूरा सयोग देंगे और जहाँ मुझे कोई कठिनाई होगी वहाँ मेरा मार्ग दर्शन भी करेंगे।
कहानी का टाइटल है
कामुक हसीना
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कामुक हसीना
दोस्तों मैं कहानी को डायरेक्ट शुरू कर रहा हूँ। मैं किसी भी पात्र या घटना का जीकर नही करना चाहता हूँ। जैसे कहानी आगे भडती जाएगी आपको कहानी के हीरो और हीरोइन के बारे मैं मालुम पढ़ जाएगा। और दुसरे पात्रों के बारे मैं भी पता चल जाएगा। वैसे मैं कहानी का आईडिया देना चाहता हूँ।
कामुक हसीना
जिंदगी कई बार ऐसे अजीब मोड़ लेती है की कुछ पता नही होता की क्या सही है या गलत…मैंने कभी अपनी जिंदगी मैं नही सोचा था की जो कुछ भी मेरे साथ हुआ है या होने वाला है। इसका जिम्मेदार मैं खुद हूँ या मेरी किस्मत... कोइ भी इंसान अपने लक्षय को पाने के लिए किसी स्त्री को वस्तु के तरह कैसे इस्तेमाल कर सकता है।
कुछ ऐसे हादसे भी जिंदगी में घट जाते है कि आख़िर तक हमें समझ नही आता कि वो सब कैसे हुआ, क्यू हुआ. सच कोई नही जान पाता.. की आखिर वो भगवान का चमत्कार है या फिर किसी 'अपने' की साज़िश... हम सिर्फ़ कल्पना ही करते रहते हैं और आख़िर तक सोचते रहते हैं कि ऐसा हमारे साथ ही क्यू हुआ? किसी और के साथ क्यू नही.. हालात तब और बिगड़ जाते हैं जब हम वो हादसे किसी के साथ बाँट भी नही पाते….हमें अकेला ही निकलना पड़ता है, अपनी अंजान मंज़िल की तरफ.. मन में उठ रहे उत्सुकता के अज्ञात भंवर के पटाक्षेप की खातिर मेरी जिंदगी का मकसद क्या था? क्या मैं इस दल दल मैं खुश हूँ? क्या दुनिया को मेरी जैसी रंडी, वैश्या, बदचलन जैसी औरतो की जरूरत है?
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दोस्तों इस कहानी में कोई भी गलतिया हो तो ज़रुर बताना। मैं कोई professional राइटर तो नही हूँ। बस एक शुरुआत करने जा रहा हूँ।
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पहला अपडेट
दोस्तों मैं कहानी को डायरेक्ट शुरू कर रहा हूँ। मैं किसी भी पात्र या घटना का जीकर नही करना चाहता हूँ। जैसे कहानी आगे भडती जाएगी आपको कहानी के हीरो और हीरोइन के बारे मैं मालुम पढ़ जाएगा। और दुसरे पात्रों के बारे मैं भी पता चल जाएगा। वैसे मैं कहानी का आईडिया देना चाहता हूँ।
कामुक हसीना
जिंदगी कई बार ऐसे अजीब मोड़ लेती है की कुछ पता नही होता की क्या सही है या गलत…मैंने कभी अपनी जिंदगी मैं नही सोचा था की जो कुछ भी मेरे साथ हुआ है या होने वाला है। इसका जिम्मेदार मैं खुद हूँ या मेरी किस्मत... कोइ भी इंसान अपने लक्षय को पाने के लिए किसी स्त्री को वस्तु के तरह कैसे इस्तेमाल कर सकता है।
कुछ ऐसे हादसे भी जिंदगी में घट जाते है कि आख़िर तक हमें समझ नही आता कि वो सब कैसे हुआ, क्यू हुआ. सच कोई नही जान पाता.. की आखिर वो भगवान का चमत्कार है या फिर किसी 'अपने' की साज़िश... हम सिर्फ़ कल्पना ही करते रहते हैं और आख़िर तक सोचते रहते हैं कि ऐसा हमारे साथ ही क्यू हुआ? किसी और के साथ क्यू नही.. हालात तब और बिगड़ जाते हैं जब हम वो हादसे किसी के साथ बाँट भी नही पाते….हमें अकेला ही निकलना पड़ता है, अपनी अंजान मंज़िल की तरफ.. मन में उठ रहे उत्सुकता के अज्ञात भंवर के पटाक्षेप की खातिर मेरी जिंदगी का मकसद क्या था? क्या मैं इस दल दल मैं खुश हूँ? क्या दुनिया को मेरी जैसी रंडी, वैश्या, बदचलन जैसी औरतो की जरूरत है।
क्या मैं सच मैं एक बदचलन औरत थी या कोई और यह तो वक्त ही बतायगा। चलो देखते है मेरे साथ ऐसा क्या हुआ जो मैं ऐसे शब्द कह रही हूँ।
वृद व्यक्ति अस्पताल के अपने बिस्तर पर सारेसाज़ो-सामान के साथ लेटे हुए थे। उनके हार्ट बीटस मॉनिटर पर ग्राफ की तरह दरसा रहे थे। उनकी कमजोर बाहें मैं अनेक सुईयां लगी हुई थी और एक ट्यूब उनके मुँह से होते हुए फैफडो मैं जा रही थी। वो जानते थे की जीवन उनके शरीर से किनारा करने कर रहा है लेकिन उन्होंने भगवान से प्राथना की थी की उन्हे कुछ और देर जीने की अनुमति दे जिससे वो इथिहासिक पल देख सके जिसका वो वर्षो से प्रतिkछा कर रहे थे।
टेलीविजन पर चलती फिरती चित्रों से आने वाली चमक के इलावा कमरे मैं अंधेरा था, अंदर कमरे मैं धूप ना आये इसलिए खिड़कियो पर मोटे मोटे परदे खींची थी। उनके स्टील के बेड के पास एक कुर्सी पर, बीच- बीच मैं ऊँघती हुई नर्स बैठी हुई थी। भारत के उन्नीसवी प्रधानमन्त्री की शपथ लेते देख रहे अस्सी वर्ष आयु के बुजुर्ग के आँखों मैं टेलीविजन की रोशनी चमक उठी।
उनके दोनों मोबाइल लगातार बजने का कारण उनके नीजी सचिव नाकेश को अंदर ले आया था। बगल वाले कमरे का मरीज शिकायत कर रहा था की निरंतर बजती हुई घंटी से उसे परेसानी हो रही थी। लगभग साठ साल के सचिव ने कमरे मैं देखा तो उसने पाया की उनका मालिक बिस्तर पर लेटे हुए है और उनका ध्यान नई दिल्ली से दिखाई जाने वाली तस्वीरों पर है
वो फोन की घंटीयों को अपने काम मैं अडचन नही डाल देने सकते थे। उन्होंने इस पल का इनतेज़ार तीस सालों से कर रहे थे। उनके सचिव ने कहा था की मोबाइल को स्विच ऑफ कर दे, लेकिन उन्होंने आदेश दिया की मोबाइल और उनकी जीवन तब तक नही बंद हो सकती जब तक वो इस पल को देख ना ले।
बनारस का अस्पताल उनके लिए सक्षम नही था, प्रोफेसर विध्यसागर को कोई फरक नही था, वो दिल्ली, मुंबई के किसी अस्पताल मैं मर जाने से मना कर दिया था। बनारस उनका घर था और वो अपने रचेता से अपने घर से और अपने शर्तो से मिलना चाहते थे।
टेलीविजन पर राष्ट्रप्रति भवन दिखाई दे रहा था। उसमे राष्ट्रप्रति एक 26 साल की महिला को पद की शपथ दिला रहे थे। वो हमेशा की तरह साडी मैं थी जिससे वो और भी ज्यदा खूबसूरत लग रही थी। किसी ने कभी यह नही सोचा था की एक 26 साल की लड़की हिंदुस्तान की प्रधनमन्त्री बनने वाली है।
लगभग ऐसा लग रहा था की विध्यसागर ने अपनी पूरी जिंदगी इस अवसर की tyaari मैं लगा दी थी। वो शुद् हिन्दी मैं बोल रही थी “मैं ज्योति मिश्रा ईश्वर को साक्षी मानकर शपथ लेती हूँ की मैं विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची आस्ताँ और निष्ठा वहन करूँगी, कि मैं भारत की अखंडता को बनाए रखूंगी, कि ईमानदारी और धर्मपूर्वक मैं प्रधानमंत्री के रूप में अपने कर्तव्यों का निर्वहन करूंगी और कि किसी डर या पक्षपात के, स्नेह या द्वेष के बिना संविधान और विधि के अनुरूप सभी लोगों के साथ न्याय करूंगी।”
बुज़ुर्ग मुस्कुराए। डर, पक्षपात, स्नेह या द्वेष के बिना! बकवास! इनमें से किसी के भी बिना प्रधानमंत्री बनना मुमकिन ही नहीं था, और ये भी साली जानती है। क्या इसे पता नही कैसे यह यहाँ तक पहुंची है।
वो कुछ सोचते हुए हंसे और नतीजा हुआ खरखराती खांसी, जो उनकी नष्ट हो जाने की पीड़ा और उनके फेफड़ों में जकड़े कैंसर की याद दिला गया। कमरे के बाहर खड़े ख़ुफ़िया विभाग के bodyguards ने उन्हें खांसते सुना। वो समझ नहीं पा रहे थे कि वो किससे किसकी रक्षा कर रहे हैं। बेशक ऐसे बहुत से लोग थे जो इस कमबख़्त की मौत चाहते थे लेकिन ऐसा लगता था कि ईश्वर की कुछ और ही योजना है। ऐसा लगता था मानो विध्यसागर नाक पर अंगूठा रखकर अपने दुश्मनों को चिढ़ा रहे हों और कह रहे हों “आओ पकड़ लो मुझे, लेकिन मैं यहां होऊंगा ही नहीं!”
उनके सिर पर पसीने की परत फैल गई थी, नर्स ने एक तौलिए से पसीना पोंछा। बाहर बैठे खुफिया एजेंसी के karamchari उसकी गतिविधियों को देखते रहे। ट्यूब के बावजूद अपनी नाक से जीवनादायी ऑक्सीजन को खींचने के लिए संघर्ष करते हुए, उन्होंने सांस लेने की कोशिश की तो उनके पतले–पतले होंठ कांप गए।
उनकी त्वचा एक दम बेरुखी हो गयी थी और उनका पतला–दुबला शरीर बिस्तर पर नाममात्र ही जगह घेरे हुए था। इतना कमज़ोर छोटा सा आदमी इतना शक्तिशाली कैसे हो सकता था? उनके कमरे के बाहर लॉबी में राजनीतिक सहयोगियों का जमावड़ा लगा था। प्रोफेसर विद्यासागर के कोई दोस्त नहीं थे। उनकी राजनिति दुनिया में सिर्फ़ दुश्मन होते थे।
उनकी मौत से पहले ही बाहर के लोगों ने अन्दआज लगा लिया था की वो अब ज़िंदा बाहर नही आएगा। उसकी मौत की खबर के लिए हॉस्पिटल के बाहर पत्रकारो की भीड़ जमी हुई थी। देश के कई नेता उसकी मौत की खबर सुनने के लिए बेताब थे।
प्रोफेसर को इन सब से कोई फरक नही पड़ने वाला था, क्यों की वो जानते थे की उसको इस धरती पर कोई नही है जो उसे ज़िंदा देखना चाहता था। वो इन सबकी परवाह किये बगैर उसकी नज़र टेलीविजन पर लगी हुई थी।
वो तो बस ज्योति को प्रधानमंत्री की शपथ लेते हुए देख रहे थे, उनकी सानसें उखड़ रही थी, लेकिन अपनी नज़र TV से नही हटा रहे थे। शपथ खतम होते ही ज्योति ने दोनों हाथ जोड़कर लोगो का अभिवादन किया की तभी अचानक वो पीछे की तरफ लडखडाई…ज्योति के सीधे कंधे मैं से लाल रंग का धब्बा भडने लगा। उसे गोली मारी गयी थी।।।
इधर प्रोफेसर की आँखें बंद होने लगी, उसके सपना पूरा हुआ।।।
उसका क्या सपना था जो वो तीस साल से इन्तजार कर रहा था। क्या वो ज्योति को प्रधानमंत्री बनाकर मारना चाहता था?
अगर उसे मारना ही था तो उसे पहले ही मार देता।
ऐसा क्या हुआ जो उसने ऐसा कदम उठाया… यह सब जानने के लिए आप कहानी के साथ जुड़े रहिए…
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दूसरा अपडेट
अगर उसे मारना ही था तो उसे पहले ही मार देता।
ऐसा क्या हुआ जो उसने ऐसा कदम उठाया… यह सब जानने के लिए आप कहानी के साथ जुड़े रहिए…
65 साल पहले।
वाराणसी के धूल भरी गंगा नदी के तट पर स्थित मणिकरणीका घाट इस शहर के जीवन और आत्मा हैं। मणिकर्णिका घाट मूल रूप से वह स्थान है जहां लाशों का अंतिम संस्कार किया जाता है। चूँकि वाराणसी एक पवित्र शहर है, जहाँ देश के कोने कोने से अपने पाप धोने आते है। घाट के दोनों किनारों मैं जीवन और मृत्यु का खेल देखा जा सकता है। एक तरफ चिता से धुआँ उठ रहा है, और दूसरी तरफ छोटे बच्चों नदी मैं खेल रहे है।
उन्ही चिता के पास पंडित मंत्र पढ़ रहे है और दूसरी तरफ गंगा नदी मैं खड़े होकर कुछ लोग सूर्य नमस्कार करते हुए अपने पापो की क्षमा मांग रहे है।। एक
क तरफ लोग खड़े होकर गंगा नदी के पवित्र जल को निहार रहे है और दूसरी तरफ कुछ लोग चिता के पास खड़े होकर विलाप कर रहे है।
और नियती इन सबको बड़े आराम से देख रहा है और सोचता है, हर इंसान को इसी घाट पे आना है। सबको सच्चाई पता है की दुनिया के बड़े से बड़े राजा महाराजा, नेता, मंत्री हर किसी को इस पवित्र नदी मैं बहना है। यह सब जानते हुए भी इंसान अपने आपको इस धरती का भगवान समझने लगता है। जैसे कि इस वक्त एक इंसान इन सबसे बेखबर नदी मैं डुबकी लगा रहा है। उसका नाम है विद्यासागर जिसकी उम्र लगभग 16 साल की है...
विद्यासागर अपने आदत के अनुसार हर सुबह मणिकरणीका घाट पर गंगा स्नान करने आये थे। वो रोज की तरह गंगा मैं डुबकी लगाते और लोटे मैं गंगा जल लेके अपने घर चले जाते थे।
उनके पिता एक गरीब ब्राहमण थे जो गंगा के किनारे बसे सरकारी कॉलेज मैं पड़ाकर अपने परिवार का पेट भरते थे। उनके घर मैं उनकी पत्नी के इलावा 3 लड़की और 1 लड़का था --- जिसका नाम विद्यासागर है।
रोज की तरह विद्यासागर गंगा जल लेके घर पहुँच गया और सुबह की पूजा करने के लिऐ बैठ गया। कुछ देर बाद विद्या सागर को उनके पिताजी ने आवाज़ दी और कहा चलो हमे गुप्ता जी के घर जाना है।
गुप्ता जी उस जमाने के व्यपारी हुआ थे और हर साल श्राद्ध के समय विद्या और उनके पिता को खाना खिलाकर कुछ पैसो भी दे दिया करते थे
इस बार विद्या खीर पूरी खाते हुए अपने पिता से पूछते हैं…
पिताजी— “श्राद्ध बस अपने पूर्वजों को याद करने के लिए होता हैं ना?
“हाँ बेटा ब्राहमणों को भोजन कराके लोग अपने पूर्वजों की आत्माओ को भोजन कराते हैं…
“तो एक दिन आप भी मर जायेंगे?” विद्या ने उदासी से पूछा
यह सुन वो मुस्करा दिये और सोचने लगे देखो मेरा बेटा मुझे कितना प्यार करता हैं, वो मन ही मन —मुस्कराते हुए कहा…
“हाँ बेटा एक दिन हर किसी को मरना हैं। मुझे भी”
विद्या दुखी हो गया और उसकी आँखों से आँसू बहने लगे, यह देख विद्या के पिताजी का गला बैठ गया, उन्होंने उसके दुःख कम करने की कोशिस करते हुए पूछा। अच्छा विद्या तुम यह सब क्यों पूछ रहे होहो और इन सबके बारे में क्या जानना चाहते हो?
“में सोच रहा था अगर आप मर गए तो क्या में गुप्ता जी के घर दोबारा खीर खाने के लिए आ सकता हूँ?”
यह सुन उसके पिताजी चोंक गए और विद्या को घूरते रहे। उन्हे अंदेशा हो चुका था की यह आगे चलकर किसी का भी सगा नही होगा, इसे रिश्तो से प्यार नही है। यह अपने हिसाब से रिश्तों को उपयोग करेगा।
विद्या के पिता ने कहीं से पैसे इकट्टा करके उसको प्राइवेट कॉलेज में दाखिला करवा दिया। विद्या पड़ने में अच्छा था और उसका दिमाग बाकी लड़को से तेज था।
एक दिन टीचर ने सवाल किया
“बताओ अमेरिका का पहला राष्ट्रपति कौन था?” टीचर ने पूछा
“जॉर्ज वॉशिंगटन” विद्या ने जवाब दिया
टीचर: उन्होंने अपने जीवन की बहुत बड़ी शरारत की थी, वो क्या है?
“उन्होंने अपने पिताजी का चेरी का पेड़ काट दिया था” विद्या ने कहा
टीचर: तो इतिहास यह भी कहता हैं की उस शरारत के लिए उसके पिता ने क्यों नही मारा?
“वॉशिंगटन के हाथ में कुल्हाड़ी थी” विद्या ने कहा
टीचर—तो तुम्हे लगता है की वो अपने पिता के ऊपर वार करते?
विद्या—हाँ ज़रुर, नही तो वो देश के राष्ट्रपति कैसे होते।
टीचर—मतलब?
विद्या—अगर देश पे शासन करना हैं तो तुम्हे भय, निष्ट, काम(sex), दया, इन सबको त्याग करना ही पड़ेगा।
टीचर—तो तुम्हे लगता है तुम आगे चलकर इस देश पे शासन करोगे?
“नही कभी नही” विद्या ने कहा
फिर क्या करोगे विद्या? टीचर ने चिढ़ते हुए पूछा
“मैं बता नही सकता वरना नियति को पता चल जायगा। विद्या ने कहा
कौन नियति तुम किसकी बात कर रहे हो? टीचर ने ध्यान से पूछा
“वोही नियति जो मुझे मेरी आगे की मंजिल पर ले जायेगी” विद्या ने कहा
टीचर अपना माथा पकड़ते हुए बोले… तुम कभी कोई स्पष्ट बात क्यों नही कहते विद्या?
“मैं हमेशा स्पष्ट ही कहता हूँ, आगे वाला इंसान ही उसे समझ नही पाता” विद्या ने सटीक जवाब दिया
“दरअसल नियति उसी टीचर की बेटी थी जो गर्ल्स कॉलेज के हाइ कॉलेज मैं पढ़ती है "
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दरअसल नियति उसी टीचर की बेटी थी जो गर्ल्स कॉलेज के हाइ कॉलेज मैं पढ़ती थी”
यह नियति कैसे विद्या को उसकी मंजिल पर ले जायेगी.. यह तो आगे पता चलेगा…
शाम को गंगा किनारे विद्या किसी का इनतेज़ार कर रहा था… वो काफि देर से एक जगह खड़े होकर अपने दोनों हाथ कमर पर रखकर बड़े ही सान्त मुद्रा में बरगद के पेड़ के नीचे खड़ा था… और मन ही मन फुसफसा रहा था…
“ओम शक्ति नम शक्ति… इसके कर्मो को माफ करना”
की तभी उसके कानो में एक मधुर आवाज़ पड़ी…
“माफ करना मुझे आने में देरी हो गयी, वो क्या है ना मेरे घर पर कुछ रिश्तेदार आ गए थे… मुझे घर से निकलने में देर हो गयी” नियति ने बड़े प्रेम से कहा
नियति दसवीं कक्षा में पढ़ रही थी लेकिन उसका शरीर बाकी लड़कियों से काफि तंदरुस्त था…उसके भड रहे दूध का निखार चोली से साफ दिखाई देता था…उसकी भूरी और नशीली आँखों मैं हर कोई गोते लगाने ko त्यार थे… लेकिन वो वैसे भी किसी को भाव नही देती थी और (दूसरी बात 60 के जमाने में लड़की से तो बात करने का मतलब हैं की तुमने खुलेआम ब्लूफ़िल्म देख ली हो फिर जो ड्रामा होता है वो हम लोग अछि तरह से जानते हैं… )
वो मन ही मन उससे चाहती थी, विद्या के सामने आते ही शर्म के मारे उसके हाथ पाँव फूल जाते थे, उसका गला सुख जाता था, उसकी साँसे फूलने लगती थी… लेकिन यह दोनों कई सालों से रोज शाम को गंगा किनारे मिलते थे… लेकिन हमेशा एक दूसरे को देखकर संतुष्ट हो जाया करते थे…. . शायद यही प्रेम था
(आज के ज़माने का प्रेम तो हम log जानते है… बात बाद मैं लंड पहले चुत मैं घुसता है)
आज विद्या कुछ ज्यादा ही सांत था, उसकी आँखों मैं अजीब सी चमक थी… ऐसा लग रहा हैं की आज उसने कोई जंग जीतली हो… खैर आज पहली बार विद्या ने नियति का कंधा पकडा… (हाथ का स्पर्श होते ही नियति के शरीर मे करेन्ट सा लग गया।वह कांप गयी।उसके शरीर मे गुदगुदी होने लगी…
आज यह पहली बार हुआ था.. फिर भी उसने अपने आपको काबु किया लेकिन अपने आँखों के आनसु नही रोक पायी… उससे बहुत खुशी हो रही थी वो उसके सीने से चिपकना चाहती थी, लेकिन वो ऐसा नही कर पायी…
विद्या ने नियति के कंधो को पकड़ते हुए गमभीर से उसकी आँखों मैं देखते हुए कहा…
“तुम मुझसे कितना प्रेम करती हो?” विद्या ने पूछा
नियति—(हकलाते हुए) अप.. अप… नी… जा… जा… से…
“स्पष्ट रूप से कहो नियति क्या कहना चाहती हो”? विद्या ने धैर खोते हुए कहा
नियति—(उसकी आँखों को देखते हुए कहती है) अपनी जान से ज्यादा
विद्या—इस जान का क्या मोल यह तो तुम्हारी हैं ही नही? आज नही तो कल यह जान तुम्हारा शरीर को छोड़कर चली जायेगी
नियति—आप कहना क्या चाहते है?
विद्या—तुम्हारी शादी तय हो गयी है, तुम कुछ और दिन की मेहमान हो…
नियती—नही नही तुम्हारे इलावा में किसी से शादी नही कर सकती… अगर इस जीवन मैं आप नही मिले तो में इस शरीर को त्याग दूँगी… यह मेरा अटल वचन है…
विद्या—अगर जिंदगी तुम्हारे मताबिक नही चल रही तो तुम्हारे पास 2 रास्ते होते है।
एक-- तुम्हे जिंदगी से समझोता करके आगे की जिंदगी जीना होगा।
और दूसरा—तुम्हे जिंदगी को मजबूर कर देना है की वो तुम्हारी सुने।
अपने प्राण देने से कुछ नही होगा… .
नियती—लेकिन में जिंदगी को कैसे मजबूर कर सकती हूँ, मेरे बस मैं है ही क्या?
विद्या—बस में बहुत कुछ है, बस समय आने पर धीरता से काम लेना होगा अपनी बुद्धि का प्रायोग करना होगा।
नियती—मुझे तुम्हारी कोई बात समझ नही आ रही है…क्यू ना अभी हम कहीं भाग चले…
विद्या—में अभी सक्षम नही हूँ तुमसे शादी करने को… अभी तो मैंने हाईकॉलेज भी पास नही किया है… मुझे कामयाब होने मैं कुछ साल लगेंगे… और तब तक तुम मेरा इनतेज़ार नही कर पाऊँगी… अब तुम्हारा समय आ चुका है की तुम कहीं और शादी करलो…
विद्या की बाते सुन नियति रोने लगी…उसे रोता देख विद्या ने भी कुछ नही कहा…
कुछ देर बाद नियती ने कहा कोई और उपाय तो होगा…
विद्या—अभी तो मुझे कोई उपाय समझ नही आ राहा है… लेकिन देखते है मेरी नियती मेरे लिए क्या कर सकती है
“मैं कुछ भी कर सकती हूँ” नियती ने कहा
यह सुन विद्या अठास करते हुए हसने लगा…और कहा देखते है कौन सी नियती कौनसा खेल खेलती है… (यह कहते वक्त उसके आँखों में एक जीत नज़र आ रही थी)
ऐसा क्या बोल रहा था जो खुद नियती(समय) और खुद की नियती(लड़की) नही समझ पा रही थी…
(दोस्तों यह अपडेट कुछ कन्फ्यूजइंग सा लगेगा लेकिन कुछ देर में समझ आ जायेगा)
फिर उसने नियती को देखते हुए कहा “अब तुम अपने घर जाओ कल देखते है क्या होगा”
नियती उसकी बात सुन घर चली जाती है…
(अब देखते है अगली सुबह का सूरज क्या रंग लाता है… सुनहरा या काला?)
रात को बनारस के मणिकरणीका घाट पर शांती पसरी हुई थी… ऐसी शांती जो तूफ़ान के आने से पहले होती है…
सुबह 4 बजे नियती के घर पर कुछ लोगों की दस्तक हुई.. कुछ लोग बड़े ही बेरहमी से दरवाज़ा पीट रहे थे… आवाज़ सुनकर नियती की माँ ने डरते हुए दरवाज़ा खोला… उस शोर से नियती भी उठ गयी…
दरवाज़ा खुलते ही 4 लोग अंदर आये और आँखों मैं आनसु लाते हुए कहा “पंडितायान। मास्टर साहब मर गए।।।। उनकी लाश बरगद के पेड़ पे उल्टी टंगी है।। उन्हे किसी ने मारकर पेड़ पर उल्टा टांग दिया है।
इतना सुन नियती की माँ बेहोश हो गयी और नियती को तो कुछ समझ ही नही आ राहा था की यह सब क्या बोल रहे है… वो घाट की तरफ भागने लगी, कुछ देर बाद वहाँ जाकर देखा तो उसके होश उड़ गए… वहाँ दूर पेड़ पर उसके बाप की लाश उल्टी टंगी हुई थी….
वो देख जोर से चिल्लायी “बाबा…….”
नियती के पिताजी की हत्या हो चुकी थी, सब लोग आतंकित थे की कौन एक सीधे साधे मास्टर साहब को मार देगा वो भी इतनी बेरहमी से।
पूरे बनारस में बात आग की तरह फैल गयी, सब लोग चोंक रहे थे की कोई क्यों इन्हे मारेगा। बात फैलते फैलते विद्या सागर के घर भी पहुँच गई… विद्यासागर के पिता हड्भडकर घाट की तरफ जाने लगे की तभी उन्होंने अपने बेटे से कहा…
“तु भी चल, आखरी बार तु भी उनके दर्शन करले… पता नही किस पापी ने उनकी हत्या कर दी है?”
विद्या—“देखना क्या है… जो भी इस धरती पर आया है सबको एक ना एक दिन मरना ही है। चलो एक और इंसान के श्राद्ध मैं खीर पूरी खाने को मिल जायेगी।
इतना सुन उन्हे क्रोध आ गया और कहने लगे….
पिता—“यह कैसी मूर्खता वाली बाते कर रहे हो?”
तुम्हे पता है ना वो तुम्हारे गुरु है। अगर तुम उनकी इज्जत नही करते तो ना करो कम से कम मृत्यु के समय उनके परिवार के साथ खड़े रहो।
मुझे शर्म आती है की तुम जैसा राक्षस मेरे घर में पैदा हुआ है। अब चलता है या उठाऊँ चप्पल?
विद्या—चुपचाप पिता के साथ चल देता है।
कुछ ही देर मैं दोनों घाट पर पहुँच जाते हैं… वहाँ का नजारा देख कर तो विद्या के पिता के हाथ पाँव ही फूल गए और ना चाहकर भी उनका गला भर आया। और इधर विद्यासागर की आँखे नियती को ढूँढने लगी।
कुछ ही देर में उसे नियती दिखाई दी… वो बरगद के पेड़ के पास बैठ कर बुरी तरह से रोये जा रही थी…
विद्या की हिम्मत नही हुई की उसके सामने जाये, वो bas वही खड़े होकर तमाशा देख रहा था। कुछ देर बाद सिक्युरिटी आयी और नियती के पिता की लाश पेड़ से उतारकर पोस्टमार्टम के लिए भेज दिया।
सब जगह एक खौफ का माहोल था। किसी को यह अंदाज़ा नही था की बनारस के पवित्र घाट पे भी किसी की हत्या हो सकती है। लेकिन होनी को कौन टाल सकता है…
कुछ दिन इसी की चर्चा रही और फिर लोग अपने अपने काम में व्यस्त होने लगे… इधर सिक्युरिटी ने बहुत छानबीन करी लेकिन कोई nispaksh समाधान नही मिला। कुछ ही दिनो में मामला ठंडा पड़ गया। और सिक्युरिटी अपने दुसरे काम में व्यस्त हो गयी और वो मर्डर case अनसुलझा ही रह गया….
इस बात को आज 2 महीने हो चुके थे, लेकिन विद्यासागर और नियती की मुलाकात नही हुई थी। नियती एक बार तो विद्या से मिलना चाहती थी, लेकिन कोइ मौका नही मिल रहा था।
अगले दिन नियती के घर पर किसी की दस्तक हुई। नियती ने दरवाज़ा खोला तो सामने विद्यासागर था… विद्या ने उसको देखते ही कहा मुझे पिताजी ने भेजा है आज घाट पर आपके पिताजी के आत्म की शांति के लिए पूजा करना है…
नियती उसकी बेखौफ बाते सुनकर थोड़ा अचम्भा तो हुआ… लेकिन फिर भी उसने उसे कुछ नही कहा और अपनी माँ को आवाज़ लगाई… कुछ ही देर में उसकी माँ आ गयी….
नियती की माँ को देखते ही विद्या ने नमस्कार किया और अपनी आने की वजह बताई…
“अच्छा बेटा लेकिन में तो घाट पे जा नही सकती, तुम ऐसा करो नियती को साथ ले जाओ” माँ ने रोती आवाज़ में कहा…
“जी जैसी आपकी मर्ज़ी” विद्या ने हा में सर हिलाया
दोनों मणिकरणीका घाट पर शिव जी के मंदिर मैं पूजा सम्पन्न करा रहे थे… पूजा समपत् होने के बाद पंडित ने कहा अब यह फल और फूल गंगा नदी में चडा देना और उनकी आत्मा की शांति की मनोकामना मांग लेना…
दोनों नदी के पास जाकर आखरी पूजा सम्पन्न की और वहाँ खड़े होकर नियती ने गंगा जल हाथ में लेते हुए विद्या से पूछा…. ..
नियती—क्यों मारा मेरे पिताजी को?
विद्या—(उसकी तरफ ना देखते हुए कहा) वो मेरे और तुम्हारे जिंदगी के बीच खड़े थे… किसी न किसी को हटना ही था…
भगवान की कृपा से तुम्हारे पिताजी हट गए अब वो कभी हमारे रास्ते मैं नही आ सकते…
नियती—(रोते हुए) तुम ऐसे कैसे कर सकते हो?
मैंने तुमसे प्यार किया था… सच्चा प्यार और तुमने इस प्यार की बुनियाद मेरे पिता की हत्या से रखी है… तुम इंसान हो या हैवान?
विद्या—उस दिन तुमने ही कहा था की में कुछ भी कर सकती हूँ
नियती—हाँ हाँ कहा था, मैं तुम्हारे साथ जिंदगी बिताना चाहती थी… लेकिन अपने बाप के हत्या के कातिल के साथ नही…
विद्या—मैंने उस दिन तुम्हे स्पष्ट रूप से कह दिया था की “समय आने पर धीरता से काम लेना होगा अपनी बुद्धि का प्रायोग करना होगा”
नियती—मैंने ऐसा ही किया है… उस दिन से मैंने अपनी बुद्धि का प्रायोग किया है तभी तो सिक्युरिटी तुम्हारे घर तक नही पहुँच पायी… में चाहती तो तुम्हे कब की हत्या के आरोप में जेल करवा सकती थी… लेकिन मुझे पता नही की में क्यों ऐसे नही कर पायी…
शायद मैं तुमसे अब भी प्यार करती हूँ…लेकिन यह कैसा प्यार है.. कैसा प्रेम है… कैसी चाहत है?
जो अपने बाप की बलि देने को भी त्यार हो गयी… मुझे इस प्यार से घृणा हो गयी है विद्या… जो इतनी छोटी उम्र में इतना भयनाक काम करवा दिया…
क्या मेरा प्रेम इतना कमजोर है जो अपनो के प्रति ना होकर एक पराये मर्द के लिए है?
विद्या—(नियती को देखते हुए कहता है)
प्रेम या प्यार यह एक समाजीक शब्द है… समाज ने प्रेम की एक मन घड़ंत कहानी बनाई है जैसे की… .
प्यार या प्रेम एक एहसास है। जो दिमाग से नहीं दिल से होता है प्यार अनेक भावनाओं जिनमें अलग अलग विचारो का समावेश होता है!,प्रेम स्नेह से लेकर खुशी की ओर धीरे धीरे अग्रसर करता है। ये एक मज़बूत आकर्षण और निजी जुड़ाव की भावना जो सब भूलकर उसके साथ जाने को प्रेरित करती है। ... यह प्यार एक दूसरे से जुड़े होने के लिए कुछ भी करा सकता है…
मैंने भी यही किया है…प्रेम हम लोगो की ताकत होनी चाहिए कमजोरी नही… में तुमसे प्रेम करता हूँ और तुम्हे पाने के लिए में खुद भगवान से भी भिड जाऊंगा…
इस वक्त मुझे अपने प्यार से अलग नही होना था…में नही चाहता था की मेरी नियती किसी और की होके रह जाये…
विद्या की बाते सुन नियती मन ही मन खुश होती है… अपने आपको इस दुनिया की भाग्शाली समझने लगती है… फिर भी उसने अपने मन को नियत्रन करके पूछा…
नियती—ऐसी क्या ताकत होती है प्रेम मैं?
विद्या—प्रेम मैं वो ताकत है जिसके बल पर हम एक दूसरे की मदत हमेशा के लिए करते रहेंगे…
जैसे आज मैंने तुम्हारी की है… तुम्हें खोने के डर से मैंने कठोर कदम उठाया… अगर कल मुझपे कोई दिक्कत आये तो तुम्हे भी कोई न कोई कठोर कदम उठाना पड़ेगा… .
नियती—(आत्मविश्वास से) में तुम्हारे साथ हमेशा रहूँगी…मरते दम तक तुम्हारा साथ नही छोड़ऊँगी….. और…
विद्या बीच में बोल पड़ा…
नियती मुझे लगता है हमे यहाँ से अभी निकलना है… लगता है कोई हमारी बाते सुन रहा है… अब हम लोग कॉलेज के पीछे ही मिला करेंगे
इतना कहकर विद्या नियती को साथ लेकर घर की तरफ चलने लगता है… ..
कौन था जो इन दोनों की बाते सुन रहा था? ऐसा क्या देख लिया था विद्या ने? ये देखीये अगले अपडेट मैं… .
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