Thread Rating:
  • 0 Vote(s) - 0 Average
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
जिनके उपन्यास पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी ब्लैक में बिका करते थे
#1
 जिनके उपन्यास पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी ब्लैक में बिका करते थे





इब्ने सफी



(मूल नाम असरार अहमद)





Namaskar Namaskar Namaskar
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
Do not mention / post any under age /rape content. If found Please use REPORT button.
#2
अंग्रेजी की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी इब्ने सफी को भारतीय उपमहाद्वीप का अकेला मौलिक लेखक मानती थीं










congrats
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#3
मैं जो कुछ पेश कर रहा हूं उसे किसी अदब से कमतर नहीं समझता. हो सकता है कि मेरी किताबें अलमारियों की जीनत न बनती हों लेकिन तकियों के नीचे जरूर मिलेंगी. हर किताब बार-बार पढ़ी जाती है. मैंने अपने लिए ऐसे माध्यम का इन्तखाब (चयन) किया है जिससे मेरे विचार ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचें’ जासूसी उपन्यास लिखने की वजह बताते हुए इब्ने सफी यही कहते थे. दरअसल उस दौर में (1950 से लेकर 1980 तक) जासूसी कथा लेखन की साहित्य में कोई खास प्रतिष्ठा नहीं थी. यह अलग बात है कि इब्ने सफी की वजह से जासूसी लेखन भारतीय उपमहाद्वीप में सबसे ज्यादा पढ़ी जानी वाली साहित्यिक विधा थी.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#4
उस दौर में इब्ने सफी अकेले ऐसे लेखक थे जिन्हें पढ़ने के लिए पाठक किताबें ब्लैक में खरीदते थे. 26 जुलाई,1928 को इलाहाबाद में जन्मे सफी 1952 में पाकिस्तान चले गए थे. इस समय वे जासूसी कथा लेखन में तेजी से पहचान बना रहे थे. पाकिस्तान में रहते हुए कुछ ही सालों के दौरान वे भारतीय प्रायद्वीप में जासूसी लेखन का सबसे बड़ा नाम बन गए. तब उनके हर उपन्यास का पाकिस्तान में ही नहीं बल्कि भारत में भी बेसब्री से इंतजार किया जाता था.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#5
बाद में यह भी हुआ कि इब्ने सफी के उपन्यासों के मुरीद यूरोप में भी पैदा हो गए. यहां तक कि अंग्रेजी के साहित्यकार भी उनके नाम-काम से परिचित होने लगे. अंग्रेजी भाषा की प्रसिद्ध लेखिका अगाथा क्रिस्टी का उनके बारे में कहना था, ‘मुझे भारतीय उपमहाद्वीप में लिखे जाने वाले जासूसी उपन्यासों के बारे में पता है. मैं उर्दू नहीं जानती लेकिन मुझे पता है कि वहां एक ही मौलिक लेखक है और वो है – इब्ने सफी.’ हालांकि इब्ने सफी अपने कुछ शुरुआती उपन्यासों को मौलिक नहीं मानते थे. उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे थे और खुद उनके मुताबिक इनमें से 8-10 की आत्मा (कहानी) यूरोपीय उपन्यासों से उधार ली गई थी लेकिन जिस्म देसी मिट्टी से बना था....
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#6
यह बड़ी दिलचस्प बात है कि इब्ने सफी का झुकाव जब लेखन की तरफ हुआ तो वे जासूसी कथा लेखक नहीं बनना चाहते थे. वे कविताएं और गजल लिखा करते थे और बतौर शायर पहचान बनाना चाहते थे. जासूसी लेखन की शुरुआत उनके लिए बड़े अजब ढंग से हुई. बकौल सफी एकबार उन्होंने अपने एक दोस्त से कहा कि बिना सेक्स को विषय बनाए भी ऐसी किताबें लिखी जा सकती हैं जो लाखों की संख्या में बिकें. इस दोस्त ने बातों ही बातों में सफी को चुनौती दे दी कि यदि ऐसा है तो वे ही कुछ ऐसी किताब लिखकर बताएं. इब्ने सफी ने इस चुनौती को दिल से स्वीकारा और बनी-बनाई शायर वाली पहचान किनारे रखते हुए जासूसी उपन्यासों की दुनिया में चले आए. इब्ने सफी की आज तक जारी लोकप्रियता बताती है कि उन्होंने इस चुनौती को किस गंभीरता से लिया था.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#7
उनका पहला उपन्यास ‘दिलेर मुजरिम’ 1952 में आया था और कहते हैं कि इस पहले उपन्यास के साथ ही उन्होंने तमाम आम-ओ-खास पाठकों को अपनी लेखनी का कायल बना लिया था. इसके बाद फिर उनके उपन्यासों का जो सिलसिला शुरू हुआ तो आगे कई सालों तक उनका हर उपन्यास पिछले से ज्यादा बिका. इब्ने सफी अकेले लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में चंद्रकांता संतति से होड़ ली थी और जो गोपाल राम गहमरी की जासूसी उपन्यासों की परंपरा को बड़ी शानो-शौकत से आगे बढ़ा रहा था.

इब्ने सफी से पहले जासूसी साहित्य के नाम पर जो कुछ भी चलता आया था उसका कुल जमा सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन था. वह चाहे चन्द्रकान्ता संतति हो या फिर गहमरी जी के उपन्यास, उनमें कोई बड़े उद्देश्य नहीं छिपे थे. लेकिन इब्ने सफी के लेखन में यह बात खूब दिखती थी. देशप्रेम और काले कारनामों की हार को दिखाना उनके जासूसी उपन्यासों का एक अहम मकसद रहा. इसके अलावा दूसरे लोकप्रिय और ठेठ देसी उपन्यासों से इतर सफी के उपन्यास कहानी के कसे हुए प्लॉट, मनोविज्ञान की गहरी पकड़ और भाषाई रवानगी के मामलों में कहीं बेहतर थे.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#8
इब्ने सफी का रचनाकाल 1952 से 1980 का वह समय था जो हमारे देश या फिर पाकिस्तान के लिए भी सामाजिक-राजनैतिक दृष्टियों से बड़ा ही उथल-पुथल का समय था. विभाजन की त्रासदी से दोनों तरफ के समाज प्रभावित हुए थे. भारी उम्मीदों के साथ सरकारें बनीं और वे नाकामयाब होते हुए भी दिख रही थीं. सफी भारत में पैदा हुए थे लेकिन अब पाकिस्तान में रह रहे थे. और जैसा कि उनका मकसद था- अपने लेखन की लोकप्रियता बरकरार रखना, इसके लिए वे अपनी कहानियों को किसी सरहद से बांटना नहीं चाहते थे. उनके उपन्यासों में वर्णित तमाम जगहों के नाम काल्पनिक थे और इसलिए वे किसी एक देश की संपत्ति नहीं हुए. उनके पात्र जब एक देश से दूसरे देश जाते तो उसकी मिट्टी में रंग जाते. जैसे उनकी कहानियां जब भारत में प्रकाशित होतीं तो जासूस इमरान जासूस विनोद बन जाता और दूसरे जरूरी पात्रों का भी ऐसे ही धर्मांतरण हो जाता था.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#9
इब्ने सफी 1952 में पाकिस्तान चले गये थे लेकिन वे 1947 में पाकिस्तान न जाकर पांच साल बाद क्यूं गए, इसबारे में कोई ठोस जानकारी कहीं नहीं मिलती. हालांकि वे वहां जाकर भी भारतीयों के तकियों ने नीचे पाए जाते रहे. उनके उपन्यासों में जोड़ीदार जासूस (एक मुख्य जासूस और दूसरा उसका सहायक) जैसे फरीदी और हमीद या कासिम और इमरान जैसे किरदार थे और माना जाता है कि साहित्य में जोड़ीदार किरदार की यह परंपरा उन्होंने ही शुरू की थी.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#10
इब्ने सफी की रचनाओं का संसार जितना रहस्यमय था उतना ही हैरतंगेज भी था. यहां जासूसी कथाओं के साथ साइंस फिक्शन की शुरुआत भी मिलती है. इन कहानियों में कुछ ऐसे कल्पित मनुष्य हैं जो जेब्रा की तरह धारीदार हैं, और जिनमें हाथियों से ज्यादा बल है. यहां कुछ ऐसे पक्षी भी हैं जिनकी आंखों में कैमरे फिट हैं. मशीनों से नियंत्रित होनेवाले कृत्रिम तूफ़ान भी यहां आते हैं. इन सब के साथ खास सांचे में ढले चरित्र भी यहीं हैं. किरदारों के मनोविज्ञान पर इब्ने सफी की इतनी मजबूत पकड़ हुआ करती थी कि पाठक के दिलो-दिमाग में खलनायक भी एक खास जगह बना लेते थे.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#11
जासूसी कहानियों में अक्सर कुछ विचित्र संयोग भी हुआ करते हैं. आम लोगों के साथ शायद ही ऐसा होता हो लेकिन एक अजब संयोग इब्ने सफी के साथ भी जुड़ा हुआ है. 1980 में आज के ही दिन उनकी मृत्यु हुई थी यानी उनका जन्मदिन और पुण्यतिथि एक ही दिन है. इब्ने सफी जैसे-जैसे लोकप्रिय होते गए उनके ऊपर लुगदी साहित्यकार का तमगा चिपकता गया. हालांकि वे ऐसी किसी छवि से न कभी परेशान हुए और न ही उन्होंने अपने लिखने का क्रम तोड़ा. उन्होंने तकरीबन 250 उपन्यास लिखे हैं और इनमें हर दूसरे उपन्यास को पहले से बेहतर करने की कोशिश साफ दिखती है. शायद यही वजह है कि वक़्त की तहों से निकलकर उनकी कहानियां आज फिर ज़िंदा हुई हैं. जानेमाने विश्विद्यालयों में विद्यार्थी उनकी किताबों को शोध का विषय बना रहे हैं. वहीं हाल ही में हार्पर कॉलिन्स ने उनकी 13 किताबें पुनर्प्रकाशित की हैं. इब्ने सफी चाहते थे कि वे ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचे और इस समय उनके उपन्यासों की तरफ पाठकों की बढ़ती रुचि उनके इसी सपने को असलियत में बदल रही है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#12
[Image: dnnkcfpvwp-1469486831.jpg]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#13
(06-08-2020, 12:12 PM)neerathemall Wrote:
 जिनके उपन्यास पाकिस्तान में ही नहीं भारत में भी ब्लैक में बिका करते थे





इब्ने सफी









Namaskar Namaskar Namaskar

(06-08-2020, 12:15 PM)neerathemall Wrote: [Image: dnnkcfpvwp-1469486831.jpg]

cool2 cool2 cool2
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply
#14
[b]इब्ने सफी अकेले लेखक रहे जिसने उस दौर में लोकप्रियता के मामले में चंद्रकांता संतति से होड़ ली थी और साथ ही जो गोपाल दास गहमरी की जासूसी उपन्यासों की परंपरा को बड़ी शानो-शौकत से आगे बढ़ा रहा था[/b]
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#15
इब्ने सफी : रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#16
इब्ने सफी ने 1952 से 1979 तक कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#17
अगर आप समझते हैं 'सांबर' दक्षिण भारतीयों की देन है..तो एक बार फिर से सोच लें
PrevNext
होमसंस्कृति
इब्ने सफी : रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह
इब्ने सफी ने 1952 से 1979 तक कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं
Updated On: Jul 26, 2017 11:04 AM IST
Nazim Naqvi
0
इब्ने सफी : रहस्यमयी और रोमांचक कथाओं का बादशाह
क्या आपने इब्ने सफी का उपन्यास ‘कुंए का राज’ पढ़ा है? इस कहानी में आपको कई दिलचस्प किरदार मिल जाएंगे. तारिक जिसकी आंखें खतरनाक थीं (कहानी के बीच में पता चलता है कि दरअसल वो सांप के जहर का नशा करता है), जिसके पास एक अजीबोगरीब नेवला था जो पल भर में बड़े से बड़े शहतीर काट कर फेंक देता था.

परवेज- एक चालीस साल का बच्चा जो घुटनों के बल चलता था, बोतल से दूध पीता था और नौकर उसे गोद में उठाए फिरते थे. वो इमारत जिसकी दीवारों से दरिंदे जानवरों की आवाजें आती थीं. वो कुआं जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं. क्या कहा, आपने नहीं पढ़ा? तो हम ये कह सकते हैं की आपसे कुछ ऐसा छूट गया है जो बेशकीमती था.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 2 users Like neerathemall's post
Like Reply
#18
लगभग तीन दशक में बिना दोहराए 126 उपन्यास लिखे

इब्ने सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते थे. उनका पहला उपन्यास था ‘दिलेर मुजरिम’ जो साल 1952 में प्रकाशित हुआ. इसी साल उनके 10 और उपन्यास आए. 1952 से 1979 तक उन्होंने कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं. शुरूआती लेखन में उनके ऊपर अंग्रेजी नॉवेलों का असर रहा लेकिन जल्दी ही उनका कथानक पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिवेश में रच और बस गया. फिर उपन्यास में उन्होंने ऐसे नायाब प्रयोग किये जो आज भी अनूठे हैं
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#19
.
क्या आपने इब्ने सफी का उपन्यास ‘कुंए का राज’ पढ़ा है? इस कहानी में आपको कई दिलचस्प किरदार मिल जाएंगे. तारिक जिसकी आंखें खतरनाक थीं (कहानी के बीच में पता चलता है कि दरअसल वो सांप के जहर का नशा करता है), जिसके पास एक अजीबोगरीब नेवला था जो पल भर में बड़े से बड़े शहतीर काट कर फेंक देता था.

परवेज- एक चालीस साल का बच्चा जो घुटनों के बल चलता था, बोतल से दूध पीता था और नौकर उसे गोद में उठाए फिरते थे. वो इमारत जिसकी दीवारों से दरिंदे जानवरों की आवाजें आती थीं. वो कुआं जिससे अंगारों की बौछारें निकलती थीं. क्या कहा, आपने नहीं पढ़ा? तो हम ये कह सकते हैं की आपसे कुछ ऐसा छूट गया है जो बेशकीमती था.

लगभग तीन दशक में बिना दोहराए 126 उपन्यास लिखे

इब्ने सफी हर महीने एक नॉवेल लिखते थे. उनका पहला उपन्यास था ‘दिलेर मुजरिम’ जो साल 1952 में प्रकाशित हुआ. इसी साल उनके 10 और उपन्यास आए. 1952 से 1979 तक उन्होंने कुल 126 उपन्यास लिखे लेकिन अपने आपको कभी दोहराया नहीं. शुरूआती लेखन में उनके ऊपर अंग्रेजी नॉवेलों का असर रहा लेकिन जल्दी ही उनका कथानक पूरी तरह से हिंदुस्तानी परिवेश में रच और बस गया. फिर उपन्यास में उन्होंने ऐसे नायाब प्रयोग किये जो आज भी अनूठे हैं.

/

ये लेखक इब्ने सफी का इसलिए हमेशा ऋणी रहेगा क्योंकि उसका ये निश्चित मानना है कि अगर जासूसी दुनिया पढ़ने के लिए उसमें दीवानगी न पैदा हुई होती तो उसका उर्दू सीखना नामुमकिन था. पहले बड़ी बहनों से जासूसी दुनिया को सुनना फिर हिज्जे लगा-लगाकर उन्हें अकेले में पढ़ना. ये तो लेखक को बहुत बाद में आभास हुआ कि किसी भाषा को तभी आत्मसात किया जा सकता है जब उस भाषा के सहारे आप अपनी कल्पनाओं में गोते लगाने लगें.

इब्ने सफी का नाम था असरार अहमद और इलाहाबाद जिले के नारा कस्बे में 26 जुलाई, 1928 को उनका जन्म हुआ था. उस जमाने में बीए पास करना एक उपलब्धि हुआ करती थी (उन्होंने आगरा विश्वविद्द्यालय से बीए पास किया) शायद इसीलिए वो हमेशा ‘इब्ने सफी बीए’ लिखा करते थे. हालांकि शुरुआती दिनों में उन्होंने ‘असरार नारवी’, ‘सनकी सोल्जर’ और ‘तुगरल फुरगान’ नाम से भी उर्दू पत्रिका निकहत के लिए लिखा जो इलाहाबाद से निकलती थी.

असरार अहमद यानी इब्ने सफी बाद में पकिस्तान चले गए लेकिन निकहत पब्लिकेशन से उनका अनुबंध बना रहा और उनके उपन्यास हिन्दुस्तानी पाठकों तक हर महीने पहुंचते रहे. ये उपन्यास मूलतः उर्दू में छपते थे जिनका हिंदी अनुवाद प्रेम प्रकाश करते थे. उन्होंने इब्ने सफी के जासूसों के नाम हिंदी पाठकों के लिए गढ़ लिए थे.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 1 user Likes neerathemall's post
Like Reply
#20
कर्नल फरीद हिंदी में कर्नल विनोद हो गए और इमरान की जगह राजेश का बोलबाला हो गया. उनके एक और बहुत रोचक किरदार कैप्टन हमीद हिंदी में भी हमीद ही रहे. कर्नल विनोद और कैप्टन हमीद की जोड़ी ने हिंदी पाठकों के दिल में वो जगह बनाई जो आज भी अमिट है.
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
[+] 2 users Like neerathemall's post
Like Reply




Users browsing this thread: 1 Guest(s)