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पुरानी हिन्दी की मशहूर कहनियाँ
banana  हवसनामा: जवानी की भूख banana



Heart banana banana Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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मैं अपने बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दे सकता क्योंकि उससे मेरी व्यक्तिगत पहचान जाहिर हो सकती है, जो मैं किसी कीमत पर नहीं चाहता। बस थोड़ी बहुत जरूरी चीजें बताये दे रहा हूं कि उम्र में पचास पार हो चुका हूँ। केन्द्र सरकार के आधीन एक अधिकारी हूँ और दिल्ली में ही नियुक्त हूँ जो कि मेरा होमटाउन भी है। दिखने में न बहुत अच्छा ही कहा जा सकता हूँ और न ही खराब।

पुराने जमाने के अमीरों में से हूँ तो शानदार घर है और पहले तो काफी नौकर चाकर भी होते थे जब पूरा परिवार साथ होता था लेकिन मैंने एक जरूरी नौकर को छोड़ सभी को हटा दिया है, क्योंकि मैं अकेला हूँ.
एक खाना बनाने वाली है जो सुबह शाम आती है और खाना बना जाती है। बाकी साफ सफाई खेम सिंह देख लेता है जो शुरू से हमारे पास है। एक माली सप्ताह में एक बार आता है और लॉन आदि में रखे पौधों की देखभाल कर जाता है।

अब आते हैं इस मुद्दे पर कि मैं अकेला क्यों हूँ… दो साल पीछे तक इसी घर में पत्नी वीणा भी रहती थी और बेटा बेटी आर्यन और सोनिया भी। फिर कुछ ऐसा हुआ कि सब बिखर गया। यह सब बताने की नौबत भी इसलिये आई कि मैं किसी को कभी वह सब बातें बता ही नहीं पाया … आखिर मर्द था, और कदम कदम पे हार थी तो कहता भी किससे? यहां पहचान छुपा कर कह सकता हूँ तो मन का बोझ हल्का कर रहा हूं।

संसार में तरह-तरह के लोग हैं और ज्यादातर एक मर्द या एक औरत के रूप में संपूर्ण ही हैं लेकिन सभी संपूर्ण नहीं हैं। कुछ में कमियां भी रह जाती हैं … यह हार्मोनल असंतुलन के कारण होता है। जिसे साधारण पैमाने पर कहा जाये तो यूँ समझिये कि संभोग के लिये लगभग सभी योग्य होते हैं लेकिन मिजाजन कुछ पुरुष और स्त्री इस मामले में अति सक्रिय होते हैं, वहीं कुछ स्त्री पुरुष इस मामले में बेहद ठंडे होते हैं और इस ठंडेपन की शिकार ज्यादातर औरतें होती हैं, जिसका एक या मुख्य कारण शायद सामाजिक पालन पोषण होता हो… लेकिन कुछ पुरुष भी उसी तरह ठंडे स्वभाव के होते हैं, भले उनकी संख्या बेहद कम हो।

दुर्भाग्य से ऐसा ही एक पुरुष मैं हूँ। पच्चीस की उम्र में मेरी वीणा से शादी हुई थी, उससे पहले इस चीज की तरफ तो मेरा कभी ध्यान ही नहीं गया था। ऐसा नहीं था कि मुझमें कोई शारीरिक कमी थी। भरपूर मर्दाना बदन था, लिंग भी सामान्य पुरुष की तरह उत्तेजित और स्तंभन के पश्चात स्खलित होता था। किसी किस्म का कोई समलैंगिक आकर्षण भी नहीं था। बस सेक्सुअल हार्मोन्स अति सक्रिय नहीं थे बल्कि कहा जाये तो बहुत स्लो थे… सेक्स में मेरी दिलचस्पी बेहद कम थी।

कोई नारी शरीर मुझे उतना नहीं उत्तेजित करता था जितना बाकियों को। मैं साथी लड़कों के साथ मस्तराम वाला साहित्य भी पढ़ता था और ब्लू फिल्मों को भी देख लेता था लेकिन मैंने हमेशा महसूस किया कि उन्हें ले कर मुझमें वह रोमांच नहीं पैदा होता था जो बाकियों में होता था। वह सब मुझे उतना रूचिकर नहीं लगता था जितना साथ के दूसरे लड़कों को, या उस युवावस्था में लगना चाहिये था।

जबकि वीणा का स्वभाव बेहद उलट था… उसके सेक्सुअल हार्मोन्स आति सक्रिय थे; वह बेहद गर्म तबीयत की युवती थी। शादी के शुरुआती दौर में ऐसा लगता था जैसे उस पर चौबीस घंटे सेक्स का भूत सवार रहता हो। वह चाहती थी कि हम दिन रात सेक्स करें लेकिन मैं उस मिजाज का था ही नहीं। मैं बमुश्किल शुरु में दिन में एक बार और थोड़ा वक्त गुजरते ही हफ्ते में दो तीन बार तक ही कर पाता था।

यह उसके लिहाज से ऊंट के मुंह में जीरे जैसी स्थिति थी। शुरू में वह बर्दाश्त करती रही लेकिन फिर आगे चल कर यही अभाव चिड़चिड़ाहट में बदल गया और हममें इस बात को ले कर झगड़े होने लगे।

मेरे अंदर के मर्द को जगाने, उकसाने के लिये वह अपनी हास्टल लाईफ की कहानियाँ सुनाने लगी कि वह कितना और कैसे-कैसे सेक्स करती थी और एक मैं हूं। यह मेरे लिये शर्मिंदगी की बात थी कि मेरी पत्नी को इतने लोग पहले ही भोग चुके थे और मुझे इस बात पे गुस्सा आना चाहिये था लेकिन अपनी कमजोरी के चलते मैं वह गुस्सा भी पी जाता था। मैंने दवा इलाज करने की कोशिश की… उनका थोड़ा असर तो होता लेकिन अब इसके लिये जिंदगी भर भी दवायें तो नहीं खाई जा सकती थीं।

तो चार दिन की चांदनी होती और फिर अंधेरी रात वाली नौबत आ जाती।

इसी तरह लड़ते झगड़ते दो साल गुजर गये और उसने आर्यन और सोनिया के रूप में दो जुड़वां बच्चों को जन्म दिया। मैं खुश था कि इस बहाने उसका मिजाज बदलेगा। बच्चे दो काफी थे, मैंने अपना आप्रेशन भी करवा लिया।

अगले चार-पांच साल स्थिति थोड़ी सामान्य रही। एक साथ दो बच्चों की जिम्मेदारी में उलझे रहना ही उसे थका देता था और जितनी ऊर्जा फिर सेक्स के लिये बचती थी, उससे मैं निपट सकता था।

लेकिन जैसे ही बच्चे थोड़ा बड़े हुए, जिम्मेदारियाँ कम हुईं और उसे वक्त मिलने लगा… वह धीरे-धीरे फिर उसी आक्रामक रूप में आने लगी जिसे संभाल पाना एक मर्द के तौर पर मेरे बस से बाहर था।

मैंने जानबूझकर अपना तबादला दक्षिण भारत में करा लिया। मुझे अंदाजा था कि उसे साउथ का रहन सहन, खान पान पसंद नहीं था और वह शायद ही वहां जाना पसंद करे। वही हुआ… या शायद इसकी वजह मुझसे आजादी थी जो उसे चाहिये थी। मैं करीब बारह साल बाहर रहा और दो तीन महीने में हफ्ते भर के लिये घर आता था लेकिन उसे शिकायत नहीं होती थी।

क्यों नहीं होती थी, यह तब पता चला जब वापस मेरा तबादला दिल्ली हुआ।

उसने न सिर्फ उच्च सोसायटी में ही कई यार बना लिये थे बल्कि घर का ड्राइवर तक उसके काम आ रहा था। मुझे यह बातें इधर-उधर से पता चलीं थीं लेकिन मैंने पूछा तो उसने बड़ी आसानी से स्वीकार कर लिया। तब तक बच्चे बोर्डिंग के लायक हो चुके थे तो उन्हें देहरादून डाल दिया था और अब हम मियाँ बीवी अकेले ही रहते थे। मुझे लगा था कि वक्त के साथ उसकी भूख कमजोर पड़ जायेगी लेकिन यहां तो लक्षण उल्टे ही थे।

अब वह बेखौफ हो चुकी थी और मेरे होने की परवाह भी नहीं करती थी। मैंने भी उसकी परवाह करनी छोड़ दी थी। थोड़ा बच्चों में मन लगाने की कोशिश करता जो कभी कभार हम ले आते थे… अक्सर मैं ही उनके पास चला जाता था।

धीरे-धीरे बच्चों की बोर्डिंग की पढ़ाई पूरी हो गयी तो वे दिल्ली लौट आये। आगे वे इंग्लैंड जाना चाहते थे… मुझे एतराज नहीं था और उसे भी क्यों होता। उन्होंने अपनी कोशिशों से वहां एडमिशन ले लिया।

लेकिन उसी बीच वह घटना घट गयी… सभी घर पे थे लेकिन अचानक बेडरूम में छोटी सी बात से शुरू हुआ झगड़ा इतना विकराल हो गया कि सारा अतीत हम दोनों ने उधेड़ दिया। लड़ाई की आवाजें बाहर बच्चों ने भी सुनी थीं। झगड़े के बाद वह खुद कार ले कर बाहर निकल गयी … बच्चों ने रोकने की कोशिश की लेकिन उसके सर पर भूत सवार था।

और आधे घंटे बाद एक पुलिस वाले का फोन आया कि उसका एक्सीडेंट हो गया था और वह हास्पिटल में थी। हम दौड़ते भागते हास्पिटल पहुंचे तो वह जिंदा थी लेकिन हमारे देखते-देखते उसने दम तोड़ दिया।

हादसा हमारे लिये सदमे से कम नहीं था लेकिन इंसान उबरता ही है। बच्चे ज्यादातर मां के करीब होते हैं और फिर उन्होंने अक्सर ही मुझे बुजदिलों की तरह उससे दामन बचाते भी पाया था। भले वह सामने से न कहते हों लेकिन मुझे अहसास था कि वे माँ की मौत का जिम्मेदार मुझे ही समझते थे।

फिर वह वक्त भी आया जब वह आगे पढ़ाई के लिये इंग्लैंड चले गये और मैं अकेला रह गया उस बड़े से घर में। शायद यही मेरी नियति थी। मुझे नौकरों की जरूरत नहीं थी। खेम सिंह को छोड़ कर मैंने सबको विदा कर दिया. खाना बनाने के लिये एक उम्रदराज औरत रख ली जो सुबह शाम खाना बना जाये।

अब बच्चे वहीं रहते हैं; दो साल गुजर चुके; बस एक बार दस दिन के लिये आये थे। हां फोन पर नेट के माध्यम से जब तब बात हो जाती है।

मैं एक ठंडा और सेक्स में एक हद तक नाकाम पुरुष रहा हूँ, अब यह स्वीकारने में मुझे कोई संकोच नहीं और यही वजह थी कि इस बड़े से घर में मैं आज अकेला था। खेम सिंह घर की साफ सफाई के साथ मेरा ध्यान रखता था लेकिन उसका क्वार्टर बाहर था तो ज्यादातर वहीं रहता था।

यहां से मेरी सिंपल, बोरिंग जिंदगी में एक रोमांचक मोड़ आया। दरअसल मेरे एक साले यानि वीणा के भाई, जो कि बिहार के एक शहर में रहते थे… उनकी तरफ से एक बात आई थी कि उनकी बेटी वैदेही ने दिल्ली के एक प्रतिष्ठित कालेज में एडमिशन लिया है और वह अब दिल्ली ही रहेगी। वे उसे किन्हीं कारणों से हास्टल में नहीं रखना चाहते थे तो उनकी राय थी कि मैं कोई ऐसा सुरक्षित ठिकाना देख दूं जहां वह घर की तरह ही रह कर पढ़ाई कर सके।

मेरी समझ में तो यही आया कि मेरा घर क्या बुरा था … मेरा अकेलापन भी कुछ हद तक दूर हो जायेगा और उसे भी भला क्या परेशानी होगी। उसका कालेज भी यहां से पास ही पड़ता। वे भी शायद यही कहना चाहते थे लेकिन डायरेक्ट कहने से हिचकिचा रहे थे। बहरहाल बात तय हो गयी तो अगले हफ्ते वैदेही को वे खुद आ कर मेरे पास छोड़ गये।

वह इक्कीस बाईस की वय की आकर्षक लड़की थी जो किसी भी युवा के लिये सहज आकर्षण की चीज हो सकती थी लेकिन मेरे मन में उसके लिये वैसी ही भावनायें थीं जैसे सोनिया के लिये हो सकती थीं। बहुत ज्यादा उसका अवलोकन करने की मुझे जरूरत न महसूस हुई और वह भी कम बोलने वाली लड़की ही साबित हुई। मेरे साथ वैसे ही सामान्य थी जैसे कोई बच्ची अपने फूफा जी के साथ हो सकती है।

बहरहाल, वह वहीं रहने लगी। उसके रहने से ऐसा भी नहीं था कि घर में बहुत हलचल होने लगी हो मगर शाम को जब ऑफिस से आता था तो इतना सुकून क्या कम था कि घर में कोई था जिससे मैं पूछ सकता था कि और बेटा.. आज दिन भर क्या किया। हालाँकि उसकी दिनचर्या भी साधारण ही थी। सुबह तैयार हो कर कालेज निकल जाती और वापस लौटती तो अपने कमरे में रह कर पढ़ाई में लगी रहती।

मैं आता तो जरूर बाहर आ जाती और खुद से चाय बना कर मुझे देती। मेरे साथ थोड़ी देर बैठ कर बातें करती… टीवी देखती। इस बहाने कम से कम थोड़ा मन तो मेरा भी बहल जाता।

पर एक दिन उसे ले कर मेरे विचार थोड़े बदलने शुरू हुए। उस दिन मैं घर पे ही था … मैं सबसे ऊपर एक ऐसे कमरे में था जहां से उस कमरे का एक हिस्सा दिखता था जिसमें वैदेही रहती थी। यानि वह कांच की स्लाइडिंग के किनारे अगर खड़ी हो तो उस जगह से देखा जा सकता था, जहां इस वक्त मैं था। जिस जगह वैदेही थी, वहां से बंगले के पीछे का वह हिस्सा दिखता था जहां खेम सिंह का क्वार्टर था और इस वक्त खेम सिंह को वहीं होना चाहिये था।

गौर करने वाली बात यह नहीं थी कि वैदेही बस एक स्लीवलेस टीशर्ट और कैप्री में थी, बल्कि यह थी कि वह शीशे से चिपकी बाहर कुछ देख रही थी और देखते हुए एक हाथ से स्वंय अपने वक्ष मसल रही थी तो दूसरे हाथ से कैप्री में वहां रगड़ रही थी, जहां योनि होती है.. यह इस बात का संकेत था कि वह कुछ ऐसा देख रही थी जो उसे उत्तेजित कर रहा था। स्लाइडिंग के शीशे ऐसे थे जिससे अंदर से बाहर तो देखा जा सकता था लेकिन बाहर से अंदर नहीं तो जाहिर है कि यह सब करते हुए उसे अंदाजा होगा कि उसे कोई नहीं देख रहा था।

लेकिन जो उसके साईड में छोटी खिड़की थी, और खुली हुई थी, वहां से वह मुझे दिख रही थी और मुझे ले कर शायद वह निश्चिंत हो कि मैं अपने कमरे में होऊंगा।

पर वह देख क्या रही थी?

मैं तेजी से वहां से हटा और उस कमरे से हट कर नीचे दूसरी मंजिल के वैदेही वाले रूम से सटे उस दूसरे रूम में आ गया जहां से भी वैसे ही देखा जा सकता था, जैसे वैदेही देख रही थी।

खेम सिंह के क्वार्टर में ऊपर की तरफ रोशनी के लिये एक कांच लगा हुआ था जो सर्वेंट क्वार्टर के लिहाज से पारदर्शी ही था और उस जगह से अंदर कमरे का एक हिस्सा, या यूँ कहें कि सामने वाली दीवार देखी जा सकती थी, अगर अंदर अंधेरा न हो तो… और चूँकि निखरा हुआ दिन था तो मैं देख सकता था कि वह दीवार से सटा था और अपनी शर्ट ठुड्डी के नीचे दबाये, अपना लोअर नीचे किये अपना लिंग निकाले एक हाथ से उसे रगड़ रहा था। यह कोई क्रिस्टल क्लियर व्यू तो नहीं था पर फिर भी देखा तो जा ही सकता था।

मुझे एकदम से बड़ी तेज गुस्सा आया और जी चाहा कि अभी उसे बुला कर डंडे से उसकी पिटाई कर दूँ। मैं वहां से हट कर अपने कमरे में चला आया और ईजी चेयर पर पड़ कर हिलते हुए, अपने क्रोध को काबू में करने की कोशिश करने लगा।

जो भी मैंने देखा.. जो भी हो रहा था, उसमें गलत क्या था। क्या यह नैसर्गिक नहीं था? खेम सिंह का पिता पहले हमारे यहां काम करता था, फिर वह गाँव लौट गया तो खेम सिंह उसकी जगह नौकरी करने लगा। वह तेईस चौबीस साल का ही था और जवान था। उसमें भी वही अति सक्रिय हार्मोन्स होंगे जो जवानी के दिनों में मैं अपने साथियों में देखता था। वह भी अपने जिस्म की आग से परेशान होता होगा तो उसके पास भी विकल्प क्या था?

वैदेही भी ताजी-ताजी युवा हुई थी, वह भी सामान्य स्त्री की तरह अपने अंदर उन सेक्सुअल हार्मोन्स की सक्रियता को अनुभव करती ही होगी। क्या वह वीणा से अलग होगी? वीणा का ख्याल आते ही पता नहीं कितने दृश्य मेरी आंखों के आगे नाच गये जब वह बेहद कामुक अवस्था में मेरे आगे तड़पती थी, गिड़गिड़ाती थी, हिंसक भी हो जाती थी और मैं बस एक बोदा मर्द ही साबित होता था जो उसकी भूख भी ठीक से नहीं मिटा सकता था। क्या उस भूख में वाकई वीणा का दोष था?

मुझे वैदेही में दूसरी वीणा दिखीं… मुझे खेम सिंह में अपने से उलट एक सामान्य मर्द दिखा। जो वह कर रहे थे, सामाजिक दायरे में रह कर हम उसे कितना भी वर्जनाओं में कैद करें लेकिन वह था तो प्राकृतिक, नैसर्गिक। क्या दोष था खेम सिंह का जो अपने एकांत में अपने अंदर उबलती ज्वाला को अपने ही हाथ से अंजाम तक पहुंचा रहा था। कैसे गलत था यह… और यह गलत था तो वैदेही कैसे सही हो गयी, फिर वह भी तो वही कर रही थी। खेम सिंह शायद अपनी कल्पना में किसी को भोग रहा था और वैदेही उसे देखती शायद अपनी कल्पना में भोग्या बनी हुई होगी। सबकुछ प्राकृतिक ही तो था।

मैं कहां फिट होता था उसमें … मैं क्या अधिकार रखता था उन्हें टोकने या मना करने का। वह उनकी स्त्रीसुलभ, पुरुष सुलभ सहज स्वाभाविक शारीरिक डिमांड थी… जिससे एक हद तक मैं महरूम रहा था और यही वजह थी कि मुझे इसे स्वीकारने में दिक्कत हो रही थी।

दिन यूँ ही गुजर गया. वे आगे पीछे मेरे सामने आये भी तो ऐसे कि जैसे कोई बात ही न हुई हो। सबकुछ उनके लिये नार्मल था.. बस मुझ उल्लू के पट्ठे के लिये ही एब्नार्मल था।

खैर जैसे-तैसे करके उस बात को मन से निकाला। हालाँकि जब भी वे नजर के सामने आते तो मानसपटल पर वही दृश्य पुनः जीवित हो उठते लेकिन फिर भी अपने व्यवहार से ऐसा कुछ जताने की कोशिश नहीं की, कि मैंने उन्हें कुछ असामान्य करते भी देखा है।

उसी हफ्ते एक चीज और हुई। वैदेही उस दिन थोड़ा जल्दी ही कालेज के लिये निकल गयी थी और खेमू डस्टिंग कर रहा था। वैदेही के कमरे से आगे गुजरते वक्त अचानक मुझे थमकना पड़ गया। हालाँकि दरवाजा बंद ही था और बस इतना ही खुला था कि झिरी सी बनी हुई थी और उस झिरी से मुझे उस कमरे मौजूद खेम सिंह दिख रहा था।

वह बाथरूम के दरवाजे के पास खड़ा था और उसने एक पैंटी अपने मुंह से लगा रखी थी और दोनों आंखें बंद करके उसे सूंघता हुआ शायद किसी और दुनिया में खोया हुआ था। पैंटी जरूर वैदेही की थी और वह उसकी खुश्बू सूंघ रहा था।

आकस्मिक और स्वाभाविक रूप से मेरे अंदर गुस्से की तेज लहर उठी और जी चाहा कि अभी फटकारूं उसे … लेकिन हिम्मत न पड़ी। खुद को एकदम कमजोर महसूस किया मैंने। क्या यह एक नाकाम मर्द का गुस्सा नहीं था एक कामयाब मर्द पर? मुझे उसके यौनेत्तेजित हो कर उस पैंटी को सूंघने में अपने अंदर के मर्द की हार दिखी।

फिर उसने आंखें खोलीं और मैं आगे बढ़ लिया। नहीं सामना करने की हिम्मत कर पाया मैं। बस नैतिक और अनैतिक के झंझावात में उलझ कर रह गया। मुझे यह ठीक नहीं भी लगता था और इस पर मेरी तरफ से अंकुश लगाना भी ज्यादती लगती थी।

यही संडे को हुआ जब मैंने किसी काम से खेम सिंह को बाहर भेजा और खुद ऊपर अपने कमरे में चला आया। मुझे ऊपर से वैदेही घर से बाहर निकलती दिखी तो मेरी दिलचस्पी जाग उठी। घर में ज्यादातर शीशों का इस्तेमाल था तो यूँ नजरों से बच पाना मुश्किल ही था। वह पीछे ही गयी थी।

मैंने खुद में नैतिक बल पैदा किया और नीचे उतर कर बाहर आ गया। हर तरफ दोपहर वाला सन्नाटा था तो भी थोड़ी एहतियात बरतते मैं पीछे आ गया। खेम सिंह के क्वार्टर का दरवाजा बाहर से खुला और अंदर से बंद था, जिसका मतलब था कि वैदेही अंदर थी।

क्वार्टर के साईड में खिड़की थी, जिसके पल्ले काफी पुराने हो चुके थे और उनसे अंदर देखा जा सकता था। तो मैंने वही किया… अंदर चूँकि उसने कोई रोशनी तो नहीं की थी पर ऊपर रोशनदान से पहुंचती रोशनी भी पर्याप्त थी और मैं देख सकता था कि वैदेही उस तख्त के सिरे पर बैठी थी जो खेम सिंह के सोने के लिये था।

यहां वह भी वही कर रही थी जो तीन दिन पहले खेम सिंह कर रहा था। एक हाथ से खेम सिंह के उतारे अंडरवियर को पकड़े, चेहरे से सटाये सूंघ रही थी और दूसरे हाथ को नीचे चला रही थी… शायद अपनी योनि को सहला रही थी।

फिर मेरे देखते-देखते उसके चलते हुए हाथ की गति तेज होती गयी और एक वक्त वह भी आया जब वह अकड़ कर बिस्तर पर फैल गयी।

अब मेरे रुकने का मतलब नहीं था, मैं वहां से हट आया।

उम्र के इस पड़ाव पर मेरे लिये यह नया तजुर्बा था, नया रोमांच था। मैं तो एक ठंडा आदमी था… ब्लू फिल्में, मस्तराम का साहित्य मुझमें उत्तेजना नहीं जगा पाता था तो अब वह चीज मुझे क्यों महसूस हो रही है? सेक्स को ले कर जो उलझन मुझे जवानी में कभी नहीं महसूस हुई, वह अब दौर में मुझे क्यों बेचैन कर रही है?

अब सवाल यह भी था कि यह सब देख कर मेरा दायित्व क्या होना चाहिये… क्या मुझे उन पर रोक लगाने की कोशिश करनी चाहिये या सब ऐसे ही चलने देना चाहिये? उन दोनों में एक दूसरे के प्रति आकर्षण था, यह दिख रहा था लेकिन क्या यह दीर्घकालिक सम्बंधों की बुनियाद बन सकता था? ऐसा था तो मुझे इस पर रोक लगानी चाहिये.. लेकिन वैदेही एक बेहद समझदार लड़की थी तो मुझे उम्मीद नहीं कि एक घरेलू नौकर में वह अपना भावी पति स्वीकार कर पाये।

यह अल्पकालिक और दैहिक आकर्षण था जो इस खतरनाक उम्र और उफनते यौवन के साथ एक डिफाॅल्ट फंक्शन होता है। वह बस अपनी शारीरिक जरूरतों तक ही सीमित रहने वाली थी… जाने क्यों मुझे इस बात पर यकीन था। अंततः मैंने तय किया कि जो जैसे चल रहा है, चलने दो। अश्लील साहित्य, नंगी फिल्में और बिस्तर पर नंगी पड़ी पत्नी मुझमें जो जवानी के दिनों में उत्तेजना नहीं पैदा कर पाती थीं, वे मैं खुद में इन दोनों की हरकतों से महसूस कर रहा था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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जब एक बार यह तय कर लिया कि उन दोनों को छूट देनी ही है तो फिर मन से सब नैतिक अनैतिक निकाल दिया। कभी शादी से पहले यह सब वीणा ने भी किया ही था और मेरी बेटी भी इंग्लैंड में रह रही है तो क्या करती न होगी। यह सब जवानी की सहज स्वाभाविक प्रतिक्रियायें हैं जिनका आनंद सभी ले रहे हैं। मैं नहीं ले पाया तो यह मेरी कमी थी. पर अब अगर दूसरों को लेते देख मुझमें वह खुशी, वह उत्तेजना पैदा हो रही है तो क्यों मैं नैतिक अनैतिक के झंझावात में उलझ कर उस सुख से वंचित होऊं।

फिर खुद को समझा लेने के बाद मैंने एक चीज यह तय की, कि उन दोनों की गैरमौजूदगी में घर में चार स्पाई कैमरे इंस्टाल करवाये जो न सिर्फ लाईव दिखा सकते थे, बल्कि रिकार्डिंग की सुविधा भी देते थे और उन्हें मैं अपने बेडरूम में बैठ कर चुपचाप देख सकता था। दो कैमरे तो वैदेही और खेम सिंह के कमरों में थे और बाकी घर में दो ऐसी जगहों पे थे जहां उनके मिलन या छेड़छाड़ की संभावना हो सकती थी।

वैदेही मेरे बेडरूम में कभी कभार ही आती थी लेकिन दरवाजा खटका के ही आती थी, तो इस बात की कोई संभावना नहीं थी कि वह इस बात को जान सकती कि घर में उन दोनों पर नजर रखी जा रही थी। मुझे असल में सिर्फ उसे देखने का कोई न शौक था और न कैसी भी कोई उत्तेजना ही पैदा होती थी। मेरे लिये कोई भी नजारा तब उत्तेजक होता था जब वे एक दूसरे की निगाहों में होते।

घर पे होता तो उन्हें देखता रहता. ऑफिस होता तो घर आ कर रिकार्डिंग देखता, जिसमें कुछ खास शायद ही कभी हो, क्योंकि वह भी दिन में घर पे कभी कभार ही होती थी। छुट्टी के दिन वह घर पे तो होती थी पर मैं भी होता था तो थोड़ी सावधानी बरतती थी।

इस बीच एक चीज मैंने खास यह महसूस की, कि वे जानबूझकर अपनी उतारी पैंटी, ब्रा, अंडरवियर एक दिन बाद धोते या हटाते थे क्योंकि उन्हें इस चीज का अंदाजा हो गया था कि दूसरा उन्हें उठाता है, सूंघता है। इसकी वजह रखी गयी जगह में परिवर्तन पाया जाना भी हो सकता है। इससे एक चीज तो क्लियर हो गयी कि अंजान कोई नहीं था और दोनों ही एक दूसरे के मनोभावों को बखूबी समझ रहे थे।

फिर एक दिन वैदेही ने दोपहर में मेरी गैरमौजूदगी में उसे शायद किसी ऐसे काम से बाहर भेजा कि उसके जल्दी आने की संभावना न रही हो और फिर खुद उसके क्वार्टर में बंद हो कर एकदम नंगी हो गयी।

उस दिन पहली बार मैंने उसका शरीर देखा। जवानी के दिनों से मैं कितना बेकार मर्द रहा था, इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि फिल्मों और मैग्जींस छोड़ दें तो अपने जानने वालों में मैं पत्नी के सिवा अब यह दूसरा नग्न शरीर देख रहा था।

वह निश्चित ही एक आकर्षक शरीर रखती थी … कंचन सी कामनीय काया, दुग्ध सा उज्ज्वल शरीर, स्निग्ध त्वचा, बड़े संतरों जितने अवयव जिनकी तनी हुई श्यामल चोटियां। गोल कंधे, पतली कमर, सपाट उदर और गोल मांसल नितंब, पूर्ण गोलाई लिये गुदाज जांघें.. उदर की ढलान पर हल्के-हल्के काले बाल जो जैसे योनिस्थल की रक्षार्थ नियुक्त हों।

वह खेम सिंह के बिस्तर पर फैल गयी और खेम सिंह के अंडरवियर को अपने चेहरे पर डाल लिया। तत्पश्चात, वह अपने शरीर को सहलाती, मसलती बिस्तर पर मचलने लगी। कभी अपने पुष्ट अवयवों को मसलती, कभी चूचुकों को खींचने लगती, कभी अपने पेट पर बेहद कामुक अंदाज में हाथ फिराते नीचे ले जाती और अपनी योनि को छेड़ने लगती, कभी तिरछी हो कर अपने नितम्बों को दबाने सहलाने लगती।

थोड़ी देर की इस अवस्था के बाद वह दोनों टांगें घुटनों से मोड़े, फैला कर चित लेट गयी और एक हाथ से खेम सिंह के अंडरवियर को चेहरे पर रखे, सूंघती दूसरे हाथ से अपने भगांकुर को तेजी से रगड़ने लगी, जिससे उसके शरीर में लहरें पड़ने लगीं।

और फिर चर्मोत्कर्ष पर पहुंच कर उसने चड्डी चेहरे से हटा कर अपनी योनि से सटा कर दबा दी और अकड़ गयी। निश्चित ही इस अवस्था में जो कामरस निकला होगा, वह उस अंडरवियर तक भी पहुँचा होगा।

इसके बाद उसे थोड़ी देर लगी संभलने में और फिर उठ कर उसने खेम सिंह की चड्डी वहीं टांग दी, जहां से उठाई थी और अपने कपड़े वापस पहन कर वहां से चली गयी।

रिकार्डिंग के हिसाब से दो घंटे बाद खेम सिंह क्वार्टर में पहुंचा और सबसे पहले उसने अपनी अंडरवियर ही चेक की थी, जैसे उसे यकीन रहा हो। जाहिर है कि दो घंटे में बंद कमरे में वह गीलापन सूख तो न गया होगा। वह जांघिये के उसी खास हिस्से को मुंह से लगा कर सूंघने लगा और बड़ी देर तक सूंघता रहा।

जाहिर है कि उसे मेसेज मिल गया था जिसका जवाब उसने अगले दिन दिया।

मेरे ऑफिस और वैदेही के कालेज जाने के बाद जब वह अकेला था तो उसने वैदेही के रूम में आ कर, उसके बिस्तर पर लेट कर और वैदेही की पैंटी लेकर लगभग वही प्रक्रिया दोहराई।

पहले जब देखा था तब मैं दूर से उसका लिंग नहीं देख सका था लेकिन इस बार देखा … वह मुझसे डेढ़ गुना तो जरूर था। जरूर वैदेही ने इसे किसी तरह देख लिया होगा और हो सकता कि उनके बीच पनपे आकर्षण की शुरुआत यहीं से हुई हो। किसी लड़की की नजर में वह निश्चित ही गजब का लिंग था।

अपनी उत्तेजना के चरम पर पहुंच कर जब वह स्खलन की अवस्था में आया तो उसने वैदेही की पैंटी से लिंग को दबोच लिया और अपना सारा वीर्य उसी में उगल दिया। इसके बाद वह कमरे की सफाई करके चला गया।

शाम को पांच बजे जब वैदेही वापस आई तो उसने भी आते ही सबसे पहले अपनी पैंटी चेक की और जाहिर है कि वह वीर्य से बुरी तरह गीली रही होगी जिसे वह नाक से लगा कर कुछ देर सूंघती रही.. फिर जीभ से स्पर्श करते उसके स्वाद को भी महसूस करने की कोशिश की।

यानि दोनों ने अपनी स्वीकृति का सिग्नल इस बहाने एक दूसरे को दे दिया था। अब इंतजार रहा होगा उन्हें मौके का जो कि वैदेही के लिये कोई मुश्किल नहीं थी। वह किसी भी ऐसे दिन छुट्टी मार कर घर बैठ सकती थी जब मैं ऑफिस में होऊं।

चार दिन बाद ही वह नौबत आ गयी जब उसने मुझे बताया कि आज उसकी तबीयत कुछ ठीक नहीं तो कालेज नहीं जायेगी। मेरे लिये मंतव्य समझना मुश्किल नहीं था इसलिये ऑफिस में उस रोज मेरा मन न लगा।

जहनी रौ बार-बार इसी दिशा में भटकती रही कि घर पे क्या हो रहा होगा। मैं चाहता तो छुट्टी करके घर जा सकता था लेकिन फिर उनका काम बिगड़ जाना था। मैं तो उन्हें मौका देना चाहता था। यह अलग बात थी कि मन लगातार अवश्यंभावी कल्पनाओं के सागर में गोते लगाता रहा।

उस रोज खुद को रोकने की लाख कोशिश के बावजूद मैं एक घंटा पहले ही घर पहुँच गया और जाते ही वैदेही की ऐसे खैरियत पूछी जैसे उसकी फिक्र रही हो। वह खुश थी, उसकी आंखों में चमक थी, उसके चेहरे पर तृप्ति के भाव थे और उसने खुद को ‘अब बेहतर हूँ’ की अवस्था में ही प्रदर्शित किया।
जो घटना था, घट चुका था.. खेम सिंह की भावभंगिमाओं ने भी इसी चीज को जाहिर किया।

जैसे तैसे मैंने चाय नाश्ते की औपचारिकताओं वाला वक्त निकाला और फिर खुद को बेडरूम में बंद कर लिया।

कहानी मेरे ऑफिस जाने के फौरन बाद तो नहीं शुरू हुई थी, बल्कि थोड़ा वक्त तो खेम सिंह ने साफ सफाई के काम ही निपटाये थे। फिर वैदेही ने उसे कमरे में बुला लिया था।

उसने अपनी वह पैंटी निकाली, जिसपे खेम सिंह ने वीर्यपात किया था और उससे उसके बारे में पूछने लगी। खेम सिंह बस दांत दिखाता रहा तो उसने खेम सिंह को शायद अपना लिंग निकालने को कहा। थोड़े सकुचाये, थोड़े शर्माये खेम सिंह ने अपना पजामा, जांघिये समेत नीचे कर दिया और उसका मुर्झाया लिंग बाहर आ गया।

वैदेही घुटनों के बल उसके सामने बैठ गयी और चेहरा एकदम पास करके उसे देखने लगी, जैसे किसी नियामत को देख रही हो। उसके हाव भाव से मेरे लिये यह तय कर पाना मुश्किल था कि उसने यह चीज पहले कभी देखी थी या पहली बार देख रही थी। देखने का अंदाज तो नदीदों वाला था।

फिर उसने उंगली से टच किया… एकदम किसी बच्चे के से अंदाज में… और उसकी निगाहों का ताप खेम सिंह के लिंग पर असर कर रहा था। लिंग में पड़ी सिकुड़न मिट रही थी, चमड़ी खिंच रही थी और वह लंबा हो रहा था। शिश्नमुंड को ढकने वाली चमड़ी अब पीछे सरक रही थी और टमाटर जैसा शिश्नमुंड यूँ बाहर आ रहा था जैसे किसी दुल्हन का चेहरा घूंघट की आड़ से बाहर आ रहा हो।

देखते-देखते वह पूरे आकार में आ गया… अब वह वैदेही के चेहरे के सामने किसी योद्धा की तरह तना हुआ था। उसकी लंबाई मोटाई जरूर वैदेही में विचलन पैदा कर रही होगी पर मुझे वह सब देखते वक्त वैसी उत्तेजना महसूस हो रही थी जैसी शायद ही पहले कभी की हो।

वैदेही ने उसे उंगली के सहारे ऊपर उठाया और अपना चेहरा उससे यूँ सटाया कि उसकी ठुड्डी खेम सिंह के अंडकोषों के साथ टच हो गयी। वह लिंग वैदेही के पूरे चेहरे को पार कर रहा था… और वैदेही आंखें बंद करके उसी अवस्था में स्टैचू बनी उसे जैसे बस सूंघ कर, उसका स्पर्श पा कर रोमांचित होती थरथरा रही थी।

खेम सिंह बेचारा शायद उसकी अवस्था ठीक से नहीं समझ पा रहा था और कौतुक से उसे देख रहा था।

थोड़ी देर बार वैदेही ने आंखें खोलीं और खुद ही उसके कपड़े उतारने लगी। खेम सिंह ने भी कपड़े उतरवाने में सहयोग दिया और फिर वह एकदम नग्न हो गया जिसका लिंग किसी भन्नाये चीते की तरह आक्रामक मुद्रा में वैदेही को चुनौती दे रहा था।

वैदेही ने उसे बिस्तर पे गिरा लिया और खुद उसके पैरों पर बैठ गयी। अब पहली बार उसने झुकते हुए खेम सिंह के लिंग को हाथ में लिया। ऊपर नीचे सहलाया और उसके अग्रभाग को अपने होंठ खोल कर अंदर दबा लिया.. फिर उसकी आंखें बंद हो गयीं।

कोई लड़की पहली बार में तो इस तरह नहीं करती, उल्टे शर्माई और सिकुड़ी सिमटी रहती है। यह चीज जाहिर कर रही थी कि यह सब उसके लिये पहली बार या नया नहीं था लेकिन अब तक उसके जो हावभाव रहे थे, उनसे यह जरूर जाहिर हो रहा था कि यह नियामत लंबे समय बाद उसे मिली थी।

इधर उसके मुंह की गीली गर्माहट अपने लिंग पे महसूस करते खेम सिंह की आंखें भी आनंद के अतिरेक से बंद हो गयी थीं। कुछ देर दोनों उसी अवस्था में स्थिर पड़े रहे फिर वैदेही ने पहले आंखें खोलीं और मुंह को नीचे करती लिंग को अंदर लेने की कोशिश की, जिसमें आधी ही सफल हो सकी। बाकी लिंग को उसने अपनी मुट्ठी में दबोच लिया।

खेम सिंह भी अब आंखें खोल कर उसे देखने लगा।

थोड़ी देर बड़े आक्रामक अंदाज में चूषण करने के उपरांत वह खेम सिंह की जांघों पर बैठे-बैठे सीधी हो गयी और उसने अपनी टीशर्ट उतार फेंकी। नीचे काली ब्रा में कैद उसके तने हुए वक्ष अब खेम सिंह के सामने थे। वैदेही ने उसके हाथ पकड़ कर अपने वक्षों पर रख दिये और थोड़ा जोर दिया, जो कि इशारा था। खेम सिंह दोनों हाथों से उसके वक्ष दबाने लगा। जबकि वैदेही ने दबवाते-दबवाते ही अपने हाथ पीछे ले जा कर ब्रा अनहुक कर दी और उसे कंधों से फिसल जाने दिया।

अब उसके गोरे गुदाज स्तन अपनी तनी हुई श्यामल चोटियों समेत खेम सिंह के सामने थे… वह थोड़ा आगे होती उस पर इस तरह झुक गयी कि उसके वक्ष खेम सिंह के चेहरे से टकराने लगे। कुछ पल वह रगड़ती रही, फिर एक वक्ष की चोटी खेम सिंह के खुले होंठों में फंसा दी। वह चुसकने लगा और वैदेही चेहरा ऊपर उठाये, उस आनंद को महसूस करती रही। एक चुसक चुका तो उसने दूसरे स्तन का अग्र भाग दे दिया और खेम सिंह फिर चुसकने लग।

इस बीच वह लगातार अपने दोनों हाथों से वैदेही की नग्न और चिकनी पीठ को बड़े कामुक अंदाज में सहलाता रहा था। नीचे वैदेही ट्राउजर पहने थी, जिसे उसने पैंटी समेत इतना तो नीचे खिसका दिया था कि उसके दूध से नितंब आधे बाहर आ गये थे।

जब काफी चुसाई हो चुकी तो वैदेही सीधी हो गयी। उसने थोड़ा ऊपर उठ कर, थोड़ा टेढ़े होते ट्राउजर और पैंटी उतार फेंका और उसके उदर की चिकनी ढलान अनावृत हो गयी जो आज एकदम सफाचट थी… यानि उसने पहले से ही तैयारी कर रखी थी। अब वह फिर खेम सिंह के ऊपर चढ़ आई और उसने अपनी योनि ही उसके चेहरे पर रख दी और बड़े कामुक अंदाज में अपनी पतली कमर को लोच देती रगड़ने लगी।

निश्चित ही उसकी योनि से बहता पानी खेम सिंह के चेहरे को नम कर रहा होगा पर वह भी तो उसी खुश्बू को पैंटी में सूंघता फिरता था। आज तो वही योनि उसके मुंह पर थी… फिर वैदेही ने अपनी कमर स्थिर कर दी और दोनों हाथों से उसके बाल दबोच कर अपनी योनि उसके होंठों से टिका दी।

मैं इससे ज्यादा देख नहीं सकता था लेकिन अंदाजा लगा सकता था कि वह उसके भगोष्ठों को खींच रहा होगा, उसके भगांकुर को कुरेद रहा होगा, अपनी नुकीली जीभ से योनिभेदन कर रहा होगा। यह कल्पनायें मुझे बेहद उत्तेजित कर रही थीं और मैं अपने लिंग में वही तनाव और ऊर्जा महसूस कर रहा था जो कभी जवानी में महसूस करता था।

फिर इसका भी अंत हुआ, वह शायद काफी ज्यादा गर्म हो गयी थी तो उसने खेम सिंह के सर को परे झटक दिया और पीछे हटती उसके लिंग के पास आ गयी जो कठोर और तना हुआ पेट पर टिका था। वैदेही ने बड़े सेक्सी अंदाज में खेम सिंह को देखते उसे उठाया, मुंह में लार बना कर उस पर उगल दी और हाथ से मल दी… फिर थोड़ा उठ कर शिश्नमुंड को अपनी योनि से सटाया और उस पर जोर डालती बैठती चली गयी।

उसका मुंह खुल गया और चेहरे पर दर्द की रेखायें उभर आईं लेकिन खेम सिंह के सीने पर हाथ टिकाये वह बैठती गयी जब तक कि समूचा लिंग उसके नितंबों के नीचे गायब न हो गया।

इसके बाद वह कमान सी होती खेम सिंह के चेहरे पर झुक गयी और अपने होंठों को उसके होंठों से सटा दिया और दोनों एक प्रगाढ़ चुंबन में व्यस्त हो गये। इस बीच उसने अपनी कमर स्थिर रखी थी। फिर उठ गयी और सीधी बैठ गयी… उनके आसन से तय था कि उसकी योनि ने खेम सिंह का पूरा लिंग अंदर ले रखा था। फिर वह अपने हाथों से अपने वक्षों को मसलती बेहद मादक अंदाज में अपने शरीर को आगे पीछे इस तरह लहरें देने लगी कि योनि को घर्षण मिलता रहे।

मैं समझ सकता था कि खेम सिंह किस तरह के आनंद से दो चार हो रहा होगा। दोनों कामुक अंदाज में एक दूसरे को देख रहे थे। काफी देर वे उसी पोजीशन में मजे लेते रहे, फिर वैदेही पीछे होती इस तरह लेटी कि खेम सिंह की टांगे फैलती हुई उसके नीचे से निकल गयीं और वह उठ कर बैठ गया।

अब आसन और था.. वैदेही टांगें फैलाये चित थी और खेम सिंह घुटने मोड़ कर सीधा होता उस पर लद गया था। लिंग उसी प्रकार वैदेही की योनि में फंसा हुआ था। अब वह कभी वैदेही के होंठ चूसता तो कभी उसके चुचुकों को चुभलाने लगता। इस बीच उसकी कमर लगातार स्तंभन कर रही थी।

धीरे-धीरे यह गति तेज होती गयी.. खेम सिंह ने दोनों हाथ बिस्तर पर कुहनियों समेत इस तरह टिकाये थे कि उसका वजन उन्हीं पर रहे और अपनी संपूर्ण गति से धक्के लगाने लगा। वैदेही भी नीचे से कमर उठा-उठा कर बराबर सहयोग कर रही थी। मैं बेड को बुरी तरह हिलते हुए देख सकता था।

इस तूफानी दौर का अंत तब हुआ जब वैदेही लता की तरह उससे लिपट गयी और कुछ स्ट्रोक के बाद वह भी उससे सख्ती से चिपक गया। थोड़ी देर तक दोनों वैसे ही एक दूसरे को दबोचे पड़े रहे, फिर अलग हुए तो वैदेही ने अपनी टीशर्ट उठा कर उसका लिंग भी पोंछा और अपनी योनि से बहते वीर्य को साफ करने लगी।

तत्पश्चात दोनों एक दूसरे से सट के लेट गये और कुछ बातें करने लगे। जाहिर है कि बदन की गर्माहट और जवानी का जोश उन्हें कितनी देर शांत रखता। जल्दी ही वे फिर एक दूसरे से रगड़ने चिपकने लगे।

और थोड़ी रगड़ा रगड़ी के बाद दोनों सिक्सटी नाईन की पोजीशन में आ गये। पहले वैदेही उसके मुंह पर योनि टिकाये नीचे जा कर उसके लिंग को चूसने लगी और फिर खेम सिंह ऊपर हो कर अपने लिंग से वैदेही के मुख का भेदन करता उसकी योनि को चाटने लगा। यह नये दौर की शुरुआत थी जिसमें जल्दी ही वे तैयार हो गये।

इस बार वैदेही ने स्वंय को डाॅगी स्टाईल में कर लिया और खेम सिंह ने घुटनों के बल खड़े होते पीछे से लिंग प्रवेश करा दिया और उसके नितम्बों को दबोचने हुए आघात लगाने लगा। वैदेही भी सुविधाजनक रूप से खुद को आगे पीछे कर रही थी। दोनों की कमर की एक लयबद्ध थिरकन कमरे के वातावरण को गर्म करने लगी।

काफी देर तक वह इसी आसन में इधर उधर होते स्तंभन का आनंद लेते रहे। कभी खेम सिंह इस घुटने को उठा लेता तो कभी उस घुटने को… कभी वैदेही दायीं टांग को सीधी कर के उठा लेती कभी बायीं टांग को और कभी खेम सिंह उसे बेड के किनारे खींच कर खुद नीचे उतर कर खड़ा हो जाता और जोर जोर से धक्के लगाने लगता।

इस बीच शायद वैदेही का स्खलन हो गया था लेकिन जब खेम सिंह चर्मोत्कर्ष पर पहुंचने लगा तो उसने लिंग बाहर निकलवा लिया और घूम कर उसे मुंह में लेती हाथ से सहलाने लगी… जिससे उत्तेजना के शिखर पर पहुंच कर जब खेम सिंह ने वीर्य की पिचकारियां छोड़ीं तो कुछ उसके मुंह के अंदर गयीं तो कुछ चेहरे पर… यह मेरे लिये बेहद सनसनीखेज नजारा था, क्योंकि ऐसा मैंने बस या फिल्मों में देखा था या चूँकि थोड़ी उत्तेजना प्राप्ति के लिये कभी कभार अंतर्वासना पढ़ता हूँ तो यहां पढ़ा था लेकिन जो मुझे अपनी संस्कृति के हिसाब से असंभव ही लगता था।

लेकिन जाहिर है कि मेरा सोचना गलत साबित हुआ था और अब शायद नयी उम्र के युवाओं के लिये यह सहजवृत्ति है।

इस स्खलन के पश्चात वे काफी देर शिथिल पड़े रहे लेकिन अंततः एक बार फिर तैयार हुए और उसी अंदाज में संभोग का एक जबरदस्त दौर चला जो पहले दोनों बार की अपेक्षा थोड़ा और लंबा चला था।

उन दोनों को देखते मुझे जीवन में शायद पहली बार उस उत्तेजना का अनुभव हुआ था जिससे मैं अब तक अपरिचित रहा था और यही भूख मुझे आदी बना गयी इन नजारों का, जहां खुद पार्टिसिपेट करने की कोई ख्वाहिश नहीं थी, बस चाह थी उनके बीच बनते प्राकृतिक सम्बंधों के मूक गवाह बन कर कामोत्तेजना को प्राप्त करने की।

उस दिन इतना ही हुआ था.. फिर उनके बीच यह लगभग रोज होने लगा। मैंने कभी ऐसा कुछ जाहिर करने की कोशिश नहीं की, कि मुझे उन पर किसी भी तरह का कोई शक है। अक्सर मेरे वर्किंग डेज में वैदेही मेरे आने से थोड़ा पहले आ जाती थी और वे निपट लेते थे। छुट्टी के दिन मैंने दो घंटे घर से बाहर रहने का रुटीन बना लिया कि उन्हें मौका मिल सके और कभी नहीं मिल पाता था तो बंगले के साइड में वह स्टोर था जिसका लगभग हमेशा बंद रहने वाला दरवाजा खेम सिंह के क्वार्टर की तरफ खुलता था.. वह उनके काम आ जाता था जहां वे रात को काम बना लेते थे।

यह अलग बात थी कि मुझे उस संभावित जगह का आइडिया था तो एक कैमरा वहां भी मौजूद था।

वैदेही पढ़ाई के सिलसिले में तीन साल वहां रही और लगभग वे रोज ही सेक्स करते… ओरल, वेजाइनल, एनल। कैसा भी, कुछ भी बाकी नहीं रखा था.. यह सिलसिला बस तभी बंद होता था जब दोनों में से कोई गांव जाता या बीच में पंद्रह दिन के लिये आर्यन और सोनिया दिल्ली आये थे।

वैदेही की पढ़ाई पूरी होने के साथ उसे किसी विदेशी कंपनी में नौकरी मिल गयी और वह चली गयी… अगले एक साल के अंदर खेम सिंह भी गांव से लुगाई ब्याह लाया, लेकिन मुझे उनका आपसी संभोग देखने में रूचि नहीं थी तो खेम सिंह के कमरे से कैमरा हटवा दिया था।

बस वैदेही के रहते जो तीन साल गुजरे.. उन्हीं तीन सालों में मुझे वह उत्तेजना मिली जो जीवन में आगे पीछे फिर कभी न हासिल हुई। यह कहानी सुनाने का मकसद कोई सांत्वना या प्रोत्साहन पाना नहीं… बस मन की एक गांठ थी जो न जिंदगी में कभी किसी से कह पाया और न कह पाऊंगा। बस इमरान के सहारे इस मंच तक पहुंचा दी और मेरे लिये इतना ही काफी है।

(समाप्त)
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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मैं एक शादीशुदा चौबीस वर्षीय युवती हूँ और मुंबई के एक उपनगर में रहती हूँ। अपनी पहचान नहीं जाहिर करना चाहती इसलिये नाम भी सही नहीं बताऊंगी और स्थानीयता भी। बाकी पाठकों को इससे कुछ लेना देना भी नहीं होना चाहिये। जो है वह मेरी कहानी में है और वही महत्वपूर्ण है।

सेक्स … आदिमयुग से लेकर आज तक, कितनी सामान्य सी चीज रही है जनसाधारण के लिये। लगभग सबको सहज सुलभ … हम जैसे कुछ अभागों वंचितों को छोड़ कर। यह शब्द, यह सुख, यह जज्बात मेरे लिये क्या मायने रखते हैं मैं ही जानती हूँ। राह चलते फिकरों में, गालियों में इससे जुड़े लंड, बुर, लौड़ा, चूत, चुदाई जैसे शब्द कानों में जब तब पड़ते रहे हैं और जब भी पड़ते हैं, मन हमेशा भटका है। हमेशा उलझा है अहसास की कंटीली झाड़ियों में।

एक मृगतृष्णा सी तड़पा कर रह गयी है। न चाहते हुए भी एक अदद लिंग को तरसती अपनी योनि की तरफ ध्यान बरबस ही चला जाता है जो क्षण भर के संसर्ग की कल्पना भर में गीली होकर रह जाती है और फिर शायद अपने नसीब पर सब्र कर लेती है। कितने किस्मत वाले हैं वह लोग जिन्हें यह विपरीतलिंगी संसर्ग हासिल है. हमेशा एक चाह भरी खामोश ‘आह’ होंठों तक आ कर दम तोड़ गयी है।

जब अपने घर में थी तब कोई तड़प न थी, कोई भूख न थी, कोई तृष्णा न थी. बस संघर्ष था जीवन को संवारने का, इच्छा थी कुछ उन लक्ष्यों को हासिल करने की जो निर्धारित कर रखे थे अपने घर के हालात को देखते हुए।

मैं एक टिपिकल महाराष्ट्रियन परिवार से ताल्लुक रखती हूँ। दिखने में भले बहुत आकर्षक न होऊं लेकिन ठीकठाक हूँ, रंगत गेंहुआ है और फिगर भी ठीक ठाक ही है. परिवार में पिता निगम में निचले स्तर का कर्मचारी था और एक नंबर का दारूबाज था और मां इधर उधर कुछ न कुछ काम करती थी। म्हाडा के एक सड़ल्ले से फ्लैट में हम छः जन का परिवार रहता था। एक आवारा भाई सहित हम तीन बहनें. एक निम्नतर स्तर के जीवन को जीते हुए इसके सिवा हमारे क्या लक्ष्य हो सकते थे कि हम पढ़ लिख कर किसी लायक हो जाये और इसके लिये कम संघर्ष नहीं था।

हमें खुद ट्यूशन पढ़ाना पढ़ता था कि कुछ अतिरिक्त आय हो सके क्योंकि पढ़ाई के लिये भी पैसा चाहिये था। बहरहाल ग्रेजुएशन तक की पढ़ाई जैसे तैसे हो पाई कि बड़ी होने के नाते बाईस साल की उम्र में हमें एक खूंटे से बांध दिया गया। वह तो हमें बाद में समझ आया कि बिना दान दहेज इतनी आसानी से हमारी शादी हो कैसे गयी।

पति एक नंबर का आवारा, कामचोर और शराबी था. भले अपने घर का अकेला था लेकिन जब किसी लायक ही नहीं था तो लड़की देता कौन? हम तो बोझ थे तो एक जगह से उतार कर दूसरी जगह फेंक दिये गये। ससुर रिटायर्ड कर्मचारी थे और अब पार्ट टाईम कहीं मुनीमी करते थे तो घर की गुजर हो रही थी। लड़का इधर उधर नौकरी पे लगता लेकिन चार दिन में या खुद छोड़ देता या आदतों की वजह से भगा दिया जाता। घरवालों ने सोचा था कि शादी हो जायेगी तो सुधर जायेगा लेकिन ऐसा कुछ होता हमें तो दिखा नहीं।

फिर भी अपना नसीब मान के हम स्वीकार कर लिये और तब असली समस्या आई। पत्नी का मतलब चौका बर्तन साफ सफाई और साज श्रृंगार ही तो नहीं होता। रात में पति का प्यार भी चाहिये होता है, मर्दाना संसर्ग भी चाहिये होता है और वह तो इस मरहले पर एकदम नकारा साबित हुआ। बाजारू औरतों और नशेबाजी के चक्कर में वह बेकार हो चुका था, उसका ठीक से ‘खड़ा’ भी नहीं होता था और जो थोड़ा बहुत होता भी था तो दो चार धक्कों में ही झड़ जाता था।

शादी के बाद पहली बार जिस्म की भूख समझ में आई. मैंने उसे प्यार से संभालने और कराने की कोशिश की लेकिन बिना नशे के भी वह नकारा साबित हुआ। उस पर तो वियाग्रा टाईप कोई दवा भी कारगर साबित नहीं होती थी और मैं इसका इलाज करने को बोलती तो मुझे मारने दौड़ता कि किसी को पता चल गया तो उसकी क्या इज्जत रह जायेगी।

जैसे तैसे तो वह मेरी योनि की झिल्ली तक पहुंच पाया था लेकिन कभी चरम सुख न दे पाया। उसके आसपास भी न पहुंचा पाया और मेरी तड़प और कुंठा अक्सर झगड़े का रूप ले लेती थी जिससे उसकी सेक्स में अयोग्यता का पता बाहर किसी को चलता न चलता पर घर में सास ससुर को तो चल ही गया था। वह बेचारे भी क्या कर सकते थे।

अपनी नाकामी से मुंह छुपाने के लिये वह रात को नशे में ही लौटता कि बिस्तर में गिरते ही टुन्न हो जाये और मैं सहवास के लिये उसका गला न पकड़ सकूँ। लेकिन यह तो वह आग है जो जितना दबाने की कोशिश की जाये, उतना ही भड़कती है। गीली लकड़ी की तरह सुलगते चले जाना कहीं न कहीं आपको बगावत पर उतारू कर ही देता है। मैंने एक कोशिश घर से बाहर की जो परवान तो न चढ़ी लेकिन उसे पता चल गया और उसने अपने लफंगे दोस्तों के साथ उस युवक को ऐसा पीटा कि उसने मुझसे खुद ही कन्नी काट ली।

उसके पीछे मुझे भी धमकाया लेकिन मुझ पर खैर क्या फर्क पड़ना था. मैंने तो दिन दहाड़े ही दरवाजा बंद किया और कपड़े उतार के नंगी लेट गयी उसे चैलेंज करती कि तो आओ और मेरी भूख शांत कर दो।
उसे पता था यह उसके बस का था नहीं … गालियां बकता बाहर निकल गया। बाहर सास सब सुन रही थीं लेकिन उनके बोलने के लिये कुछ था ही नहीं और उस दिन मैंने पूरी बेशर्मी से उन्हें सुनाते हुए उंगली से अपना योनिभेदन करते चर्मोत्कर्ष तक पहुंची कि वह मेरी हालत समझें तो सही।

इसके बाद कोई और विकल्प न देख मैंने सब्र ही कर लिया और अपने हाथ से ही अपनी चुल शांत कर लेती लेकिन मर्दाना संसर्ग तो अलग ही होता है, चाहे कैसा भी हो।

धीरे-धीरे फोन से दिल बहलाने लगी. मार्केट में जियो क्या आया, कम से कम एक विकल्प तो और खुल गया। न सिर्फ अंतर्वासना पे पोर्न साहित्य पढ़ती बल्कि देर रात तक पोर्न मूवीज देखती रहती। इच्छायें जितनी दबाई जायें, वे उतनी ही बलवती होती हैं और जब इंसान के तेवर बगावती हों तो इंसान अंतिम हद तक जाने की ख्वाहिश करने लगता है।

मुझे सच में तो कुछ भी नहीं हासिल था, कल्पनाओं में अति को छूने लगी। जो वर्जित हो, घृणित हो, अतिवाद हो, वह सब मुझमें आकर्षण पैदा करने लगा। मैंने शादी से पहले कभी कोई अश्लील बात शायद ही की हो लेकिन अब तो जी चाहता कि कोई मर्द मुझसे हर पल अश्लील से अश्लील बातें करें … मेरे साथ क्रूर व्यवहार करे … क्रूरतम संभोग करे … मुझे गालियां दे … गंदी-गंदी गालियां दे … मेरे होंठों को ऐसे चूसे कि खून निकाल दे।

मेरे कपड़े फाड़ कर मुझे नंगा कर दे … मेरे वक्षों को बेरहमी से मसले, मेरे चूचुकों को दांतों से काटे, मेरे नितंबों को तमांचे मार-मार के लाल कर दे. मैं उसके मुंह पर अपनी योनि रगड़ूं, वह जीभ से खुरच दे मेरे दाने को, खींच डाले मेरी कलिकाओं को और मैं उसके मुंह पर स्क्वर्ट करूँ.
वह सब पी जाये और फिर मेरे बाल पकड़ कर, मुझे गालियां देते, पूरी बेरहमी से अपना मूसल जैसा लिंग मेरी कसी हुई योनि में उतार कर फाड़ दे मेरी योनि को। मैं चीखती चिल्लाती रहूं और वह पूरी बेरहमी से धक्के लगाते मेरी योनि का कचूमर बना दे। एकदम सख्त क्रूर मर्द बन कर मुझे एक दो टके की रंडी बना के रख दे। धीरे-धीरे सुलगती आकांक्षायें यूं ही और आक्रामक होती गयीं।

सुलगना क्या होता है यह कोई मुझसे पूछे.
साल भर इसी तरह तड़पते सुलगते गुजर गया। बस फोन, पोर्न और अपनी उंगली का ही सहारा था। वह नामर्द तो कभी बहुत उकसाने पर चढ़ता भी था तो योनि गर्म भी नहीं हो पाती थी कि बह जाता था. फोरप्ले तो उसके बस का था ही नहीं और मैं तड़पती सुलगती और उसे गालियां देती रह जाती थीं।

साल भर बाद मैंने कोई भी नौकरी करने की ठानी. उसी नामर्द ने विरोध किया लेकिन सास ससुर चुपचाप मान गये। बेटे को लेकर जो उम्मीदें उन्होंने बांधी थीं, वह साल भर में खत्म हो चुकी थीं और अब मुझे रोकने का कोई मतलब नहीं था। या बेटा कमाये या बहू, और बेटा तो ढर्रे पे आता लगता नहीं था तो अंततः मुझे नौकरी की स्वीकृति मिल गयी।

ससुर जी की वजह से ही मुझे सीएसटी की तरफ एक नौकरी मिल गयी, जो थोड़ी टफ इसलिये थी कि सुबह सात बजे से शुरू होती थी और चार बजे वापसी होती थी लेकिन आने जाने के लोकल के पास सहित बारह हजार इतने कम भी नहीं थे तो शुरुआत यहीं से सही।

इसके लिये सुबह जल्दी उठना पड़ता था, नाश्ता बना के और अपने दोपहर के लिये कुछ खाने को बना कर सात बजे हार्बर लाईन की लोकल पकड़ कर निकल लेती थी। अब सुबह जो इस लाईन पे चलता है उसे लाईन के आसपास के नजारे तो पता ही होंगे. आखिर किसी अंग्रेज ने इसी आधार पर तो भारत को एक वृहद शौचालय की संज्ञा दी थी।

आपको दोनों तरफ जगह-जगह शौच करते लोग दिखते हैं और कमबख्त बेशर्म भी इतने होते हैं कि रुख ट्रेन की ओर ही किये रहते हैं। यह स्थिति भले दूसरी औरतों के लिये असुविधाजनक होती हो लेकिन मेरे जैसी तरसती औरत के लिये तो बेहद राहत भरी थी। सुबह सवेरे मुर्झाये, अर्ध उत्तेजित और उत्तेजित लिंगों के दर्शन हो जाते थे। छोटे, मध्यम आकार के और बड़े-बड़े भी।

मैं लेडीज डिब्बे में ही बैठती थी और बाकी भले नजरें चुराती हों लेकिन मैं बड़ी दिलचस्पी से उन शौच करते लोगों को देखती थी और उनके लिंग मेरे मन में एक गुदगुदी मचा देते थे। अक्सर मेरी योनि पनिया जाती थी और होंठ शुष्क हो जाते थे. तो बाद में योनि में रुई फंसा कर घर से निकलती थी जो अपने अड्डे पर पहुंचते ही जब निकालती थी तो भीगी हुई मिलती थी।

नौकरी स्वीकार करते वक्त मन में एक उम्मीद यह भी रहती थी कि शायद वहां कोई जुगाड़ बन जाये और मेरी तरसती सुलगती योनि को एक अदद कड़क लिंग मिल जाये लेकिन वहां मालिक उम्रदराज थे और ससुर के परिचित होने की वजह से मुझे घर की लड़की जैसे समझ के नजर भी रखते थे और काम में टच में आने वाले जो लोग थे, उनसे भी इसी वजह से ऐसी कंटीन्युटी बन पाने की उम्मीद बनती लगती नहीं थी।

ले दे के बस उन लिंगों के दर्शन का ही सहारा था जो सुबह सवेरे दिखते थे। रोज-रोज देखते कुछ चेहरे पहचान में आने लगे थे। अपना तो एक फिक्स टाईम था और शायद उन्हें भी नियत समय पर कहीं जाना होता हो। उनमें से कुछ के लिंग सामान्य थे लेकिन कुछ के हैवी जो मुंह में पानी भर देते थे और मन में एक अजब सी गुदगुदाहट भर देते थे। मैं जानबूझकर उनसे आंखें मिलाती थी कि वे मुझे पहचान लें. शायद किसी मोड़ पर मिल ही जायें तो कुछ कहने सुनने की जरूरत तो नहीं रहेगी।

चार महीने यूँ ही गुजर गये और उन नियमित लोगों से निगाहों का एक परिचय बन गया। जिनके लिंग हैवी थे, उनके लिंग की तारीफ भी आंखों ही आंखों में कर जाती थी कि वे समझ लें और चूँकि बेचारे चूँकि शौच कर रहे होते थे तो शर्मा कर रह जाते थे लेकिन देखने दिखाने की दिलचस्पी में निगाहें भी ट्रेन की दिशा में गड़ाये रहते थे।

रात को उन्हीं को याद करके कल्पना करती थी बेहद आक्रामक संभोग की और जब तक स्खलित न हो जाती थी, नींद ही नहीं आती थी और रोज भगवान से प्रार्थना करती थी कि उनमें से कोई तो कहीं टकरा जाये।

इसी तड़पन के साथ दो महीने और गुजर गये, निगाहों का परिचय और गहरा हो गया लेकिन संपर्क का कोई माध्यम मेरी समझ में न आ पाया। कभी-कभी दिल करता कि पास के स्टेशन पर उतर जाऊँ और वापस चली आऊं जहां पसंदीदा मर्दों में से कोई बैठा हग रहा होता था, लेकिन स्त्री तो स्त्री … बगावत अपनी जगह लेकिन ऐसे कदम उठाने के लिये जो साहस चाहिये वह मुझमें नहीं था।

फिर एक आइडिया सूझा … ड्राईक्लीनर्स वगैरह के यहां जो कपड़ों की पहचान के लिये कागज के टैग लगाते हैं। वे थोड़े खरीद लिये और उन पर अपना नंबर लिख के रख लिया।

अपने स्टेशन से सीएसटी तक करीब आठ ऐसे मर्द थे जिनसे निगाहों का परिचय बन चुका था। वे देख के ही उत्तर भारतीय लगते थे. उनके लिंग बड़े थे और आकर्षक थे और यही हमारे परिचय का आधार थे। शुरु में तो यह होता था कि वे रोज नहीं दिखते थे, बल्कि कभी कोई दिखता तो कभी कोई. लेकिन फिर शायद उन्होंने मेरी निगाहों की भूख समझ ली तो वे भी ट्रेन की टाईमिंग के हिसाब से ही शौच के लिये आने लगे। ट्रेन आगे पीछे हो जाती थी लेकिन उन्हें कौन सा कहीं ऑफिस जाना था तो बैठे रहते।

मैं खास उन लोगों के लिये अपने हाथ में आठ ऐसे टैग दबाये खिड़की के पास बैठी रहती और जब सामना होता तो चुपके से एक टैग गिरा देती।

यहां यह बता दूँ कि इस सिलसिले की शुरुआत भले लेडीज कोच से हुई हो लेकिन हमेशा विंडो सीट मिलनी पॉसिबल नहीं होती थी तो विंडो सीट के चक्कर में मैं बाद में जनरल डिब्बे में भी बैठ जाती थी और चूँकि जहां से मुझे चलना होता था, वहीं से ट्रेन भी चलती थी तो ऐसा शायद ही कभी हुआ हो कि मुझे उस खास साईड में विंडो सीट न मिली हो।

बहरहाल, अंततः कई दिन के बाद मेरा यह प्रयास रंग लाया. हालाँकि बीच में कुछ और फालतू फोन भी आये जिन्होंने मेरा नंबर उसी टैग से लिया था लेकिन वे मेरे परिचय वाले न साबित हुए तो मैंने बात बढ़ानी ठीक न समझी। क्या पता कौन हो कैसा हो.

लेकिन फिर एक फोन वह भी आया जिसके लिये मैंने टैग गिराया था। थोड़ी सी पहचान बताने पर मैंने उसे पहचान लिया और चार बजे सीएसटी स्टेशन पर मिलने को कहा।

जरूर काम धंधे वाला बंदा रहा होगा लेकिन औरत का चक्कर जो न कराये। बेचारा अपने हिसाब से तैयार होकर चार बजे सीएसटी पहुंच गया जहां मैंने बताया था। पहचानने में कोई दिक्कत न हुई

उसने अपना नाम रघुबीर बताया, पूर्वी उत्तरप्रदेश का रहने वाला था और यहां दादर में रेहड़ी लगाता था। था तो शादीशुदा मगर बीवी बच्चे गांव में थे और किसी भी औरत के लिये अवलेबल था। मुझे कौन सी उससे यारी करनी थी। हालाँकि मैंने क्लियर कर दिया कि उसकी सेवा के बदले मैं कुछ पे कर पाने की स्थिति में नहीं हूँ और जगह का इंतजाम भी उसे ही करना होगा। मैं बस आ सकती हूँ और दूसरे कि वह दिन के सिवा कभी फोन नहीं करेगा।

वह दो दिन का वक्त ले कर चला गया।

इस बीच और भी कुछ फोन आये जो काम के न साबित हुए लेकिन दो दिन बाद रघु का फोन आया कि जगह का इंतजाम हो गया है. इतना सुन कर ही मेरी योनि ने एकदम से पानी छोड़ दिया।

उसने मुझे बांद्रा स्टेशन पर दो बजे मिलने को कहा और मेरे लिये यह कोई मुश्किल नहीं था क्योंकि मैं अमूमन छुट्टी नहीं लेती थी तो आज मुझे मना करने का सवाल ही नहीं था। मैं सवा बजे रवाना हुई और दो बजे बांद्रा स्टेशन पे पहुंच गयी, जहां वह मुझे इंतजार करता मिला।

वहां से वह मुझे ऑटो से रेलवे कालोनी ले आया, जहां एक बिल्डिंग के वन बेडरूम वाले फ्लैट तक ले कर इस अंदाज में पहुंचा जैसे हम पति पत्नी हों और किसी रिलेटिव के यहां मिलने आये हों। इस बीच स्टोल से चेहरा मैंने कवर ही कर रखा था कि कोई कहीं पहचान वाला मिल भी जाये तो पहचान न सके।

उस फ्लैट में एक युवक और मौजूद था. रघु ने बताया कि वह उसका गांव वाला था और यहां दो पार्टनर्स के साथ रहता था, लेकिन फिलहाल वे दोनों मुलुक गये हुए थे तो वह अकेला ही था और अपनी जगह हमें देने को तैयार था लेकिन उसकी बस अकेली यही शर्त थी कि वह भी हिस्सेदारी निभायेगा।

आम हालात में यह शर्त भले जलील करने वाली लगती लेकिन फिलहाल तो मैं इतना तड़पी तरसी और भूखी थी कि उसके दोनों पार्टनर्स और भी होते और वे भी हिस्सेदारी मांगते तो भी मैं इन्कार न करती, उल्टे यही कहती कि सब मिल कर मुझ पर टूट पड़ो और मेरी इज्जत की बखिया उधेड़ कर रख दो।
चूत की भूख क्या होती है, यह मुझसे बेहतर कौन समझ सकता था।

प्रत्यक्षतः मैंने थोड़े सोच विचार के बाद हामी भर दी।

दोपहर का टाईम था, आसपास भी सन्नाटा ही था। उसके दोस्त जिसका नाम राजू था, ने बताया कि आसपास भी सब काम वाले लोग ही रहते थे उस फ्लोर पे और इस वक्त कोई नहीं था।

बेडरूम में पहुंचते ही मैंने न सिर्फ स्टोल उतार फेंका बल्कि अपने ऊपरी कपड़े भी साथ ही उतार दिये। यहां योनि में आग लगी हुई थी, इतनी देर में ही सोच-सोच के बह चली थी कि आज उसे खुराक मिलेगी। कब से अपनी उत्तेजना को मैं दबाये थी।

भाड़ में गयी स्त्रीसुलभ लज्जा, भाड़ में गयी मर्यादायें … सहवास के नाजुक पलों में सिकुड़ना, सिमटना, स्वंय पहल न करना, यह सारे तय नियम अब मेरे लिये कोई मायने नहीं रखते थे। एक जवान जनाना बदन के अंदर कैद औरत जो जाने कब से पुरुष संसर्ग के लिये तड़प रही थी, सुलग रही थी… उसने जैसे खुद को एकदम आजाद कर दिया था। हर बंधन से मुक्त कर लिया था।

बस मैं उस क्षण खुद को औरत महसूस करना चाहती थी… सिर्फ औरत, जिसके सामने दो मर्द मौजूद थे जिनके गर्म कड़े कठोर उत्तेजित लिंग मेरी उस तृष्णा को मिटा सकते थे जो अब नाकाबिले बर्दाश्त हो चली थी।

क्रमशः2
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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मैं उस नये लड़के को नहीं जानती थी लेकिन रघु को तो जानती थी, कई बार कल्पनाओं में उसके नीचे खुद को मसलवा चुकी थी और उसके लिंग को अपनी योनि में ले चुकी थी।

मेरे उतावलेपन को देखते वे थोड़े हैरान तो जरूर हुए लेकिन मेरे ब्रा और पैंटी में आते ही उनमें भी जैसे करेंट सा लगा। मैं कोई संकोच, शर्म, लिहाज के मूड में इस वक्त बिलकुल नहीं थी और भूखी शेरनी की तरह उस पर टूट पड़ी। मैंने रघु को दबोच लिया और उसके शरीर पर जोर डालती उसे बेड पर गिरा लिया और खुद उस पर चढ़ गयी।

उसके होंठों से मैंने अपने होंठ जोड़ दिये और उन्हें ऐसे चूसने लगी जैसे खा जाऊँगी। उसके मुंह की गंध अच्छी तो नहीं थी लेकिन उस घड़ी जो मेरी स्थिति थी उसमें यह चीज कोई मायने ही नहीं रखती थी। उसके होंठ छोड़े तो उसके माथे, गाल, गर्दन को बेताबी से चूमने लगी। उसकी शर्ट के बटन जल्दबाजी में मैंने तोड़ दिये और नीचे की बनियान को फाड़ डाला, जिससे उसका बालों भरा चौड़ा चकला सीना सामने आ गया। मैं उसके सीने पे होंठ रगड़ने लगी।

“मैडम तो बहुत भूखी लगती हैं राजू … तू भी आ, अकेला नहीं संभाल पाऊंगा।” रघु ने याचना सी करते हुऐ कहा।

“हां बहुत भूखी हूँ, बहुत तरसी हूँ मर्द के लिये, बहुत तड़पी हूँ। जी भर के चोदो मुझे … दो घंटे हैं तुम लोगों के पास। मेरी चूत की धज्जियां उड़ा दो। वह सब कुछ करो जो तुमने कहीं पढ़ा या देखा हो .. मैं सबकुछ महसूस करना चाहती हूँ।” मैंने लहराती हुई आवाज में उसकी पैंट खोलते हुए कहा।
“मतलब?” दोनों ही अटपटा गये।
“मतलब एक दो टके की रांड बना दो मुझे … छिनाल बना के चोदो। मुझे मारो … तकलीफ दे सकते हो तो दो। बस चेहरे पे कुछ न करना। मेरी चड्डी ब्रा फाड़ के फेंक दो। मुझे कुतिया की तरह नंगी कर दो। गंदी-गंदी गालियां दो … जो गंदे से गंदा कर सकते हो करो। मेरे पूरे बदन को काट खाओ। मेरी चूचियों को संतरे की तरह निचोड़ कर रख दो। मेरी घुंडियों को बेरहमी से मसलो, दांतों से काटो। मेरी चूत में मुंह डाल के खा जाओ, मेरा मूत पी जाओ … मेरे चूतड़ों को तमांचों से मार-मार के लाल कर दो। मेरे मुंह में मूतो, मेरा मुंह चोद डालो, मेरे मुंह में झड़ जाओ और अपने लंडों से मेरी चूत और गांड सब चोद-चोद कर भर्ता बना दो। मुझे इतना चोदो कि मैं चलने लायक भी न रह पाऊं … जो कर सकते हो, करना चाहते हो करो। मैं महीनों इस चुदाई को भूल न पाऊं।”

मेरी तड़प मेरे शब्दों से जाहिर थी और वे भी कोई नये नवेले लौंडे नहीं थे, खेले खाये मर्द थे और मर्द तो मर्द … जब सामने नंगी लेटी औरत खुद खुली छूट दे रही हो तो उन्हें तो मौका मिल गया अपने अंदर के जानवर को जगाने का।

जब तक मैं रघु के पैंट से उसके उस लिंग को बाहर निकाल कर अपने मुंह में ले कर चूसना शुरू करती, जिसे महीनों से देखती और उसकी कल्पनायें करती आ रही थी, कि राजू ने भी कपड़े उतार कर फेंक दिये और पीछे से मेरी ब्रा के स्ट्रेप पकड़ कर ऐसे खींचे कि वे टूट गये और उसने ब्रा खींच कर मेरे शरीर से अलग कर दी।

मेरी मर्दाने स्पर्श को तरसती चूचियां एकदम से खुली हवा में सांस लेती आजाद हो गयीं और उसने मेरे बाल पकड़ कर ऐसे खींचा कि रघु का लिंग मेरे मुंह से निकल गया।

“तो ऐसे बोल न हरामजादी कि तू रांड है, लौड़े चाहिये थे तुझे कुतिया। ले तेरी माँ की चूत … देख कि कैसे तेरी बुर का भोसड़ा बनाते हैं रंडी। ले मुंह में लौड़ा ले छिनाल।” उसने कई थप्पड़ मेरे गाल पर थप्पड़ जड़ दिये जिससे मेरा चेहरा गर्म हो गया और आंख से आंसू छलक आये लेकिन इस पीड़ा में भी एक मजा था।

उसका लिंग रघु के लिंग से कम नहीं था। देख कर ही मजा आ गया और मैंने लपक कर उसे मुंह में उतार लिया और हलक तक घुसा कर जोर-जोर से चूसने लगी। मुझसे मुक्त होते ही रघु भी उठ खड़ा हुआ था और उसने भी मुझे गंदी-गंदी गालियां देनी शुरू कर दी थीं जो मेरे कानों में रस घोल रही थीं। उसने भी झटपट कपड़े उतार फेंके और मेरे चूतड़ों पर थप्पड़ जमाते हुए मेरी पैंटी खींचने लगा और इतनी बेरहमी से खींची कि वह फट गयी और मेरे शरीर से निकल कर उसके हाथ में झूल गयी।

फिर एक के बाद उसने कई जोरदार थप्पड़ जड़ दिये मेरे मुलायम चूतड़ों पर … दोनों चूतड़ गर्म हो गये और एकदम से ऐसा लगा जैसे चूतड़ों में मिर्चें भर गयी हों लेकिन फिर फौरन वह कुत्ते की तरह मेरे चूतड़ों को चाटने लगा। जबकि राजू अपना लिंग मेरे मुंह में घुसाये, हाथ नीचे करके मेरे दोनों स्तनों को जोर-जोर से भींचने लगा था।

चूतड़ों को चाटते-चाटते रघु ऊपर आया तो उसने मेरी पीठ पर चिकोटी काटते मुझे नीचे गिरा लिया। फिर दोनों मुझ पर भूखे जानवर की तरह टूट पड़े।

वह थप्पड़ों तमाचों से मुझे पूरे शरीर पर मार रहे थे, साथ ही मसल रहे थे, रगड़ रहे थे … मेरे सर पर इतनी ज्यादा उत्तेजना हावी थी कि मुझे उस मार से कोई तकलीफ नहीं महसूस हो रही थी। वे दोनों मेरी चूचियों को पूरी बेरहमी और बेदर्दी से मसल रहे थे। बीच-बीच में घुंडियों को मुंह में ले कर चूसने लगते, चुभलाने लगते, दांतों से काट लेते कि मैं सी कर के रह जाती।

कहीं मेरे होंठ उसी बेरहमी से चूसने लगते और अपना लिंग बार-बार मेरे मुंह में घुसा कर मेरा मुंह चोदने लगते। बीच-बीच में वे जितनी गंदी बातें कर सकते, जितना मुझे कह सकते थे … कह रहे थे और उनकी बातों के जवाब देते मैं भी ऐसे बिहेव कर रही थी जैसे मैं कोई थर्ड क्लास रंडी होऊं।

वे मेरे पूरे जिस्म पर काट रहे थे, चाट रहे थे और मेरे चेहरे को छोड़ बाकी जिस्म पर अपनी निशानियां अंकित कर रहे थे और मैं भी कम नहीं साबित हो रही थी। उनके आक्रमण का जवाब उसी अंदाज में दे रही थी। उन्हें गिरा लेती, उन पर चढ़ जाती, उनके पूरे बदन को चूमती चाटती और कई जगह काट भी लेती। उनके लिंग बुरी तरह चूसती, उनके टट्टे भी चूसती चाटती। उनके बाल पकड़ कर उनके मुंह पर अपनी योनि ऐसे रगड़ती जैसे उसे अपनी चूत में ही घुसा लेना हो। ऐसी हालत में दूसरा मेरे मुंह को चोदने लगता। चूत से ले कर गांड तक सब चटवा रही थी और वे भी पीछे नहीं हट रहे थे। इतने आक्रामक घर्षण में जाहिर है कि चूत का बुरा हाल होना था … मैं स्कवर्टिंग करती झड़ने लगी और वे भी इतने जोरदार आक्रमण को न झेल पाये। पहले मेरा मुंह चोदते गालियां देते हुए राजू झड़ने लगा तो उसने अपना लिंग बाहर निकालना चाहा लेकिन मैंने निकालने नहीं दिया।

यह नया अनुभव था, पहले कभी तो सोचा भी नहीं था … एकदम से मुंह उसके वीर्य से भर गया। अजीब स्वाद था, न अच्छा न बुरा … मैं आज हर हद पार कर जाना चाहती थी इसलिये पीछे हटने का सवाल ही नहीं था। मैं उसे निगल गयी और वह कांपता थरथराता झड़ता रहा और थोड़ा बहुत मैंने बाहर निकाल कर अपने दूधों पर मल दिया।

वह हटा तो मैंने रघु का लंड मुंह में लेना चाहा लेकिन उसने मना कर दिया कि वह चूत में ही झड़ेगा।

हालाँकि मैं झड़ चुकी थी और चूत बुरी तरह बह रही थी लेकिन लंड के लिये तो हर पल तैयार थी। मैंने उसे चित लिटाये उसके कठोर लिंग पर अपनी चूत टिकाई और बैठती चली गयी। चूत की संकरी मगर बुरी तरह पानी से भीगी दीवारें चरचराती हुई, ककड़ी की फांक की तरह फटती लंड को जड़ तक लेती चली गयी और मेरे मुंह से ऐसी राहत भरी जोर की ‘आह’ निकली थी जिसे बस मैं ही समझ सकती थी। भले झड़ चुकी थी लेकिन भट्ठी की तरह दहकती चूत को लंड से भला कैसे इन्कार होता।

आज पहली बार चूत को लंड का सही स्वाद मिला था। उस लंड के लिहाज से मेरी चूत एकदम कुंवारी ही थी और वह ऐसा फंसा-फंसा अंदर धंसा हुआ था जैसे कुत्ते कुतिया फंस जाते हैं। ऐसा नहीं था कि मुझे इस प्रवेश से दर्द नहीं हुई थी लेकिन इतनी तरसी तड़पी सुलगी हुई चूत को लंड मिला था, इस सोच से पनपी उत्तेजना उस दर्द पर भारी थी, लेकिन मैं फिर भी बिलबिलाती हुई उसे गालियां बकने लगी थीं जिसके प्रत्युत्तर में वह भी मुझे कुतिया, रंडी, छिनाल बना रहा था।

जबकि राजू झड़ने के बाद थोड़ी देर के लिये ठंडा पड़ गया था। जब मुझे लगा मैं बर्दाश्त कर सकती थी तो मैंने ऊपर नीचे होना शुरू किया। उम्म्ह… अहह… हय… याह… चूत में यह लंड का घर्षण। लग रहा था जैसे मुझे पागल कर देगा। मैं जोर जोर से सिसकारती ऊपर नीचे होने लगी और चूत गपागप लंड लेने लगी। ‘फच-फच’ की आवाज के साथ मेरे चूतड़ों के उसकी जांघों से टकराने की ‘थप थप’ भी कमरे में गूँजने लगी थी।

घचर पचर चुदते हुए जब मैं थमी तो वह नीचे से जोर-जोर से धक्के लगाने लगा। लेकिन कुछ धक्कों में ही उसे अंदाजा हो गया कि उसकी उत्तेजना स्खलन के करीब पहुंच रही थी तो वह उठ कर बैठ गया और मुझे अपने ऊपर से हटाते नीचे गिरा दिया।

“अब मै झड़ने वाला हूँ रंडी … कहां लेगी मेरा माल बोल छिनाल?” वह मेरे पैरों को अपने कंधों पर रखते हुए बोला।
“मुंह में तो ले चुकी हरामी … अब मेरी चूत में बारिश कर दे। भर दे मेरी चूत को अपने माल से।” मैंने भी उसी के अंदाज में उत्तर दिया।

उसने कामरस से भीगा लिंग मेरी दहकती चूत के मुंह पर टिकाया और एक जोरदार धक्के में समूचा लंड मेरी चूत में पेल दिया कि चूत चरमरा कर रह गयी। एकदम से मेरी चीख सी निकल गयी।
“फाड़ डाली रे मेरी चूत मादरचोद!” मैंने बिलबिलाते हुए कहा।
“भोसड़ा बना के रख दूंगा तेरी बुर का बहन की लौड़ी। रोज तकती थी मेरे लौड़े को। आज देख इस लौड़े से कैसे तेरी चूत फाड़ता हूँ मादरचोद। रंडी छिनाल। तेरी माँ की चूत.. यह ले यह ले।”
“फाड़ दे … फाड़ दे हरामी। बहुत लंड मांगती थी यह। आज मजा चखा दे इसको।”

वह मेरे पैरों को अपने कंधों पे चढ़ाये थोड़ा झुक आया था और अब खूब जोर-जोर से धक्के लगा रहा था। मेरी चूत की दीवारें इस घर्षण से तप कर बहने को आ गयी थीं। लंड चलाते वह मेरी चूचियों को भी बेरहमी से दबाये डाल रहा था और मैं मुट्ठियों में बिस्तर की चादर दबोच रखी थी।

फिर जब मैंने योनि की मांसपेशियों में तीव्र अकड़न महसूस की, तभी उसके शिश्नमुंड को फूलते महसूस किया और उससे उबले गर्म-गर्म वीर्य को अपनी योनि में भरते हुए अनुभव करने लगी। झड़ते हुए मैंने पैर उसके कंधे से हटा कर नीचे कर लिये थे और उसे अपने ऊपर गिरा कर दबोच लिया था और जोर-जोर से सिसकारने लगी थी। उसने भी स्खलन की अवस्था में भेड़िये जैसी जोरदार गुर्राहटों के साथ मुझे भींच लिया था और हम दोनों ने उस चरम अवस्था में इतनी जोर से एक दूसरे को भींचा था कि हड्डियां तक कड़कड़ा उठी थीं।

थोड़ी देर में संयत होने पर वह उठ कर मुझसे अलग हुआ तो उसका मुरझाया लिंग पुल्ल से बाहर आ गया और एकदम से वीर्य बाहर उबला जिसे मैंने हाथ लगा कर हाथ पर ले लिया कि बिस्तर न खराब हो।
“बाथरूम किधर है?” मैंने राजू की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने बायीं तरफ एक बंद दरवाजे की तरफ संकेत कर दिया।

मैं उठ कर बाथरूम चली गयी … वहां सारा वीर्य फेंका, योनि में मौजूद वीर्य निकाला और फिर सर छोड़ के बाकी बदन पानी से अच्छे से धो लिया। मैं निकली तो वे दोनों एकसाथ ही बाथरूम में घुस गये।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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हम दोनों ने उस चरम अवस्था में इतनी जोर से एक दूसरे को भींचा था कि हड्डियां तक कड़कड़ा उठी थीं।
थोड़ी देर में संयत होने पर वह उठ कर मुझसे अलग हुआ तो उसका मुरझाया लिंग पुल्ल से बाहर आ गया और एकदम से वीर्य बाहर उबला जिसे मैंने हाथ लगा कर हाथ पर ले लिया कि बिस्तर न खराब हो।
“बाथरूम किधर है?” मैंने राजू की तरफ देखते हुए पूछा तो उसने बायीं तरफ एक बंद दरवाजे की तरफ संकेत कर दिया।

मैं उठ कर बाथरूम चली गयी … वहां सारा वीर्य फेंका, योनि में मौजूद वीर्य निकाला और फिर सर छोड़ के बाकी बदन पानी से अच्छे से धो लिया। मैं निकली तो वे दोनों एकसाथ ही बाथरूम में घुस गये।

थोड़ी देर बाद हम तीनों फिर बिस्तर पर थे।

“मजा आ गया … ऐसे ही फिर चोदो। इस बार वैसे भी जल्दी नहीं झड़ोगे तो दोनों मिल के मेरी चूत चोदो। एक निकालो तो दूसरा डाले … ऐसे ही चोदते-चोदते पागल कर दो मुझे।” मैंने उन दोनों को देखते हुए कहा।
“मुझे गांड भी मारनी है।” राजू ने कहा।

“इसके बाद वाले राउंड में सिर्फ गांड ही गांड मारना और पूरी भक्कोल कर के रख देना। इस बार बस चूत ही चूत चोदो और झड़ना चूत में नहीं, बल्कि जैसे ही झड़ने को होना मेरे मुंह में दे देना। मैं मुंह से ही सब साफ कर दूंगी।”
“कमाल है … ऐसी चुदैली औरत तो हमने बस ब्लू फिल्मों में ही देखी है।” रघु थोड़ी हैरानी से बोला।
“समझो, मैं वहीं से निकल के तुम लोगों के बीच पहुंच गयी हूँ। अब टाईम मत वेस्ट करो.. शुरू हो जाओ।”

वे भी समय की कीमत समझते थे। हम तीनों नंगे बदन फिर एक दूसरे से गुत्थमगुत्था होने लगे। शारीरिक घर्षण फिर वासनात्मक आंच से शरीर को गर्म करने लगा। इस बार वे पहले की अपेक्षा कम हिंसक हो रहे थे लेकिन मैं उसके लिये भी उकसा रही थी। बार-बार उनके लिंग मुंह में ले कर बेरहमी से चूसने लगती। उनके मुंह में अपनी चूची घुसा देती, कहीं उनके मुंह पर चूत रख कर रगड़ने लगती।

बहुत ज्यादा देर नहीं लगी जब उनके लंड पूरे आकार में आ कर एकदम कठोर हो गये और मेरी चूत भी गीली हो कर बहने लगी।
“चलो अब शुरू हो जाओ। जैसे ब्लू फिल्मों में देखते हो, वैसे चोदना है … दोनों लोग बारी-बारी से बुर का भोसड़ा बना दो। जिसका लंड मुर्झाने लगे मेरे मुंह में दे दो, मैं टाईट कर दूंगी।”

शुरुआत चित लिटा कर चोदने से हुई। पहले राजू ने लंड घुसाया और घचाघच पेलने लगा। मैं हर धक्के पर जोर जोर से सिसकारते हुए उम्म्ह… अहह… हय… याह… उसे बकअप कर रही थी कि वह मुझे गालियां देता गंदी-गंदी बातें भी करता रहे। रघु का लंड कमजोर पड़ने लगा तो उसने मेरे मुंह में दे दिया और टाईट होते ही उसने राजू को हटा दिया और खुद चढ़ गया। अब उसके जोरदार धक्कों से चूत चरमराने लगी। मैंने भी आहों कराहों में कोई कसर नहीं उठा रखी थी।

राजू पहले तो मेरी घुंडियां मसलने चूसने में लगा रहा लेकिन जब उसे लगा कि उसकी उत्तेजना कम पड़ रही थी तो उसने मेरे ही रस से भीगा लंड मेरे मुंह में दे दिया जिसे मैं चपड़-चपड़ चूसने लगी।

जब इस पोजीशन में रघु भी अच्छे खासे धक्के लगा चुका तो आसन बदलने के लिये मैं औंधी हो गयी और एक टांग सीधी रखते, दूसरी टांग इस तरह ऊपर खींच ली कि चूत बाहर उभर आये। इस तरह राजू ने अपना लंड घुसा दिया और अब चूँकि मेरे चूतड़ उनके सामने थे तो उन पर तमांचे मारते उन्हें भी साथ में सहलाने लगा। मैं उस आनंद की पहले शायद सटीक कल्पना भी नहीं कर पाई थी जो मुझे इस वक्त मिल रहा था।

आनंद के अतिरेक से मेरी आंखें मुंद गयी थीं और मैं बस बेसाख्ता ही जोर-जोर से सिसकारे जा रही थी। मुझे इस बात की भी कोई परवाह नहीं थी कि आसपास कोई सुन लेगा। सुन लेगा तो सुन ले.. आज मैं चुद रही थी जो मेरी कब से आरजू थी इसलिये आज कोई बंधन स्वीकार्य नहीं था।

राजू को हटा कर खुद चढ़ने से पहले रघु ने मेरे मुंह में दे कर फिर से अपना लंड कड़ा कर लिया और फिर राजू की जगह वह आ गया और राजू मेरे पड़ोस में लेट कर मेरे होंठ, मेरी जीभ चूसने लगा। एक हाथ से मेरी एक चूची भी मसले जा रहा था।

यह आसन भी हो गया तो मैं उठ कर बिस्तर के किनारे अपनी गांड हवा में उठ कर झुक गयी और उनसे कहा कि अब वह नीचे खड़े हो कर पूरी ताकत से चोदें।

पहल राजू ने की … मेरे चूतड़ों को दबोच कर वह जोर-जोर से धक्के लगाने लगा। उसकी सुविधा के लिये मैं खुद भी बार-बार चूतड़ पीछे करके उसके लंड को चूत में जड़ तक घुसने का मौका दे रही थी। कमरे में ‘फच-फच’ ‘थप-थप’ की मधुर ध्वनि के साथ मेरी मादक कराहें और उनकी जानवर जैसी हिंसक भारी सांसों के साथ ही उनकी गालियां और वे गंदी बातें भी गूंज रही थीं जो वे जोश बोले जा रहे थे।

यहां वे चोदने के लिये अपनी बारी में उतना टाईम नहीं ले रहे थे जितना पहले लिया था, बल्कि थोड़ी-थोड़ी देर में स्थान बदल रहे थे। जहां राजू का लंड समान मोटाई लिये था मगर लंबाई रघु से कम थी, वहीं रघु का लंड बच्चेदानी पर चोट करता लगता था जिसे बर्दाश्त करने में मेरी हालत खराब हुई जा रही थी।

इस बीच मैं झड़ भी चुकी थी और लंड खाते-खाते दुबारा भी गर्म हो गयी थी और अब फिर से उसी उफान पर थी जहां योनिभेदन करते लंड मुझे वापस चर्मोत्कर्ष तक पहुंचाये दे रहे थे।

“मेरा निकलने वाला है।” इस बार पहले रघु बोला और लंड निकालते मेरे मुंह की तरफ आ गया जबकि चूत खाली होते ही राजू ने अपना लंड पेल दिया था। रघु का लंड मैंने हलक की जड़ तक लेते जोर से दबा लिया … वह एकदम से फूला और बह चला। आगे पीछे उसने जो पिचकारी छोड़ी, वह सीधे हलक में उतरती चली गयी जिसका स्वाद भी मुझे न पता चला।

हां … बाद में लंड ढीला हुआ और थोड़ा बाहर निकला तो अंत की छोटी पिचकारी से उसके रस का नमकीन स्वाद मिला, जिसे अनुभव करते मैं हलक में उतार गयी और रघु ने हांफते हुए अपना लंड मेरे मुंह से निकाल लिया और बिस्तर पर फैल गया।

मेरी निमग्नता भंग होने से मेरा स्ख्लन भी डिले हो गया था, जिस पर वापस ध्यान दिया तो राजू के धक्के मुझे चरम सुख देने लगे और थोड़ी देर में मैं भी अकड़ गयी। मेरी योनि उसके लंड को भींचने लगी तो वह भी उत्तेजना के शिखर पर पहुंच गया और उसने भी जल्दी से लंड चूत से निकाल कर मेरे मुंह में ला ठूंसा। उसके साथ भी मैंने वही किया जो रघु के साथ किया था और वह भी कुछ पल बाद बिस्तर पर फैल गया।

अब अलग-अलग हम तीनों पड़े अपनी उखड़ी सांसें दुरुस्त कर रहे थे।
“बोलो … मैं तो बहुत भूखी थी। मुझमें अभी भी दम है, गांड मरवाने का। क्या तुम लोगों में दम है और लंड चलाने का या मैं पैकिंग करूँ?” मैंने चुनौती भरे अंदाज में कहा।

कोई आम हालात होते तो वे शायद मना कर देते लेकिन ऐसी खुली रांड सी औरत रोज कहां चोदने को मिलती है, वे इसका लोभ संवारण न कर सके।
“थोड़ा टाईम दो.. संभलने का। गांड भी मारेंगे और आज जब घर जाओगी तो महीनों इस चुदाई को भूले न भूल पाओगी।”
“मैं भी तो यही चाहती हूँ लेकिन गांड चूत के मुकाबले सख्त होती है। कुछ चिकनाहट का इंतजाम करना पड़ेगा।”
“कभी कभार हम यहीं खाना बनाते हैं तो सरसों का तेल ही है और कुछ नहीं।”
“वह भी चलेगा।”

करीब दस मिनट लगे उन्हें संभलने में … ज्यादा टाईम तो उन्हें मैं दे भी नहीं सकती थी। मैं खुद से उन पर चढ़ने, उन्हें चूमने चाटने लगी। उनके सोये मुरझाये लंडों को सहलाने चाटने लगी।

धीरे-धीरे उनमें गर्मी आने लगी और वे भी मूझसे लिपटने रगड़ने लगे। इस बार पहले वाली आक्रामकता गायब थी और उसका स्थान सौम्यता ने ले लिया था। उनके लंडों को जागने में टाईम भी ज्यादा लगा और करीब दस मिनट और खर्च हुए पूरी तरह तैयार होने में।

राजू तेल ले आया जिसकी फिलहाल मुझे जरूरत थी। मैंने दोनों के लंड उस तेल को चुपड़ कर एकदम चमका दिये और खुद औंधी लेट कर सिर्फ गांड वाले हिस्से को उभार दिया कि वे उसमें तेल लगा कर अपनी उंगलियों से चोदन करें।

उन्होंने भी पूरे चूतड़ तेल से चमका दिये और थोड़ा-थोड़ा तेल छेद में डालते और उंगली करते। यहां एक बात बता दूँ कि चूँकि पोर्न पढ़ और देख कर मैं खुद तरसती थी तो खुद अपनी उंगली, मोमबत्ती आदि से यह करती थी तो ऐसा भी नहीं था कि मेरी गांड का छेद इस चीज से अंजान था। वह उनकी उंगलियों को सहज रूप से स्वीकारने लगा। पहले एक उंगली, फिर दो और फिर तीन … ऐसा लगा जैसे गांड ही फट जायेगी।

“अब लंड डाल के फाड़ दो हरामियो!” मैंने खुद से अपने चूतड़ हिलाते और कुतिया की तरह होते, अपनी गांड उनके सामने पेश करते हुए कहा।

पहले राजू ने अपना लंड छेद पर टिका कर जोर डाला। जाहिर है कि चिकनाहट काफी थी तो रुकने का सवाल ही नहीं था। पूरा सुपाड़ा एकदम से सारी चुन्नटों को फैलाते हुए अंदर घुसा। ऐसा लगा जैसे गांड ही फट गयी हो … साथ ही ऐसा भी लगा जैसे गू ही निकल जायेगा लेकिन बर्दाश्त कर गयी और मुंह से बिलबिलाहट के साथ गालियां निकलने लगीं।

रघु थोड़ा होशियार खिलाड़ी साबित हुआ। उसने हाथ नीचे देकर चूत सहलानी और मेरे दाने को रगड़ना शुरू कर दिया। जिससे थोड़ी राहत मिली।
मैं चूत को मिलती राहत की तरफ ध्यान लगाने लगी और राजू ठेलता हुआ पूरा लंड अंदर कर गया। मोमबत्ती की बात और थी, एक मोटे लंड के लिहाज से यह अनुभव ऐसा था जैसे जोर की हगास लगी हो और जब उसने अपने लंड को बाहर खींचा तो हगने जैसी ही फीलिंग आई … लेकिन टोपी तक खींच कर उसने फिर वापस पूरा अंदर ठेल दिया।

मेरे मुंह से फिर गाली निकल गयी।

आठ दस बार करने के बाद उसने फिर बाहर ही निकाल लिया और बताया कि उसमें गू भी लगा हुआ था, जिसे उसने साफ किया और फिर से तेल लगाया, जबकि अब उसकी जगह रघु ने अंदर ठांस दिया था और वक्ती राहत फौरन ही दफा हो गयी थी। उसने एक समझदारी यह की थी कि पूरा ठांसने के बजाये आधा ही डाला और धीरे-धीरे अंदर बाहर खींचने लगा।

करीब दस मिनट तो लग ही गये होंगे मुझे संभलने में। इस बीच कभी यह कभी वह और कभी मैं खुद अपनी चूत और दाने को सहलाती रगड़ती रही कि मेरी उत्तेजना बनी रहे। दस मिनट बाद वह वक्त भी आया जब छेद इतना ढीला पड़ गया कि उनके लंड आसानी से अंदर बाहर होने लगे तब मुझे थोड़ा मजा आना शुरू हुआ।

चूँकि वे दो बार झड़ चुके थे तो जल्दी झड़ने का तो सवाल ही नहीं था, फिर वे जगह भी जल्दी-जल्दी बदल रहे थे तो और टाईम लगना था।

एक बार जब मैंने एडजस्ट कर लिया और अपनी गांड मराई एंजाय करने लगी तब हमने आसन चेंज करने शुरू किये और जिन-जिन आसन में उन्होंने मेरी चूत चोदी थी, उन-उन आसन से उसी अंदाज में गांड भी मारने लगे। मुझे अच्छा लग रहा था, मजा आ रहा था और उत्तेजित भी खूब हो रही थी लेकिन यह और बात थी कि एनल में मैं आर्गेज्म तक न पहुंच पाई।

जबकि वे आखिरकार आधे घंटे तक गांड मारते-मारते चरम पर पहुंच गये और इस बार चूँकि मेरी शुरुआती गर्मी निकल चुकी थी तो मैं मुंह में निकलवाने का साहस भी न कर पाई और दोनों को गांड में ही झड़वा लिया।

अंत में राजू के फारिग होते ही मैं टायलेट भागी और हगने के साथ उनका सारा माल बाहर निकाला।

अब मैं भी निढाल हो चुकी थी और वे भी। टाईम भी हो चुका था। बिना ब्रा और पैंटी के ही कपड़े पहन कर मैंने विदाई ली और अपने टाईम से थोड़ा लेट सही पर घर पहुँच गयी।

यह चुदाई यादगार थी.. मेरे बदन पर उनकी निशानियां महीने भर रही थीं और दोनों छेद सूज गये थे। मूतने में तो नहीं पर हगने में जरूर दो चार दिन समस्या रही। मैंने सोचा था कि महीने में एकाध बार यह महफिल जमा लिया करूँगी लेकिन फिर एक दिन मेरी आकांक्षाओं पर तुषारपात हो गया जब रघू का फोन आया कि वह मुलुक लौट रहा है। उसके घर कोई हादसा हो गया है। अब पता नहीं कब तक लौटे।

हालाँकि राजू का एक ऑप्शन तो था पर उसका नंबर मेरे पास नहीं था और रघु से लेती भी तो क्या पता उसके पार्टनर वापस आ चुके हों और वे कैसे हों। मुझे दो तरह के लोगों से डर लगता है जो आपकी पर्सनल लाईफ को डिस्टर्ब कर देते हैं … एक वे कुंवारे लौंडे जो फौरन दिल लगा बैठते हैं और दूसरे वे पजेसिव नेचर के मर्द जो किसी औरत को अपनी पर्सनल प्रापर्टी समझ लेते हैं … इनके सिवा मुझे हर मर्द स्वीकार है।

अब तीन महीने फिर हो रहे हैं … उस आक्रामक चुदाई के अहसास हल्के पड़ चुके हैं। मेरी योनि फिर सुलगने और लिंग मांगने लगी है। मैं फिर चुदने के पीछे वापस पागल सी होने लगी हूँ … काश … काश कि मुझे मुंबई में ही और खास कर सबर्ब में कोई अपने जैसा भूखा मर्द मिल जाता जो मुझे निचोड़ कर रख देता लेकिन मेरी पर्सनल लाईफ का भी ख्याल रखता कि वह इफेक्ट न हो।
काश!
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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supeerb colection
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janab ap se gozarish ha keh is story ko Roman urdu Mai likho?
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thanks i 'll try .
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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"Yes. Tomorrow, the day after, and the day after that, and the day after that," I answer, kissing all over her face as I speak. "And since you're such a good student and you got extra credit for your additional research last night, I want you to do some more research tonight. I want you to look up all the different sexual positions you can find and make a list of the ones you want to try," I tell her, moving my mouth to her neck. "I already know of two that I want to try. I really want to do it with you on top, so I can watch your sexy tits bouncing up and down, and play with your nipples while we fuck. And you have such an incredibly beautiful ass, Lisa, that I can't wait to fuck you from behind and watch the curves of your ass, while my cock slides in and out of your pussy."

"Wow! I'm getting wet again just thinking about it. Or maybe I'm just still wet from everything you've already done to me. I can't wait, Jack. Let's take that shower now, then I can get started with my research." She pushes me over onto my side, swings her legs over the edge of the bed and stands up. "Come on!" she says, pulling me up off the bed.

I follow her down the hall into our bathroom. It feels weird for the two of us to be prancing around the house naked, but I love it. Our bathroom has a tub and shower combination with frosted glass doors. Lisa slides the door open and leans in to turn on the water. I playfully smack her bare ass while she adjusts the water temperature.

"Watch it!" she says smiling.

"I am watching it," I answer, staring at her ass. "It's beautiful."
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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थामने हम बढे, हाथ देना तो था
तुम मेरे हो,मेरा साथ देना तो था
हौसलों पर मेरे, यूँ गिरी ग़ाज़ क्यों
गीत गुमसुम रहे,खोये अलफ़ाज़ क्यों
साधने हम चले, आस देना तो था
तुम मेरे हो, मेरा साथ देना तो था
कोई राहत नहीं, कोई चाहत नहीं
है कहाँ वो ख़ुशी,कोई आहट नहीं
बेबसी को मेरी, मात देना तो था
तुम मेरे हो, मेरा साथ देना तो था
ख़ाब खो जाएंगे, ये तो सोचा न था
किस तरह ये कहें, दर्द होता न था
सूनी आँखें रहीं, ख़ाब देना तो था
तुम मेरे हो, मेरा साथ देना तो था
थामने हम बढे, हाथ देना तो था
तुम मेरे हो,मेरा साथ देना तो था
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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ओह दीदी यू र ग्रेट"-बहूत मज़ा आया













Heart banana Heart
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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मेरा नाम डॉली है । मेरा छोटा भाई रवि दसवी मैं पढ़ता है । वह गोरा चिट्टा और करीब मेरे ही बराबर लम्बा भी है । मैं इस समय 21 की हूँ और वह 18का । मुझे भैय्या के गुलाबी होंठ बहूत प्यारे लगते हैं । दिल करता है कि बस चबा लूं । पापा गल्फ़ में है और माँ गवर्नमेंट जोब में । माँ जब जोब की वजह से कहीं बाहर जाती तो घर मैं बस हम दो भाई बहन ही रह जाते थे । मेरे भाई का नाम रवि है और वह मुझे दीदी कहता है ।

एक बार मान कुछ दिनों के लिये बाहर गयी थी । उनकी इलेक्शन ड्यूटी लग गयी थी । माँ को एक हफ़्ते बाद आना था । रात मैं डिनर के बाद कुछ देर टी वी देखा फ़िर अपने-अपने कमरे मैं सोने के लिये चले गये।करीब एक आध घण्टे बाद प्यास लगने की वजह से मेरी नींद खुल गयी । अपनी सीधे टेबल पर बोटल देखा तो वह खाली थी । मैं उठ कर किचन मैं पानी पीने गयी तो लौटते समय देखा कि रवि के कमरे की लाइट ओन थी और दरवाज़ा भी थोड़ा सा खुला था । मुझे लगा कि शायद वह लाइट ओफ़ करना भूल गया है मैं ही बन्द कर देती हूँ ।

मैं चुपके से उसके कमरे में गयी लेकिन अन्दर का नजारा देखकर मैं हैरान हो गयी ।रवि एक हाथ मैं कोई किताब पकड़ कर उसे पढ़ रहा था और दूसरा हाथ से अपने तने हुए लण्ड को पकड़ कर मुठ मार रहा था । मैं कभी सोच भी नहीं सकती थी कि इतना मासूम लगने वाला दसवी का यह छोकरा ऐसा भी कर सकता है । मैं दम साधे चुपचाप खड़ी उसकी हरकत देखती रही, लेकिन शायद उसे मेरी उपस्थिति का आभास हो गया । उसने मेरी तरफ़ मुँह फेरा और दरवाजे पर मुझे खड़ा देखकर चौंक गया। वह बस मुझे देखता रहा और कुछ भी ना बोल पाया ।

फिर उसने मुँह फ़ेर कर किताब तकिये के नीचे छुपा दी । मुझे भी समझ ना आया कि क्या करूं । मेरे दिल मैं यह ख्याल आया कि कल से यह लड़का मुझसे शर्मायेगा और बात करने से भी कतरायेगा । घर मैं इसके अलावा और कोई है भी नहीं जिससे मेरा मन बहलता । मुझे अपने दिन याद आये। मैं और मेरा एक कज़िन इसी उमर के थे जब से हमने मज़ा लेना शुरू किया था तो इसमें कौन सी बड़ी बात थी अगर यह मुठ मार रहा था ।मैं धीरे-धीरे उसके पास गयी और उसके कंधे पर हाथ रखकर उसके पास ही बैठ गयी। वह चुपचाप लेटा रहा ।

मैंने उसके कंधो को दबाते हुई कहा, "अरे रवि, अगर यही करना था तो कम से कम दरवाज़ा तो बन्द कर लिया होता" । वह कुछ नहीं बोला, बस मुँह दूसरी तरफ़ किये लेटा रहा । मैंने अपने हाथों से उसका मुँह अपनी तरफ़ किया और बोली "अभी से ये मज़ा लेना शुरू कर दिया। कोई बात नहीं मैं जाती हूँ तो अपना मज़ा पूरा कर ले। लेकिन जरा यह किताब तो दिखा। मैंने तकिये के नीचे से किताब निकाल ली। यह हिन्दी मैं लिखे मस्तराम की किताब थी। मेरा कज़िन भी बहूत सी मस्तराम की किताबें लाता था और हम दोनों ही मजे लेने के लिये साथ-साथ पढ़ते थे।

चुदाई के समय किताब के डायलोग बोल कर एक दूसरे का जोश बढ़ाते थे।जब मैं किताब उसे देकर बाहर जाने के लिये उठी तो वह पहली बार बोला, "दीदी सारा मज़ा तो आपने खराब कर दिया, अब क्या मज़ा करुंगा।"अरे! अगर तुमने दरवाज़ा बन्द किया होता तो मैं आती ही नहीं।"और अगर आपने देख लिया था तो चुपचाप चली जाती। अगर मैं बहस मैं जीतना चाहती तो आसानी से जीत जाती लेकिन मेरा वह कज़िन करीब ६ मंथ्स से नहीं आया था इसलिये मैं भी किसी से मज़ा लेना चाहती ही थी।

रवि मेरा छोटा भाई था और बहूत ही सेक्सी लगता था इसलिये मैंने सोचा कि अगर घर में ही मज़ा मिल जाये तो बाहर जाने की क्या जरूरत? फिर रवि का लौड़ा अभी कुंवारा था। मैं कुँवारे लण्ड का मज़ा पहली बार लेती, इसलिये मैंने कहा, "चल अगर मैंने तेरा मज़ा खराब किया है तो मैं ही तेरा मज़ा वापस कर देती हूँ। फिर मैं पलंग पर बैठ गयी और उसे चित लिटाया और उसके मुर्झाये लण्ड को अपनी मुट्ठी में लिया। उसने बचने की कोशिश की पर मैंने लण्ड को पकड़ लिया था।

अब मेरे भाई को यकीन हो चुका था कि मैं उसका राज नहीं खोलूंगी, इसलिये उसने अपनी टांगे खोल दी ताकि मैं उसका लण्ड ठीक से पकड़ सकूँ। मैंने उसके लण्ड को बहूत हिलाया-डूलाया लेकिन वह खड़ा ही नहीं हुआ। वह बड़ी मायूसी के साथ बोला "देखा दीदी अब खड़ा ही नहीं हो रहा है।"अरे! क्या बात करते हो? अभी तुमने अपनी बहन का कमाल कहाँ देखा है। मैं अभी अपने प्यारे भाई का लण्ड खड़ा कर दूंगी। ऐसा कह मैं भी उसके बगल में ही लेट गयी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
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मैं उसका लण्ड सहलाने लगी और उससे किताब पढ़ने को कहा। "दीदी मुझे शर्म आती है। "साले अपना लण्ड बहन के हाथ में देते शर्म नहीं आयी। मैंने ताना मारते हुए कहा "ला मैं पढ़ती हूँ। और मैंने उसके हाथ से किताब ले ली । मैंने एक स्टोरी निकाली जिसमे भाई बहन के डायलोग थे। और उससे कहा, "मैं लड़की वाला बोलूँगी और तुम लड़के वाला। मैंने पहले पढ़ा, "अरे राजा मेरी चूचियों का रस तो बहूत पी लिया अब अपना बनाना शेक भी तो टेस्ट कराओ" ।"अभी लो रानी पर मैं डरता हूँ इसलियेकि मेरा लण्ड बहूत बड़ा है, तुम्हारी नाजुक कसी चूत में कैसे जायेगा?और इतना पढ़कर हम दोनों ही मुस्करा दिये क्योंकि यह हालत बिलकुल उलटे थे। मैं उसकी बड़ी बहन थी और मेरी चूत बड़ी थी और उसका लण्ड छोटा था। वह शर्मा गया लेकिन थोड़ी सी पढ़ायी के बाद ही उसके लण्ड मैं जान भर गयी और वह तन कर करीब ६ इँच का लम्बा और १५ । इँच का मोटा हो गया।

मैंने उसके हाथ से किताब लेकर कहा, "अब इस किताब की कोई जरूरत नहीं । देख अब तेरा खड़ा हो गया है । तो बस दिल मैं सोच ले कि तू किसी की चोद रहा है और मैं तेरी मु्ठ मार देती हूँ" ।मैं अब उसके लण्ड की मु्ठ मार रही थी और वह मज़ा ले रहा था । बीच बीच मैं सिस्कारियां भी भरता था । एकाएक उसने चूतड़ उठा कर लण्ड ऊपर की ओर ठेला और बोला, "बस दीदी" और उसके लण्ड ने गाढ़ा पानी फेंक दिया जो मेरी हथेली पर गिरा । मैं उसके लण्ड के रस को उसके लण्ड पर लगाती उसी तरह सहलाती रही और कहा, "क्यों भय्या मज़ा आया""सच दीदी बहूत मज़ा आया" । "अच्छा यह बता कि ख़्यालों मैं किसकी ले रहे थे?" "दीदी शर्म आती है । बाद मैं बताऊँगा" ।

इतना कह उसने तकिये मैं मुँह छुपा लिया ।"अच्छा चल अब सो जा नींद अच्छी आयेगी । और आगे से जब ये करना हो तो दरवाज़ा बन्द कर लिया करना" । "अब क्या करना दरवाज़ा बन्द करके दीदी तुमने तो सब देख ही लिया है" ।"चल शैतान कहीं के" । मैंने उसके गाल पर हलकी सी चपत मारी और उसके होंठों को चूमा । मैं और किस करना चाहती थी पर आगे के लिये छोड़ कर वापस अपने कमरे में आ गयी । अपनी सलवार कमीज उतार कर नाइटी पहनने लगी तो देखा कि मेरी पैंटी बुरी तरह भीगी हुयी है ।

रवि के लण्ड का पानी निकालते-निकालते मेरी चूत ने भी पानी छोड़ दिया था । अपना हाथ पैंटी मैं डालकर अपनी चूत सहलाने लगी ऊंगलियों का स्पर्श पाकर मेरी चूत फ़िर से सिसकने लगी और मेरा पूरा हाथ गीला हो गया । चूत की आग बुझाने का कोई रास्ता नहीं था सिवा अपनी उँगली के । मैं बेड पर लेट गयी । रवि के लण्ड के साथ खेलने से मैं बहूत एक्साइटिड थी और अपनी प्यास बुझाने के लिये अपनी बीच वाली उँगली जड़ तक चूत मैं डाल दी ।

तकिये को सीने से कसकर भींचा और जान्घों के बीच दूसरा तकीया दबा आंखे बन्द की और रवि के लण्ड को याद करके उँगली अन्दर बाहर करने लगी । इतनी मस्ती चढ़ी थी कि क्या बताये, मन कर रहा था कि अभी जाकर रवि का लण्ड अपनी चूत मैं डलवा ले । उँगली से चूत की प्यास और बढ़ गयी इसलिये उँगली निकाल तकिये को चूत के ऊपर दबा औन्धे मुँह लेट कर धक्के लगाने लगी । बहुत देर बाद चूत ने पानी छोड़ा और मैं वैसे ही सो गयी ।सुबह उठी तो पूरा बदन अनबुझी प्यास की वजह से सुलग रहा था । लाख रगड़ लो तकिये पर लेकिन चूत मैं लण्ड घुसकर जो मज़ा देता है उसका कहना ही क्या । बेड पर लेटे हुए मैं सोचती रही कि रवि के कुँवारे लण्ड को कैसे अपनी चूत का रास्ता दिखाया जाये । फिर उठ कर तैयार हुयी । रवि भी स्कूल जाने को तैयार था ।

नाश्ते की टेबल हम दोनों आमने-सामने थे । नजरें मिलते ही रात की याद ताजा हो गयी और हम दोनों मुस्करा दिये । रवि मुझसे कुछ शर्मा रहा था कि कहीं मैं उसे छेड़ ना दूँ । मुझे लगा कि अगर अभी कुछ बोलूँगी तो वह बिदक जायेगा इसलिये चाहते हुई भी ना बोली । चलते समय मैंने कहा, "चलो आज तुम्हे अपने स्कूटर पर स्कूल छोड़ दूँ" । वह फ़ौरन तैयार हो गया और मेरे पीछे बैठ गया । वह थोड़ा सकुचाता हुआ मुझसे अलग बैठा था । वह पीछे की स्टेपनी पकड़े था ।

मैंने स्पीड से स्कूटर चलाया तो उसका बैलेंस बिगड़ गया और सम्भालने के लिये उसने मेरी कमर पकड़ ली । मैं बोली, "कसकर पकड़ लो शर्मा क्यों रहे हो?""अच्छा दीदी" और उसने मुझे कसकर कमर से पकड़ लिया और मुझसे चिपक सा गया । उसका लण्ड खड़ा हो गया था और वह अपनी जान्घों के बीच मेरे चूतड़ को जकड़े था ।"क्या रात वाली बात याद आ रही है रवि ""दीदी रात की तो बात ही मत करो । कहीं ऐसा ना हो कि मैं स्कूल मैं भी शुरू हो जाऊँ" । "अच्छा तो बहूत मज़ा आया रात में""हाँ दीदी इतना मज़ा जिन्दगी मैं कभी नहीं आया । काश कल की रात कभी खत्म ना होती । आपके जाने के/की बाद मेरा फ़िर खड़ा हो गया था पर आपके हाथ मैं जो बात थी वो कहाँ । ऐसे ही सो गया" ।"तो मुझे बुला लिया होता । अब तो हम तुम दोस्त हैं । एक दूसरा के काम आ सकते हैं" ।"

तो फ़िर दीदी आज राख का प्रोग्राम पक्का" ।"चल हट केवल अपने बारे मैं ही सोचता है । ये नहीं पूछता कि मेरी हालत कैसी है? मुझे तो किसी चीज़ की जरूरत नहीं है? चल मैं आज नहीं आती तेरे पास।"अरे आप तो नाराज हो गयी दीदी । आप जैसा कहेंगी वैसा ही करुंगा । मुझे तो कुछ भी पता नहीं अब आप ही को मुझे सब सिखाना होगा" ।तब तक उसका स्कूल आ गया था । मैंने स्कूटर रोका और वह उतरने के बाद मुझे देखने लगा लेकिन मैं उस पर नज़र डाले बगैर आगे चल दी ।
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स्कूटर के शीशे मैं देखा कि वह मायूस सा स्कूल में जा रहा है । मैं मन ही मन बहूत खुश हुयी कि चलो अपने दिल की बात का इशारा तो उसे दे ही दिया ।शाम को मैं अपने कालेज से जल्दी ही वापस आ गयी थी । रवि २ बजे वापस आया तो मुझे घर पर देखकर हैरान रह गया । मुझे लेटा देखकर बोला, "दीदी आपकी तबीयत तो ठीक है?" "ठीक ही समझो, तुम बताओ कुछ होमवर्क मिला है क्या" "दीदी कल सण्डे है ही । वैसे कल रात का काफी होमवर्क बचा हुआ है" ।

मैंने हंसी दबाते हुए कहा, "क्यों पूरा तो करवा दिया था । वैसे भी तुमको यह सब नहीं करना चाहिये । सेहत पर असर पढ़ता है । कोई लड़की पटा लो, आजकल की लड़कियाँ भी इस काम मैं काफी इंटेरेस्टेड रहती हैं" । "दीदी आप तो ऐसे कह रही हैं जैसे लड़कियाँ मेरे लिये सलवार नीचे और कमीज ऊपर किये तैयार है कि आओ पैंट खोलकर मेरी ले लो" । "नहीं ऐसी बात नहीं है । लड़की पटानी आनी चाहिये" ।फिर मैं उठ कर नाश्ता बनाने लगी । मन मैं सोच रही थी कि कैसे इस कुँवारे लण्ड को लड़की पटा कर चोदना सिखाऊँ? लंच टेबल पर उससे पूछा, "अच्छा यह बता तेरी किसी लड़की से दोस्ती है?""हाँ दीदी सुधा से" ।"कहाँ तक""बस बातें करते हैं और स्कूल मैं साथ ही बैठते हैं" ।

मैंने सीधी बात करने के लिये कहा, "कभी उसकी लेने का मन करता है?""दीदी आप कैसी बात करती हैं" । वह शर्मा गया तो मैं बोली, "इसमे शर्माने की क्या बात है । मुट्ठी तो तो रोज मारता है । ख़्यालों मैं कभी सुधा की ली है या नहीं सच बता" । "लेकिन दीदी ख़्यालों मैं लेने से क्या होता है" । "तो इसका मतलब है कि तो उसकी असल में लेना चाहता है" । मैंने कहा ।"उससे ज्यादा तो और एक है जिसकी मैं लेना चाहता हूँ, जो मुझे बहूत ही अच्छी लगती है" । "जिसकी कल रात ख़्यालों मैं ली थी" उसने सर हिलाकर हाँ कर दिया पर मेरे बार-बार पूछने पर भी उसने नाम नहीं बताया । इतना जरूर कहा कि उसकी चूदाई कर लेने के बाद ही उसका नाम सबसे पहले मुझे बतायेगा ।

मैंने ज्यादा नहीं पूछा क्योंकि मेरी चूत फ़िर से गीली होने लगी थी । मैं चाहती थी कि इससे पहले कि मेरी चूत लण्ड के लिये बेचैन हो वह खुद मेरी चूत मैं अपना लण्ड डालने के लिये गिड़गिड़ाये। मैं चाहती थी कि वह लण्ड हाथ में लेकर मेरी मिन्नत करे कि दीदी बस एक बार चोदने दो । मेरा दिमाग ठीक से काम नहीं कर रहा था इसलिये बोली, "अच्छा चल कपड़े बदल कर आ मैं भी बदलती हूँ" ।वह अपनी यूनीफोर्म चेंज करने गया और मैंने भी प्लान के मुताबिक अपनी सलवार कमीज उतार दी । फिर ब्रा और पैंटी भी उतार दी क्योंकि पटाने के मदमस्त मौके पर ये दिक्कत करते ।

अपना देसी पेटीकोट और ढीला ब्लाउज़ ही ऐसे मौके पर सही रहते हैं । जब बिस्तर पर लेटो तो पेटीकोट अपने/अपनी आप आसानी से घुटने तक आ जाता है और थोड़ी कोशिश से ही और ऊपर आ जाता है । जहाँ तक ढीलें ब्लाउज़ का सवाल है तो थोड़ा सा झुको तो सारा माल छलक कर बाहर आ जाता है । बस यही सोच कर मैंने पेटीकोट और ब्लाउज़ पहना था ।वह सिर्फ़ पायजामा और बनियान पहनकर आ गया । उसका गोरा चित्त चिकना बदन मदमस्त करने वाला लग रहा था । एकाएक मुझे एक आइडिया आया । मैं बोली, "मेरी कमर मैं थोड़ा दर्द हो रहा है जरा बाम लगा दे" ।

यह बेड पर लेटने का पर्फेक्ट बहाना था और मैं बिस्तर पर पेट के बल लेट गयी । मैंने पेटीकोट थोड़ा ढीला बांधा था इस लिये लेटते ही वह नीचे खिसक गया और मेरी बीच की दरार दिखाये देने लगी । लेटते ही मैंने हाथ भी ऊपर कर लिये जिससे ब्लाउज़ भी ऊपर हो गया और उसे मालिश करने के लिये ज्यादा जगह मिल गयी । वह मेरे पास बैठ कर मेरी कमर पर (आयोडेक्स पैन बाम) लगाकर धीरे धीरे मालिश करने लगा । उसका स्पर्श (तच) बड़ा ही सेक्सी था और मेरे पूरे बदन में सिहरन सी दौड़ गयी । थोड़ी देर बाद मैंने करवट लेकर रवि की और मुँह कर लिया और उसकी जान्घ पर हाथ रखकर ठीक से बैठने को कहा । करवट लेने से मेरी चूचियों ब्लाउज़ के ऊपर से आधी से ज्यादा बाहर निकाल आयी थी । उसकी जान्घ पर हाथ रखे रखे ही मैंने पहले की बात आगे बढ़ाई, "तुझे पता है कि लड़की कैसे पटाया जाता है?""अरे दीदी अभी तो मैं बच्चा हूँ । यह सब आप बतायेंगी तब मालूम होगा मुझे" ।

आयोडेक्स लगने के दौरान मेरा ब्लाउज़ ऊपर खींच गया था जिसकी वजह से मेरी गोलाइयाँ नीचे से भी झांक रही थी । मैंने देखा कि वह एकटक मेरी चूचियों को घूर रहा है । उसके कहने के अन्दाज से भी मालूम हो गया कि वह इस सिलसिले मैं ज्यादा बात करना चाह रहा है।"अरे यार लड़की पटाने के लिये पहले ऊपर ऊपर से हाथ फेरना पड़ता है, ये मालूम करने के लिये कि वह बूरा तो नहीं मानेगी" । "पर कैसे दीदी" । उसने पूछा और अपने पैर ऊपर किये ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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मैंने थोड़ा खिसक कर उसके लिये जगह बनायी और कहा, "देख जब लड़की से हाथ मिलाओ तो उसको ज्यादा देर तक पकड़ कर रखो, देखो कब तक नहीं छुटाती है । और जब पीछे से उसकी आँख बन्द कर के पूछों कि मैं कौन हूँ तो अपना केला धीरे से उसके पीछे लगा दो । जब कान मैं कुछ बोलो तो अपना गाल उसके गाल पर रगड़ दो । वो अगर इन सब बातों का बूरा नहीं मानती तो आगे की सोचों" ।रवि बड़े ध्यान से सुन रहा था । वह बोला, "दीदी सुधा तो इन सब का कोई बूरा नहीं मानती जबकि मैंने कभी ये सोच कर नहीं किया था । कभी कभी तो उसकी कमर मैं हाथ डाल देता हूँ पर वह कुछ नहीं कहती" । "तब तो यार छोकरी तैयार है और अब तो उसके साथ दूसरा खेल शुरू कर" ।

"कौन सा दीदी" "बातों वाला । यानी कभी उसके सन्तरो की तारीफ करके देख क्या कहती है । अगर मुस्करा कर बूरा मानती है तो समझ ले कि पटाने मैं ज्यादा देर नहीं लगेगी" ।"पर दीदी उसके तो बहुत छोटे-छोटे सन्तरे हैं । तारीफ के काबिल तो आपके है" । वह बोला और शर्मा कर मुँह छुपा लिया । मुझे तो इसी घड़ी का इंतजार था । मैंने उसका चेहरा पकड़ कर अपनी और घूमते हुए कहा, "मैं तुझे लड़की पटाना सीखा रही हूँ और तो मुझी पर नजरें जमाये है" ।"नहीं दीदी सच मैं आपकी चूचियों बहूत प्यारी है । बहुत दिल करता है" । और उसने मेरी कमर मैं एक हाथ डाल दिया ।

"अरे क्या करने को दिल करता है ये तो बता" । मैंने इठला कर पूछा ।"इनको सहलाने का और इनका रस पीने का" । अब उसके हौसले बुलन्द हो चुके थे और उसे यकीन था कि अब मैं उसकी बात का बूरा नहीं मानूँगी । "तो कल रात बोलता । तेरी मुठ मारते हुए इनको तेरे मुँह मैं लगा देती । मेरा कुछ घिस तो नहीं जाता । चल आज जब तेरी मुठ मारूंगी तो उस वक्त अपनी मुराद पूरी कर लेना" । इतना कह उसके पायजामा मैं हाथ डालकर उसका लण्ड पकड़ लिया जो पूरी तरह से तन गया था । "अरे ये तो अभी से तैयार है" ।तभी वह आगे को झुका और अपना चेहरा मेरे सीने मैं छुपा लिया ।

मैंने उसको बांहों मैं भरकर अपने करीब लिटा लिया और कस के दबा लिया । ऐसा करने से मेरी चूत उसके लण्ड पर दबने लगी । उसने भी मेरी गर्दन मैं हाथ डाल मुझे दबा लिया । तभी मुझे लगा कि वो ब्लाउज़ के ऊपर से ही मेरी लेफ़्ट चूचींयाँ को चूस रहा है । मैंने उससे कहा "अरे ये क्या कर रहा है? मेरा ब्लाउज़ खराब हो जायेगा" ।उसने झट से मेरा ब्लाउज़ ऊपर किया और निप्पल मुँह मैं लेकर चूसना शुरू कर दिया। मैं उसकी हिम्मत की दाद दिये बगैर नहीं रह सकी ।

वह मेरे साथ पूरी तरह से आजाद हो गया था । अब यह मेरे ऊपर था कि मैं उसको कितनी आजादी देती हूँ । अगर मैं उसे आगे कुछ करने देती तो इसका मतलब था कि मैं ज्यादा बेकरार हूँ चुदवाने के लिये और अगर उसे मना करती तो उसका मूड़ खराब हो जाता और शायद फ़िर वह मुझसे बात भी ना करे । इस लिये मैंने बीच का रास्ता लिया और बनावटी गुस्से से बोली, "अरे ये क्या तो तो जबरदस्ती करने लगा । तुझे शर्म नहीं आती" ।"ओह्ह दीदी आपने तो कहा था कि मेरा ब्लाउज़ मत खराब कर । रस पीने को तो मना नहीं किया था इसलिये मैंने ब्लाउज़ को ऊपर उठा दिया" । उसकी नज़र मेरी लेफ़्ट चूचींयाँ पर ही थी जो कि ब्लाउज़ से बाहर थी । वह अपने को और नहीं रोक सका और फ़िर से मेरी चूचींयाँ को मुँह मैं ले ली और चूसने लगा ।

मुझे भी मज़ा आ रहा था और मेरी प्यास बढ़ रही थी । कुछ देर बाद मैंने जबरदस्ती उसका मुँह लेफ़्ट चूचींयाँ से हटाया और राइट चूचींयाँ की तरफ़ लेते हुए बोली, "अरे साले ये दो होती हैं और दोनों मैं बराबर का मज़ा होता है" ।उसने राइट मम्मे को भी ब्लाउज़ से बाहर किया और उसका निप्पल मुँह मैं लेकर चुभलाने लगा और साथ ही एक हाथ से वह मेरी लेफ़्ट चूचींयाँ को सहलाने लगा । कुछ देर बाद मेरा मन उसके गुलाबी होंठों को चूमने को करने लगा तो मैंने उससे कहा, "कभी किसी को किस किया है?" "नहीं दीदी पर सुना है कि इसमें बहूत मज़ा आता है" । "बिल्कुल ठीक सुना है पर किस ठीक से करना आना चाहिये" ।कैसे"उसने पूछा और मेरी चूचींयाँ से मुँह हटा लिया ।

अब मेरी दोनों चूचियों ब्लाउज़ से आजाद खुली हवा मैं तनी थी लेकिन मैंने उन्हे छिपाया नहीं बल्कि अपना मुँह उसकेउसकी मुँह के पास लेजा कर अपने होंठ उसके होंठ पर रख दिये फ़िर धीरे से अपने होंठ से उसके होंठ खोलकर उन्हे प्यार से चूसने लगी । करीब दो मिनट तक उसके होंठ चूसती रही फ़िर बोली ।"ऐसे" ।वह बहूत एक्साइटिड हो गया था । इससे पहले कि मैं उसे बोलूँ कि वह भी एक बार किस करने की प्रक्टीस कर ले, वह खुद ही बोला, "दीदी मैं भी करूं आपको एक बार" "कर ले" । मैंने मुस्कराते हुए कहा ।रवि ने मेरी ही स्टाइल मैं मुझे किस किया ।

मेरे होंठों को चूसते समय उसका सीना मेरे सीने पर आकर दबाव डाल रहा था जिससे मेरी मस्ती दो गुणी हो गयी थी । उसका किस खत्म करने के बाद मैंने उसे अपने ऊपर से हटाया और बांहों मैं लेकर फ़िर से उसके होंठ चूसने लगी । इस बार मैं थोड़ा ज्यादा जोश से उसे चूस रही थी । उसने मेरी एक चूचींयाँ पकड़ ली थी और उसे कस कसकर दबा रहा था । मैंने अपनी कमर आगे करके चूत उसके लण्ड पर दबायी । लण्ड तो एकदम तन कर आयरन रोड हो गया था । चुदवाने का एकदम सही मौका था पर मैं चाहती थी कि वह मुझसे चोदने के लिये भीख माँगें और मैं उस पर एहसान करके उसे चोदने की इजाजत दूँ ।मैं बोली, "चल अब बहूत हो गया, ला अब तेरी मुठ मार दूँ" । "दीदी एक रिक्वेस्ट करूँ" "क्या" मैंने पूछा । "लेकिन रिक्वेस्ट ऐसी होनी चाहिये कि मुझे बुरा ना लगे" ।

ऐसा लग रहा था कि वह मेरी बात ही नहीं सुन रहा है बस अपनी कहे जा रहा है । वह बोला, "दीदी मैंने सुना है कि अन्दर डालने मैं बहूत मज़ा आता है । डालने वाले को भी और डलवाने वाले को भी । मैं भी एक बार अन्दर डालना चाहता हूँ" ।"नहीं रवि तुम मेरे छोटे भाई हो और मैं तुम्हारी बड़ी बहन" । "दीदी मैं आपकी लूँगा नहीं बस अन्दर डालने दीजिये" । "अरे यार तो फ़िर लेने मैं क्या बचा" । "दीदी बस अन्दर डालकर देखूँगा कि कैसा लगता है, चोदूंगा नहीं प्लीज़ दीदी" ।मैंने उस पर एहसान करते हुए कहा, "तुम मेरे भाई हो इसलिये मैं तुम्हारी बात को मना नहीं कर सकती पर मेरी एक सर्त है ।

तुमको बताना होगा कि अकसर ख़्यालों मैं किसकी चोदते हो?" और मैं बेड पर पैर फैला कर चित लेट गयी और उसे घुटने के बल अपने ऊपर बैठने को कहा । वह बैठा तो उसके पायजामा के ज़र्बन्द को खोलकर पायजामा नीचे कर दिया । उसका लण्ड तन कर खड़ा था । मैंने उसकी बांह पकड़ कर उसे अपने ऊपर कोहनी के बल लिटा लिया जिससे उसका पूरा वज़न उसके घुटने और कोहनी पर आ गया । वह अब और नहीं रूक सकता था । उसने मेरी एक चूचींयाँ को मुँह मैं भर लिया जो की ब्लाउज़ से बाहर थी । मैं उसे अभी और छेड़ना चाहती थी । सुन रवि ब्लाउज़ ऊपर होने से चुभ रहा है ।

ऐसा कर इसको नीचे करके मेरे सन्तरे धाप दे" । "नहीं दीदी मैं इसे खोल देता हूँ" । और उसने ब्लाउज़ के बटन खोल दिये। अब मेरी दोनों चुचियां पूरी नंगी थी । उसने लपक कर दोनों को कब्जे मैं कर लिया । अब एक चूचींयाँ उसके मुँह मैं थी और दूसरी को वह मसल रहा था । वह मेरी चूचियों का मज़ा लेने लगा और मैंने अपना पेटीकोट ऊपर करके उसके लण्ड को हाथ से पकड़ कर अपनी गीली चूत पर रगड़ना शुरू कर दिया । कुछ देर बाद लण्ड को चूत के मुँह पर रखकर बोली, "ले अब तेरे चाकू को अपने ख़रबूज़े पर रख दिया है पर अन्दर आने से पहले उसका नाम बता जिसकी तो बहूत दिन से चोदना चाहता है और जिसे याद करके मुठ मारता है" । वह मेरी चूचियों को पकड़ कर मेरे ऊपर झुक गया और अपने होंठ मेरे होंठ पर रख दिये । मैं भी अपना मुँह खोलकर उसके होंठ चूसने लगी । कुछ देर बाद मैंने कहा, "हाँ तो मेरे प्यारे भाई अब बता तेरे सपनों की रानी कौन है" ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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"दीदी आप बुरा मत मानियेगा पर मैंने आज तक जितनी भी मुठ मारी है सिर्फ़ आपको ख़्यालों मैं रखकर" ।"हाय भय्या तो कितना बेशर्म है । अपनी बड़ी बहन के बारे मैं ऐसा सोचता था" । "ओह्ह दीदी मैं क्या करूं आप बहूत खूबसूरत और सेक्सी है । मैं तो कब से आपकी चूचियों का रस पीना चाहता था और आपकी चूत मैं लण्ड डालना चाहता था । आज दिल की आरजू पूरी हुयी" । और फ़िर उसने शर्मा कर आंखे बन्द करके धीरे से अपना लण्ड मेरी चूत मैं डाला और वादे के मुताबिक चुपचाप लेट गया ।"अरे तो मुझे इतना चाहता है । मैंने तो कभी सोचा भी नहीं था कि घर मैं ही एक लण्ड मेरे लिये तड़प रहा है । पहले बोला होता तो पहले ही तुझे मौका दे देती" ।

और मैंने धीरे-धीरे उसकी पीठ सहलानी शुरू कर दी । बीच-बीच मैं उसकी गाँड भी दबा देती ।"दीदी मेरी किस्मत देखिये कितनी झान्टू है । जिस चूत के लिये तड़प रहा था उसी चूत में लण्ड पड़ा है पर चोद नहीं सकता । पर फ़िर भी लग रहा है की स्वर्ग मैं हूँ" । वह खुल कर लण्ड चूत बोल रहा था पर मैंने बूरा नहीं माना । "अच्छा दीदी अब वादे के मुताबिक बाहर निकालता हूँ" । और वह लण्ड बाहर निकालने को तैयार हुआ ।मैं तो सोच रही थी कि वह अब चूत मैं लण्ड का धक्का लगाना शुरू करेगा लेकिन यह तो ठीक उलटा कर रहा था । मुझे उस पर बड़ी दया आयी । साथ ही अच्छा भी लगा कि वादे का पक्का है । अब मेरा फ़र्ज़ बनता था कि मैं उसकी वफादारी का इनाम अपनी चूत चुदवाकर दूँ । इस लिये उससे बोली, "अरे यार तूने मेरी चूत की अपने ख़्यालों में इतनी पूजा की है । और तुमने अपना वादा भी निभाया इसलिये मैं अपने प्यारे भाई का दिल नहीं तोड़ूँगी ।

चल अगर तो अपनी बहन को चोद्कर बहनचोद बनना ही चाहता है तो चोद ले अपनी जवान बड़ी बहन की चूत" । मैंने जान कर इतने गन्दे वर्ड्स उसे कहे थे पर वह बूरा ना मान कर खुश होता हुआ बोला, "सच दीदी" । और फ़ौरन मेरी चूत मैं अपना लण्ड धका धक पेलने लगा कि कहीं मैं अपना इरादा ना बदल दूँ ।"तू बहुत किस्मत वाला है रवि " । मैं उसके कुँवारे लण्ड की चूदाई का मज़ा लेते हुए बोली । क्यों दीदी" "अरे यार तू अपनी जिन्दगी की पहली चूदाई अपनी ही बहन की कर रहा है । और उसी बहन की जिसकी तू जाने कबसे चोदना चाहता था" ।"हाँ दीदी मुझे तो अब भी यकीन नहीं आ रहा है, लगता है सपने में चोद रहा हूँ जैसे रोज आपको चोदता था" ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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