Thread Rating:
  • 8 Vote(s) - 2.38 Average
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
Romance जियें तो जियें कैसे-बिन आपके"
#2
"सुबह-ए-बनारस"


जनाब "वाहिद प्रेमी" ने क्या खूब कहा है.

"है शाम-ए-अवध गेसू-ए-दिलदार का परतव। और सुब्ह-ए-बनारस है रुख़-ए-यार का परतव"


सुब्ह-ए-बनारस काशी मेरी जन्मभूमि देवों के देव महादेव काशी विश्वनाथ जैसे वृन्दाबन में सब राधे राधे होता है यह सब शिव ही शिव है.
एक अलोकिक मायावी नगरी.काशी का मरकज (केंद्र बिंदु) है घाट, पौराणिक-ऐतिहासक, किस्से भी हकीकत भी. कहने को तो कठोर पत्थरों से तराशा गया है लेकिन जब भी गंगा की लहरें टकराती हैं, मानों यह सांस लेता हो.
बनारसीपन को जानना है, काशी को समझना है तो घाट से बेहतर कोई पाठशाला नहीं, कोई साहित्य नहीं. अल्हड़ जिंदगी देखनी हो, फक्कड़ दर्शन समझना हो या मोक्ष की मीमांसा करनी हो, सब इन घाटों पर रचा बसा है. समय के साथ इस शहर का आवरण भी बदला और लाइफस्टाइल भी लेकिन ये घाट ही हैं जहां आज भी बनारस पूरी रवानी से बहता है.
यूं तो सूरज रोज निकलता है, यहां भी निकलता है लेकिन उसे सुबह-ए-बनारस कहते हैं. घाट किनारे जब सूरज निकलता है तो मानो वह गंगा में डुबकी लगाकर निकल रहा हो. शाम को वही सूरज अपनी किरणें जब गंगा की लहरों पर फेरता है और धीरे धीरे सिमटने लगता है तो घाट पूरे सौंदर्य से उसकी विदाई को तैयार होने लगे हैं.
गंगा आरती की साक्षी बनने उमड़ती है भीड़ मोक्षदायिनी गंगा आरती के दीपों से लकदक और रौशनी से नहाए हुए. चंदन की खुशबू, हवन के मंत्रों के साथ शुरू होती है गंगा आरती. मां गंगा को प्रणाम करते हुए, कृतज्ञता प्रकट करते हुए. 
भव्य गंगा आरती का साक्षी बनने सात समंदर पार से पर्यटकों का हुजूम बनारस के इन घाटों पर उमड़ता है. मौनी अमावस्या से लेकर छठ पर घाटों की छटा तो देखते बनती है. देव दीपावली को कोई कैसे भूल सकता है जब अनगिनत सितारे इन घाटों पर उतर आते हैं.
देश के कोने-कोने से और विदेशों से सैलानियों के यहां आने से जाहिर है, इसका व्यवसायीकरण भी होगा. सच है, घाट के आसपास रहने वाले लोगों के जीवनयापन का यही आधार है. यही उनकी भूख मिटाता है, घाट पर चलने वाले व्यापार से उनकी गृहस्थी की गाड़ी चल रही है.
जलती चिताएं मोह माया से निकलने का संदेश देती हैं.लोग यहां मरते नहीं यहा मोक्ष पाते हे म्रत्यु यहा भय नहीं मुक्ति समझी जाती है.
इन्ही माँ जैसी पवित्र और स्नेहमय गंगा की लहरों के साथ खेलते खेलते में बड़ी हुए.

सहेलियों के साथ जब शाम को घाट पर बैठ कर पानी में पैर डाले सूर्यास्त होता था कही दूर आल इंडिया रेडियो पर बजते पुराने नगमों की आबाज सुनाई देती थी.क्या गीत होते थे वो .

एक प्यार का नगमा है
मौजों की रवानी है
ज़िंदगी और कुछ भी नहीं
तेरी मेरी कहानी है

कुछ पाकर खोना है, कुछ खोकर पाना है
जीवन का मतलब तो, आना और जाना है

तू धार है नदिया की, मैं तेरा किनारा हूँ
तू मेरा सहारा है, मैं तेरा सहारा हूँ

तूफ़ान तो आना है, आ कर चले जाना है
बादल है ये कुछ पल का, छा कर ढल जाना है
परछाईयाँ रह जाती, रह जाती निशानी हैं.

आज सोचती हूँ तो समझ नहीं आता कि यह गीत था की आकाशवाणी हो रही थी? मानब जीवन की फिलॉसफी के वारे में सब कुछ कितना साफ़ साफ़ बताया जा रहा था.
परछाईयाँ रह जाती, रह जाती निशानी हैं.
Like Reply


Messages In This Thread
RE: "जियें तो जियें कैसे-बिन आपके" - by SOFIYA AALAM NAKVI - 17-11-2018, 01:41 PM



Users browsing this thread: 1 Guest(s)