10-01-2019, 11:52 AM
अध्याय १
सन 1972, चांदीपुर गांव… सूत्रपात के बाइस साल बाद
'अरे बाप रे! मुझे तो मालूम भी नही था कि वैधजी के घर से आते आते इतनी देर हो जाएगी| ', मैने सोचा, 'एक तो उनके घर मरीज़ों की इतनी भीड़ और उसके बाद ऐसी ज़ोरों की बारिश और कड़ाके की बिजली का गिरना| मुझे जल्द से जल्द घर पहुँचना ही होगा| छाया मौसी का मेरे बारे में सोच-सोच कर बुरा हाल हो रहा होगा|'
मैं वैध जी के यहाँ से छाया मौसी के लिए उनके जोड़ों के दर्द की दवाईयाँ ले कर उनके घर से लगे दवाखने से बाहर निकली ही थी कि बारीश शुरू हो गई| शाम के वक़्त से ही आसमान में काले घने बादल छाए हुए थे, छाया मौसी ने मुझे बार बार कहा था कि, “माया, मेरी बच्ची, एक छाता ले कर जा... बारिश आने वाली है... भीग जाएगी... तेरे बदन से तेरे कपड़े चिपक जाएँगे और आते जाते लोग तुझे घूर घूर कर देखेंगे... अब तू बड़ी हो गई है, थोड़ा तो बकिफ़ हो ले...”
लेकिन मैं कहाँ सुननेवाली थी? सो अब भुगत रही थी अपनी करनी का फल|
अच्छा हुआ था की बारीश की वजह से रास्ते में ज़्यादा लोग नही थे, बाज़ार भी लगभह खाली ही था, ज़्यादातर दुकानों में दुकानदार ही थे, खरीदारों की कोई भीड़ नहीं थी| बारिश से बचने के लिए मैं एक दुकान के छज्जे के नीचे खड़ी हुई थी... यह गाँव के सबसे बड़े व्यापारी की किराने की दुकान थी, इस दुकान में उनके कई नौकर चाकर काम किया करते थे, जैसा कि मैने कहा, फिलहाल बारिश की वजह से ग्राहकों का आना जाना नही था, इसलिए दुकान के नौकर चाकर खाली ही बैठे हुए थे और उनकी नज़रें मेरे उपर ही टिकी हुई थी| घूर रहे थे वे मुझे…
छाया मौसी ठीक ही कहतीं हैं| मैं अब बड़ी हो गई हूँ मुझे थोड़ा सम्भल कर रहना होगा| अब मैं बच्ची नही रही... साड़ी पहनने लगी हूँ... लोगों के सुना है कि लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर हूँ... दिन ब दिन मेरा रूप निखरता जा रहा है... चलती हूँ तो कूल्हे मटकते हैं... हर कदम पर मेरे सुडौल स्तन थिरक्ते हैं... जान पहचानवाले अब यह भी कहतें हैं कि मैं जवान हो गई हूँ|
दुकान के अंदर बैठे लड़कों को मै काफ़ी देर तक नज़र अंदाज़ करती रही, लेकिन कुछ देर रुकने के बाद ही मुझे लगने लगा की अब ज़्यादा देर यहाँ रुकना ठीक नही होगा| दुकान में बैठे लड़कों की बातें और उनकी हँसी की आवाज़ धीरे धीरे बढ़ रही थी और यह बारिश है कि रुकने का नाम ही नही ले रही थी|
आख़िरकार मैने फ़ैसला किया, भीगती हूँ तो भीग जाने दो| मुझे अब घर की तरफ निकलना ही पड़ेगा|
बस! मैं एक झटके से वहाँ से निकल पड़ी|
पर मैने गौर किया की मेरे वहाँ से निकलते ही जैसे दुकान में बैठे वह दो लड़के शायद मुझे छेड़ने के लिए निराशा की आहें भरने लगे| हाँ, लोग ठीक ही कहते हैं, मैं जवान हो गई हूँ|
आसमान में मानो बादल फट पड़े थे, तेज़ बिजली कौंध रही थी, बादल भी शायद अपनी पूरी ताक़त से गरज़ रहे थे… काफ़ी रात हो चुकी थी… मेरे आगे घना अंधेरा था... पर मैं तेज़ कदमों से घर की तरफ बढ़ने लगी| मैं भीग कर जड़ बन गई थी... मुझे मालूम था की छाया मौसी घर के दरवाज़े पर ही खड़ी हो कर मेरा रास्ता देख रही होगी और मैं जानती हूँ कि आज घर में मुझे छाया मौसी से डाँट पड़नेवाली है... क्या करूँ ग़लती तो मेरी ही है जो छाया मौसी के बार- बार कहने पर भी मैं छाता जो नही लेकर आई थी... लेकिन इतनी तेज़ बारीश में छाता किसी काम का नही आता और मुझे उस दिन जल्दी से जल्दी घर पहुँचना था क्योंकि उस दिन माँठाकुराइन जो हमारे घर आने वाली थी|
क्रमश:
सन 1972, चांदीपुर गांव… सूत्रपात के बाइस साल बाद
'अरे बाप रे! मुझे तो मालूम भी नही था कि वैधजी के घर से आते आते इतनी देर हो जाएगी| ', मैने सोचा, 'एक तो उनके घर मरीज़ों की इतनी भीड़ और उसके बाद ऐसी ज़ोरों की बारिश और कड़ाके की बिजली का गिरना| मुझे जल्द से जल्द घर पहुँचना ही होगा| छाया मौसी का मेरे बारे में सोच-सोच कर बुरा हाल हो रहा होगा|'
मैं वैध जी के यहाँ से छाया मौसी के लिए उनके जोड़ों के दर्द की दवाईयाँ ले कर उनके घर से लगे दवाखने से बाहर निकली ही थी कि बारीश शुरू हो गई| शाम के वक़्त से ही आसमान में काले घने बादल छाए हुए थे, छाया मौसी ने मुझे बार बार कहा था कि, “माया, मेरी बच्ची, एक छाता ले कर जा... बारिश आने वाली है... भीग जाएगी... तेरे बदन से तेरे कपड़े चिपक जाएँगे और आते जाते लोग तुझे घूर घूर कर देखेंगे... अब तू बड़ी हो गई है, थोड़ा तो बकिफ़ हो ले...”
लेकिन मैं कहाँ सुननेवाली थी? सो अब भुगत रही थी अपनी करनी का फल|
अच्छा हुआ था की बारीश की वजह से रास्ते में ज़्यादा लोग नही थे, बाज़ार भी लगभह खाली ही था, ज़्यादातर दुकानों में दुकानदार ही थे, खरीदारों की कोई भीड़ नहीं थी| बारिश से बचने के लिए मैं एक दुकान के छज्जे के नीचे खड़ी हुई थी... यह गाँव के सबसे बड़े व्यापारी की किराने की दुकान थी, इस दुकान में उनके कई नौकर चाकर काम किया करते थे, जैसा कि मैने कहा, फिलहाल बारिश की वजह से ग्राहकों का आना जाना नही था, इसलिए दुकान के नौकर चाकर खाली ही बैठे हुए थे और उनकी नज़रें मेरे उपर ही टिकी हुई थी| घूर रहे थे वे मुझे…
छाया मौसी ठीक ही कहतीं हैं| मैं अब बड़ी हो गई हूँ मुझे थोड़ा सम्भल कर रहना होगा| अब मैं बच्ची नही रही... साड़ी पहनने लगी हूँ... लोगों के सुना है कि लोग कहते हैं कि मैं बहुत सुंदर हूँ... दिन ब दिन मेरा रूप निखरता जा रहा है... चलती हूँ तो कूल्हे मटकते हैं... हर कदम पर मेरे सुडौल स्तन थिरक्ते हैं... जान पहचानवाले अब यह भी कहतें हैं कि मैं जवान हो गई हूँ|
दुकान के अंदर बैठे लड़कों को मै काफ़ी देर तक नज़र अंदाज़ करती रही, लेकिन कुछ देर रुकने के बाद ही मुझे लगने लगा की अब ज़्यादा देर यहाँ रुकना ठीक नही होगा| दुकान में बैठे लड़कों की बातें और उनकी हँसी की आवाज़ धीरे धीरे बढ़ रही थी और यह बारिश है कि रुकने का नाम ही नही ले रही थी|
आख़िरकार मैने फ़ैसला किया, भीगती हूँ तो भीग जाने दो| मुझे अब घर की तरफ निकलना ही पड़ेगा|
बस! मैं एक झटके से वहाँ से निकल पड़ी|
पर मैने गौर किया की मेरे वहाँ से निकलते ही जैसे दुकान में बैठे वह दो लड़के शायद मुझे छेड़ने के लिए निराशा की आहें भरने लगे| हाँ, लोग ठीक ही कहते हैं, मैं जवान हो गई हूँ|
आसमान में मानो बादल फट पड़े थे, तेज़ बिजली कौंध रही थी, बादल भी शायद अपनी पूरी ताक़त से गरज़ रहे थे… काफ़ी रात हो चुकी थी… मेरे आगे घना अंधेरा था... पर मैं तेज़ कदमों से घर की तरफ बढ़ने लगी| मैं भीग कर जड़ बन गई थी... मुझे मालूम था की छाया मौसी घर के दरवाज़े पर ही खड़ी हो कर मेरा रास्ता देख रही होगी और मैं जानती हूँ कि आज घर में मुझे छाया मौसी से डाँट पड़नेवाली है... क्या करूँ ग़लती तो मेरी ही है जो छाया मौसी के बार- बार कहने पर भी मैं छाता जो नही लेकर आई थी... लेकिन इतनी तेज़ बारीश में छाता किसी काम का नही आता और मुझे उस दिन जल्दी से जल्दी घर पहुँचना था क्योंकि उस दिन माँठाकुराइन जो हमारे घर आने वाली थी|
क्रमश:
*Stories-Index* New Story: উওমণ্ডলীর লৌন্ডিয়া