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Fantasy माया- एक अनोखी कहानी
#2
सूत्रपात
सन 1950, चांदीपुर गांव

पौ फटते ही उस जवान विधवा की नींद एक झटके के साथ खुली और वह अपनी हालत देखकर एकदम हक्की बक्की रह गई| वह बिल्कुल नंगी बिस्तर पर लेटी हुई थी, उसके कोमल अंगों में हल्का हल्का दर्द हो रहा था... मानो रात भर किसी ने उसके साथ सहवास किया हो|

उसने डरते-डरते अपनी दोनों टांगों के बीच के हिस्से को देखा और दंग रह गई!

उसका वह हिस्सा अब  बिल्कुल साफ सुथरा था| उसके जघन के बलों का कोई नामोनिशान ही नहीं था... कमरे में वह बिलकुल अकेली थी पर एकदम नंगी... उसका दिमाग काम नहीं कर रहा थाफिर वह धीरे-धीरे याद करने की कोशिश करने लगी और फिर उसे याद आने लगा

पति की मौत के बाद उसके ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया था| हालांकि इसमें उसकी कोई गलती नहीं थी... गलती अगर थी तो सिर्फ उसकी किस्मत की; जो वह शादी के बाद इतनी जल्दी विधवा हो गई|
यहां तक की गांव वालों के दबाव में आकर मायके में भी उसको जगह नहीं मिली|

अब लोगों का क्या है? जितने मुंह उतनी बातें... कुछ लोगों ने कहा यह लड़की मनहूस है... यह लड़की एक अपशकुन है... यहां तक की लोगों ने यह तक कह दिया कि यह एक डायन है- जो कि शादी के बाद इतनी जल्दी ही अपने पति को खा गई... इसलिए समाज के ठेकेदारों ने यह फैसला किया किस लड़की का गांव में रहना बिल्कुल वाजिब नहीं था... यह शायद अपना बुरा प्रभाव पूरे गांव में फैला देगी... इसीलिए अब तो उसका न कोई घर था और न ही कोई ठिकाना और वह पिछले दो दिनों से वह इधर उधर भटक रही थी... 

स्टेशन से तो रेल गाड़ी आती जाती रहती थी, बस फिर क्या था? जो गाड़ी उसे सामनी दिखी थी वह उसमें चढ़ गई और पिछले दो दिनों तक वह इधर उधर भटक फिर रही थी...

आखिरकार वह इस गांव में आकर पहुंचीइस गांव का नाम था चांदीपुर|

यहाँ वह क्या करे? कहां जाए कहां? किस से मदद माँगे? सर छुपाने के लिए कहाँ  जगह ढूँढे? इस बात का कोई आता पता नही था...

कुछ ही दूर पर उसे एक मंदिर दिखा, जहां शायद आज कोई भंडारा लगा हुआ था| पिछले दो दिनों से उसको ठीक से खाना भी नहीं नसीब हुआ था... बहुत तेज भूख लग रही थी उसे, इसलिए वह मंदिर के पास जहां लोग खाना खाने के लिए बैठे हुए थे, वह वहां जाकर उनके साथ ही बैठ गई| आखिरकार सुबह सुबह उसको पेट भर के खाने को मिल गया|

भंडारा खत्म हो गया... भीड़ छठ गई लोगबाग अपने अपने रास्ते चले गए| लेकिन विधवा का कोई ठिकाना नहीं था  ... इसलिए वह मंदिर के पास ही बैठी रही| सुबह से दोपहर हुई... दोपहर से शाम और फिर रात हो गई... विधवा वहीं बसुध सी होकर बैठी हुई थी अब तो उसके आंसू भी सूख चुके थे...

तब एक औरत उसके पास आई और उसने पूछा, “क्या बात है बहन? मैंने गौर किया कि तुम सुबह से यहां बैठी हुई हो, आखिर बात क्या है?”

विधवा ने अपना सर उठाकर उसको देखा, यह औरत उसे दस या बारह साल बड़ी होगी| उसने काले रंग की एक साड़ी पहन रखी थी जिसमें लाल रंग का मोटा सा बॉर्डर था| उसके बाल एक बड़े से जुड़े में सर के ऊपर बँधे हुए थे... उसमें शायद काली पीली और हल्के नीले रंग की गोटियों की माला बंधी हुई थी... वह काफी सेहतमंद दिख रही थी... विधवा ने सोचा कि शायद यह औरत कोई पुजारिन या साधिका होगी

पिछले दो दिनों में किसी ने उससे कोई बात नहीं की थी| किसी ने उसका हाल चाल नहीं पूछा थाविधवा को लग रहा था कि मानो एक अरसा बीत गया हो किसी से बात किए हुए| इसलिए जब उस औरत ने उससे सवाल किया तो उसके आंसुओं का बांध टूट गयाउसने फूट फूट कर रो कर अपनी आपबीती सुनाई|

उस औरत को शायद विधवा पर तरस आ गया| उसने उसे गले से लगाकर दिलासा दिया और बोली, “कोई बात नहींकोई बात नहींमैं समझ सकती हूं कि तेरे ऊपर क्या बीती है; पर तू चिंता मत कर... तू मेरे घर चल... मैं वादा करती हूं कि मैं तुझे सहारा दिलवाउंगी| लेकिन आज तू मेरे साथ चल... तुझ जैसी जवान लड़की का इस तरह अकेले अकेले भटकते फिरना खतरे से खाली नहीं... चल बहन चल मेरे घर चल…”

उस औरत का घर गांव से थोड़ी ही दूर एक जंगल के पास वीराने में था| जहां वह अकेली रहती थी|

घर पहुंचने के बाद उस औरत ने उसे नए कपड़े दिएसिर्फ एक की साड़ी, ब्लाउज पेटीकोट ना ही अंतर्वास और बोली, “जा बहन, जा कर नहा ले और यह साड़ी पहन ले…”

लेकिन यह साड़ी तो रंगीन है, मैं विधवा यह साड़ी कैसे पहन सकती हूं?”

कोई बात नहीं| यहां कोई नहीं देखेगा... नहाने के बाद अपने कपड़े धो लेना और सूखने को टाँग देना मैंने कहा था मुझ पर भरोसा करो मैं तेरी मदद करूंगी...

उस घर में गुसलखाने के नाम पर एक बिना छत की चारदीवारी ही थी| लेकिन उस पर एक बाँस का दरवाजा ज़रूर था| घर के आंगन में कुएं से पानी भरकर वह नहाई... नहाते वक़्त ना जाने क्यों उसे लग रहा था कि कोई उसे देख रहा है... लेकिन उसने वहम मान कर अपने इस एहसास को नज़रअंदाज़ किया| अच्छी तरह से नहाने के बाद उसने अपने कपड़े धोए फिर अपने बालों को खुला ही रख छोड़कर वह वापस कमरे में आई|

रात काफी हो गई थी इसलिए उस औरत ने खाना लगा दिया थाविधवा भूखी थी, प्यासी थी इसलिए उसने तनिक भी देर  नहीं की वह भी उस औरत के साथ बैठकर खाना खाने लगी| यह बिल्कुल सीधा सादा खाना था, दाल चावल और गाजर मटर पत्ता गोभी की एक सब्जी... लेकिन उसे यह खाना किसी दावत से कम नहीं लग रहा था| उसने गौर किया कि वह औरत बिल्कुल ठुस- ठुस कर एक जाहिल की तरह खा रही थी... न जाने क्यों कहीं से शराब की बू भी आ रही थी... कहीं इस औरत ने पी तो नही रखी हो?

इतने में भी उसने गौर किया कि उसे बड़ी जोरों की नींद आने लगी थी, आखिर इन दो दिनों की थकावट और इतने बड़े मानसिक तनाव के बाद ना जाने कहाँ कहाँ वह भटकती फिर रही थी... आज के दिन उसे दो जून भर पेट खाना मिला था... अब उसका शरीर जवाब दे रहा थाया फिर खाने में कोई नशीली चीज़ मिली हुई थी?

खाना खत्म करने के बाद वह बाहर से किसी तरह जब हाथ धोकर कमरे में दाखिल हो रही थी, तब वह डगमगाने लगी और एकदम गिरने को हुई... उस औरत ने दौड़कर आ करके उसे सहारा दिया और धीरे-धीरे उसको बिस्तर पर लेटा दिया और फिर बड़े प्यार से  मुस्कुराती हुई उसके माथे, बालों और उसके गालों को सहलाने लगी... फिर उसे लगा कि वह औरत शायद आँचल हटा कर उसकी साड़ी ढीली कर रही है... लेकिन वह कुछ कर नहीं पा रही थी... शायद उस पर बेहोशी छा रही थीउसके बाद कुछ देर के लिए उसकी आंखों के आगे बिल्कुल अंधेरा छा गया...

थोड़ी देर बाद उसने हल्के से अपनी आंखें खोली और न जाने क्यों उसे लग रहा था अब वह बिल्कुल नंगी लेटी हुई है... कमरे में सिर्फ मिट्टी का एक दिया जल रहा था उसकी रोशनी में और उसने अपनी धुंधली नज़रों से उसने देखा  वह औरत उसके सामने खड़ी थी... वह भी बिल्कुल नंगी है उसके बाल खुले हुए थे... उसकी आंखें लाल और बड़ी-बड़ी हो रखी थी उसके हाथ में एक उस्तरा था... उसके बाद उसे कुछ नहीं याद

अब उस दिन सुबह उस विधवा को जब होश आया तो उसने देखा कि वह बिल्कुल नंगी है... उसका यौनंग हल्का हल्का दुख रहा है... उसके बदन पर अगर कुछ था तो सिर्फ उसका चांदी का लॉकेट- जिस पर उस का नाम लिखा हुआ था- और इसे बचपन से उसने अपने गले में पहन रखा था

अचानक उसने उस औरत को कमरे में दाखिल होते हुए देखा| वह औरत अपनी पुरानी वेश भूषा में थी और वह मुस्कुरा रही थी|

उसने अपनी जीभ से अपने सूखे होठों को चाटा... तभी विधवा ने गौर किया कि इस औरत की जीभ बीच में से कटी हुई और दो भागों में बटी हुई थी... बिल्कुल सांपों की तरह...

डरी डरी फटी फटी सी आंखों उसने उस औरत से नज़रें मिलाई

उसने कहा, “अब तुझे किसी बात का डर नहीं है बहन, मैंने तुझे कहा था ना कि मैं तेरी मदद करूंगी? मेरी बातों का यकीन कर... मैं एक अच्छे से घर में तेरे रहने खाने का इंतजाम कर दूंगी... लेकिन मैं जो तेरी इतनी मदद कर रही हूं; इसके बदले मुझे दो चीजों की जरूरत है- जिसमें से एक मुझे कल रात को ही मिल गया और दूसरा उधार रहा... वह मैं तुझे बाद में- वक़्त आने पर- बताऊंगी…”

क्रमश:
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RE: माया- एक अनोखी कहानी-सूत्रपात - by naag.champa - 09-01-2019, 10:32 AM



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