16-08-2019, 12:25 PM
कुछ देर ऐसा चलता रहा। पर काल्पनिकता की भी एक सीमा है। एक हद तक तो वह आनंद देती है पर जो आनंद नंगी स्त्री योनि को पुरुष की योनि से या साफ़ साफ़ कहूं तो एक औरत की चूत को मर्द के लण्ड के साथ रगड़ने में मिलता है वह आनंद की कमी मैं महसूस कर रही थी। मैं एक अच्छी सुशिक्षित महिला हूँ और काफी हिम्मत वाली भी हूँ पर सेक्स के मामले में मैं थोड़ी कमजोर हूँ। कमजोर ऐसे की शारीरिक भूख की पूरी तरह सही आपूर्ति नहीं होने के कारण खाली समय में मेरा दिमाग सेक्स के बारे में ही सोचता रहता था। जब कोई मेरे करीब का पुरुष यदि सेक्स के बारे में बात करने लगे तो मैं आसानी से उत्तेजित हो जाती थी। जब मैं कामुकता के कारण उत्तेजित ही जाती थी तो जैसा की मैंने बताया, मेरी निप्पलेँ फूल जाती थीं और मेरी चूत से मेरा स्त्री रस रिसने लगता था। मैं किशोरावस्था से ही बड़ी गरम लड़की थी। जब कभी कोई भी कामुक परिस्थिति होती थी तो अक्सर मैं हिप्नोटाइज़ सी हो जाती थी। मुझे समझ नहीं आता था की मैं क्या करूँ।
शायद इसका कारण मेरी बचपन की परवरिश थी। मुझे मेरे चाचा के साथ रहना पड़ा था और उन्होंने बचपन में मेरा फायदा उठाया था। क्यूंकि हमारे गाँव में कॉलेज नहीं था इस लिए मुझे मेरे पिताजी ने मेरी पढ़ाई के लिए चाचा के पास रखा था। मेरी एक और परेशानी भी थी। मुझे बचपन से ही अँधेरे से बहुत डर लगता था। हो सकता है की शायद मेरी माँ या पिता ने कभी एक दो बार मुझे अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया होगा। मुझे वजह का पता नहीं पर अन्धेरा होते ही मैं घबड़ा जाती थी। मैं कभी भी रात को कमरे में अकेले में अँधेरे में सोती नहीं थी। जब भी मेरे पति होते तो मैं अँधेरे में पूरी रात उनसे लिपट कर ही सो जाती थी। उनको मुझसे ज़रा भी अलग नहीं होने देती थी। मुझे बाद में पता चला की यह एक मानसिक बिमारी है जो अंग्रेजी में "Nyctophobia" जैसे नाम से जानी जाती है।मैं यह सब आपको इस लिए बता रही हूँ की इस कहानी का मेरी इन मानसिकताओं से गहरा वास्ता है।
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एक दिन मैं जैसे ही मेट्रो स्टेशन पहुंची और टिकट चेकिंग मशीन की कतार में खड़ी हुई और मैंने कार्ड निकालने के लिए अपना पर्स खोला तो मुझे ध्यान आया की मैं अपना मेट्रो कार्ड घर पर छोड़ आयी थी। नया कार्ड बनवाना मतलब पैसे दुबारा भरना। कॅश की कतार लम्बी थी। मैं उलझन में इधर उधर देख रही थी की पीछे कतार में खड़े एक लम्बे पुरुष ने मेरी और देखा। वह थोड़ा मुस्कुराया और उसने पूछा, "क्या आप अपना कार्ड घर भूल आयी हैं?"
मैंने अपना सर हिला कर हामी भरी और कहा की सुबह नाश्ता करते हुए जल्दी में मैं कार्ड घर में टेबल पर ही छोड़ कर आ गयी थी।
फ़ौरन उन्होंने अपना कार्ड निकाला और मेरे हाथों में थमा दिया और कहा, "इसे ले लो और चलो।" मैंने जब कुछ देर झिझक कर उसकी और देखा तो बोला, " मेरी चिंता मत करो। मेरे पास दुसरा कार्ड है। मैं हमेशा दो कार्ड रखता हूँ। जब कभी एक में पैसे कम पड़ जाएँ तो मैं दुसरा कार्ड इस्तेमाल करता हूँ।"
पीछे लम्बी कतार थी और लोग "आगे बढ़ो, जल्दी करो, जल्दी करो।" कह रहे थे। ज्यादा सोच ने का समय नहीं था। मैंने "थैंक यू, पर मैं इसके पैसे जरूर चुकाऊँगी।" यह कह कर उसके कार्डका इस्तेमाल किया और फिर हम दोनों साथ साथ में ही मेट्रो में सवार हुए।
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उस दिन से सुबह मैं जब भी घर से निकलती थी, वह सामने सड़क इंतजार करते हुए खड़े होते थे और हम दोनों साथ साथ में मेट्रो में सवार होते थे। धीरे धीरे मुझे पता चला की वह मुझसे करीब छे साल बड़े थे। वह मेरे मेट्रो स्टेशन से तीन स्टेशन आगे कोई कंपनी में काम करते थे। उन का नाम अजित था। अजित सुशिक्षित होते हुए भी हमारी नार्मल सोसाइटी से कुछ अलग से ही थे। वह गाँव में ही बड़े हुए थे और अपनी महेनत से और लगन से पढ़े और जिंदगी की चुनौतियोँ को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते गए। परन्तु उनमें से जो गाँव की मिटटी के संस्कार थे वह बरकरार रहे। उनकी भाषा में गाँव की सरलता, सच्चाई और कुछ खुरदरापन था। मुझे वह आकर्षक लगा।
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शायद इसका कारण मेरी बचपन की परवरिश थी। मुझे मेरे चाचा के साथ रहना पड़ा था और उन्होंने बचपन में मेरा फायदा उठाया था। क्यूंकि हमारे गाँव में कॉलेज नहीं था इस लिए मुझे मेरे पिताजी ने मेरी पढ़ाई के लिए चाचा के पास रखा था। मेरी एक और परेशानी भी थी। मुझे बचपन से ही अँधेरे से बहुत डर लगता था। हो सकता है की शायद मेरी माँ या पिता ने कभी एक दो बार मुझे अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया होगा। मुझे वजह का पता नहीं पर अन्धेरा होते ही मैं घबड़ा जाती थी। मैं कभी भी रात को कमरे में अकेले में अँधेरे में सोती नहीं थी। जब भी मेरे पति होते तो मैं अँधेरे में पूरी रात उनसे लिपट कर ही सो जाती थी। उनको मुझसे ज़रा भी अलग नहीं होने देती थी। मुझे बाद में पता चला की यह एक मानसिक बिमारी है जो अंग्रेजी में "Nyctophobia" जैसे नाम से जानी जाती है।मैं यह सब आपको इस लिए बता रही हूँ की इस कहानी का मेरी इन मानसिकताओं से गहरा वास्ता है।
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एक दिन मैं जैसे ही मेट्रो स्टेशन पहुंची और टिकट चेकिंग मशीन की कतार में खड़ी हुई और मैंने कार्ड निकालने के लिए अपना पर्स खोला तो मुझे ध्यान आया की मैं अपना मेट्रो कार्ड घर पर छोड़ आयी थी। नया कार्ड बनवाना मतलब पैसे दुबारा भरना। कॅश की कतार लम्बी थी। मैं उलझन में इधर उधर देख रही थी की पीछे कतार में खड़े एक लम्बे पुरुष ने मेरी और देखा। वह थोड़ा मुस्कुराया और उसने पूछा, "क्या आप अपना कार्ड घर भूल आयी हैं?"
मैंने अपना सर हिला कर हामी भरी और कहा की सुबह नाश्ता करते हुए जल्दी में मैं कार्ड घर में टेबल पर ही छोड़ कर आ गयी थी।
फ़ौरन उन्होंने अपना कार्ड निकाला और मेरे हाथों में थमा दिया और कहा, "इसे ले लो और चलो।" मैंने जब कुछ देर झिझक कर उसकी और देखा तो बोला, " मेरी चिंता मत करो। मेरे पास दुसरा कार्ड है। मैं हमेशा दो कार्ड रखता हूँ। जब कभी एक में पैसे कम पड़ जाएँ तो मैं दुसरा कार्ड इस्तेमाल करता हूँ।"
पीछे लम्बी कतार थी और लोग "आगे बढ़ो, जल्दी करो, जल्दी करो।" कह रहे थे। ज्यादा सोच ने का समय नहीं था। मैंने "थैंक यू, पर मैं इसके पैसे जरूर चुकाऊँगी।" यह कह कर उसके कार्डका इस्तेमाल किया और फिर हम दोनों साथ साथ में ही मेट्रो में सवार हुए।
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उस दिन से सुबह मैं जब भी घर से निकलती थी, वह सामने सड़क इंतजार करते हुए खड़े होते थे और हम दोनों साथ साथ में मेट्रो में सवार होते थे। धीरे धीरे मुझे पता चला की वह मुझसे करीब छे साल बड़े थे। वह मेरे मेट्रो स्टेशन से तीन स्टेशन आगे कोई कंपनी में काम करते थे। उन का नाम अजित था। अजित सुशिक्षित होते हुए भी हमारी नार्मल सोसाइटी से कुछ अलग से ही थे। वह गाँव में ही बड़े हुए थे और अपनी महेनत से और लगन से पढ़े और जिंदगी की चुनौतियोँ को स्वीकार करते हुए आगे बढ़ते गए। परन्तु उनमें से जो गाँव की मिटटी के संस्कार थे वह बरकरार रहे। उनकी भाषा में गाँव की सरलता, सच्चाई और कुछ खुरदरापन था। मुझे वह आकर्षक लगा।
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