05-08-2019, 10:55 PM
और फिर उसके बाद बेगम जान को दौरा पड ग़या। सोने का हार, जो वह थोडी देर पहले मुझे पहना रही थीं, टुकडे-टुकडे हो गया। महीन जाली का दुपट्टा तार-तार। और वह माँग, जो मैंने कभी बिगडी न देखी थी, झाड-झंखाड हो गयी।
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।
बडे ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।
सर सर फट खच!
बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफ़डा रहा था और जैसे उकडँू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड क़ुछ खाने की आवाजें आ रही थीं - जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।
और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।
लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी।
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
''आ ... न ...अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा -
अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !
''ओह! ओह! ओह! ओह!'' वह झटके ले-लेकर चिल्लाने लगीं। मैं रपटी बाहर।
बडे ज़तनों से बेगम जान को होश आया। जब मैं सोने के लिए कमरे में दबे पैर जाकर झाँकी तो रब्बो उनकी कमर से लगी जिस्म दबा रही थी।
''जूती उतार दो।'' उसने उनकी पसलियाँ खुजाते हुए कहा और मैं चुहिया की तरह लिहाफ में दुबक गयी।
सर सर फट खच!
बेगम जान का लिहाफ अँधेरे में फिर हाथी की तरह झूम रहा था।
''अल्लाह! आँ!'' मैंने मरी हुई आवाज निकाली। लिहाफ में हाथी फुदका और बैठ गया। मैं भी चुप हो गयी। हाथी ने फिर लोट मचाई। मेरा रोआँ-रोआँ काँपा। आज मैंने दिल में ठान लिया कि जरूर हिम्मत करके सिरहाने का लगा हुआ बल्ब जला दूँ। हाथी फिर फडफ़डा रहा था और जैसे उकडँू बैठने की कोशिश कर रहा था। चपड-चपड क़ुछ खाने की आवाजें आ रही थीं - जैसे कोई मजेदार चटनी चख रहा हो। अब मैं समझी! यह बेगम जान ने आज कुछ नहीं खाया।
और रब्बो मुई तो है सदा की चट्टू! जरूर यह तर माल उडा रही है। मैंने नथुने फुलाकर सूँ-सूँ हवा को सूँघा। मगर सिवाय अतर, सन्दल और हिना की गरम-गरम खुशबू के और कुछ न महसूस हुआ।
लिहाफ फ़िर उमँडना शुरू हुआ। मैंने बहुतेरा चाहा कि चुपकी पडी रहूँ, मगर उस लिहाफ ने तो ऐसी अजीब-अजीब शक्लें बनानी शुरू कीं कि मैं लरज गयी।
मालूम होता था, गों-गों करके कोई बडा-सा मेंढक फूल रहा है और अब उछलकर मेरे ऊपर आया!
''आ ... न ...अम्माँ!'' मैं हिम्मत करके गुनगुनायी, मगर वहाँ कुछ सुनवाई न हुई और लिहाफ मेरे दिमाग में घुसकर फूलना शुरू हुआ। मैंने डरते-डरते पलंग के दूसरी तरफ पैर उतारे और टटोलकर बिजली का बटन दबाया। हाथी ने लिहाफ के नीचे एक कलाबाजी लगायी और पिचक गया। कलाबाजी लगाने मे लिहाफ का कोना फुट-भर उठा -
अल्लाह! मैं गडाप से अपने बिछौने में ! ! !
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
