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Misc. Erotica लिहाफ
#4
रब्बो की आवाज आयी। मैं जल्दी से लिहाफ में मुँह डालकर सो गयी।

सुबह मेरे जहन में रात के खौफनाक नज्ज़ारे का खयाल भी न रहा। मैं हमेशा की वहमी हूँ। रात को डरना, उठ-उठकर भागना और बडबडाना तो बचपन में रोज ही होता था। सब तो कहते थे, मुझ पर भूतों का साया हो गया है। लिहाजा मुझे खयाल भी न रहा। सुबह को लिहाफ बिल्कुल मासूम नजर आ रहा था।

मगर दूसरी रात मेरी आँख खुली तो रब्बो और बेगम जान में कुछ झगडा बडी ख़ामोशी से छपरखट पर ही तय हो रहा था। और मेरी खाक समझ में न आया कि क्या फैसला हुआ? रब्बो हिचकियाँ लेकर रोयी, फिर बिल्ली की तरह सपड-सपड रकाबी चाटने-जैसी आवाजें आने लगीं, ऊँह! मैं तो घबराकर सो गयी।

आज रब्बो अपने बेटे से मिलने गयी हुई थी। वह बडा झगडालू था। बहुत कुछ बेगम जान ने किया - उसे दुकान करायी, गाँव में लगाया, मगर वह किसी तरह मानता ही नहीं था। नवाब साहब के यहाँ कुछ दिन रहा, खूब जोडे-बागे भी बने, पर न जाने क्यों ऐसा भागा कि रब्बो से मिलने भी न आता। लिहाजा रब्बो ही अपने किसी रिश्तेदार के यहाँ उससे मिलने गयी थीं। बेगम जान न जाने देतीं, मगर रब्बो भी मजबूर हो गयी। सारा दिन बेगम जान परेशान रहीं। उनका जोड-ज़ोड टूटता रहा। किसी का छूना भी उन्हें न भाता था। उन्होंने खाना भी न खाया और सारा दिन उदास पडी रहीं।

''मैं खुजा दूँ बेगम जान?''

मैंने बडे शौक से ताश के पत्ते बाँटते हुए कहा। बेगम जान मुझे गौर से देखने लगीं।

''मैं खुजा दूँ? सच कहती हूँ!''

मैंने ताश रख दिये।

मैं थोडी देर तक खुजाती रही और बेगम जान चुपकी लेटी रहीं। दूसरे दिन रब्बो को आना था, मगर वह आज भी गायब थी। बेगम जान का मिजाज चिडचिडा होता गया। चाय पी-पीकर उन्होंने सिर में दर्द कर लिया। मैं फिर खुजाने लगी उनकी पीठ-चिकनी मेज क़ी तख्ती-जैसी पीठ। मैं हौले-हौले खुजाती रही। उनका काम करके कैसी खुशी होती थी!

''जरा जाेर से खुजाओ। बन्द खोल दो।'' बेगम जान बोलीं, ''इधर ..एे है, जरा शाने से नीचे ..हाँ ...वाह भइ वाह! हा!हा!'' वह सुरूर में ठण्डी-ठण्डी साँसें लेकर इत्मीनान जाहिर करने लगीं।

''और इधर ...'' हालाँकि बेगम जान का हाथ खूब जा सकता था, मगर वह मुझसे ही खुजवा रही थीं और मुझे उल्टा फख्र हो रहा था। ''यहाँ ..ओई! तुम तो गुदगुदी करती हो ..वाह!'' वह हँसी। मैं बातें भी कर रही थी और खुजा भी रही थी।

''तुम्हें कल बाजार भेजँूगी। क्या लोगी? वही सोती-जागती गुडिया?''

''नहीं बेगम जान, मैं तो गुडिया नहीं लेती। क्या बच्चा हूँ अब मैं?''

''बच्चा नहीं तो क्या बूढी हो गयी?'' वह हँसी ''गुडिया नहीं तो बनवा लेना कपडे, पहनना खुद। मैं दूँगी तुम्हें बहुत-से कपडे। सुनां?'' उन्होंने करवट ली।

''अच्छा।'' मैंने जवाब दिया।

''इधर ..'' उन्होंने मेरा हाथ पकडक़र जहाँ खुजली हो रही थी, रख दिया। जहाँ उन्हें खुजली मालूम होती, वहाँ मेरा हाथ रख देतीं। और मैं बेखयाली में, बबुए के ध्यान में डूबी मशीन की तरह खुजाती रही और वह मुतवातिर बातें करती रहीं।

''सुनो तो ...तुम्हारी फ्राकें कम हो गयी हैं। कल दर्जी को दे दूँगी, कि नई सी लाये। तुम्हारी अम्माँ कपडा दे गयी हैं।''

''वह लाल कपडे क़ी नहीं बनवाऊँगी। चमारों-जैसा है!'' मैं बकवास कर रही थी और हाथ न जाने कहाँ-से-कहाँ पहुँचा। बातों-बातों में मुझे मालूम भी न हुआ।

बेगम जान तो चुप लेटी थीं। ''अरे!'' मैंने जल्दी से हाथ खींच लिया।

''ओई लडक़ी! देखकर नहीं खुजाती! मेरी पसलियाँ नोचे डालती है!''

बेगम जान शरारत से मुस्करायीं और मैं झेंप गयी।

''इधर आकर मेरे पास लेट जा।''

''उन्होंने मुझे बाजू पर सिर रखकर लिटा लिया।

''अब है, कितनी सूख रही है। पसलियाँ निकल रही हैं।'' उन्होंने मेरी पसलियाँ गिनना शुरू कीं
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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लिहाफ - by neerathemall - 05-08-2019, 10:49 PM
RE: लिहाफ - by neerathemall - 05-08-2019, 10:50 PM
RE: लिहाफ - by neerathemall - 05-08-2019, 10:50 PM
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RE: लिहाफ - by neerathemall - 05-08-2019, 10:56 PM
RE: लिहाफ - by neerathemall - 05-08-2019, 11:34 PM



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