05-08-2019, 10:43 PM
शहरजाद की कहानी रात रहे समाप्त हो गई तो दुनियाजाद ने कहा - बहन, यह कहानी तो बहुत अच्छी थी, कोई और भी कहानी तुम्हें आती है? शहरजाद ने कहा कि आती तो है किंतु बादशाह की अनुमति हो तो कहूँ। बादशाह ने अनुमति दे दी और शहरजाद ने कहना शुरू किया।
खलीफा हारूँ रशीद के राज्य में बगदाद में एक मजदूर रहता था। वह स्वभाव का बड़ा हँसमुख और बातूनी था। एक दिन प्रातःकाल वह बाजार में एक बड़ा टोकरा लिए मजदूरी की आशा में खड़ा था। कुछ देर बाद एक परम सुंदरी स्त्री, जिसके मुँह पर जाली का नकाब पड़ा हुआ था, वहाँ आई और मुस्करा कर मजदूर से कहने लगी कि अपना टोकरा उठा और मेरे साथ चल। मजदूर अच्छी मजदूरी मिलने की आशा और स्त्री के मधुर व्यवहार से प्रसन्न होकर उसके साथ चल दिया। वह इस बात से बहुत ही प्रसन्न हुआ कि सुबह-सुबह ही अच्छा काम मिल गया था। कुछ दूर जाकर स्त्री ने एक मकान के सामने खड़े होकर ताली बजाई। कुछ देर में एक सफेद लंबी दाढ़ी वाले ईसाई ने द्वार खोला। स्त्री ने उसे कुछ रुपए दिए और ईसाई बूढ़े ने उसका आशय समझ कर घर के अंदर से उत्तम मदिरा का एक घड़ा उसे दे दिया। स्त्री ने घड़ा मजदूर के टोकरे में रखवाया और बाजार में आ गई।
बाजार में उसने बहुत-सी वस्तुएँ खरीदीं। इनमें स्वादिष्ट फल यथा सेब, नाशपाती आदि तथा भाँति-भाँति के सुंदर सुगंध वाले फूल, इत्र, स्वादिष्ट अचार, चटनियाँ और मुरब्बे, माँस, सूखे मसाले आदि घूम-घूम कर कई दुकानों से खरीदे। इतनी चीजें उसने लीं कि टोकरे में बिल्कुल जगह न रही। मजदूर कहने लगा, अगर मुझे मालूम होता कि आप इतना सामान खरीदेंगी तो मैं अपने साथ एक घोड़ा बल्कि ऊँट रख लेता।
खैर, मजदूर टोकरा उठाकर स्त्री के साथ चला। काफी दूर जाने के बाद वे दोनों एक विशाल भवन के पास पहुँचे जिसके शिखर बड़े सुंदर बने थे और दरवाजे हाथी दाँत से निर्मित थे। स्त्री ने दरवाजे के आगे खड़े हो कर ताली बजाई। दरवाजा जब तक खुले तब तक मजदूर सोचता रहा कि न मालूम यह स्त्री घर की नौकरानी है या मालकिन, इसके साज-सिंगार से तो यह नहीं मालूम होता कि यह नौकरानी होगी। कुछ ही देर में एक स्त्री ने दरवाजा खोला। मजदूर उसका अनुपम सौंदर्य और मनोहारी भाव देख कर बेसुध-सा होने लगा और सामान से लदा टोकरा उसके सिर से गिरने-गिरने को होने लगा। जो स्त्री उसे बाजार से लाई थी वह कौतुकपूर्वक उसकी बदहवासी का तमाशा देखने लगी लेकिन घर के अंदर से आई हुई स्त्री ने उससे कहा, 'तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है, यह बेचारा सामान के भार से दबा जा रहा है। तू जल्दी से इसे अंदर ले जा और इसका सामान उतरवा।'
मजदूर अंदर गया तो दोनों स्त्रियों ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और उसे ले कर एक बड़े मकान में आई। इसके खंभे कीमती लकड़ी के बने थे और एक बड़ा कक्ष था जिसके चारों ओर दालान थे। दालान में एक और बैठने का स्थान था जहाँ पर बहुत-से मूल्यवान नर्म आसन बिछे थे और सुविधा के भाँति-भाँति के मूल्यवान पात्र रखे हुए थे। सब के बीच में चंदन और अगर की लकड़ी का बना एक बड़ा सिंहासन था। उस पर एक बहुत ही मूल्यवान आसन पड़ा था जिसमें चारों ओर मोतियों और माणिकों की झालर लटक रही थी। इसके अलावा उस विशाल कक्ष में एक संगमरमर का बना हौज था जिसमें फव्वारे छूट रहे थे।
मजदूर यद्यपि दूर तक भारी बोझ लेकर चलने के कारण बहुत थक गया तथापि उस कमरे की सामग्री और सजावट देख कर अपना श्रम भूल गया और वह प्रसन्न चित से इस शोभा को देखने लगा। विशेषतः उसे सिंहासन पर बैठी हुई अतीव सुंदर स्त्री ने बहुत आकृष्ट किया। उसे बाद में मालूम हुआ कि सिंहासन पर बैठी स्त्री का नाम जुबैदा है, वह उस घर की मालकिन है। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था उसका नाम साफी था और जो स्त्री बाजार से उस पर सामान लदवाकर लाई थी उसका नाम अमीना था।
जुबैदा ने कहा, 'बीबियो, इस बेचारे मजदूर के सर से सामान तो उतारो। यह बोझ के मारे मरा जा रहा है।' साफी और अमीना ने मिलकर उसके सिर से टोकरा उतरवाया और उसमें से सामान निकालने लगीं। जुबैदा ने उसे इतना पैसा दिया जो उसकी साधारण मजदूरी से कहीं अधिक था। वह आशा से अधिक मजदूरी पाकर खुश तो बहुत हुआ लेकिन उसका मन वहाँ की वस्तुओं में इतना लगा था कि वह वापस न हुआ। इतने में ही अमीना ने अपने चेहरे से नकाब उतार दिया। मजदूर ने अब तक तो झलक भर देखी थी, अब तो उसे पूरी नजर भर देखा तो ठगा-सा खड़ा रह गया। उसे यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि यद्यपि घर में तीन स्त्रियाँ ही थीं तथापि खाने-पीने की सामग्री इतनी थी जो तीस व्यक्तियों को काफी होती।
मजदूर वहाँ से न हटा तो जुबैदा ने पहले तो सोचा कि वह कुछ देर और सुस्ताना चाहता है, लेकिन जब उसे बहुत देर हो गई तो उसने कहा कि 'क्या बात है, तू जाता क्यों नहीं? क्या तुझे मजदूरी कम मिली है? अमीना, इसे कुछ और पैसे देकर विदा करो।' मजदूर ने कहा, 'मालकिन, मैंने मजदूरी आशा से अधिक पाई है किंतु आपके सम्मुख कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि जो मैं कहना चाहता हूँ वह मेरी उद्दंडता है किंतु मुझे आशा है आप मुझे क्षमा करेंगी और मेरी बातों पर नाराज नहीं होंगी। मुझे यहाँ बहुत-सी बातें आश्चर्यजनक लग रही हैं। मैंने आप जैसी रूपवती कोई भी महिला नहीं देखी। मुझे यह देख कर भी बड़ा आश्चर्य हुआ है कि यहाँ कोई पुरुष नहीं है। बगैर पुरुष के स्त्रियों का रहना और बगैर स्त्रियों के पुरुषों का रहना दोनों ही बहुत अजीब बातें हैं।'
मजदूर बातूनी तो था ही इसलिए बोलता चला गया। उसने बगदाद नगर में प्रचलित तरह-तरह की कहावतें सुनाईं। इनमें से एक यह थी कि जब तक चार व्यक्ति एक साथ भोजन न करें भोजन में स्वाद नहीं आता और खाने वाले तृप्त नहीं होते। उसका आशय यह था कि उन स्त्रियों के बीच में वही पुरुष और दूसरे उन तीन के अलावा चौथा व्यक्ति भी वही है, इसलिए भोजन के समय उसे भी खाने के लिए बिठा लिया जाय। जुबैदा उसकी बातें सुन कर हँसने लगी और बोली, 'तू अपनी बेकार की बातें और सलाहें अपने पास रख, हम तीनों स्त्रियाँ बहिनें हैं और अपने सारे काम खुद ही अच्छी तरह चलाती हैं और इस तरह चलाती हैं कि किसी को पता नहीं चलता। हम लोग नहीं चाहते कि कोई हमारे भेद को जाने।'
खलीफा हारूँ रशीद के राज्य में बगदाद में एक मजदूर रहता था। वह स्वभाव का बड़ा हँसमुख और बातूनी था। एक दिन प्रातःकाल वह बाजार में एक बड़ा टोकरा लिए मजदूरी की आशा में खड़ा था। कुछ देर बाद एक परम सुंदरी स्त्री, जिसके मुँह पर जाली का नकाब पड़ा हुआ था, वहाँ आई और मुस्करा कर मजदूर से कहने लगी कि अपना टोकरा उठा और मेरे साथ चल। मजदूर अच्छी मजदूरी मिलने की आशा और स्त्री के मधुर व्यवहार से प्रसन्न होकर उसके साथ चल दिया। वह इस बात से बहुत ही प्रसन्न हुआ कि सुबह-सुबह ही अच्छा काम मिल गया था। कुछ दूर जाकर स्त्री ने एक मकान के सामने खड़े होकर ताली बजाई। कुछ देर में एक सफेद लंबी दाढ़ी वाले ईसाई ने द्वार खोला। स्त्री ने उसे कुछ रुपए दिए और ईसाई बूढ़े ने उसका आशय समझ कर घर के अंदर से उत्तम मदिरा का एक घड़ा उसे दे दिया। स्त्री ने घड़ा मजदूर के टोकरे में रखवाया और बाजार में आ गई।
बाजार में उसने बहुत-सी वस्तुएँ खरीदीं। इनमें स्वादिष्ट फल यथा सेब, नाशपाती आदि तथा भाँति-भाँति के सुंदर सुगंध वाले फूल, इत्र, स्वादिष्ट अचार, चटनियाँ और मुरब्बे, माँस, सूखे मसाले आदि घूम-घूम कर कई दुकानों से खरीदे। इतनी चीजें उसने लीं कि टोकरे में बिल्कुल जगह न रही। मजदूर कहने लगा, अगर मुझे मालूम होता कि आप इतना सामान खरीदेंगी तो मैं अपने साथ एक घोड़ा बल्कि ऊँट रख लेता।
खैर, मजदूर टोकरा उठाकर स्त्री के साथ चला। काफी दूर जाने के बाद वे दोनों एक विशाल भवन के पास पहुँचे जिसके शिखर बड़े सुंदर बने थे और दरवाजे हाथी दाँत से निर्मित थे। स्त्री ने दरवाजे के आगे खड़े हो कर ताली बजाई। दरवाजा जब तक खुले तब तक मजदूर सोचता रहा कि न मालूम यह स्त्री घर की नौकरानी है या मालकिन, इसके साज-सिंगार से तो यह नहीं मालूम होता कि यह नौकरानी होगी। कुछ ही देर में एक स्त्री ने दरवाजा खोला। मजदूर उसका अनुपम सौंदर्य और मनोहारी भाव देख कर बेसुध-सा होने लगा और सामान से लदा टोकरा उसके सिर से गिरने-गिरने को होने लगा। जो स्त्री उसे बाजार से लाई थी वह कौतुकपूर्वक उसकी बदहवासी का तमाशा देखने लगी लेकिन घर के अंदर से आई हुई स्त्री ने उससे कहा, 'तू खड़ी-खड़ी क्या देख रही है, यह बेचारा सामान के भार से दबा जा रहा है। तू जल्दी से इसे अंदर ले जा और इसका सामान उतरवा।'
मजदूर अंदर गया तो दोनों स्त्रियों ने अंदर से दरवाजा बंद कर लिया और उसे ले कर एक बड़े मकान में आई। इसके खंभे कीमती लकड़ी के बने थे और एक बड़ा कक्ष था जिसके चारों ओर दालान थे। दालान में एक और बैठने का स्थान था जहाँ पर बहुत-से मूल्यवान नर्म आसन बिछे थे और सुविधा के भाँति-भाँति के मूल्यवान पात्र रखे हुए थे। सब के बीच में चंदन और अगर की लकड़ी का बना एक बड़ा सिंहासन था। उस पर एक बहुत ही मूल्यवान आसन पड़ा था जिसमें चारों ओर मोतियों और माणिकों की झालर लटक रही थी। इसके अलावा उस विशाल कक्ष में एक संगमरमर का बना हौज था जिसमें फव्वारे छूट रहे थे।
मजदूर यद्यपि दूर तक भारी बोझ लेकर चलने के कारण बहुत थक गया तथापि उस कमरे की सामग्री और सजावट देख कर अपना श्रम भूल गया और वह प्रसन्न चित से इस शोभा को देखने लगा। विशेषतः उसे सिंहासन पर बैठी हुई अतीव सुंदर स्त्री ने बहुत आकृष्ट किया। उसे बाद में मालूम हुआ कि सिंहासन पर बैठी स्त्री का नाम जुबैदा है, वह उस घर की मालकिन है। जिस स्त्री ने दरवाजा खोला था उसका नाम साफी था और जो स्त्री बाजार से उस पर सामान लदवाकर लाई थी उसका नाम अमीना था।
जुबैदा ने कहा, 'बीबियो, इस बेचारे मजदूर के सर से सामान तो उतारो। यह बोझ के मारे मरा जा रहा है।' साफी और अमीना ने मिलकर उसके सिर से टोकरा उतरवाया और उसमें से सामान निकालने लगीं। जुबैदा ने उसे इतना पैसा दिया जो उसकी साधारण मजदूरी से कहीं अधिक था। वह आशा से अधिक मजदूरी पाकर खुश तो बहुत हुआ लेकिन उसका मन वहाँ की वस्तुओं में इतना लगा था कि वह वापस न हुआ। इतने में ही अमीना ने अपने चेहरे से नकाब उतार दिया। मजदूर ने अब तक तो झलक भर देखी थी, अब तो उसे पूरी नजर भर देखा तो ठगा-सा खड़ा रह गया। उसे यह देखकर भी आश्चर्य हुआ कि यद्यपि घर में तीन स्त्रियाँ ही थीं तथापि खाने-पीने की सामग्री इतनी थी जो तीस व्यक्तियों को काफी होती।
मजदूर वहाँ से न हटा तो जुबैदा ने पहले तो सोचा कि वह कुछ देर और सुस्ताना चाहता है, लेकिन जब उसे बहुत देर हो गई तो उसने कहा कि 'क्या बात है, तू जाता क्यों नहीं? क्या तुझे मजदूरी कम मिली है? अमीना, इसे कुछ और पैसे देकर विदा करो।' मजदूर ने कहा, 'मालकिन, मैंने मजदूरी आशा से अधिक पाई है किंतु आपके सम्मुख कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मैं जानता हूँ कि जो मैं कहना चाहता हूँ वह मेरी उद्दंडता है किंतु मुझे आशा है आप मुझे क्षमा करेंगी और मेरी बातों पर नाराज नहीं होंगी। मुझे यहाँ बहुत-सी बातें आश्चर्यजनक लग रही हैं। मैंने आप जैसी रूपवती कोई भी महिला नहीं देखी। मुझे यह देख कर भी बड़ा आश्चर्य हुआ है कि यहाँ कोई पुरुष नहीं है। बगैर पुरुष के स्त्रियों का रहना और बगैर स्त्रियों के पुरुषों का रहना दोनों ही बहुत अजीब बातें हैं।'
मजदूर बातूनी तो था ही इसलिए बोलता चला गया। उसने बगदाद नगर में प्रचलित तरह-तरह की कहावतें सुनाईं। इनमें से एक यह थी कि जब तक चार व्यक्ति एक साथ भोजन न करें भोजन में स्वाद नहीं आता और खाने वाले तृप्त नहीं होते। उसका आशय यह था कि उन स्त्रियों के बीच में वही पुरुष और दूसरे उन तीन के अलावा चौथा व्यक्ति भी वही है, इसलिए भोजन के समय उसे भी खाने के लिए बिठा लिया जाय। जुबैदा उसकी बातें सुन कर हँसने लगी और बोली, 'तू अपनी बेकार की बातें और सलाहें अपने पास रख, हम तीनों स्त्रियाँ बहिनें हैं और अपने सारे काम खुद ही अच्छी तरह चलाती हैं और इस तरह चलाती हैं कि किसी को पता नहीं चलता। हम लोग नहीं चाहते कि कोई हमारे भेद को जाने।'
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.