05-08-2019, 10:05 PM
सब लोग एक बड़े पहाड़ पर पहुँचे। वहाँ पर उन्होंने एक बड़ी चट्टान हटाई तो उसके नीचे बड़ा गहरा और अँधेरा गड्ढा दिखाई दिया। सब लोगों ने रस्सी के द्वारा अर्थी को गड्ढे की तह तक उतार दिया। उसके बाद मृत स्त्री के पति को भी गड्ढे में उतार दिया। उन्होंने उसके साथ सात रोटियाँ और जल से भरा पात्र भी रख दिया और उसे उतारने के बाद गढ्ढे का मुँह चट्टान से बंद कर दिया। वह पहाड़ बहुत लंबा-चौड़ा था। उसके दूसरी ओर समुद्र था और उस ओर का क्षेत्र दुर्गम और निर्जन था। चट्टान को यथावत रख कर और पति-पत्नी के लिए शोक करके सब लोग वापस हुए।
मैं बहुत ही डर गया था और सोचता था कि ऐसी अमानुषिक रीति जो दुनिया के किसी देश में नहीं है यहाँ क्यों मानी जाती है। किंतु जिससे भी बात करता वह इस रिवाज का समर्थन करता और मेरी बात को गलत कहता था। यहाँ तक कि जब मैंने बादशाह से बात की तो उसने कहा, 'सिंदबाद, यह हमारे बुजुर्गों की बहुत पुरानी चलाई गई रस्म है। मैं अगर चाहूँ भी तो इसे रोक नहीं सकता। यह रस्म मुझ पर भी लागू होती है। भगवान न करे अगर रानी का देहांत हो जाय तो मुझे भी उसके साथ जीते जी दफन कर दिया जाएगा।' मैंने पूछा कि यह रस्म क्या उन अन्य देशवासियों पर भी लागू होती है जो यहाँ पर रहने लगे हैं। बादशाह मुस्कराने लगा और बोला, 'यह रस्म देशी-विदेशी सब के लिए है। इससे कोई व्यक्ति बाहर नहीं समझा जाता।'
इसके बाद मैं बहुत घबराया रहने लगा। मैं बराबर सोचता था कि कहीं मेरी पत्नी मर गई तो मुझे भी ऐसी भयानक मौत मरना पड़ेगा। मैं इसीलिए अपनी पत्नी के स्वास्थ्य की बहुत देखभाल करने लगा। किंतु ईश्वर की इच्छा कौन टाल सकता है। कुछ समय के बाद मेरी पत्नी सख्त बीमार हुई और कुछ दिनों में काल कवलित हो गई। मुझ पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। मैं सर पीटता था और कहता था कि मैं बेकार ही उस द्वीप से भागा। इस प्रकार जीते जी गाड़े जाने से कहीं अच्छा था कि नरभक्षी मुझे मार कर खा जाते।
इतने में बादशाह अपने दरबारियों और सेवकों के साथ मेरे घर आया। नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी वहाँ एकत्र हो गए और उसे अर्थी पर रख कर लोग ले चले और उनके पीछे मैं भी रोता-पीटता आँसू बहाता चला। दफन के पहाड़ पर पहुँच कर मैंने एक बार फिर अपने प्राण बचाने का प्रयत्न किया। मैंने बादशाह से कहा, स्वामी, मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ। मुझे यह कठोरतम दंड क्यों दिया जा रहा है। मुझ पर दया करके मुझे जीवन प्रदान कर दीजिए। मैं अकेला भी नहीं हूँ, मेरे देश में स्त्री-बच्चे मौजूद हैं। उनका खयाल करके मुझे छोड़ दीजिए।
मैंने हजार फरियाद की किंतु बादशाह या अन्य किसी व्यक्ति को मुझ पर दया न आई। पहले मेरी पत्नी की अर्थी को गड्ढे में उतारा गया फिर मुझे एक दूसरी अर्थी पर बिठाकर मेरे साथ रोटियाँ और पानी का घड़ा रख कर उतार दिया गया और गड्ढे पर चट्टान को वापस रख दिया गया।
वह कंदरा लगभग पचास हाथ गहरी थी। उसमें उतरते ही वहाँ उठने वाली बदबू से, जो लाशों के सड़ने से पैदा हो रही थी, मेरा दिमाग फटने लगा। मैं अपनी अर्थी से उठकर दूर भागा। मैं चीख-चीखकर रोने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा। मैं कहता था 'भगवान जो करता है उसे अच्छा ही कहा जाता है। जाने मेरे इस दुर्भाग्य में क्या अच्छाई है। मैं तीन-तीन यात्रा के कष्टों और खतरों से भी चैतन्य नहीं हुआ और फिर मरने के लिए चौथी यात्रा पर चला आया। अब तो यहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है।' इसी प्रकार मैं घंटों रोता रहा।
किंतु सुख हो या दुख, मनुष्य को भूख तो सताती ही है। मैं नाक-मुँह बंद करके अपनी अर्थी पर पहुँचा और थोड़ी रोटी खाकर पानी पिया। कुछ दिनों इस तरह जिया। रोटियाँ खत्म हो गईं तो सोचा कि अब तो भूखा मरना ही है। इतने में ऊपर उजाला हुआ। ऊपर की चट्टान खोल कर लोगों ने एक मृत पुरुष और उसके साथ उसकी विधवा को गढ्ढे में उतार दिया। जब लोग चट्टान बंद कर चुके तो मैंने एक मुर्दे की पाँव की हड्डी उठाई और चुपचाप पीछे से आकर स्त्री के सिर पर उसे इतनी जोर से मारा कि वह गश खाकर गिर पड़ी। मैंने लगातार चोटें करके उसे मार डाला और साथ रखी हुई रोटियाँ और पानी लेकर अपने कोने में चला गया। दो-चार दिन बाद एक आदमी को उसकी मृत पत्नी के साथ उतारा गया। मैंने पहले की तरह आदमी को खत्म करके उसकी रोटियाँ और पानी ले लिया। मेरे भाग्य से नगर में महामारी पड़ी और रोज दो-एक लाशें और उसके साथ जीवित व्यक्ति आने लगे जिन्हें मारकर मैं उनकी रोटियाँ ले लेता।
एक दिन मैंने वहाँ ऐसी आवाज सुनी जैसे कोई साँस ले रहा हो। वहाँ अँधेरा तो इतना रहता था कि दिन-रात का पता नहीं चलता था। मैंने आवाज ही पर ध्यान दिया तो साँस के साथ पाँवों की भी हलकी आहट आई। मैं उठा तो मालूम हुआ कि कोई चीज एक तरफ दौड़ रही है। मैं भी उसके पीछे दौड़ा। कुछ देर इसी प्रकार दौड़ने के बाद मुझे दूर एक तारे जैसी चमक दिखाई दी जो झिलमिला-सी रही थी। मैंने उस तरफ दौड़ना आरंभ किया तो देखा कि एक इतना बड़ा छेद है जिसमें से मैं बाहर जा सकता हूँ।
वास्तव में मैं पहाड़ के दूसरी ओर के ढाल पर निकल आया था। पहाड़ इतना ऊँचा था कि नगर निवासी जानते ही नहीं थे कि उधर क्या है। उस छेद में से होकर कोई जंतु मुर्दों को खाने के लिए अंदर आया करता था और उसी के सहारे मुझे बाहर निकलने का रास्ता मिला। मैं उस छेद से बाहर खुले आकाश के नीचे आ निकला और भगवान को उनकी अनुकंपा के लिए धन्यवाद दिया। मुझे अब अपने बच निकलने की आशा हो गई थी।
अब मैने कुछ सोचना आरंभ किया क्योंकि अभी तक तो मुर्दों की दुर्गंध के कारण कुछ सोच नहीं पाता था। थोड़ा-थोड़ा भोजन करके मैंने इतने दिन तक किसी प्रकार अपने को जीवित रखा था। मैं एक बार फिर जी कड़ा करके उस मुर्दों की गुफा में घुस गया। बहुत-से मुर्दों के साथ बहुमूल्य रत्न भूषण, आदि रख दिए जाते थे। मैंने टटोल-टटोल कर अंदाज से बहुत-से हीरे जवाहरात इकट्ठे किए।
मुर्दों के कफनों ही में उनकी अर्थियों की रस्सियों से हीरे-जवाहरात की कई गठरियाँ बाँधीं और एक-एक करके उन्हें बाहर ले आया, जहाँ से सामने समुद्र दिखाई देता था। मैंने समुद्र तट पर दो-तीन दिन फल फूल खाकर बिताए।
चौथे दिन मैंने तट के पास से एक जहाज गुजरता देखा। मैंने पगड़ी खोलकर उसे हवा में उड़ाते हुए खूब चिल्लाकर आवाजें दीं। जहाज के कप्तान ने मुझे देख लिया। उसने जहाज रोककर एक नाव मुझे लेने को भेजी। नाविक लोग मुझसे पूछने लगे कि तुम इस निर्जन स्थान पर कैसे आए। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाने के बजाय कह दिया कि दो दिन पहले हमारा जहाज डूब गया था, मेरे सभी साथी भी डूब गए, सिर्फ मैं कुछ तख्तों के सहारे अपनी जान और कुछ सामान बचा लाया। वे लोग मुझे गठरियों समेत जहाज पर ले गए।
जहाज पर कप्तान से भी मैंने यही बात कही और उसकी कृपा के बदले उसे कुछ रत्न देने लगा किंतु उसने लेने से इनकार कर दिया। हम वहाँ से चल कर कई द्वीपों में गए। हम सरान द्वीप से दस दिन की राह पर स्थित नील द्वीप गए। वहाँ से हम कली द्वीप पहुँचे जहाँ सीसे की खाने हैं और हिंदुस्तान की कई वस्तुएँ ईख, कपूर आदि भी होती हैं। कली द्वीप बहुत बड़ा है और वहाँ व्यापार बहुत होता है। हम लोग अपनी चीजें खरीदते-बेचते कुछ समय के बाद बसरा पहुँचे जहाँ से मैं बगदाद आ गया। मुझे असीमित धन मिला था। मैंने कई मसजिदें आदि बनवाईं और आनंदपूर्वक रहने लगा। यह कहकर सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और दूसरे रोज भी आने को कहा। अगले दिन सब लोग फिर एकत्र हुए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने अपनी पाँचवीं यात्रा का वर्णन शुरू किया।
मैं बहुत ही डर गया था और सोचता था कि ऐसी अमानुषिक रीति जो दुनिया के किसी देश में नहीं है यहाँ क्यों मानी जाती है। किंतु जिससे भी बात करता वह इस रिवाज का समर्थन करता और मेरी बात को गलत कहता था। यहाँ तक कि जब मैंने बादशाह से बात की तो उसने कहा, 'सिंदबाद, यह हमारे बुजुर्गों की बहुत पुरानी चलाई गई रस्म है। मैं अगर चाहूँ भी तो इसे रोक नहीं सकता। यह रस्म मुझ पर भी लागू होती है। भगवान न करे अगर रानी का देहांत हो जाय तो मुझे भी उसके साथ जीते जी दफन कर दिया जाएगा।' मैंने पूछा कि यह रस्म क्या उन अन्य देशवासियों पर भी लागू होती है जो यहाँ पर रहने लगे हैं। बादशाह मुस्कराने लगा और बोला, 'यह रस्म देशी-विदेशी सब के लिए है। इससे कोई व्यक्ति बाहर नहीं समझा जाता।'
इसके बाद मैं बहुत घबराया रहने लगा। मैं बराबर सोचता था कि कहीं मेरी पत्नी मर गई तो मुझे भी ऐसी भयानक मौत मरना पड़ेगा। मैं इसीलिए अपनी पत्नी के स्वास्थ्य की बहुत देखभाल करने लगा। किंतु ईश्वर की इच्छा कौन टाल सकता है। कुछ समय के बाद मेरी पत्नी सख्त बीमार हुई और कुछ दिनों में काल कवलित हो गई। मुझ पर दुख का पहाड़ टूट पड़ा। मैं सर पीटता था और कहता था कि मैं बेकार ही उस द्वीप से भागा। इस प्रकार जीते जी गाड़े जाने से कहीं अच्छा था कि नरभक्षी मुझे मार कर खा जाते।
इतने में बादशाह अपने दरबारियों और सेवकों के साथ मेरे घर आया। नगर के अन्य प्रतिष्ठित व्यक्ति भी वहाँ एकत्र हो गए और उसे अर्थी पर रख कर लोग ले चले और उनके पीछे मैं भी रोता-पीटता आँसू बहाता चला। दफन के पहाड़ पर पहुँच कर मैंने एक बार फिर अपने प्राण बचाने का प्रयत्न किया। मैंने बादशाह से कहा, स्वामी, मैं तो यहाँ का रहने वाला नहीं हूँ। मुझे यह कठोरतम दंड क्यों दिया जा रहा है। मुझ पर दया करके मुझे जीवन प्रदान कर दीजिए। मैं अकेला भी नहीं हूँ, मेरे देश में स्त्री-बच्चे मौजूद हैं। उनका खयाल करके मुझे छोड़ दीजिए।
मैंने हजार फरियाद की किंतु बादशाह या अन्य किसी व्यक्ति को मुझ पर दया न आई। पहले मेरी पत्नी की अर्थी को गड्ढे में उतारा गया फिर मुझे एक दूसरी अर्थी पर बिठाकर मेरे साथ रोटियाँ और पानी का घड़ा रख कर उतार दिया गया और गड्ढे पर चट्टान को वापस रख दिया गया।
वह कंदरा लगभग पचास हाथ गहरी थी। उसमें उतरते ही वहाँ उठने वाली बदबू से, जो लाशों के सड़ने से पैदा हो रही थी, मेरा दिमाग फटने लगा। मैं अपनी अर्थी से उठकर दूर भागा। मैं चीख-चीखकर रोने लगा और अपने भाग्य को कोसने लगा। मैं कहता था 'भगवान जो करता है उसे अच्छा ही कहा जाता है। जाने मेरे इस दुर्भाग्य में क्या अच्छाई है। मैं तीन-तीन यात्रा के कष्टों और खतरों से भी चैतन्य नहीं हुआ और फिर मरने के लिए चौथी यात्रा पर चला आया। अब तो यहाँ से निकलने का कोई रास्ता ही नहीं है।' इसी प्रकार मैं घंटों रोता रहा।
किंतु सुख हो या दुख, मनुष्य को भूख तो सताती ही है। मैं नाक-मुँह बंद करके अपनी अर्थी पर पहुँचा और थोड़ी रोटी खाकर पानी पिया। कुछ दिनों इस तरह जिया। रोटियाँ खत्म हो गईं तो सोचा कि अब तो भूखा मरना ही है। इतने में ऊपर उजाला हुआ। ऊपर की चट्टान खोल कर लोगों ने एक मृत पुरुष और उसके साथ उसकी विधवा को गढ्ढे में उतार दिया। जब लोग चट्टान बंद कर चुके तो मैंने एक मुर्दे की पाँव की हड्डी उठाई और चुपचाप पीछे से आकर स्त्री के सिर पर उसे इतनी जोर से मारा कि वह गश खाकर गिर पड़ी। मैंने लगातार चोटें करके उसे मार डाला और साथ रखी हुई रोटियाँ और पानी लेकर अपने कोने में चला गया। दो-चार दिन बाद एक आदमी को उसकी मृत पत्नी के साथ उतारा गया। मैंने पहले की तरह आदमी को खत्म करके उसकी रोटियाँ और पानी ले लिया। मेरे भाग्य से नगर में महामारी पड़ी और रोज दो-एक लाशें और उसके साथ जीवित व्यक्ति आने लगे जिन्हें मारकर मैं उनकी रोटियाँ ले लेता।
एक दिन मैंने वहाँ ऐसी आवाज सुनी जैसे कोई साँस ले रहा हो। वहाँ अँधेरा तो इतना रहता था कि दिन-रात का पता नहीं चलता था। मैंने आवाज ही पर ध्यान दिया तो साँस के साथ पाँवों की भी हलकी आहट आई। मैं उठा तो मालूम हुआ कि कोई चीज एक तरफ दौड़ रही है। मैं भी उसके पीछे दौड़ा। कुछ देर इसी प्रकार दौड़ने के बाद मुझे दूर एक तारे जैसी चमक दिखाई दी जो झिलमिला-सी रही थी। मैंने उस तरफ दौड़ना आरंभ किया तो देखा कि एक इतना बड़ा छेद है जिसमें से मैं बाहर जा सकता हूँ।
वास्तव में मैं पहाड़ के दूसरी ओर के ढाल पर निकल आया था। पहाड़ इतना ऊँचा था कि नगर निवासी जानते ही नहीं थे कि उधर क्या है। उस छेद में से होकर कोई जंतु मुर्दों को खाने के लिए अंदर आया करता था और उसी के सहारे मुझे बाहर निकलने का रास्ता मिला। मैं उस छेद से बाहर खुले आकाश के नीचे आ निकला और भगवान को उनकी अनुकंपा के लिए धन्यवाद दिया। मुझे अब अपने बच निकलने की आशा हो गई थी।
अब मैने कुछ सोचना आरंभ किया क्योंकि अभी तक तो मुर्दों की दुर्गंध के कारण कुछ सोच नहीं पाता था। थोड़ा-थोड़ा भोजन करके मैंने इतने दिन तक किसी प्रकार अपने को जीवित रखा था। मैं एक बार फिर जी कड़ा करके उस मुर्दों की गुफा में घुस गया। बहुत-से मुर्दों के साथ बहुमूल्य रत्न भूषण, आदि रख दिए जाते थे। मैंने टटोल-टटोल कर अंदाज से बहुत-से हीरे जवाहरात इकट्ठे किए।
मुर्दों के कफनों ही में उनकी अर्थियों की रस्सियों से हीरे-जवाहरात की कई गठरियाँ बाँधीं और एक-एक करके उन्हें बाहर ले आया, जहाँ से सामने समुद्र दिखाई देता था। मैंने समुद्र तट पर दो-तीन दिन फल फूल खाकर बिताए।
चौथे दिन मैंने तट के पास से एक जहाज गुजरता देखा। मैंने पगड़ी खोलकर उसे हवा में उड़ाते हुए खूब चिल्लाकर आवाजें दीं। जहाज के कप्तान ने मुझे देख लिया। उसने जहाज रोककर एक नाव मुझे लेने को भेजी। नाविक लोग मुझसे पूछने लगे कि तुम इस निर्जन स्थान पर कैसे आए। मैंने उन्हें पूरा वृत्तांत सुनाने के बजाय कह दिया कि दो दिन पहले हमारा जहाज डूब गया था, मेरे सभी साथी भी डूब गए, सिर्फ मैं कुछ तख्तों के सहारे अपनी जान और कुछ सामान बचा लाया। वे लोग मुझे गठरियों समेत जहाज पर ले गए।
जहाज पर कप्तान से भी मैंने यही बात कही और उसकी कृपा के बदले उसे कुछ रत्न देने लगा किंतु उसने लेने से इनकार कर दिया। हम वहाँ से चल कर कई द्वीपों में गए। हम सरान द्वीप से दस दिन की राह पर स्थित नील द्वीप गए। वहाँ से हम कली द्वीप पहुँचे जहाँ सीसे की खाने हैं और हिंदुस्तान की कई वस्तुएँ ईख, कपूर आदि भी होती हैं। कली द्वीप बहुत बड़ा है और वहाँ व्यापार बहुत होता है। हम लोग अपनी चीजें खरीदते-बेचते कुछ समय के बाद बसरा पहुँचे जहाँ से मैं बगदाद आ गया। मुझे असीमित धन मिला था। मैंने कई मसजिदें आदि बनवाईं और आनंदपूर्वक रहने लगा। यह कहकर सिंदबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें और दीं और दूसरे रोज भी आने को कहा। अगले दिन सब लोग फिर एकत्र हुए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने अपनी पाँचवीं यात्रा का वर्णन शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.