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अलिफ लैला
#44
यह कहने के बाद उन सभी ने विलाप करना आरंभ कर दिया। मैं और घबरा उठा और मैंने उनसे कहा कि तुम लोग साफ-साफ बताती क्यों नहीं कि तुम्हारे दुख-संताप का कारण क्या है। उन्होंने कहा कि हम आप को क्या बताएँ क्यों दुखी हैं। यह समय हमारे आप से सदा के लिए बिछुड़ने का है, हाँ एक बात है कि अगर आपको हमसे मिलने की उत्कट इच्छा हो और उसके लिए जो प्रतिज्ञा करें उस पर दृढ़ रहें तो हम लोगों का आपसे फिर मिलन हो भी सकता है।

मैंने कहा, ‘मेरी समझ में कुछ भी नहीं आया कि तुम्हारी बातों का क्या अर्थ है। मैं तुम्हें ईश्वर की सौगंध दिलाता हूँ कि सारी बात को साफ समझा कर कहो।’ अब उनमें से एक ने कहा, ‘सबसे पहले तो आप यह समझ लीजिए कि हम चालीसों शहजादियाँ हैं। हम लोग इस स्थान पर एक वर्ष तक आमोद-प्रमोद के लिए आया करते हैं। इसके बाद चालीस दिन के लिए अपने आवश्यक कार्यों के लिए अपने-अपने देश चले जाते हैं। चालीस दिन बाद फिर एक वर्ष के लिए इस महल में आ जाते हैं। कल हमारा यह वर्ष पूरा हो गया इसलिए आज हम लोग आपसे विदा ले रहे हैं। यही कारण है हमारे शोक और विलाप का। हम यहाँ से जाने के पहले आपको यहाँ के सौ कोठों की कुंजियाँ सौंप जाएँगे। हमारे पीछे आप सभी में घूम-फिर कर अपना जी बहलाएँ। लेकिन हम आपको अपनी सौगंध देते हैं कि इस स्वर्णद्वार को न खोलना। अगर आपने इसे खोला तो हमारा-आपका मिलन फिर कभी न हो सकेगा। लेकिन हमें मालूम है कि आप में इतना आत्मसंयम नहीं है कि उस द्वार को न खोलें। आप उसे जरूर खोलेगें और हमेशा के लिए हमसे बिछुड़ जाएँगे। यही कारण है कि हम सारी शहजादियाँ दुखी हैं। अगर भगवान ने आपको सद्बुद्धि दी और आपने उस स्वर्णद्वार को न खोला तो आपको कभी कोई दुख न होगा, आप संपूर्ण आयु चैन से बिताएँगे और हमारे साथ हमेशा आनंद करेंगे। लेकिन अगर आपने हमारे कहने के विपरीत किया तो आपको बहुत अधिक शोक और कष्ट होगा और आपके कष्ट से हमें भी दुख और कष्ट होगा। हम फिर आप से सौगंध देकर कहते हैं कि इस स्वर्णद्वार को न खोलना। हमसे वादा कीजिए कि आप ऐसा नहीं करेंगे कि आप हमसे हमेशा के लिए बिछुड़ जाएँ।

‘हम वैसे इस स्वर्णद्वार की चाबी अपने साथ भी ले जा सकते हैं किंतु यह अच्छा नहीं मालूम होता कि आप जैसे जिम्मेदार और बड़े आदमी पर अविश्वास करें और चाबी आपके हाथ में न दें। हाँ एक बार फिर यह कहते हैं कि अगर आपने यह स्वर्णद्वार खोला तो हमें और आपको अतीव कष्ट होगा।’
उनकी बातें सुनकर मैं भी दुखी हुआ। मैंने उनसे कहा, ‘मुझे तुम लोगों से अलग होने का अत्यंत दुख है। खैर, किसी प्रकार यह चालीस दिन काटूँगा।तुम्हारी इस नसीहत को हमेशा याद रखूँगा कि यह स्वर्णद्वार न खोलूँ। मुझे तो नहीं मालूम होता कि मुझ में इतना अधैर्य है कि तुम से किया हुआ वादा तोड़ दूँ। इससे अधिक साधारण बात क्या होगी कि मैं सौ दरवाजों को खोल कर घूमूँ-फिरूँ और एक को खोलने से बाज रहूँ। अगर तुम लोग इससे कठिन काम करने को कहती हो उसे भी मैं स्वीकार कर लेता। तुम्हारी बात मानने में तो मेरा ही लाभ है। मैं भला ऐसी बात क्यों करूँगा जिससे मेरी गहरी हानि हो और तुम लोगों से भी हमेशा के लिए अलग होना पड़ जाए। मैं ऐसी बात कभी नहीं करूँगा।’

यह कहकर मैंने उन सभी को एक-एक करके गले लगाया। इसके बाद वे सब चली गईं और मैं उस लंबे-चौड़े राजमहल में अकेला ही रह गया। मुझे अत्यंत शोक हो रहा था। यद्यपि वे केवल चालीस दिन बाद आने वाली थीं तथापि उनके वियोग में मुझे एक-एक घड़ी भारी पड़ रही थी। फिर मैंने अपना जी बहलाने को सोचा कि जिन दरवाजों की चाबियाँ मेरे पास हैं उन्हें खोल कर देखूँ। मैंने सोचा कि निषेध तो केवल एक द्वार के खोलने का है, सो उसे नहीं खोलूँगा।

इसलिए मैंने पहला दरवाजा खोला। अंदर गया तो देखा कि एक बड़ा भारी फलों का बाग है। ऐसा शानदार फलों का बाग संसार में शायद ही कोई और हो। उसमें सहस्रों सघन और सुंदर वृक्ष उचित दूरियों पर लगे थे। उनमें नाना प्रकार के सुस्वादु और आकर्षक रंगों के फल लगे हुए थे। उनमें से बहुत-से फल ऐसे थे जिनका मैं नाम भी नहीं जानता था। उन वृक्षों में सिंचाई का प्रबंध इस प्रकार किया गया था कि एक बड़ी और पक्की नहर से काट काटकर छोटी-छोटी नहरें इस कारीगरी से निकाली गई थीं कि प्रत्येक वृक्ष की जड़ में पानी पहुँचता था। उसके लिए किसी आदमी की जरूरत न थी कि पेड़ों की जड़ों में पानी पहुँचाए। इससे हर पेड़ हरा-भरा रहता था। कई वृक्ष तो इतने अधिक फलों से लदे थे कि उनकी डालियाँ झुक गई थीं। कुछ वृक्षों में केवल इतना पानी पहुँचा था कि उनमें फल पकी हुई हालत ही में रहें। बाग को ऐसे बुद्धिमानों ने लगाया था कि प्रत्येक वृक्ष को केवल उतना पानी पहुँचने का प्रबंध था जिससे वे सदैव हरे-भरे रहें और ऐसा न हो कि सड़ गल जाएँ।

मैं बहुत देर तक उस बाग में घूमता-फिरता रहा। वहाँ बहुत-सी वस्तुएँ थीं जिन्हें देख कर मुझे आश्चर्य होता और मैं प्रत्येक वस्तु को ध्यानपूर्वक देखता। फिर मैं उस बाग में वापस आया और उसके दरवाजे में ताला लगा दिया। फिर मैंने दूसरा दरवाजा खोला। इसके अंदर एक फूलों का बाग था। पहले बाग की जैसी कारीगरी ही से इस बाग के हर पौधे में उचित मात्रा में पानी पहुँचाने का प्रबंध किया गया था। संसार में कोई ऐसा फूल नहीं होगा जो उस वाटिका में न हो। गुलाब, चमेली, नरगिस, बनफ्शा, सौसन, चंपा, बेला, मोतिया आदि नाना प्रकार के फूल वहाँ पर खिले हुए थे। उनकी सुगंध हवा में भरी हुई थी और उसके कारण मस्तिष्क को बड़ा सुख मिल रहा था। मैं सुध-बुध खोकर घंटो वहाँ घूमता रहा।

फिर मैंने उस बाग का दरवाजा भी बंद किया और तीसरा दरवाजा खोला। उसके अंदर एक पक्षीगृह था। उसमें सारा फर्श संगमरमर का था और ऊँचाई से चंदन आबनूस की लकड़ियों से बने पिंजरे लटक रहे थे जिनमें तोता, मैना, बुलबुल, लाल इत्यादि भाँति-भाँति के पक्षी थे। वे अपनी मीठी बोलियों से चित्त प्रसन्न कर रहे थे। उन पिंजरों में दाने और पानी की कुल्हियाँ बहुमूल्य पत्थरों की बनी थीं। इतना बड़ा पक्षी गृह था कि कम से कम आदमी उसकी सँभाल के लिए जरूरी थे लेकिन वहाँ एक भी आदमी दिखाई नहीं देता था। साथ ही इतनी सफाई भी थी कि एक तिनका इधर-उधर पड़ा दिखाई नहीं देता था।

शाम हुई तो सारे पक्षी अपने-अपने पंखों में चोंच डाल कर सो गए और मैं भी पक्षीगृह का ताला लगा कर अपने शयन कक्ष में आ गया और सो रहा। दूसरे दिन सुबह एक और द्वार खोला तो उसमें एक बड़ा महल देखा। उसमें चालीस प्रकोष्ठ बने थे किंतु सभी के दरवाजे खुले थे। एक कोठे में सिर्फ मोती भरे थे। मोतियों के विभिन्न आकारों के हिसाब से ढेर लगे थे। एक ढेर में कबूतर के अंडे जितने बड़े मोती थे। फिर उनसे छोटे मोतियों के कई ढेर थे। दूसरे कोठे में नीलम भरे थे, चौथे में सोने की ईंटें, पाँचवें में अशर्फियाँ, छठे में चाँदी की ईंटें, सातवें में मुद्रा की ढेरियाँ थीं। इसी प्रकार अन्य कोठों में किसी में पुखराज, किसी में पन्ना, किसी में मूँगा आदि रत्न भरे हुए थे। मैं इस असीम रत्नागार को देखकर आश्चर्यान्वित हुआ और सोचने लगा कि मैं कितना भाग्यशाली हूँ कि इतने खजाने और चालीस सुंदर शहजादियों का स्वामी हूँ।

फकीर ने जुबैदा से कहा कि हे सुंदरी, मैं उस ऐश्वर्य का उल्लेख करने में असमर्थ हूँ जो मैंने वहाँ देखा। उनतालीस दिनों तक मैं विभिन्न द्वारों में जाकर वहाँ की आश्चर्यप्रद वस्तुएँ देखता रहा। चालीसवें दिन मेरे देखने के लिए सिर्फ एक दरवाजा रह गया। यह वही दरवाजा था जिसे खोलने को मुझ से मना किया गया था। मुझे शैतान ने बहका दिया और मैंने अपनी कसमें और वादे तोड़कर उस दरवाजे को भी खोल डाला। दरवाजा खोलते ही उससे बड़ी तेज सुगंध आई जिससे मैं सुध-बुध खो बैठा। होश में आया तो अंदर गया और ठहर कर उस गंध के कम होने की प्रतीक्षा करने लगा। फिर अंदर जाकर देखा तो बहुत बड़ा महल है जिसके फर्श पर केसर बिछी है और सोने की तिपाइयों पर चाँदी के दीपक जल रहे हैं जिनमें इत्र के जैसे सुगंधित तेल भरे थे। इसी से वहाँ तेज सुगंध हो रही थी। और भी कई आश्चर्य की चीजें मैंने वहाँ पर देखीं।

मैंने देखा कि एक ओर बहुत उम्दा मुश्की घोड़ा बँधा है। उसके सामने जो जल पात्र था उसमें गुलाब जल भरा हुआ था और खाने की नाँद में तिल और जौर भरे थे। उस घोड़े की लगाम में सोने के पत्तर लगे थे। मैंने उस घोड़े की लगाम पकड़ कर उसे बाहर निकाला कि बाहर के प्रकाश में उसे भली प्रकार देख लूँ। बाहर लाकर मैं उस पर सवार हो गया और उसे चलने का इशारा दिया। लेकिन वह न चला। फिर मैंने उसे एक चाबुक मारा। चाबुक लगते ही घोड़ा भयानक रूप से हिनहिनाया और अपने पंखों से -जिन्हें मैंने पहले नहीं देखा था – उड़ चला। मैं घबराकर उसकी अयाल पकड़ कर लटक गया। घोड़ा मुझे लेकर इतना ऊँचा उड़ा कि वहाँ से पृथ्वी बहुत छोटी दिखाई देती थी। फिर वह उतर कर उसी ताँबे के मकान की छत पर पहुँच गया जहाँ पर मैं पहले पहुँचा था। वहाँ उसने अपने शरीर को इतने जोर का झटका दिया कि मैं पीठ के बल जमीन पर गिरा। घोड़े ने अपनी पूँछ मेरी दाहिनी आँख में मारी जिससे वह फूट गई। फिर घोड़ा उड़ गया।

मैं किसी तरह गिरता-पड़ता नीचे आया। नीचे बारहदरी और उसके इर्दगिर्द बने हुए दस कमरों को देखकर मुझे विश्वास हो गया कि यह वही महल है जहाँ मैं पहले आया था। उस समय वे दस जवान वहाँ नहीं थे। मैं उनकी प्रतीक्षा करने लगा। कुछ देर में वे लोग बूढ़े आदमी के साथ वहाँ आए। उन्होंने न मेरी ओर कुछ ध्यान दिया न मेरी आँख फूटने पर सहानुभूति प्रकट की। उन्होंने कहा, ‘देखो भाई, हम लोग तो तुम्हारे दुर्भाग्य का कारण नहीं सिद्ध हुए।’ मैंने कहा, ‘आप लोग ठीक कहते हैं। मुझ पर जो मुसीबत पड़ी वह अपनी ही मूर्खता के कारण पड़ी किंतु मैं जानना चाहता हूँ कि इस मुसीबत को दूर करने का भी उपाय है या नहीं।’

उन्होंने कहा, ‘अगर हम ऐसा उपाय जानते तो अपनी मुसीबत को दूर न कर लेते? तुम्हारी तरह हम लोग भी एक-एक वर्ष तक उन शहजादियों के साथ आनंदपूर्वक रहे। अगर हम वह स्वर्णद्वार न खोलते तो हम उनके साथ आनंदपूर्वक रहते। तुम हम लोगो से अधिक बुद्धिमान दिखाई देते थे फिर भी तुम वह सोने का दरवाजा खोलने से बाज न आ सके और अपने को ऐसी मुसीबत में डाल बैठे। अच्छा; यह तो हम तुम्हें पहले ही बता चुके हैं कि अब यहाँ ग्यारहवें आदमी के रहने के लिए स्थान नहीं है। तुम्हारे लिए यही उचित होगा कि तुम यहाँ से बगदाद जाओ जहाँ का रास्ता हम बता देंगे। वहाँ तुम्हें ऐसा व्यक्ति मिलेगा जो तुम्हारे दुख दूर करेगा।’ उनकी सलाह मानकर मैं बगदाद पहुँचा। रास्ते में दाढ़ी-मूँछ और भवें मुँडवा दीं और फकीरों के वस्त्र पहन लिए। चलते-चलते बहुत दिन बाद आज शाम को बगदाद पहुँचा। परकोटे पर इन दोनों साथियों से भेंट हुई। फिर तुम्हारे घर आए जहाँ तुमने हमारा बड़ा सत्कार किया।

जब तीसरा फकीर अपना हाल कह चुका तो जुबैदा ने उससे और उसके दोनों साथियों से कहा कि मैंने तुम तीनों का अपराध क्षमा किया, अब तुम लोग यहाँ से चले जाओ। एक फकीर ने कहा कि आप कृपा करके हमे इतनी अनुमति दें कि हम यहाँ रुक कर इन बाकी तीन आदमियों की कहानी भी सुन लें। जुबैदा ने खलीफा, जाफर और मसरूर की ओर देखकर अपना-अपना हाल कहने का इशारा किया। वह यह तो जानती ही न थी कि यह लोग कितने उच्च पद के हैं, इसीलिए उसने उन्हें अपना-अपना हाल सुनाने की आज्ञा दी।

खलीफा के मंत्री जाफर ने निवेदन किया, ‘हे सुंदरी, हम लोग इस महल में प्रवेश करने के समय ही अपना-अपना हाल कह चुके हैं। अब तुमने फिर पूछा है तो कहते हैं कि हम लोग मोसिल से आए हुए व्यापारी हैं। हम अपनी व्यापार की वस्तुएँ बेचने यहाँ आए थे और एक सराय में उतरे थे। आज रात के लिए एक व्यापारी ने हमें खाने का निमंत्रण दिया। जब हम उसके घर पहुँचे तो उसने हम लोगों को अत्यंत स्वादिष्ट भोजन कराया और बढ़िया शराब पिलाई। फिर देर तक उसके यहाँ संगीत और नृत्य का कार्यक्रम चला। वहाँ का शोर इतना बढ़ा कि गश्त पर निकले सिपाही आ गए। उन्होंने कई लोगों को गिरफ्तार कर लिया। हम लोग भाग्यशाली थे कि किसी प्रकार बचकर निकल आए। लेकिन रात अधिक बीत जाने के कारण हमारी सराय का द्वार बंद हो गया था। हम लोग परेशान थे कि रात कहाँ बिताएँ। इधर-उधर भटकते हुए तुम्हारी गली में आ गए। तुम्हारे घर में हँसने-बोलने और गाने-बजाने की आवाजें आ रही थीं। इसीलिए हमने दरवाजा खुलवाया। तुमने कृपा कर हम लोगों का आदर-सत्कार किया। यही हमारी कहानी है।

मंत्री ने यह बात इतने आत्मविश्वास और इतनी कुशलता से कही कि जुबैदा को उसकी सत्यता में विश्वास हो गया। उसने कहा, ‘अच्छा, हमने तुम्हारा भी अपराध क्षमा किया और अब तुम सब यहाँ से चले जाओ।’ वे लोग उठने में झिझके तो जुबैदा ने क्रोध में भर कर कहा, ‘जाते हो या जान देना चाहते हो?’ उसकी डाँट सुनकर वे सातों व्यक्ति मजदूर, तीनों फकीर, खलीफा और उसके दोनों साथी – चुपचाप उठकर बाहर आ गए क्योंकि सात हब्शी नंगी तलवारें लिए उनके सर पर खड़े थे। सातों व्यक्तियों के घर से निकलते ही स्त्रियों ने घर का दरवाजा बंद कर लिया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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