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साहित्य
#37
''इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।''

''भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधाास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।''

इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-

मूल

1. निसि अंधाारी सुसार चारा।

अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।

मार रे जोइया मूषा पवना।

जेण तृटअ अवणा गवणा।

भव विदारअ मूसा रवण अगति।

चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।

काला मूसा ऊहण बाण।

गअणे उठि चरअ अमण धााण।

तब से मूषा उंचल पाँचल।

सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।

जबे मूषा एरचा तूटअ।

भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।

- भुसुक

छाया

निसि ऍंधिायारी सँसारा सँचारा।

अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।

मार रे जोगिया मूसा पवना।

जेहिते टूटै अवना गवना।

भव विदार मूसा खनै खाता।

चंचल मूसा करि नाश जाता।

काला मूसा उरधा नवन।

गगने दीठि करै मन बिनु धयान।

तबसो मूसा चंचल वंचल।

सतगुरु बोधो करु सो निहचल।

जबहिं मूसा आचार टूटइ।

भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।

मूल

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।

नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।

जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।

हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।

माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।

सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।

- भुसुक

छाया

जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।

नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।

जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।

हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।

माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।

सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।

- भुसुक

अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें

पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।

छाया

अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।

पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।

- सरहपा

मूल-

आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।

पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।

अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1

कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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