02-08-2019, 01:23 AM
कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण्ा के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धार्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-
1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।
घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।
पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड
इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धाी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-
1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।
घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।
पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड
इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धाी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.