02-08-2019, 01:21 AM
इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधाी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिाकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधाारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।
कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधाान शिष्य धार्मदास कहते हैं-
आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।
मलूकदास कहते हैं-
तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1
1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451
झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय * धार्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में * धार्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धार्म की रचना करके हिन्दू * को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक * पीर थे और जिसने अपने नवीन धार्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू *ों के एकीकरण में लग्न थे।
कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधाान शिष्य धार्मदास कहते हैं-
आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।
मलूकदास कहते हैं-
तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1
1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451
झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय * धार्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में * धार्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धार्म की रचना करके हिन्दू * को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक * पीर थे और जिसने अपने नवीन धार्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू *ों के एकीकरण में लग्न थे।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.