02-08-2019, 01:20 AM
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उध्दाृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिाकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिाकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धाी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिाक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।
मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिाकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-
1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।
पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।
2. कबीर संगत साधाु की कदे न निरफल होय।
चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।
3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।
जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।
4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।
भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।
5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।
मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिाकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-
1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।
पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।
2. कबीर संगत साधाु की कदे न निरफल होय।
चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।
3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।
जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।
4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।
भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।
5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।
अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.