01-08-2019, 03:50 PM
मेरा विचार है कि पन्द्रहवें शतक में प्रान्तिक भाषाओं में हिन्दी वाक्यों और शब्दों के प्रवेश का सूत्रापात हो गया था, जो आगे चलकर अधिाक विकसित रूप में दृष्टिगत हुआ।
मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धाार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धााराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिाका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्रा में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधाा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधााकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।
मैं इस प्रणाली का आदि प्रवर्तक विद्यापति को ही मानता हूँ। यदि गुरु गोरखनाथ हिन्दी भाषा में धाार्मिक शिक्षा के आदि प्र्रवत्ताक हैं और उसको ज्ञान और योग की पुनीत धााराओं से पवित्रा बनाते हैं तो मैथिल कोकिल उसको ऐसे स्वरों से पूरित करते हैं जिसमें सरस शृंगार-रस की मनोहारिणी धवनि श्रवणगत होती है। सरसपदावली का आश्रय लेकर उन्होंने भगवती राधिाका के पवित्रा प्रेमोद्गारों से अपनी लेखनी को रसमय ही नहीं बनाया, साहित्य क्षेत्रा में अपूर्व भावों की भी अवतारणा की। यहाँ पर यह प्रश्न उपस्थित होता है कि विद्यापति स्वयं इस प्रणाली के उद्भावक हैं या उनके सामने इससे पहले का और कोई आदर्श था। मैं यह स्वीकार करूँगा कि उनके सामने प्राचीन आदर्श अवश्य था। परन्तु हिन्दी भाषा में राधाा-भाव के आदि प्र्रवत्ताक विद्यापति ही हैं। पदावली में राधााकृष्ण के संयोग और वियोग शृंगार का जैसा भावमय और हृदयग्राही वर्णन विद्यापति ने किया है, हिन्दी भाषा में उनसे पहले इस प्रकार का भावुकतामय वर्णन किसी ने नहीं किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.