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साहित्य
#26
1. देखिए वर्नाक्युलर लिटरेचर ऑफ् हिन्दुस्तान पृष्ठ 9 पंक्ति 34

हमारे कथन के प्रमाण हैं। इनमें मैथिली भाषा का रंग है, किन्तु उससे कहीं अधिाक हिन्दी भाषा की छटा दिखाई पड़ती हैं। इस विषय में दो एक हिन्दी विद्वानों की सम्मति भी देखिए। अपने 'हिन्दी साहित्य का इतिहास' में (59, 60 पृष्ठ) पं. रामचन्द्र शुक्ल लिखते हैं-

''विद्यापति को बंगभाषा वाले अपनी ओर खींचते हैं। सर जार्ज ग्रियर्सन ने भी बिहारी और मैथिली को मागधाी से निकली होने के कारण हिन्दी से अलग माना है। पर केवल भाषा शास्त्रा की दृष्टि से कुछ प्रत्ययों के आधाार पर ही साहित्य-सामग्री का विभाग नहीं किया जा सकता। कोई भाषा कितनी दूर तक समझी जाती, इसका विचार भी तो आवश्यक होता है। किसी भाषा का समझा जाना अधिाकतर उसकी शब्दावली (Vocabulary) पर अवलम्बित होता है। यदि ऐसा न होता तो उर्दू हिन्दी का एक ही साहित्य माना जाता।

''खड़ी बोली, बाँगड़ई, ब्रज, राजस्थानी, कन्नौजी, वैसवाड़ी, अवधाी इत्यादि में रूपों और प्रत्ययों का परस्पर अधिाक भेद होते हुए भी सब हिन्दी के अन्तर्गत मानी जाती हैं! बनारस, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया आदि जिलों में आयल-आइल, गयल-गइल, हमरा तोहरा आदि बोले जाने पर भी वहाँ की भाषा हिन्दी के सिवाय दूसरी नहीं कही जाती। कारण है शब्दावली की एकता। अत: जिस प्रकार हिन्दी साहित्य बीसलदेव रासो पर अपना अधिाकार रखता है, उसी प्रकार विद्यापति की पदावली पर भी।''

हिन्दी भाषा और साहित्यकार यह लिखते है। 1-

''सारे बिहार-प्रदेश और उसके आसपास संयुक्त प्रदेश, छोटा नागपुर और बंगाल में कुछ दूर तक बिहारी भाषा बोली जाती है। यद्यपि बँगला और उड़िया की भाँति बिहारी भाषा भी मागधा अपभ्रंश से ही निकली है तथापि अनेक कारणों से इसकी गणना हिन्दी में होती है और ठीक होती है।''

''बिहारी भाषा में मैथिली, मगही और भोजपुरी तीन बोलियाँ हैं। मिथिला या तिरहुत और उसके आसपास के कुछ स्थानों में मैथिली बोली जाती है। पर उसका विशुध्द रूप दरभंगे में पाया जाता है। इस भाषा के प्राचीन कवियों में विद्यापति ठाकुर बहुत ही प्रसिध्द और श्रेष्ठ कवि हो गये हैं, जिनकी कविता का अब तक बहुत आदर होता है। इस कविता का अधिाकांश सभी बातों में प्राय: हिन्दी ही है।''

आजकल बिहार हिन्दी भाषा-भाषी प्रान्त माना जाता है। वहाँ के विद्यालयों और साहित्यिक समाचार पत्राों अथच मासिक पुस्तकों में हिन्दी भाषा का ही प्रचार है। ग्रन्थ रचनाएँ भी प्राय: हिन्दी भाषा में ही होती हैं और वहाँ के पठित-समाज की भाषा भी हिन्दी ही है। ऐसी अवस्था में बिहारी भाषा पर हिन्दी भाषा का कितना अधिाकार है, यह अप्रकट नहीं।

मैं समझता हूँ विद्यापति की रचनाओं पर हिन्दी भाषा का कितना स्वत्व है,

1. देखिए 'हिन्दी भाषा और साहित्य' का पृष्ठ 39

इस विषय में पर्याप्त लिखा जा चुका। मैंने उनकी रचना इसीलिए यहाँ उपस्थित की है, कि जिससे आप लोगों को यह ज्ञात हो सके कि उस समय हिन्दी भाषा का क्या रूप था। उनकी कविता को देखने से यह ज्ञात होता है कि उनके समय में हिन्दी भाषा प्राय: प्राकृत शब्दों से मुक्त हो गई थी और उसमें बड़ी सरस रचनाएँ होने लगी थीं। मुझको विश्वास है कि उनकी रचना के अधिाकांश शब्दों और प्रयोगों को हिन्दी मानने में किसी को आपत्तिा न होगी। वे ब्रजभाषा के चिर परिचित शब्द हैं जो अपने वास्तविक रूप में पदावली में गृहीत हुए हैं। श्रीमती राधिाका की विरह-वेदना का वर्णन होने के कारण उन पर और अधिाक ब्रजभाषा की छाप लग गई है। जो शब्द चिद्दित हैं, उन्हें हम ब्रजभाषा का नहीं कह सकते। किन्तु उनमें से भी 'हेरथि' इत्यादि दो-चार शब्दों को छोड़कर शेष को निस्संकोच भाव से अवधाी कह सकते हैं और यह अविदित नहीं कि अवधाी भाषा हिन्दी का ही रूप है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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