01-08-2019, 03:49 PM
मेरा विचार है कि विद्यापति ने बड़ी ही सरस हिन्दी में अपनी पदावली की रचना की है। उनके पद्यों से रस निचुड़ा पड़ता है। गीत गोविन्दकार वीणापाणि के वरपुत्रा जयदेव जी की मधाुर कोमल कान्त पदावली पढ़कर जैसा आनन्द अनुभव होता है वैसा ही विद्यापति की पदावलियों का पाठ कर। अपनी कोकिल-कण्ठता ही के कारण वे मैथिल कोकिल कहलाते हैं। उनके समय में हिन्दी भाषा कितनी परिष्कृत और प्रांजल हो गई थी, इसका विशेष ज्ञान उनकी रचनाओं को पढ़कर होता है। उनके कतिपय पद्यों को देखिए-
1. माधाव कत परबोधाब राधाा।
हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधाा।
धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।
सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धाारा।
अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।
मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।
आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।
निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।
कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।
भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।
2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।
सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधाारी।
एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।
जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधाुपुर जाहे।
चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।
3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।
हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।
एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।
सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।
मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधाुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।
इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिाकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधाार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधाार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिाकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिाकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे
1. माधाव कत परबोधाब राधाा।
हा हरि हा हरि कहतहिं बेरि बेरि अब जिउ करब समाधाा।
धारनि धारिये धानि जतनहिं बैसइ पुनहिं उठइ नहिं पारा।
सहजइ बिरहिन जग महँ तापिनि बौरि मदन सर धाारा।
अरुण नयन नीर तीतल कलेवर विलुलित दीघल केसा।
मन्दिर बाहिर कर इत संसय सहचरि गनतहिं सेसा।
आनि नलिनि केओ रमनि सुनाओलि केओ देईमुख पर नीरे।
निस बत पेखि केओ सांस निसारै केओ देई मन्द समीरे।
कि कहब खेद भेद जनि अन्तर घन घन उतपत साँस।
भनइ विद्यापति सेहो कलावति जोउ बँधाल आसपास।
2. चानन भेल विषम सररे भूषन भेल भारी।
सपनहुँ हरि नहिं आयल रे गोकुल गिरधाारी।
एकसरि ठाढ़ि कदम तर रे पथ हेरथि मुरारी।
हरि बिनु हृदय दगधा भेल रे आमर भेल सारी।
जाह जाह तोहिं ऊधाव हे तोहिं मधाुपुर जाहे।
चन्द बदनि नहिं जोवत रे बधा लागत काहे।
3. के पतिया लए जायतरे मोरा पिय पास।
हिय नहिं सहै असह दुखरे भल साओन मास।
एकसर भवन पिया बिनुरे मोरा रहलो न जाय।
सखियन कर दुख दारुनरे जग के पतिआय।
मोर मन हरि हरि लै गेल रे अपनो मन गेल।
गोकुल तजि मधाुपुर बसि रे कति अपजस लेल।
विद्यापति कवि गाओल रे धानि धारु पिय आस।
आओत तोर मन भावन रे एहि कातिक मास।
इन पद्यों को पढ़कर यह स्वीकार करना पड़ेगा कि इनमें मैथिली शब्दों का प्रयोग कम नहीं है। विद्यापति मैथिल कोकिल कहलाते हैं। डॉक्टर ग्रियर्सन साहब ने भी इनको मैथिल कवि कहा है। 1बँगला के अधिाकांश विद्वान् एक स्वर से उनको मैथिल भाषा का कवि ही बतलाते हैं और इसी आधाार पर उनको बँगला का कवि मानते हैं क्योंकि बँगला का आधाार मैथिली का पूर्व रूप है। वे मिथिला-निवासी थे भी। इसलिए उनका मैथिल कवि होना युक्ति-संगत है। परन्तु प्रथम तो मैथिली भाषा अधिाकतर पूर्वी हिन्दी भाषा का अन्यतम रूप है, दूसरे विद्यापति की पदावली में हिन्दी शब्दों का प्रयोग अधिाकता, सरसता एवं निपुणता के साथ हुआ है। इसलिए उसको हिन्दी भाषा की रचना स्वीकार करना ही पड़ता है। जो पद्य ऊपर लिखे गये हैं वे
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.