01-08-2019, 03:49 PM
वेदान्त धार्म के प्र्रवत्ताक स्वामी शंकराचार्य्य थे। उनका वेदान्तवाद अथवा अद्वैतवाद व्यवहार-क्षेत्रा में आकर शिवत्व धाारण कर लेता है। इसीलिए उनका सम्प्रदाय शैव माना जाता है। भगवान शिव की मूर्ति जहाँ गम्भीर ज्ञानमयी है, वहीं विविधा विचित्रातामयी भी। इसलिए उसमें यदि निर्गुणवादियों के लिए विशेष विभूति विद्यमान है तो सगुणोपासक समूह के लिए भी बहुत कुछ दैवी ऐश्वर्य्य मौजूद है। यही कारण है कि शैव सम्प्रदाय का वह परम अवलम्ब है। गोरखनाथ की संस्कृत और भाषा की रचनाओं में वेदान्तवाद की विशेष विभूतियाँ जहाँ दृष्टिगत होती हैं, वहीं शिव के उपासना की ऐसी प्रणालियाँ भी उपलब्धा होती हैं, जो सर्वसाधाारण को उनकी ओर आकर्षित करती हैं। इन्हीं विशेषताओं के कारण गोरखनाथ जी ने शैव धार्म का आश्रय लेकर उस समय हिन्दू धार्म के संरक्षण का भगीरथ प्रयत्न किया और बहुत कुछ सफलता भी लाभ की। नेपाल में आज भी शैव धार्म का बहुत बड़ा प्रभाव है। जिस समय सिध्द लोग अपने आडम्बरों द्वारा सर्व-साधाारण को उन्मार्गगामी बना रहे थे, उस समय गोरखनाथ जी ने किस प्रकार सन्मार्ग का प्रचार सर्वसाधाारण में किया, उसका प्रमाण उनका धार्म और उनकी वे सुन्दर रचनाएँ हैं जिनमें लोक-हितकारी शिक्षाएँ भरी पड़ी हैं। गोरखनाथ जी की महत्ताा इतनी प्रभावशालिनी थी कि उसने पाप-प( में निमग्न अपने गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) का भी उध्दार किया। जो पद्य ऊपर उध्दाृत किये गये हैं,उनमें से तीसरे, चौथे, और पाँचवें तथा छठे पद्यों को देखिए। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात हो जायेगा कि उन्होंने किस प्रकार अपने गुरु को सांसारिक व्यसनों से बचने की शिक्षा दी और कैसे उनको स्त्रिायों के प्रपंच से विरत रहने का उपदेश दिया। उन्होंने आत्म-परिचय और अजरामर होने का मार्ग उन्हें बड़े सुन्दर शब्दों में बतलाया और कभी-कभी उनमें आत्मग्लानि उत्पन्न करने की चेष्टा भी की, जैसा छठे पद्य के देखने से प्रकट होता है। उनका यह उद्योग अपने गुरुदेव के विषय में ही नहीं देखा जाता, सर्वसाधाारण पर भी उनकी शिक्षाओं ने बड़ा प्रभाव डाला, और इस प्रकार उस समय के पतन-प्राय हिन्दू समाज का बहुत बड़ा उपकार किया। उनकी रचनाओं में योग-सम्बन्धाी बहुत-सी बातें पाई जाती हैं। उध्दाृत पद्यों में से पहले-दूसरे पद्य ऐसे ही हैं। उनके सातवें, आठवें, नौवें पद्यों में ऐसी शिक्षाएँ हैं जिन्हें सब सन्मार्ग के पथिकों को ग्रहण करना चाहिए। हिन्दी-साहित्य में इस प्रकार की धाार्मिक शिक्षाओं के आदि प्रचारक भी गोरखनाथ जी ही हैं। इन सब बातों पर दृष्टि रख उनकी रचनाओं पर विचार करने से वे बहुमूल्य ज्ञात होती हैं और उनसे इस बात का भी पता चलता है कि किस प्रकार आदि में हिन्दी अपने तद्भव रूप में प्रकट हुई।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.