01-08-2019, 03:47 PM
'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधाी-सीधाी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धार्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धार्म था। महायान ने ही धाारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।'
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.