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साहित्य
#17
इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिाक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस'इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधाीन, नाद, धयान, साधाु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माधयमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिाकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधाुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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साहित्य - by neerathemall - 01-08-2019, 03:42 PM
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