01-08-2019, 03:46 PM
अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधाान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक * ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माधयमिक काल में * अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे *ों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।
1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधाा धारा।
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।
2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।
क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।
3. बात की बात ठठोली की ठठोली।
मरद की गाँठ औरत ने खोली।
4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।
5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।
आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।
6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।
7. उज्जल बरन अधाीनतन , एक चित्ता दो धयान।
देखत में तो साधाु है , निपट पाप को खान।
8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।
आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।
इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धााराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धाी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है।
1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधाा धारा।
चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।
2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।
क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।
3. बात की बात ठठोली की ठठोली।
मरद की गाँठ औरत ने खोली।
4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।
बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।
5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।
आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।
6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।
बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।
7. उज्जल बरन अधाीनतन , एक चित्ता दो धयान।
देखत में तो साधाु है , निपट पाप को खान।
8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।
बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।
आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।
बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।
9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।
देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।
इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धााराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धाी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.