01-08-2019, 03:44 PM
उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार *ों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधाान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-
करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।
जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।
जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।
राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।
राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।
तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।
विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-
परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।
भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।
गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।
देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।
जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।
निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।
तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।
आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।
विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-
'' बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A
धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ
सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि '' ।
ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।
करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।
जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।
जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।
राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।
राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।
तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।
विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-
परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।
भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।
गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।
देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।
जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।
निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।
तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।
आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।
विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-
'' बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A
धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ
सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि '' ।
ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.