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Incest हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है
#50
मेरा विचार है कि जो पद्य मैंने ग्रन्थ साहब से उध्दाृत किये हैं और जो पद्य कबीर ग्रन्थावली से लिये हैं, उनकी भाषा एक है, और मैं कबीर साहब की वास्तविक भाषा में लिखा गया इन पद्यों को ही समझता हूँ। वास्तव बात यह है कि कबीर ग्रन्थावली की अधिाकांश रचनाएँ इसी भाषा की हैं। उसके अधिाकतर पद ऐसी ही भाषा में लिखे पाये जाते हैं। बहुत से दोहों की भाषा का रूप भी यही है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि कबीर साहब की रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के अनुकूल हैं। आप देखते आये हैं कि क्रमश: हिन्दी भाषा परिमार्जित होती आई है। जैसा उसका परिमार्जित रूप पन्द्रहवीं शताब्दी की अन्य रचनाओं में मिलता है वैसा ही कबीर साहब की रचनाओं में भी पाया जाता है। इसलिए मुझे यह कहना पड़ता है कि उनकी रचनाएँ पन्द्रहवीं शताब्दी के भाषा जनित परिवर्तन सम्बन्धाी नियमों से मुक्त नहीं हैं, वरन क्रमिक परिवर्तन की प्रमाण भूत हैं। हाँ, उनमें कहीं-कहीं प्रान्तिकता अवश्य पाई जाती है और पश्चिमी हिन्दी से पूर्वी हिन्दी का प्रभाव उनकी रचना पर अधिाक देखा जाता है। किन्तु यह आश्चर्यजनक नहीं। क्योंकि प्रान्तिक भाषा में कविता करने का सूत्रापात विद्यापति के समय में ही हुआ था, जिसकी चर्चा पहले हो चुकी है।

मैं यह स्वीकार करूँगा कि कबीर साहब की रचनाओं में पंजाबी और राजस्थानी भाषा के कुछ शब्दों, क्रियाओं और कारकों का प्रयोग मिल जाता है। किन्तु, उसका कारण उनका विस्तृत देशाटन है, जैसा मैं पहले कह भी चुका हूँ। अपनी मुख्य भाषा में इस प्रकार के कुछ शब्दों का प्रयोग करते सभी संत कवियों को देखा जाता है और यह इतना असंगत नहीं जितना अन्य भाषा के शब्दों का उतना प्रयोग जो कवि की मुख्य भाषा के वास्तविक रूप को संदिग्धा बना देता है। मैंने कबीर ग्रन्थावली से जो एक पद और सात दोहे पहले उठाये हैं, उनकी भाषा ऐसी है जो कबीर साहब की मुख्य भाषा की मुख्यता का लोप कर देती है। इसीलिए मैं उनको शुध्द रूप में लिखा गया नहीं समझता। परन्तु उनकी जो ऐसी रचनाएँ हैं जिनमें उनका मुख्य रूप सुरक्षित है और कतिपय शब्द मात्रा अन्य भाषा के आ गये हैं, उन्हें मैं उन्हीं की रचना मानता हूँ और समझता हूँ कि वे किसी अल्पज्ञ लेखक की अनधिाकार चेष्टा से सुरक्षित हैं। उनके इस प्रकार के कुछ पद्य भी देखिए-

1. दाता तरवर दया फल उपकारी जीवन्त।

पंछी चले दिसावरां बिरखा सुफल फलन्त।

2. कबीर संगत साधाु की कदे न निरफल होय।

चंदन होसी बावना नीम न कहसी कोय।

3. कायथ कागद काढ़िया लेखै बार न पार।

जब लग साँस सरीर में तब लग राम सँभार।

4. हरजी यहै विचारिया , साखी कहै कबीर।

भवसागर मैं जीव हैं , जे कोइ पकड़ै तीर।

5. ऐसी वाणी बोलिये , मन का आपा खोइ।

अपना तन सीतल करै , औरन को सुख होइ।

इन पद्यों के जिन शब्दों पर चिद्द बना दिये गये हैं वे पंजाबी या राजस्थानी हैं। इस प्रकार का प्रयोग कबीर साहब की रचनाओं में प्राय: मिलता है। ऐसे आकस्मिक प्रयोग उनकी मुख्य भाषा को संदिग्धा नहीं बनाते, क्योंकि जिस पद्य में किसी भाषा का मुख्य रूप सुरक्षित रहता है, उस पद्य में आये हुए अन्य भाषा के दो-एक शब्द एक प्रकार से उसी भाषा के अंग बन जाते हैं। अवधाी अथवा ब्रजभाषा में 'वाणी' को 'बानी' ही लिखा जाता है, क्योंकि इन दोनों भाषाओं में 'ण' का अभाव है। पंजाब प्रान्त के लेखक प्राय: 'न' के स्थान पर 'ण' प्रयोग कर देते हैं, क्योंकि उस प्रान्त में प्राय: नकार णकार हो जाता है। वे'बानी' को 'बाणी' 'आसन' को 'आसण' 'पवन' को 'पवण' इत्यादि ही बोलते और लिखते हैं। ऐसी अवस्था में यदि कबीर साहब के पद्यों में आये हुए नकार पंजाब के लेखकों की लेखनी द्वारा णकार बन जावें तो कोई आश्चर्य नहीं। आदि ग्रन्थ-साहब में भी देखा जाता है कि प्राय: कबीर साहब की रचनाओं के नकार ने णकार का स्वरूप ग्रहण कर लिया है, यद्यपि इस विशाल ग्रन्थ में उनकी भाषा अधिाकतर सुरक्षित है। इस प्रकार के साधाारण परिवर्तन का भी मुख्य भाषा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं में जहाँ ऐसा परिवर्तन दृष्टिगत हो, उसके विषय में यह न मान लेना चाहिए कि जो शब्द हिन्दी रूप में लिखा जा सकता था, उसको उन्होंने ही पंजाबी रूप में दिया है, वरन सच तो यह है कि उस परिवर्तन में पंजाबी लेखक की लेखनी की लीला ही दृष्टिगत होती है।

कबीर साहब कवि नहीं थे, वे भारत की जनता के सामने एक पीर के रूप में आये। उनके प्रधाान शिष्य धार्मदास कहते हैं-

आठवीं आरती पीर कहाये। मगहर अमी नदी बहाये।

मलूकदास कहते हैं-

तजि कासी मगहर गये दोऊ दीन के पीर 1

1. हिन्दुस्तानी, अक्टूबर सन् 1932, पृ. 451

झाँसी के शेख़ तक़ी ऊंजी और जौनपुर के पीर लोग जो काम उस समय * धार्म के प्रचार के लिए कर रहे थे,काशी में कबीर साहब लगभग वैसे ही कार्य में निरत थे। अन्तर केवल इतना ही था कि वे लोग हिन्दुओं को नाना रूप में * धार्म में दीक्षित कर रहे थे और कबीर साहब एक नवीन धार्म की रचना करके हिन्दू * को एक करने के लिए उद्योगशील थे। ठीक इसी समय यही कार्य बंगाल में हुसैन शाह कर रहे थे जो एक * पीर थे और जिसने अपने नवीन धार्म का नाम सत्यपीर रख लिया था। कबीर साहेब के समान वह भी हिन्दू *ों के एकीकरण में लग्न थे। उस समय भारतवर्ष में इन पीरों की बड़ी प्रतिष्ठा थी और वे बड़ी श्रध्दा की दृष्टि से देखे जाते थे। गुरु नानकदेव ने भी इन पीरों का नाम अपने इस वाक्य में 'सुणिये सिध्द-पीर सुरिनाथ' आदर से लिया है। जो पद उन्होंने सिध्द, नाथ और सूरि को दिया है वही पीर को भी। पहले आप पढ़ आये हैं कि उस समय सिध्दों का कितना महत्तव और प्रभाव था। नाथों का महत्तव भी गुरु गोरखनाथजी की चर्चा में प्रकट हो चुका है। सूरि जैनियों के आचार्य कहलाते थे और उस समय दक्षिण में उनकी महत्ताा भी कम नहीं थी। इन लोगों के साथ गुरु नानक देव ने जो पीर का नाम लिया है, इसके द्वारा उस समय इनकी कितनी महत्ताा थी, यह बात भली-भाँति प्रकट होती है। इस पीर नाम का सामना करने ही के लिए हिन्दू आचार्य उस समय गुरु नाम धाारण करने लग गये थे। इसका सूत्रापात गुरु गोरखनाथ जी ने किया था। गुरु नानकदेव के इस वाक्य में गुरु ईसर गुरु गोरख बरम्हा गुरु पारबती माई इसका संकेत है। गुरु नानक के सम्प्रदाय के आचार्यों के नाम के साथ जो गुरु शब्द का प्रयोग होता है, उसका उद्देश्य भी यही है। वास्तव में उस समय के हिन्दू आचार्यों को हिन्दू धार्म की रक्षा करने के लिए अनेक मार्ग ग्रहण करने पड़े थे। क्योंकि बिना इसके न तो हिन्दू धार्म सुरक्षित रह सकता था, न पीरों के सम्मुख उनको सफलता प्राप्त हो सकती थी। क्योंकि वे राजधार्म के प्रचारक थे। कबीर साहब की प्रतिभा विलक्षण थी और बुध्दि बड़ी ही प्रखर। उन्होंने इस बात को समझ लिया था। अतएव उन दोनों से भिन्न तीसरा मार्ग ग्रहण किया था। परन्तु कार्य उन्होंने वही किया जो उस समय * पीर कर रहे थे अर्थात् हिन्दुओं को किसी प्रकार हिन्दू धार्म से अलग करके अपने नव प्रवर्तित धार्म में आकर्षित कर लेना उनका उद्देश्य था। इस उद्देश्य-सिध्दि के लिए उन्होंने अपने को ईश्वर का दूत बतलाया और अपने ही मुख से अपने महत्तव की घोषण्ाा बड़ी ही सबल भाषा में की। निम्नलिखित पद्य इसके प्रमाण हैं-

काशी में हम प्रगट भये हैं रामानन्द चेताये।

समरथ का परवाना लाये हंस उबारन आये।

कबीर शब्दावली , प्रथम भाग पृ. 71

सोरह संख्य के आगे समरथ जिन जग मोहि पठाया

कबीर बीजक , पृ. 20

तेहि पीछे हम आइया सत्य शब्द के हेत।

कहते मोहिं भयल युग चारी

समझत नाहिं मोहि सुत नारी।

कह कबीर हम युग युग कही।

जबहीं चेतो तबहीं सही।

कबीर बीजक , पृ. 125, 592

जो कोई होय सत्य का किनका सो हमको पतिआई।

और न मिलै कोटि करि थाकै बहुरि काल घर जाई।

कबीर बीजक , पृ. 20

जम्बू द्वीप के तुम सब हंसा गहिलो शब्द हमार।

दास कबीरा अबकी दीहल निरगुन कै टकसार।

जहिया किरतिम ना हता धारती हता न नीर।

उतपति परलै ना हती तबकी कही कबीर।

ई जग तो जँहड़े गया भया योग ना भोग।

तिल तिल झारि कबीर लिय तिलठी झारै लोग।

कबीर बीजक , पृ. 80, 598, 632

सुर नर मुनि जन औलिया , यह सब उरली तीर।

अलह राम की गम नहीं , तहँ घर किया कबीर।

साखी संग्रह , पृ. 125

वे अपनी महत्ताा बतलाकर ही मौन नहीं हुए वरन हिन्दुओं के समस्त धाार्मिक ग्रन्थों और देवताओं की बहुत बड़ी कुत्सा भी की। इस प्रकार के उनके कुछ पद्य प्रमाण-स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं-

योग यज्ञ जप संयमा तीरथ ब्रतदाना

नवधाा वेद किताब है झूठे का बाना।

कबीर बीजक , पृ. 411

चार वेद षट् शा ò ऊ औ दश अष्ट पुरान।

आसा दै जग बाँधिाया तीनों लोक भुलान।

कबीर बीजक , पृ. 14

औ भूले षट दर्शन भाई। पाख्रड भेष रहा लपटाई।

ताकर हाल होय अघकूचा। छदर्शन में जौन बिगूचा।

कबीर बीजक , पृ. 97

ब्रह्मा बिस्नु महेसर कहिये इनसिर लागी काई।

इनहिं भरोसे मत कोइ रहियो इनहूँ मुक्ति न पाई।

कबीर शब्दावली , द्वितीय भाग , पृ. 19

माया ते मन ऊपजै मन ते दश अवतार।

ब्रह्म बिस्नु धाोखे गये भरम परा संसार।

कबीर बीजक , पृ. 650

चार वेद ब्रह्मा निज ठाना।

मुक्ति का मर्म उनहुँ नहिं जाना।

कबीर बीजक , पृ. 104

भगवान कृष्णचन्द्र और हिन्दू देवताओं के विषय में जैसे घृणित भाव उन्होंने फैलाये, उनके अनेक पद इसके प्रमाण हैं। परन्तु मैं उनको यहाँ उठाना नहीं चाहता, क्योंकि उन पदों में अश्लीलता की पराकाष्ठा है। उनकी रचनाओं में योग, निर्गुण-ब्रह्म और उपदेश एवं शिक्षा सम्बन्धाी बड़े हृदयग्राही वर्णन हैं। मेरा विचार है कि उन्होंने इस विषय में गुरु गोरखनाथ और उनके उत्ताराधिाकारी महात्माओं का बहुत कुछ अनुकरण किया है। गुरु गोरखनाथ का ज्ञानवाद और योगवाद ही कबीर साहब के निर्गुणवाद का स्वरूप ग्रहण करता है। मैं अपने इस कथन की पुष्टि के लिए गुरु गोरखनाथ की पूर्वोध्दाृत रचनाओं की ओर आप लोगों की दृष्टि फेरता हूँ और उनके समकालीन एवं उत्ताराधिाकारी नाथ सम्प्रदाय के आचार्यों की कुछ रचनाएँ भी नीचे लिखता हूँ-

1. थोड़ो खाय तो कलपै झलपै , घड़ों खाय तो रोगी।

दुहूँ पर वाकी संधिा विचारै , ते को बिरला जोगीड्ड

यहु संसार कुवधिा का खेत , जब लगि जीवै तब लगि चेत।

आख्याँ देखै काण सुणै , जैसा बाहै तैसा लुणैड्ड

- जलंधार नाथ

2. मारिबा तौ मनमीर मारिबा , लूटिबा पवन भँडार।

साधिाबा तौ पंचतत्ता साधिाबा , सेइबा तौ निरंजन निरंकार

माली लौं भल माली लौं , सींचै सहज कियारी।

उनमनि कलाएक पहूपनि , पाइले आवा गबन निवारीड्ड

- चौरंगी नाथ

3. आछै आछै महिरे मंडल कोई सूरा।

मारया मनुवाँ नएँ समझावै रे लोड्ड

देवता ने दाणवां एणे मनवैं व्याह्या।

मनवा ने कोई ल्यावैं रे लोड्ड

जोति देखि देखो पड़ेरे पतंगा।

नादै लीन कुरंगा रे लोड्ड

एहि रस लुब्धाी मैगल मातो।

स्वादि पुरुष तैं भौंरा रे लोड्ड

- कणोरी पाव

4. किसका बेटा किसकी बहू , आपसवारथ मिलिया सहू।

जेता पूला तेती आल , चरपट कहै सब आल जंजालड्ड

चरपट चीर चक्रमन कंथा , चित्ता चमाऊँ करना।

ऐसी करनी करो रे अवधाू , ज्यो बहुरि न होई मरनाड्ड

- चरपट नाथ

5. साधाी सूधाी के गुरु मेरे , बाई सूंव्यंद गगन मैं फेरे।

मनका बाकुल चिड़ियाँ बोलै , साधाी ऊपर क्यों मन डोलैंड्ड

बाई बंधया सयल जग , बाई किनहुं न बंधा।

बाइबिहूण ढहिपरै , जोरै कोई न संधिाड्ड

- चुणाकर नाथ

कहा जा सकता है कि ये नाथ सम्प्रदाय वाले कबीर साहब के बाद के हैं। इसलिए कबीर साहब की रचनाओं से स्वयं उनकी रचनाएँ प्रभावित हैं न कि इनकी रचनाओं का प्रभाव कबीर साहब की रचनाओं पर पड़ा है। इस तर्क के निराकरण्ा के लिए मैं प्रकट कर देना चाहता हूँ कि जलंधार नाथ मछंदर नाथ के गुरुभाई थे जो गोरखनाथ जी के गुरु थे! चौरंगीनाथ गोरखनाथ के गुरु-भाई, कणेरीपाव जलंधारनाथ के और चरपटनाथ मछन्दरनाथ के शिष्य थे। चुणाककरनाथ भी इन्हीं के समकालीन थे1। इसलिए इन लोगों का कबीर साहब से पहले होना स्पष्ट है। कबीर साहब की रचनाओं पर, विशेष कर उन रचनाओं पर, जो रहस्यवाद से सम्बन्धा रखती हैं, बौध्द धार्म के उन सिध्दों की रचनाओं का बहुत बड़ा प्रभाव देखा जाता है,जिनका आविर्भाव उनसे सैकड़ों वर्ष पहले हुआ। कबीर साहब की बहुत-सी रचनाएँ ऐसी हैं जिनका दो अर्थ होता है। मेरे इस कहने का यह प्रयोजन है कि ऐसी कविताओं के वाच्यार्थ से भिन्न दूसरे अर्थ प्राय: किये जाते हैं। जैसे-

1. देखिए नागरी प्रचारिणी पत्रिाका भाग 11, अंक 4 में प्रकाशित 'योग-प्रवाह' नामक लेख।

घर घर मुसरी मंगल गावै , कछुवा संख बजावै।

पहिरि चोलना गदहा नाचै , भैंसा भगत करावैड्ड

इत्यादि। इन शब्दों का वाच्यार्थ बहुत स्पष्ट है, किन्तु यदि वाच्यार्थ ही उसका वास्तविक अर्थ मान लिया जाय तो वह बिलकुल निरर्थक हो जाता है। ऐसी अवस्था में दूसरा अर्थ करके उसकी निरर्थकता दूर की जाती है। बौध्द सिध्दों की भी ऐसी द्वयर्थक अनेक रचनाएँ हैं। मेरा विचार है कि कबीर साहब की इस प्रकार की जितनी रचनाएँ हैं, वे सिध्दों की रचनाओं के अनुकरण से लिखी गई हैं। सिध्दों ने योग और ज्ञान सम्बन्धाी बातें भी अपने ढंग से कही हैं। उनकी अनेक रचनाओं पर उनका प्रभाव भी देखा जाता है। जून सन् 1931 की सरस्वती के अंक में प्रकाशित चौरासी सिध्द नामक लेख में बहुत कुछ प्रकाश इस विषय पर डाला गया है। विषय-बोधा के लिए उसका कुछ अंश मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ-

''इन सिध्दों की कविताएँ एक विचित्रा आशय की भाषा को लेकर होती हैं। इस भाषा को संध्या भाषा कहते हैं, जिसका अर्थ ऍंधेरे (वाम मार्ग) में तथा उँजाले (ज्ञान मार्ग, निर्गुण) दोनों में लग सके। संध्या भाषा को आजकल के छाया वाद या रहस्यवाद की भाषा समझ सकते हैं।''

''भावना और शब्द-साखी में कबीर से लेकर राधाास्वामी तक के सभी सन्त चौरासी सिध्दों के ही वंशज कहे जा सकते हैं। कबीर का प्रभाव जैसे दूसरे संतों पर पड़ा और फिर उन्होंने अपनी अगली पीढ़ी पर जैसे प्रभाव डाला, इसको शृंखलाबध्द करना कठिन नहीं है। परन्तु कबीर का सम्बन्धा सिध्दों से मिलाना उतना आसान नहीं है, यद्यपि भावनाएँ, रहस्योक्तियाँ, उल्टी बोलियों की समानताएँ बहुत स्पष्ट हैं।''

इसी सिलसिले में सिध्दों की रचनाएँ भी देख लीजिए-

मूल

1. निसि अंधाारी सुसार चारा।

अमिय भखअ मूषा करअ अहारा।

मार रे जोइया मूषा पवना।

जेण तृटअ अवणा गवणा।

भव विदारअ मूसा रवण अगति।

चंचल मूसा कलियाँ नाश करवाती।

काला मूसा ऊहण बाण।

गअणे उठि चरअ अमण धााण।

तब से मूषा उंचल पाँचल।

सद्गुरु वोहे करिह सुनिच्चल।

जबे मूषा एरचा तूटअ।

भुसुक भणअ तबै बांधान फिटअ।

- भुसुक

छाया

निसि ऍंधिायारी सँसारा सँचारा।

अमिय भक्ख मूसा करत अहारा।

मार रे जोगिया मूसा पवना।

जेहिते टूटै अवना गवना।

भव विदार मूसा खनै खाता।

चंचल मूसा करि नाश जाता।

काला मूसा उरधा नवन।

गगने दीठि करै मन बिनु धयान।

तबसो मूसा चंचल वंचल।

सतगुरु बोधो करु सो निहचल।

जबहिं मूसा आचार टूटइ।

भुसुक भनत तब बन्धान पू फाटइ।

मूल

जयि तुज्झे भुसुक अहेइ जाइबें मारि हसि पंच जना।

नलिनी बन पइसन्ते होहिसि एकुमणा।

जीवन्ते भेला बिहणि मयेलण अणि।

हण बिनु मासे भुसुक प िर्बंन पइ सहिणि।

माआ जाल पसरयो ऊरे बाधोलि माया हरिणि।

सद गुरु बोहें बूझिे कासूं कहिनि।

- भुसुक

छाया

जो तोहिं भुसुक जाना मारहु पंच जना।

नलिनी बन पइसंते होहिसि एक मना।

जीवत भइल बिहान मरि गइल रजनी।

हाड़ बिनु मासे भुसुक पदम बन पइसयि।

माया जाल पसारे ऊरे बाँधोलि माया हरिणी।

सदगुरु बोधो बूझी कासों कथनी।

- भुसुक

अणिमिषि लोअण चित्ता निरोधो पवन णिरुहइ सिरिगुरु बोहें

पवन बहइ सो निश्चल जब्बें जोइ कालु करइ किरेतब्बें।

छाया

अनिमिष लोचन चित्ता निरोधाइ श्री गुरु बोधो।

पवन बहै सो निश्चल जबै जोगी काल करै का तबै।

- सरहपा

मूल-

आगम बेअ पुराणे पंडिउ मान बहन्ति।

पक्कसिरी फल अलिअ जिमि बाहेरित भ्रमयंति।

अर्थ : आगम वेद पुराण में पंडित अभिमान करते हैं। पके श्री फल के बाहर जैसे भ्रमर भ्रमण करते हैं। करहपा1

कबीर साहब स्वामी रामानन्द के चेले और वैष्णव धार्मावलम्बी बतलाये जातेहैं। उन्होंने इस बात को स्वीकार किया है वे कहते हैं-'कबीर गुरु बनारसी सिक्ख समुन्दर तीर'। उन्होंने वैष्णवत्व का पक्ष लेकर शाक्तों को खरी-खोटी भी सुनाई है।-यथा
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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Messages In This Thread
REसाहित्य - by neerathemall - 01-08-2019, 03:29 AM
RE: हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है - by neerathemall - 01-08-2019, 03:33 AM



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